चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेख:अदम की कविताओं का बदलता तेवर -भावना मासीवाल
अपने समय के तनाव को अभिव्यक्त करने
के बड़े जोख़िम होते हैं । जब कोई रचना अपने समय के तनाव को अभिव्यक्त करती है तो वह
उस जोख़िम को उठाती है । अदम का रचना संसार भी अपने समय के तनाव और जोख़िम का
प्रतिआख्यान है । अदम ऐसे रचनाकार हैं जिनकी गज़लें अपने समय की तमाम हलचलों,
मुफ़लिसी, भूख, रोटी और इंसानियत के दर्द को बयां करती हैं । अदम की कविता की
तरह उनका व्यक्तित्व भी जीवन और जमीन से जुड़ा रहा जिसने प्रतिरोध की क्षीण होती
परम्परा को जिलाए रखा । वह अपने समय की तमाम विद्रूपताओं के बीच बिना किसी
लाग-लपेट के लिखते हैं कि-‘सौ में सत्तर
आदमी फिलहाल जब नाशाद है/ दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है’(समय से मुठभेड़, पृ-48) । बेबाक़ी, बेखोफी, बेपरवाही उनकी ग़ज़ल का साज थी और वो कहते भी हैं ‘एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल/ मशरिकी फन में नई तामीर
है मेरी ग़ज़ल’(समय से मुठभेड़, पृ-75)। इनकी ग़जलें
आंखन देखी बयां करती है न कि कागद की लेखी को । अदम की ग़जलों में ज्ञान का भूगोल
उतने प्रखर रूप में नहीं है जितना की शोषण और भूख का भूगोल है । अदम ज़र्जर
सामंतवाद की बेलज्जत सी हो चुकी ठसक को भी जानते थे और आजादी के बाद उभरी उसकी कसक
को भी । उनकी ग़ज़ल घीसू, माधव, होरी, धनिया और गोबर के श्रम जन्य पसीने की
बूंदों में सौंदर्य और रस ग्रहण कर परवान चढ़ती है और वे कहते हैं-‘न महलों की बुलंदी से न लफ्जों के नगीने से / तमद्दुन में
निखार आता है घीसू के पसीने से’(समय से मुठभेड़,
पृ-68)। यह ‘घीसू’ का पसीना आज़ादी
से पहले भी खून की तरह बह रहा था और आज़ादी के बाद भी । घीसू को आज़ादी के बाद भी न
तो वह राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सम्मान मिला न ही
उसकी परिस्थितियों में कोई परिवर्तन हुआ । आज़ादी के बाद की राजनीति ने आम जन को बद
से बत्तर स्थिति में पहुँचा दिया इसी कारण अदम की ग़जलों का तेवर ज्यादा राजनैतिक
है ।
राजनीति का जो चेहरा वो देखते थे उसे
समाज का आईना बनाती थी उनकी गज़लें और कविताएं । जैसा की वो लिखते हैं ‘देखना, सुनना और सच कहना
जिन्हें आता नहीं / कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गए / कल तलक जो हाशिए पर
भी न आते थे नजर / आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गए’(समय से मुठभेड़, पृ-31)। जिस जनता ने राजनीति को लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भ दिए । जिसने अपने
हाथों के छालों और पैरों में पड़ी बिवाइयों की परवाह किए बगैर राजनीतिक गलियारों को
रोशन किया । जिसके घर की चूल्हे की लकड़ी से इनके आशियाने रोशन हुए । क्या उस
कुर्सी और सत्ता पर बैठे राजनीतिक मठाधीशों ने उसकी रोटी का जुगाड़ किया ? नहीं । उस गरीब ने खुद को बेच कर दो वक्त की रोटी कमाई । इस
सच को अदम कुछ इस तरह कहते नजर आते हैं–‘रोटी
कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी/ जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है’(समय से मुठभेड़, पृ-64) या ‘गर्म रोटी की महक
पागल बना देती मुझे/ पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें’(समय से मुठभेड़, पृ-45)। गरीब की रोटी के अस्तित्व का सवाल उठाती अदम की कविता उनकी
पहचान है ।
सियासत, लोकतंत्र और व्यवस्था पर चाबुक मारती अदम की ग़ज़लों में एक ऐसी खनक सुनाई
देती है जैसी 7वें व 8वें दशक के कवियों में सुनाई देती थी । ‘अदम’ के समकालीन रहे ‘धूमिल’ और ‘श्रीकांत वर्मा’ अपनी कविताएँ ‘संसद से सड़क तक’ और ‘मगध’ में जहाँ व्यवस्था
के अंगों पर करारी चोट करते हैं वहीं अदम की गज़लें लोकतंत्र के सम्पूर्ण ढांचे को
अपना निशाना बनाती हैं–‘पक्के समाजवादी हैं तस्कर हो या डकैत
/इतना असर है खादी के उजलें लिबास में’(समय से
मुठभेड़, पृ-70)। आज़ादी से पूर्व जहाँ राजनीति में देश के महापुरुष सेवा, त्याग, बलिदान भाव से
आते थे उनका जीवन का लक्ष्य भारत की आज़ादी
था जिसके लिए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु जैसे देशभक्तों ने हँसते–हँसते
फाँसी को गले लगाया था तो वहीं लाला लाजपत राय अंग्रेजों के द्वारा मार दिए गए ।
गांधी, नेहरु और तमाम स्वतन्त्रता सैनानियों ने
जेलों में जुल्म सहा, यह सब था देश के स्वाभिमान और उससे
प्रेम के कारण । आज़ादी के बाद वहीं राजनीति महज़ कुर्सी का खेल बनकर रह जाती है–‘जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे / कमीशन दो तो
हिंदोस्तान को नीलाम कर देंगे’(समय से मुठभेड़,
पृ-40)। अदम का ठेठ व बेबाकपन
जितना उन्हें ‘लोक’ से जोड़ता है उतना ही उन्हें ‘वोकल’ भी बनाता हैं । हिंदी में नागार्जुन के पास जो राजनैतिक समझ व
उसे बयां करने का अंदाज था वही अदम में भी दिखाई देता है- ‘देखना, सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
/कुर्सियों पर फिर वहीं बापू के बंदर आ गए’(समय से मुठभेड़, पृ-31)। व्यवस्था के प्रति नागार्जुन की भी चिंता कुछ अदम की तरह थी- ‘बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के/ सरल सूत्र उलझाऊ
निकले तीनों बन्दर बापू के...सत्य अहिंसा फाँक रहे हैं तीनों बन्दर बापू के/ दल से
ऊपर, दल के नीचे तीनों बन्दर बापू के..../बापू को
ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के’ ।
आज़ादी के बाद आम जनता का राजनीति से
मोहभंग होता है । जिस आम आदमी और ग्रामीण परिवेश को गांधी असली भारत कहा करते थे
वह नक़्शे से गायब था । राजनीतिक पटल में जिसे समाजवाद के नाम से पहचाना गया था,
उसमें भी गांधी का हिन्दुस्तान व ग्रामीण समाज और उसका किसान उपेक्षित ही रहा-‘गाँधी का मुल्क है मगर हालात हैं अजीब’(समय से मुठभेड़, पृ-96)। किसान यहाँ कभी गरीबी में आत्महत्या को मजबूर होता है तो कभी सामंती
शोषण के कारण । मार्क्स जिस समाजवाद में मजदूर वर्ग के हक की मांग कर रहे थे ।
भारत के किसान की हालत मार्क्स के उस सर्वहारा मजदूर वर्ग से भी भयावह थी । भारतीय
संदर्भों में जब भी मजदूर व किसान की बात की जाएगी तो जाति आधारित भारतीय समाज को
हमें ध्यान में रखना ही होगा । जाति भारतीय समाजिक ढांचें का महतवपूर्ण अंग है।
भारत में वर्ग से अधिक गहरी पैठ जाति की है जो हमारे समाज की ‘जीन’ में है । अदम की
कविता ‘चमारों की गली’ जाति और वर्ग संघर्ष की इसी वास्तविकता से पर्दा उठाती है -‘क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया / कल तलक जो पाँव के
नीचे था रूतबा पा गया / कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो / सूअर के बच्चों
को अब कोरी नहीं हरिजन कहो’(समय से मुठभेड़,
पृ-100)। अदम की कविता
ग्रामीण परिवेश में सामंती सोच और जातिगत असमानता से उभरे प्रतिरोध को बयां करती
है । जहाँ वह स्वयं से व समाज से प्रश्न करने को बाध्य हैं कि क्यों अब अपने पर हो
रहे अत्याचार का विरोध न करें ? क्यों भाग्यहीन
होकर मरने पर मजबूर रहें–‘कैसे हो सकता है
होनी कह के हम टाला करें/और ये दुश्मन बहू–बेटी से
मुँह काला करें.../बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से’(समय से मुठभेड़, पृ-99) । अदम की ग़जलों का फ़लक विस्तरित है उसमें गाँव से लेकर देश तक
की तमाम समस्याएं है । इस तरह उनकी कविताएं समाज का पोस्टमार्टम करती नज़र आती हैं
।
अदम की कविताओं का तेवर कबीर की तरह
फक्कड़ रहा है, जैसा देखा वैसा कहा । कबीर जिस बात
को अपने समय में कर रहे थे- ‘मुंड मुडाएं हरि
मिले, सब कोई लेय मुड़ाय/ बार-बार के मुडते,
भेड़ न बैकुंठ जाय’ या ‘काकर पाथर जोरि कें मस्जिद लई बनाय /
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’। अदम लिखते हैं यह जो मंदिर–मस्जिद कि जंग है वह सत्ता की बनाई चाल है । जिसके पीछे का चेहरा कुछ और
है । असली जंग तो आम जनता की गरीबी को लेकर थी । जिसे सत्ता ने आकड़ों के खेल से
दबा दिया- ‘इलेक्शन भर मुसलमानों से हम रुमाल
बदलेंगे/ अभी बदला है चेहरा देखिए अब चाल बदलेंगे/ मिले कुर्सी तो दलबदलू कहो क्या
फर्क पड़ता है/ ये कोई वल्दियत है पार्टी हर साल बदलेंगे’(समय से मुठभेड़, पृ-95)। धर्म और मज़हब के नाम पर पहले ही भारत का विभाजन हो चुका है । उसके बाद
बाबरी विध्वंस, गुजरात दंगें, इन्दिरा गांधी की मौत के बाद भड़के सिक्ख दंगे व मुजफ्फरपुर दंगों ने न
जाने भारत के भीतर कितने ही जख्मों को उकेरा है । ‘अदम’ सियासत के इस दंगाई खेल से वाकिफ थे
इसीलिए वे बार-बार मज़हब के नाम पर खून की होली खेलने की इजाज़त नहीं देते और कहते
हैं ‘मजहब ढोंग है अभिशाप है’(समय से मुठभेड़, पृ-104)। आगे वह समझाते हैं और लिखते हैं -‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए/ अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को
मत छेड़िए/ गलतियाँ बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यूँ जले/ ऐसे नाज़ुक वक़्त में
हालात को मत छेड़िए / छेड़िए इक जंग मिल-जुलकर गरीबी के ख़िलाफ़/ दोस्त मेरे मज़हबी
नग्मात को मत छेड़िए’(समय से मुठभेड़, पृ-88)।
अदम की गज़लें व उनकी कविताओं का
राजनीति, उसके प्रत्येक अंग व उनकी क्रियाओं व
प्रतिक्रियाओं से गहरा वास्ता रहा है । रोज़ ब रोज़ घटने वाली घटनाओं को वे राजनीति
और आम आदमी के सरोकारों के केंद्र में रखकर देखते हैं । इसी कारण उनके यहाँ अपने
ही जनपद के कलेक्टर पर आक्षेप है । जो ग्रामीण परिवेश में घटित प्राकृतिक आपदा बाढ़
और सूखे के समय भी घूसखोरी करता है –‘महज़ तनख्वाह से
निपटेंगे क्या नखरे लुगाई के / हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के.../
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं/ पिछली बाढ़ के तौहफ़े हैं ये कंगन
कलाई के’(समय से मुठभेड़, पृ-72)। अदम अपने ही जनपद की राजनीति का
नग्न रूप उघाड़ते हैं तो वहीं केंद्र में विराजमान सत्ता के कुछ मुख्य चरित्रों
आडवाणी, गडकरी, बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे पर भी चुटकी लेने से पीछे नही हटते और कहते
हैं –‘आडवाणी, गडकरी आए तो पर्दा उठ गया/ सौदागर है वोट के दामन पसारे आ गए’(घरती की सतह पर)। अन्ना हज़ारे और रामदेव बाबा पर अदम लिखते
हैं-‘मोहतरम अन्ना हज़ारे आप क्या कर पाएंगे/
बस्तियाँ शीशे की है और संगदिल सरकार है/ अर्द्ध नारीश्वर हुए हैं जब से बाबा
रामदेव/ सोचता हूँ योग है या योग का व्यापार है’(कल के लिए, पृ-87)।
अदम ठेठ गँवई परिवेश के कवि हैं ।
हिंदी में त्रिलोचन में जो गँवई संस्कार दिखाई देता है वही अदम की गज़लों में देखा
जा सकता है । इनकी कविताएं और गज़लें इनके व्यक्तित्व के समान ही ‘झोपड़ियों से राजपथ का रास्ता हमवार हो’ का सफर तय करती हैं, जबकि उस समय रहे
धूमिल की कविताएं ‘संसद से सड़क तक’ का सफर तय करती हैं । अदम की कविताओं का आम आदमी राजपथ के
गलियारों में अपने हक की आवाज़ उठाता देखा जा सकता है जहाँ वो पंचवर्षीय योजनाओं की
असलियत सामने लाता है और कहता है –‘इधर एक दिन की
आमदनी का औसत है चवन्नी का/ उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है’(समय से मुठभेड़, पृ-64)। आज़ादी के इतने वर्षों के उपरांत भी गरीब की आमदनी में कोई
इजाफ़ा नहीं हुआ । योजनाएँ साल दर साल बनती और बढ़ती चली गई मगर गरीब की झोली
राजनीति में चलती बहसों (गरीब आदमी 20 रुपये में भरपेट
खाना खा सकता है) से भरती चली जाती है । अदम सरकारी योजनाओं के मूल चरित्र से अपने
समय में ही परिचित थे । जो आज भी उसी रूप में मौजूद हैं ।
अदम की रचनाएँ जहाँ एक ओर गरीब आदमी
की आमदनी का सवाल उठा रही थी तो दूसरी ओर अदम युवा पीढ़ी की आवाज को बुलंद कर संसद
के गलियारों में पहुंचा रहे थे और कह रहे थे –‘इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया/ सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ
सल्फास की’(समय से मुठभेड़, पृ-38)। आज जहाँ रोजगार
की समस्या बढ़ी जिसने युवाओं को न केवल मानसिक रूप से बीमार किया बल्कि कहें कि
अस्वस्थ समाज को भी जन्म दिया है । अदम वहीं कहते हैं कि यही वो युवा पीढ़ी है जो
समाज व राष्ट्र को बदलने का हौसला रखती है, लोकतन्त्र को पुनः स्थापित कर सकती है । आजाद होने का अहसास फिर से दिला
सकती है, यही है जो हमें भ्रष्ट राजनीति व सामंती
मानसिकता से मुक्त कर सकती है परंतु ‘जो बदल सकती है
इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज/ उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए’(समय से मुठभेड़, पृ-36)। लेकिन जिससे इतनी आशाएं हैं वह भी आज हताश है ।
अपने परिवेश से जुड़े सरोकारों को
उकेरने का जितना गहरा प्रयास अदम करते हैं वह अन्य में नहीं मिलता है । अदम की
कविताएं समाज की गहराई में जाकर उसकी नब्ज को पकड़ती हैं । ‘गाँव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही / या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा
रही/ हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए/ बेचती है जिस्म कृष्ना आज रोटी के
लिए’(समय से मुठभेड़, पृ-103)। आज पूरे भारत में स्त्री अस्मिता व
सुरक्षा का प्रश्न उठाया जा रहा है । अदम उसकी असलियत को बयां करते है । पूर्वोतर
के एक राज्य मणिपुर में ‘मनोरमा’, दिल्ली में ‘दामिनी’और भी न जाने कितनी ही ‘मत्स्यगंधा’, ‘अहिल्या’, ‘कृष्ना’और पांचाली सामंती मानसिकता और शोषण
का शिकार रोज हो रही हैं। अदम राष्ट्र की नीतियों से पस्त आम आदमी की बात कहते हैं
–‘ हर आदमी तौ है परेसां हर आदमी पस्त है /
मारौ पटक के जे कहय पन्दरा अगस्त है’(कल के लिए,
पृ-81)।
अदम का सम्पूर्ण साहित्य भले ही उनके दो काव्य संग्रहों ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’
में संकलित है । उसके बावजूद उसके भीतर तमाम ऐसी
पंक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें प्रतिरोध
के किसी भी मौके पर बुलंद नारे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है । अदम की
गज़लें और कविताएं सत्य को सामने लाने का एक धार-धार हथियार हैं । अदम जितने ही
जमीन से जुड़े रहे उतनी ही उनकी कविता वाचिक परिवेश ग्रहण करती हुई पाठक तक पहुँच
बनाती हैं। कहें की जितने वें ‘लोकल’ रहे उतने ही अधिक ‘वोकल’
भी । फिर चाहे ग्रामीण जीवन का कोई अंश ‘घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/ बताओ कैसे लिख दूँ
धूप फागुन की नशीली है’(समय से मुठभेड़, पृ-41) हो या राजनीति पर
करारा दंश ‘तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे जाम
सोने के/ यहाँ जुम्मन के घर आज भी फूटी रकाबी है’(समय से मुठभेड़, पृ-59)। उनकी यही सहज अभिव्यक्ति उन्हें अधिक जीवंत और आम आदमी से जोड़ती है ।
वरिष्ठ कहानीकार देवेन्द्र कहते हैं–‘नागार्जुन के बाद
प्रगतिशील काव्य परंपरा में अदम गोंडवी जैसी यथार्थवादी कविता किसी ने नहीं लिखी ।
यहाँ तक कि धूमिल की कविताओं में भी यथार्थ के उतने व्यापक चित्र नहीं थे जितनी
अदम की कविताओं में है’(कल के लिए, पृ-77 )।
अदम की कविता आम आदमी के अस्तित्व की
लड़ाई तथा व्यवस्था व विचारधारा के छदम के पर्दाफाश की कविता है । ऐसा नहीं है कि
वह ग्रामीण क्षेत्र तक ही सिमट कर रही हो, उन्होंने
सर्वहारा की चिंता में डुबे विचारकों सुकरात, रूसों, कबीर, बुद्ध, गाँधी से लेकर राजनीति के गलियारों में योजनाओं की
निर्मिति में चिंतित राजनीतिक विचारकों आडवाणी, गडकरी को भी अपनी रचनाओं में समेटा है । अदम भारत के इतिहास और पौराणिक
आख्यानों की तह में जाते हैं और वहाँ से वर्तमान की और रुख करते हैं । अदम की यह
आवाजाही उनकी ग़जलों और कविताओं में मिलती है जहाँ वह सुकरात से गाँधी तक के
ऐतिहासिक व राजनैतिक परिदृश्य पर लिखते हैं कि- ‘खुदी सुकरात की याकि हो गाँधी की/ सदाकत जिंदगी के मोर्चे पर हार जाती है’(समय से मुठभेड़, पृ-95)। व्यवस्था किसी भी समय की क्यों न हों ? हर बार सच्चा इंसान मारा जाता है । आज की सामाजिक और राजनैतिक
व्यवस्था इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । अदम ने मुख्यतः इतिहास, पुराण, प्रशासनिक अक्षमता व भ्रष्टाचार,
राजनीति में नैतिकता के हास, सामाजिक शोषण व विषमता, गरीबी, भुखमरी, सांप्रदायिकता,
मीडिया में पैदा हो रही विसंगतियों जैसे तमाम मुद्दों पर
अपनी लेखनी चलाई है । युगीन संदर्भों से अदम की कविता मुठभेड़ करती है और युवा पीढ़ी
को उनकी कविता बार-बार चेताती है । अदम की कविता का तेवर इस लेख का शीर्षक है,
जो काफ़ी कुछ बयां करता है । अदम ने अपने समय के बड़े
सवालों में हिंसा व अहिंसा के सवालों को भी सहज ढंग से उठाया- ‘लगी है होड़-सी देखों अमीरी और ग़रीबी में/ ये पूंजीवाद के
ढांचें की बुनयादी खराबी है’(समय से मुठभेड़,
पृ-59)। गाँधी का
अहिंसा सिद्धांत व नक्सलवाद का हिंसा का तरीका, कौन हमारे समय व समाज के लिए ठीक है यह वह तय करे जिसे हम सब ‘देश का भविष्य’ कहते है । गाँधी
के तरीके व उनके लोगों द्वारा पैदा की गई समस्याओं का ही परिणाम है नक्सलवाद ।
नक्सलवादी समस्या का कारण गाँधी की कांग्रेस ही है इसलिए अब इस हिंसा व अहिंसा के
विमर्श पर नई पीढ़ी सोचे व निर्णय ले कि क्या उचित है ।
ये नई पीढ़ी पर निर्भर है वही जजमेंट दे। फलसफा गांधी का
मौंजू है कि नक्सलवाद है ।। (समय से मुठभेड़, पृ-48 )
संदर्भ सूची
• समय से मुठभेड़, अदम गोंडवी,
वाणी प्रकाशन, संस्करण-2010,
नई दिल्ली
• घरती की सतह पर, अदम गोंडवी,
अनुज प्रकाशन, उत्तरप्रदेश
• कल के लिए(अदम गोंडवी स्मृति अंक),(सं.).डॉ.जयनारायण,अंक-75-77,वर्ष-2011-12 (दिसं-जून)
• http://www.hindisamay.com/kavita/adam-gondbi.htm
• http://kavitakosh.org/kk/तीनों_बन्दर_बापू_के_/_नागार्जुन
- भावना मासीवाल,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,संपर्क:9623650112,hawnasakura@gmail.com
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