चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेख:धूमिल का कवि-कर्म / अभिषेक प्रताप सिंह
नई कविता के कवियों ने छायावादी कविता और प्रगतिवादी कविता से अलग एक ऐसी कविता लिखने का आग्रह किया जो यथार्थ को संपूर्णता में देखे। इसके अलावा उन्होंने अनुभूति की प्रमाणिकता पर बल दिया। इसके अतिरिक्त नई कविता में धीरे-धीरे बिंबों पर इतना जोर दिया गया कि कविता में कथ्य से ज्यादा शिल्प महत्वपूर्ण हो गये। किन्तु नई कविता के कवियों द्वारा की गई घोषणाएं उन्हीं के विरोध में खड़ी हो गयी। एक तो नई कविता के बहुत से कवि छायावादी रूमानियत से मुक्त नहीं हो पाये दूसरी तरफ संपूर्ण यथार्थ की जगह वैयक्तिक यथार्थ ही महत्वपूर्ण हो गया। अपनी संपूर्ण कलावत्ता के बावजूद नई कविता नवीन युग संदर्भों में बेसुरी लगने लगी। फलस्वरूप कविता ठहर गई, उसमें कोई हलचल न रह गई। ऐसे समय ही 'धूमिल' अपने काव्य संग्रह 'संसद से सड़क तक' के साथ काव्य जगत में प्रवेश करते हैं। इस प्रवेश ने साहित्य जगत में क्या हलचल पैदा की इसे उनके कथाकार मित्र 'काशीनाथ सिंह' के शब्दों के माध्यम से समझा जा सकता है-
''धूमिल
की कविताएँ प्रकाशित होनी शुरू हुई। 'जनयुग', 'आलोचना' , 'आरंभ', 'अकथ', 'कल्पना',
'नई धारा', 'आमुख' में कविताएँ आनी आरंभ हुई और एक मुद्दत से ठहरी हुई कविता चल
पड़ी। धूमिल के आने तक आलोचना का मुँह कविता की ओर कर दिया। अपनी ओर कर लिया। ....
आलोचक और साहित्य-प्रेमी उसकी पंक्तियाँ झंडे की तरह हाथ में उठाये शहर-शहर घूमते
रहे और वह उन्हें अच्छी से अच्छी पंक्तियाँ देता रहा।''[i]
धूमिल
हिन्दी कविता की क्षितिज पर धूमकेतु की तरह प्रविष्ट हुए। शायद ही किसी हिन्दी
कवि को अपने पहले काव्यसंग्रह से इतनी लोकप्रियता मिली हो। साठोत्तरी हिन्दी
कविता के वे प्रतिनिधि कवि बन गये। यहां तक कि आलोक धन्वा, गोरख पाण्डेय, कुमार
विकल, चंद्रकांत देवताले जैसे अनेक कवियों में धूमिल का अक्स देखा जा सकता है।
धूमिल इतने विशिष्ट कवि क्यों बने? अपने समकालीन कवियों से वे किस
तरह भिन्न हैं? उनकी कविता में व्यवस्था विरोध का स्वरूप
क्या है? वे किन चीजों से प्रेरित होकर कविता लेखन में
सक्रिय हुए और खासकर ये कि कविता का उनके लिए क्या मायने थे? ये जानना आवश्यक है क्योंकि उनकी कविताओं में लोकतंत्र की जो आलोचना है
वो उनके गाँव की पगडंडी से होकर संसद तक जाती है।
धूमिल
जिस समय कविता लेखन में सक्रिय हुए उस समय हिन्दी कविता की परिधि से गाँव, किसान,
खेत गायब होते जा रहे थे। नई कविता के ज्यादातर कवि महानगरीय पीड़ा से ग्रस्त
थे। उनके यहाँ गाँव आते भी हैं तो स्मृतियेां में। वहां के लोगों का संघर्ष कविता
में नहीं दिखाई देता। धूमिल अपने साथ कविता में गाँव का खेत, बैल, करछुल, बटलोही
को भी साथ लेकर आये। उनकी कविता में जो ग्रामीण संस्कार है उसकी तरफ संकेत करते
हुए डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं- ''दरअसल कवि धूमिल की शक्ति का उत्स ही उनका गंवई
अनुभव और किसानी संस्कार है। वह दुनिया को किसान की दृष्टि से ही देखते हैं।
इसीलिए उनकी परिभाषाएँ, बिंब तथा मुहावरे आदि अनायास ही किसानी दुनिया से आते
हैं।''[ii]
अपनी कविताओं के संबंध में धूमिल ने स्वयं लिखा कि –
''वह
किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा
हुई थी और
एक
पढ़े-लिखे आदमी के साथ
शहर
चली गयी।''[iii]
बिहारी
ने अपनी कविता में ग्रामीण संस्कृति और वहाँ के ग्रामीणों का मजाक उड़ाया है।
इसके विपरीत धूमिल शहरी जीवन की संवेदनहीनता और शहर में व्याप्त शोषण तंत्रों के
प्रति आक्रोश जताते हैं। शहर के पूँजीपतियों को देखकर अक्सर वे उन्हें ही गाँव
की दुर्दशा का जिम्मेदार समझते हैं।
काशीनाथ सिंह से बातचीत के दौरान वे कहते हैं- ''चाहिए तो यह कि सारे किसान
खेती-बारी बंद कर दें। जब फसल ही नहीं होगी तब इन सारे शहरातियों को पता चलेगा कि
गाँव क्या होता है उनकी अपनी बिसात क्या है? देखें, ये क्या खाते हैं?''[iv]
धूमिल को हमेशा यह लगता था कि शहर के लोगों ने, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी या साहित्यकारों
ने गाँव को केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है- ''बुद्धिजीवियों ने गाँव को
सिद्धांत गढ़ने और बहस के विषय के रूप में इस्तेमाल किया है, राजनीतिकों ने अपनी
कुर्सी और संपत्ति जोड़ने में गरीबों को मतदान की पेटी के रूप में इस्तेमाल किया
है और लेखकों-साहित्यकारों ने उसकी गरीबी, भुखमरी और बेबसी को अपने को महान बनाने
के लिए इस्तेमाल किया है। ..... किसको क्या हक है कि हमारी पीड़ा का ढिंढोरा
पीटे या गाना गाये!.... ''[v]
धूमिल
ने चाहे गाँव का वर्णन किया हो या शहर का, उनकी दृष्टि हमेशा यथार्थ पर रही है।
धूमिल की कविता संबंधी चिंता को इस रूप में समझा जा सकता है कि उन्होंने अपनी
कविताओं में लगभग 80 बार कविता शब्द का प्रयोग किया है। 'संसद से सड़क तक' संग्रह
की पहली कविता ही 'कविता' शीर्षक से है। धूमिल के काव्य में जो जनवादी चेतना है
उसे समझने के लिए यह भी जानना आवश्यक है कि कविता के संबंध में उनकी क्या धारणा
थी। धूमिल ने अपनी कविताओं में बार-बार 'कविता' को परिभाषित किया है। इसका कारण यह
था कि धूमिल अपने समकालीन कवियों द्वारा लिखी जा रही कविताओं के प्रति असंतुष्ट
थे। धूमिल नई कविता के संबंध में लिखते हैं- ''नई कविता का नाम सुनकर हमारा पाठक
कविता के प्रति अनास्था से उसी प्रकार भर उठता है जैसे किसी महंत को देखकर धर्म
के प्रति।''[vi]
और ऐसा क्यों होता है- ''..... आज नई कविता बदनाम है अपने शिल्पगत प्रयोगों के
लिए नहीं, वस्तुगत जीवन मूल्यों के नहीं, बल्कि खंडित बिम्बों के लिए, अस्पष्ट,
नितांत असंगत एवं बौद्धिक प्रतीकों के लिए, अपनी गद्यात्मक एकलयता की वृत्ति के
लिए और साथ ही घुटन में ऊबकर, शहीद हाने की दिखावट के लिए।''[vii]
नई कविता के बारे में कवि का यह कथन काफी हद तक संगत लगता है। नई कविता की बहुत सी
कविताओं में अर्थ की तलाश करना मरूस्थल में जल तलाशने के बराबर हो गया था। बकौल
धूमिल –
''नहीं-
अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर
भाषा के तस्कर-संकेतों
और
बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ
खोजना व्यर्थ है''[viii]
ये
तस्कर- संकेत उन प्रतीकों और उपमानों की ओर संकेत है जिन्हें धूमिल के समकालीन
कवियों ने गोल-गोल शब्दावली में अभिव्यक्त करके कविता को जनजीवन से अलग करके
उसे शहरी कविता बना दे रहे थे। 'कवि 1970' नामक अपनी कविता में धूमिल अपनी समकालीन
कविता के बारे में लिखते हैं –
''इस
वक्त जबकि कान नहीं सुनते हैं कविताएँ
कविता
पेट से सुनी जा रही है आदमी
गजल
नहीं गा रहा है गजल
आदमी
को गा रही है
इस
वक्त जबकि कविता मांगती है
समूचा
आदमी अपनी खुराक के लिए''[ix]
ऊपर
लिखी पंक्तियों में जिस 'आदमी' की बात की गई है वही 'आदमी' धूमिल की काव्ययात्रा
में शुरू से लेकर आखिरी तक केन्द्र में है अपनी पूरी ताकत और कमजोरी के साथ। स्वयं
धूमिल के ही शब्दों में – ''कविता का एक मतलब यह भी है कि आप आज तक और अब तक
कितना 'आदमी' हो सके हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो यह कि कविता की असली शर्त
'आदमी' होना है।''[x]
धूमिल
ने कविता को परिभाषित करने वाली बहुत सी सूक्तियां कही है उनके अनुसार-
''कविता
–
शब्दों
की अदालत में
मुजरिम
के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफनामा
है।।
................................
कविता/भाषा
में
आदमी
होने की तमीज है।''[xi]
धूमिल
का संपूर्ण कवि-कर्म ऊपरलिखित पंक्तियों से संचालित है जो कविता धारा शहर के
बुद्धिजीवियों के बीच बंधी हुई नालियों में बह रही थी उसे धूमिल ने गाँवों की तरफ
मोड़ दिया। धूमिल के लिए कविता सिर्फ सहज भावों का अच्छलन नहीं थी कविता लिखने के
लिए वे उतना ही परिश्रम करते थे जितना परिश्रम वे अपने बंजर खेतों में फसल उगाने
के लिए करते थे। कविता लिखने का काम धूमिल 'रियाज' की तरह करते थे। कविता लिखने
में किये जाने वाले श्रम का उल्लेख अपने मित्र काशीनाथ सिंह से करते हुए धूमिल
लिखते हैं – ''यार, काशी, ऊँगलियों में घट्ठे पड़ गये और ससुरी कविता खिसकने का
नाम ही नहीं ले रही है। .... यार देखो, पसीने-पसीने हो गया हूँ लेकिन कोई बात ही
नहीं बन रही है। .... आज रात चार घंटे रियाज किया तो साली जरा-सा हिली।''[xii]
उनके
मेहनती किसान चरित्र का प्रभाव उनकी रचना प्रक्रिया पर भी देखा जा सकता है। धूमिल
द्वारा कविता की दी गई परिभाषाएँ, कविता के केन्द्र में गाँवों और किसानों का
लाना, कविता की भाषा को सहज सरल बनाना और ग्रामीण शब्दावली का प्रयोग उनकी
लोकतांत्रिक चेतना का परिचायक है। वे देश के जनतंत्र की आलोचना करने से पूर्व
कविता में लोकतंत्र लाने के लिए संघर्ष करते हैं।
धूमिल
ने अपनी कविताओं के माध्यम से समकालीन कवियों का ध्यान एक गंभीर समस्या की ओर
खींचा जनतंत्र और व्यवस्था। धूमिल ने उस समय व्यवस्था विरोध का बीड़ा उठाया जब
वो देख रहे थे कि – ''मतलब की इबारत से होकर/सब के सब व्यवस्था के पक्ष में चले
गये हैं।''[xiii] इतना ही नहीं इन सारे
अवसरवादी बुद्धिजीवियों के बारे में धूमिल की राय है-
''ये
सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये
हैं।
वे
वकील हैं। वैज्ञानिक हैं
अध्यापक
हैं। नेता हैं। दार्शनिक हैं
लेखक
हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानि
कि-
कानून
की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों
का एक संयुक्त परिवार है।''[xiv]
'मुक्तिबोध'
की कविता 'अँधेरे में' के प्रोसेशन में दिखायी देने वाला अपराधियों का संयुक्त
परिवार धूमिल के सामने भी था लेकिन वे अपने आपको इस प्रोसेशन में शामिल नहीं करते
इन सारे लोगों के विरूद्ध अपनी कविताओं को विपक्ष में रखते हैं और आदमी के शोषण
में शामिल हर व्यवस्था की निर्मम आलोचना करते हैं।
'धूमिल'
भारतीय लोकतंत्र की विसंगतियों के प्रखर आलोचक हैं। 'कविता' की भाँति धूमिल ने
भारतीय लोकतंत्र से संसदीय प्रणालियों को भी अपने ढंग से परिभाषित किया है। भारतीय
संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में भारतीय नागरिकों को जो सच्चा
लोकतंत्र देने की दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई वह व्यवहार में कितना प्रतिफलित हुई यह
जानने के लिए धूमिल की कविताएँ बेहतर साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
राजनीतिक
जीवन से जुड़ी हुई शब्दावलियों को राजनीतिशास्त्र के विशेषज्ञों ने अपने ढंग से
विश्लेषित किया है। किन्तु धूमिल इन्हें यथार्थ की धरती पर परखकर किस रूप में
परिभाषित करते हैं ये उल्लेखनीय है-
जनतंत्र- ''दरअस्ल,
अपने यहाँ जनतंत्र
ऐसा
तमाशा है
जिसकी
जान
मदारी
की भाषा है।''[xv]
जनता- ''जनता
क्या है?
एक
शब्द .... सिर्फ एक शब्द है
कुहरा
और कीचड़ और काँच से
बना
हुआ ....
एक
भेड़ है
जो
दूसरों की ठण्ड के लिए
अपनी
पीठ पर फसल ढो रही है।''[xvi]
संविधान - ''संविधान
की धाराएँ
नाराज
आदमी की परछाईं को
देश
के नक्शे में बदल देती है''[xvii]
आजादी- ''आजादी-इस
दरिद्र परिवार की बीस साला 'बिटिया'
मासिक
धर्म में डूबे हुए क्वाँरेपन की आग से
अंधे
अतीत और लँगड़े भविष्य की
चिलम
भर रही है''[xviii]
समाजवाद- ''..
....... मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम
में लटकती हुई
उन
बाल्टियों की तरह है जिस पर 'आग' लिखा है
और
उनमें बाबू और पानी भरा है।''[xix]
संसद- ''अपने
यहाँ संसद
तेली
की वह घानी है
जिसमें
आधा तेल है
और
आधा पानी है''[xx]
न्यायपालिका- ''गाँव
की सरहद
पार
करके कुछ लोग
बगल
में बस्ता दबाकर कचहरी जाते हैं
और
न्याय के नाम पर
पूरे
परिवार की बरबादी उठा लाते हैं''[xxi]
धूमिल
ने इन लोकतांत्रिक शब्दावलियों की आलोचना जनता की निगाह से करते हैं। धूमिल
आक्रोश के कवि हैं। उनके भीतर व्यवस्था के प्रति, अकर्मण्य जनता के प्रति,
बुद्धिजीवियों के प्रति गहरा आक्रोश है। किन्तु उनका यह आक्रोश अकवितावादियों की
भांति सब कुछ को नकारकर अपने को सेक्स और नशे की दुनिया में कैद करने वाला आक्रोश
नहीं है बल्कि नये निर्माण से प्रेरित है। धूमिल पर अकविता का प्रभाव तो था किन्तु
वे अकवितावादी नहीं है । विनोद भारद्वाज को लिखे पत्र में धूमिल स्वीकार करते हैं
कि- ''तुम तो जानते हो कि अकविता मेरे लिए कोई आंदोलन नहीं सिर्फ एक छोटी पत्रिका
है।''[xxii]
धूमिल
की कविताओं में व्यवस्था और जनतंत्र की जो निर्मम आलोचना है वह उनके व्यक्तिगत
जीवन संघर्षों की उपज है। उन्होंने इस व्यवस्था की विद्रूपता को करीब से महसूस
किया था। 'धूमिल' वर्गीली गरीबी के कवि थे। बेरोजगारी के दंश को उन्होंने सहा था।
कलकत्ते में वे लोहा पीटने का भी काम करते थे। बेरोजगारी का यह दंश अकेले धूमिल
नहीं उस समय की पूरी युवा पीढ़ी महसूस कर रही थी। रोजगार मिलने की योग्यता
सिफारिश और घूस जब बन जाए तो देश का शिक्षित बेरोजगार युवा तो यही महसूस करेगा –
''इस
देश की मिट्टी में
अपने
जाँगर का सुख तलाशना
अंधी
लड़की की आँखों में
उससे
सहवास सुख तलाशना है।''[xxiii]
धूमिल
व्यवस्था की चालाकियों से अच्छी तरह वाकिफ थे। जब भी जनता में व्यवस्था में
बैठे लोगों के प्रति चेतना जगती है और वो व्यवस्था का ध्यान अपनी मूलभूत आवश्यकताओं
की तरफ दिलाती है व्यवस्था उनका ध्यान दूसरे मुद्दों में उलझा देती है। वे देश
प्रेम की घुट्टी देकर जनता को गहरी नींद में सुला देती है। पहले व्यवस्था अपनी
नीतियों से देश को जंगल बना देती है फिर जनता को अपने देश पर गर्व करने की शिक्षा
देती है। धूमिल इन चालाकियों को अपनी कविता में उजागर करते हुए लिखते हैं-
''मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन
....
उन्होंने
मुझे टोक दिया है।
अक्सर
वे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली
रखने से मना करते हैं।
जिनका
आधे से ज्यादा शरीर
भेड़ियों
ने खा लिया है
वे
इस जंगल की सराहना करते हैं –
''भारतवर्ष
नदियों का देश है।''[xxiv]
धूमिल
अपनी कविताओं में सत्ता में बैठे नेताओं की साजिश की सही पहचान दिखती है। ये वही
नेता हैं जो हर चुनाव में गरीबी हटाने के वादा करते हैं पर गरीबी हटाना तो दूर वे
किसानों द्वारा उगाये गये अन्न को उन तक ही नहीं पहुँचने देते। किसानों द्वारा
उगाया गया अन्न गोदामों में सड़ता है और गरीब जनता अन्न के लिए भूखों मरती हैं।
हर बार बड़े-बड़े वादों के पुलिदें फेंककर रोटी के नाम पर जनता को ठगते हैं और सत्ता
में आने के बाद उसी रोटी से खेलने लगते हैं –
''एक
आदमी
रोटी
बेलता है
एक
आदमी रोटी खाता है
एक
तीसरा आदमी भी है
जो
न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह
सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं
पूछता हूँ-
'यह
तीसरा आदमी कौन है?'
मेरे
देश की संसद मौन है।''[xxv]
डॉ.
नामवर सिंह आलोचना पत्रिका में 'युवा लेखन मोहभंग का साहित्य नहीं' है। युवा
लेखकों ने कभी कोई मोह पाला ही नहीं जो उसका भंग होता है।''[xxvi]
धूमिल की कविताएँ डॉ. नामवर सिंह के इस कथन का प्रतिवाद करती हैं। धूमिल ही नहीं
उनके समकालीन अन्य कवियों में भी आजादी और आने वाले भविष्य के सपनों के प्रति
मोहभंग दिखाई देता है। यदि धूमिल की लम्बी कविता 'पटकथा' का ही संदर्भ ले तो यह
बात प्रमाणित हो जाती है। इस लंबी कविता के छब्बीसवीं पंक्ति में ही कवि आजादी के
उल्लास से भरा हुआ प्रतीत होता है जब वह लिखता है-
''मैंने
कहा आजादी ......
मुझे
अच्छी तरह याद है-
मैंने
यही कहा था
मेरी
नस-नस में बिजली
दौड़
रही थी
उत्साह
में
खुद
मेरा स्वर
मुझे
अजनबी लग रहा था
मैंने
कहा – आ-जा-दी
...........................
मैंने
एक बैल की पीठ थपथपायी ......
सड़क
पर जाते हुए आदमी से
उसका
नाम पूछा
और
कहा – बधाई ......''[xxvii]
आजादी
के प्रति धूमिल का यह उत्साह देखा जा सकता है। यह उत्साह केवल कवि नहीं वर्षों
से गुलामी की यातना सह रही जनता भी महसूस कर रही थी जब उसे 15 अगस्त 1947 को
आजादी मिली। जाहिर सी बात है देश स्वतंत्र होने से भारतीयों की उम्मीदें भी बढ़ी
वह अपने राष्ट्रनायकों से उम्मीद करने लगी कि अब वे ऐसा भारत बनाएंगे जिसमें –
''अब
कोई बच्चा
भूखा
रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब
कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी।
अब
कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना
नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब
कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर
नहीं मरेगा
अब
कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई
किसी को नंगा नहीं करेगा
अब
यह जमीन अपनी है
आसमान
अपना है''[xxviii]
ऊपर
के दोनों उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि कवि में आजादी को लेकर उत्साह भी था
और साथ ही वो भविष्य के सुनहरे सपने भी बुन रहा था। देश की जनता आश्वस्त थी कि
देश की बागडोर नेहरू जैसे कुशल नेता के हाथों में है जो जनता के सपनों को पूरा
करेंगे । नेहरू ने अपने स्तर पर प्रयास भी किए पर वे नाकाफी साबित हुए। उनके
विकास का मॉडल पूँजीपतियों के द्वारा संचालित हुआ जो विकास के नाम पर जनता को
धीरे-धीरे और गरीब बनाते जा रहे थे और तिजोरियां भरते जा रहे थे। गाँवों में
रोजगार के अवसर कम होते जा रहे थे, लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे थे। गरीबी का
समाज में यह आलम था कि –
''कुल रोटी तीन
खाने
से पहले मुँहदुब्बर
पेट
भर
पानी
पीता है और लजाता है
कुल
रोटी तीन
पहले
उसे थाली खाती है
फिर
वह रोटी खाता है''[xxix]
कवि
का आजादी के प्रति धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा और जब चीन ने युद्ध में भारत को
पराजित कर दिया तो मोहभंग की प्रक्रिया पूरी हो गई। कोई भी स्वाभिमानी कवि और
जनता देश की सम्प्रभुता के कुचले जाने पर आहत होगी ही। जो कवि भविष्य के सुनहरे
सपनों का इंतजार कर रहा था उसके सपने युद्ध की विभीषिका में चूर-चूर हो गये और
उसका धीरज जवाब दे गया। और कवि यह महसूस करने लगा कि –
''जनतंत्र,
त्याग, स्वतंत्रता .....
संस्कृति,
शांति, मनुष्यता
ये
सारे शब्द थे
खुशफहम
इरादे थे''[xxx]
धूमिल
ने महसूस किया कि अब वह जिस दुनिया में रह रहे है उसमें सत्य, अहिंसा, सह-अस्तित्व,
शांति जैसे मूल्य तिराहित हो गये हैं। उन्होंने देखा कि भारत-चीन युद्ध में
दुनिया का सबसे बड़ा बौद्धमठ ही बारूद का सबसे बड़ा गोदाम बन गया था। कवि ने महसूस
किया सत्ता में तो शातिर लोग बैठे ही थे पर समाज में भी नैतिक मूल्यों का
धीरे-धीरे पतन हो रहा था। कवि यह महसूस करता है कि वह वक्त के उस शर्मनाक दौर में
जीने के लिए अभिशप्त है जहां लोग आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। एक-दूसरे के
सुख-दुख में लोग शरीक नहीं होते। भाईचारा, सहानुभूति प्यार जैसे मूल्य अब केवल
किताबी बातें बनकर रह गये हैं। ये एक ऐसा दौर है जहां व्यक्ति परस्पर अविश्वास
में जी रहा क्योंकि कोई किसी को भी अँधेरे में बुलाकर छुरा भोंक सकता था। व्यवस्था
में बैठे लोग ऐसे हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए जनता की कमजोरियों का फायदा
उठाकर उन्हें आपस में धर्म, जाति, सम्प्रदाय के नाम पर बांटकर उन्हें लड़वाते
हैं। व्यवस्था के इस विद्रूप चेहरे की ओर इशारा करते हुए धूमिल लिखते हैं –
''वे
खेतों में भूख और शहरों में
अफवाहों
के पुलिंदे फेंकते हैं
देश
और धर्म और नैतिकता की
दुहाई
देकर
कुछ
लोगों की सुविधा
दूसरों
की 'हाय' पर सेंकते हैं
वे
जिसकी पीठ ठोंकते हैं –
उसके
रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है''[xxxi]
धूमिल
चुनाव के समय राजनीतिक दलों और उनके बहुरुपिये चरित्र का भी पर्दाफाश करते हैं।
चुनावों के समय सभी दल अपने रंग बिरंगे झण्डे फहराते हैं, एक दूसरे की आलोचना
करते हैं। पूँजीपतियों के सहयोग से बड़ी-बड़ी रैलियां निकालते हैं और लाउडस्पीकरों
में चमकदार शब्दों का उच्चारण करते हैं। शासन, सुरक्षा, रोजगार, देशभक्ति जैसे
शब्दों का उपयोग करके जनता को ठगने का प्रयास करता है। पर सत्ता प्राप्त करने
के बाद सत्ता फिर से जनता का शोषण करने लगती है –
''मैं
रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक
पुर्जा गरम होकर
अलग
छिटक गया है और
ठण्डा
होते ही
फिर
कुर्सी से चिपक गया है
उसमें
न हया है
न
दया है।''[xxxii]
देश
की सत्ता को नियंत्रित करने वाले राजनेताओं ने व्यवस्था को इतना विकृत बना दिया
है कि कवि को 'जनतंत्र मदारी की भाषा' और संसद तेल की ऐसी घानी प्रतीत होती है
जिसमें तेल और पानी की मिलावट का अनुपात बराबर होता है। आजादी के बीस साल गुजरने
पर रघुवीर सहाय ने भी कविता लिखी थी और धूमिल ने भी किन्तु धूमिल की कविता में
आक्रोश का स्वर प्रबल है। आजादी के बीस साल गुजरने पर भी कवि को व्यवस्था में
सुधार नहीं दिखता बल्कि तेलंगाना कृषक विद्रोह और नक्सल युवकों के साथ आजाद देश
की सरकार ने जो सलूक किया उसने कवि को विचलित कर दिया। इस सबके प्रति कवि में गहरा
आक्रोश पनपता है। बीस साल की आजादी के बाद भी कवि देखता है कि-
''दीवारों
से चिपके गोली के छर्रों
और
सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक
दुर्घटना लिखी गयी है
हवा
से फड़फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर
गाय
ने गोबर कर दिया।''[xxxiii]
क्या
कारण होता है कि कोई युवक हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लेता है। आजाद देश में भी
जब सरकार, जमींदार, साहूकार मिलकर किसानों-मजदूरों की रोटी छीनने लगे उस जमीन से
ही उन्हें बेदखल कर दिया जाए जिसे हाड़-तोड़ मेहनत करके वे उसे उपजाऊ बनाते हैं
और अपने लिए फसल उगाते हैं तो उनके पास जीने के लिए रास्ता ही क्या रह जाता है
कब तक वे झूठी उम्मीदों पर सब्र करता रहे। इसीलिए कवि सवाल करता है –
''बीस
साल बाद
मैं
अपने-आपसे एक सवाल करता हूँ
जानवर
बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है।''[xxxiv]
आजादी
के बीस साल बाद धूमिल जब देश में होने वाली घटनाओं का मूल्यांकन करते हैं तो उन्हें
आजादी से पूरी तरह मोहभंग हो जाता है। उन्हें आजादी का कोई मतलब समझ नहीं आता वे
खुद से ही सवाल करते हैं –
''बीस
साल बाद और इस शरीर में
सुनसान
गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप
से सवाल करता हूँ –
क्या
आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें
एक पहिया ढोता है
या
इसका कोई खास मतलब होता है?''[xxxv]
धूमिल
अपनी कविताओं में जनतंत्र की तीव्र आलोचना करते हैं। उन्होंने ऐसा महसूस किया कि
हमारे देश में जनतंत्र की हजारों बार हत्या होती है। जब भी कोई हाथ सत्ता के
विरोध में उठता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने वाली सत्ता उस हाथ को
काट देती है। व्यवस्था में बैठे लोग 'जनतत्र' शब्द का इस्तेमाल किस तरह करते
हैं इस ओर इशारा करते हुए धूमिल लिखते हैं –
''उन्होंने
जनता और जरायमपेशा
औरतों
के बीच की
सरल
रेखा को काटकर
स्वास्तिक
चिह्न बना लिया है
और
हवा में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक
दिया है – 'जनतंत्र'
जिसकी
रोज सैकड़ों बार हत्या होती है
और
हर बार
वह
भेड़ियों की जुबान पर जिंदा है?''[xxxvi]
सत्ता
में बैठे नेताओं ने अपनी जन विरोधी नीतियों से गाँवों से लेकर शहरों तक ऐसा
वातावरण बना दिया कि आदमी के जीवन से हर उल्लास जैसी प्रवृत्तियां ही गायब होने
लगी। उसकी सारी चिंता दो जून की रोटी कमाने में ही लगी रही। प्रेमचंद और 'रेणु' ने
अपने कथा साहित्य में गाँवों की उत्सवधर्मिता को बार-बार दिखाया है लेकिन आजादी
के बाद के गाँवों से यह उत्सवधर्मिता गायब होने लगी। धूमिल अपने गाँव खेवली के
बारे में लिखते हैं –
''वहाँ
न जंगल है न जनतंत्र
भाषा
और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी
नहीं है।
एक
ठंडी और गाँठदार अँगली माथा टटोलती है।
सोच
में डूबे हुए चेहरों और
वहाँ
दरकी हुई जमीन में
कोई
फर्क नहीं है।''[xxxvii]
आजादी
के बाद कांग्रेसी सरकार ने नौकरशाही का जो जाल बुना उसने सिर्फ अपनी चोर जेबें
भरी। आधुनिक जीवन शैली अपनाकर वे मौज-मस्ती में डूब गये। आलीशान गाड़ियां, बंगले
उनकी जीवन शैली का हिस्सा बन गये। इन चालाक नेताओं को धूमिल अच्छी तरह पहचानते
हैं-
''मगर
चालाक 'सुराजिये'
आजादी
के बाद के अँधेरे में
अपने
पुरखों का रंगीन बलगम
और
गलत इरादों का मौसम जी रहे थे
अपने-अपने
दराजों की भाषा में बैठकर
'गर्म
कुत्ता' खा रहे थे
'सफेद
घोड़ा' पी रहे थे''[xxxviii]
रघुवीर
सहाय की भाँति 'धूमिल' को भी जनता पर क्रोध आता है। वे जनता को ऐसी भेड़ बताते हैं
जो दूसरे के ऊन बनाने के लिए अपने पीठ पर फसल ढोती है। धूमिल जनता पर क्रोध इसलिए
करते हैं क्योंकि उसकी कमजोरियों के कारण शासक दल उन्हें आपस में लड़ाकर सत्ता
की रोटियां सेंकते हैं। जनता पर क्रोधित होकर भी वे जनता का साथ नहीं छोड़ते वे
जनता को सत्ता की चालाकियों से अवगत कराते हैं। 'प्रौढ़ शिक्षा' नामक कविता में
धूमिल एक तरफ सत्ता किस प्रकार ग्रामीण किसानों को अपने हक में इस्तेमाल करती है
ये दिखाते हैं दूसरी तरफ इन चालाकियों से बचने का उपाय भी बताते हैं-
''उन्हें
तुम्हारी भूख पर भरोसा था
सबसे
पहले उन्होंने एक भाषा तैयार की
जो
तुम्हें न्यायालय से लेकर नींद से पहले की –
प्रार्थना
तक, गलत रास्तों पर डालती थी
'वह
सच्चा पृथ्वी पुत्र है'
'वह
संसार का अन्नदाता है'
मगर
तुम्हारे लिए कहा गया हर वाक्य
एक
धोखा है जो तुम्हें दलदल की ओर
ले
जाता है।''[xxxix]
व्यवस्था
की चालाकियों से अवगत कराने के बाद जनता को व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने का
आवाहन करते हैं -
''मैं
फिर कहता हूँ हर हाथ में
गीली
मिट्टी की तरह – हाँ – हाँ – मत करो
तनो
अकड़ो
अमरबेलि
की तरह मत जियो
जड़
पकड़ो''[xl]
धूमिल
का काव्य और जीवन आपस में घुले-मिले हैं। धूमिल नई भाषा, नये मुहावरे के साथ
कविता क्षेत्र में आये। उनकी कविताओं में किसान जीवन से जुड़े शब्दों से लेकर कचहरी
से जुड़े शब्द बहुतायत मिलेंगे। कचहरी से धूमिल का व्यक्तिगत वास्ता था। धमिल
की भाषा के संबंध में उनके कथाकार मित्र काशीनाथ सिंह लिखते हैं- ''धूमिल ने अपनी
कविता में शब्दों को सही संदर्भ में रखना शुरू किया – सही जगह पर और लोगों ने
देखा कि सही संदर्भ पाकर वे शब्द 'डायनामाइट' की तरह हुए जा रहे हैं। उनमें विस्फोटक
क्षमता आ गयी है। ऐसे ही इस सख्त और बेमुरव्वत जमाने में नयी-कवितावादियों के
कोमल, मुलायम और लहरियादार शब्द प्रभावहीन और ढुलुमल हो गये थे। उसने इनके विपरीत
कठोर और नुकीले शब्द चुने, उन पर धार दी, उन्हें पैना किया और वाक्यों में
बाँधकर फेंकता रहा .... इन अक्षरों ने, शब्दों ने अपनी एक अलग तर्ज पैदा की जिसे
हम अपनी जबान में 'लट्ठमार' कहते हैं। इसे ही साहित्य में आलोचकों ने 'सपाटबयानी'
कहा।''[xli]
धूमिल
अपनी समकालीन परिस्थितियों से उत्पन्न विरोध के कवि हैं, जिन्हें हर उस व्यवस्था
से नफरत थी जो आदमी के स्वतंत्र विकास में बाधक थी। वह चाहे अपना व्यक्तिगत जीवन
हो, साहित्यिक जीवन हो या लोकतांत्रिक प्रणालियां हों। धूमिल इस विरोध के लिए
कविता को औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं। धूमिल ने जिस जनतंत्र का विरोध किया है
उसके वे प्रबल समर्थक हैं। वे जनतांत्रिक व्यवस्था को बदनाम करने वाले
राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के विरोधी है जो संविधान की आत्मा को मारकर जनतंत्र की
हत्या करते हैं। धूमिल की कविता का केन्द्र वह आम आदमी है जिसे व्यवस्था ने
सबसे ज्यादा लाचार बनाया है। कबीर की भांति धूमिल का विध्वंस भी नवनिर्माण की
भावना से प्रेरित है। हमारे कल को बेहतर बनाने के लिए वे वर्ममान में लड़ रहे थे।
जब तक साहित्य में मनुष्यता को बचाये रखने का संघर्ष चलता रहेगा धूमिल
प्रेरणास्रोत के रूप में भावी पीढ़ी के हृदय में धड़केंगे –
''जब
दूध के पौधे झर रहे हों सफेद फूल
नि:शब्द
पीते हुए बच्चे की जुबान पर
और
रोटी खाई जा रही हो चौके में
गोश्त
के साथ। जब
खटकर
(कमाकर) खाने की खुशी
परिवार
और भाईचारे में
बदल
रही हो – कल सुनना मुझे
आज
मैं लड़ रहा हूँ।''[xlii]
अभिषेक प्रताप सिंह
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी महाविद्यालय,हैदराबाद
संपर्क संख्या – 9676653244.
ईमेल-आईडी - abhishek.pcu@gmail.com
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