चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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अपनी-जगह
के अनुभवों के आधार पर मुझे लगता है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में निवास करने
वाले सब जगहों के लोगों की किसी-ना किसी त्यौहार में भागीदारी रहती होगी। मेरे जरा
से गाँव में ही देखिये नकितने सारे त्यौहार मनाए जाते हैं। साल भर मनाए जाने वाले
त्यौहारों की यदि लिस्ट बनाई जाएँ तो मुमकिन ही कहाँ कि गाँव के सभी मोहल्लों में
रहने वाले सभी लोगों के द्वारा मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों को याद कर लिख सकूँ।
यही वजह रही होगी कि हमारे धर्म निरपेक्ष राज्य के द्वारा मेरे गाँव में मनाए जाने
वाले कुछेक बड़े-बड़े त्यौहारों परही विद्यालय, महाविद्यालय, बैंक, डाकघर, कार्यालय आदि संस्थानों का अवकाश रखा
जाता है। यह ठीक ही है कि बड़े-बड़े त्यौहारों पर ही अवकाश रखे जाते हैं चूंकि सभी
त्यौहारों पर यदि अवकाश घोषित कर दिये जाये तो विद्यालयों-महाविद्यालयों का कोर्स
कैसे पूरा कराया जा सकेगा, रुपये-पैसों के
लेन-देन से संबन्धित बैंकों के सारे काम धाम के लिए वक़्त मिल पाएगा भला,गाँव के डाकिये के पास चिट्ठियों, पत्र-पत्रिकाओं का का ढेर लग जाएगा।
कभी सोचा
है आपने कि कैसे तय किया जाता होगा कि कौनसे त्यौहार बड़े हैं और किन त्यौहारों पर
अवकाश रखा जाना चाहिए? मैंने यह बात कुछ बच्चों से पूछी तो
उन्होने कहा कि बड़ा त्यौहार वह है जिस पर हमारे
विद्यालय और आपके कार्यालय का अवकाश रखा जाये। जवाब बड़ा सरल था, लेकिन मुझे लगता है कि किसी त्यौहार पर विद्यालय, महाविद्यालय, बैंक, डाकघर, कार्यालय आदि
संस्थानों का अवकाश घोषित कर दिये जाने से कोई त्यौहार बहुत बड़ा त्यौहार कहाँ बन
पाएगा भला। कुछ अभिभावकों से यही सवाल पूछने पर उन्होने बताया कि उनके बच्चों के
बिना कोई त्यौहार एक बड़ा त्यौहार नहीं बन सकता है, त्यौहारों के दौरान उनके बच्चे साथ हो, उनका उत्साह और प्रेम ही इन त्यौहारों को बड़ा बनाता है, साथ ही त्यौहारों की अपनी गाथाएँ हैं जो इन्हें बड़ा बनाती
हैं। इन बड़े-बड़े त्यौहारों की जो भी ऐतिहासिक गाथाएँ हो लेकिन इनको बड़ा बनाने में
बच्चों की भूमिकाओं को नकारा तो नहीं जा सकता।
मेरे गाँव
में त्यौहारों के अवसरों पर निकलने वाले जुलूस, झांकी, रैलियाँ, अखाड़ें आदि भी इन त्यौहारों को बड़ा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते
हैं जिसके माध्यम से इन त्यौहारों की गाथाओं का गायन व चित्रण कर इनका प्रसारण
किया जाता हैं। इस दौरान हमारे गाँव का माहौल बिल्कुल ही बदल जाता है क्योकि इस
अवसर पर लोगों के खान-पान, रहन-सहनमें
सामान्य दिनों की अपेक्षा कुछ खास घटित होता है। जैसे-लोगों के द्वारा नए-नए कपड़े
पहने जाते हैं,त्यौहारों पर घरों को सजाने का
तकल्लुफ खासतौर से उठाया जाता हैं,घरो की
लिपाई-पुताई इस प्रकार से की जाती है कि वे चम-चमाने लगते हैं,घर के दरवाजें-खिडकियों को फूलों की झालरों से सजाया जाता है,इन त्यौहारों के अवसरों पर हमारे गाँव के बाजारों में सामान्य
दिनों की तुलना में कई गुना अधिक लोग जमा होते हैं…हमारेगाँव में इन त्यौहारों के अवसर पर दावतों का सिलसिला चलता है और इसके
लिए विशेष प्रकार के पकवान जैसे मालपूआ, पूरी-भजिया,
मांस-मछली, और तरह-तरह की
मिठाइयाँ आदि पकाए जाते हैं,इन बड़े-बड़े
त्यौहारों पर इसी वजह सेबाजार में तेल और शक्कर की बिक्री सौ गुना हो जाती है,
बसों में आनेजाने वालों की संख्या इस कदर बढ जाती है कि
ठस्सम-ठस भरी बसों में लोगों को खड़े-खड़े ही आना-जाना पड़ता है,इन त्यौहारों परघरों की साफ-सफाई का भी विशेष ख्याल रखा जाता
है,गाँव भर के मंदिर/मस्जिद/गिरिजाघर में कुछ
विशेष प्रार्थनाएँ/ नमाज़े होती हैं,बच्चों से लेकर
बड़ों को ना जाने कितने काम एक साथ आ जाते हैं इनत्यौहारों पर...। कुछ बड़े त्यौहारों
पर पुलिसवाले सतर्क हो जाते हैं जिन पर लोगों को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार भांग
और शराब का सेवन करने की अघोषित छूट होती हैं। बड़े-बड़े त्यौहारों के अवसर पर वे
भाई-बहन रिश्तेदार भी अपनों के साथ इनत्यौहारों को मनाने के लिए लौट आते हैंजो दूर
रहते हैं ,काम या पढ़ाई करते है। ऐसे ही कुछ बड़े
त्यौहारों के अवसर पर ही मेरा भी अपने
गाँव “अपनी-जगह” जाना होता है । आखिर इस दौड़-भाग भरी जिंदगी में ये त्यौहार ही तो हमें
मिलने जुलने का अवसर देते हैं।
मैं
मध्यप्रदेश के देवास जिले के एक गाँव सतवास का निवासी हूँ। वर्ष 1999 में कक्षा 12 उत्तीर्ण करने
के बाद से ही कभी आगे की पढ़ाई के लिए तो कभी काम के लिए गाँव से दूर ही रह रहा
हूँ। वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के धमतरी जिले में काम काम करता हूँ। महीने-चार
महीने में अपनो से मिलने जुलने के लिए काम से फुरसत निकाल कर जब भी अपने गाँव जाना
होता है तो वंहा ठहरने के लिए दो-चार दिनों का वक़्त ही रहता है।“अपनी-जगह” जाने की हमेशा
कोशिश रहती है और इस कोशिश में सफल हुये तो वह पल यादगार लम्हे बन जाते हैं,
बस यही वजह है कि अपनी जगह जाकर लोगों से मिलने-जुलने को
दिल चाहताहै।
मेरे गाँव
सतवास की कुल आबादी 14108 है, जिसमे से 7243 पुरुष व 6865 महिलाएं है।
इनमें से 0-6 वर्ष के कुल 2274 (16.12%) बच्चे हैं, यहाँ पुरुषों के
साक्षरता का प्रतिशत 78.77% जबकि महिलाओं के साक्षरता का प्रतिशत मात्र 56.19% है। इस आबादी का
धर्म के आधार पर वितरण देखा जाये तो ज्ञात होता है कि 56.71% हिन्दू, 40.86% मुस्लिम, 0.10% क्रिश्चियन, 1.83% सिख,
0.03 % बुद्धिस्ट, 0.47% जैन धर्म से है, अन्य में 0.00% तथा Notstated का प्रतिशत भी 0.01% है। इन आंकड़ों के साथ वर्तमान में ‘सतवास’ एक नगर पंचायत है। इसका विभाजन 15 वार्डों में किया गया है। जिसके अधिकांश वार्डों में जाति व
वर्ग विशेष के बहुसंख्यक मतदाता निवास करते हैंऔर यही आधार कुछ वार्डों की पहचान
भी बन चुका है। जैसे-वार्ड नंबर-एक बाज़ार पट्टी... वार्ड नंबर दो- मेवाती, वार्ड नंबर-10-आदिवासी...
वार्ड-नंबर- पुनर्वास कॉलोनी आदि-आदि। इन सभी वार्डो के भीतर कुछ छोटे-छोटे
मोहल्ले/बाखल किसी जाति या व्यक्ति के नाम से संबोधित किए जाते है। जैसे-गुर्जर
मोहल्ला, मेवाती बाखल,घोड़ा बाखल,बाजार पट्टी, माँ वैष्णवी कॉलोनी,बेंडाबाबा चौक
आदि। यदपि इन मौजूद मोहल्लों में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक आधार पर बसाहट का
एक खास गुण देखा जा सकताहै। लेकिन यह कोई एक सर्वव्यापी नियम नहीं है क्योंकिमेरे
गाँव में कई एकड़ जमीन का मालिक, खेतीहीन-मजदूर,
होटल पर काम करने वाला,खजूर के कटीले पत्तों की झाड़ू बनाकर बेचने वाला आदि विविध प्रकार के
व्यवसायों से अपनी आजीविका चलाने वाले परिवार एक ही मोहल्ले में निवासरत मिल
जाएँगे।
आश्चर्य
की बात यह है भी है कि मेरे गाँव के एक ही मोहल्ले में कुछ सवर्ण सम्पन्न परिवारों
में सास-ससुर, बेटा-बहू, पोते-पोती सभी के सभी शासकीय-शिक्षक जैसे व्यवसाय में संलग्न मिल जाते हैं
और कई शिक्षित दलित-अल्पसंख्यक और पिछड़े बेरोजगार भी उसी मोहल्ले में निवास करते
हैं। यही नहीं किसी बस के मालिक, ड्राइवर, क्लिनर, कंडेक्टर भी एक
ही मोहल्ले में रहने वाले मिल जाएँगे। यदि कभी आप हमसे मिलने हमारे गाँव आएंगे तो
यहाँ रहने वाले लोगों की पोशाकें, रहन-सहन, घर-द्वार, और उनके पास
मौजूद संसाधन तथा उनके बीच के आपसी संवाद व संबंधों से इन अंतरों को स्पष्ट रूप से
पहचानसकेंगे। इन तमाम विविधतावों के बावजूद
ईद, दिवाली, क्रिसमस आदि त्यौहारों को लोग अपने-अपने ढंग से मनाते हैं और यह सब
त्यौहार किसी ना किसी के लिए बड़े त्यौहार होतेहैं।
मेरे गाँव
में महाशिवरात्रि, डोल-ग्यारस, मोहर्रम, मिलाद-उन-नबी, शिवाजी जयंती, भुजरिया और जन्माष्टमी के अवसर पर
जुलूस, झांकी, अखाड़े, रैली आदि निकाले जाते हैं। इनमें शामिल रहने वाले लोगों की भीड़ में
अधिकांश पुरुष होते हैं, कुछेक महिलाएं
पीछे-पीछे चलती हैं। यह अखाड़े किसी भी जाति-धर्म-संप्रदाय के बड़े त्यौहारों के
अवसर पर निकाले जाने वाले जुलूस, झांकी, रैली आदि के आगे-आगे निकाले जा रहे हों लेकिन कभी किसी अखाड़े
में स्त्री-जाति को करतब दिखाते नहीं देखा, अखाड़ों में पुरुष-जाति ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते और करतब दिखाते नजर
आते हैं। आश्चर्य की बात है कि मेरी अपनी विद्यालयी शिक्षा के दौरान मेरे शिक्षकों
ने इन बड़े-बड़े त्यौहारों पर निबंध लिखवाते हुये कभी इस प्रकार के भेदभावों पर सवाल
खड़े नहीं किए। उस वक्तमुझे अच्छे लगने वाले मेरे एक शिक्षक ने इतना तो कहा था कि “गाय की पूंछ और हैड-मास्टर की मूंछ” को रटकर सिर्फ परीक्षाएँ ही पास की जा सकेगी। उनका तात्पर्य “ एक पालतू पशु (गाय) के विषय पर बिना समझे रटकर लिखे जाने वाले
निबंध और प्रधान पाठक कोलिखे जाने वाले आवेदन” के सहारे पास होने की सीमाओं से था।इन परीक्षाओं में सामान्य अंग्रेजी
विषय में “कोई महान त्यौहार” विषय पर भी निबंध पूछा जाता था, जिसकी तैयारी करवाते हुये हमारे शिक्षक मात्र “दीपावली” पर ही सब को अंग्रेजी में निबंध
लिखवाते थे, जिसे गाँव के सभी जाति-धर्म के बच्चे
पास होने के लिए रटते थे।विद्यार्थी जीवन में उस वक़्त लगता था कि मेरे गाँव में
पालतू पशु का मतलब सिर्फ गाय होता हैं, प्रधान
पाठक का मतलब मूंछों वाला आदमी और महान त्यौहार सिर्फ दीपावली। मगर आज मैं आपको यह
बताना चाहता हूँ कि मेरे गाँव के लोगों के द्वारा घरों में पालतू पशु बकरी,
भेड़, गधा, कुत्ता,भैंस, सुअर, मुर्गी आदि भी
पाले जाते हैं,मेरे गाँव में दीपावली के साथ-साथ ईद,
मोहर्रम,क्रिसमस, भुजरियाँ, डोल-ग्यारस आदि
कई सारे त्यौहार मनाएँ जाते हैं, मेरे गाँव में कई
सारी महिला शिक्षिकाएं और प्रधान-पाठिकाएँ भी हैं।
मेरे गाँव
में कई बड़े-बड़े खेल के मैदान हैं। जैसे- सरकारी प्राथमिक शाला वाला खेल मैदान,
बड़े स्कूल वाला खेल मैदान,जत्रा चौक वाला बड़ा सा “आत्मराम बाबा”
खेल मैदान, हगरी राड़ी वाला
खेल मैदान,तालाब किनारे वाला खाटीया और बैलगाड़ी दौड़
वाला खेल मैदान और छोटे-मोटे कई सारे मैदान तालाब के सूखने या फसलों के कटने पर
खिलाड़ी खुद बना लेते है। कई त्यौहारों पर, गाँव के
कुछ गणमान्य नागरिकों की स्मृतियों में क्रिकेट, मटकी फोड़, कबड्डी, बालीबाल आदि कई खेल प्रतियोगिताएं होती हैं लेकिन इन खेल प्रतियोगिताओं
में मैदानों पर खिलाड़ी के रूप में सिर्फ लड़के ही मौजूद रहते हैं। इन बड़े-बड़े
त्यौहारों के अवसरों पर होने वाली इन प्रतियोगिताओं में पता नहीं कब मेरे गाँव की
लड़कियां भी भाग ले सकेंगी? बचपन से देखता आ
रहा हूँ कि मेरे गाँव में या आसपास के गाँवों व जिलों में किसानों के एक बड़े उत्सव
के रूप में “बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिता” होती हैं। इन बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिताओं में बैलगाड़ी दुड़ाने
वाले कई गाँवों के किसान आते हैं, और इन्हे देखने
के लिए सैकड़ों-हजारों की संख्या में लोग जमा होते हैं। यदि आप कभी इस अवसर पर
आएंगे तो आश्चर्य करेंगे कि खेतों में जी तोड़ मेहनत करने वाली महिला किसानों की
उपस्थिती इन बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिताओं में नगण्य रहती हैं।
मेरे बचपन
के समय में प्राथमिक स्तर की औपचारिक शिक्षा के बाद आगे की औपचारिक शिक्षा का
मुख्य स्रोत शासकीय विद्यालय ही हुआकरते थे, सरस्वती शिशु मंदिर,लिटिल फ्लावर,
न्यू डायमंड आदि नामों से कुछेक निजी प्राथमिक विद्यालय
खुलने शुरू ही हुये थे,अतः गाँव के विभिन्न आय-वर्ग के
ज़्यादातर बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही
पढ़ाई करने आते थे। आज यंहा प्राथमिक से लेकर उच्च-माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के
लिए सरकारी विद्यालयों के अतिरिक्त सरस्वती शिशु मंदिर, चेम्पियन स्कूल, सत्य साई विद्या
मंदिर, डाइमंड स्कूल, पराग मेमोरियल कानवेंट स्कूल, ज्ञान दीप
विधा मंदिर, माँ वैष्णो देवी कानवेंट स्कूल,
संस्कार स्कूल, श्रीकृष्णा,
श्री माँ शारदा कानवेंट स्कूल, सुभाष चन्द्र बोस हा. से. स्कूल,उर्दू
स्कूल,ताज मेमोरियल कानवेंट स्कूल आदि नामों से
लगभग 20 से ज्यादा प्राथमिक व माध्यमिक गैर-सरकारी
विद्यालय भी संचालित हैं। निश्चय ही यह सब विद्यालय कम से लेकर अधिक फीस दे पाने
वाले सभी अभिभावकों को ध्यान में रखकर खोले गए हैं। इन विद्यालयों में कुछ बच्चों
का नामांकन इस बात पर भी निर्भर करता है कि स्कूल का नाम क्या हैं? स्कूल किस धर्म
विशेष की संस्कृति को पोषित करेगा? विद्यालय संचालक
और शिक्षक- शिक्षिकाओं के साथ आस-पास के अभिभावकों के व्यक्तिगत संबंध कैसे हैं?
बच्चे के सीखने के अवसर और स्कूल की शिक्षा की गुवातता
के बारें में अभिभावकों की राय कैसी है? स्कूल के
द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का माध्यम कौनसी भाषा हैं? आदि-आदि।इन विद्यालयों में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों और पाठ्यचर्या
के क्रियान्वयन के कुछ विशेष गुणों को केंद्र में रखकर विद्यालयों को चार
श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-पहली श्रेणी उन विद्यालयों की जिनमें किसी
एक धर्म विशेष के छात्र-छात्रा अध्ययनरत हैं,दूसरी श्रेणी ऐसे विद्यालयों की जिनमें लगभग सभी धर्म संप्रदायों के
छात्र-छात्रा अध्ययनरत हैं, तीसरी श्रेणी के
ऐसे विद्यालय जिनमें मुट्ठीभर आर्थिक रूप से सम्पन्न छात्र-छात्रा अध्यनरत हैं और
चौथी श्रेणी में ऐसे विद्यालयों को रखा जा सकता है जिनमें ज़्यादातर गरीब और वंचित
तबकों के छात्र-छात्रा अध्ययनरत हैं।
पहली
श्रेणी के इन विद्यालयों की पहचान औपचारिक शिक्षा के प्रमाणपत्र प्रदान कराने वाले
संस्थान के साथ-साथ किसी एक धर्म विशेष पर आधारित नैतिकता और धार्मिक संस्कृति व
अनुशासन सिखाने वाले केन्द्रों के रूप में अधिक हैं। इन विद्यालयों को अभिभावकों
से मासिक शुल्क प्राप्त होने के साथ-साथ इन्हे संबन्धित जाति व धर्म पर आधारित
राजनीतिक विचारधाराओं वाले दलों के नेताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप
से आर्थिक सहायता और अनुदान भी प्राप्त होते हैं।इनकी पाठ्यचर्या के केंद्र में यह
निहित होता हैं कि वंहा अध्ययन करने वाले विद्यार्थी ऐसे विचारक और कर्ता बने जो
कि एक धर्म विशेष पर आधारित मानसिकता के पोषण में अंशदान कर सके। इन विद्यालयों
में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं की दिनचर्या में स्कूल में सिखाये जाने वाले वे तमाम
कर्मकांड जैसे-स्कूल के साथ-साथ घर पर भी खाना-खाने से पहले मंत्र-उच्चारण या कलमा
पढ़ना, अपनों से बड़ों को अभिवादन में सचेत रूप से
औपचारिक भाषा का प्रयोग करने पर अतिरिक्त ज़ोर देना,बड़ों के द्वारा दी गई आज्ञा और अनुदेशों की अनुपालना के लिए बिना
तर्क-वितर्क के सदैव तत्पर रहना, धर्म विशेष की
प्रार्थनाओं/ दुवाओं को मात्र रटकर दोहराने की काबिलियत प्राप्त करना आदि गुण
प्रमुखता से देखे जा सकते हैं। इन गुणों में सापेक्ष रूप से दक्ष व्यक्ति जब यह यह
पाता होगा कि आमुक व्यक्ति यह सबकरने में यांत्रिक दंग से इन कौशलों में पारंगत
नहीं हैं तो वह व्यक्ति उन्हेंपरस्पर विपरीत संस्कृति के प्रतीत होते हैं,उनकी धार्मिक पहचान खुद से परे होने का ख्याल इनके जेहन में
तेजी से दौड़ जाता है। वे बहुत जल्द ही यह सीख जाते हैं कि ये लोग.... है और हम लोग
...... हैं। ऐसे ही एक स्कूल में पढ़ने वाले दो लड़के-लड़कियां अपना नाम उस स्कूल से
इसलिए कटवाना चाहते थे क्योकि उन्हें स्कूल में रक्षाबंधन के अवसर पर राखी
बांधना-बंधवाना स्वीकार नहीं था। ऐसे ही किसी एक स्कूल में पढ़ने वाला एक अन्य बालक
सिर्फ कुछ प्रकार के नाम सुनकर चिड़ने लगता था, उसे अपने धर्म संप्रदाय के अलावा और लोगों के साथ बात करने पर भी अपराध
बोध महसूस होता था।
दूसरी
श्रेणी के इन निजी विद्यालयों में विविध धार्मिक संप्रदायों के बच्चे अध्यनरत है,
यद्पि इन विद्यालयों काभी मुख्य ध्येय मुनाफा कमाना ही
है। कौन कितना मुनाफा कमा पाएगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका भवन कितना
विशाल है, बोर्ड परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने का
प्रतिशत कितना है, कितनी घनी आबादी वाले क्षेत्रों में
वे कितने कम पैसों में तथाकथित अच्छी शिक्षा या अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने
का दावा कर पाते हैं,कितने अधिक विद्यार्थी उनकी एक कक्षा
में प्रवेश पाते हैं आदि।इन विद्यालयों में अध्यनरत विद्यार्थियों को अपने-अपने
धर्म और जाति आधारित पहचान के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद परस्पर साथ में रहने
और पढ़ने-लिखने के अवसर मिलते हैं। जो कक्षा में औपचारिक अवसरों के दौरान आपसी
संवाद और कक्षा के बाहर मध्यावधि अवकाश के दौरान सहज रूप से चलने वाले अनौपचारिक
संवाद की संभावनाए देते हैं। लेकिन ये अवसर इतने क्षिण होते हैं किवे अपनी जाति व
धर्मगत पहचान के खोल के भीतर ही रहते हैं और दूसरे की और झाँकने के लिए कोई खिड़की भी खोल पाने की हिम्मत
नहीं जुटा पाते हैं, कभी कोई प्रयास हो भी तो ना जाने
कितने दबाव उस खिड़की को झटके से बंद कर देते हैं। जैसे कि एक विद्यालय में
अध्ययनरत कक्षा 11 वी की दो छात्राओं ‘संगीता और रेहाना’ से
अलग-अलग संवाद के दौरान पाया कि वे साथ-साथ ही विद्यालय आती-जाती हैं, विद्यालय द्वारा दिये जाने वाले गृह कार्य में एक दूसरे की
मदद करती हैं, वे मानती हैं कि वे दोनों आपस में
सहेली हैं। मगर अफसोस की बात यह हैं कि उनके घर वाले उन्हें एक-दूसरे के त्यौहारों
में शामिल होने से मनाही करते हैं,क्योंकि एक के घर
वाले कहते हैं कि तुम्हारी सहेली के घर वाले तो एक-दूसरे का झूठा खाते होंगे,
मांस खाते होंगे, उनके घर में साफ-सफाई नहीं रहती होगी .... इसलिए तुम्हें वहाँ नहीं जाना
चाहिए, और यदि चले भी जाओ तो उनके घर कुछ खाना-पीना
नहीं चाहिए। यह सब सुनकर ऐसे में वह अपनी दूसरी सहेली के घर कैसे जाये? दूसरी सहेली मानती है कि मैं तो उसके घर एक-दो बार चली भी गई
लेकिन मेरी वह सहेली तो कभी मेरे घर नहीं आती, तो अब मैं भी उसके घर क्यों जाऊँ। समाज में जाति और धर्म के आधार पर
प्रचलित इन सांस्कृतिक प्रक्रियाओं व मन-गड़ंत मान्यताओं पर ये विद्यालय किसी
प्रकार का तार्किक संवाद नहीं खोलते, बल्कि अप्रत्यक्ष
रूप से इन विद्यालयों की संस्कृति और यंहा मनाएँ जाने वाले कुछ पर्व आदि के आयोजन
के माध्यम से ये किसी धर्म विशेष की संस्कृति को ही पोषितकरते हैं।
तीसरी
श्रेणी के ये कुछेक महगें स्कूल हैं जो ग्रामीण परिवारों में से कुछेक सम्पन्न परिवारों
के बच्चों को छांटकर उन्हें अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने का दम भरते हैं,
और उन विद्यालयों में पढ़ा पाने वाले अभिभावकों को यह बात
एक विशेष उपलब्धि हासिल करने की तरह ही लगती हैं, वे बिलकुल नहीं चाहते कि उनके बच्चे गाँव के अन्य सस्ते निजी स्कूल के
बच्चों के साथ बात करें या खेले-कूदें । ऐसे में इन बच्चों का सरकारी स्कूलों में
अध्ययनरत या स्कूल से बाहर बच्चों के साथ परस्पर संवाद और मेलजोल की संभवानाए तो
छोड़ ही दीजिये। सुना है कि हमारे गाँव के आसपास दो भव्य इमारत वाले इन्टरनेशनल
स्कूल बनने वाले है, वहाँ पढ़ने के लिए आसपास के क्षेत्र
से बच्चे बसों में भर-भर कर लाये जाएँगे। सर्व सुविधा युक्त हॉस्टल भी होगा,
स्वीमिंग पूल भी। जिन अभिभावकों के पास अधिक पैसा होगा
वे ही अपने बच्चों को वहाँ पढ़ा पाएंगे। ऐसे ही बड़ी फीस देकर आईसीएसई बोर्ड द्वारा
मान्यता प्राप्त विद्यालय की कक्षा 5 में पढ़ने वाले
बालक ‘वीर’ से जब मैंने पूछा कि वह सरकारी स्कूल में पढ़ने क्यों नहीं जाना चाहता है?
वह नीचे से ऊपर की और रॉकेट के उठने का इशारा करते हुये
बताता है कि सरकारी स्कूल में स्टेट बोर्ड का सिलेबस है जिसका स्टेटस जीरो है,
सीबीएससी बोर्ड का सिलेबस उससे ऊपर है और सबसे ऊपर/टॉप
पर है“आईसीएसई” का सिलेबस है। अब वह ऊपर से नीचे की और राकेट गिराने का इशारा करते हुये
कहता है कि अरे अंकल, सबसे ऊपर/टॉप पर जो है वो ज़ीरो क्यों
चुने? मैं नहीं जाना चाहता स्टेट बोर्ड के सरकारी
स्कूलों में। उसने यह भी बताया कि उसके स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबें रंगीन और
रोचक है, जो कि स्टेट बोर्ड की किताबों से लाख गुना
बेहतर हैं। कक्षा 5 में पढ़ने वाले वीर का यह बेबाक
विश्लेषण शिक्षा की स्तरीकृत व्यवस्था को समझने के लिए पर्याप्त था। उससे बातचीत
के दौरान यही सहमति बनी कि सबके लिए अच्छे स्कूल होने चाहिए।
चौथी
श्रेणी में सरकारी प्राथमिक, माध्यमिक और
सरकारी उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में अधिकांश वे विद्यार्थी अध्यनरत हैं, जिनके परिवारों के पास कोई और विकल्प हासिल करने का आर्थिक
सामर्थ्य नहीं है या लैंगिक भेदभाव के पर्याय के रूप में कुछ परिवारों के द्वारा
महंगी पढ़ाई लड़कों को और सस्ती पढ़ाई अपनी बच्चियों को उपलब्ध कराये जाने के रूप में
देखा जा सकता है । आमतौर पर यह अभिभावक अपनी इस विकल्पहीनता या लैंगिक भेदभाव के
पक्ष में अपनी गरीबी, लड़के-लड़कियों की आपेक्षित सामाजिक
पृथक-पृथक भूमिकाएँ और अपने भाग्य को जिम्मेदार मानते हैं। यंहा पढ़ने वाले अधिकांश
विद्यार्थी अपने अभिभावकों की पीढ़ा को जानते हैं और अन्य निजी स्कूल में पढ़ने वाले
बच्चों की तुलना में स्वयं को हीनता से देखने लगते है। उदाहरणार्थ कक्षा-3 में पढ़ने वाली एक बालिका यह बताने में झिझकती है कि वह एक
सरकारी स्कूल में पढ़ती है, वह समझती है कि
सरकारी स्कूल में पढ़ने की वजह से वह अन्य बच्चों की तुलना में कमजोर है, उसे कुछ नहीं आता और वह यह नहीं बता पाएगी कि माचिस की 4 और 7 तिलियां मिलकर 11 होती हैं। कक्षा 9वी में पढ़ने वाली एकअन्य बालिका यह जानती है कि उसके चार भाई
बहनों की पढ़ाई का खर्च उठा पाना उसके मजदूरी करके गुजारा करने वाले माता पिता के
लिए कितनी बड़ी चुनौती है, वह जानती है कि
उसके द्वारा कप्यूटर और स्कूटी चलाना नहीं सीख पाने की वजह मात्रसंसाधनों की कमी
नहींहै, वह यह भी जानती है कि उसका बड़ा भाई और
परिवार के अन्य लड़कों की पढ़ाई शहरों के कालेजों में और उसकी बड़ी बहन की पढ़ाई घर
में बैठ कर प्राइवेट स्नातक की पढ़ाई करने के पीछे की वजह लिंगभेद ही हैं, वह यह भी जानती है कि संगीता और रेहाना की ही तरह जल्द ही
उसकी बहन की भी 18-19 बरस में शादी किए जाने की अभी से
जल्दबाज़ी मची हुई है क्योकि लड़कियों को माता-पिता सहित अन्य सगे संबंधी भी
उन्हेंबोझ समझते हैं, और वह यह भी जानती है कि सब कुछ इसी
तरह घटते हुये देखने के बावजूद उसका चुप रहना ही उचित है चूंकि कुछ भी बोलने से
परिवार की शांति भंग हो जाएगी और उसे “पढ़ी-लिखी
बदतमीज” की उपमा से नवाजा जाएगा, अतः लोगों की हाँ में हाँ मिलाना ही एक लड़की के लिए सुरक्षित
व शांति पूर्वक ढंग से जीवन जीने का तरीका है।
उपरोक्त
सभी प्रकारों के स्कूलों की एक बहुत बड़ी समानता यह देखी जा सकती है कि ये अधिकांश
बड़े-बड़े त्यौहारों के अवसरों पर बंद रहते है, इनमें अवकाश रखा जाता है। इन अवकाशों पर बच्चे अपने-अपने मोहल्लों,
अपने-अपने परिवारों में, अपने-अपने परिवारों के सामाजिक सांस्कृतिक नियमों और आर्थिक सामर्थ्य के
हिसाब से अपने जाति आधारित रिशतेदारों के साथ परम्पराओं का निर्वाह करते हुये इन
बड़े त्यौहारों के छोटे-छोटे नियमों को सीख रहें होते हैंऔर एक दूसरे की
सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक हैसियत का अनुमान लगाकर यह जानने लगते हैं कि उनमें
किस-किस प्रकार की समानताएं और असमांताएँ उपस्थित हैं। वे यह समझने लगते हैं कि
गाँव में ईद के दिन मेवाती बाखल में इत्र की गंध क्यो महक रही होती है और सबसे
ज्यादा इत्र किसने छिड़की होगी, दिवाली के दिन
बाज़ार पट्टी में सबसे ज्यादा फटाके क्यों फूटते हैं और सबसे ज्यादा और महंगे फटाके
किसने फोड़े होंगे, दस नंबर वार्ड में सबसे ज्यादा होली
क्यों खेली जाती है और होली के दिन झगड़े क्यों होते हैं, हरेक त्यौहार पर घर-घर जाकर ढ़ोल पीटकर बधाई देने वाले लोग गाँव की किस तरह
की बस्तियों में निवास करते हैं।
विद्यालयों
में जब कभी बच्चों को किसी त्यौहार और इन त्यौहारों से संबन्धित क्रियाकलापों को
साझा करने का अवसर मिलता है तो कई बार सचमुच कीबातें बताने में वे झिझकते हैं।
किसी त्यौहार पर सुनाये जाने वाले अनुभव कई प्रकार के हो सकते है, जैसे- मेरे यंहा बहुत दिनों बाद कल मांस बना था, कल मुझे उपहार में सायकल मिली, कल जब मांगने के लिए गए थे तो आम दिनों की तुलना में ज्यादा रुपये मिले,
कल भी नए कपड़े नहीं मिले, घर पर बड़े त्यौहार के दिन भी माँ-पिताजी का बहुत झगड़ा हुआ,त्यौहार के अवसर पर दुकानों पर काम करने वाले ज्यादा लोगों की
जरूरत होती है इसलिए मैं तो मजदूरी पर गया था आदि।लेकिन विद्यालयी परिधि में ये सब
एक जैसे ऐसेसच नहीं रह जाते कि जिन्हे हमारे विद्यालयों के भीतर विद्यार्थी
आत्मविश्वास से साझा कर सके। किस बात को कहने में झिझक होगी वह इस बात से
निर्धारित होता है कि बात कहने वाले के पास मुख्यधारा के अनुरूप ही अनुभव है या
नहीं, सुनने वाले परस्पर सम्मान का भाव रखते हैं
या नहीं, बात कहने वाला अल्पसंख्यक है या अन्य की ही
तरह का बहुसंख्यक है। यदि कक्षा में बैठे
सभी बच्चे और उनके शिक्षक समान संस्कृति से है तो वे अपने अनुभव सुनाने में नहीं
झिझकते हैं लेकिन पृष्ठभूमियों का अंतर और परस्पर हीनता का भाव आपसी बातचीत को
यांत्रिक बना देता है। यह यांत्रिकता विद्यालयों में एक विषय के रूप में त्यौहारों
पर लिखवाये जाने वाले निबंधों में देखी जा सकती हैं जिनमें वास्तविक जीवन अनुभवों
को छोडकर सब कुछ लिखा जाता है।
यह कितनी
बड़ी विडम्बना है कि मेरे गाँव की शिक्षा की इस स्तरीकृत व्यवस्था को देश के शिक्षा
अधिकार कानून-2009 के द्वारा वैधानिक जामा प्राप्त है
और देश के संविधान में निहित समता,बंधुता,न्याय, पंथ निरपेक्ष आदि
मूल्यों पर आधारित समाज के निर्माण का सपना इस स्तरीकृत शिक्षा व्यवस्था के माध्यम
से देखा जा रहा है। हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य के द्वारा सर्व शिक्षा अभियान चलाया
जा रहा है जिसके अंतर्गतबच्चे को किसी ना किसी स्कूल में होना चाहिएऔर विभिन्न
राज्य सरकारें शत-प्रतिशत नामांकन होने का दावा करती हैं। लेकिन यह सामान्य सी
जरूरी बात उन्हे क्यों समझ नहीं आती कि सभी बच्चों को गुणवत्तायुक्त समान शिक्षा
मिलनी चाहिए, अन्यथा विभिन्न आधारों पर समाज में
व्याप्त इस भयानक गैरबराबरी को यह स्तरीकृत शिक्षा व्यवस्था संबोधित करने के लिए
सदियों की तरह नाकाफी ही साबित होगी।
क्या किसी
भी जगह गाँव, शहर, देश-दुनिया में इन बड़ें-बड़े त्यौहारों के अवसरों पर भी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, लैंगिक और शैक्षिक आदि किसी भी आधार पर पीढ़ियों से चले आ रहे
भेदभाव को हमे स्वीकार कर लेना चाहिए?क्या इन बड़े-बड़े
त्यौहारों के माध्यम से हम अपने नवागंतुक पीढ़ी को एक ऐसी समझ देना चाहेंगे जो जाति,
धर्म, लिंग आधारित
भेदभाओं से ग्रसित हो?क्या किसी समाज को इन बड़े-बड़े
त्यौहारों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि ये उन मानवीय मूल्यों को पोषित
करें जो समता मूलक समाज की स्थापना में सहायक हो? यदि हमारे त्यौहारों और पवित्र समझे जाने वाले तमाम पर्वों से यह अपेक्षा
रखते हैं तो समाज के नवागंतुक पीढ़ी के ऊपर तथाकथित सामाजिक कहे जाने वाले कर्म-कांडों
और नियमों को जबरन लादने के बजाए इस प्रचलित सामाजिक सांस्कृतिक भेदभावोंऔर
गैर-बराबरी की समालोचना करने के लिए स्वतन्त्रता देनी होगी। और यह तब ही संभव हैं
जब हम इन त्यौहारों में एक-दूसरे को सरीक करने का जज्बा और ज़िम्मेदारी उठाए,
इनकी समालोचना को विविध दृष्टिकोणों से करते या सुनते
हुये किसी कट्टर और जड़ मानसिकता के बजाए वैचारिक लचिलापन अपनाएं । ऐसा होने पर
सोचिए कि हमारे समाज के सभी बड़े त्यौहार सही मायनों में कितने बड़े हो सकते हैं?ऐसा होने पर ही हम अपनी-अपनी जगह को सचमुच की ‘अपनी-जगह’ बना सकेंगे।
- सुनील बागवान,संदर्भ व्यक्ति हिंदी अजीम प्रेमजी फाउंडेशन धमतरी छत्तीसगढ़,संपर्क-8305439019, sunil.edn@gmail.com
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