चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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मनु से मनुष्यता तक
वाया अम्बेडकर
(1)
इन दिनों सोशल मीडिया पर राजस्थान के दलित
संगठनों द्वारा एक मुहीम छेड़ी गई है, जो खासा चर्चा में है. वह मुहीम है राजस्थान
उच्च न्यायालय के सामने स्थापित मनु की प्रतिमा के खिलाफ जनआक्रोश. राजस्थान के
दलित व प्रगतिशील सोच वाले, गुजरात उना दलित
अस्मिता यात्रा के अगुआ जिग्नेश के साथ मिलकर मूर्ति हटाने को लेकर रणनीति बना रहे हैं जो अगले कुछ महीनों में और तेज होगा. यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है कि
वह कौन लोग थे और हैं जिन्होंने मनु की प्रतिमा न्यायालय के सामने स्थापित की. वे
समाज को क्या सन्देश देना चाहते थे? यह एक बहुत विचारणीय मुद्दा है. यह बात किसी
से छिपी नहीं है कि अम्बेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था. एक वह अम्बेडकर जो इस किताब की इतनी कड़ी आलोचना करते हैं और दूसरी तरफ
देश के संविधान के निर्माता भी कहे जाते हैं. उसी संविधान के रक्षक आज भी मनु की
प्रतिमा लगाकर उनसे प्रेरणा लेते हो तो इक्कीसवीं सदी में इससे बड़ी कोई त्रासदी और
बिडम्बना नहीं हो सकती. यह सच है कि मनु के संविधान में अम्बेडकर के लिए कोई जगह
नहीं थी लेकिन अम्बेडकर के संविधान में मनु के लिए जगह है. हम इस तरह की दकियानूसी जगह की बात नहीं कर रहे है बल्कि मानवता के स्तर पर जगह की बात कर रहे
हैं. क्या हमें नहीं लगता कि जो मनु पूरे मानवता के लिए कलंक रहा हो, उसी मनु से हम आज के न्यायालय को कलंकित कर रहे है. भला दलित
को ऐसे न्यायालय से न्याय की अपेक्षा कैसे हो सकती है जहाँ सदियों से दलित उत्पीडन
की संहिता लिखने वाले की आदमकद मूर्ति सुसज्जित हो. यह देश विरोधाभासों का
अजायबघर बनता जा रहा है कहीं एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार दिए जा रहे हैं तो कहीं दलित उत्पीडन के प्रणेता मनु की प्रतिमा भी
स्थापित की जाती है. क्या दलित आज भी अबोध हैं जो अपने नायक और खलनायक की पहचान
नहीं कर सकते. उनका अतीत बहुत भयावह रहा है उस अतीत के जो भी गुनाहगार रहे है उनको इस तरह राजकीय सम्मान देखकर कोई भी स्वाभिमानी दलित भला चुप कैसे रह सकता है.
‘मुंह में
मार्क्स बगल में मनु’ की कहावत तथाकथित बुद्धजीवियों पर बनती रही है क्योंकि वे जातीय भेदभाव वाले संस्कार को तिरोहित नहीं कर पाए. भले वो मार्क्स ,मार्क्स चिल्लाते रहे. वरना आज
वामपंथ का यह हश्र नहीं होता. वह अपने मनुप्रेम के कारण ही इस तरह की सामाजिक विकृतियों
के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते उसी कमजोरी की देन यह प्रतिमा है. हालाँकि मनुवाद के
सामने बड़े–बड़े विश्वविद्यालय भी नतमस्तक हो गए. यही कारण है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के पाठ्यक्रम में मनुस्मृति
उसी गर्व के साथ आज भी पढ़ाई जाती है. हम आज भी श्रेष्ठता बोध के माहौल में जी रहे
है जहाँ पर व्यक्ति की योग्यता को जाति निर्धारित कर रही है.इस मनु और
मानवता के बीच की लड़ाई में, हम मानवता की तरफ
खड़े है और किसी भी कीमत पर मनु की मूर्ति हटनी ही चाहिए यही हमारी पक्षधरता और
प्रतिबद्धता है.
(2)
इस बार का
अंक पिछले अंकों से कुछ मायने में अलग है. इस बार शोधार्थी केन्द्रित बनाने के
साथ–साथ पाठक केन्द्रित बनाने का प्रयास भी किया
है. इसमें आपको कई तरह की विविधता भी नजर आएगी. धीरज जी का नाटक ‘होता है तमाशा मेरे आगे’ प्रथम प्रयास में एक बेजोड़ नाटक है. ऐसा नाटक अभी पिछले कई सालों से पढ़ने
को नहीं मिला था. इसमें गज़ब की रचनात्मकता और विजन है. हमें उम्मीद है यह नाटक
आने वाले समय में हिंदी साहित्य में एक स्थान बनाएगा. यह नाटक अपनी माटी में
धारावाहिक प्रकाशित होगा. इस नए रचनाकार को आपकी हौसलाअफजाई की जरूरत पड़ेगी.
राजनीति हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है जो हमारे रोजमर्रा के जीवन को किसी न किसी
तरह प्रभावित करती है. हम यह कहकर नहीं बच सकते कि राजनीति–वाजनीति से हमें कुछ लेना देना नहीं. एक सचेत नागरिक से यह उम्मीद की जाती
है कि वह अपने दौर की राजनीति पर बारीक़ नजर और समझ बनाए रखे. राजनीति एक युगधर्म
है. साहित्य और राजनीति के बीच कई तरह की गलतफहमियां जाने-अनजाने में फैलाई गई है. साहित्य को राजनीति की दृष्टि से समझने के लिए और राजनीति को साहित्य की दृष्टि
से समझने के लिए हमें राजनीति से संवाद करने की जरूरत महसूस हो रही थी कि हमारे
प्रतिनिधि या नेता किस तरह की सोच या विचारधारा रखते हैं इसको जानने का यही माध्यम है
कि उनसे संवाद किया जाए. इसलिए हमने अपनी माटी में एक कॉलम ‘राजनीति से संवाद’ शुरू किया है. इस स्तम्भ में बिहार के जहानाबाद से सांसद डा. अरुण कुमार से लम्बी बातचीत सह सम्पादक साथी सौरभ कुमार ने की है.
- जितेन्द्र यादव,सम्पादक,अपनी माटी वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधरत हैं.संपर्क -9001092806
राजस्थान हाईकोर्ट के मनु का मुद्दा बहुत सही उठाये हो।
जवाब देंहटाएंमैं पिछले साल मनुस्मृति दहन दिवस पर इस पर भभुआ में बोला था।
इसे तोड़वाना बहुत जरूरी है
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