चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेख:विद्रूप स्थितियों का जीवंत दस्तावेज:रेणु के रिपोर्ताज /सितारे हिन्द
हिंदी साहित्य में
फणीश्वरनाथ‘रेणु’ की पहचान एक कालजयी रचनाकार के
रूप में है।अपने पहले उपन्यास 'मैला आँचल' (1954) से ही इन्होंने हिंदी कथा साहित्य को एक नई दिशादी। इस उपन्यास
के प्रकाशित होते ही हिंदी कथा साहित्य में आंचलिकता की नींव पड़ी।‘रेणु’ सम्पूर्ण
जीवन राजनीति से साहित्य और साहित्य से राजनीति की ओर एक शोधक यात्री की तरह
यात्रा करते रहे। इनकी इस यात्रा को अकारण या भटकावपूर्ण नहीं कही जा सकता बल्कि
यह ‘रेणु’ के सामाजिक बदलाव के प्रति उत्कट अभिलाषा
और तीव्र छटपटाहट को दिखता है। ‘रेणु’ का सम्पूर्ण
साहित्य राजनीति की मजबूत बुनियाद पर स्थित है। ‘रेणु’ ने
सामाजिक बदलाव में साहित्य की भूमिका को कभी राजनीति से कमतर नहीं माना।‘रेणु’ की
पक्षधरता पूरी तरह से शोषितों के प्रति है इस बात का पता उनके द्वारा लिखे गए अन्य
साहित्य-रूपों की तुलना में रिपोर्ताज में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई
देता है। 1945 में कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका 'विश्वमित्र' में
प्रकाशित अपने पहले रिपोर्ताज 'विदापत-नाच' से ही ‘रेणु’ ने
रिपोर्ताज का क्लासिकल प्रतिमान स्थापित किया। ‘रेणु’ का
रिपोर्ताज-लेखन एक साथ समय की जरूरत एवं रिपोर्ताज को एक विधागत उत्कर्ष तक ले
जाने की थी।हिंदी का पहला रिपोर्ताज शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को माना
जाता है जो कि रूपाभ (पत्रिका) के दिसंबर 1938 के अंक में
प्रकाशित हुआ था। यानी कि ‘रेणु’ के पहले रिपोर्ताज
से मात्र सात वर्ष पूर्व! ‘रेणु’ लगातार रिपोर्ताज
लिखते रहे और अपने रिपोर्ताज-लेखन की यात्रा के दौरानउन्होंने दर्जनों रिपोर्ताज
लिखे।ये रिपोर्ताज जितने ही भाव-प्रवण हैं उतने ही व्यंग्यधर्मी।पहला ही रिपोर्ताज
‘विदापत-नाच’ अपने विधागत तत्व जैसे १.तथ्यात्मकता
२-वातावरण की जीवंतता ३-भावनात्मक संवेदना और मानवीय दृष्टिकोण एवं ४-नाटकीयता से
अलग नहीं है। यह रिपोर्ताज ‘मैथिल कोकिल’ और ‘अभिनव
जयदेव’ की उपाधि से विभूषित
मैथिली के प्रसिद्ध कवि विद्यापति को लोक
द्वारा ग्रहण करने का जीवंत दस्तावेज है।
‘रेणु’ इस
रिपोर्ताज में बताते हैं कि “‘विदापत-नाच’निम्न स्तर
के लोगों की ही चीज रह गई है।तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी
हेठी समझते हैं, लेकिन मुसहर, धाँगड़, दुसाध के
यहाँ विवाह, मुंडन तथा अन्य अवसरों पर इसकी धूम
मची रहती है।”1‘रेणु’ तथाकथित
भद्र समाज पर व्यंग्य करते हैं और कहते हैं कि "जब से मैं अपने को भद्र और
शिक्षित समझने लगा,तब से इस
नाच से दूर रहने कि चेष्ठा करने लगा,किन्तु थोड़े दिनों के बाद ही मुझे अपनी गलती
मालूम हुई और मैं इसके पीछे फ़िदा रहने लगा।"2यहाँ ‘रेणु’ की पीड़ा
और छटपटाहट है कि शिक्षित लोग लोक से कटते चले जाते हैं।सात-आठ कलाकार,दो वाद्य-यंत्र -
मृदंग और मंजीरा,एक विदूषक
और दो-तीन सहायक गवैये के साथ-साथ लाल साहू की घांघरी और पीतल-काँसे के गहनों के
साथ चलने वाला यह ‘विदापत-नाच’ अपने समय एवं समाज
की विद्रूप स्थितियों पर खुलकर कटाक्ष करता है। मृदंग की ताल पर जब नर्तक,सामाजिक के चारों
ओर भाँवरी यानी चक्कर देना शुरू करता है तो दर्शक निहाल हो जाते हैं।एक प्रकार का
माहौल बन जाने के बाद विकटा मैथिली में कहता है -
“हे नैक जी(नायक जी )
आब
हमरो सुनूँ' (अब मेरी भी सुनिए!'
बाप
रे!...
बाप
रे कोन दुर्गति नहीं भेल,
सात
साल हम सूद चुकाओल,
तबहूँ
उरिन नहीं भेलौं।
कोल्हुक
बरद सन खटलौं रात-दिन
करज
बाढ़त हि गेल।
थारी
बेंच पटवारी के देलियेन्ह,
लोटा
बेंच चौकीदारी।
बकरी
बेंच सिपाही के देलियेन्ह,
फटक
नाथ गिरधारी।"3
बाप रे, मेरी कौन दुर्गति नहीं हुई! सात वर्षों
तक मैं सूद चुकाता रहा, तब भी ऋण
से मुक्त नहीं हुआ।कोल्हू के बैल की तरह रात-दिन मेहनत की, पर कर्ज बढ़ता ही
गया।थाली बेचकर पटवारी को दी और लोटा बेचकर चौकीदारी में दे दिया।एक बकरी थी, जिसे बेचकर रुपये
सिपाही को दे दिए और अब 'फटकनाथ
गिरधारी' यानी पूरी
तरह से कंगाल हुआ फिर रहा हूँ। हास्य रस से भरपूर इस रिपोर्ताज में ‘रेणु’ ने उत्तर
बिहार के दरभंगा, भागलपुर, पूर्णियाँ आदि
जिलों में व्याप्त गरीबी का दृश्य उकेर कर रख दिया है। अपनी लाजबाब कहन-शैली, आंचलिक
शब्दों के प्रयोग के द्वारा उस क्षेत्र की भीनी खुशबू का बोध कराने के साथ-साथ ऐसा
लगता है कि हम पाठक नहीं बल्कि दर्शक हैं और सीधे ‘सामाजिक’ के बीच
उपस्थित हैं। ‘रेणु’ इस ‘विदापत-नाच’ के बारे
में बताते हैं कि "दुखी-दीन अभावग्रस्तों ने घड़ी-भर हँस-गाकर जी बहला लिया, अपनी
जिन्दगी पर भी दो-चार व्यंग्य-वाण चला दिए, जी हल्का
हो गया। अर्धमृत वासनाएँ थोड़ी देर के लिए जगीं, अतृप्त जिंदगी के कुछ क्षण सुख से
बीते। मिहनत की कमाई मुट्ठी-भर अन्न के साथ-साथ आज इन्हें थोड़ा-सा 'मोहक प्यार' भी मिलेगा, इसमें
संदेह नहीं।...."4
‘रेणु’ ने अपने
रिपोर्ताजों में समय की नब्ज को बिलकुल ही सही तरीके से पकड़ा है एवं किसी भी
महत्वपूर्ण घटना के प्रति उदासीन न रहकर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया दी है।इनकी यह
प्रतिक्रिया 'सरहद के उस पार', 'नए सबेरे की आशा', 'हड्डियों का पुल', 'एकलव्य के
नोट्स', 'जीत का स्वाद', 'पुरानी कहानी:नया
पाठ', 'युद्ध की डायरी', 'भूमिदर्शन की
भूमिका', 'नेपाली क्रांति कथा', 'पटना-जलप्रलय' आदि
रिपोर्ताजों के माध्यम से दी है। ‘रेणु’ के द्वारा
लिखे गए ये रिपोर्ताज उस समय की महत्वपूर्ण पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जैसे–‘विश्वामित्र’, ‘जनता’, ‘जनवाणी’, ‘संकेत’, ‘योगी’, ‘धर्मयुग’, ‘उर्वशी’, ‘अणिमा’, ‘दिनमान’ आदि।
‘रेणु’ अपनी
रचनाओं में अपनी दृष्टि न सिर्फ़ अपने अंचल, राज्य, राष्ट्र बल्कि इसकी सीमा का भी
अतिक्रमण करके पड़ोसी देशों नेपाल, बाँग्लादेश आदि तक भी ले गए हैं। नेपाली
क्रांति में ‘रेणु’ ने सशस्त्र संघर्ष किया था। इन्होंने अपने
रिपोर्ताज़ ‘सरहद के उस पार’ में विराटनगर की
स्थितियों का वर्णन किया है। यह रिपोर्ताज़ जनता (पत्रिका) के 2 मार्च, 1947 के
अंक में प्रकाशित हुआ था। विराटनगर पूर्णियाँ से बिल्कुल ही सटा हुआ है जहाँ ‘रेणु’ का
प्रारम्भिक जीवन कोइराला बंधुओं के बीच बीता था। इस रिपोर्ताज़ में ‘रेणु’ बताते हैं
कि इस राज्य में घूस को ‘राजधर्म’ मान लिया गया है।
इसमें ‘रेणु’ के प्रखर वामपंथी स्वरूप का भी दर्शन होता
है। ‘रेणु’ कहते हैं, “दिन-प्रतिदिन
नेपाली प्रजा की जिंदगी बदतर होती जा रही है। इस पर तुर्रा यह कि अभी और भी कितने
विषधर अपने-अपने दाँतों को तेज कर रहे हैं, नेपाल की सड़कों पर चक्कर काट रहे हैं।
“प्रभो!” मुझे सिर्फ़ हड्डी
पीसने वाली मिल ही खोलने की आज्ञा दी जाए। अमेरिकन मशीन, नए ढंग की पिसाई....,
उफ़....! बहुत जल्द ही पूँजीपतियों के घर में नेपाल राज्य बंधक पड़
जाएगा।”....5इस
रिपोर्ताज़ का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसके प्रकाशन के बाद ही
विराटनगर के मजदूरों का आंदोलन शुरू हुआ। इससे ‘रेणु’ के कलम की
धार को भी समझा जा सकता है। यह वह दौर है जब नेपाल की राणाशाही हर तरह से नेपाल का
विनाश कर रही थी। इस रिपोर्ताज़ में ‘रेणु’ ने
राणाशाही के अधीन नेपाल की स्थितियों का सजीव चित्रण किया है जिसका कि एक ऐतिहासिक
महत्व है। इस दृष्टि से यह रिपोर्ताज़ अपने समय में समसामयिक रहा होगा लेकिन अब
इसे अगर कालजयी माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बाढ़ और अकाल पर ‘रेणु’ ने कई
रिपोर्ताज़ लिखे हैं। हालाँकि 1942 में अकाल पर रांगेय राघव का लिखा रिपोर्ताज़ ‘तूफ़ानों
के बीच’ का अपना महत्व है लेकिन ‘रेणु’ का
रिपोर्ताज़ ‘हड्डियों का पुल’
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जनता (पत्रिका) के 17 सितम्बर, 1950 के अंक में
प्रकाशित हुआ था। इसमें कोसी क्षेत्र में आए भुखमरी का वर्णन किया गया है। एक ऐसा अकाल जहाँ मानव के बरक्स
मानवीयता ने घुटने टेके थे। नेताओं के कुत्सित रूप सामने आए। नौकरशाहों के चरित्र
और कांग्रेस की भ्रष्टता देखी गई। इस अकाल में सत्य, अहिंसा, गाँधी जी और
राम-राज्य की छाती कुचली गई। ‘रेणु’ दिखाते हैं कि इस
भीषण अकाल के समय जमींदारों के यहाँ खीर-पूड़ी, मिठाई-हलवा व मांस आदि व्यंजनों की
पार्टी उड़ायी जाती है वहीं मजदूरों के यहाँ दाने-दाने के लाले पड़े हैं। ‘रेणु’ ने यह
रिपोर्ताज़ 1950 में लिखा था। यह रिपोर्ताज़ भी अकाल पर लिखा गया है और 1966 में
लिखा गया रिपोर्ताज़ ‘भूमिदर्शन की भूमिका’ यानी ‘ऋणजल’ भी अकाल
पर ही है लेकिन दोनों की स्थितियों में काफ़ी भिन्नता थी। पहली बात तो यह कि ‘हड्डियों का पुल’
रिपोर्ताज़ सहरसा और पूर्णियाँ जिले में बाढ़ से आए अकाल यानी भुखमरी पर आधारित है
लेकिन ‘भूमिदर्शन की भूमिका’ यानी ‘ऋणजल’ 1966 में
दक्षिण बिहार में सूखे से आए अकाल पर केन्द्रित है। ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गए
गुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी कसम’ पर फिल्म बनी थी और ‘रेणु’ ने एक
पटकथा-लेखक के तौर पर कई बार फिल्मी नगरी बंबई की यात्रा भी की थी। अपने अनुभव को
उन्होंने ‘एक फिल्मी यात्रा’, ‘तीसरी कसम के सेट
पर तीन दिन’, ‘स्मृति की एक रील’ में
व्यक्त किया है। इन रिपोर्ताज़ों में इन्होंने फिल्मी दुनिया की बारीकियों को खोला
है। ‘रेणु’ एक कथाकार के तौर पर फिल्मी स्टुडियो के
प्रति अपना दृष्टिकोण, फिल्मी जगत के लोगों के साथ अपना व्यक्तिगत संबंध और फिल्म
शूटिंग के प्रति अपनी सूक्ष्म दृष्टि की अभिव्यक्ति की है।
‘भूमिदर्शन
की भूमिका’ रिपोर्ताज़ छह भागों में ‘दिनमान’ (पत्रिका)
के दिसंबर-जनवरी, 1966-67 के अंकों में प्रकाशित हुआ था। यह एक यात्रा-कथात्मक
शैली में लिखा गया रिपोर्ताज़ है जिसमें दक्षिण बिहार के सूखे से उपजी विसंगतियों
का जीवंत चित्रण किया गया है। भारत यायावर के अनुसार, “ ‘भूमिदर्शन
की भूमिका’ की संरचना यात्रा-कथात्मक है। इसमें ‘रेणु’ भूखे,
नंगे दलित वर्ग के लोगों के बीच हमें चुपचाप ले जाकर खड़ा कर देते हैं। भूख से
तड़प-तड़प कर मरते हुए मनुष्यों का दर्शन कराकर ‘रेणु’ असली
हिंदुस्तान का साक्षात् करवाते हैं।”6‘रेणु’ व्यवस्था
पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, “कौन कहता है, सूखा
पड़ा है? सरकार? सोशलिस्ट
(प्रजा-संयुक्त)? कम्युनिस्ट? कांग्रेसी? कौन बोलता
है? कोई मिनिस्टर? कोई जनता का सेवक?......ऑल
फ्रॉड!”7‘रेणु’ ने एक-एक
शब्द का प्रयोग काफ़ी तराशकर किया है। प्रकृति-चित्रण, बिम्ब,प्रतीक आदि देखते ही
बनता है। इस रिपोर्ताज़ से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि ‘रेणु’ का
विश्वास 1950 की तुलना में 1966-67 में टूट चुका था। ‘हड्डियों का पुल’
रिपोर्ताज़ वाला ‘रेणु’ एक जोशीला ‘रेणु’ था लेकिन ‘भूमिदर्शन की भूमिका’ वाला ‘रेणु’ उम्मीद खो
चुका ‘रेणु’ है।
‘पटना-जलप्रलय’ रिपोर्ताज ‘दिनमान’ पत्रिका
में 1975 में प्रकाशित हुआ था। यह रिपोर्ताज 1975 में पटना
में आई बाढ़ पर लिखा गया है। ‘रेणु’ पहली बार बाढ़ में
इस प्रकार घिरते हैं। ‘रेणु’ इस रिपोर्ताज में
कुछ ज्यादा ही व्यंग्यधर्मी हो गए हैं। इस रिपार्ताज में भी ‘फ्लैश बैक’ शैली का
प्रयोग किया गया है। भारत यायावर के अनुसार,“वे वर्तमान को
देखते हुए सुदूर अतीत की स्मृति-चित्रों को कभी याद करते हैं, तो कभी
भविष्य में भी झाँकने की कोशिश करते हैं, परंतु उनका ज्यादा
देखना वर्तमान के क्रिया-कलापों को ही है। वे यथार्थ को उसकी बहुरंगी विविधता एवं
जटिलता में अत्यंत सूक्ष्मता के साथ इन रिपोर्ताज में अंकित करते हैं।’’8 ‘रेणु’ इस
रिपोर्ताज में लोककथा का प्रयोग कर रोचकता ला देते हैं। इस रिपोर्ताज के लेखन के
समय आपातकाल के काले साए में लेखक जी रहा था। अतः ‘रेणु’ सरकार पर
खुलकर प्रहार नहीं कर पाए है जो एक प्रकार से रचना को कमजोर कर देती है।यह लेखक का
अंतिम रिपोर्ताज है। अतः इसमें शिल्प और संवेदना अपने पूरे उत्कर्ष पर है। अनेक
प्रतीकों, बिम्बों एवं आंचलिक भाषा के प्रयोग से रिपोर्ताज में अत्यधिक
निखार आ गया है। चूँकि बाढ़ पटना शहर में आई थी, न कि किसी बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में।
अतः इस पर लिखे गए इस रिपोर्ताज का ऐतिहासिक महत्व है।
‘रेणु’ अपने
रिपोर्ताजों के द्वारा पाठक वर्ग का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया है कि भरतीय जनता
मूलरूप से उत्सवधर्मी है। बाढ़ और सूखे के समय में भी इनकी उत्सवधर्मी जिजीविषा का
जवाब नहीं। इन्होंने अपने संक्रमण-काल में साहित्यकार सह पत्रकार की हैसियत से
बहुत ही तीखेपन के साथ सामाजिक विद्रूपताओं के खिलाफ लिखा। ये अपने रिपोर्ताज में
सरकारी तंत्र के जन-विरोधी निरंकुश चरित्र के ख़िलाफ़ खुलकर लिखा। अपनी इस
निष्पक्षता एवं पारदर्शिता के लिए ये हमेशा सराहे जाते रहेंगे।‘रेणु’ की
प्रसिद्धि एक आँचलिक उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में है। इनके रिपोर्ताज
साहित्य पर भी आंचलिकता की गहरी छाप है। ये रिपोर्ताज खाँटी देसीपन से भरपूर होते
हुए भी एक क्लासिकल प्रतिमान हैं। ‘रेणु’ भाषा को
लेकर बहुत ही उदार थे। उन्होंने शब्दों का देशज, विदेशज आदि रूपों
का प्रयोग किया है। इनके द्वारा प्रयुक्त लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे जहाँ पाठक को
जमीनी गंध मुहैया कराते हैं वहीं गीत काफी मर्मभेदी हैं। रिपोर्ताज में कहीं
फ्लैश-बैक शैली का दर्शन मिलता है तो कहीं कल्पना के द्वारा भविष्य को मूर्त किया
गया है। उन्होंने कहीं-कहीं गीत-कथा का भी प्रयोग करके वातावरण को रोचक बनाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी है। ‘रेणु’ नाटकीयता का
प्रयोग काफी सफलतापूर्वक करते हैं। नाटकीयता का एक प्रमुख तत्व संवाद या कथोपकथन
होता है। ‘रेणु’ ने कथोपकथन के द्वारा रिपोर्ताज को
दृश्यात्मक, लयात्मक एवं रोचक बनाने में पूर्ण सफलता हासिल की है। प्रतीकों
का प्रयोग करके जहाँ इन्होंने प्रचलित परंपराओं को दिखाया है वहीं इनके द्वारा खड़ा
किया बिंब दृश्य को मूर्त करने में पूर्ण सफल हुआ है।‘रेणु’ के
रिपोर्ताजों में अंकित बाढ़ की विभीषिका के चित्र और बाढ़ के पश्चात् नेताओं और
सामाजिक कार्यकर्ताओं के लूट-खसोट वाले चरित्र पर काफी तीक्ष्ण व्यंग्य किया गया
है। बाढ़ और अकाल पर लिखे गए इनके रिपोर्ताज कई मायनों में प्रासंगिक हैं। जब-जब
सत्ता अैर सरकारी तंत्र की जनविरोधी नीतियाँ सामने आएँगी, तब-तब ये रिपोर्ताज एक
मशाल की तरह इसके वीभत्स चेहरों को दिखाएगा।
संदर्भ
सूची :
1.फणीश्वरनाथ
‘रेणु’, समय की शिला पर, संकलन-संपादन
भारत यायावर राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, वर्ष-2002 ,पृ.15
2.वही ,पृ. – 15
3. वही ,पृ.– 18-19
4.वही ,पृ.– 21
5. वही ,पृ.-24
6. वही ,पृ.-10
7. वही ,पृ.-169
- सितारे हिन्द,एल – 6, बशीर छात्रावास,अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,हैदराबाद – 500 007,संपर्क:897823823,sitareeflu@gmail.com
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