चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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सिने-जगत:सिनेमा, स्त्री, नैतिकता और बाजार के बीच मध्य वर्ग -सुशील यति
बीतें कुछ वर्षो में
सिनेमा में तकनीकी, व्यवसायिक
और फिल्म उद्योग में काम करने वाले कलाकारों को लेकर बहुत से बदलाव हुए है. इस
बदलाव का संबन्ध सीधा बाजार के साथ है जिसने एक नए तरह की सिनेमा संस्कृति को जन्म
दिया है. उदाहरण के तौर पर बाजार से सिंगल-स्क्रिन (एकल पर्दा) सिनेमा हॉल लगभग लुप्त हो चुके है,
अब इसकी जगह मल्टीप्लैक्स
सिनेमा घर हमारे सामने है. सिनेमा निर्माण व प्रस्तुतीकरण की तकनीक में बदलाव के
साथ सिनेमा की विषय-वस्तु में भी नए-नए प्रयोग हो रहे है. साथ ही,
उपभोक्ताओं का एक ऐसा वर्ग
भी तैयार हो रहा है जिसको ध्यान में रखकर बाजार अपनी रुपरेखा तय कर रहा
है, यह
मध्यम वर्ग ही है जिसे लुभाने का प्रयास बाजार कर रहा है और इस प्रक्रिया में
सिनेमा और टीवी प्रमुख भूमिका में आ चुके है. सिनेमा की विषयवस्तु और तकनीक में आए
बदलाव के साथ एक चीज और है जिसमें बदलाव देखने को मिला है और वह है दर्शको की
नैतिकता के पैमाने में बदलाव. समय के साथ लोगो की नैतिकता को देखने के नजरिए में
अंतर पैदा हो रहा है. दूसरे शब्दों में कहे तो कल तक हमारा दर्शक वर्ग जिस दृश्य
या संवाद को नैतिकता के दायरे का उल्लंघन मानता था. आज वो बहुत हद तक उस दृश्य और
संवाद के साथ सहज नजर आ रहा है.
अगर थोड़ा पीछे चले और
सिनेमा के पर्दे पर स्त्रियों के चित्रण को देखे तो आज ऐसे बहुत से मोड नजर आते है जो परम्पराओं और रुढ़ियों
से होकर गुजरते है और सिनेमा के रुपहले पर्दे पर स्त्री की विभिन्न छवियों को
निर्धारित भी करते है. इससे यह भी पता चलता है कि अपनी इस प्रक्रिया में फिल्म
उद्योग हमारे समाज के तथाकथित मूल्यों से प्रभावित हो रहा था और जनता के बीच
लोकप्रिय माध्यमों को इसमें शामिल भी करता जा रहा था. जिसमें पारसी थियेटर, मराठी रंगमंच, जात्रा, नौटंकी जैसे लोकप्रिय रुप
शामिल है, जो आगे
चलकर इसके आवश्यक अंग भी बनते है. अपनी शुरुआत
से ही सिनेमा ने एक लोकप्रिय माध्यम के रुप में अपनी पहचान बनाई,
दर्शको को इस नई तकनीक ने
आकर्षित किया. दरअसल फिल्मकारों के लिए इस महंगे माध्यम के लिए धन तथा दूसरे
संसाधन जुटाना कही ज्यादा दुष्कर रहा। स्त्रियों की भूमिकाओं में भी पुरुष ही
अभिनय करते थे, इस
क्षेत्र में काम करने के लिए स्त्रियां आगे नहीं आती थी. सिनेमा (मूक) का यह ऐसा
दौर था जब स्त्रियों को फिल्मों में काम करना बहुत अच्छा नही माना जाता था और यह
मान्यता थी कि ‘अच्छे’ घर की स्त्रियों को
फिल्मों में काम नहीं करना चाहिए।[1] देखा जाए तो रंगमंच और
सिनेमा में स्त्रियों की उपस्थिति कुछ अपवादो को छोड़कर नगण्य ही रही.[2] इसके पीछे सामाजिक रुढ़िया
व सुरक्षा के सवाल तो थे ही, साथ ही पितृसत्तात्मक समाज
में स्त्रियों के लिए दोयम दर्जा भी इसकी एक प्रमुख वजह थी।
हिंदी सिनेमा ने स्त्रियों
की बहुत सी पारम्परिक व औपचारिक छवियां गढ़ी, ये छवियां उस दौर की मान्यताओं से मेंल खाती थी
और तात्कालीन रुढ़ियों को मजबूत भी करती रही. फिल्म उद्योग की यह विवशता कुछ अर्थो
में आज भी देखी जा सकती है जिससे हमारे दर्शक और
फिल्मकार बंधे हुए है. यहाँ पर यह समझना आवश्यक है कि ऐसा क्या हुआ है कि फिल्मकार
आज भी उन छवियों और रुपों से बाहर नहीं निकल पाएं? साथ ही,
इसमें पूंजी की क्या
भूमिका रही है? और, यह भी समझने की कोशिश करेंगे की कैसे नवउदारवाद
की प्रक्रिया ने सिनेमा को एक औजार के तौर पर प्रयोग करते हुए बाजार पर अपनी पकड़
और उपभोक्ताओं तक अपनी पहुँच बनाने के लिए इसे कैसे इस्तेमाल किया?
वर्ष 1935 में प्रदर्शित
होमी वाडिया निर्देशित ‘हंटरवाली’ एक ऐसी फिल्म है जिसकी
नायिका ने उस दौर में प्रचलित मान्यताओं के बाहर जाकर एक ऐसा किरदार निभाया जिसमें
स्त्री के लिए पुरुषों के साथ लड़ाई के दृश्य थे तथा जिसमें मुख्य भूमिका करने वाली अभिनेत्री नाडिया ‘फियरलैस नाडिया’ के तौर पर लोकप्रिय हुई.
हालांकि यह रोचक है कि इस अभिनेत्री की लोकप्रियता और उस दौर की भारतीय स्त्रियों
की स्थिति के साथ कोई सीधा संबन्ध नही था. ‘नाडिया’ की एक ‘रॉबिनहुड’ वाली छवि थी जिसमें वो
गरिबों और निर्बलों की रक्षा करने और अत्याचारियों को सजा देने की भूमिका में रहती
थी. यह स्त्री छवि दर्शकों को अपने ‘स्टंट’ और लड़ाई के दृश्यों से
लुभाती थी, जिसे
दर्शकों ने बहुत पसंद किया.
हालांकि बाद के वर्षो में
सिनेमा के रुपहले पर्दे पर ऐसी छवियों को बार बार पेश किया जाता रहा जो पुरुषों की
तरह ‘स्टंट’ कर सकती थी. इस प्रस्तुतीकरण
को लेकर नारी चेतना का सवाल नहीं था बल्कि इसके पीछे भी पितृसत्तात्मक सोच ही काम
कर रही थी. इन फिल्मों के कथानक में आमतौर पर इस तरह प्रयासों के बाद ‘पुरुष स्वामी’ के आगे नतमस्तक होकर उसकी
अधीनता स्वीकार करने का मानस ही प्रमुख था. उदाहरणस्वरुप ‘सीता और गीता’ (1972), ‘चालबाज’ (1989) जैसी फिल्में बनी. इसी क्रम में स्त्रियों
को केंद्र में रखकर महबूब ख़ान की 1957 में बनी ‘मदर इण्डिया’ जो एक स्त्री के संघर्षो
की कहानी है. ब्रिटीश हुकुमत से भारत की आजादी और बँटवारे के 10 साल बाद प्रदर्शित
यह फिल्म आजाद भारत में भारत की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर को ‘राष्ट्र’ और ‘भारत माता’ के बिंब के तौर पर हमारे
सामने प्रस्तुत करती है. दूसरी तरफ,
यह फिल्म एक ‘भारतीय नारी’ की आदर्श छवि को ही हमारे
सामने रखती है जो पारम्पुरिक, नैतिक, कानूनसम्मत तथा सामाजिक मान्यताओं को सबसे उपर
रखने वाली हो. गौरतलब है कि इससे पूर्व महबूब खान ‘औरत’ (1940) नाम से भी एक फिल्म
बना चुके थे.
1970 के बाद से हिंदी
सिनेमा ने मुख्यधारा की लीक से हटकर यथार्थवादी फिल्मों एक नई धारा प्रस्तुत की
जिसे सिनेमा की नई लहर (न्यू वेव) कहा गया. इस धारा के फिल्मकारों में अग्रणी
श्याम बेनेगल, मणि
कौल, कमल
स्वरुप, कुमार
साहनी, गोविंद
निहलानी, एम.एस.
सथ्यू प्रमुख रहे. इस दौर में श्याम बेनेगल ने स्त्रियों को केंद्र में रखकर कुछ
गैर-पारम्परिक फिल्मे बनाई जिसमें ‘अकुंर’ (1973), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977) प्रमुख रही. इसी क्रम में केतन मेंहता
निर्देशित ‘मिर्च-मसाला’ (1985) भी महिलाओं के विरुद्ध शोषण और अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती फिल्म
है. इसके बाद एक लबां दौर ऐसी फिल्मों का रहा जिसमें स्त्री किरदारों को पुरुष की
सहायक भूमिका में और समाज के पारम्परिक स्वरुप के अनुरुप व्यवहार कुशल स्त्री की
छवि गढ़ी गई जिसका अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं है और जो पितृसत्ता के नियमों के
अनुकूल ही स्वयं को देखती है.
1990 के बाद से फिल्मों का
एक ऐसा दौर भी आया जब स्त्रियों की भूमिका को लेकर नए तरह के
बदलाव हुए और हमें पर्दे
पर स्त्री की एक गैर-पारम्परिक छवि देखने को मिली। हालांकि,
ये फिल्में भी पूरी तरह से
स्त्री-प्रधान फिल्में तो नहीं रही लेकिन स्त्रियों को लेकर नए तरह के किरदार
लिखने की शुरुआत हो चुकी थी। दूसरी तरफ बाजार की यह
मांग भी थी कि जब नए दौर में स्त्रियां अपने घरों से निकल रही है,
और अपने फैसले स्वयं लेने
लगी है. ऐसे में फिल्म का कथानक इससे अछूता कैसे रह सकता था. यहां पर यह भी गौर
करना चाहिए कि यही कामकाजी महिलाए इन नए दर्शकों का एक बड़ा वर्ग भी बन कर उभर रही
थी. इसी बीच स्त्री यौनिकता (सेक्सुएलिटी) को लेकर कुछ फिल्मे आई और स्त्रियों की
पर्दे पर प्रस्तुति को लेकर कुछ विवाद भी सामने आए. फूलन देवी पर बनी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ (1994),
अपने विषय-वस्तु और कुछ
दृश्यों को लेकर विवादों में रही. अंतत: कोर्ट से मंजूरी मिलने के
बाद ही फिल्म रिलीज हो पाई. इसी तरह दीपा मेंहता कि चर्चित फिल्म ‘फायर’ (1996) जो दो स्त्रियों के
बीच समलैंगिक संबंधो के कारण विवादों से घिरी रही.
प्रकाश झा जातिय हिंसा पर
बनी अपनी पहली फिल्म ‘दामूल’ के कारण चर्चा में थे,
ने एक स्त्री को मुख्य
किरदार में रखकर ‘मृत्युदंड’ (1997) बनाई। इसी तरह और
भी फिल्मकार नए-नए स्त्री किरदारों को लेकर आ रहे थे. जिसमें राजकुमार संतोषी की ‘लज्जा’ (2001),
चंद्र प्रकाश द्विवेदी की ‘पिंजर’ (2003),
प्रदीप सरकार की ‘परिणिता’ (2005),
मधुर भण्डारकर की ‘पेज 3’ (2005),
दिपा मेंहता की ‘वाटर’ (2005),
संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ (2005),
अनुराग कश्यप की ‘दैट गर्ल इन यैल्लो बूट्स’ (2010), राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्लड जेसिका’ (2011), मिलन लूथरिया कि ‘द डर्टी पिक्चर’ (2011),
आनंद राय की ‘तनु वेड्स मनु’ (2011),
विशाल भारद्वाज की ‘7 खून माफ’ (2011),
गौरी शिंदे निर्देशित ‘इग्लिश विग्लिश’ (2012),
सुजोय घोष की ‘कहानी’ (2012),
ओमंग कुमार की ‘मैरी कॉम’ (2014),
सौमिक सेन की ‘गुलाबी गैंग’ (2014),
इम्तियाज़ अली निर्देशित ‘हाइवे’ (2014),
विकास बहल की ‘क्वीन’ (2014),
आनंद राय निर्देशित ‘तनु वेड्स मनु रिटर्नस’ (2015) प्रमुख रही है. इसी बीच आई ‘रिवॉल्वर रानी’ (2014), और ‘मर्दानी’ (2014) कुछ ऐसी फिल्में है
जिन्होने विशिष्ट तौर पर मुख्यधारा के सिनेमा के पैटर्न का अनुसरण करते हुए ‘पुरुष’ की जगह ‘स्त्री’ को रखकर एक कथानक का
निर्माण किया. इस तरह के ‘रोल-रिवर्सल’ से उपजी कहानियों में स्त्री मुख्य भूमिका में होते हुए भी मुख्य भूमिका में
नजर नहीं आती और फिल्म एक खराब पैरोड़ी बनकर रह जाती है।
हाल ही में रिलीज हिंदी की
तीन फिल्मों ने हिंदी सिनेमा के पटल पर स्त्रियों की स्थिति और उनसे जुड़ी विभिन्न
छवियों को हमारे सामने प्रस्तुत करती. ये तीन फिल्में जिनमें ‘पिंक’ (2016), ‘पारच्ड’ (2016)
और ‘अकीरा’ (2016)
शामिल है. एक ही समय में तीन फिल्में जिनमें समाज की अलग-अलग प़ष्ठभूमी वाली
महिलाओं के चित्रण और अपने समय और स्थान के अनुसार उसे समझने का एक नजरिया हमारे
सामने रखती है. अगर इन तीन फिल्मों को समानान्तर क्रम में रख कर भी देखना चाहिए.
उदाहरण के तौर पर ‘पिंक’ एक शहरी मध्यम वर्ग की
कामकाजी महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई, जिसमें स्त्रीयों के चुनाव के सवाल और ‘ना कह पाने’ के उनके अधिकार को लेकर
फिल्म का कथानक संवैधानिक फ्रेमवर्क में महिलाओं के अधिकारों के पक्ष में खड़ा
होता है. ‘पिंक’ न्याय के लिए लड़ती तीन
लड़कियों की उलझन, बैचेनी, दृढ़निश्चय और संघर्ष को रेखांकित करती है. शहरी मध्यमवर्गीय कामकाजी
महिलाओं की जिंदगी में ‘ना का मतलब ना’ और आजादी को महसूस करने की
एक कोशिश है यह फिल्म, शहर और उसमें लड़कियो के
लिए जिंदगी की मुश्किलों का बयान करती है. दूसरी तरफ, ‘पारच्ड’ का कथानक ग्रामीण परिवेश में
महिलाओं की जिंदगी की धूरी को पकड़ने की कोशिश करती है जिससे उनके ऊपर पितृसत्ता के नाम
पर होने वाले अत्याचार और हिंसा जो तथाकथित इज्जतदार समाज की नजरों में ‘सामान्य’ का स्टेटस प्राप्त कर चुके
है. इन महिला किरदारों की कुछ हद तक अलग अलग जिंदगी होने के बावजूद तीनों एक दूसरे
के दुख और जीवन में एक दूसरे को देख पाती है और यही से उनकी सामुहिकता का भी
निर्माण होता है और एक दूसरे के लिए लड़ने का जज्ब़ा भी जन्म लेता है. तीसरी फिल्म
का कथानक ‘अकीरा’ (फिल्म
टाइटल) की जिंदगी के आसपास ही घूमता है. जो तमाम विपरित परिस्थितियों में खुद को
बेगुनाह साबित करने की कोशिशो में लगी हुई है. फिल्म अकीरा के बचपन से शुरु होती
है जब वह अपनी एक सहपाठी के ऊपर तेजाब फेंके जाने की घटना के बाद अपने अंदर के डर
को खत्म करने के लिए जूड़ो-कराटे की ट्रेनिंग लेती है और वापस आकर उन लड़को का
मुकाबला करती है और इसी बीच अपनी आत्मरक्षा में एक लड़के को तेजाब से झुलसा देती
है. जिसके बाद उसे सुधार गृह में भेज दिया जाता है, और अकीरा की जिंदगी बदल
जाती है. भ्रष्ट व्यवस्था और समाज के दोमुहेपन की शिकार ‘अकीरा’ अपने शारिरिक क्षमताओं जो
की अद्भुत की श्रेणी के करीब है, तथा जो अपने किसी भी
तात्कालीन नायक से युद्ध कौशल के करीब खड़ा कर देता है. दूसरे शब्दों में कहे तो
अकीरा तमाम नकारात्मक परिस्थितियों के भी अपनी ताकत के बल पर सब पर जीत हासिल करती
है और अंततः विजयी होती है. यह कथानक हमें कई बार लुभाता है – और हम सोचते है कि काश सभी लड़कियां इसी प्रकार की हो जाए तो उन्हें
कोई छेड़ेगा नहीं, कोई उनका बलात्कार नहीं
करेंगा, उनका पति उन्हें पीटेगा नहीं, न ही उन पर कोई तेजाब
फेकेगा. हालांकि दूसरी फिल्मों की तरह यह फिल्म भी अपनी फिल्म के सभी पात्रों के
काल्पनिक होने तथा उनका किसी वास्तविक घटना से कोई संबन्ध न होने का दावा करती है.
अकीरा जिस पृष्ठभूमी को हमारे सामने रखती है उसमें पुलिस तंत्र हत्याएं कर रहा है, नेताओं के साथ भ्रष्टाचार का षणयंत्र रचा जा रहा है. और जिसके पास
ताकत वो सत्ता और व्यवस्था का अपने लिए जैसे चाहे वैसे इस्तेमाल कर रहा है. इसी
बीच अकीरा अपनी ताकत के साथ इस तंत्र में शामिल होती है और कहानी को एक नया मोड़
देती है. कानूनी और गैर-कानूनी की सीमाओं के पार यहां अपनी ताकत का पूरा इस्तेमाल
करने की एक किरदार की अपनी परिस्थितियों को फिल्म हमारे सामने रखती है.
इस फिल्म को देखते हुए
हमारे मन में एक विचार तो जरुर आता है कि महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को
रोकने के लिए क्या उन्हें अकीरा जितना शक्तिशाली होना होगा? ऐसा क्या है कि न्यायालय और संविधान के होते हुए भी महिलाओं पर अत्याचार
होते है और उन्हें न्याय नहीं मिलता? अकीरा एक काल्पनिक फिल्म
है लेकिन वैधानिक और गैर-वैधानिक के कैनवास को हमारे सामने खोलती है.
नृत्य,
गीत और
संगीत
मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा
की कल्पना बिना नृत्य, गीत और संगीत इसके नहीं की जा सकती.
हालांकि बीते वर्षो में इसमें कुछ बदलाव भी हुए है. यह बदलाव सिनेमाई-प्रस्तुतीकरण
को लेकर ज्यादा है जिसमें कॉरियोग्राफी (नृत्य-निर्देशन),
छायांकन (कैमरा),
सेट,
ड्रेस-डिजाइनिंग,
लाइटिंग (प्रकाश-व्यवस्था)
आदी चीजें है. जिसकी मदद से ‘ब़ॉलीवुड’ एक भव्य प्रस्तुतीकरण करने
में सफल होता है. हिंदी फिल्मों में नृत्य और गीत के इस उभार के पीछे शामक डावर,
फरहा ख़ान,
सरोज ख़ान,
रेमो डिसुजा,
अहमद खान जैसे
कोरियोग्राफरों (नृत्य निर्देशक) का योगदान रहा है. बॉलीवुड़ नृत्य-गीत जिनमें इन
दिनों ‘आइटम गीत’ प्रमुख है,
कई बार फिल्म की
लोकप्रियता को पीछे छोड़ते हुए अपनी एक अलग लोकप्रियता हासिल करते है. आइटम गीतों
की लोकप्रियता को इस बात से समझ सकते है कि एक टेलीविजन इंटरव्यू में फिल्मकार
सुभाष घई कहते है कि ‘फिल्म अभिनेत्रियाँ इन दिनों फिल्म की कहानी
सुनने से पहले जानना चाहती है कि फिल्म में वो कौन सा ‘आइटम-गीत’ कर रही है’. फिल्म उद्योग यह मानता है कि इन गीतों से
दर्शकों को लुभा कर सिनेमा हॉल तक लाया जा सकता है और फिल्म के प्रचार के लिए भी
इसका इस्तेमाल किया जाता है. इस प्रकार फिल्म में इस तरह के गीत और नृत्य एक
फॉर्मूलें की तरह इस्तेमाल किया ही जाता है, जिसे फिल्मकार एक जरुरत भी मानते है. हिंदी ‘पॉपुलर’ सिनेमा मुख्य तौर पर ‘नरेटिव’ (कथानक आधारित) सिनेमा है,
जिसमें कहानी प्रमुख होती
है। लेकिन इसकी एक प्रमुख पहचान इसके नृत्य और गीतों से भी है, जो फिल्म के कथानक के बीच- बीच में आते है। दूसरे
शब्दों में, कथानक
को मजबूत करने के लिए उसके साथ नृत्य और गीत-संगीत को बुना जाता है। इस प्रक्रिया
में फिल्म का कथानक और नृत्य दोनों ही समान तरिके से सौन्दर्य के मानक गढ़ते है या
फिर गढ़े हुए मानकों का इस्तेमाल करते हुए अपने किरदारों की पहचान स्थापित करते है
जिसमें दर्शकों के लिए अर्थ छुपे होते है. इसके साथ ही यहां पर नृत्य और संगीत में
पारंपरिक अर्थो तथा बिंबो वाली एक ‘सांस्कृतिक पहचान’ की भी जड़े है जिसे भी
समझने की आवश्यकता है.[3]
1960 के दशक में, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर अभिनेत्री हेलन की
उपस्थिति कोई सामान्य घटना नही थी। इस कलाकार की पर्दे पर उपस्थिति ने दर्शकों समेंत
फिल्मकारों को भी असहज किया और एक लंबे समय तक सिने-जगत को यह सूझा ही नहीं की इस
व्यक्तित्व को पर्दे पर कैसे प्रस्तुत
किया जाए। अपने इसी प्रयास में फिल्मकारों ने हेलन को कभी कैबरे नर्तकी, कभी किसी अपराधी की कोई विदेशी सहयोगी या अन्य तरह की नकारात्मक
छवियों के माध्यम से उसे हमारे सामने रखा। दरअसल इसका वजह यह थी कि अभिनेत्री हेलन
का छवि (सिनेमाई व्यक्तित्व) सिनेमा के पर्दे पर मौजुद स्त्रियों की पारम्परिक
छवियों से मेंल नहीं खाता था। और यह महत्वपूर्ण है कि हेलन एक गैर-पारम्परिक छवि
के साथ पर्दे पर अपनी उपस्थिति से दर्शकों को चौका रही थी। यह महत्वपूर्ण है
क्योकि हेलन का व्यक्तित्व और पर्दे पर उनकी उपस्थिति भारतीय समाज और नैतिकता के
संदर्भ में परम्परागत स्त्रियों की छवियों से बिल्कुल ही अलग रही. हेलन के रुप व ‘नयन-नक्श’ के कारण उन्हें ‘बाहरी’ या ‘विदेशी’ महिला के रुप में पहचाना
गया। इस कारण यह माना लिया गया कि पर्दे पर उनके
व्यवहार व भाव-भंगिमा से समाज की नैतिकता और मूल-संस्कृति को कोई नुकसान नही है।
यह मानते हुए हेलन को फिल्मी पर्दे पर स्वीकार किया गया तथा भारतीय ‘पुरुष’ मानसिकता ने इस छवि को
बहुत पसंद भी किया. अभिनेत्री हेलन को फिल्मकारों ने हमेंशा दो–ध्रुवीय छवियों के बीच एक
अलग छवि के बतौर प्रस्तुत किया। दूसरे शब्दों में कहे तो हेलन का किरदार फिल्म में
होता था, साथ ही
एक और स्त्री किरदार फिल्म में रहती था जो हेलन के किरदार से बिल्कुल अलग तथा
जिसकी नैतिकता और शूचिता तथाकथित भारतीय संस्कृति के अनुरुप रही।
भारतीय सिनेमा के शुरुआत में
पौराणिक कहानियों व धार्मिक ग्रन्थों को फिल्मों की विषय-वस्तु बनाया गया. इस दौर
के बाद धीरे धीरे हिंदी सिनेमा (बंबई फिल्म उद्योग) ने एक ऐसे कालखण्ड में प्रवेश
किया जहाँ वो मनोरंजन के लिए ही सही लेकिन स्त्री शरीर और व्यवहार में उन्मुक्तता, यौनिकता और सौन्दर्य तलाश रहा था और फिल्म रील में स्थान दे रहा था,
जो बाजार की मांग भी थी।
दरअसल आर्थिक उदारवाद की प्रक्रिया के बाद देश में एक ऐसा वातावरण निर्मित हुआ
जिसने ऐशो आराम और मनोरंजन के लिए एक सुगम माहौल का निर्माण किया और एक स्वतंत्र
आर्थिक तंत्र का भी विकसित हुआ।
फिल्मों में सेंसर,
यौनिकता
व नैतिकता का सवाल?
इसी बीच नृत्य और गीतों के
सीक्वेंस के माध्यम से सिनेमा दर्शकों की भावनात्मक और सेक्सुअल (यौनिक) फंतासियो
को खोजने वाला एक माध्यम बना. यही
वजह रही कि यह सिनेमा उस दौर का सबसे विशिष्ट मनोरंजन का माध्यम बन जाता है. यह
दर्शक वर्ग ‘व्यस्क’ था जिसे राज्य और सत्ता अपरिपक्व व एक गैर-राजनैतिक समूह के तौर पर देख रही थी. यह वही दौर था जब
फिल्म सेंसरशिप ज्यादा सख्त होने और फिल्मों को समाज में तथाकथित बुराई के जनक के
तौर पर पेश करने की शुरुआत हुई. इसी बीच सिनेमा में ‘नग्नता’ और दूसरे दृश्यो को सेंसर
करने के लिए वर्ष 1975-76 में खोसला कमेंटी का गठन किया गया. हालांकि,
कमेंटी ने अपनी विस्तृत
रिपोर्ट में पर्दे पर चुंबन को दिखाए जाने को लेकर अपनी सहमति
दी और कहा की यह दिखाया जा सकता है बशर्ते फिल्म में इसकी जरुरत हो तथा दिखाने का
तरिका उचित हो.[4] लेकिन इसके बावजूद भारतीय
फिल्मकारों ने पर्दे पर चुंबन के दृश्यों से लंबे समय तक परहेज किया. इस के पीछे
यह धारणा थी कि भारतीय दर्शक वर्ग इस तरह के दृश्यों के लिए तैयार नहीं है.
दूसरे शब्दों में कहें तो
यौनिकता और नैतिकता का यह द्वन्द्ध लगातार चलता रहा. इसी प्रकार राजीव गाँधी के
नेतृत्व वाली सरकार ने भी विज्ञापनों,
प्रकाशनों,
लेखनी,
पेंटिंग या अन्य किसी भी
माध्यम से महिलाओं के चित्रण को लेकर एक एक्ट[5] लेकर आई जिसे महिलाओं के
प्रति एक अच्छी सरकार की छवि बनाने के एक प्रयास के तौर पर देखा गया.
बंबइया सिनेमा लंबे समय तक
जिस दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर अपने दृश्य और किरदार गढ़ रहा था, वह प्रमुखतौर पर पुरुष वर्ग ही था. इस क्रम में
स्त्रियों को पर्दे पर एक वस्तु के तौर पर परोसने का ही प्रयास किया गया. इसी
प्रक्रिया में हिंदी सिनेमा ने पर्दे पर महिला के चरित्र-चित्रण के दौरान कुछ मानक
भी बनाए जिसमें स्त्री को मुख्य तौर पर दो ध्रुवों में बाँटा गया - एक थी ‘अच्छी’ औरत और दूसरी ‘बुरी’ औरत. यहां पर अच्छा और
बुरा इससे तय हो रहा था कि वे स्त्रियां अपनी यौनिकता को लेकर कितनी मुखर है.
दूसरी तरफ ‘अच्छी’ स्त्री हमेंशा से
पारिवारिक व पतिव्रत के गुणों वाली ही रही, उसके सभ्य और संस्कृत होने
के यही मायने थे. उदाहरण के लिए कारवाँ फिल्म (1971) का एक गीत ‘दिलबर दिल के प्यारे’, इस गीत में अरुणा इरानी और आशा पारेख दो ऐसी
स्त्रीयां है जिनको इस पैमाने पर दो विपरित ध्रुवों पर खड़ा किया गया है.
मध्य वर्ग की उलझन
शुरुआत से ही,
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज
व्यवस्था में स्त्रियों का दर्जा दोयम रहा और जो स्त्रियाँ सार्वजनिक तौर पर नृत्य, अभिनय आदी क्षेत्रों में कार्यरत थी उन्हें काफी लंबे समय तक हेय
दृष्टी से देखा गया. यहाँ तक की पारम्परिक नृत्य आदी को भी अनैतिक ही माना गया और
इसमें भी जातिगत अहम लंबे समय तक हावी रहा और तथाकथित उच्च जातियों ने इससे परहेज
ही किया. दरअसल, किसी भी प्रकार का कार्य जिसमें स्त्री-शरीर का व्यवहार स्वछंद तथा
मान्य परम्पराओं से अलग हो, स्त्री की बदनामी का कारण
था. और आज भी ऐसी स्त्रियों के उदाहरण मौजुद है जो बंबई फिल्म उद्योग में काम तो
करती है लेकिन जिन्होने कभी अपने घर पर
नहीं बताया कि वो फिल्म उद्योग में काम कर रही है [6] क्योकि इस बात की पूरी
संभावना है उन्हें वो काम नहीं करने दिया जाए. हालांकि यह गौर करने वाली बात है कि
बाजार की ताकतों ने कुछ हद तक सार्वजनिक तौर पर नैतिकता के संकरेपन को कम किया है.
लेकिन इसकी अपनी सीमाएं है और बाजार अंत्तोगत्वा स्त्री को उसके शरीर और उपभोग के
प्रतीक के रुप में ही स्थापित करता है जिसमें स्त्री-मुक्ति से
बाजार का बहुत कुछ लेना-देना नहीं होता है. अन्ना मोरकम कहती है, “ 90 के दशक के बाद से मध्यम वर्ग का नैतिकता को लेकर “दोहरापन” पूरी तरह से बदल चुका है.
वे आगे जोड़ती है, यह
बदलाव काफी रोचक है क्योकि मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाली लड़कियां भी
सार्वजनिक रुप से तथाकथित ‘सेक्सी गानों’ पर नृत्य करना शुरु कर
चुकी है.[7]
‘कैबरे’ से ‘आइटम गीतों’ तक
हिंदी सिनेमा ने अपनी
लोकप्रिय परम्परा को आगे बढ़ाते हुए एक लंबा रास्ता तय किया है. इसमें नृत्य-गीतों
की परंपरा प्रमुख रही है जिसमें आमतौर पर मेंला, शादी,
धार्मिक उत्सवों और अन्य
अवसरों पर होने वाले गीत शामिल है जिसकी भव्य प्रस्तुती में एक बड़ी संख्या में ‘एक्स्ट्रा आर्टिस्ट’ शामिल होते थे. इस प्रक्रिया में 1960 का दशक
महत्वपूर्ण है क्योकि इस समय तक अभिनेत्री हेलन पर्दे पर आ चुकी थी. ठीक इसी समय
फिल्म उद्योग में संगीत निर्देशक पाश्चात्य संगीत से प्रभावित होकर कुछ नए प्रयोग
कर रहे थे. हेलन ने रुपहले पर्दे पर अपनी उनमुक्त छवि के कारण दर्शकों का ध्यान आकर्षित
किया, जिसमें
अधिकतर संख्या पुरुषों की ही थी. 1970 का दशक आते-आते फिल्म गीतों के फिल्मांकन में ‘कोरस लाइन डांसिंग’ (समूह नृत्य) ने सिनेमा में
नृत्य के परिदृश्य को पूरी तरह से बदल दिया. समय के साथ फिल्म नृत्य और गीतों ने
लोकप्रिय लोक-कलाऐं भी इसमें शामिल हुई. यह 1980 का दशक था जब बंबई फिल्म उद्योग
के संगीत में एक बड़ा बदलाव सामने आया जो अपनी पूर्व की परिपाटी को तोड़कर एक नई
परम्परा की शुरुआत कर रहा था. जिसमें आर.डी.बर्मन और बप्पी लहरी जैसे संगीतकार
प्रमुख थे. यह संगीत पाश्चात्य धुनों से काफी प्रभावित रहा और इस पूरी प्रक्रिया में
बाजार के लिए पाश्चात्य संगीत के भारतीय संस्करण ईजाद किया जाने लगे. इस लिहाज से
अगर हम देखे तो ‘कर्ज’ (1980) और ‘डिस्को डान्सर’ (1982) जैसी फिल्मों ने
नृत्य निर्देशन (कॉरियोग्राफी), वाद्य यंत्रों और नृत्य और सेट डिजाइन को लेकर नए
तरह के प्रयोग किए. जिसका पूरा लाभ नव-उदारवादी नीतियों की वजह से फिल्म
व्यवसाइयों ने उठाया.
वर्तमान में आइटम गीत एक
फॉर्मूलें की तरह हो चुके है जिन्हें हिंदी मुख्यधारा की प्रत्येक फिल्म में होना
जरुरी है. यह 1990 का ही दशक था जिसने भारतीय फिल्म नृत्य के परिदृश्य को पूरी तरह
से बदल दिया. भारतीय फिल्म उद्योग अब शहरी दर्शकों के साथ साथ प्रवासी भारतीयों को
भी ध्यान में रखकर फिल्म का कथानक, कोरियोग्राफी तथा गीत-संगीत रच रहा था. कोरस की
भूमिका बदली और नए तरह की ‘आकृतियां’ और ‘शरीर’ सिनेमा के पर्दे पर नजर
आने शुरु हुए. इसकी शुरुआत यश चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘दिल तो पागल है’ (1997) से हुई.
मनोरंजन की अर्थव्यवस्था
नई आर्थिक व्यवस्था में
बहुत सी ताकतें बाजार के हक में एक साथ मिलकर काम करने लगी जिसमें वो आर्थिक
वातावरण के साथ-साथ सामाजिक वातावरण को भी प्रभावित करने लगी और साथ ही इसने इस पूरे परिवेश को एक नया अर्थ भी प्रदान किया।
इन्हें मुख्य तौर पर सामाजिक और राजनैतिक ताकतों के तौर पर देखा जा सकता है – जिसने व्यापार के साथ पूरी अर्थव्यवस्था पर भी अपनी पकड़ को मजबूत
किया। इसमें राजनैतिक दल, अपराध जगत, व्यापार जगत, मीडिया तथा शासन व्यवस्था
(सरकारें) शामिल रही और इन सभी ताकतों ने समय-समय पर अपने ‘वैध’ और ‘अवैध’ तरिकों से बाजार को मजबूती
प्रदान की.
1990 के बाद देश में उदारवादी आर्थिक नीतियों को
बढ़ावा दिया गया जिससे व्यापार जगत के लिए काफी सुगम वातावरण बना और उन्हें
व्यापार करने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई गई. लेकिन इन व्यापार जगत के
लिए इन अनुकूल परिस्थितियों ने श्रमिकों के अधिकारों के लिए उचित मेंहनताने तथा
काम करने की स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला जिससे फिल्म उद्योग भी अछूता नहीं
रहा. इससे शहरों में बड़ी संख्या में असंगठित मजदूर उत्पन्न हुए और फिल्म उद्योग में
काम करने वाला श्रमिक व कलाकार प्रभावित हुए. फिल्म उद्योग की आर्थिक संरचना और फिल्म
निर्माण की प्रक्रियाएं अपने श्रमिकों की आर्थिक असुरक्षा को बढ़ाती ही है. 1980
के पूर्वार्द्ध में भारत सरकार फिल्म उद्योग के इन श्रमिकों को ध्यान में रखते हुए
उनके लाभ को ध्यान में रखते हुए तीन विधेयक लेकर आई जो सिने-कलाकारों के हित की
बात तो करते है लेकिन असल हकीकत इसके विपरित ही है.
बंबई फिल्म उद्योग में इस
वजह से एक ऐसा वातावरण बना जिसमें राजनीति, अपराध जगत और फिल्म उद्योग
का गठजोड़ सामने आया. फिल्म उद्योग में “ब्लैक-मनी” का निवेश बढ़ा और धीरे
धीरे स्थितियां खराब होती चली गई. अपराध जगत ने न सिर्फ फिल्मों में निवेश किया
बल्कि फिल्म उद्योग की वृद्धि ने भी उन्हे धन-फिरौती के लिए एक आसान लक्ष्य दे
दिया और यह वहीं दौर था जब फिल्म जगत में विभिन्न कारणों को लेकर आपसी दुश्मनी, पेशेवर हत्याऐं और पेशेवर अपराधियों का प्रभाव बढ़ा. फिल्म उद्योग के
लिए यह एक ऐसा दौर था जब फिरौती और सुपारी को लेकर होने वाली हत्याऐं लंबे समय तक
अख़बारों की सुर्खिया बटोरती रही.
स्त्री, बाजार और तमाशा
बाजार तमाशा रचता है, और इस तमाशे का मोहरा स्त्री होती है. साथ ही इस तरह का भ्रम भी पैदा
किया जाता है जिससे यह धारणा बने कि यह सब कुछ लोकहित में ही घटित हो रहा है. इस
क्रम में फिल्म, विज्ञापनों, आइटम गीतों, खेल के नाम पर होने वाले आईपीएल जैसे आयोजनों, तथा दूसरे अन्य आयोजनों के नाम पर बाजार के नाम पर स्त्री की एक नई
छवि स्थापित करने की कोशिश की जाती है. खेल के बाजारीकरण के भारतीय संस्करण ‘इण्डियन प्रीमीयर लीग’ (आईपीएल) को एक उदाहरण के तौर पर लेते है - आईपीएल का आयोजन खेल को उपभोक्ताओं के सामने परोसने का रहता है जिसमें
मनोरंजन की पर्याप्त उपलब्धता हो. यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस क्रम में
बाजार के हक में एक नए तरह की राष्ट्रीयता को रचने का भी प्रयास किया जाता है.
भारतीय बाजार में आईपीएल
के आने के बाद देश में न सिर्फ एक नए तरह के अतिरंजना युक्त क्रिकेट के खेल का
आयोजन भारतीय बाजार के लिए शुरु किया गया. इस खेल की रुपरेखा इस तरह से बनाई गई
जिससे खेल की रफ्तार बढ़े. खेल की प्रकृति और पद्धती मूल रुप से आयातित थी. तथा इस
आयोजन में भाग लेने वाली टीमों का निर्माण और चयन भी उसी अनुसार किया गया. और खेल में ‘चीयर लीडरों’ की उपस्थिति को भी खेल का
आवश्यक अंग बनाया गया. खेल का यह नया कलेवर जिसमें नृत्य और संगीत को खेल के एक
आवश्यक अंग के रुप में प्रस्तुत किया गया. साथ ही चीयरलीडरों के शरीर को खास तरह
से परोसते शक्तिशाली कैमरों ने स्त्री शरीर को खेल के साथ जोड़ दिया और एक नए तरह
का मनोरंजन रचने में बाजार हमेंशा की तरह कामयाब रहा. अपनी पूरी प्रक्रिया में खेल
और उससे जुड़ी सभी बातों को भव्यतम और विशालतम रुप दिया गया. जिसके माध्यम से
बाजार ने अपनी भव्यता की अभिलाषा से लोगो को लुभाया. इसी बीच इस आयोजन के मंच को
फिल्मी सितारों और ढ़ेरो कलाकारों के लिए भी सजाया गया, जो इस आयोजन का हिस्सा बने. और इस तरह यह आयोजन सिर्फ खेल न रहकर
बाजार के एक नए औजार के रुप में हमारे सामने आया. यह स्पष्ट है कि बाजार की बहुत
सी ताकतें इस तरह के आयोजनों में सहयोग करती है और अपनी हिस्सेदारी निभाती
है जिससे उन्हें अपने विचार को फैलाने और अपना प्रभुत्व स्थापित करने में मदद
मिलती है. जैसे कि अभिनेता और खिलाड़ी इसी प्रक्रिया में विभिन्न उत्पादों का
विज्ञापन करते है. दरअसल, इन तमाशों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे
ये हमारे पूरे समाज का एक हिस्सा और उसका अभिन्न अंग हो. तथा कई बार इसे ही भारतीय
समाज मान लिया जाता है. दरअसल इस तरह के आयोजनों
और तमाशों से सोच समझकर एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न की जाती है ताकि लोग दिग्भ्रमिक
होकर बाजार के शिकंजे में फँसे.[8]
संदर्भ-सूची
[1]
दादा साहेब फालके को अपनी पहली फिल्म ‘राजा हरिशचन्द्र’
(1912) मे स्त्रियों की भूमिका मे भी पुरुष
कलाकार थे. उनकी अगली फिल्म ‘मोहिनी भष्मासुर’ (1913) मे भारतीय सिनेमा को पहली स्त्री नायिका मिली। कमलाबाई गोखले ‘मोहिनी भष्मासुर’ मे ‘मोहिनी’ की मुख्य भूमिका मे और उनकी माँ दुर्गाबाई कामत जो रंगमंच की
कलाकार थी ने इस फिल्म मे ‘पार्वती’ का किरदार किया था.
[3]
Chakravarty,
Pallavi. Moved to Dance: Remix, Rasa and a New India. “Visual
Anthropology”, Published in cooperation with the Commission on Visual Anthr opology, 22:2-3, 211-228, 2009.
[4] Pandukar, Manjunath. “INDIA’S
NATIONAL FILM POLICY: Shifting Currents in the 1990s.” Film Policy (ed.)
Albert Moran, London: Routledge, 1996.
[7]
Morcom,
Anna. Courtesan, Bar Girls & Dancing Boys : The illicit Worlds of Indian
Dance. Hachett India. Pg. 117
[8] Debord, Guy.
The Society of the spectacle. http://www.antiworld.se/project/references/texts/The_Society%20_Of%20_The%20_Spectacle.pdf
(Accessed online.)
(लेखक सिनेमा के शोधार्थी है, आप अपनी चिट्ठी sushil.yati@gmail.com पर भेज सकते है.)
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