चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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शोध:‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास में अभिव्यक्त किसान जीवन की त्रासदी
2016 में प्रकाशित पंकज सुबीर का उपन्यास ‘अकाल में उत्सव’ सरकारी तंत्र का किसानों के प्रति उनकी सोच और मानसिकता का
एक्सरे करता हुआ, यह उपन्यास हमारे
मौजू समय के एक गंभीर समस्या से टकराता है। जहाँ हम आज भी कहते हुए नहीं अघाते हैं
कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, जय जवान के साथ
जय किसान का नारा बुलंद आवाजों में लगाया जाता है आज खुद उसी किसान की आवाज घुट
रही है। उद्द्योग और बाजार की चकाचौंध में खेती उपेक्षा का शिकार और किसान
आत्महत्या का शिकार हुए हैं। घाटे की सौदा बनती हुई खेती तथा हाड़तोड़ मेहनत के बाद
भी किसान के तन पर फटे कपड़े और चेहरे पर पड़ी झुर्रिया देखकर उसकी खुद की आने वाली
पीढ़ी का किसानी से तेजी से मोहभंग हुआ है। पंकज सुबीर का उपन्यास पढ़ने के बाद यह
महसूस होता है कि किसान आपदा का मारा हुआ नहीं बल्कि व्यवस्थाओं का मारा हुआ है। ‘अकाल में उत्सव’ नाम की व्यंजना से ही उपन्यास के कथ्य का पता चलता है। एक
तरफ अकाल है तो दूसरी तरफ उत्सव है। एक तरफ मरण है तो दूसरी तरफ जश्न और आनंद है।
एक ओर जन है तो दूसरी ओर तंत्र है। दरअसल यह उपन्यास व्यवस्था के दो ध्रुव की कथा
है। जिसके एक ध्रुव के प्रतिनिधि कलेक्टर श्रीराम परिहार हैं वही दुसरे ध्रुव के
प्रतिनिधि किसान रामप्रसाद हैं। अपने छोटे कलेवर में यह उपन्यास प्रशासन और किसान के बृहद
परिप्रेक्ष्य को रचता है।
सीधी और सपाट शैली में लिखा गया यह
उपन्यास किसान समस्या को इतिहासबोध के आईने में रखकर उनकी पीड़ा को समझाने का
प्रयास करता है। ‘जवाहरलाल नेहरु
ने एक बार कहा था कि अगर देश को विकास की तरफ बढ़ते देखना है तो गरीबों और किसानों
को ही सैक्रिफाइज (त्याग) करना पड़ेगा। आजादी को आज सत्तर साल होने को है। लेकिन
सैक्रिफाइस किसान ही कर रहा है। बाकी किसी को भी सैक्रिफाइस नहीं करना पड़ा। सबकी
तनख्वाहें बढ़ी, सब चीजों के भाव
बढ़े लेकिन, उस हिसाब से किसान को जो
समर्थन मूल्य मिलता है। उसमें बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। 1975 में सोना 540 रूपये का 10 ग्राम आता था जो
अब 2015 में 30 हजार के आस-पास झूल रहा है, कुछ कम ज्यादा होता रहता है। 1975 में किसान को गेंहू का समर्थन मूल्य सरकार की
ओर से तय था लगभग सौ रुपया और आज 2015 में मिल रहा है लगभग 1500। यदि सोने को ही
मुद्रा मानें, तो 1975 में किसान पांच क्विंटल गेंहू बेचकर दस ग्राम
सोना खरीद सकता था। आज उसे दस ग्राम सोना खरीदने के लिए 20 क्विंटल गेंहू बेचना पड़ेगा।’१
आज सरकारें जब किसानों को कुछ सब्सिडी देकर
अपनी पीठ थपथपाती हैं। वह किसानों की रहनुमा होने का दावा करती हैं। किन्तु ठीक
इसके विपरीत लेखक ने अपनी स्थापना देकर यह सिद्ध किया है कि ‘यह दुनिया की सबसे बड़ी कृषि आधारित
अर्थव्यवस्था है, जिसमें हर कोई
किसान के पैसे का अय्याशी कर रहा है। सरकार कहती है कि सब्सिडी बाँट रही है जबकि
हकीकत यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के आकड़े में उलझा किसान तो अपनी जेब से बाँट
रहा है सबको सब्सिडी। यदि चालीस साल में सोना चालीस गुना बढ़ गया तो गेंहू भी आज
चार हजार के समर्थन मूल्य पर होना था, जो आज है पन्द्रह सौ। मतलब यह कि हर एक क्विंटल पर ढाई हजार रुपए किसान की जेब
से सब्सिडी जा रही है।’२
उपन्यास की कथा दो समानांतर कहानी के रूप
में चलती है एक प्रशासन की दूसरी गाँव के किसान की। किन्तु दोनों एक दुसरे के पूरक
हैं। कथा में मोड़ तब आता है जब टूरिज्म विभाग की तरफ से उत्सव
मनाने का फण्ड आता है। उस फण्ड को कलेक्टर के निर्देशानुसार कहीं और ठिकाने लगाकर
उत्सव के लिए फण्ड का बन्दोबस्त चन्दा के रूप में शराब के ठेकेदार और नगर निगम से
किया जाता है। और इस काम में भूमिका निभाते हैं सामाजिक कार्यकर्ता मोहन राठी और
रमेश चौरसिया जैसे जनता और प्रशासन के बिचौलिए तथा राहुल वर्मा जैसे पत्रकार।
हमारे देश में प्रशासनिक अमला किस तरह कार्य करता है। किस तरह जिले की सत्ता
कलेक्टर के आस-पास घूमती है। इसका बारीक़ विश्लेषण इस उपन्यास में प्रस्तुत है।
कलेक्टर की शैली आज भी अंग्रेजो के ज़माने वाली है। लेखक ने उसके लिए बिना ताज का
राजा शब्द का प्रयोग किया है। जो उचित ही है। किसान और कलेक्टर का सम्बन्ध
प्रत्यक्ष –अप्रत्यक्ष दोनों रूप से
जुड़ा हुआ होता है। राजस्व प्रणाली की जो कड़ी है उसमें कलेक्टर, एसडीएम, तहसीलदार गिरदावर और पटवारी आते हैं। यह पटवारी सबसे छोटी
इकाई होने के कारण किसान से सीधा जुड़ा होता है। चाहे सरकारी नीतियों का लाभ हो या
राजस्व वसूली हो इसी के माध्यम से होता है। इसलिए किसान के जीवन में पटवारी की एक
महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
गाँव का नाम ‘सूखा पानी’ भी बहुत रोचक है।
जो आदिवासी क्षेत्र होने के साथ ही खुद मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्र भी है।
किसान की हित के लिए बनी नीतियाँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़कर किसान की ही गला घोट
देती है। सरकार द्वारा किसानों को सस्ते दर पर उपलब्ध करवाई गई ऋण की
व्यवस्था ‘केसीसी’ (किसान क्रेडिट
कार्ड) का असली लाभ तो बैंक मैनेजर के मिली भगत से फर्जी दस्तावेज लगाकर दलाल उठा
लेते हैं। ऐसी ही त्रासदी का शिकार किसान रामप्रसाद होता है। उसके नाम पर तीस हजार
का कर्ज चुकाने का नोटिस घर पर मिलता है। जब उसे पता चलता है तो उसके पैर से जमीन
हिल जाती है। फिर शुरू होता है बैंक से लेकर तमाम कार्यालय तक की भागदौड़, जो किसान के लिए एक अतिरिक्त समस्या की तरह है।
वैसे कर्ज किसान के जीवन का अभिन्न हिस्सा की तरह हो गया है। इसीलिए तो यह प्रचलित
है कि एक किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मर जाता है। इसी समस्या पर बल देते हुए लेखक
ने लिखा है ‘हर छोटा किसान
किसी न किसी का कर्जदार है, बैंक का सोसाइटी
का, बिजली विभाग का या सरकार
का। सारे कर्जो की वसूली इन्ही आर.आर.सी. (रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकेट) के माध्यम
से पटवारी और गिरदावरों को करनी होती है। वसूली कितना खौफनाक शब्द है, यह जो कुर्की है यह अपने आप से ही किसान को
डराती है। कुर्की में वसूली से ज्यादा डर इज्जत के उतरने का होता है। किसान,
कर्जा, कलेक्टर और कुर्की चारों नामों को साथ
लेने में भले ही अनुप्रास अलंकार बनता है, लेकिन यह किसान ही जानता है कि इस अनुप्रास में जीवन का कितना बड़ा संत्रास छिपा
हुआ है।’३
‘आज किसान बेहद परेशान है। खाद, बीज, कीटनाशक और डीजल
की कीमतें बढ़ने से कृषि उत्पादों के लागत मूल्य में जिस औसत से वृद्धि हुई है,
उसके अनुपात में उन्हें फसलों के दाम नहीं मिल
पा रहे हैं। उन्हें अकसर अपनी उपज का वाजिब दाम नहीं मिल पाता है। सत्ता में आने
से पहले हर सियासी पार्टी किसानों की बेहतरी की बात करती हैं, लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल जाती हैं।’४ जहाँ
आज भी भारत की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है और उस गाँव के केंद्र में किसान
होता है, किसानी से ही पशुपालन
जुड़ा हुआ है उसी से खेतिहर मजदूर भी अपना भरण-पोषण करते हैं किन्तु सरकार और
प्रशासन बगैर किसान के जीवन में परिवर्तन लाए हुए देश को आगे ले जाना चाहेगी तो यह
प्रगति व तस्वीर अधूरी होगी।
यह उपन्यास किसान की समस्या और उसकी पीड़ा
को कई कोण से पकड़ता है। जिस किसान के सामने हजारों तरह की परेशानियां उसके जीवन को
जोक की तरह चूस रही हैं अब वहीं यह भी कहा जाने लगा है कि आने वाले समय में खेती
भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करेंगी। इस आगामी खतरा को लेखक ने एसडीएम राकेश पाण्डेय
और सामाजिक कार्यकर्ता रमेश चौरसिया के बीच वार्तालाप में जाहिर किया है-‘ असलियत में क्या होता है यह केवल वहीं जानता है
जो किसानी करता है। बीज समय पर नहीं मिलता मिल जाए तो पता चले कि खराब निकल गया,
अंकुरित ही नहीं हुआ। बीज ख़राब न हो किसान के
किस्मत से अंकुरित हो जाए तो खाद नहीं मिलेगा। खाद जैसे –तैसे करके लाए तो पता चलता है कि बिजली नहीं है, पानी किस प्रकार से फेरा जाए खेत में। ऐसा लगता
है जैसे सरकारें खुद ही किसानों को खेती करने से रोकना चाह रही हैं, मल्टीनेशनल के इशारों पर। कभी यूरिया का संकट,
कभी बिजली का संकट, कभी बीज का संकट। सारे संकट किसान के सामने ही क्यों पैदा
किए जा रहे हैं? ताकि वह घबरा कर
अपने खेत बेच दे मल्टिनेशनल को। यह बहुत बड़ा षड़यंत्र है, बड़ी कांसपिरेसी है।‘५
किसान के पास उसकी पूंजी होती है पत्नी का गहना
जो आर्थिक कठिनाइयों में काम आता है। घर में किसी अवसर पर आर्थिक तंगी आने के बाद
किसान पत्नी का गहना सुनार के पास रखकर कर्ज ले लेता है इस उम्मीद में कि फसल के
समय कर्ज चुका कर गहना वापस ले लूँगा किन्तु ऐसा अवसर शायद ही आ पाता है। यही हाल
रामप्रसाद की पत्नी कमला का भी है, धीरे – धीरे उसके तन से सारे गहने बिक चुके है गले में
पति के नाम से काला धागा बांध रखा है। अंतिम गहना एक तोड़ी है वह भी कर्ज के दबाव
में बेच देता है। यहाँ का दृश्य बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है।
वैसे किसान के जीवन में तो परेशानियाँ एक
के बाद एक लगी रहती है। उसका जीवन परेशानियाँ का जंजाल बन जाता है। एक तरफ फसल की
मार दूसरी तरफ बाबा जी का मंदिर बनवाने का प्रण। यहाँ धर्म भी सुख-शांति के बजाय
दुःख और परेशानी का सबब बनकर आता है। ‘कोई बाबा है उन्होंने प्रण ले लिया है कि वह पचास गांवों में या तो मन्दिर
बनवायेंगे या पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार कराएँगे किन्तु इसका पैसा अपनी जेब से
नहीं बल्कि गाँव के किसान देंगे। गाँव में खेती के हिसाब से चंदा तय किया गया है
एक एकड़ पर एक बोरा गेंहू हर किसान को देना है...राम प्रसाद जैसे किसान जो बड़ी
मुश्किल से अपने परिवार के लिए खाने का अनाज बचा पाते हैं, वह मन्दिर के लिए अनाज भला कहाँ से देंगे? लेकिन मामला धर्म का है सो देना ही है।।भगवान
जैसी किस्मत भला किसकी होगी,जिसे इसी भय के
चलते सारी अच्छी बातों का तो क्रेडिट मिलता है लेकिन, अगर कुछ बुरा हो जाए, तो उसका भक्त इसके लिए अपने आप को या अपनी किस्मत को ही दोष
देता है। दुनिया के सारे धर्मस्थल असल में भय का कारोबार करने वाली दुकानें हैं।
इन दुकानों की बिक्री ही भय पर टिकी है, जितना अधिक भय उतनी अधिक बिक्री। डराओ और कमाओ।’६
वरिष्ठ आलोचक डा.
मैनेजर पाण्डेय ने उपन्यास पर टिप्पणी करते हुए लिखा है –“यह गाँव और किसान जीवन के दुःख – दर्द कहने वाली रचना है। इस उपन्यास को पढ़कर कहा जा सकता है
कि किसान जीवन में आजकल सुख कम दुःख ज्यादा है।”७ वही रोहिणी
अग्रवाल ने लिखा है –
“उपन्यास बड़े फलक
के साथ क्रूर सच्चाइयों को महीन परतों के साथ उघाड़ने में समर्थ है। ‘अकाल में उत्सव’ किसान आत्महत्या जैसे बड़े सामाजिक सरोकार के संदर्भ में समय
का अक्स प्रस्तुत करता है।”८
देखा जाए तो रामप्रसाद जैसे किसान की
समस्या भारत के किसान की समस्या है। जहाँ पर श्री राम परिहार जैसे कलेक्टर
अफसरशाही की सनक में सत्ता के साथ गोटी बैठाने के चक्कर में किसान का उनके लिए कोई
महत्व नहीं है। उनके लिए उत्सव प्रिय है अकाल की चिंता नहीं तभी तो एक तरफ कलेक्टर
के साथ पूरा महकमा जश्न और उत्सव मना रहा है वहीं किसान रामप्रसाद हताश और निराश
होकर आत्महत्या कर रहा होता है। आत्महत्या के बाद फिर वहीं लिपा-पोती का दौर शुरू
होता है। व्यवस्था की खामियों से उपजी किसान की आत्महत्या धूर्त अफसरशाही उसे
पागलपन का रूप दे देती है। आज भी किसानों की आत्महत्या पर नेताओं के यदा-कदा सतही
और भड़काऊ बयान सुनने को मिल जाता है। उपन्यास का अंत बहुत ही मर्मस्पर्शी है ‘तीन दिवसीय रंगारंग उत्सव का कल रात विराट कवि
सम्मेलन के साथ समापन हो गया। सुप्रसिद्ध कवि ने अपनी पंक्तियाँ पढ़ी –मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है।
गलत कहा कवि ने, बहुत गलत कहा....धरती की बेचैनी को बादल नहीं समझता। धरती
की बेचैनी को यदि बादल समझता तो पृथ्वी पर इतना हिस्सा रेगिस्तान नहीं होता। न अकाल
होता, न सूखा ही पड़ता। धरती की
बेचैनी को बादल नहीं समझता, धरती की बेचैनी
को बस किसान समझता है।
मगर किसान की बेचैनी को ?९
संदर्भ सूची -
१. पृष्ठ संख्या ४१, पुस्तक –अकाल में उत्सव,
लेखक- पंकज सुबीर (शिवना प्रकाशन)
२. पृष्ठ संख्या ४२, वही
३. पृष्ठ संख्या २७, वही
४. पृष्ठ संख्या १७५, वही
५. जनसत्ता सम्पादकीय २०१७
६. पृष्ठ संख्या १६३, पुस्तक –अकाल में उत्सव,
लेखक- पंकज सुबीर (शिवना प्रकाशन)
७. पृष्ठ संख्या १७, पुस्तक –विमर्श –अकाल में उत्सव, स. सुधा ओम ढींगरा
८. वही
९. पृष्ठ संख्या २२४, वही
जितेन्द्र यादव
शोधार्थी- हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली
सम्पर्क- 9001092806,ई-मेल- jitendrayadav.bhu@gmail.com
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