चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेखमाला:डॉ.शिवकुमार मिश्र की मार्क्सवादी आलोचनात्मक दृष्टिकोण –आनंद दास
प्रेमचंद के प्रति उनके आकर्षण का मुख्य कारण यह
है कि प्रेमचंद का संपूर्ण जीवन समाज सापेक्ष है। शिवकुमार मिश्र ने मुंशी
प्रेमचंद के ऊपर विस्तार से लिखा है। मिश्र जी का मानना है कि प्रेमचंद जिस दौर
में रचना कर रहे थे वह दौर कुरुचिपूर्ण उपन्यासों का था। यथार्थ की कोई स्पष्ट
धारणा नहीं थी। लोग जीवन के कुत्सित, घिनौने पक्षों को
प्रस्तुत करना ही यथार्थवाद समझते थे। प्रेमचंद पर इतिहास विरोधी होने का आरोप
लगाया जाता रहा है। परंतु शिवकुमार मिश्र जी का मानना है प्रेमचंद इतिहास विरोधी
नहीं बल्कि इतिहास की गलत व्याख्या के विरोधी थे। क्योंकि मध्यकाल में सत्ताधिकार
के लिए हिंदू-मुसलमान शासकों के मध्य हुए संघर्ष को सांप्रदायिक भावना से चालित
सिद्ध किया गया। अंग्रेजों ने भी भारत की एकता को तोड़ने के लिए इसका इसी रूप में
प्रचार किया। प्रेमचंद अपने साहित्य में इतिहास की इसी व्याख्या का विरोध करते हैं।
प्रेमचंद की कला और मानवीय चिंता तथा लोकप्रियता को इतिहास की गुजरी हुई वस्तु
बनाने का प्रयास किया जा रहा था वहीं मिश्र जी ने अपनी आलोचना के माध्यम से
प्रेमचंद की विरासत को संजोये रखने का एक सफल प्रयास किया। मुंशी प्रेमचंद ने अपने
दौर में अपनी रचना के माध्यम से यथार्थ की एक नयी शक्ल प्रस्तुत की। मिश्र जी
लिखते हैं – ‘यथार्थवाद संबंधी किसी सुस्पष्ट
दार्शनिक या कलागत दृष्टिकोण के अभाव में तथा उस समय की छिछली, कुरुचिपूर्ण तथा सतही मन बहलाव वाली कृतियों के संदर्भ में,
यथार्थवाद के संबंध में, इस प्रकार की धारणा का उभरना ही स्वाभाविक था। और प्रेमचंद जैसे
सुरुचिपूर्ण व्यक्ति के लिए लाजिमी था कि वह यथार्थवाद की ऐसी धारणा का विरोध
करें।’ डॉ. शिवकुमार मिश्र का मानना है कि प्रेमचंद
जिस दौर में रचना कर रहे थे वह दौर कुरुचिपूर्ण उपन्यासों का था। यथार्थ की कोई
स्पष्ट धारणा नहीं थी। लोग जीवन के कुत्सित, घिनौने पक्षों को प्रस्तुत करना ही यथार्थवाद समझते थे।
मिश्र जी ने सैद्धांतिक तथा
व्यावहारिक दोनों ही आलोचना के क्षेत्र में काम किया है। यदि ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत’, यथार्थवाद, प्रगतिवाद जैसी
पुस्तकों में सिद्धांत का निरूपण है तो प्रेमचंद : विरासत का सवाल, भक्तिकाव्य और लोकजीवन आदि पुस्तकों में आलोचना के व्यावहारिक
पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। ‘मार्क्सवादी
साहित्य चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत’ पुस्तक
में मिश्र जी ने मार्क्सवाद के सैद्धांतिक पक्ष को अत्यंत सहज ढंग से प्रस्तुत कर
पाठकों के लिए गाह्य बनाया। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मार्क्सवादी
चिंतन के विकास के पूर्व भौतिकवादी दर्शन की एक समृद्ध परम्परा दुनिया में मौजूद
नहीं है और मार्क्सवादी दर्शन के विकास में इसकी प्रमुख भूमिका है। क्योंकि मार्क्सवाद
की भांति ये विचारक भी सामाजिक जीवन के प्रति जागरूक थे। इस प्रसंग में उन्होंने
प्लेटो, अरस्तू और लांजाइनस से लेकर हेगेल तक का
जिक्र किया है और शिवकुमार मिश्र की मान्यता है-
‘साहित्य एवं कलाओं के सामाजिक प्रतिमान का
वास्तविक महत्व इस बात में है कि साहित्य एवं कलाएँ जीवन के दूसरे बुनियादी पक्षो
से स्वतंत्र नहीं, वरन् उनका ही एक अंग हैं, और जीवन के दूसरे बुनियादी प्रश्नों से उनके महत्व का एकांत
मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।’
शिवकुमार मिश्र साहित्य और कला को विशिष्ट
मानवीय उपलब्धि स्वीकार करते हैं। शिवकुमार जी ने आलोचना को सामाजिक कर्म माना है।
‘साहित्य और सामाजिक संदर्भ’ और ‘दर्शन साहित्य और
समाज’ में संकलित उनके निबंधों से उनकी इस मान्यता
की पुष्टि होती है। ‘दर्शन और समाज’ शीर्षक निबंध में वे मार्क्स की स्थापना को साग्रह दोहराते
हैं कि दर्शन का काम केवल संसार की व्याख्या करना नहीं है अपितु उसे बदलना है। एक
वर्ग विभाजित समाज में साहित्य और संस्कृति का चरित्र भी वर्गीय होता है इसलिए वे
तटस्थता जैसी किसी स्थिति से इत्तफाक नहीं करते और लिखते हैं, “सत्य के साथ केवल पक्षधरता का ही नाता है, उसकी कोई निरपेक्ष या तटस्थ स्थिति नहीं। पक्षधरता एक प्रकार
से सत्य की नियति है।”3 अर्थात् वे इस बात को साग्रह
रेखांकित करते हैं कि वर्ग विभक्त समाज में भाव तथा विचार जगत हर क्षेत्र में
अभिरुचियों एवं आकांक्षाओं के बीच निरंतर विद्यमान टकराव को लक्षित किया जा सकता
है। साथ ही यदि हम मधुरेश के शब्दों में कहें-“इस समाज में वही साहित्य जीवंत और स्थायी बनकर उभरता है जो शासक वर्ग की
ह्रासशील अभिरुचियों तथा उसके हितों का अतिक्रमण करते हुए जनता की आकांक्षाओं को
वाणी देता है।”4 उन्होंने दर्शन, साहित्य और समाज को अलग-अलग न रखकर परस्पर अंतर्ग्रथित
समग्रता में ग्रहण किया है। शिवकुमार मिश्र कला और साहित्य की लोकोत्तर व्याख्या
करने वाले भाववादी कला चिंतकों का खंडन करते हैं और भौतिकवादी दर्शन की विशिष्टता
का उल्लेख करते हैं- “अन्य भाववादी दर्शनों के विपरीत
मार्क्सवाद के भौतिकवादी दर्शन की विशिष्टता तथा मौलिकता को इस आधार पर परखा जा
सकता है कि जहां भाववादी दर्शनों ने संसार को समझने में ही अपनी चरितार्थता मानी,
मार्क्सवादी दर्शन संसार तथा समाज को बदलने का भी दावा
करता हुआ सामने आया।”5 वे साहित्य और कला को विशिष्ट
मानवीय उपलब्धि स्वीकार करते हैं। मार्क्सवादी सिद्धांत से ही उन्होंने सीखा था कि
हम अपनी परंपरा को गहराई से समझें। लोक से जुड़ें। अपनी जातीय जड़ों को पहचानें।
उनके मार्क्सवादी चिंतन में लोक प्रमुख है।
डॉ. शिवकुमार मिश्र यथार्थवाद के
वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करने के क्रम में लेखक सकारात्मक पहचान की पद्धति
अपनाते हैं। मिश्र जी ने अपनी ‘यथार्थवाद’
नामक पुस्तक में यथार्थवादी आंदोलन तथा यथार्थवाद के
स्वरूप तथा चरित्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है जिसके माध्यम से
यथार्थवादी आंदालन को उसके ऐतिहासिक संदर्भों के साथ समझा जा सकता है। लेखक ने इस
तथ्य की ओर भी संकेत किया है कि समाजवादी व्यवस्था कायम हो जाने के बाद भी
आलोचनात्मक यथार्थवाद की भूमिका यकायक ही समाप्त नहीं हो जाती है। उनकी सारी
उपलब्धियों के बावजूद इन आलोचनात्मक यथार्थवादी लेखकों की सीमाओं की ओर संकेत करते
हुए मिश्र जी लिखते हैं- “समाज के विकास के
नियमों की जानकारी के अभाव में ही ये आगत को नहीं देख सके, उस आगत को जिसके बीज उस वर्तमान में ही मौजूद थे जो इनके अपने समय का सत्य
था।”6 वे आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी
यथार्थवाद को स्पष्ट करते हुए यथा तथ्यता और प्रकृतिवाद जैसी चीजों से यथार्थवाद
के घालमेल पर गहरी आपत्ति व्यक्त करते हैं।
शिवकुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी आलोचना की परंपरा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ में शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का समग्रता में मूल्यांकन किया
है। उनका मानना है कि संस्कार और विवेक की गहरी कशमकश आचार्य शुक्ल के मानस में
निरंतर चलती रही है। यही कारण है कि वे शुक्ल जी के साहित्य में अंतर्विरोध भी
देखते हैं पर इसके बावजूद उनमें संभावनाएं देखते हैं। शिवकुमार मिश्र इस पुस्तक की
भूमिका में स्वयं स्वीकार करते हैं- “मैं शुक्ल के
अपने साहित्य चिंतन तथा जीवन दृष्टि में जो अंतर्विरोध हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए कह रहा हूँ। अंतर्विरोध शुक्ल जी में है और
बुनियादी रूप में है, परंतु उन अंतर्विरोधों के बावजूद वे
तमाम बुनियादी मुद्दे पर कारगर तरीके से हमारे साथ सहयोग करते हैं, हमारा पथ निर्देश करते हैं। हमारे साथ सक्रिय होते हैं।
मध्यकालीन बोध से पूरी तरह मुक्त न होते हुए भी वे आधुनिक विवेक से यथाशक्ति
जुड़ते हैं, वर्ण चेतना की जमीन पर हमारे साथ
पूरी तरह खड़े न होकर भी लक्ष्यों को स्वीकार करते हैं। अपवाद, रीतिवाद, रहस्यवाद,
कलावाद, व्यक्तिवाद तथा
आधुनिकतावाद के खिलाफ हमारी हर मुहिम में वे ऊर्जा देते हैं।”7
मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया संबंधी विवेचन से मिश्र जी
अत्यंत प्रभावित हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि मुक्तिबोध साहित्य और कला की
विशिष्ट प्रकृति के प्रति सचेष्ट रहते हुए उसे सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हैं। मिश्र जी के अनुसार- “रचना-प्रक्रिया संबंधी मुक्तिबोध के
विवेचन का यह सामाजिक आधार ही उसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। यहां इस तथ्य का
स्मरण रखना भी आवश्यक है कि वे विवेचन के सामाजिक आधार के बावजूद जहॉं तक साहित्य
और कला की अपनी विशिष्ट प्रकृति का प्रश्न है, मुक्तिबोध उनके प्रति भी पूरी तरह से सचेष्ट रहे हैं।”8 डॉ.शिवकुमार मिश्र साहित्य और कला को विशिष्ट मानवीय उपलब्धि
स्वीकार करते हैं। मार्क्सवादी सिद्धांत से ही उन्होंने सीखा था कि हम अपनी परंपरा
को गहराई से समझें और लोक से जुड़ें तथा अपनी जातीय जड़ों को पहचानें। उनके मार्क्सवादी
चिंतन में लोक प्रमुख है। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मार्क्सवादी चिंतन
के विकास के पूर्व भौतिकवादी दर्शन की एक समृद्ध परम्परा दुनिया में मौजूद रही है
और मार्क्सवादी दर्शन के विकास में इसकी प्रमुख भूमिका है। मार्क्सवाद की भांति यह
विचारक भी सामाजिक जीवन के प्रति जागरूक थे।
संदर्भ ग्रंथ-सूची
• 1- डॉ. शिवकुमार
मिश्र का महत्व, कृति की ओर (डॉ. रमकांत शर्मा) अंक-
अप्रैल- दिसम्बर , पृष्ठ सं- 17
• 2-मिश्र शिवकुमार, भक्ति आंदोलन और
भक्तिकाव्य, लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद, 2012, पृष्ठ सं-9
-10
• 3-- मिश्र शिवकुमार, ‘दर्शन
साहित्य और समाज’, अरुणोदय प्रकाशन, 1992 पृष्ठ सं- 98
•4-- मधुरेश हिंदी आलोचना का विकास सुमित प्रकाशन , 2004, पृष्ठ सं- 190
•5-- मिश्र शिवकुमार , मार्क्सवादी
साहित्य चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली,2010, पृष्ठ सं- 403
• 6-- मिश्र शिवकुमार , यथार्थवाद,वाणी प्रकाशन, दिल्ली,2009, पृष्ठ सं- 131 राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,
दूसरी आवृत्ति 2014, पृष्ठ सं- 52013
•7-- मिश्र शिवकुमार , हिंदी
आलोचना की परंपरा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल , वाणी प्रकाशन, दिल्ली,2002, भूमिका
•8-- मिश्र शिवकुमार , साहित्य
और सामाजिक संदर्भ प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली,
2012, पृष्ठ सं- 56
आनंद दास
शोधार्थी, कलकत्ता विश्व विद्यालय
सहायक संपादक, उन्मुक्त पत्रिका
संपर्क-9804551685,anandpcdas@gmail.com
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