चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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सिने-जगत: हिंदी सिनेमा एवं दलित अस्मिता –निशांत यादव
हाशिए का समाज विविध कलारूपों में
अभिव्यक्त होता रहा है| एक समन्वित कला के रूप में सिनेमा
में भी हाशिए का समाज चित्रित होता है | हाशिए के
समाज में “दलित समाज” ऐतिहासिक रूप से प्रमुख है| यह दलित समाज
विविध रूपों में हिंदी सिनेमा के इतिहास में व्यक्त होता आया है | हिंदी सिनेमा में कुछ ऐसे रचनाशील निर्देशक रहे है और वर्तमान
में भी है जो इन सामाजिक सरोकारों से सिनेमा बनाते हैं | ऐसे निर्देशकों की विषयवस्तु समाज की सच्चाईयों से निकलकर आती है |हिंदी सिनेमा ने अपने शैशवावस्था से
ही दलित बिम्ब को जागृत किया है परन्तु पात्र निरूपण तथा आख्यानात्मक निबंधन के
स्तरों पर सावधानी व चालाकी बरतता रहा | ऐसा क्यों
हुआ इसके लिए हमें उस दौर से अपनी बात शुरू करनी होगी जब पौराणिक फिल्मों पर
आधारित मिथक फिल्मों का चलन घटने लगा था और सामाजिक विषयों पर केन्द्रित फ़िल्में
अस्तित्व में आने लगी थीं | इन्हीं फिल्मों
में दलित सरोकार से सम्बंधित फ़िल्में भी आयीं |
सवाक फिल्मों (१९३१) के निर्माण होने
तक राष्ट्रवादी और दलित विमर्श एक-दूसरे से विपरीत दिशाओं में बहने लगे थे |
तत्कालीन संस्कृति कर्म राष्ट्रवादी सोच से गहराई से
प्रभावित हुआ | अधिकांश साहित्यकार, चित्रकार और रंगकर्मी शहरी उच्च जातीय परिवारों से ताल्लुक
रखते थे उनके राजनैतिक सरोकार दलित पीड़ा से पूर्णतया अछूते थे |हिंदी सिनेमा भी इस आग्रह से बच न
सका | उस समय ज्यादातर हिंदी फ़िल्मों का निर्माण
बम्बई और कलकत्ता में किया जाता था | इस विषय को और
गहराई से समझने के लिए इन पांच फिल्मों का विश्लेषण आवश्यक होगा जो औपनिवेशिक काल
में बनी थीं – ‘खुदा की बात’ (१९३० आर.एस. चौधरी), ‘चंडीदास’
(१९३४,नितिन बोस),
‘धर्मात्मा’ (१९३५,
वी. शांताराम), ‘अछूत
कन्या’ (१९३६, फ्रेत्ज़ आस्टन) तथा अछूत (१९४०, चंदूलाल
शाह) |
तीस के दशक की बहुचर्चित और सुपरहिट
फिल्म ‘अछूत कन्या’ है जिसे निरंजन पाल ने लिखा था | बाम्बे
टाकीज की सफलतम फिल्मों में से एक है जो एक अछूत बालिका (कस्तूरी) की कहानी है फिर
भी इस फिल्म में कोई ऐसा दृश्य नहीं है जो अस्पृश्यता को प्रकाश में लाता हो |
फिल्म की शुरुआत रेलवे फाटक के दृश्य से होती है जिसमे
एक व्यक्ति एक महिला की हत्या करने जा रहा महिला के रूप में कस्तूरी है और व्यक्ति
के तौर पर उसका पति | फिल्म की शेष कहानी फ्लैशबैक में है |
वस्तुतः ‘अछूत कन्या’ निरंजन पाल की रचना ‘द लेवल क्रासिंग’ पर आधारित
एक प्रेमगाथा है | कस्तूरी दलित है और वह गाँव के एक
ब्राह्मण युवक प्रताप से प्रेम करती है | प्रताप भी
उसे प्रेम करता है दोनों के प्रेम के बावजूद फ़िल्मकार दोनों का विवाह फिल्म में
दिखाने का साहस नहीं कर पाता है | अंततः कस्तूरी का
विवाह सजातीय युवक से कर दिया जाता है | एक दिन
अचानक कस्तूरी और प्रताप की मुलाकात मेले में हो जाती है | कस्तूरी का पति ईर्ष्या से भर उठता है उसे संदेह है की यह मुलाकात पूर्व
नियोजित थी | वह प्रताप पर जानलेवा हमला करता है |
लड़ते-लड़ते दोनों रेलवे क्रासिंग तक जा पहुँचते हैं
रेलगाड़ी आने ही वाली थी | कस्तूरी दोनों को
छुड़ाने की कोशिश में खुद ही रेल के पहियों के नीचे आ जाती है | इस प्रकार एक अछूत बालिका अपने जीवन का बलिदान देती है ताकि
समाज में ऊँची और नीची जाति के लोग शांति से रहें |
चालीस के दशक में दलित बिम्ब को
रेखांकित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण फिल्म ‘अछूत’ है | गाँव के कुएं से पानी के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लक्ष्मी के पिता को ईसाई
बनने पर मजबूर कर देता है | लक्ष्मी की मां
अपना धर्म छोड़ने के लिए तैयार नहीं है | पारिवारिक
कलह के बीच परिस्थितियां इस प्रकार बदलती हैं कि लक्ष्मी शहर में रहने वाले एक
व्यवसायी परिवार की शरण में चली जाती है | इस परिवार
में लक्ष्मी की हम उम्र संतान सविता भी है | दोनों सहेलियां इकठ्ठा शिक्षा ग्रहण कर रही हैं | संयोग से जब सविता को यह पता चला तो उसने लक्ष्मी को वापस गाँव भेज दिया |
गाँव पहुंचकर लक्ष्मी देखती है कि
छुआछूत अभी बरक़रार ही नहीं है वरन कुछ हद तक बढ़ भी गया है | राम की मदद से छुआछूत के खिलाफ अछूतों को लामबंद करती है | गाँव के सवर्ण समाज को लक्ष्मी की गतिविधियां रास नहीं आई |
वह छल द्वारा लक्ष्मी को जेल भिजवा देते हैं | इसी बीच
रामू की असमय मृत्यु हो जाती है | अछूत बेसहारा हो
गए लेकिन उन्होंने लक्ष्मी और रामू के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दिया | उनके इस संकल्प ने सवर्ण समाज को जड़ से हिला दिया | अंततोगत्वा गाँव के मंदिर में सभी जातियों को प्रवेश की
अनुमति मिल जाती है | फिल्म के अंतिम दृश्य में गाँधी जी
के वायकोम सत्याग्रह (१९२७) की प्रतिध्वनियाँ साफ़ सुनी जा सकती हैं |
कुल मिलाकर ‘अछूत समस्या’ के प्रति तत्कालीन समाज की
संवेदनहीनता का सहज आंकलन इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि ऐसी दूसरी फिल्म के लिए
हिंदी सिनेमा को पूरे उन्नीस वर्ष इंतजार करने पड़े | सन १९५९ में ‘विमल रॉय’ ने ‘सुजाता’ फिल्म बनाई | जो एक बार फिर एक अछूत लड़की और एक
ब्राह्मण लड़के के प्रेम की कहानी थी |यह वह समय है जब अम्बेडकर यह घोषणा
कर चुके थे कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनैतिक लोकतंत्र का कोई अर्थ
नहीं है | इस समय तक हिन्दू कोड बिल पास हो चुका था
तथा छुआछूत का क़ानूनी रूप से अंत हो चुका था | शायद इसी वजह से समाज में चेतना आने के साथ-साथ फ़िल्मकार भी खतरा उठाने को
तैयार थे | इसीलिए विमल रॉय ने फ्रेत्ज़ आस्टन से
आगे निकलकर सामाजिक ढांचें को चुनौती दी और अछूत लड़की की ब्राह्मण लड़के से विवाह
को संभव बनाकर हिंदी सिनेमा के परदे पर एक नया रंग उकेरा और दर्शकों को वह दिखाया
जो सामंती जाति व्यवस्था में स्वीकार्य नहीं था |
यह वह दौर था जहाँ एक तरफ राज कपूर,
गुरुदत्त आदि की फ़िल्में नेहरूवियन तिलिस्म को तोड़ने का
कार्य कर रहीं थीं और दूसरी तरफ आज़ाद देश के लिए उत्साह व ऊर्जा का संचार करने
वाली फ़िल्में भी निर्मित हो रहीं थीं, इस बीच
विमल रॉय ने ‘सुजाता’ फिल्म बनाकर उस ‘दलित विमर्श’
को जीवित रखा जिसे पिछले उन्नीस वर्षों में हिंदी सिनेमा
ने लगभग भुला दिया था |मुख्यधारा की हिंदी सिनेमा में ‘दलित’ विषय पर तीसरी
महत्वपूर्ण फिल्म के लिए एक बार पुनः पंद्रह वर्षों का लम्बा इंतजार करना पड़ा |
वर्ष १९७४ में चर्चित निर्देशक श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ नामक फिल्म का
निर्माण किया | जिसमें उन्होंने भी एक अछूत और एक
ब्राह्मण के मध्य संबंधों को दिखाया | इस फिल्म
के द्वारा भारतीय समाज के जातिवादी पाखंड और स्त्रियों के सन्दर्भ में दोगली
प्रवृत्ति पर करारा व्यंग किया गया |फिल्म का नायक अछूत स्त्री के साथ
शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करता है और सामंती सोच की खोखली प्रवृत्ति को व्यक्त करता
है | क्योंकि सामंती व्यवस्था की पितृसत्तात्मक
मानसिकता बिस्तर पर औरत जाति से नहीं वरण उसके भौतिक शरीर से मतलब रखती है |
खास तौर पर फ़िल्मी दुनिया के बाहर ‘भंवरी देवी’ केस में इस तथ्य
को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है|
श्याम बेनेगल के बाद फ़िल्मकार
सत्यजीत राय ने प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ पर उसी नाम से फिल्म बनाई | जिसमें मुख्य पात्र ब्राह्मण घासीराम, अछूत दूखी और उसकी पत्नी मनुरिया हैं | रंगमंच और कलात्मक सिनेमा से जुड़े अदाकारों की मदद से सत्यजीत राय ने दुखी
की निर्धनता, मनुरिया के भोलेपन और घासीराम की
धूर्त्तता को पर्दे पर ज्यों-का त्यों दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी | बीमार दुखिया का कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरना, घासीराम का पूजा-पाठ के नाम पर आडम्बर तथा अंतिम दृश्य में
दुखीराम की लाश को दूर तक घसीटता घासीराम दर्शकों को गहराई से प्रभावित करता है |
सन १९९१ में दलित प्रश्न को केंद्र
में लाने वाली फिल्म ‘दीक्षा’ (अरुण कौल) है | यू. आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास पर
आधारित ‘दीक्षा’ एक ब्राह्मण गुरु और उसकी पुत्री की गाथा है | गुरुकुल में गुरु का प्रिय शिष्य कोगा भी रहता है | कोगा दलित है लेकिन धर्मशास्त्रों को पूरी तरह समझने की लालसा रखता है |
इस बीच एक हादसा हो गया | गुरु की गैरहाजिरी में उनकी पुत्री गर्भवती हो गई | अजन्मी संतान का पिता स्थानीय स्कूल का अध्यापक है जो एक विधवा से विवाह
करने का साहस नही जुटा पाता |
बेचारी विधवा को गर्भपात कराना पड़ता
है | जब गुरु लौट कर आये तो उन्होंने घटश्राद्ध
(जीवित व्यक्ति का श्राद्ध) करने का निर्णय लिया | जीवित व्यक्ति कोई और नहीं वरण उनकी विधवा पुत्री थी | ब्राह्मणों ने गुरु के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की
लेकिन शिष्यों में विद्रोह की आग भड़क उठी | विद्रोह का नेतृत्व कोगा ने किया उसे अब दीक्षा की जरुरत नहीं रही और उसने
आश्रम छोड़ दिया | सद्गति की तरह दीक्षा भी ब्राह्मणों
के कर्मकांडीय जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगाती है लेकिन जाती व्यवस्था से मुक्त होने
का रास्ता नहीं दिखाती है |
श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी ‘समर’ (१९९९) दलित बिम्ब
को प्रकाशित करने वाली सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है | यह फिल्म १९९१ में मध्य प्रदेश के कुल्ल गाँव में घटित होने वाली सच्ची
घटना पर आधारित है | इस वर्ष दलित बहुल कुल्ल गाँव में एक
हैण्डपम्प लगाया गया जिसका सर्वाधिक विरोध राजपूत जाति के सरपंच और उसके सहयोगियों
ने किया |कुल्ल में दलित उत्पीड़न का इतिहास
काफी पुराना है | बात-बात में उन्हें पीट देना,
कोड़े लगाना, यातनाएं
देना उनके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है | ‘समर’ को यथार्थवादी स्पर्श प्रदान करने के
लिए उसका फिल्मांकन इसी गाँव में किया गया | फिल्म के मुख्य पात्र आख्यान की बुनावट समानांतरचलने वाले उपाख्यानों की
मदद से की गई | मसलन एक आख्यान बम्बई से कुल्ल पधारे
एक फिल्म यूनिट के वास्तविक अनुभवों का लेखा जोखा है तो दूसरा १९९१ की इस घटना को
नाटकीय ढंग से पुनर्जीवित करने का प्रयास | इस प्रकार श्याम बेनेगल ने सिनेमाई आख्यान के परंपरागत रूप को तोड़ने की
कोशिश की लेकिन दलित जीवन पर बनीं एनी फिल्मों की तरह ‘समर’ भी दलितों के प्रति शहरी, सवर्ण समाज की दया दृष्टि का बनकर रह गई |
अफसोसजनक है कि स्वतंत्रोत्त्तर काल
में भी फ़िल्मकार अस्पृश्यता उन्मूलन को ही दलित विमर्श की तार्किक परिणति मान बैठे
| रामू वासुदेवन का मानना है कि यह एक सचेतन
निर्णय था | १९४५ के बाद हिंदी सिनेमा ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ से बुरी
तरह ग्रसित हो गया | हिन्दू अलगाव तथा दर्शकों की उपेक्षा
के भय ने सिने उद्योग को ऐसी फ़िल्में बनाने पर मजबूर किया जो समरस हिन्दू राष्ट्र
की वह पहचान बनाने में सहायक हो जिसमें अन्य पहचान स्वतः धीरे-धीरे विलीन हो जायं |यूँ तो कई फिल्मों में प्रसंगतः एवं
जरुरतन संगति के तौर पर दलित जीवन चित्रित हुआ है | परन्तु केवल दलित जीवन पर ही केन्द्रित फिल्मों में चार ऐसी हैं जो इस
चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं – ‘पार’, ‘दामुल’, ‘आक्रोश’, एवं ‘समर’ | कालक्रम चेतना को छोड़ भी दें तो अपने तथ्यगत सरोकारों की
चेतना सोपान-दा-सोपान की यात्रा का क्रम भी यही होगा |गौतम घोष की ‘पार’ में दलित वर्ग का शोषण, दमन एवं उनकी असहाय स्थिति अपने उसी उत्कर्ष पर है, जो जीवन व युग की कटु सच्चाई रही है | इसमें चारों तरफ से लाचार व निरुपाय होकर एक दलित पति-पत्नी अपना गाँव
छोड़कर शहर जाते हैं, पर जीवन के बरक्श फिल्म की गवाही में
वहां भी सब कुछ वैसा ही है | उत्पीड़न व बेबसी
के अलावा फ़िल्मकार के पास भी कुछ न था और कहना होगा कि इसे इस सशक्त माध्यम में
जितना खरा दिखाया जा सकता था, दिखाया गया और
नसीरुद्दीन शाह तथा स्मिता पाटिल ने उतने ही सटीक भाव व अदा से ऐसा संसार रचा कि
उसका जवाब सिसकियों में अहका-बहा |
फ़िल्मकार की कला चेतना में सांकेतिक
रूप से दलित जीवन का विनाश यथार्थ से कुछ सोपान आगे भी जाकर व्यक्त हुआ | सूअर को नदी पार कराते हुए स्मिता पाटिल का गर्भपात भी हो गया
यानी इस जीवन में तो कुछ मिला नहीं न ठीक से करने को, न पाने को उलटे भावी पीढ़ी तक को भी नष्ट कर दिया इस क्रूर व्यवस्था तंत्र
एवं कुटिल निर्दयी संचालकों ने |जीने मात्र के लिए कुछ भी करने को
तैयार हो जाने की मज़बूरी में सूअर को नदी पार कराने के काम को जान की बाज़ी लगाने
की तरह स्वीकार करते हुए जो भाव नसीरुद्दीन और स्मिता के चेहरे पर था, वह बलि के बकरे से भी ज्यादा मर्मान्तक था | दलित जीवन के पास कुछ न होने से शुरू होकर कुछ पाने की कोशिश
में सब कुछ (वर्तमान तथा भविष्य) को गंवानें की लहूलुहान यात्रा का ही दस्तावेज है
फिल्म – “पार” |
दामुल में प्रकाश झा ने दलित वर्ग की
विवशता का वह चरम दिखाया, जिसमे सवर्णों के
दमनचक्र की वे हदें सामने आईं जो दलितों को गाँव की जद में बांध देती हैं तथा शहर
जाकर कमाने का मौका भी नहीं पाते हैं दलित |रात को चुपचाप भागते हुए को लाठी के बल पर रोक दिया जाता है | व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों के हनन का यह क्रूर इतिहास शैवाल
ने बिहार में आँखों देखा होगा और वहीं के प्रकाश झा ने इसे महसूस किया | इस दलित केन्द्रित चेतना पर आधारित यह फिल्म दलित जीवन के
सचमुच के ‘फांसी-डामल’ को ‘दामुल’ के रूप में उजागर करती है |
कहा जा सकता है कि ये दोनों ही
फ़िल्में दलित जीवन के वीभत्सतम यथार्थ से वाबस्ता हैं | यह यह फिल्म १९८५ में आई जो बिहार प्रान्त के गया जिले के शैवाल की कहानी
कालसूत्र पर आधारित है | फिल्म में अन्नू
कपूर, दीप्ति नवल और मनोहर सिंह आदि थे लेकिन शहर
में बैठे गोविन्द निहलानी ने राष्ट्रीय (शहरी) स्तर पर विकास व एक्सपोजर को ही
देखा था बल्कि यूँ कहें कि इस चेतना के माध्यम से उस समाज (दर्शकों) तक पहुंचना
चाहते थे |तभी इस दलनतंत्र के समय सरकारी वकील (नसीरुद्दीन शाह) ने दलित
आदिवासी (ओमपुरी) का केस हाथ में लिया | यानि केस
बनने के नियम थे, पर स्थिति न थी, सो चेतना भी न थी | इसी चेतना
को ‘आक्रोश’ ने पहुँचाने का बीड़ा उठाया और इसी प्रयास में वह जीवन गौण हो गया जो
यातनाओं में फंसा तड़पता दिखता है | ‘पार’ व ‘दामुल’ में केस प्रमुख हो गया, केस भी दलित
स्त्री के साथ बलात्कार का यानी की बाज़ार के यथार्थ का |
यह सही है कि इस थीम पर दृश्यमयता
में दलित वेदना थोड़ी लचीली हो गई है, पर फिर भी दलित
दृष्टि एकदम सही बन गई है | शायद इसी दृष्टि
के लिए ही दृश्य के साथ ऐसा सलूक करना पड़ा | वकील तक को घर से लेकर बाहर तक शरेआम प्रताड़ित करके पस्त करने की कोशिश की
जाती है और ऐसी व्यवस्था में गूंगे-बहरे बने रहकर दलित युवक उस जड़ को ही ख़त्म कर
देता है, जो बेइज्जती का सबब बनती है |
न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी पर आधारित यह विरोध नहीं तो और क्या है ? फिर ऐसा आत्मघाती विरोध इस बात का प्रमाण है कि ‘पार’ में विकल्प की
खोज में गाँव से शहर जाकर दलित का जो प्रयास एक खाई से दूसरे खोह में गिरना सिद्ध
हुआ था एवं ‘दामुल’ में पलायन तक सील कर देने पर भी विरोध की भनक तक न उठी थी, अब अन्दर ही अन्दर सुलग उठी है | यही है गोविन्द निहलानी की दलित चेतना जो विरोध की दृष्टि देती है |
इस ‘केस’ के जरिये कठोर यथार्थ को बदलने की दृष्टि |लेकिन श्याम बेनेगल बकौल खुद ‘कॉज’ के लिए फिल्म
बनाते हैं | दलित जीवन पर आई उनकी फिल्म ‘समर’ में इसीलिए ‘केस’ नहीं बनता,
वरना था वह ‘केस’
ही | मंदिर में प्रवेश
की सजा के रूप में ठाकुर ने दलित के सर पर भरी पंचायत में पेशाब किया था | कहते हैं कि, यह १९९१ की सच
घटना पर आधारित फिल्म है | लेकिन जितने
फ्रेम केस पर हैं फिल्म, डॉक्यूमेंट्री सी
बन गई है | ढेरों डॉक्यूमेंट्री बनाने का कलागत
असर भी होगा, पर इसमें राज्याश्रय की नियति से
नीयत भी कम नहीं है |
‘कॉज’ के लिए समाज (ठाकुर)को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं श्याम बेनेगल, परन्तु केस के लिए सरकार को नहीं | बेनेगल जी स्वीकारें भले न पर, ‘समर’
में उनका बीच का रास्ता अख्तियार करना छिपता नहीं है |
तथापि बेनेगल, मुजरिम
ठाकुर की पत्नी एवं उसके बेटे से उस दलित व्यक्ति से माफ़ी जरुर मंगवा लेते हैं |अब हम फिल्मों में दर्शाए दलित जीवन
की बात करें तो पाते हैं कि यूँ तो फिल्मों में दलित जीवन का चित्रण हुआ ही नहीं
लेकिन कई बार कुछ फिल्मों में उसे छूने की कोशिश जरुर की गई है, वह भी सतही रूप में | लगभग एक
दशक पूर्व प्रदर्शित चर्चित फिल्म ‘लगान’ की बात करें तो इसमें एक पात्र का नाम ‘कचरा’ है जिसे दलित कहा गया | क्या मजाक है ? एक हाथ मुड़ा हुआ
और कथित नायक भुवन की दया पर निर्भर कचरा |
इससे हमें तो नहीं लेकिन अजनबियों को
अवश्य भ्रम हो सकता है कि, वास्तविक जीवन
में दलित ऐसे ही होते होंगे | भुवन, जो इस फिल्म का नायक है, दलित नहीं हो सकता क्या ? और कचरा क्यूँ
द्विज नहीं हो सकता ? फिल्मों में अधिकांशतः दलित पात्रों
का चित्रण या तो नकारात्मक होगा या निरीह व्यक्ति का होगा | वास्तविक जीवन में संघर्ष करता दलित फ़िल्मी लेखकों को दिखाई नहीं पड़ता है |सबसे दुखद बात तो यह है कि ‘लगान’ फिल्म का वही ‘कचरा’ दलित समाज का एक
महत्वपूर्ण नायक रहा है जो हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था की विषमता का भरपूर शिकार
हुआ | जी हाँ पालवलंकर बालू | आज के क्रिकेट के बड़े-बड़े शूरमाओं को यह नाम ज्ञात भी नहीं
होगा | ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो वह प्रसिद्ध
गेंदबाज था |
क्रिकेट खेल के तहत सिद्धहस्त होने
के साथ ही वह सामाजिक कार्यकर्त्ता भी था | डा. अम्बेडकर के साथ स्वयं गाँधी भी कई बार उनसे मिले थे | रामचंद्र गुहा ने ‘बालू’
को डब्ल्यू. जी. ग्रेस के समानांतर बतलाया है, जिन्होंने भारत में क्रिकेट का विकास किया था |‘हंस’ पत्रिका में कॉलम लिखने वाली शीबा असलम फहमी ने अपने एक लेख में लिखा है
कि, “कुछ वर्ष पूर्व रेडियो पर स्वप्न सुंदरी
हेमा मालिनी का साक्षात्कार प्रसारित हो रहा था | उनसे पूछा गया कि आपकी सुन्दरता पर तो पूरा भारत मुग्ध है परन्तु ये बताइए
कि आपके पति धर्मेन्द्र ने आपकी सुन्दरता की तारीफ़ कभी की |
इस पर हेमा मालिनी का जवाब था कि वो
तो तारीफ करते ही रहते हैं लेकिन सबसे अच्छी तारीफ जो मुझे वो लगी थी जब उन्होंने
कहा था कि, ‘यू हैव आर्यन फीचर्स’ (तुम्हारे नैन-नक्श आर्यों जैसे हैं) |” यह किसी संस्कृति अध्ययन के पाठ से उधृत अंश नहीं है | वरन एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति की व्यक्तिगत यादों में से
निकला एक मासूम संस्मरण है जो बिना किसी शास्त्रीय मकसद के बयां हो गया है |
शीबा जी इस टिप्पणी को नस्लवाद, क्षेत्रवाद और जातिवादी आग्रहों की बानगी मानती हैं | धर्मेन्द्र के इस वक्तव्य के मद्देनज़र हम पूरी फ़िल्मी दुनिया
का जातीय विश्लेषण कर सकते हैं |
भारतीय राजनीति की तरह हिंदी सिनेमा
में भी कुछ जाति-परिवारों का बोलबाला है | यही
बालीवुड की आंतरिक बनावट है जिसमें दलितों का प्रवेश निषेध है, कोई एकाध शैलेन्द्र यहाँ तक पहुँच भी जाता है तो दलित जीवन के
बर-अक्स नहीं लिख पाता है | यह उनकी
व्यावसायिक मज़बूरी है | हालाँकि उनकी कहानियों तथा गीतों में
अपरोक्ष रूप से आम आदमी के सुख-दुःख की गूंज अवश्य सुनाई देती है |अन्ततः निष्कर्ष के तौर पर हम यह
देखते हैं कि दलित जीवन की यथार्थवादी कहानियों की कमी नहीं है, जरुरत है तो सिर्फ इच्छाशक्ति की | क्योंकि दलित सवालों तथा समस्याओं से जूझे बिना दलित जीवन पर गंभीर
फ़िल्में नहीं बन सकती हैं | आज कितने
निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता हैं जिन्होंने दलित साहित्य के तहत आत्मकथा और कहानियां
पढ़ी हैं ? इनकी गिनती शायद नाममात्र की हो |
हिंदी या अन्य भाषाओँ की फिल्मों का
मूल यही है कि ऐसी फिल्मों का निर्माण हो, जिनमें
देवी-देवता हों, अबला नारी हो, मंदिर हो, जहाँ घंटे बजा-बजा कर नायिका ‘भगवान’ से सुरक्षा की
मांग करती हो | डी.डी. राउत ने शायद इस व्यवस्था पर
व्यंग किया है कि –
“ ये नासूर, मवाद और कीड़े, बढ़ते ही जा रहे हैं
अनवरत चेहरे से नीचे मेरे, मगर मै व्यस्त हूँ
विदेशों में होने वाले, भारतीय महोत्सवों में
जहाँ टांगना है मुझे, सुनहरे चौखरों में तस्वीर
लगाकर अपने हिसाब से” |
सन्दर्भ
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लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, नई दिल्ली : अनामिका पब्लिसर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
निशांत यादव, शोधार्थी राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, संपर्क:9205301890, nishantyadav.du@gmail.com, (निशांत फिलहाल “हिंदी सिनेमा में समाजवाद:वास्तविकता या महज प्रचलनवाद (1950-1980 के विशेष सन्दर्भ में)” शोधरत हैं| और लेखक सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय
के स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग में विसिटिंग फैकल्टी हैं)
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