चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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शिक्षा,व्यवस्था वाया रागदरबारी/राकेश बाजिया
भूमंडलीकरण के दौर में जब समूचे विश्व को गांव जैसी संस्था का आकार देने के सपने देखे जा रहे हैं, तब रागदरबारी जैसा उपन्यास जो की ‘प्रेमचंद’ और ‘गांधी’ के सपनों के गांवों की भयावह तस्वीर पेश करता है, एक बार पुनः प्रासंगिक हो जाता है. जिसमें वास्तविकता के उस दर्शन का चरम है, जिसके चलते आज देश की कितनी ही योग्य प्रतिभाओं को व्यवस्था की मार ने बेरोजगार बना रखा है।
रागदरबारी के बारे में प्रश्न उठाते नित्यानंद तिवारी अपने लेख ‘रागदरबारी व्यंग्य दृष्टि या व्यंग्य लीला’ में लिखते हैं की “इसकी विषयवस्तु में वास्तविकता है, लेकिन कथा में जो चित्र, दृश्य अथवा घटनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं, हो सकता है वे देखने में वास्तविक लगें लेकिन लेखकीय धर्म का निर्वाह न होने के कारण संभव है, वे अपनी वास्तविकता की संभावित शक्ति को खो दें ?” पर आज का सुधि पाठक कल्पना और वास्तविकता में किससे ज्यादा और कहाँ तक जुड़ता है यह देखने वाली बात है । वरना चंद्रकांता के ना जाने कितने सीरीज अब तक निकल चुके होते और निकल रहे होते। वास्तविकता से ज्यादा दूर की चीज़ ना होने पर ही यह संभव हुआ नज़र आता है, की बहुसंख्यक पाठक वर्ग ही नहीं जिसके बीच यह लोकप्रिय है। बल्कि रागदरबारी का पठन-पाठन भी उसी रूप में हो रहा है।
तिवारी जी अपने लेख में ‘रागदरबारी’ के एक ख़ास तरह के वर्णन करने वाले ‘ढब’ को रेखांकित करते हैं। जो पाठक का ध्यान आकर्षित करता है। पर गौर करने वाली बात है, यदि ‘वर्णन का यह ‘ढब’ बलाघात करता है, तो अधिकतर समीक्षाओं में रागदरबारी के अवतरण ज्यों के त्यों बहुत बड़ी मात्रा में उतारने से बचा क्यों नहीं गया’ ? ‘रागदरबारी’ की यही शैली हर जगह अपना खास आकर्षण लिए हुए है। और यही वजह है की पाठक उससे चिपक सा जाता है। आज जहाँ शिवपालगंज जैसे गाँव, कस्बे भी हैं तो उनके ‘घनत्व’ के हिसाब से वैधजी, सनीचर और लंगड़ भी विद्यमान हैं। अपनी इसी वास्तविकता के नज़दीक होने से रागदरबारी समीक्षा के क्षेत्र में भी कई प्रश्न खड़े करता है।
छोटे पहलवान और उनके पिता के संबंधों पर पंचायत में उनकी पेशी के जरिये गंजहेपन की विशेष व्याख्या करते हुए सुधीश पचौरी शिवपालगंज और उसके वासी गंजहों की ‘पर्सनल’ दुनिया से अवगत करवाते हैं। एक प्रसंग में छोटे पहलवान बाप से चिढ़े हैं बाप कहता है “पूछ लो श्रवण कुमार से” बेटा कहता है “यहाँ श्रवण कुमार के बाप का नाम भी श्रवण कुमार ही है। इस खानदान में सब साले श्रवण कुमार ही तो पैदा होते आए हैं।” पंच ने उन्हें टोका , “गाली-गलोच मत करो पहलवान ! उससे अदालत की तौहीन होती है।” छोटे ने कहा साले कहना कोई गाली नहीं है। जब एक पंच ने फिर जोर दिया की साले कहना अपराध है। तो छोटे ने असल गंजहापन दिखाया “असली गाली अभी तुमने सुनी नहीं है पंडित जी ! घुस जाति है तो कलेजा छिल जाता है। यह एकदम निजी यथार्थ है, निजी है इसलिए शारीरिक हैं, हर वक्त निजता में रहना स्वायत्ता को नष्ट करना है। इस शारीरिक निजता में छिपाने को कुछ भी नहीं है। बिलकुल खुला खेल ! तो क्या बदले हुए चरित्रों के बीच यह ‘महारास’ का आधुनिक रूप है ?
छोटे पहलवान वल्द कुशहर प्रसाद के पंचायती मुक़दमे का फैसला कुछ यूँ होता है, की सरपंच छोटे के पिता कुशहर प्रसाद पर बुढ़ापे में इश्क़बाजी का आरोप लगाते हैं। उनपर सच्चे मुकदमे 'पंच परमेश्वरत्व' का भूत सवार हो जाता है, वे कह बैठते हैं की गांव वाले कहते हैं कुशहर किसी से कम नहीं है। कुशहर को यह अपमान ओंधा कर देता है। वे दीन हो जाते हैं। छोटे की और आशा से देखते हैं जो अब तक उन्हें गाली दे रहा था ! 'छोटे की भोंहें टेढ़ी हो गयीं थीं ,होंठ खिंच गए थे .वह अपनी जगह पर खड़ा हो गया और सरपंच से बोला "ऐ चिमरीखीदास ! चायं चायं बंद करो एक पटाक से कंटाप पड़ेगा तो ये मिशील बिशील लिए जमीन में घुस जाओगे। दो घंटे हो गए कब से देखे जा रहा हूँ, घुमा फ़िर के हमारे बाप को हरामी बता रहे हो। हमारे बाप हरामी हैं, तो तुम्हारे बाप क्या हैं ? ....मैं अभी मर नहीं गया हूँ, अब कोई असल बाप का हो तो हमारे बाप को गाली दे।”
इतना होने भर की देर थी की सब खत्म। इसी को पर्सनल दुनिया पचौरी बताते हैं जहाँ 'चिट भी मेरी पट्ट भी मेरी।' अपने हितों का भलीभांति ज्ञान गंजहे को रहता है। और चाहे जैसे वह इसे तय करता है। वे पंचायत के बुलाने पर जाते भी हैं, पर अंत बड़ा अद्भुत होता है। तभी पचौरी बार बार पलायन संगीत पर जोर देकर इसे विनोदपूर्ण किन्तु भयानक सत्य करार देते हैं।
यहाँ गंजहे होना यूँ ही ना होकर बड़े गर्व की बात है इसके सिरमौर सनीचर हैं, छोटे पहलवान और जोगनाथ हैं। तो बद्री और प्रिंसिपल भी हैं। कुलमिलाकर ढूंढने पर भी ऐसे नायब चरित्र नहीं मिलते। ये लोग गंजहे होने की अपनी बहादुरी को चरितार्थ करने में कहीं भी पीछे नहीं हटते।
लंगड़ के प्रसंग में रंगनाथ पर उसके इतिहास का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है, और वह भावुक हो जाता है। भावुक होते ही 'कुछ करना चाहिए' की भावना उसके मन को मथने लगी। पर क्या करना चाहिए इसका जवाब उसके पास नहीं था। जो भी हो भीतर ही भीतर जब बात बर्दाश्त के बाहर होने लगी तो उसने भुनभुनाकर कह ही दिया "यह सब बहुत गलत है ....कुछ करना चाहिए!" क्लर्क ने शिकारी कुत्ते की तरह यह बात दबोच ली। बोला "क्या कर सकते हो रंगनाथ बाबू ? कोई क्या कर सकता है ? जिसके छीलता है उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुःख दर्द ढो लें यही बहुत है। दूसरे का बोझ कौन उठा सकता है ? अब तो वही है भैया की तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ हम अपना इधर से खुजलाएं।"
रागदरबारी इन 'दादों' से परिचय भलीभांति करवाता है। लेकिन जिसे श्री लाल शुक्ल 'शिकारी कुत्ते' की संज्ञा से नवाजते हैं, उसी के श्रीमुख से बड़ी और वास्तविक बातें कैसे कहलवा देते हैं ? यह देखने वाली बात है। जहाँ हर पात्र के आने पर उसकी अपनी कहानी श्रीलाल शुक्ल की जबरदस्त किस्सागोई का अनुपम उदहारण है, वहीँ इस तरह पात्रों को संचालित करने से उनके पात्र शंका के पात्र बन जाते हैं। जबकि 'पात्र किसी रचना को आगे बढ़ाते हैं और अपने हिसाब से चलाते हैं तो रचना कालजयी हो सकती है' यही कारण है की वे समस्याओं से बखूबी परिचय करवाने के बाद भी समाधान के बिंदु नहीं तलाश पाते।
गाँवों की वह छाया रागदरबारी में मिलती है जहाँ एक से एक विद्वान भरे पड़े हैं पर वे अपनी विद्वता के झंडे गाड़ने कहीं नहीं जाएंगे। साथ ही आधी आबादी का जिक्र उसमे मिलता तो है पर सिर्फ पुरातत्व के विद्यार्थी की मूर्तियों की समझ में, अथवा दबाव महसूस होने पर कोणार्क, खजुराहो के सपनों में बाकी जिस बेला का चरित्र उन्होंने गढा है। उसके दर्शन करवाने में भी उपन्यासकार असफल से नज़र आते हैं।
गंजहे होना अपने सही अर्थों में 'ढीट' होना ज्यादा लगता है। जिन्हें किसी भी अनैतिक कार्य को करके भी कुछ अनैतिक नहीं लगता। पचौरी जिन्हें वास्तविक पात्र कहते हैं। और गंजहेपन के सिरमौर करार देते हैं। सनीचर, छोटे पहलवान, प्रिंसिपल, जोगनाथ आदि वास्तव में 'ढीटों' के सिरमौर कहे जाने योग्य हैं।
मुफ्त पकोड़ा भोज के प्रसंग में दुकानदार के कहने पर की इन्होने बर्फी खाई और पैसे नहीं दे रहे तो ...सनीचर बोला "सच्ची बात बोलो लाला तुम कहते हो की हमने अट्ठन्नी की बर्फी खाई तो हम कहते हैं खाई तुम कहते हो की हमने अट्ठन्नी नहीं दी तो हम कहते हैं हमने दी" इधर 'असल झगड़ा अठन्नी का नहीं है उधर पहलवान की और से है। ये गंजहे जब अठन्नी के लिए झाँय झाँय कर रहे थे तो उधर से पहलवान बोले की भाई ! इस झगड़े में हमारा दिया हुआ रुपया ना भूल जाना।' अब इनके मुह कौन लगे ? यह ‘ढीढपण’ नहीं तो और क्या है 'सच पूछो तो हर गांव का यही हाल है।' को आधार बनाकर पाठीयता के चलते यदि पचौरी इतिहास से अनभिज्ञ होते तो वे प्रेमचंद के गांवों को कैसे झुठला पाते ? जो उन्होंने एक 'अनिवार्य टेक्स्ट' के माध्यम से झुठलाने का प्रयास किया।
रंगनाथ वैद्य जी का भांजा है। "लगभग प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय की तरह वह अपने से असम्बद्ध प्रत्येक घटना को घटना ही की तरह देखता और उसे भूल जाता। और बाद में उसके बारे में परेशान ना होता था। इतिहास पढ़ चुकने के कारण उसे राजनितिक और सामजिक शोषण और उत्पीड़न की बहुत सी कहानियां आती थीं। पर उसके दिमाग में कभी यह ना आया की वह भी इस इतिहास का एक हिस्सा है और अगर चाहे तो इतिहास को बना बिगाड़ सकता है। वह देश के पिच्चानवे प्रतिशत बुद्धिजीवियों में था। जिनकी बुद्धि उनको आत्मतोष देती है, उन्हें बहस करने की तमीज सिखाती है, दूसरों को क्या करना चाहिए इसपर उनसे भाषण कराती है। और न करने के मामले में कुछ उनकी भी जिम्मेदारी है। इस बेहूदा विचार को उनसे कोसों दूर रखती है।"
इतिहास का जानकार होकर उससे अनभिज्ञ बने रहना कहाँ तक समझदारी है ? रंगनाथ के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल इस प्रश्न से अच्छी तरह अवगत करवाने का प्रयास करते हैं। रंगनाथ जो की इतिहास का हिस्सा होकर भी खुद को इससे अलग समझता है और सोचता है की मैं इनमें से नहीं हूँ। पर उसके साथ ही रुप्पन है, जो खुद को इन्हीं में से एक और इसी का हिस्सा मानता है। इसलिए उसे बदलने की कोशिश करते हुए हार जाता है।
आधुनिकता के चिन्ह रागदरबारी में साफ़ दिखाई पड़ते हैं सड़क है, स्कूल है, थाना है, पास में शहर है, बाज़ार है, कचहरी है, और परिवार नियोजन है। अधिक अन्न उपजाऊ हरित क्रान्ति का नारा है। लेकिन ये चिन्ह निर्णायक नहीं। निर्णायक है भाग लंगोट और लट्ठ। निर्णायक शिक्षा का इंस्पेक्टर नहीं है। निर्णायक है वैध जी और उनकी वीर्यवर्धक गोली। क्योंकि रंगनाथ के विरोध पर प्रिसिपल साहब का कहना है की "बाबू रंगनाथ ,तुम्हारे विचार बहुत ऊँचे हैं। पर कुलमिलाकर उससे यही साबित होता है की तुम गधे हो।" ये विचार साफ़ दर्शाते हैं की यहाँ तो आगे भी यही होना है, वैसे भी "वर्तमान शिक्षा पद्धति सड़क पर पड़ी वह कुतिया है जिसे कोई भी लात मार कर चला जाता है।" यहाँ रागदरबारी के इस शुरूआती वाक्य को मात्र हंसकर टाला नहीं जा सकता। इसके पीछे लेखक की विश्व दृष्टि थी। जो वर्तमान शिक्षा पद्धति की परतें उधेड़ती है और सवाल करती है की आज भी कितने ऐसे कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं जहां खन्ना मास्टर और ऐसे प्रिंसिपल नहीं हैं ?
"रात को पिछले पहर वैद्य जी को जड़ा महसूस हुआ और उनकी नींद उचट गयी। चव्यनप्राश, स्वर्णभश्म और बदामपाक इत्यादि की मिली जुली किलेबंदी को तोड़कर जाड़ा उनकी खाल के भीतर घुस आया और मांस की मोटी तहों को भेदता हुआ हड्डियों की मज्जा तक जा पहुंचा, उन्होंने लिहाफ अच्छी तरह से लपेटने की कोशिश की और उसी के साथ याद किया की अकेले लेटने से बिस्तर ज्यादा ठंडा रहता है, इस याद के बाद यादों का एक तांता सा लग जाता है। जिसका व्यवहारिक लाभ यह हुआ की उन्हें तन्द्रा ने घेर लिया। थोड़ी देर शान्ति रही पर कुछ देर बाद ही पेट के अंदर हवा ने क्रांति मचानी शुरू कर दी। जिस्म के ऊपरी और निचले हिस्सों से वह बार बार विस्फोटक आवाज़ों में निकलने लगी। उन्होंने लिहाफ दबाकर करवट बदली और अंत में क्रांति का एक अंतिम विस्फोट सुनते हुए वे फिर तंद्रालीन हो गए। देखते देखते क्रान्ति की हवा कुतिया की तरह दम हिलाते हुए सिर्फ उनके नथनों से खर्राटों के रूप में आने जाने लगी। वे सो गए तब उन्होंने प्रजातंत्र का सपना देखा।" यहाँ प्रजातंत्र के जिस रूप का चित्रण श्री लाल शुक्ल करते हैं, जिसकी दुर्दशा का कारण वैद्य जी हैं फिर समाधान लेने भी उन्हीं के पास आया है। यहाँ बौद्धिक वैध जी विचारों के पश्चात सचमुच बैठक बुलवाने जैसा कार्य करते हैं। इस प्रकार के प्रसंगों से रसिकता का आरोप लेखक पर लगता नज़र आता है, की आनंद के अतिरिक्त स्वाद हेतु ऐसे तड़के बार बार लगाते हैं। पर ऐसी सधी हुई भाषा जिसमें अधिकतर बातें दो टूक कही गयीं हों कम ही मिलती है। आज बच्चे से लेकर बड़े तक को रोष प्रकट करते देखा जा सकता है। या जूतों से बात करते हुए भी देख सकते हैं। पर समाचार पत्रों से इतर इस तरह की भाषा शायद ही अन्यत्र मिलती हो जिसके हर एक प्रसंग में बड़े विनोदपूर्ण ढंग से कड़ी बातों का समावेश है। यह ढूंढने पर ही ज्ञात होने वाली चीज़ है।
भाषा का एक दूसरा रूप भी यहाँ है। एक प्रसंग में "लंगड़ ने जोर से सांस खींची और आँखे मूँद ली जो की आत्मदया से पीड़ित व्यक्तियों से लेकर, ज्यादा खा जानेवालों तक में भाव प्रदर्शन की एक बड़ी ही लोकप्रिय मुद्रा मानी जाती है। सनीचर ने उसे छोड़ दिया और एक ऐसी बन्दरछाप छलांग लगा कर, जो डार्विन के विकासवादी सिद्धांत की पुष्टि करती थी। बैठक के भीतरी हिस्से पर हमला किया।” शैली का ऐसा अनोखापन जहाँ एक एक वर्णन में गंभीरता के साथ विनोद और वैज्ञानिक शब्दावली का पुट हो तो तय करना मुश्किल हो जाता है की रागदरबारी की भाषा को वर्णन का मात्र 'ढब' कहना उचित है या उसमे कुछ दुसरे बिन्दुओं की तलाश भी की जा सकती है।
रागदरबारी कई प्रश्नों की मांग करता है। जहाँ यह कहना की १९३६ के 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या !' अड़सठ तक आते आते इतनी गंभीर स्थीति में पहुँच गया था। तो आज २०१६ में स्थिति क्या होगी हम सोच सकते हैं ? या 'ढीढ' पात्रों को रचना के केंद्र में रखने से यह भयानक गांव के दर्शन करवा रहा है। साथ ही कमजोर बिंदु के रूप में 'वस्तु' की उपस्थिति न होने की बात रागदरबारी के सम्बन्ध में कही जा चुकी है। ऐसे में यह सवाल जरूरी बन जाता है की क्या दुखद होना ही 'वस्तु' होने को निर्धारित करता है। यदि सचमुच ऐसा है तो शेक्सपियर की कृतियों का 'औचित्य' क्या है ? किसी सुखद कथा में कहीं परिपार्श्व उभारने का प्रयास करना व्यर्थ है ? और यह कैसे तय किया जा सकता है की यदि यह दुखद रचना होती तो इसमें निश्चित तौर पर 'वस्तु' का समावेश होता। इन सभी प्रश्नों के साथ 'अपठित रह जाना ही इसकी नियति है' की उक्ति को उलटने वाला यह उपन्यास आज हिंदी की कृतियों में सर्वाधिक मांग वाला स्थान रखता है।और चेलैंज करता है की इसके हर प्रसंग में आप मुस्कुराने के साथ सोचे बिना नहीं रह सकते। खासकर इस समय में जब व्यवस्था द्वारा पाठ्यक्रमों में पुनः बदलाव किये जा रहे हैं।और विद्यार्थियों के बेहतर सीखने हेतु इस क्रम में वैदिक गणित तक का समावेश पाठ्यपुस्तकों में हो रहा है, जिसमें मंदिर के घण्टे के जरिये धातु सीखने का प्रयोजन है।
संदर्भ-
रागदरबारी -श्रीलाल शुक्ल राजकमल प्रकाशन तीसरी आवृति २०१२
रागदरबारी व्यंग्य दृष्टि या व्यंग्य लीला (?) - नित्यानंद तिवारी
उत्तर यथार्थवाद सदी के आखिरी दिनों की चकाचक उत्तरआधुनिक दशाएं पढ़ पाने में असमर्थ लोगों के लिए रागदरबारी एक अनिवार्य टेक्स्ट है- सुधीश पचौरी
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