साहित्यिक दस्तावेज़:इक्कीसवीं सदी और हिन्दी साहित्य में नारी लेखन/सुस्मित सौरभ

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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साहित्य सामाजिक परिवर्तन का जीवंत दस्तावेज होता है। इक्कीसवीं सदी में समाज, परिवार और व्यक्ति सभी स्तरों पर जो तीव्रता से बदलाव आया है उसका असर हिन्दी साहित्य पर भी व्यापक रूप से परिलक्षित होता है। नारी शिक्षा के कारण स्त्रियों की मानसिक और बौद्धिक स्थिति में काफी बदलाव हुए हैं। उन्होंने पुरानी मान्यताओं को तोड़कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया है। इक्कीसवीं सदी के साहित्य का स्वरूप वह नहीं रह गया जो स्वतंत्रता पूर्व हुआ करता था। नारी के सम्बन्ध भी परिवार के साथ पूर्व जैसे नहीं रहे। वर्तमान परिपेक्ष्य में नारी अपनी सही भूमिका को तलाशती हुई स्वयं को पहचानने और कुंठा से मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। उसकी संकल्प की दृढ़ता और आत्म गौरव से परिपूर्ण निष्ठा समाज में उसे लेखनी के माध्यम से प्रतिष्ठित करने में सहायक सिद्ध हो रही है। इक्कीसवीं सदी का नारी लेखन हमें आधुनिकता, वैज्ञानिकता, तार्किकता, समसामयिकता तथा युगीन भाव बोध का परिचय कराता है। आज का नारी लेखन उच्च कोटि का होने के साथ-साथ वैविध्यपूर्ण भी है। इस सदी की महिलाओं ने अपने लेखन में जीवन और समाज के सभी रंगों को अपनी तूलिका रूपी लेखनी से बड़ी भावात्मकता और कलात्मकता से उकेरा है। इनमें कहीं वृद्ध समस्या है तो कहीं नारी मुक्ति की छटपटाहट, कहीं किसी बड़े परिवार की समस्या है, तो कहीं आधुनिक जीवन का खोखलापन। इक्कीसवीं सदी के नारी लेखन को मैंने क्रमशः उपन्यास, कहानी, काव्य और आत्मकथा जैसी विधाओं के अंतर्गत विभक्त कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

इक्कीसवीं सदी और हिन्दी साहित्य में नारी लेखन की प्रमुख विधायें

इक्कीसवीं सदी के नारी लेखन को अध्ययन की दृष्टि से साहित्य के निम्न मुख्य विधाओं में बाँटा जा सकता है:-

(क) उपन्यास - हिन्दी उपन्यास साहित्य में नारी लेखन पिछले दो-तीन दशकों से एक महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है। नारी लेखन के अंतर्गत उपन्यास के क्षेत्र में एक बेहद उर्वर जमीन हिन्दी के रचनात्मक साहित्य में देखी जा सकती है। कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानीएक अक्खड़ और और दबंग औरत की एकांतिक तस्वीर प्रस्तुत करती है। वहीं उषा प्रियंवदा की रुकोगी नहीं राधिका’, ‘पचपन खम्भे लाल दीवारेंऔर शेष-यात्रामें परंपरा और रूढ़ियों के द्वंद्व में फँसी एक आधुनिक स्त्री की अस्मिता को ढूँढने का प्रयास है। मन्नू भंडारी का उपन्यास आपका बंटीकी नायिका शकुन की कहानी हिन्दुस्तान के हजारों औरतों के त्रासदी की कहानी है। ममता कालिया के उपन्यास बेघरऔर एक पत्नी के नोट्समें एक मध्यमवर्गीय पढ़ी-लिखी महिला और पढ़े-लिखे वर्ग को बेनकाब करते हैं। नारी लेखन के क्षेत्र में मृदुला गर्ग के उपन्यास अनित्य’, ‘चितकोबरा’, ‘मैं और मैं’, ‘कठगुलाबआदि ऐसे उपन्यास हैं जिसमें स्त्री विमर्श के विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं। चित्रा मुद्गल का एक जमीन अपनीऔर आवाँइस दृष्टि से महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। मेहरुनिस्सा परवेज ने अपने उपन्यास कोरजामें आदिवासी परिपेक्ष्य में एक औरत के त्रासदी का वर्णन किया है। नासिरा शर्मा का उपन्यास एक और शाल्मलीएक अलग किस्म की स्वतंत्र चेतना से युक्त स्त्री की कहानी है जो अपने पति से संवाद चाहती है, बराबरी का दर्जा चाहती है। वहीं उनका दूसरा उपन्यास ठीकरे की मंगनीमें बचपन में बिना पैसे के लेन-देन की हुई मंगनी और उसके कारण संघर्ष करती स्त्री की कहानी है। राजी सेठ का तत्सम’, चंद्रकांता का अपने अपने कोणार्कतथा गीतांजलि श्री का माईआदि ऐसे उपन्यास हैं जिनमें औरत के सामाजिक सरोकार उभर कर सामने आते हैं। नारी लेखन के दृष्टिकोण से प्रभा खेतान का पीली आँधीतथा छिन्नमस्ता, मैत्रेयी पुष्पा का इदन्नममतथा चाक’, मधु कांकरिया का सलाम आखिरी’, अल्का सरावगी का शेष कादम्बरीअनामिका का दस द्वारे पिंजराआदि प्रमुख स्थान रखते हैं। कमल कुमार का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास मैं घूमर नाचूँराजस्थान के एक बाल-विधवा कृष्णा के चरित्र को दिखाते हुए स्त्री की आजादी को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।

(ख) कहानी - यदि इक्कसवीं सदी के नारी लेखन के परिपेक्ष्य में कहानी की बात की जाये तो यकीनन कहा जा  सकता  है कि महिला रचनाकारों ने हिन्दी कहानी के परिदृश्य को ज्यादा व्यापक, संवेदनशील और मानवीय बनाया है। अपने आस-पास के परिवेश का सच शब्दों में रूपायित होकर कल्पना के सही अनुपात में संयोग से कथा का आकार ग्रहण कर लेता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कहानी लेखन नारी वर्चस्व के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करता है और इनमें कई लेखिकाओं का लेखन जारी रहते हुए इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर जाता है। इनमें ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, मृदुला गर्ग, मेहरुनिस्सा परवेज आदि के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। ममता कालिया ने नारी विमर्श के दृष्टिकोण से प्रामाणिक लेखन किया है। उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं-छुटकारा’, ‘एक अदद औरत’, ‘सीट नंबर छः’, ‘उसका यौवन। चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहलदो भागों में बँटी नारी की व्यवस्था को अंकित करती है। सरला अग्रवाल के नारी विमर्श के प्रमुख कहानी संग्रह हैं - पुनरावृति नहीं होगी’, ‘मेंटल पीस। नीलम शंकर की कहानी जो रुकता नहींविवाहेत्तर संबंधों पर आधारित है, वहीं चंद्रकांता की कहानी बच्चे कब मिलेंगेदादी के रूप में बुढ़ापे के दर्द से टीसती नारी की व्यथा है। कहानीकार अंजू दुआ जैमिनी का संग्रह कंक्रीट की फसलअपने भीतर की चुनौतियों, व्यक्ति के भीतर की लड़ाई को सहजता से अभिव्यक्ति देता है। तेजी ग्रोवर का कहानी संग्रह सपने में प्रेम की सात कहानियाँजीवन राग के रंगों का कई आयामों में परिचय देता है। गीतांजलि श्री का कहानी संग्रह यहाँ हाथी रहते थेसमय के तेज परिवर्तन को संकेत करता है। भावना शेखर का कहानी संग्रह खुली छतरीधारणाएं ध्वस्त करता है, नये निकष गढ़ता है और पाठक को संतप्त कर   चमत्कृत कर देता है। इसमें नारी है तो अभिशप्त, वेश्या है तो चरित्रहीन, दलित है तो पीड़ित जैसे भ्रम और पूर्वाग्रह बार-बार टूटते दिखाई पड़ते हैं। अल्पना मिश्र का कहानी संग्रह कब्र भी कैद भी और जंजीरें भीजुल्म, दहेज हत्या, स्त्री शोषण से जुड़ी घटनाओं को केन्द्र में रखे हुए है। लवलीन की कहानी प्रतीक्षाएक आजाद ख्याल की लड़की की व्यथा कथा है जो अपनी कल्पना के अनुरूप पुरुष की प्रतीक्षा में अपने जीवन का बड़ा हिस्सा गुजार देती है। सुषमा मुनीन्द्र की कहानी पिया बसंतीस्त्री मुक्ति के सोपान की चार पीढ़ियों की व्याख्या करता है। श्रीमती दीपक शर्मा की कहानियां मेढकीऔर ऊँची बोलीपुरुष सत्ता के दायरे में अभिशप्त औरत की असामयिक मृत्यु पर खत्म होते हैं। इसी तरह उपासना की कहानियां एगहीं सजनवा बिन हे रामऔर अनाभ्यास का नियमस्त्री संघर्ष को सजगता से चित्रित करते हैं। इक्कीसवीं सदी की महिला कथाकारों के साहित्य में परिवार के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन मिलता है। नारी लेखिकाओं के लेखन का स्वर बदला है और समय के साथ-साथ पारिवारिकता के साथ नारी की भूमिका में क्रमशः अंतर आता गया है।

(ग) काव्य - इक्कीसवीं सदी की लेखिकाओं का लेखन क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण और बहुआयामी है। उनके लेखन में नारी विमर्श स्वर प्रमुखता से देखने को मिलता है जिसमें इस सदी की नारी की चुनौतियों, अवरोधों, चिंताओं, विवशताओं का चित्रण प्रमुख है। आज की लेखिकायें नारी को आँचल में दूध, आँखों में पानीलेकर नहीं अपनी अस्मिता की रक्षा करनेवाली और अपनी पहचान बनाने वाली नारी के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। काव्य लेखन के क्षेत्र में नारी लेखन की चर्चा की जाये तो इस सदी की कवयित्रियों ने नारी के अन्तरंग, विषम, जटिल समस्याओं, ज्वलंत सवालों को समझदारी से समझने, सुलझाने का अथक प्रयास किया है। प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया का कविता संग्रह खांटी घरेलू औरतकाफी चर्चित रहा है-

मेरी जगह तुम होते
इस घर में
एक सर्वहारा का जीवन जीते हुए
मैंने परिश्रम को ही माना पारिश्रमिक
तुम मेरी जगह होते
क्या करते सातों दिन श्रम
यह तुम्हारा सौभाग्य है
कभी कोई ऊँची बात नहीं सोचती
खांटी घरेलू औरत

डॉ रेणु शाह के देहरी के उस पारमें भी यही उद्घोष मिलता है-

                “एक अँधेरे से लड़ना है हमको बारम्बार
                कैसे कह दें खुश होने की
घड़ियाँ सम्मुख खड़ी हुई
दुविधाओं की बौछारों पर
सबकी आँखें गड़ी हुई
अबकी तो जाना ही होगा
देहरी के उस पार”  
    
जया गोस्वामी की पुस्तक हूँ मैंरचना वंचित, प्रताड़ित नारी का दर्द अभिव्यक्त करती है-

                “ मैं अनजानी लिपि की पुस्तक
बाँच न पाया कोई अब तक

वहीं कवयित्री ममता किरण अपने पीढ़ी के एक नये परिदृश्य को अपनी कविता में सशक्तता की आवाज देती हुई कहती हैं -
                “ लगते हैं उसपर
कितने ही संगीन आरोप
पर वह उफ भी नहीं करती
इस प्रकार के अनेकों उदाहरण इक्कीसवीं सदी में कविता के क्षेत्र में नारी लेखन के मिलते हैं।

(घ) आत्मकथा - साहित्य के उपन्यास, कहानी और काव्य की विधाओं में अपनी उपस्थिति विशिष्टता से दर्ज करने के पश्चात नारी लेखन का रुझान आत्मकथा की ओर देखने को मिल रहा है। वर्तमान में लेखिकायें आत्मकथा लेखन में अपनी साहसिक अभिव्यक्ति के लिये चर्चा में हैं। यूँ तो आत्मकथा लेखन की शुरुआत पहले ही हो चुकी थी परन्तु पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित नहीं हो पायी थी। जैसे सरलाः एक विधवा की आत्म जीवनीका प्रकाशन वर्ष २००९ में हुआ परन्तु धारावाहिक के रूप में यह वर्ष १९१५ में स्त्री दर्पणमें प्रकाशित हो चुकी थी। आज लेखिकाओं ने अपनी समग्र जीवनी का चित्रण बड़ी ही निर्भीक और सशक्त रूप से अपनी आत्मकथा में करना प्रारंभ किया है। प्रसिद्ध पत्रकार शीला झुनझुनवाला ने कुछ कही कुछ अनकहीमें अपने सात दशकों की जीवन गाथा को बखूबी बयां किया है। कस्तूरी कुंडल बसेमैत्रेयी पुष्पा द्वारा रचित आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसमें उनकी जीवन कथा के यथार्थ को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है। मन्नू भंडारी की आत्मकथा एक कहानीकाफी चर्चित कृतियों में एक है। वहीं गुड़िया भीतर गुड़ियामैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग है। दिनेश नंदिनी डालमिया ने अपनी आत्मकथा चार भागों में लिखी है जिसमें मारवाड़ी परिवार के अंतःपुर का चित्रण मिलता है। कुसुम अंसल ने अपनी आत्मकथा जो कहा नहीं गयाशीर्षक से लिखी है। प्रभा खेतान की आत्मकथा अन्या से अनन्याआज के नारी लेखन का सशक्त उदाहरण है जिसमें एक विवाहित पुरुष से अपने सम्बन्ध की साहसपूर्ण स्वीकारोक्ति है।

आत्मकथा सच्चे मायने में वही होती है जिसमें पीड़ा के साथ-साथ आपने जो भोगा है, आपका शोषण हुआ है, उसे सच्चाई से चित्रित किया जाये, जिसमें आपकी कमजोरियां भी दर्ज हों। इसीलिए अगर स्त्रियां आत्मकथा लिख रही हैं तो उनपर तरह-तरह के लांछन भी लगाये जा रहे हैं। आत्मकथा के क्षेत्र में यही लगता है सामान अवसर होने के बाद भी अभी औरत निर्द्वन्द्व होकर कुछ मनचाहा रच या लिख नहीं पा रही है। फिर भी महिला लेखिकाओं ने अपनी हिम्मत और समझदारी का परिचय दिया है और इक्कीसवीं सदी में वे नारी लेखन के क्षेत्र में स्वेच्छा से आगे आ रही हैं। हिन्दी साहित्य के समकालीन परिदृश्य की इस चर्चा से स्पष्ट है कि इस सदी की लेखिकायें अपने लेखन को वैविध्यपूर्ण विषयवस्तु देकर, सुसंपन्न कर रही हैं। हमने यहाँ काव्य, कहानी, उपन्यास और आत्मकथा जैसी विधाओं में नारी लेखन की एक झांकी प्रस्तुत की है। किन्तु नारियों के समग्र योगदान से स्पष्ट लक्षित है कि वे नाटक, आलोचना, लघुकथा, संस्मरण आदि विधाओं में यथेष्ट उच्चस्तरीय, गंभीर लेखन से हिन्दी साहित्य की गौरवमयी परंपरा में श्रीवृद्धि कर रही हैं। 

                                                                    
संदर्भः-
  1.  नारी लेखन विकिपीडिया
  2.  लमही जनवरी-मार्च अंक २०१५
  3.  हिन्दी वेब दुनिया ब्लॉग
  4.  आपका बंटी- मन्नू भंडारी
  5.  रुकोगी नहीं राधिका- उषा प्रियंवदा
  6.  खांटी घरेलू औरत -  ममता कालिया 
  7.  स्त्री विमर्श ब्लॉग
  8.  रचनाकार ब्लॉग
  9.  हिन्दी शोध डॉट कॉम



  • सुस्मित सौरभ,शोध छात्रशोध छात्र, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया। संपर्क 8983372845,susmitsaurabh@gmail.com

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