चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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दिव्या:नारी मुक्ति की आकांक्षा का प्रतिरूप/ डॉ.तनुजा रश्मि
संदर्भ
दिव्या:नारी मुक्ति की आकांक्षा का प्रतिरूप/
सन्
पैंतालिस के जिस दौर में यशपाल कृत उपन्यास ‘दिव्या’ का प्रकाशन हुआ, उस वक्त साम्राज्यवाद अंतिम सांसे ले रहा था। देश एक ओर जहाँ
स्वतंत्रता की देहरी पर खड़ा था, वहीं दूसरी ओर
हिंदी में प्रगतिवादी आन्दोलन तेज हो रहा था। ऐसे संघर्षपूर्ण दौर में प्रेम और
परिवर्तित नारी चेतना को केन्द्र में रखकर
लिखे उपन्यास आलोचना के शिकार हुए, रामविलास शर्मा
ने तो घोषित रूप से शरतचंद्र के विरुध मुहिम छेड़ रखा था, प्रगतिवादी आंदोलन के नियामकों का मानना था कि, यह प्रेम नहीं संघर्ष का दौर है l इसलिए
संघर्ष और कर्मठ जीवन को चित्रित करने वाला साहित्य रचा जाय। प्रेमानुभूति की
वर्जना वाले उस दौर में उत्कट प्रेम भाव को दिव्या के केन्द्र में रखकर यशपाल
शिविरबद्धता का विरोध ही नहीं करते वरन् स्त्री के पक्ष में लड़ी जाने वाली लड़ाई को
एक अभियान का रूप देने का रचनात्मक साहस भी दिखाते हैंl वो भी उस वक्त जब उत्तर आधुनिकता
की कहीं कोई चर्चा नहीं थी, दिव्या उपन्यास
का आकर्षक पक्ष यह है कि वह अतीत के साथ-साथ वर्तमान से भी जुड़ा है, तत्कालीन युग का जो चित्र इसमें उपस्थित है वह आज भी
प्रासंगिक है यह सत्य निर्विवाद है कि, व्यवस्थाओं
के रूप और ढांचा भले ही बदलते रहे हों, लेकिन
उनकी शोषण धर्मिता कभी नहीं बदलती है l नारी तब
भी शोषित और दलित थी आज भी है अंतर बस इतना है कि तब शोषण का तरीका प्रत्यक्ष और
पारंपरिक था, अब अप्रत्यक्ष और आधुनिक हैl
समूचे कथा
परिदृश्य में दिव्या का महत्व यह है कि वह स्त्री को उसके सामाजिक संदर्भों में
प्रस्तुत करता है वैसे तो दिव्या की केन्द्रीय समस्या नारी है जिसके चारों ओर
वर्णाश्रम, बौद्धधर्म, और दास समस्या को उपन्यस्त किया गया हैl जैसा कि नाम से ही ध्वनित होता है इस उपन्यास के अंतर्गत दिव्या केन्द्रीय
चरित्र है और उसके जीवन के माध्यम से
सम्पूर्ण नारी जगत का त्रस्त रूप दिखाना ही शायद यशपाल का मंतव्य रहा है इस
उपन्यास के माध्यम से यशपाल स्त्री आन्दोलन के वर्तमान मुद्दों को इसमें उपन्यस्त
करते हैं, जैसे – नारी की सामाजिक समानता, आर्थिक
आत्मनिर्भरता, धार्मिक स्वतंत्रता और देह की मुक्ति
का प्रश्न आप देखेंगे कि दिव्या में स्त्री मुक्ति की सिर्फ आकांक्षा ही नहीं वरन
उसे पाने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष भी हैl स्त्री–विमर्श में जिस युनिवर्सल सिस्टरहुड़ के शोषण की चर्चा हम
वर्तमान में कर रहे हैं, उसकी झलक भी
दिव्या में है कि, शोषण के स्तर पर हर नारी एक समान है,
चाहे वह शोषक वर्ग की हो या, शोषित वर्ग की, राजमहल की राजकुमारी हो या आम स्त्री,
प्राचीन विचारों की हो या आधुनिक, पुरुष के शोषण का शिकार सभी समान रूप से हुई हैं, व्यवस्था के पंजे इतने मजबूत हैं, कि वे हर
स्तर पर उसका शोषण के लिए सजग हैंl यशपाल दिव्या में
इस बात को भी स्पष्ट करते हैं कि, आर्थिक
आत्मनिर्भरता भी स्त्री स्वाधीनता की कुंजी नहीं है यदि ऐसा होता तो जब तक स्त्री
के पास देह है तब तक स्त्री को किस बात की चिंता है, जरुरत है देह को पुरुष के स्वामित्व से मुक्त कर अपने अधिकार में लेने में,
इसी में ही नारी की सच्ची स्वतंत्रता और
आत्मनिर्भरता निहित है, क्योंकि यौन–शुचिता, पतिव्रत, सतीत्व जैसे
मूल्य स्त्री के सम्मान के नहीं पुरुष के अहंकार और स्त्री की दीनता और असुरक्षा
का पैमाना है, यही स्त्री की बेड़ियाँ हैं, जिसने ये बेड़ियाँ उतार दी, वही स्त्री विशिष्ट है l
यशपाल,
मारिश के इस कथन से वर्तमान स्त्री विमर्श में देह की
स्वतंत्रता के प्रश्न पर भी हस्तक्षेप करते हैं, जब समाज में चारों और से प्रताड़ित दिव्या को वैश्या जीवन में ही स्त्री की
आत्म निर्भरता और स्वतंत्रता मालूम होती है, तब मारिश के इस कथन से उसका विरोध करते हैं कि, यदि कुलवधू एक पुरुष की भोग्या है तो वैश्या या जनपद कल्याणी पूरे जनपद की
भोग्या हैl उसकी स्वतंत्रता प्रवंचना और
विडम्बना मात्र हैl यहाँ तक कि आत्मनिर्भर होकर भी इस
सामाजिक संरचना में कई मायने में वह अपनी मुक्ति की सारी अन्तर्निहित इच्छा के
बावजूद शोषित होती है। कभी वर्ण-वर्ग तो कभी धर्म-जाति, और पारिवारिक प्रतिष्ठा तो कभी उसकी अपनी ही शारीरिक व मानसिक संरचना की
वशिभूत हो नारी शोषण का शिकार बनती हैl दिव्या
नारी के इन्हीं परम्परागत शोषण की जीती-जागती मिशाल है, जो शुरू से अंत तक अपने अधिकार और
स्वत्व की रक्षा के लिए समाज के सामने न्याय की याचिका हैl दिव्या का चरित्र समाज की तमाम विषमताओं की प्रतिमूर्ति हैl जिसको परिधि में रखकर यशपाल सामाजिक संरचना और उसके मूल
अन्तर्विरोध को उजागर कर, इस तथ्य को
प्रतिपादित करते हैं कि जब तक समाज व्यवस्था परिवर्तित नहीं होती, तब तक स्त्रियों की शोषण से मुक्ति संभव नहीं है यही वजह है
कि इक्कीसवीं सदी के भारत में जहाँ
महिलाओं ने प्रगति के नये आयाम स्थापित किये हैं वहीँ वो हर पल शारीरिक और
मानसिक हिंसा की शिकार हैं l
हार्वड
फ़ास्ट की तरह यशपाल अपने वर्तमान को समझने और संवारने के लिए अतीत का प्रयोग करने
वाले लेखक हैं। इसमें ऐतिहासिक वर्तमान अपने सामाजिक रूप में प्रस्तुत है यहाँ
ऐतिहासिक भौतिक चिंतनधारा उन सबका खंडन करती है जो मनुष्य को परिस्थियों के हाथ की
कठपुतली बनाता हैl दिव्या में एक ओर जहाँ राहुल
सांस्कृत्यायन की सांस्कृतिक जीवन दृष्टि का कलात्मक परिमार्जन है वहीँ दूसरी ओर भगवती
चरण वर्मा की चित्रलेखा के सम्पूर्ण जीवन–दर्शन की
प्रत्यालोचना सी हुई है ताकि भारतीय इतिहास ,समाज, एवं मानवीय संबंधों की सही समझ
विकसित की जा सकेl मनुष्य इतिहास का भोक्ता ही नहीं
कर्ता और उसका निर्माता भी हैl दिव्या की कथा
किसी महान व्यक्ति को केन्द्र में रखकर नहीं लिखी गयी है लेकिन वह सम्पूर्ण नारी
जगत की प्रतिमूर्ति है। स्वयम यशपाल कहतें हैं ‘दिव्या इतिहास नहीं ऐतिहासिक कल्पना मात्र है ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर
व्यक्ति और समाज की प्रवृति और गति का चित्र’’१
ब्राहमण वर्ग की प्रभुता को सर्वोच्च मनाने
वाली तत्कालीन समाजव्यवस्था में धर्मस्थ देवशर्मा की प्रपौत्री होने के नाते बचपन
से ही दिव्या को अभिजात वर्ग की समस्त सुविधाएं प्राप्त होती हैं, माता पिता से वंचित होने के कारण उसे धर्मस्थ से ही नहीं वरन्
अपने सारे सगेसंबंधियों से विशेष लाड़-प्यार मिलता है, बड़े ही ममतामय और भव्य परिवेश मे उसका लालन-पालन होता हैl उपन्यास के प्रारंभ में उसका परिचय संगीत और नृत्य में प्रवीण
एक अपूर्व सुन्दरी के रूप में होता हैl सर्वश्रेष्ठ
नृत्य प्रदर्शन के लिए वह ‘मधुपर्व’ के लिए लालायित हो उठती है। उपन्यास के दो तीन अध्यायों में
दिव्या के जीवन का बड़ा ही आकर्षक चित्र अंकित है। अपने जीवन के प्रारंभिक रूप में
दिव्या संगीत नृत्य और शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान में पारंगत एक राजकुमारी है औसत
भारतीय नारी नहींl मधुपर्व के अवसर पर ही वह दासयुग
पृथुसेन की वीरता और शौर्य के कारण उसके प्रति आकर्षित होती है, पर उसका प्रेम मन तक ही सीमित नहीं रहता, शरीर में भी विस्तार पाता हैl दिव्या के इस साहसिक बंधन मुक्त कदम से वर्णाश्रम धर्म की मान्यताओं पर
टिकी समाजव्यवस्था हिल उठती हैl युवावस्था की
अल्हड़ मनःस्थिति में लिए फैसले से दिव्या के जीवन का रोमांचकारी अध्याय प्रारंभ
होता है, आने वाली आंधी के भयानक झंझावात का अनुमान
कर दिव्या पृथुसेन के गर्भ को संभाले महल से बाहर निकल पड़ती है, क्योंकि उसके समक्ष यह स्पष्ट हो जाता है कि अभिजात वर्ग में
होने वाला उसका जन्म भी उसे उस चाहरदीवारी से बाहर नहीं निकाल सकता है जो समाज ने
नारी के चारों ओर, आचार – विचार धर्म ,मर्यादा , नियम, आदि के नाम से खड़ी कर दी हैl
दिव्या अब
महलों में रहने वाली धर्मस्थ की प्रपौत्री न रहकर औसत भारतीय नारी के रूप में
हमारे सामने आती हैl वह राजकुमारी दिव्या से दासी ‘दारा’ बन पशुओं की
भांति एक व्यापारी से दूसरे और दूसरे से तीसरे के हाथों क्रय–विक्रय का साधन बनती है। दासी के रूप में ही दिव्या पृथुसेन
के अंश को जन्म देती है, परंतु बच्चे पर मातृत्व अर्पित करने से वंचित कर दी जाती है,
क्योंकि तत्कालीन व्यवस्था में दासी होने के नाते उसका
पहला और अंतिम दायित्व अपने स्वामी की सेवा थाl अपने पुत्र की जीवन रक्षा के लिए वह दास जीवन से मुक्त होना चाहती है तो
सभी दुःखी, पीड़ित और अभिशप्त लोगों को संघ की
शरण में आने का आह्वान करते बौद्ध भिक्षु ही उसे एकमात्र सहारा प्रतीत होते है,
और घनी दोपहर में नंगे पांव दिव्या अपने पुत्र शाकुल को
वक्ष से लगाए, बड़ी उम्मीद और इस विश्वास से संघ के
द्वार पर पहुँचती है कि उससे अधिक पीड़ित और दलित कौन होगा जो अपने ही बच्चे को
अपना दूध न पिला सके? लेकिन वहां पहुचने पर उसे घोर निराशा
होती है जब उसे पता चलता है कि सभी प्रकार के अभिशप्त और कलंकित लोगों को अपनी शरण
में आने का आह्वान करने वाले बौद्ध धर्म में उसके लिए कोई जगह नहीं थीl क्योंकि वह नारी थी और वह भी दासी जिसे पिता, पति, पुत्र या स्वामी
पुरुष की आज्ञा के बिना संघ में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती थीl स्वामी पुरुष के मामले में दिव्या बड़ी अभागी थी, पति तो उसका था नहीं, और नवजात
पुत्र इस योग्य नहीं था कि, माँ को अनुमति दे
सके, इन विकट परिस्थितियों में उसका स्वामी ही
उसे संघ की शरण ग्रहण करने की अनुमति दे सकता था, जिसके घर से प्राण बचाकर वह संघ की शरण में आयी थीl परन्तु दास जीवन से मुक्ति के लिए दिव्या कृतसंकल्प थी, इसीलिए वह अपनी तर्कबुद्धि से स्थिवर से निवेदन करती हुई कहती
है कि ‘तथागत’ ने तो ‘अंबपाली’ वैश्या तक को संघ की शरण में लिया? और फिर वह तो एक कुलीन स्त्री और माँ है l तो स्थिवर दिव्या से कहते हैं कि ‘वैश्या एक स्वतंत्र नारी है’ स्थिवर के इस दो टूक जवाब से दिव्या आवाक! रह जाती है, और आवेश में कहने लगती है ‘मैं भी स्वतंत्र नारी बनूँगी’ ‘मैं
वैश्या बनूँगी’ और उसी आवेश में वह लोगों से वैश्यालय का रास्ता पूछती है और आलोचना
की शिकार होती है कि ‘माँ होकर वैश्या बनना
चाहती हो? कोई उस पर कटाक्ष करता है कि ‘तुम्हारे जैसी औरत जिसका शरीर हड्डियों का ढांचा है वह वैश्या कैसे बनेगी? उसके लिए रूप और यौवन चाहिएl सभी ओर से हताश और निराश दिव्या आत्महत्या के प्रयास में अपने नवजात शिशु
के साथ नदी की धारा में भय से तब कूद पड़ती है, जब वह अपने स्वामी को, उसे ढूढ़ते हुए,
अपनी तरफ आते देखती है, परन्तु नर्तकी रत्नप्रभा द्वारा बचा ली जाती है दुर्भाग्यवश उसका शिशु यह
आघात नहीं सह पाता है, और उसकी मृत्यु हो जाती है, अपने शिशु को खोकर दिव्या, बिना प्राण के शरीर की तरह जड़वत हो जाती है, लेकिन कुछ समय उपरांत वह आत्मनिर्भर होने के लिए रत्नप्रभा के आयोजनों में
हिस्सा लेने लगती है, और इस तरह दिव्या एक नये संसार में
प्रवेश पाती है जो तमाम बन्धनों से मुक्त है रत्नप्रभा के साहचर्य में दिव्या का
जन्म ‘अंशुमाला’ वैश्या के रूप में होता हैl जो कला की साधना
मनोरंजन के लिए तो करती है, पर उसके सौन्दर्य
का कोई उपभोग नहीं कर सकताl धीरे-धीरे नगर
में अंशुमाला की कला और उसके सौन्दर्य की चर्चा होने लगती हैl और रत्नप्रभा दिव्या में अपनी दिवंगत पुत्री का स्वरूप महसूस
कर, उसे विधिवत अपना उतराधिकारी बनाने की घोषणा
करती हैl लोकिन
जैसे ही यह सूचना महल और नगर में फैलती है कि भावी नगरवधु कोई और नहीं
धर्मस्थ देवशर्मा की खोयी प्रपौत्री ‘दिव्या’ ही अंशुमाला है कोहराम मच जाता है l रत्नप्रभा पर यह आयोजन को रोकने का दवाब बढ़ने लगता हैl दिव्या को अपनाने वालों की भीड़ लग जाती हैl कोई उसे कुलवधु बनाकर ब्राहमण वर्ग की प्रतिष्ठा बनाये रखने
का पुण्य कमाना चाहता हैl वहीं कालांतर में
देशद्रोह के दंड से बचने के लिए बौद्धभिक्षु बन गए पृथुसेन को अविलम्ब दिव्या का
स्मरण हो आता हैl और वह उसे मौक्ष दिलाने को प्रस्तुत
हो जाता है l
दिव्या का
चरित्र व्यवस्था के पूरे घिनौनेपन को उजागर करता है, प्रस्तुत उपन्यास में बड़े ही प्रभावशाली और तर्क पूर्ण दृष्टि से यशपाल
व्यवस्था के वास्तविक रूप को सामने लाते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डालतें हैं कि अपने
स्वार्थ के लिए व्यवस्था के ठेकेदार किस प्रकार अपने घोषित सिद्धांतों और मान्यताओं को एक ओर रख देते हैंl वैश्या जीवन अपनाने से पूर्व दिव्या अपने नवजात शिशु को लिए
दर- दर की ठोकर खाती है पर किसी पुरुष ,समाज ओर धर्म ने उसे संरक्षण नहीं दियाl वहीं दिव्या को वैश्या जीवन अपनाते देख, प्रतिष्ठा के दंभ से संपूर्ण ब्राहमण समाज इस वजह से, उसे अपनाने को प्रस्तुत हो जाता है, कि ब्राहमण पुत्री के वैश्या बन जाने पर ब्राह्मण समाज की धवल-कीर्ति पर
कालिख पुत जाएगीl दिव्या के विधिवत वैश्या बनने के
निर्णय से समाज और धर्म सबकी जड़ें हिलने लगती हैं, अपने छोटे से जीवन में आए उतार–चढ़ाव ने
दिव्या को ऐसी अंतर दृष्टि प्रदान कर दी थी जिससे वह विकट परिस्थिति में भी अपना
संतुलन नहीं खोती है, और शांत भाव से सबके प्रस्ताव को
ठुकराती ही नहीं बल्कि उसका कारण भी बताती हैl कुलवधू का आसन ठुकराते हुए दिव्या कहती है – आचार्य कुल – महादेवी वधु या कुल- माता का आसन
दुर्लभ सम्मान है यह अकिंचन नारी उस आसन के सम्मुख आदर से मस्तक झुकाती है,
परन्तु ये सब
निरादृत वैश्या की भांति स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं है l यानि आचार्य कुल वधु का सम्मान आर्य पुरुष का प्रश्रय मात्र
है वह नारी का सम्मान नहीं उसे भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य,
अपने स्वत्व को त्याग कर ही नारी वह सम्मान प्राप्त कर
सकती है l यह कहकर दिव्या कुलवधु के पद को अस्वीकार करती है क्योंकि किसी भी
परिस्थिति में वह अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को बचाए रखना चाहती हैl इसलिए जब पृथुसेन उससे संघ की शरण में आने का आह्वान करता है
तो वह उससे वह प्रश्न करती है कि ‘भन्ते भिक्षु के
धर्म में नारी का क्या स्थान है? तब पृथुसेन
स्वीकार करता है कि ‘देवी भिक्षु का धर्म निर्वाण है नारी
प्रवृति का मार्ग है, और भिक्षु के धर्म में नारी त्याज्य
है, गहरे व्यंग्य की मुद्रा में वह पृथुसेन से
निर्वाण धर्म का पालन करने को कहती है और अपने लिए स्वयम संघर्ष से बनाये मार्ग पर
ही चलते रहने का संकेत देती हैl वह पृथुसेन को
स्पष्ट करती है कि निवृति और निर्वाण स्त्री की प्राकृतिक राह नहीं है, उसका मूल धर्म सृष्टि है जिसे निर्वाण बाधित करता है, तथागत और उनके अनुयायियों ने जिस निर्वाण को जीवन का शाश्वत
तत्व मानकर उसकी स्तुति की है, वस्तुतः वह जीवन
के स्वीकार का नहीं पलायन का मार्ग है और जिस
दिव्या ने अपने जीवन में निरंतर पराभाव और अभिशाप को सहकर भी जीवन जीने की
इच्छा निरंतर को निरंतर प्रज्ज्वलित रखा, वह जीवन
के अंतिम परिणिति में पलायनवादी कैसे हो सकती थीl
इसलिए दिव्या उस ‘मारिश’ के प्रस्ताव को स्वीकार करती है जो
उसे मनुष्य के रूप में, उसकी खूबियों और कमियों के साथ
अपनाकर, उसे अपने सुख-दुःख का भागीदार बनाना चाहता
है। उसमें न तो भोगवादी पुरुष के वर्चस्व की दृष्टि थी न अलोकिक संसार में मनुष्य
की अमरता का आश्वासन वह तो इसी मर्त्य लोक के सुख दुःख में दिव्या को हमसफर बनाने
की कामना करता हैl वर्तमान नारीवाद भी नारी को मनुष्य
के रूप में मान सम्मान और बराबरी का अधिकार देने का आग्रही है वह स्त्री को अच्छाई
की खान या देवी बनाकर उसकी पूजा अर्चना का आग्रही नहीं हैl
इस तरह इतिहास के झीने आवरण को ओढ़े दिव्या
वस्तुतः एक आधुनिक भारतीय नारी है जो नारी, धर्म और समाज से सम्बंधित अनेक समस्याओं और उसके अन्तर्विरोध के साथ
उपस्थित है - जो समाज गणिकाओं को सम्मान की दृष्टि से देखता है, उन्हें राजसत्ता का चिन्ह छत्र और चंवर धारण करने का अधिकार
देता हैl वही समाज अपने वर्ग की लड़की को नगरवधु बनाने
के खिलाफ है? प्रणय के सहभागी दिव्या और पृथुसेन
दोनों थे पर प्रतिदान में प्राप्त संतान ने सिर्फ दिव्या के ही तमाम सुखों के
ग्रहण लगा दिया l समाज ने उसी मातृत्व को महिमा मंडित
किया है जो पुरुष के संरक्षण में उससे विवाहोंपरांत प्राप्त होता है l बिना विवाह प्रेम की परिणति, ‘संतान’ और ‘मातृत्व’ दोनों समाज में अपयश की वजह है l
नारी जो आकर्षण है वही उसकी सृजनात्मक शक्ति का स्रोत है
और वही पतन का कारण भी , दिव्या और
पृथुसेन के संबंधो ने एक ओर जहाँ दिव्या के पूरे जीवन को तहस नहस कर दिया उसे
राजकुमारी से दासी और दासी से वैश्या बना दियाl वहीं पृथुसेन को एक क्षण के लिए भी कभी कोई मानसिक और शारीरिक मुसीबतों का
सामना नहीं करना पड़ा l नारी की यह त्रासदी उसकी शारीरिक
संरचना के अधीन हैl इन सबके बावजूद जीवन चिरंतन, वास्तविक और सत्य है, वह अनुराग
के लिए है तो विरक्ति और त्याग के लिए भीl यशपाल
दिव्या के मध्यम से यह कहना चाहते हैं कि ‘’नारी ना तो त्याज्य है और न ही भोग्या वह विषम परिस्थितियों में भी सृष्टि
का धर्म निभाती हुई पूर्ण होती है, और ऐसी ही नारी
पुरुष को भी पूर्ण करती हैl यही वजह है कि
उलटते-पुलटते कालचक्र की गति में दासी दारा और नर्तकी अंशुमाला का रूपांतरण एक
नये परिवेश और नयी व्यवस्था में कन्या दिव्या के रूप में हो जाता है,
क्योंकि नारी की सार्थकता और विमुक्ति, कुल धर्म और पाप पुण्य में नहीं, बल्कि सामाजिक सहकर्म में हैl
यशपाल समाज की अमरता के लिए स्त्री पुरुष के
पारस्परिक संबंधों को अनिवार्य बताते हुए दार्शनिक मारिश के द्वारा कहते हैं ‘नारी सृष्टि का साधन है सृष्टि की आदि शक्ति का क्षेत्र वह
समाज और कुल का केन्द्र है पुरुष उसके चारों और घूमता है जैसे कोल्हू का बैल’’२ ‘’नारी प्रकृति के विधान से नहीं समाज के विधान से भोग्या है इस
बात को स्पष्ट करते हुए यशपाल समाज की अमरता और मनुष्य की अमरता के लिए स्त्री
पुरुष के पारस्परिक संबंधों को अनिवार्य बताते हैं अपनी ढलती उम्र में रत्नप्रभा
अपने जीवन में भोग के सारे साधन के बावजूद गहरी तृष्णा महसूस करती है यह सत्य
निर्विवाद है कि बिना पुरुष के नारी और बिना नारी के पुरुष का जीवन एकांगी और
निरर्थक है दोनों विशिष्ट हैं , एक दुसरे से
भिन्न होकर भी वे एक दूसरे के पूरक हैं –
नर दोपहर की धूप, ताप का सरगम l
नारी करुणा की कोर, भोर की शबनम ll
संध्या में दोनों एक, रागमय अम्बर l
नक्षत्रों में मुस्कान , चाँद में विभ्रम ll३
संदर्भ
१-
यशपाल –‘दिव्या की
भूमिका’ विपल्लव प्रकाशन लखनऊ १९४५, पृष्ठ संख्या – ५.
२-
वही , पृष्ठ संख्या – १५५ ,१५६ .
३-
संस्कृति संचिका -
शिवमंगल सिंह सुमन, पृष्ठ संख्या – ५३
डॉ.तनुजा रश्मि,(हिंदी विभागाध्यक्ष जैन कॉलेज वी.वी.पुरम बेंगलुरु)
समर्थ व सारगर्भित समीक्षा के लिए सहादर धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआपको अतीव बधाई व शुभकामनाएँ !
Bahut achha likha hai🙂
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