चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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बातों के गलियारों में विचारों की छाँव में एक भेंट
(साहित्यकार गोपाल माथुर से विमलेश शर्मा की बातचीत)
साहित्य व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता है। राजस्थान साहित्य फलक पर अपनी उपस्थिति निरंतर दर्ज़ कर रहा है।
यहाँ हिन्दी औऱ राजस्थानी में महत्वपूर्ण साहित्य रचा जा रहा है। अजमेर 'लहर' पत्रिका के माध्यम से साहित्यिक क्षेत्र में अपना सशक्त हस्तक्षेप रखता है। साहित्य
के स्थानीय परिवेश पर नज़र दौड़ाती हूँ तो बनावट और बुनावट से कोसों दूर, एक बेहद
सादा व्यक्तित्व गोपाल माथुर नज़र आते हैं। मेरा पहला परिचय आपसे आभासी जगत से ही
हुआ। वहाँ से आपकी साहित्यिक अभिरूचियों के बारे में जानकारी हुई। समय-समय पर
मार्गदर्शन भी मिला औऱ एक आत्मीय जुड़ाव भी। मैं आदर से उन्हें दादा संबोधित करती
हूँ। अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में हम उनकी रचनाएँ पढ़ते रहते हैं। रचनाकर्म
के साथ ही जो बात आपको विशिष्ट बनाती है वह है, आपका जिज्ञासु पाठक होना। स्वयं
मुझे दादा ने अनेक ऐसी रचनाओं को पढ़ने की सलाह दी है जिनके कीमिया से में हतप्रभ
हूँ। जाने कितनी रचनाएँ आपकी जेहन में बसी है, कितने शब्द आँखों से गुजरे हैं औऱ
सफ़ों पर जाने कितनी बार उँगलियाँ फिरी है यह बताना मुश्किल है। पर कोई इतना पढ़ने
लिखने के बाद भी मौन में ठहरता है। अपनी चेतना पर बुनावट के पैराहनों से बचता है
औऱ आत्मप्रचार के साधनों से बेहद दूरी बनाए रखता है। यही बात उन्हें आकर्षक
व्यक्तित्व प्रदान करती है।
1. साहित्य सदैव मानव मन के बेहद नजदीक रहा है, समाज उसमें अभिव्यक्त
होता है। ऐसे में अगर राजस्थान की साहित्यिक परम्परा में अजमेर के योगदान औऱ
भागीदारी पर बात करें तो आप उसे कहाँ पाते हैं?
साहित्य के नक्षत्र
मण्डल में अजमेर शहर का नाम चन्द्रमा सा चमकता हुआ महसूस होता है। इसे समझने के
लिए हमें अतीत के बिखरे धागों को पकड़ कर पीछे जाना होगा. यह ही वह शहर है, जिसे साहित्य की पहली हिन्दी कहानी
देने का श्रेय हासिल है. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी शहर में मेयो कॉलेज में
अध्यापन करते हुए अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ की रचना की थी। यह कथा आज भी पाठकों को अचंभित और प्रभावित करती
है. इसे हिन्दी की पहली कहानी की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि यह पहली कहानी थी, जो साहित्य के मापदंडों के अनुरूप लिखी गई थी. इसकी शिल्प, शैली और कथानक तो अद्भुत था ही, विषयवस्तु के साथ जिस प्रकार निर्वाह
किया गया था, वह भी अप्रतिम था.
आज भी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की प्रतिभा को सलाम करने का मन करता है.
इसी शहर के सबसे पुराने अध्यापन संस्थान सावित्री गर्ल्स कॉलेज में
मन्नू भण्डारी ने अघ्ययन किया और साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई. ‘आपका बंटी’, ‘एक इंच मुस्कान’, ‘महाभोज’ आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं. वे स्त्री विमर्श और
मनोविश्लेश्णात्मक कहानियों के लिए ख्याति प्राप्त लेखिका हैं. उनके अतिरिक्त
विख्यात कहानीकार रमेश उपाध्याय की साहित्यिक यात्रा भी इसी शहर में रहते हुए
प्रारंभ की थी. ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’, ‘दण्डद्वीप’ आदि से उन्होंने प्रसंशा पाई. समकालीन भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है स्वयंप्रकाश.
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ‘अकाल मृत्यु’, ‘ईंधन’, ‘स्वान्तः सुखाय’ आदि. इनके अतिरिक्त स्व. मनोहरश्याम जोशी का भी इस शहर से गहरा
नाता रहा है. उनका जन्म भी यहीं हुआ था तथा उन्होंने यहीं शिक्षा प्राप्त की थी. राम जैसवाल ने अजमेर शहर में रहते हुए साहित्य जगत में अपनी खास
पहचान बनाई. वे न सिर्फ एक विख्यात चित्रकार हैं, बल्कि उनकी कहानियाँ और कविताएँ भी उतनी ही उत्कृष्टता लिए हुए
होती हैं. एक लम्बे अर्से से वे साहित्य साधना में लगे हुए हैं.
अजमेर साहित्य की चर्चा हो और मंगल सक्सेना का नाम न लिया जाए, तो चर्चा अधूरी ही रह जाएगी. नाटकों
के क्षेत्र में उन्होंने यहाँ रहते हुए अभूतपूर्व काम किए. रंगकर्म से जुड़े लोग आज
भी उन्हें श्रृद्धा से याद करते हैं.चन्द्रप्रकाश देवल किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. उन्होंने न
सिर्फ राजस्थानी में, वरन हिन्दी में भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया है. हिन्दी में उनका
कविता संग्रह ”बोलो माधवी“ एक विशेष स्थान रखता है. ‘वंश भास्कर’ के हिन्दी सम्पादन के अतिरिक्त उन्होंने शब्दकोशों पर महत्वपूर्ण
काम किया है. केन्द्र सरकार ने उनके महती कार्यों को देखते हुए उन्हें पद्मश्री के
अलंकरण से सम्मानित भी किया है.इन साहित्यकारों के अलावा भगवान चैरसिया, ईश्वरचन्दर, लक्ष्मीकांत शर्मा, विनोद सोमानी हंस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. महिला
साहित्यकारों में मन्नू भण्डारी के अतिरिक्त डाॅ. आदर्श मदान, लता शर्मा और कमलेश शर्मा के योगदान
को याद किया जाता रहेगा.
साहित्यकारों के साथ साथ अजमेर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ”लहर“ का नाम आज भी पूरे सम्मान के साथ लिया जाता है. इस पत्रिका का
सम्पादन प्रकाश जैन और मनमोहनी जैन ने किया था. इन संपादकों के पास
साहित्यकारों को पहचानने की अद्भुत प्रतिभा थी. कहा जाता है कि उन दिनों ‘सारिका’ और ‘धर्मयुग’ में छपना आसान था, ‘लहर’ में छपना मुश्किल. इस पत्रिका में पहली बार छपे कई लेखक आने वाले
समय में बड़े लेखक हुए.
लेखन की यह परंपरा अभी रुकी नहीं है. इसे आगे बढ़ाने के लिए बख्शीश
सिंह, रासबिहारी गौड़, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, गोपाल गर्ग, श्याम माथुर, अनन्त भटनागर, शकुन्तला तंवर, उमेश चैरसिया, कमला गोकलानी एवं विमलेश शर्मा जैसे साहित्यकार सतत् कार्यरत हैं.
नई पीढ़ी के कुछ नए लेखक भी इस क्षेत्र में आ जुड़े हैं. आने वाला समय अजमेर के
साहित्य को नई ऊँचाईयों तक ले जाएगा, यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है.
पुनः
यह आलेख स्मृतियों के आधार पर लिखा गया है. असावधानीवश यदि कुछ नाम
छूट गए हों, तो कृपया क्षमा
करें. साथ ही इस शहर के नामचीन शायरों का भी कोई जिक्र नहीं हो पाया है. उनके
योगदान को सलाम.
2. साहित्य के इतिहास
के अध्ययन से पता चलता है कि समय-समय पर अनेक प्रवृत्तियां यहाँ हावी रही है,
उन्हीं के अनुसार देश, काल औऱ परिस्थितियों के हिसाब से तदनुरूप साहित्य भी रचा
गया। दादा आप साहित्य के जिज्ञासु अध्येता रहे हैं, रच भी रहें हैं, आपके विचार से
साहित्य के कल और आज में क्या अंतर आया है?
गोपाल
माथुर:
एक छोटा बच्चा है जो अभी अभी पाँचवी
क्लास में आया है. उसके बैग में नई किताबें भरी हुई हैं, जिन्हें उसके पिता
ने उसे अभी अभी दिलाया है. वह अपने घर पहुँचने की जल्दी में है. उसे अपनी हिन्दी
की किताब पूरी पढ़नी है. किताब पढ़ने की गहरी उत्सुकता ने घर पहुँचने का रास्ता
लम्बा कर दिया है.घर पहुँच कर वह अपनी बाल सुलभ गति से पूरी किताब एक ही साँस में पढ़
जाता है. यूँ तो किताब में बहुत सारी कहानियाँ, कविताएँ और लेख हैं, लेकिन जो कहानी उसके नन्हे मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ती है, उसका नाम है - ईदगाह. तब वह नहीं
जानता था कि यह कहानी हिन्दी साहित्य के कहानी सम्राट प्रेमचन्द ने लिखी है.वह छोटा बच्चा और कोई नहीं, मैं स्वयं हूँ.तब से अब तक लगभग पचपन वर्षों का समय निकल गया है. इस बीच न जाने
कितनी बार चाँद निकला होगा, बारिशें हुई होंगीं, चहरे पर मुस्कान आई होगी और आँखों में आँसू ! गुजरते लम्हों के साथ
साथ ढेरों कहानियाँ पढ़ी भी होंगी, सुनी भी होंगी और देखी भी. पर हामिद का चिमटा और अमीना के आँसू आज
भी ठीक वैसे ही मन को पिघला देते हैं, जैसे उन्होंने पहली बार पिघलाया था.
तो क्या साहित्य को कल, आज और कल के दायरों में बाँटा नहीं जा सकता ? क्या साहित्य नदी के बहते पानी की
मानिन्द होता है, एक ही तार में पिरोया हुआ, कुछ आगे निकल जाता है, कुछ हमारे सामने बहता रहता है और कुछ बह कर आने वाला होता है ? क्या साहित्य में बीत कर भी कुछ बीतता
नहीं, हमेशा बना रहता है ?
कहते हैं, कुछ भी नया नहीं लिखा जा सकता, सब कुछ पहले लिखा जा चुका है. लेखक लिखे हुए को फिर फिर लिखते रहते
हैं. उन्हीं विषयों पर बार बार. वही प्रकृति है, जहाँ सदियों से सूरज निकलता रहा है, शामें होती रही हैं. वही प्रेम है, जहाँ मिलन भी है और वियोग भी. वही अहसासात हैं, स्नेह के, धृणा के, ईष्र्या के, रिश्तों के, स्वार्थ के, द्वेश के, देशप्रेम के, वीरता के......... ऐसा कोई विषय नहीं बचा है, जो साहित्यकारों की निगाहों से बचा
पाया हो. पर लिखा तो लगातार जा ही रहा है. जब तक संवेदनाएँ बाकी बची रहेंगी, जब तक संवेदनाएँ अपनी अभिव्यक्ति का
माध्यम ढूँढ़ेगीं, जब तक हमारे हृदय में कोई अनुभव अपना घर बनाएगा, तब तब हम शब्दों का सहारा लेंगे, साहित्य में आश्रय तलाशेंगे, रचनात्मकता में अपनी मुक्ति पाएँगे.हाँ, विषय भले ही वही जाने पहचाने हों, पर एक लेखक अपने समय के धुँधलके में ही उन्हें अपनी तरह से पहचानता
है, अपने सपनों की राह पर चल कर ही उन्हें
लिखता है, वह अपने निजी
अनुभवों को माध्यम बना कर अपने ही तरीके से उन्हें अभिव्यक्त करता है, अपने कालखण्ड के आग्रह दुराग्रह के
अनुसार ही उनका लेखन करता है. यही कारण होता है कि विषय वही होने के बावजूद भी
प्रत्येक काल का लेखन अपने पिछले काल से भिन्न प्रकार का होता है. वे लेखक महान
होते हैं, जो कालखण्डों से
परे जाकर सर्वकालिक लेखन करते हैं. ऐसी विलक्ष्ण प्रतिभाएँ विरली ही होती हैं.
एक लेखक के लिए उसका अपना समय बेहद महत्वपूर्ण होता है. प्रत्येक
लेखक अपने समय को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है. उसकी यही इच्छा उसे अपने
पूर्ववर्ती लेखकों से अलग करती है. उदाहरण के लिए प्रेम पर कहानियाँ आज भी लिखी जा
रही हैं, लेकिन वे ‘देवदास’ अथवा ‘अन्ना कॅरॅनिना’ से भिन्न प्रकार की होती हैं. ‘परिन्दे’ जैसी प्रेम कथा प्रसाद के युग में नहीं लिखी जा सकती थी. यह अन्तर
मुख्यतः शिल्प और शैली का होता है. सूक्ष्म अनुभूतियों को शब्द देने में ये तीनों
उपकरण अपनी महती भूमिका अदा करते हैं.
एक अन्य अति महत्वपूर्ण अन्तर विषय वस्तु के साथ ट्रीटमेन्ट का कहा
जा सकता है. बंकिमचन्द्र ने ‘आनन्दमठ’ में जिस प्रकार देशप्रेम की भावना को व्यक्त किया था, आज एक लेखक उस प्रकार से व्यक्त करना
शायद पसंद न करे. ठीक इसी प्रकार यदि आज ‘कामायनी’ की रचना की जाए, तो वह शिल्प के अतिरिक्त ट्रीटमेन्ट के स्तर पर भी भिन्न होगी.
इनके अतिरिक्त समय बीतता जाता है और बीतते समय के साथ साथ नए नए
बिम्ब और प्रतीक गढ़े जाते रहे हैं. पुराने मुहावरों की जगह नए जुमले प्रचलन में आए
हैं. भाषा की शुद्धता अब उतनी अनिवार्य नहीं रह गई है. बल्कि व्याकरण की दृष्टि से
भी अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं.आज के साहित्य में सबसे प्रभावशाली पक्ष उसकी कलात्कमता का है. यह
कलात्मकता ही है, जो हमारे समय को लेखन को अलग से रेखांकित करती है. वह चाहे कविता
हो, कहानी हो अथवा अन्य कोई विधा, उसके लेखन का कला पक्ष ही उसका सबसे
उजला पक्ष होता है. यह पक्ष न केवल हृदय के तारों को झंकृत करता है, वरन लेखन को नई ऊँचाईयों पर ले जाता
है..... शामें पहले भी हुआ करतीं थीं, पर आज उन्हें जिस प्रकार लिखा जाता है, वे मानों साक्षात हमसे बातें करने हमारे पास आ बैठती हैं. प्रेम
सदियों से लोग करते रहे हैं, पर आज प्रेम को पढ़ कर ऐसा महसूस होता है, जैसे लेखक के साथ साथ हम भी उस अद्भुत अनुभव से गुजरे रहे हों.
दुःख के रिसते घाव एक पाठक को भी अपनी देह पर महसूस होते हैं और अधूरा चाँद पहले
भी उगा करता था पर अब ‘‘सिराहने रख कर सोया जा सकता है और सुबह माथे पर उगता भी है.’’
हाल ही में प्रकाशित
आपके उपन्यास ‘धुंधले अतीत की आहटें’ के रचाव की पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ? क्या लिखे गये में, अपने रचाव में लेखक अपने को ही फिर-फिर टटोलता
है...क्या रचाव की प्रक्रिया में लेखक अनंत दुखों से एकसाथ साक्षात्कार नहीं कर
रहा होता है?
अपने लिखे उपन्यास
को प्रकाशन के बाद पढ़ना मन में गहरा अवसाद भर गया है. विश्वास करना कठिन हो रहा है
कि इसके चरित्र मेरी ही मानस संतानें हैं, मैंगलोर शहर में बारिश में भीगते दिनों में मैंने पहली बार इनकी
आहटें सुनी थीं.... उस शहर में समुद्र किनारे घूमते हुए, सिमिट्रियों में भटकते हुए और हवाओं और बादलों और जुगुनुओं और
खण्ड़हरों में खुद को ढूँढ़ते हुए इन चरित्रों को पाया था. वे कब मुझमें और मैं
उनमें जा बसा था, कुछ पता ही नहीं चल पाया था.
उपन्यास पूरा हुए लगभग एक वर्ष बीत चुका है. अब वे पात्र न जाने
कहाँ होंगे, कैसे होंगे, कुछ पता नहीं. उपन्यास का अन्तिम
वाक्य लिख लेने के बाद उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया था और अपने स्वतन्त्र होने की
घोषणा कर दी थी. मैं भी अब लेखक से एक पाठक में बदल चुका हूँ. वे सारे पात्र अब
मुझे भी उसी प्रकार उद्वेलित करते हैं, जैसे किसी अन्य पाठक को एक रचनाकार का अपनी रचना से यह कैसा रिश्ता है, जो होता है, तो पूरा पूरा होता है और अगर नहीं होता, तो बिल्कुल नहीं होता !!
सबसे पहले तो मैं यह स्वीकार करना चाहूँगा कि अपने उपन्यास पर चन्द
पंक्तियाँ लिखने का उद्देश्य कुछ खास नहीं, सिर्फ अपने पाठकों से अपने कुछ अनुभव साझा करना है, ठीक वैसे ही, जैसे कविता लिखते ही उसे हम अपने मित्रों के साथ शेयर करते हैं.इस उपन्यास की शुरूआत आज से लगभग पाँच वर्ष पूर्व उन दिनों हुई, जब मुझे मैंगलोर में पाँच छः महीने
अकेले रहने का अद्भुत अवसर मिला था. वे बारिश के दिन थे और सारा सारा दिन, सारी सारी रात अनवरत पानी बरसा करता
था. मुझे जैसे व्यक्ति के लिए, जो मरूस्थल से वहाँ गया हो, यह एक नायाब अनुभव था. वैसे भी प्रकृति मुझे सहज ही अपनी ओर
आकर्षित कर लेती है. मैं अपने कमरे की खिड़की से, जो पहली मंजिल पर था, किताबें पढ़ते पढ़ते बाहर सड़क पर देखा करता था, जहाँ ट्रेफिक हमेशा किसी सदानीरा नदी
सा बहता रहता था. लगातार बरसती बारिश में भी लोगों की दैनिक दिनचर्या यथावत चलती
रहती थी.
जब बारिश हल्की पड़ती थी, मैं भी रेनकोट पहन कर सड़कों पर निकल जाता था. मेरे पास अपना स्कूटर
था, जिस कारण मुझे कहीं भी आने जाने की
सुविधा प्राप्त थी. मैंने पाया कि वह एक अद्भुत शहर था. बहुत कम समय में उस शहर ने
मुझे और मैंने उसे अपना लिया था. वैसे भी कोई शहर तभी अपने आपके हमारे सामने खोलता
है, जब हम स्वयं उसे अपनापन देने को तैयार
होते हैं. पश्चिमी घाट पर अरब सागर के किनारे बसे उस शहर के अधिकतर रास्ते घूम फिर
कर समुद्र पर पहुँच कर समाप्त होते थे, एक नेशनल हाईवे को छोड़ कर, जो उस शहर से गुजरता हुआ अर्णाकुलम को मुम्बई से जोड़ता था. उन्हीं
रास्तों में से एक ने मुझे सबसे पहले समुद्र से मिलवाया था. समुद्र के अथाह विस्तार को देख कर मैं विस्मित रह गया था.
मुझे अपना ही नहीं, दुनिया का प्रत्येक अस्तित्व उसके सामने बौना लगने लगा था. पर
समुद्र ने ही मुझे सिखाया कि कैसे बड़ा होने
के बावजूद भी विनम्र होकर अपने लोगों से मिला जा सकता है. कभी वह खुशी से नृत्य
किया करता था, तो कभी अपने रौद्र रूप में काली चट्टनों से टकराया करता था, कभी उसकी लहरें रेत पर किसी छोटे
बच्चे की तरह शैतानी किया करता था तो कभी लगता था जैसे वह थक कर अपनी माँ की गोद
में सो गया हो. मैंने उसे हँसते, रोते, खिलखिलाते, बिलखते, नाराज होते सभी रूपों में देखा. सच तो यह है कि मैं जब भी समुद्र
किनारे गया, उसे एक अलग ही रूप
में पाया. उसे देखते ही मैं जान जाता था, यह वह समुद्र नहीं है, जिससे मैं पिछली बार मिला था.
और ठीक ऐसे ही वहाँ की सड़को पर भटकते हुए मैंने कुछ अद्भुत चर्च और
सिमिट्रियों को भी ढूँढ़ निकाला था.
उनमें से कुछ तो इतनी पुरानी थीं कि अब वहाँ कोई आता जाता भी नहीं था. ऐसी ही एक
दोपहर एक सुनसान सिमिट्री में मैंने एक वृद्ध महिला को एक कब्र पर फूल चढ़ाते हुए
देखा था. जरूर वह किसी अपने को याद करते हुए वहाँ आई होगी. वह महिला मेरे पहुँचने
से पहले ही वहाँ थी और चुपचाप एक कब्र के सामने अपने हाथ बाँधे खड़ी हुई थी. मेरी
उपस्थिति से उसका ध्यान टूटा और वह चौंक गई थी और लगभग भागते हुए वहाँ से बाहर चली
गई थी. मुझे ऐसा लगा, जैसे मैंने उसका एकान्त भंग कर दिया हो. एक अपराधबोध लिए मैं भी
तुरंत बाहर आ गया था.मित्रों, और भी बहुत कुछ है, जो सब कह पाना संभव नहीं है. वहाँ के नारियल के ऊँचे वृक्ष, कठहल के घने छाँवदार पेड़, केलों के बगीचे, नारियल, मछलियाँ, ग्रेनाइट की काली चट्टानें, गहरी हरी काई.... मैं उस शहर से इतना प्रभावित था कि मैंने अपने दो
मित्रों देवल साहब और शिवदत्त जी को वहाँ आने का आग्रह किया. और वे दोनों वहाँ आए
भी ! अजमेर शहर से ढाई हजार किलोमीटर दूर, महज बारिश में भीगा शहर देखने ! त्रासदी यह हुई कि उनका कनेक्टिंग
प्लेन मुम्बई में छूट गया था और उन्हें नए मँहगे टिकिट लेकर आना पड़ा था. लेकिन फिर
भी वे आए और वे अवश्य ही यह स्वीकार करेंगे कि मैंगलोर के अनूठे सौन्दर्य का कोई
सानी नहीं.
लेकिन एक शहर केवल प्राकृतिक और भोगोलिक इकाई का नाम नहीं होता.
शहर के प्राण होते हैं उसमें बसने वाले लोग. वहाँ मैं अनेक स्थानीय लोगों से मिला, जिनमें मेरी मकान मालकिन का कन्नड़
परिवार मुख्य था, जो उसी मकान में ग्राउन्ड फ्लोर पर रहा करता था, जिसके फ्सर्ट फ्लोर पर मैं रहा करता
था. कुछ पड़ौसी, कुछ दुकानदार, कुछ अजनबी और कुछ परिचित से अपरिचित. दक्षिण भारतीय संस्कृतियों के
मिलेजुले संमिश्रण में बसे लोग, जो अपनी सहजता और सौम्यता के कारण मेरे हृदय में घर कर गए थे.
लेकिन इन सबसे अलग थीं एक महिला डॉक्टर, जो वहाँ मणीपाल हॉस्पिटल में कार्यरत थीं. वे एक तीस बत्तीस बरस की
पतली दुबली सुन्दर सी महिला थीं. वे जितनी सुन्दर थीं, उतनी ही सुन्दर हिन्दी भी बोलती थी, जो उस शहर में एक विचित्र बात थी. इसका कारण यह था कि उन्होंने
अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई लखनऊ में रह कर पूरी की थी. वे साइकिएट्रिस्ट थीं और मानव मन
की गुत्थियों को बखूबी समझती थीं. इस विषय पर उनसे मेरी कई बार बात हुई और उन्हीं
से मैंने जाना कि मन को देह से अलग करके देखने की थ्योरी ही गलत है. मन जो भी
सोचता है और क्रियाएँ करता है, वे सब परोक्ष रूप से देह से पूरी तरह जुड़ी होती है और इसी प्रकार
देह की प्रत्येक क्रिया पूरी तरह से मन द्वारा संचालित होती है.
इसी बहस के दौरान एक दिन मेरे मन में इस उपन्यास का बीज पड़ा. मेरे
मन में एक ऐसी कथा जन्म लेने लगी जिसके नायक और नायिका मन और देह के अन्तद्र्वद्व
में उलझे हुए होते हैं. मैंगलोर प्रवास के उन खाली दिनों में मैंने इस उपन्यास को
लिखना शुरू किया जो लगभग साढ़े चार वर्षों के अन्तराल के बाद समाप्त हुआ. पर
चूँकि उपन्यास की पृष्ठभूमि मैंगलोर है, अतः इसे मैंने मैंगलोर को ही सपर्पित किया है. समर्पण कुछ इस
प्रकार है -
शहर वह ही नहीं होता, जिसमें हम बसते हैं
वह भी होता है जो हममें बसता है
मैंगलोर, तुम्हें....
बारिश के उन दिनों की स्मृतियों सहित
हमेशा से ही मैं ऐसी कहानियाँ लिखता रहा हूँ जिनमें कथा पक्ष गौण
होता है. इस उपन्यास में भी न तो झकझोर देने वाले कथाक्रम हैं और न ही किसी प्रकार
की नाटकीयता. अपने शहर से ढाई हजार किलोमीटर दूर मैंगलोर शहर में नायक अतीत से
स्वयं को छिटक कर अपना पलायन भोग रहा होता है कि उसके जीवन में नायिका का प्रवेश
होता है. छोटी छोटी महत्वहीन सी लगनेवाली दैनन्दनी के बीच उनके बीच प्रेम का अंकुर
प्रस्फुटित होता है, लेकिन नायिका का अपना अतीत और निरंतर भोगी जा रही उसकी पीड़ा उसे
प्रेम को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा बन जाती है. इसके अतिरिक्त एक वृद्ध
पुरुष की दूसरी कथा भी समानान्तर चलती रहती है. इस सभी पात्रों को मैंने मैंगलोर
में पाया था, किन्ही जीवित
इकाईयों की तरह नहीं, बल्कि धुँघलके में भटकते हुए पात्रों की तरह, जो अपनी मुक्ति की राह में मुझसे मिले
थे.
और जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, कि अब सारे पात्रों ने मेरा साथ छोड़ दिया है, अब वे मुझसे अलग हैं. एक समय था, तब वे मेरे कहे अनुसार चलते थे, पर अब उनका अलग अस्तित्व स्थापित हो
चुका है. मैं उनसे उनके नियंता की तरह नहीं, एक पाठक की तरह मिलता हूँ. इसी में उनकी सार्थकता निहित है.
वर्तमान साहित्य
सवालों के घेरे में है। कई आलोचक इसे आत्ममुग्ध साहित्य कह रहे हैं तो कई अधकचरा,
अनुभवहीन...ऐसे में वर्तमान कथा-साहित्य की बुनावट पर प्रश्नचिन्ह है। वर्तमान
कहानी के स्वरूप औऱ रचनाकर्म के बारे में बताएँ?
एक आधुनिक लेखक का
आत्मबोध, जो उसके
अस्तित्वबोध का पर्याय नहीं, वरन् उसकी आत्मचेतना का एक अभिन्न अंग होता है, एक ऐसी घटना है, जिसके साथ कहानी का वर्तमान स्वरूप
नैसर्गिक रूप से जुड़ा हुआ है. किन्तु प्रकृति से विगलित होने तथा समाज से टूट कर
अलग एवं विशिष्ट हो जाने के कारण ही आज का साहित्य लगातार हाशिये पर होता जा रहा
है. आज लेखक एक ऐसा प्रति संसार रचने में मग्न है जहाँ उसकी आत्मचेतना केवल अपने निज
तक ही सीमित है. उसका निजी व्यक्तित्व एक सम्पूर्ण इकाई की तरह हो गया है, जिसके भीतर वह समूची बाहरी दुनिया
समेटे रहता है. उसके अनुभव और समृतियाँ किसी सामुहिक चेतना का अंश नहीं बन पाते और
इसी कारण उसका लेखन महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी सामान्यजन को ग्राह्य नहीं होता, क्योंकि केवल वही लेखन सर्वग्राह्य बन
पाता है, जो किसी आन्तरिक
आत्मचेतना के घेरे का हिस्सा नहीं, वरन् साझा समृतियों और साझा सपनों का अंश हो. और यदि सप्रयास वह
सत्ता, धर्म अथवा राष्ट्र जैसे बड़े वृहत्तर
विषयों पर कुछ लिखता है, तो इस भाव से, जैसे इन पर लिखने के लिए उसे अपने हृदय को खरोंच कर जगह बनानी पड़
रही हो. इन हालातों में उसका लिखा सूडो राइटिंग के अतिरिक्त और क्या हो सकता है !
किन्तु ठीक इसके विपरीत, स्वयं की अस्मिता की पहचान ही दरअसल उस बाहरी दुनिया की पहचान है, जिसका लेखक भी एक हिस्सा होता है.
कहानी, लेखक के अवचेतन में घटने वाली एक घटना
का नाम है, अतः स्वयं को
उद्घाटित करके ही वह उन सत्यों को प्रकट कर सकता है, जो उसकी, और तदनन्तर समूह की, साझा आत्मस्मृतियों के पर्याय होते हैं. ये आत्मस्मृतियाँ निजी
अनुभव, इतिहास और कालबोध से निर्मित होती हैं, जिनका एक लेखक को गहराई तक दोहन करना
होता है. यह दोहन एक अलग किस्म की पीड़ा को जन्म देता है, जो अन्ततः नैतिक और अनैतिक के बीच के अन्तर्द्वन्द्व को पाटने का
सहज मानवीय प्रयास करती दिखती है. अपने समय के प्रति एक लेखक की आस्था ठीक इसी जगह
प्रकट होती है और उसका हाथ पकड़ कर उसे उन अँधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करती
है, जहाँ वह अपना होना और लिखना जस्टीफाई
कर सके. यही एक लेखक का उत्तरदायित्व है और प्रासंगिकता भी.
जहाँ तक कहानी के वर्तमान स्वरूप का प्रश्न है, अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद भी, वह कहानी के कलात्मक सौन्दर्य की
अभिव्यक्ति से जुड़ा है. यह अभिव्यक्ति एक कथा में उसके टेक्स्चर के रूप में
व्याप्त रहती है. संश्लिष्ट से संश्लिष्टतर होते हुए वर्तमान कालखण्ड में एक
कहानीकार को लगातार स्वयं से यह लड़ाई लड़नी होती है कि किस प्रकार वह अपना कलात्मक
सौन्दर्य स्थिगित किए बिना आज के समय की साक्षी बन सके, क्योंकि कहानी की प्रासंगिकता, उसकी शैली और कथ्य समय समय पर बदलते रहते हैं, किन्तु कहानी में गुंफित कलात्मक
सौन्दर्य हमेशा अक्षुण्ण रहते हैं.
कहानी का संप्रेषित होना या हो पाना एक अतिरिक्त गुण के रूप में
स्वीकार किया जा सकता है. अधिक महत्वपूर्ण है लेखक की यह पीड़ा कि उसका लिखा न तो
पूर्ण है और न ही अन्तिम सत्य. कुछ बेहतर और परिपूर्ण होने का बीहड़ आग्रह ही उसे
सही अर्थों में आधुनिक और वर्तमान समय का रचनाकार बनाता है. और तब लेखक की
रचनाधर्मिता एक ऐसे दरवाजे की दस्तक बन जाती है, जिसे दरअसल वह खोलना ही नहीं चाहता. क्योंकि खोलने का सीधा सा अर्थ
होगा, उस ओर के रहस्यों पर से पर्दा उठ
जाना.
अन्तिम बात, कि वर्तमान कालखण्ड में कहानी मनोरंजन का माध्यम कतई नहीं है, होनी चाहिए भी नहीं. मनोरंजन सिर्फ
अपने खाली समय को किसी शगल से भरने का तरीका भर है, जबकि कहानी उसी खाली समय में पाठक को पुनराविष्कृत करने की कला है.
एक अच्छी कहानी अपने पाठक को आदमी बने रहने में मदद करती है. ऐसा भी नहीं कि कहानी
समाप्त होने के बाद कोई बना बनाया सम्पूर्ण सत्य छोड़ जाती है, और अगर कुछ छोड़ती भी है तो रिक्त खुरदरी
हथेलियाँ, जिसमें एक पाठक न
जाने कितने सपनों को सत्य समझ कर पकड़ रखा था, और कितने सत्यों को स्वप्न मान कर छोड़ रखा था. हर पाठक को रचना के
लाक्षागृह से अपना अपना सच स्वयं लाना होता है. सिर्फ इसे समझने और पहचानने की
आवश्यकता है.
5. लेखक अपने पाठक
ह्रदय से सदैव प्रभावित होता है। यह प्रक्रिया एक शिक्षक की तरह मार्गदर्शन करती
है, पठन-पाठन उसके रचाव में सदैव कुछ जोड़ता है। कोई लेखक स्वयं को किसी विधा के
सर्वाधिक निकट पाता है। किसी लेखन पर किसी रचनाकार की स्पष्ट छाप होती है औऱ कभी
यूँ भी होता है कि कोई रचना हमारे वैचारिक प्रवाह को ही बदल देती है। इन बिंदुओँ
को रेखांकित करते हुए बताएँ कि आप किस लेखक से सर्वाधिक प्रभावित हैं औऱ साहित्य
की कौनसी विधा आपके दिल के सबसे नज़दीक है?
शायद आपको सुन कर कुछ अजीब सा लगे कि अपने बचपन के दिनों में अपनी
क्लास की किताब में पढ़ी प्रेमचन्द की ईदगाह कहानी मेरी साहित्यिक यात्रा में मील
का पत्थर सिद्ध हुई. वह पहली कहानी थी जिसने मुझे अपने भीतर तक झिंझोड़ कर रख दिया
था. आज भी मैं अमीना के आँख के आँसू अपने गालों पर बहते महसूस किया करता हूँ. उस
कहानी को पढ़ने के बाद राजा रानियों और जानवरों की परि कथाओं में मेरी रुचि समाप्त
सी हो गई थी. प्रत्येक वर्ष अगली कक्षा में जाते ही मेरा पहला काम अपनी नई हिन्दी
की किताब को आद्योपांत पढ़ जाना हुआ करता था. घर में साहित्य का कोई माहौल नहीं
होते हुए भी मैं चुपचाप अपने अवचेतन में साहित्य का अध्येता बनता चला गया, जिसका मुझे पता भी नहीं चल पाया था.
यह माउन्ट आबू की बात है, जहाँ मेरे माता पिता दोनों काम किया करते थे. बारिशों के लम्बे
दिनों में कई कई दिनों तक सूरज नहीं निकला करता था. स्कूल बन्द हो जाया करते थे और
हम बच्चे घर में लगभग कैद होकर सारा सारा दिन बारिश का बरसना और हवाओं की
सरसराहटें सुना करते थे. जब बारिशें रुकतीं, हम पहाड़ों पर जंगलों में भटका करते थे. वे दिन आज भी मेरी स्मृति
का स्थाई हिस्सा हैं, जो गाहे बगाहे मेरे लेखन में आ ही जाते हैं. मैंने कहीं पढ़ा था कि
तुम्हें अपना बचपन पहाड़ों पर नहीं गुजारना चाहिए, वे सारी उम्र तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ते.... पर आप देख ही रहे हैं, मेरे साथ ऐसा ही हुआ और इसमें मैं कुछ
कर भी नहीं सकता ! प्रकृति से मेरे जो सम्बन्ध उन दिनों बने, उन्हें मैं आज तक निभा रहा हूँ.
समय फिर जयपुर खींच लाया और इस शहर में मैं अपने विश्वविद्यालय के
दिनों तक रहा. हमारा घर विश्वविद्यालय केम्पस में ही था, जहाँ से लाइब्रेरी की दूरी महज तीन मिनिट की थी. लाइब्रेरी सुबह नौ
बजे खुला करती थी और अनेक बार लाइब्रेरी में प्रवेश लेने वाला मैं पहला विद्यार्थी
हुआ करता था. साहित्य की अनगिनित किताबें मेरी प्रतीक्षा किया करती थीं और मैं
उनकी. उन चार वर्षों में मैंने खूब पढ़ा, शब्दों की दुनिया को समझने का प्रयास किया. मैं जान गया था कि जिस
दुनिया की मुझे तलाश रही है, वह मुझे किताब के काले अक्षरों में ही मिलने वाली है. वहाँ किताबों
के बीच मुझे जो सुकून मिला करता था, उसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता. न सिर्फ किताबें, बल्कि उनकी गंध तक मेरे नथुनों को
सान्त्वना से भर दिया करती थी.
इसी बीच पिता में थियेटर करने के अजीब शौक ने जन्म लिया. उन दिनों
महिला चरित्र निभाने के लिए महिलाओं का मिलना दुर्लभ काम था. प्रायः पुरुष ही यह
रोल भी किया करते थे, जो बेहद भद्दा महसूस हुआ करता था. इससे निजात पाने के लिए उन्होंने
मुझसे लाइब्रेरी से ऐसे नाटक ढूँढ़ कर लाने का आग्रह किया, जिसमें महिला पात्र न हों. नाटकों में रुचि का यह प्रकरण पहला कारण
बना. मैंने अनेक नाटक पढ़े और नाटकों की सम्मोहित करती दुनिया में खो गया. पिता ने
उनमें से दो नाटक खेले भी थे.
सेम्युअल बैकेट का प्रसिद्ध नाटक ”वेटिंग फोर गोदो“ उन्हीं दिनों पढ़ा था. इस नाटक ने एबसर्डिटी से मेरा पहला परिचय
करवाया. इसके अतिरिक्त महान अमेरिकी नाटककार यूजीन ओ‘नील का आत्मकथानात्मक नाटक ”लोंग डेज जर्नी: इन्टू नाइट“ भी उन्हीं दिनों पढ़ा. इन दोनों नाटको का प्रभाव से आज तक स्वयं को
मुक्त नहीं कर पाया हूँ. पिछले वर्षों में इस दूसरे नाटक का हिन्दी अनुवाद मैंने ”लम्बे दिन की यात्रा: रात में“ नाम से किया भी है. मोहन राकेश के
नाटक ”आधे अधूरे“ के साथ साथ और भी अनेक नाटक आज भी मेरे जहन में किसी स्थाई भाव की
तरह गुंफित हैं.
उन दिनों ”धर्मयुग“ ”सारिका“ “साप्ताहिक हिन्दुस्तान“ आदि के साथ अनेक लघुपत्रिकाएँ भी आया करती थीं. हम, मैं और मेरे मित्र शिवदत्त, उनकी बेसब्री से प्रतीक्षा किया करते
थे. और जब अपने किसी प्रिय साहित्यकार की रचना नजर आ जाती, तो लगता था, जैसे कोई खजाना मिल गया हो. उन रचनाओं पर बहसें होतीं, बारीकियाँ टटोली जातीं, कभी वाह तो कभी आह से उन्हें सराहा
जाता. इसी शहर में रवीन्द्र मंच पर नाटक खेले जाते थे. इसी रंगमंच पर हमने ”सखाराम बाइन्डर“ ”शान्तः कोर्ट चालू अहे“, ”गिनीपिग“ ”आधे अधूरे“ ”आषाढ़ का एक दिन“ ”गोदो की प्रतीक्षा में“ सहित अनेक लाजवाब नाटकों का मंचन देखा.
लेकिन मेरे सर्वाधिक प्रिय कथाकार निर्मल वर्मा के साहित्य से मेरी
मुलाकात एक विचित्र घटना के साथ हुई. उस दिन मैं जयपुर शहर के बीचोंबीच एक जगह पर
अपने एक मित्र की प्रतीक्षा कर रहा था. उसे आने में कुछ समय था और मैं वहीं पास
में स्थित एक सार्वजनिक पुस्तकालय में जाकर बैठ गया. जो किताब मेरे हाथ लगी, मैं उसे ही पढ़ने लगा..... पढ़ने लगा और
पढ़ता ही चला गया. मुझे होश ही नहीं रहा कि वहाँ मैं महज अपने खाली समय को भरने बस
यूँ ही चला आया था. यह भी नहीं कि मेरा दोस्त बाहर सड़क पर मेरी तलाश में भटक रहा
होगा..... लगभग 70 पृष्ठों के बाद मुझे होश आया. मैं बाहर भागा, पर तब तक वह दोस्त चला गया था. पर मैं
अकेला नहीं था. मुझे एक नया ”दोस्त“ मिल गया था उस ”दोस्त“ का नाम था निर्मल वर्मा और वह किताब थी ”वे दिन“
फिर आने वाले दिनों में मैंने उनकी सभी किताबें पढ़ी और वे मेरे
प्रिय कथाकार बन गए. उनकी कहानियों में मैंने उस शिल्प को पाया, जिसे मैं न जाने कब से तलाश रहा था. सूक्ष्म संवेदनाओं की
अभिव्यक्ति जिस प्रकार वे अपने लेखन में करते हैं, वैसी अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ती. उनके बिम्ब विधान, कथा का टैक्सचर, शब्दों से परे जाकर अपनी बात करने की
कला मुझे अभूतपूर्व लगी और आज भी गहरे तक प्रभावित करती है. वे मुझे अपने सपनों के
कथाकार लगे थे.
उनके साथ ही अनेक भारतीय और विदेशी साहित्यकारों ने मुझ पर गहरा
प्रभाव डाला. किसी से मैंने कथा का अन्त तक निर्वाह करना सीखा तो किसी से संवाद
कराना. कुछ लेखकों ने बिटवीन द लाइन्स कहने की कला सिखाई तो कुछ ने संयम बरतना
सिखाया. पंक्तियों की सार्थकता भी पढ़ पढ़ ही जानी.
तब तक मैं अपने अनुभवों को शब्दों में ढालने की यदा कदा कोशिश किया
करता था. उनमें से कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुईं और प्रसारित भी. लेकिन मूलतः मैं
पाठक ही बना रहा. पढ़ कर जो सुख मुझे मिलता था, उसका क्षणांश भी लिख कर प्राप्त नहीं कर पाता था. यह लगातार पढ़ना
ही मेरा संचित धन बना. आज भी मैं स्वयं को एक पाठक ही मानता हूँ.इस प्रकार लगभग तीस वर्ष व्यतीत हो गए. एक दिन अपने पुराने पृष्ठों
को देखते हुए मुझे अपनी कुछ पुरानी कविताएँ नजर आईं. अनायास ही मन में यह विचार
आया कि क्यों न इन कविताओं को प्रकाशित कराया जाए. और इस प्रकार प्रकाश में आया
मेरा पहला कविता संग्रह - तुम. इस संग्रह की सर्वत्र प्रसंशा हुई लेकिन मेरे लिए
सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही श्री विजयदान देथा की प्रतिक्रिया, जिन्हें हम सब बिज्जी के नाम से जानते
हैं. उन्होंने न सिर्फ मेरा उत्साह बढ़ाया, बल्कि लगातार लिखते रहने की सलाह भी दी. उनके अतिरिक्त भी मुझे कई
बड़े साहित्यकारों का वरदहस्त प्राप्त हुआ जिस कारण मैं लिखने की और अग्रसर हुआ.लेकिन मैं जानता था
कि भले ही मेरी पहली किताब कविताओं की थी, पर मूलतः कवि नहीं हूँ. मेरा मन गद्य लेखन की ओर भटका करता था. अतः
मैंने गद्य को ही अपनी विधा बनाने का निर्णय लिया. फलतः मैंने मेरा पहला उपन्यास ‘लौटता नहीं कोई’ लिखा. इस उपन्यास की भी बिज्जी ने
भूरी भूरी प्रसंशा की. एक विख्यात गद्य लेखक की प्रसंशा अलग ही अर्थ रखती है. साथ
ही उन्होंने यह भी कहा कि क्योंकि मैंने देर से लेखन प्रारंभ किया है, अतः मैं जल्दी जल्दी लिखूँ और खूब
लिखूँ. इस उपन्यास को लेखकों आर पाठकों दोनों से अभूतपूर्व स्नेह मिला.लेकिन जल्दी जल्दी और खूब लिखना संभव नहीं हो पाया. शायद मेरी
प्रवृत्ति आड़े आ गई. आहिस्ता आहिस्ता ही कुछ कहानियाँ और अनुवाद सामने आ पाए. दरअसल
जब तक कोई विषय मेरे मन को पूरी तरह उद्वेलित नहीं कर दे, मैं एक पंक्ति भी नहीं लिख पाता. कोई खरौंच, कोई दुःख, कोई संकेत, कोई आवाज मुझे झकझोर देने के लिए काफी होती है और तब ही मेरी
संवेदनाएँ शब्दों में ढल कर बाहर आती हैं.
मेरे लिए लिखना मेरे लिए एक संश्लिष्ट प्रक्रिया न होकर किसी झरने
सा नैसर्गिक प्रवाह है, जो अपनी प्रकृति प्रदत्त उन्मुक्तता सा बहता रहता है. लिखना अपने
एकांत क्षणों का पुनर्सृजन करना है. उन अहसासातों से पुनः हाथ मिलाना है, जो मुझसे पिछले मोड़ पर मिले थे. लिखना
अपने उन अनुभवों को शब्द देना है जो हमेशा मुझे हांट करते रहते हैं. लिखना मेरे
लिए मन के मौन की शाब्दिक यात्रा है.
नये रचनाकारों के लिए यही कहना चाहूंगा कि वे खूब पढ़े औऱ शब्द की
शक्ति को आत्मसात करें लेखन की राह का सोता यहीं से फूटता है। शुभकामनाएँ...
- लेखक गोपाल माथुर के रचना संसार में वृहद पाठकीय अनुभवों के साथ तुम (काव्य संकलन), लौटता कोई नहीं(उपन्यास), आस है कि छूटती नहीं(नाटक), लम्बे दिन की यात्रा: रात में (य़ूजीन ओ ‘नील’ के नाटक का अनुवाद) और बीच में (कहानियाँ) किताबें शामिल हैं जो उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब भी है।संपर्क:98291 82320
- डॉ.विमलेश शर्मा,कॉलेज प्राध्यापिका(हिंदी),राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर,ई-मेल:vimlesh27
@gmail.com
एक बेहतरीन, अनौपचारिक, आत्मीय साक्षात्कार जिसमें दोनों विद्वजनों ने अपनी विद्टाटा से बचते हुए सरलता और औदात्यय को अभिव्यक्त किया।
जवाब देंहटाएंआत्मीय बधाई इस सार्थक साक्षात्कार के लिए ।
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