चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आधी दुनिया:स्त्री-अस्मिता का उभार बनाम सामाजिक संघर्ष/प्रमोद कुमार यादव
स्त्री-अस्मिता के केंद्र में ‘अस्मिता’ केन्द्रीय धुरी है जिसने सदियों से हाशिये पर पड़ी स्त्री को बहस के केंद्र में ला दिया है। स्त्री-पुरुष में जैविक भेद तो प्रकृति प्रदत्त है, लेकिन लैंगिक(जेंडर) भेद के कारण उसकी अस्मिता संदिग्ध हो गयी। किसी भी व्यक्ति को एक सीमा तक ही दबाया जा सकता है, अवसर पाते ही वह अपनी अस्मिता(पहचान), अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर उठता है, फिर स्त्री तो इस पावन धरा की मानवी और बौद्धिक प्राणी है तो उसकी अस्मिता को बलपूर्वक कब तक दबाया जा सकता है ? वर्षों से सुषुप्तावस्था में पड़ा ‘आधी आबादी’ का भाव जाग उठा और वह इतने प्रखर रूप में हमारे सामने आया कि दुनिया में स्वयं को स्थापित कर दिया। स्त्री-विमर्श के केंद्र में ‘स्त्री-अस्मिता’ इसी भाव से परिचालित है।
स्त्री-अस्मिता
वास्तव में है क्या ? एक स्त्री का अस्तित्व, उसकी अपनी पहचान। उसका यह अस्तित्व, उसकी यह पहचान समाज में किसके द्वारा तथा किन मापदंडों द्वारा और
कैसे निर्धारित की जायेगी ? क्या उसका मूल्यांकन स्वयं स्त्री करेगी
या फिर पुरुष या दोनों मिलकर करेंगे ? यदि स्वयं स्त्री अपनी अस्मिता स्थापित करती है तो वह एक हद तक सही
है, किन्तु यदि पुरुष उसकी अस्मिता का
मूल्यांकन करेगा तो निश्चय ही उस अस्मिता का कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा। क्योंकि
पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुंच सकता है, यथार्थ के अधिक समीप नहीं। इस सन्दर्भ में महादेवी वर्मा के वक्तव्य
को उदधृत करना समीचीन प्रतीत होता है कि- “हमें न जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी। हमारी
जागृत और साधन संपन्न बहिनें इस दिशा ने विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें सन्देह नहीं।”[1]
पितृसत्ता हजारों साल से चली आ रही ऐसी व्यवस्था है जिसमें स्त्री
पुरुष के अधीन रहती है। “ पितृसत्ता ने स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाया। उसे साधन के रूप में
प्रयुक्त किया- उसके नाम, रूप, जाति, गोत्र सब अपने सन्दर्भ में परिभाषित किए।”[2] पुरुष ने स्त्री के जीवन, उसकी कार्यशैली एवं उसकी सत्ता को निर्धारित की। स्त्री की भी एक अलग
पहचान है, उसकी एक सामाजिक स्थिति है और वह अपने
जीवन के निर्णय लेने में सक्षम हैं, इस तथ्य को पुरुष स्वीकार नहीं करता। स्त्री को निर्णय लेने का
अधिकार नहीं है। पुरुष की सांस्कृतिक सत्ता ने स्त्री को वह सामाजिक सुविधा नहीं
दी, जो कि परंपरा से पुरुष को मिलती रही।
स्त्री एक जीव के रूप में जन्म लेती है, किन्तु पुरुष की सभ्यता और सत्ता के प्रति अपना सब कुछ समर्पित करती
है। फिर भी पुरुष की अमानवीय हरकतों का वह सदियों से शिकार होती आ रही है।
पितृसत्ता के पास प्रारम्भ से ही जबरदस्त भौतिक अधिकार रहा जिसके बल
पर समस्त बौद्धिक और वैचारिक शक्तियों को उसने नियंत्रित कर लिया। पितृसत्तात्मक
व्यवस्था स्त्रियों को अपने अधीन बनाए रखने के लिए तमाम तरह की आचार-संहिताओं एवं
सामाजिक नियमों का निर्माण करती है, वही स्त्री-अस्मिता उस व्यवस्था की जकड़ से बाहर निकलने, अपनी जगह तलाशने, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को बनाये रखने
के लिए किए गए संघर्ष और प्रयास का प्रतिफलन है।इस क्रम में उसे अनेक परेशानियों, अवरोधों एवं प्रश्नों का सामना करना पड़ता हैं। फिर भी वह अपने लक्ष्य
की तरफ, आधुनिकता की तरफ अग्रसर है। इस सन्दर्भ
में उमा शुक्ल के वक्तव्य का महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार है- “अब आधुनिक स्त्री किसी भी ऐसी सामाजिक नियमों की संहिता को मानने के
लिए तैयार नहीं है जो उस पर पुरुषों के आधिपत्य की मान्यता बलपूर्वक थोपती है।
नाटकीय परिवर्तन तो मातृसत्तामक युग आने से हो सकता है। मुझे महसूस होता है कि
इसकी पृष्ठभूमि बनती जा रही है पर परिशोध-एक बदले की भावना लेकर सब कुछ हो रहा है
जो ठीक नहीं है। न पुरुष के पक्ष में न नारी के।”[3]
‘स्त्री-अस्मिता’ एक व्यापक संकल्पना है जिसके तहत
प्रत्येक महिला को उसकी शारीरिक और बैद्धिक क्षमता के विकास, प्रदर्शन और प्रयोग पर पूरी आधिकारिता प्राप्त है। वस्तुतः प्रकृति
द्वारा दी गई खूबियों और सौन्दर्य को अपने सम्मान और आत्मसंयम के हिसाब से इस्तेमाल
करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मजात अधिकार है। लेकिन विकास और शक्ति की दौड़ में
थोड़ा आगे निकले समूह हमेशा अपने पीछे आने वाले वर्गों के अधिकारों का अतिक्रमण
करते हैं। वैश्विक आबादी का ‘आधा हिस्सा’ इसी विडम्बनापूर्ण अन्याय का शिकार है। इसी ‘अन्याय’ को दूर करने के लिए साहित्य में ‘स्त्री-अस्मिता’, ‘स्त्री-विमर्श’, ‘दलित-विमर्श’, ‘आदिवासी-विमर्श’ इत्यादि परिचालित हो रहे हैं। स्त्री-अस्मिता के सम्बन्ध में “स्त्री-विमर्श का मामला व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है। स्त्री की स्थिति
में सुधार लाने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। वैसे स्त्री अपनी स्थिति
को पहचान रही है, अपनी अवस्था को स्वयं आवाज़ दे रही है और
खुद महसूस कर रही है कि अपने अधिकार की लड़ाई उसे खुद लड़नी है।...यह चित्रण साधारण
या सतही ढंग से नहीं, बल्कि आक्रामक भाव से स्त्री की अस्मिता, स्त्री की पहचान, स्त्री की शक्ति, स्त्री की लड़ाई और उससे जुड़े तमाम सवालों को लेकर है।”[4]
वस्तुतः ‘स्त्री-अस्मिता’ महिला-सशक्तिकरण से जुड़ा सीधा प्रश्न है, जिसमे महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष राजनैतिक, वैधानिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपने परिवार, राष्ट्र और संस्कृति की पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वायत्तता शामिल
है। महिलाओं को उनका सही स्थान पाने के लिए सबसे पहली शर्त यह होगी कि उन्हें
समानता के धरातल पर ‘न्याय’ उपलब्ध हों, यथार्थ के धरातल पर समानता स्थापित हों।
तभी विश्व की ‘आधी आबादी’ समाज के, देश के, विश्व के प्रभावी विकास में अपना अमूल्य योगदान कर पायेगी। अन्यथा
शासन-सत्ता, देश-दुनिया महिलाओं की असमान दशा को दूर
करने के लिए चाहे जितने भी नियम-कानून बना ले, बौद्धिक-विमर्श कर ले, लेख लिख ले, जोशीले नारे लगा लें, कुछ भी सकारात्मक परिवर्तन नहीं आएगा।
‘स्त्री-अस्मिता’ के प्रश्न पर समाज के विभिन्न घटकों के
मध्य व्यापक आवर्त एवं जटिलताएं विद्यमान है। भले ही स्त्री-पुरुष दोनों उत्पत्ति
के समय से एक-दूसरे के पूरक रहे हों और विश्व परिदृश्य में दोनों समाज की
सर्वसम्मत इकाइयाँ हों, किन्तु वर्तमान समय में दोनों का
स्वतंत्र अस्तित्व एवं अस्मिता कहीं भी नज़र नहीं आती। जब भी समाज में स्त्री की
अस्मिता या सशक्तिकरण का जिक्र होता है तो- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ जैसी कुछ सूक्तियों को गिनाकर नारी का गुणगान कर दिया जाता है और
इन्हीं उदाहरणों के तहत नारी भी अपने अधिकारों को सुरक्षित समझ लेती है। यही कारण
है कि व्यवहार रूप में एक पक्ष ज्यादा शक्तिशाली दिखाई देता है, जब कि दूसरा पक्ष शोषित।जब कि होना यह चाहिए कि समसामयिक
परिस्थितियों के अनुसार किसी की स्थिति-परिस्थिति का निर्धारण हों। सुदेश बन्ना के
शब्दों में कहे तो –“स्वतंत्रता के पश्चात् परिवर्तित
सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में महिलाओं की
शिक्षा, रोजगार के अवसरों और समानता के अधिकारों
में काफी वृद्धि हुई है, फिर भी प्रतिगामी नैतिकताओं, मान्यताओं, मूल्यों और सामाजिक मानसिकता के कारण
अनेक विसंगतियों ने नारी जीवन पर दोहरे मानदंडों को लागू किया है।”[5]
वस्तुतः स्त्री का संघर्ष सिर्फ आज से नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण अतीत से है। अतीत से लेकर वर्तमान तक स्त्री को बचपन
से ही ऐसी मानसिकता में लालन-पालन किया जाता है कि जहाँ वह बिना कोई विरोध किए हर
जुल्म, हर किस्म के अमानवीय व्यवहार से तालमेल
बैठाकर सभी को खुश रखती है। जब कि स्त्री-अस्मिता और सशक्तिकरण का विचार दोनों की
समानता पर आधारित है, जो समाज में प्रत्येक स्तर पर लैंगिक
समानता की अपेक्षा रखता है तथा किसी भी तरह के भेदभाव का विरोध करती है। “सदियों से औरत को मारने, उसे प्रताड़ित करने, उसके साथ बलात्कार करने या उसे नीचा
दिखाने अथवा रखने के कई सारे बहाने, तरीके और परम्पराएँ बना ली गई हैं जो आज के पढ़े-लिखे सभ्य कहे जाने
वाले आधुनिक समाज में भी न सिर्फ ज्यों की त्यों उपस्थित हैं बल्कि और ज्यादा
मजबूत तथा कट्टरता के साथ सामने आ रही हैं।...महिला श्रम या नौकरी का मुद्दा हो या
शिक्षा साक्षरता का, सबमें महिला भेदभाव और शोषण की शिकार है।”[6]इस प्रकार नारी-व्यथा और संघर्ष के आलोक
में मानव समाज का अब तक का इतिहास स्त्रियों को समता, सत्ता, प्रभुता एवं शक्ति से दूर रखने का
इतिहास है।
‘स्त्री-अस्मिता’ के आदिबिंदु पर सबसे पहले इस संघर्ष को
चिन्हित किया जाता है कि पुरुष-प्रधान समाज स्त्री को ‘व्यक्ति’ की बजाय ‘वस्तु’ की संज्ञा देता है। और उस ‘वस्तु’ पर पुरुष के रूप में पहले पिता का, फिर पति का और अंततः पुत्र का अधिकार होता है। इस प्रकार उसे बचपन से
वृद्धावस्था तक बंधनों में जकड़ दिया जाता है-
“पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रश्च स्थविरे भारे, न स्त्री स्वतान्त्र्यमर्हती।।”
इस तरह स्त्री न कभी स्वतंत्र व्यक्ति की तरह पहचानी जाती है और न
कभी वह खुद पर अपना अधिकार भाव रख सकती है। इस तरह स्त्री का एक पराधीन वस्तु होना
उसकी अंतिम नियति मानी गयी, जिसके विरुद्ध स्त्री-स्वातंत्र्य का
संघर्ष शुरू हुआ। यही संघर्ष आगे चलकर बदलते समय के साथ स्त्री-सशक्तिकरण के दौर
में स्त्री की अस्मिता को स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुआ। इस क्रम में उसने
स्थितियों को बारीकी से समझा और उसे लगा कि पितृसत्तात्मक मानसिकता एवं सामंती सोच
के विरुद्ध एक अनवरत संघर्ष होना चाहिए। ताकि अपनी खोई हुई पहचान को पुनः पाया जा
सकें। और यही से स्त्री-अस्मिता के लिए संघर्ष शुरू हो गया। इस संघर्ष से एक नई
धारा निकली जिसकी बागडोर स्त्री ने अपने हाथ में थाम ली। “पुरुष की महानता का मिथ अब उसे स्वीकार नहीं हैं। परमपूज्य और पवित्र
जिन ग्रंथों ने नारी को आदर्श के साँचे में फिट कर दिया था, आज वह उनसे बाहर निकलने के लिए तीव्र प्रयास कर रही हैं। आज उसके
स्वरों में पुरुष वर्चस्व से मुक्ति की कामना है। वर्तमान समय में स्त्री पुरुष
वर्ग से प्रतिस्पर्धा न कर केवल उसके समकक्ष एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त होने
वाले अधिकारों की माँग कर रही है। वह पुरुष के अस्तित्व को नकार नहीं रही है, बल्कि एक सह-नागरिक की तरह अपनी पहचान स्थापित करना चाह रही है। इसके
लिए उसका सारा जोर अब तक प्रयुक्त मिथकों से अस्वीकार और स्वतंत्र इंसान के रूप
में अपनी स्वीकृति का है। नारी चेतना आज विभिन्न आयामों में हमारे समक्ष है। सेक्स
प्रजनन में अपनी मर्जी, आर्थिक निर्भरता और सत्ता में
हिस्सेदारी जागृत नारी-चेतना एवं अस्मिता के चंद उदहारण है।”[7]
स्त्रियों की खोई हुई
पहचान को पुनः प्राप्त करना स्त्री-विमर्श का एक ज्वलंत मुद्दा है। इसलिए
स्त्री-विमर्श ने सबका ध्यान आकर्षित किया है। रेखा कस्तवार ने स्त्री-विमर्श को
परिभाषित करते हुए कहा है- “स्त्री-विमर्श स्त्री के जीवन के अनछुए
अनजाने पीड़ा जगत के उद्घाटन के अवसर उपलब्ध कराता है, परन्तु उसका उद्देश्य साहित्य एवं जीवन में स्त्री के दोयम दर्जे की
स्थिति पर आंसू बहाने और यथास्थिति बनाए रखने के स्थान पर उन कारकों की खोज से है, जो स्त्री की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। वह स्त्री के प्रति
होने वाले शोषण के खिलाफ संघर्ष है। ... हमारी सामाजिक संरचना में बदलाव के बिना
स्त्री के हिस्से में बेहतरी आना संभव नहीं। ‘स्त्री-विमर्श’ स्त्री के स्वयं की स्थिति के बारे में
सोचने और निर्णय करने का विमर्श है।”[8]
स्त्री-उत्पीड़न के
प्रश्न को बारीकी से देखने पर यह अनुभव होता हैं कि समाज के सभी वर्गों में
शिक्षित या अशिक्षित, कामकाजी या घरेलू महिलाओं में महिलाएँ
भी स्त्री को प्रताड़ित करने में बराबर की हिस्सेदार हैं। “बहुधा यही कहा और सुना जाता है कि पुरुष वर्ग नारी वर्ग की भावनाओं
का सम्मान नहीं करता, लेकिन यथार्थ में, पुरुषों से अधिक ऐसी महिलाएँ मिलेंगी, जो स्वयं महिलाओं को कष्ट एवं हानि पहुँचाती रहती हैं। यह नारी-जीवन
की सबसे बड़ी समस्या है, जिसकी चर्चा बहुत ही कम होती है क्योंकि
यह समस्या समाज की चमड़ी पर न होकर समाज के आतंरिक शरीर में है। ‘महिलाएँ ही महिलाओं की सबसे बड़ी शत्रु हैं।’ बहुतेरे लोगों का यह कहना है।”[9]
स्त्रियों के साथ
होने वाले भेदभाव का प्रमुख कारण है- मानसिक संकीर्णता। सर्वविदित है कि भारतीय
जनमानस की विशेषता रही है कि वह घर के बाहर तो स्त्री पर होने वाले अत्याचारों की
निंदा करता है और घर के अंदर स्वयं स्त्री पर अत्याचार करता है। घर और बाहर की
दुनिया के लिए पृथक-पृथक दृष्टिकोण ही स्त्री उत्थान के लिए सर्वाधिक बाधक है। “प्रत्येक भारतीय पुरुष चाहे वह जितना भी सुशिक्षित हो, अपने पुराने संस्कारों से इतना दूर नहीं हो सका है कि वह अपनी पत्नी
को अपनी प्रदर्शनी न समझे। उसकी विद्या, उसकी बुद्धि, उसका कला-कौशल और उसका सौंदर्य सब उसकी
आत्मश्लाघा के साधन मात्र हैं।” (श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा)
जब हम स्त्री-अस्मिता की बात करते है तो सबसे जरूरी है कि पहले पुरुष
स्वयं पितृसत्तात्मक संस्कारों से मुक्त हो, क्योंकि स्वामी-पालिता का भाव आते ही स्त्री एक पालतू पशु या उपभोग्य
वस्तु में परिवर्तित हो जाती है। प्रथमतः हमें इस पूर्वाग्रह से मुक्त होना आवश्यक
होगा कि पुरुष, स्त्री से श्रेष्ठ है। साथ ही समस्त
विमर्शों, बहसों, मुद्दों का मूल उद्देश्य एवं प्रयासों से यही सिद्ध न करें की स्त्री
ही सर्वश्रेष्ठ है। वे दोनों समान सहयोगी एवं परस्पर पूरक होने चाहिए। उनमें एक
दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की भूमिका नहीं होनी चाहिए, बल्कि उत्तरोत्तर श्रेष्ठ और उत्कृष्ट बनने की प्रक्रिया होनी चाहिए।
तात्पर्य यह हैं कि इन सबके लिए सर्वप्रथम चिंतन में बदलाव एवं पुरुष
मानसिकता वाली स्त्रियों को भी पितृसत्तात्मक संस्कारों से मुक्त होना चाहिए।
स्त्री की मुक्ति से पहले पुरुष मानसिकता से मुक्ति आवश्यक है। समाज में प्रभुता
संपन्न तत्वों की मानसिकता में बदलाव तभी संभव है जब नारी स्वयं चेतना संपन्न हों
तथा अपने ऊपर होने वाले अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न व शोषण के विरुद्ध प्रतिरोधात्मक भाव रखती हों। सामंती
वैचारिकता में नारी मुक्ति का कोई आधार नहीं था। किन्तु बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं
में स्त्री की लड़ाई व विरोध का सामुदायिक-वैचारिक आधार बन गया। मानवाधिकार की बढ़ती
चेतना ने मानवीय अस्मिता की ओर और अधिक ध्यान आकृष्ट किया। “सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में नारी की सक्रिय भागीदारी को न केवल
उसके भय व संकोच को दूर किया, बल्कि अपनी स्थिति के प्रति स्वतंत्र
निर्णय क्षमता के विकास व विरोध के चिंतन को बढ़ावा दिया। अपने श्रमकार्य एवं
उत्पादन की गुणवत्ता की समझ के साथ ही उसके मूल्य के प्रति भी उसका आग्रह बढ़ा है।
यह पुरुष प्रधान समाज के सामंती संस्कारों के प्रति विद्रोहपरक होते हुए भी दयनीय
और समझौतापरक रहा है। उसने अपनी नैसर्गिक प्रवृतियों और संस्कारों के दबाव के कारण
जहाँ दबे स्वर में अधिकार की बात की, वहाँ उत्पीड़न और उपेक्षा के बढ़तेदौर में अलगसामुदायिक संगठनों द्वारा
भी अपने अस्तित्व की स्वतंत्र घोषणा की।”[10]
स्त्री की अस्मिता एवं संरक्षण के प्रश्न का पुरुषों ने विरोध किया
है। वे उसे केवल भोग्या के रूप में देखते हैं। स्त्री को उपभोग्य वस्तु समझने के
प्रति आज पुरुषों का अपना नजरियाँ बदलने की जरुरत है। इस मौलिक बदलावों के बारे
में अपने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए सीमोन-द-बोउवार ने अपनी पुस्तक ‘द-सेकण्ड सेक्स’ में कहा है कि- “स्त्री और पुरुषों के बीच कुछ मौलिक आधारभूत भेद तो रहेंगे ही। उसका
कामानात्मक जीवन उसकी संवेदनशीलता और उसकी सैक्सुअल दुनिया के स्वाद अलग हैं। इसका
अर्थ यह हुआ कि औरत का अपने शरीर और पुरुषों तथा बच्चों से सम्बंध पुरुषोचित नहीं
हो जाएगा। वह फिर भी स्त्रियोचित रहेगा, किन्तु उसकी संभावनाएं सीमित नहीं अपरिमित रहेंगी।”[11]
स्त्री-अस्मिता की बात हमें ‘समय-सापेक्ष’ होकर करनी चाहिए। यानी स्त्रियों की
अस्मिता पर सही ढंग से बात वेदों और पुराणों के आधार पर नहीं, आज की, वर्तमान की परिस्थितियों को देखते हुए
स्त्रियों के लिए बनाए गए कानूनों के आधार पर करनी होगी। इसके साथ-ही-साथ उसके
आर्थिक अधिकारों, भेदभाव की समाप्ति, हो रहे जुल्म की समाप्ति के विषय पर बात किए बिना और इन समस्याओं को
समझे बिना इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता और न ही इसके बिना महिलाओं के
अस्मिता की बात आगे बढ़ सकती है। प्रसिद्द नारीवादी लेखिका शर्मा के शब्दों में –“एक औरत इन्सान की तरह इंसानियत और अस्मिता के साथ जी सके तो वही उसकी
स्वतंत्रता होगी। एक औरत को केवल औरत होने के कारण कष्ट-प्रताड़ना को सहना न पड़े, बल्कि उसकी इच्छाओं गुणों को देखते हुए घर, समाज के परिवेश के अनुसार उसे वह सब कुछ मिलना चाहिए जो एक अच्छे नागरिक
को मिलना चाहिए। एक औरत को यह आजादी होनी चाहिए कि वह जिस तरह से रहना चाहे रहे।
अपनी जिंदगी की जिसमें ख़ुशी समझती है उसी में जिये...।”[12]
भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा है, उर्मिला शिरीष का कथन बहुत सटीक है कि ‘‘इधर भूमण्डलीकरण ने सारे परिदृश्य को ही बदल दिया है। भूमण्डलीकरण
बाजार ने कई चीज़ों में समानता ला दी है। पूरा विश्व एकीकृत हो गया है। जंक फूड से
लेकर डिज़ाइनर कपड़ों, फैशन, सुई-धागा से लेकर एयर लाइन्स तक में स्त्री दिखायी दे रही (जनसंचार
के माध्यमों में आयी क्रान्ति ने इस बदलाव को दुनिया के कोनों-कोनों में पहुँचा
दिया) है। नये वैश्वीकरण ने स्त्री को अलग ढंग से स्वावलम्बी बना दिया है।
आत्मविश्वास से भर दिया है। अपनी क्षमताओं, अपने अधिकारों, अपने सौन्दर्य और अपनी बुद्धि से परिचित करवा दिया है।’’ रचनात्मक दिशा में भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा
है। हिंसा, अन्याय, शोषण, असमानता के खिलाफ़ महिला रचनाकारों ने अपनी आवाज़ उठायी है। महिलाओं की
सशक्त भूमिका के लिए और उनको केन्द्रीय धारा में लाने के लिए महिला रचनाकारों ने
अपनी रचनाओं के माध्यम से महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, ममता कालिया, कमल कपूर, मन्नू भण्डारी, मृणाल पाण्डेय आदि-आदि महिला रचनाकारों ने अपनी कहानियों और समीक्षा
के माध्यम से नारी-अस्मिता एवं नारी-विमर्श पर प्रकाश डाला है।
अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न केवल भारतीय स्त्री को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की ‘स्त्री’ को भी उतना ही हैरान, परेशान कर रहा है। इसके एक नहीं अनेक कारण हैं। नारी शोषण की समस्या
अब घर की दहलीज पार कर एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। सारी दुनिया में शोषण की
स्थितियाँ और गतियाँ भी समान हैं। इसलिए विश्व के किसी भी कोने में विकसित हुआ
स्त्रीवादी चिंतन एवं स्त्री-अस्मिता को कायम करने के लिए उठाये गए कदम साझे
महत्त्व के सन्दर्भ बन जाते हैं। “स्त्री-पीड़ा का रोना रोने का दौर अब खत्म हो चुका है। अब नया
स्त्रीवाद अपने नये तेवर में दया नहीं, अधिकार बोध की चेतना से लैस है। आज की स्त्रियाँ अपने अधिकार और हक
के लिए काफी सजग हैं। अब वह जमाना गया, जिसमें शर्म और शिष्टाचार के नाम पर स्त्रियों को चुप रहने की नसीहत
दी जाती थी। अन्यथा जिस युग में स्त्रियों के मुँह पर ताले जड़े थे, दलित दाने-दाने को मोहताज थे और दोनों व्यक्ति से अधिक वस्तु थे, उस युग को पुरुषवादी सोच ने तो स्वर्णयुग तक कह दिया। आज का युग
स्वर्ण युग नहीं हैं। इस बाजारी युग में सब कुछ दूषित-प्रदूषित है प्रकृति भी, संस्कृति भी। स्त्री-पुरुष संबंधों की परिभाषा बदल रही है।
यौन-नैतिकता प्रश्नांकित है। ...ऐसे में भारतीय स्त्री का यह नया विमर्श नयी चेतना
और परिवर्तन को रेखांकित करता है। समय और समाज के इस बदलते चेहरे को सकारात्मक ढंग
से देखा जाना चाहिए।”[13]
आधुनिक शिक्षा ने स्त्री को आर्थिक स्वतंत्रता एवं आर्थिक सुरक्षा
प्रदान की है। परिणामस्वरूप स्त्री भी पुरुष के समान परिवार के बोझ को ढोती है।
परंपरागत मान्यता यानी पुरुष रोटी कमाये और स्त्री परिवार पालन करें, आज टूट चुकी है। आज की आधुनिक आत्मनिर्भर नारी पुरुषों के समान रोटी
भी कमाती है, साथ-साथ घर के कामकाजों से निपटती भी है।
आत्मनिर्भरता के कारण आज की नारी जीवन की विकट समस्याओं का स्वतंत्र निर्णय लेने
में समर्थ है। क्योंकि “वह अपने अधिकारों के प्रति सजग है और
अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करके अपनी स्थिति को उच्च बनाने में संलग्न है।
परदे में रहकर वह रक्त के आँसू बहाना प्रीतिकर नहीं समझती तथा वह अवगुंठन उसे सह्य
नहीं, यद्यपि युगों से नारी का कार्यक्षेत्र
घर में सीमित रहा।” (श्रृंखला की कड़ियाँ,महादेवी वर्मा, पृष्ठ 54)
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि स्त्री-अस्मिता का प्रश्न इंसानी
बराबरी के सवाल से जुड़ा हुआ है। अगर इंसानी बराबरी और स्त्री-अस्मिता के प्रश्न को
उठाते हुए महिलाओं की स्थिति में सुधार लाना है तो उसकी नैतिकता को भी अस्मिता से
जोड़ना होगा और पुरानी दकियानूसी सोच, जो कि सदियों से चली आ रही है या जबरदस्ती थोपी जा रही है, को पूर्णतयः खत्म करना होगा तथा उनके अस्तित्व को स्वीकारना होगा, उनके सामाजिक योगदान को स्वीकार करना होगा। उन्हें भी वे सभी अधिकार, अवसर एवं स्वतंत्रताएं प्राप्त होनी चाहिए जो की एक पुरुष को प्राप्त
है। तभी स्त्री-अस्मिता का प्रश्न और उसकी स्थिति मजबूत होगी तथा उनकी खोई हुई
पहचान कायम हो पायेगी।यह आगे चलकर स्त्री-अस्मिता और सशक्तिकरण को मजबूती प्रदान
करेगा, जो कि पूरी मानवता के हित में होगा।
सन्दर्भ
1. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृष्ठ 23
2.
उपनिवेश में स्त्री, प्रभा खेतान, पृ.39
3.
भारतीय नारी अस्मिता की पहचान, उमा शुक्ल,
पृ.22
4.
नारी : अस्तित्व की पहचान, डॉ. सुधा बालकृष्णन,
कवर पृष्ठ से
5.
प्रतिरोध के स्वर, डॉ. सुदेश बन्ना, राज पब्लिशिंग
हाऊस जयपुर, 2009, पृष्ठ126
6.
भारतीय नारी, रमा शर्मा एवं एम. के. मिश्रा,
पृष्ठ 31
7.
नारी चेतना के आयाम, अलका प्रकाश, पृष्ठ67
8.
स्त्री चिंतन की चुनौतियां, रेखा कस्तवार, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ.9
9. शोध-दिशा
पत्रिका, शोध-अंक-8, जुलाई-दिसम्बर 2009, पृष्ठ 155
10.
समय माजरा, मार्च 2001, पृष्ठ 20
11. द सेकण्ड सेक्स: सीमोन-द-बोउवार, पृष्ठ 10
12.
औरत के लिए औरत, नासिर शर्मा, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली, 2007, पृष्ठ
201
13.
समीक्षा, जुलाई-दिसम्बर, 2008, पृष्ठ 35
- प्रमोद कुमार यादव,शोधार्थी,पी-एच.डी.(हिन्दी),हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद, संपर्क- 9949134395,pramod26487@gmail.com
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