आलेखमाला:राजनीतिजनित साम्प्रदायिकता की पड़ताल और ‘तमस’ –दीपक कुमार

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेखमाला:राजनीतिजनित साम्प्रदायिकता की पड़ताल और ‘तमस’ –दीपक कुमार

                ’न सिर्फ सांप्रदायिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उल्लेखनीय उपन्यास है  बल्कि वो साम्प्रदायिकता के पीछे की राजनैतिक पृष्ठभूमि की पड़ताल करने वाला और उसे रचनात्मक रूप में प्रस्तुत करने वाला अपने आप में एक अनूठा उपन्यास है। सामान्य रूप से लोक में तमसका जो अर्थ किया जाता है वो है- अँधेराया अन्धकार। अब अगर हम उपन्यास के सन्दर्भ में इस अर्थ को देखें तो एक सवाल खड़ा होता है कि भीष्म साहनी जी ने अपने उपन्यास का नाम तमस’ (अँधेरा या अंधकार) ही क्यों रखा? क्या इसका प्रयोग साहनी जी ने उसी लोकप्रचलित अर्थ में किया है या फिर इसके पीछे कोई और कारण है। संस्कृत-हिंदी कोष में तमसका अर्थ है- तम- संज्ञा पुलिंग(संज्ञा-तमस), १.अन्धकार, अँधेरा  २. राहू ३. बाराह, सुअर ४. पाप ५. क्रोध ६. अज्ञान ७. कालिख, कालिमा ८. नरक ९. मोह १०. सांख्य में प्रकृति का तीसरा गुण जिससे काम, क्रोध और हिंसा आदि उत्पन्न होते हैं।’ ‘तमसका एक अर्थ है सुअर और उपन्यास की शुरुआत भी सुअर मारने के प्रसंग से ही होती है। जब मुराद अली नत्थू को सलोत्तरी साहब के नाम पर उसे सूअर मारने के लिए कहता है हमारे सलोत्तरी साहब को एक मरा हुआ सूअर चाहिए, डाक्टरी काम के लिए। मुराद अली ने नत्थू से कहा था जब वह खाल साफ़ कर चुकने के बाद नल पर हाथ-मुंह धो रहा था.


'तमस अब अगर हम तमसका अर्थ सांख्य दर्शन में प्रकृति के तीसरे गुण के रूप में करें तो कुछ बातें स्पष्ट होकर निकलती हैं। उस समय जो माहौल था उसमें कामोत्तेजना भी थी जो बलात्कार की शक्ल में नजर आती है, क्रोध भी है जो भिन्न-भिन्न रूप में नजर आता है, हिंसा तो साम्प्रदायिकता का स्थायी भाव है। इनमे से प्रथम दो तो स्वाभाविक क्रियायें हैं और अंतिम क्रिया प्रतिक्रिया स्वरुप होती है। जैसे उपन्यास में सूअर मारने का काम नत्थू को जब सौंपा जाता है तो प्रथमतया इस कार्य को करने से मना कर देता है लेकिन बाद में तैयार हो जाता है। यहाँ पर नत्थू की आर्थिक स्थिति उसे ऐसा करने के लिए विवश करती है। लेकिन उसे क्या पता था कि मुराद अली उससे सूअर क्यों मरवा रहा है? बाद में वही मरा हुआ सूअर मस्जिद की सीढ़ियों पर पाया जाता है जिसे लेकर बवाल मचता है। ये एक सोंची समझी साजिश थी जो मुराद अली ने अपने राजनैतिक आकाओं के कहने पर रची थी। सूअर को मरवाना और उसे मस्जिद के सामने फिंकवाना एक क्रिया है जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप हिंसा भड़कती है। दरअसल एक कहावत है अंधेर मचनाया अंधेरगर्दी’. जब समाज विवेकशून्य हो जाता है और राजनैतिक बहाव में बहने लगता है तब उसे ये पता नहीं होता कि वो क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है। यह उपन्यास समाज की इसी विवेकशून्यता और राजनैतिक प्रभाव में बहते जाने की गाथा है। ये जो अंधकार है वो समाज के विवेकहीनता का परिचायक है. इस उपन्यास में ये सारे अर्थ अलग-अलग अभिप्रायों के साथ दृष्टव्य होते हैं, अपने लोकप्रचलित अंधकार से लेकर सांख्य के गुणतक के सारे अभिप्राय तमसमें फैले हुए हैं।

                                विभाजन से पूर्व भारतीय समाज जिस शक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था वो है उपनिवेशऔर उससे लड़ने के लिए जिस शक्ति का आग्रह कर रहा था वो थी साम्यवाद। औपनिवेशिक शक्तियां ये जानती थी कि समाज में इस शक्ति का प्रभाव बढ़ा तो उसके अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसे रोकने के लिए आवश्यक था समाज को उस शक्ति से विमुख करना, जिसके लिए समाज के भीतर उनके अपने अस्तित्व के खतरे का डर पैठाया गया। यहाँ सिर्फ औपनिवेशिक शक्ति ही यह नहीं चाहती थी बल्कि वो शक्तियां भी काम कर रही थीं जो वर्षों से समाज पर अपना आधिपत्य रखे हुए थीं। वो जानती थी कि साम्यवादी तरीके से आजादी मिली तो उनका आधिपत्य ख़त्म हो जायेगा, इसीलिए उन्होंने फूट की नीति अपनाई ताकि लोगों का ध्यान असल मुद्दे से हट कर अपने ही अस्तित्व के खतरे में उलझ जाये। अपने विरोधी से लड़ने के बजाय खुद से ही लड़ने में उलझ जाये। यहाँ उपन्यास के प्रारंभ को देखना अतिआवश्यक है- आले में रखे दिए ने फिर से झपकी ली. ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुयी थीं। जब-जब वहां से हवा का झोंका आता, दिए की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर के बाद बत्ती अपने-आप सीधे हो जाती और उसमे से उठने वाली धुएं की लकीर आले को चाटती हुयी फिर से ऊपर की ओर सीधे रूख जाने लगती। नत्थू का सांस धौंकनी की तरह चल रहा था और उसे लगा जैसे उसके सांस के ही कारण दिए की बत्ती झपकने लगी।

                उपर्युक्त वाक्यांश को उपनिवेश और जनवादी चेतना के संघर्ष रूप में देखा जाये जिसे राजनैतिक शक्तियां रोकना चाहती थीं और उसके लिए वे क्या कर रही थीं तो उसे इस रूप में देखा जा सकता है। तमस (उपनिवेश) से संघर्ष करने वाला दीया (जनवादी चेतना) बाहरी हवा (वित्तीय पूँजी) के झोंका (निवेश) से झपकी लेता (अवरूद्ध होता है) है और नत्थू (जनवादी जमात) इस भ्रम में पड़ जाता है (भ्रम में डाला जाता है) कि उसकी सांस (जीने की शर्त) और दीये की बाती आपस में टकरा रही है। बाह्य और आतंरिक उपनिवेश अर्थात तमस से मुक्ति की चेष्टा अंतर्घात से जूझती रही.३ यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि तमस साम्प्रदायिकता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास नहीं है बल्कि इसमें उस पृष्ठभूमि की अभिव्यक्ति भी हुई है जिसकी वजह से साम्प्रदायिकता की आग भड़कती है। आज भी हम उसकी ताप महसूस कर सकते हैं। उन्मुक्त बाजार और बेलगाम पूँजी किस तरह से समाज को तोड़ रही है ये किसी से छुपा नहीं है, साथ ही सत्ता का उससे गंठजोड़ भी प्रत्यक्ष है।
         देश के विभाजन के पूर्व और विभाजन के पश्चात किस तरह की शक्तियां कार्य कर रही थीं इसकी गहरी पड़ताल साहनी जी ने अपने उपन्यास और उसके चरित्रों के माध्यम से किया है। साहनी जी की वस्तु और चरित्र रचना के केंद्र में उनकी ऐतिहासिक समझ है जो परिस्थिति और परिवेश के अंतर्विरोधों को सामने रखती है.४ किसी भी रचनाकार को उसके अपने समय की राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी सूक्ष्म रूप में होनी चाहिए तभी जाकर वो अपनी रचना के साथ न्याय कर पाता है, खासकर तब जब रचना किसी ऐतिहासिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि पर की गयी हो। किस प्रकार राजनीति समाज में व्याप्त छोटे बड़े मतभेदों का इस्तेमाल करती है इसका उल्लेख साहनी जी ने स्वयं किया है अंग्रेजों ने पहली बार व्यापक स्तर पर इन मतभेदों को भारतवासियों के खिलाफ एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया और हमारी विडंबना इस बात में रही कि हमने उनकी कूटनीति को जानते-समझते हुए भी धर्म के नाम पर भड़क उठे देश के दो टुकड़े होने दिए और परस्पर विद्वेष का विष फैलने दिया। धार्मिक मतभेदों को जब बढ़ावा दिया जाता है तो इसके पीछे आर्थिक और सामाजिक मंसूबे कार्य कर रहे होते हैं।५ यहाँ जिस राजनीति की बात की जा रही है उसे हम उपन्यास के दो पात्र लीजा और रिचर्ड के संवादों से समझने की कोशिश करेंगे-

बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड. मैं सब जानती हूँ। देश के नाम पर ये लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम पर तुम इनको आपस में लड़वाते हो। क्यों, ठीक है न?”६ इस संवाद से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि जो दंगे हुए स्वाभाविक नहीं थे और न ही इसमें परस्पर वैमनष्य का कोई कारण था, ये सत्ता के द्वारा प्रायोजित घटनाक्रम था जिसमें आर्थिक और सामाजिक मंसूबे काम कर रहे थे। यानी जिस नत्थू से सुअर मरवाया गया था वहां आर्थिक कारण था और उसे मस्जिद की सीढ़ियों पर फिंकवाना सामाजिक कारण जो कुछ कट्टरवादियों के मंसूबों को धार देने वाला था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति कभी नहीं चाहती थी देश आजाद हो इसलिए उन्होंने भारतीय समाज के इन दो सबसे बड़े समुदायों के भीतर एक-दूसरे के भय का बीजारोपण करना प्रारंभ किया। यह भय किस चीज का था, यह भय था पहचान का। अपनी अस्मिता के खोने का भय दिखाकर इन दोनों समुदायों के बीच वैमनष्यता का बीज बोया गया। इसके लिए उन्हें माकूल उर्वरक भूमी मिली मुस्लिम लीग और कांग्रेस में। उपन्यास के एक अंश में वो तत्व नजर आते हैं जो पूरी तरह से राजनीति प्रेरित थे। यहाँ एक प्रसंग आता है- नत्थू ने झट से पीछे मुड़कर देखा। तीन आदमी गली के मोड़ पर से सहसा प्रकट हो गये थे और नारे लगाने लगे थे। नत्थू को लगा जैसे गली के बीचोबीच खड़े वो गान मंडली का रास्ता रोके खड़े हैं। इन तीन आदमियों में एक के सर पर रूमी टोपी थी और आँखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा था। वह आदमी गली के बीचोबीच खड़ा मंडली को ललकारता हुआ सा बोल रहा था :-

कोंग्रेस हिन्दुओं की जमात है. इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है.
इसका जवाब मंडली की ओर से एक बड़ी उम्र के आदमी ने दिया:

कोंग्रेस सब की जमात है. हिन्दुओं की, सिखों की, मुसलमानों की. आप अच्छी तरह जानते हैं महमूद साहिब, आप भी पहले हमारे साथ ही थे.और उस वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर उस रूमी टोपी वाले को बाँहों में भर लिया। मंडली में से कुछ लोग हंसने लगे। रूमी टोपी वाले ने अपने को बाँहों से अलग करते हुए कहा :-

यह सब हिन्दुओ की चालाकी है, बख्शी जी हम सब जानते हैं. आप चाहे जो कहें कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की. कांग्रेस मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती
                
औपनिवेशिक शक्तियां यही चाहती थीं। वे नहीं चाहती थीं कि भारतीय समाज पूंजीवाद के बजाय वर्गभेद के विरुद्ध लड़े। पूरा प्रसंग इस बात कि तस्दीक करता है कि उस समय का राजनीतिक परिदृश्य इन दो दलों में विभाजित था जिसका कहीं न कहीं कारण राजनैतिक महत्वकांक्षा था। अपनी महत्वकांक्षा की खातिर इन दोनों दलों ने वर्षों से चली आ रही हिन्दू-मुसलमान की साझी संस्कृति को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया, जिससे बाद में भारत और पाकिस्तान नामक दो भौगोलिक क्षेत्र बनें। आज भी सत्ता और व्यवस्था की ये महत्वाकांक्षा बनी हुई है, आज भी समाज को आपस में लड़ाने की कवायद होती है। साम्प्रदायिकता एक अपर्याप्त अवधारणा है। भीष्म जी का लेखन हमे इस अहसास की ओर ले जाता है कि मनुष्यता की आत्मा को ही लहूलुहान किया जा रहा है। पहचान की राजनीति करने वाले और उपनिवेशवादी ताकतें (आज के सन्दर्भ में नवसाम्राज्यवादी) इस दुरभिसंधि में शामिल हैं और हमें किसी दूसरे के नहीं बल्कि खुद के खिलाफ खड़ा कर रही है। इन्हीं कारणों की ओर इशारा करता हुआ भीष्म साहनी का यह उपन्यास आज भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। साहनी जी ने इस पूरे परिवेश को जिया था। भोग था। उनका ये उपन्यास अवलोकन मात्र नहीं बल्कि मध्य में खड़े होकर झेला हुआ यथार्थ है। वे कहते हैं कि साहित्य के क्षेत्र में मेरे अनुभव वैसे ही सपाट और सीधे-सादे ही रहे हैं जैसे जीवन में। मैं समझता हूँ  अपने से अलग साहित्य नाम की कोई चीज भी नहीं होती....मेरे संस्कार, अनुभव, मेरा व्यक्तित्व, मेरी दृष्टि सभी मिलकर रचना की सृष्टि करते हैं.


सन्दर्भ सूची:
१. तमस, भीष्म साहनी, पृष्ठ-९
२. वही, पृष्ठ-७
३. भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर एक नजर, प्रफुल्ल कोलख्यान, सृजनगाथा, ८ जनवरी २०१६.
४. भीष्म साहनी: व्यक्ति और रचना, राजेश्वर सक्सेना- प्रताप ठाकुर, पृष्ठ- ८०, वाणी प्रकाशन १९८२.
५. भारत विभाजन और हिंदी उपन्यास, हरियश, पृष्ठ-४८.
६. तमस, भीष्म साहनी, पृष्ठ- ५२.
७. तमस, भीष्म साहनी, पृष्ठ-३६
८. अपनी बात: भीष्म साहनी, पृष्ठ-२६-२७.

दीपक कुमार
विभागाध्यक्षहिंदी
गोरूबथान गवर्नमेंट कॉलेज,
 दार्जीलिंगपश्चिम बंगाल.
संपर्क:deep.presi@gmail.com

1 टिप्पणियाँ

  1. वाह भाई! कमाल है! है न! प्रफुल्ल कोलख्यान का आलेख।

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