चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आधी दुनिया: बाज़ारवाद,
मिडिया, नारी और सुधा
अरोड़ा के आलेख/ श्री.संगमेश नानन्नवर
“लालच की
आँख चीज़ों को देखने के हमारे कोण को बदल देती है। यदि मैं जंगल को इस नीयत और
इरादे से देखूँ कि मैं जंगल को खरीद लूँ या किराये पर उठादूँ या फिर उसे कटवा कर
महंगे दामों बाज़ार में बेच दूँ तो फिर मैं जंगल को नहीं देख रहा, बल्कि मैं जंगल को अपने निहित प्रयोजन या जेब के हवाले से देख
रहा हूँ। जंगल को देखते हुए मेरे मन में यदि इस तरह की कोई ख्वाहिश पैदा होती है
तो फिर जंगल मेरे लिए वनस्पतियों का जीता-जागता संसार नहीं रह जाता, बल्कि एक कारोबारी मंजर भर रह जाता है।”१
वर्तमान युग को बाज़ारवादी एवं मीड़िया का युग कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज का युग बाज़ारवाद और मीइया के कुचक्र में फंसकर विलोडित हो रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में बाज़ारीकरण का हस्तक्षेप देख सकते हैं। आखिर बाज़ारवाद क्या है और कैसे है इसे लेकर प्रख्यात जर्मन चिंतक हर्मन हेस ने एक जिंदा और सटीक उदाहरण दिया है। वे कहते हैं-
वर्तमान युग को बाज़ारवादी एवं मीड़िया का युग कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज का युग बाज़ारवाद और मीइया के कुचक्र में फंसकर विलोडित हो रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में बाज़ारीकरण का हस्तक्षेप देख सकते हैं। आखिर बाज़ारवाद क्या है और कैसे है इसे लेकर प्रख्यात जर्मन चिंतक हर्मन हेस ने एक जिंदा और सटीक उदाहरण दिया है। वे कहते हैं-
वैश्वीकरण, उदारीकरण,
जिनीकरण एवं बाजारीकरण के युग में मीडिया को परिभाषित
करना कठिन है। सूचना प्रौद्योगिकी के युग में मीडिया बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा
रही है। मीड़िया का मुख्य लक्ष्य सूचना, मनोरंजन
और जनशिक्षा है। इनके बाद व्यापार। लेकिन विडंबना यह है कि आज व्यापारिक मन:स्थिति
ही प्रथम श्रेणी में है और बाद में मनोरंजन और जनशिक्षा। इसका मूल कारण यह है कि
अन्य क्षेत्रों की भांति मीडिया भी बाज़ारीकरण से मुक्त नहीं हो पा रहा है। मीडिया
आज सूचना प्रधान करने का केंद्र न बनकर निर्णय देने का कार्य कर रहा है। मनमाने
ढंग से अपने टी.आर.पी और प्रसिद्धि पाने के लिए जनता के भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर
रहा है।
हिंदी की प्रखर, सचेत और
दॄष्टिसंपन्न कथाकारों में सुधा अरोड़ा का नाम शीर्षस्त है। जन पक्षधरता की प्रबल
और निष्ठावान पैरोकार होने के साथ-साथ महिलाओं के अधिकारों के प्रति आवाज़ उठाने
तथा महिलाओं की समस्याओं के लिए सतत कार्यरथ रहती हैं। उनके कहानी, उपन्यास साहित्य के साथ-साथ आलेखों में भी नारी जीवन की
करुनगाथा का यथार्थ हुआ हैं। मीडिया के द्वारा किस प्रकार नारी पर शोषण होते हैं
इसका यथार्थ एवं मार्मिक चित्रण अपने साहित्य में किया है। फिल्मों में नारी जीवन
का अंकन अश्लीलता, अमानवीयता के साथ किया जाता है।
निर्माता-निर्देशक मूल कथा में परिवर्तन करके अपने रुचि, व्यवसाय के अनुकूल पटकथा लिखकर फिल्म बनाते हैं। कलाकार, निर्माता, निर्देशक मात्र
अपनी सफलता, आर्थिक सुरक्षा को महत्व देकर
व्यक्ति के मानापमान को भूल जाते हैं। बाजारवाद के कारण नारी को मीडिया ने अस्त्र
बनाकर मनचाहे ढ़ंग से उपयोग कर रहा है। ऐसे कुछ उदाहरणों को लेखिका ‘आम औरत जिंदा सवाल’ नामक आलेख
संग्रहों की पुस्तक में प्रकाशित किया है।
‘बैंडिट क्वीन : चौराहे पर रखी एक कलाकृति’ नामक यह आलेख २९ जुलाई १९९४ में फूलन देवी के जीवन चरित पर
आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ से संबंधित है। इस फिल्म के निदेशक शेखर कपूर थे। इस फिल्म में फूलन देवी
के जीवन में घटित घटनाओं को आधार मानकर बनाया गया था। किस प्रकार एक सामान्य
स्त्री फूलन देवी जैसी डाकू बनती है और अपने शत्रुओं से बदला लेती है उसका अंकन
किया है। फिल्म के प्रारंभ होते ही पहले दृश्य में एक बड़ी-सी नांव में गांव के
बड़े-बूढ़े लोग बैठकर आते हैं। उस नांव में फूलन भी रहती है। नांव किनारे पर आकर
पहुँच जाती है। फूलन अपनी सहेली से बातें करते हुए चलती है। फूलन की माँ हमेशा
गालियाँ देते हुए ही बातें करती हैं। उन गालियों का अर्थ फूलन को मालूम नहीं था।
वह समझती है कि कुछ अच्छा ही कहते होंगे। ग्यारह साल की लड़की (फूलन) को उससे तीन
गुने ज्यादा उम्रवाले पुत्तीलाल से किया जाता है। पुत्तीलाल बहुत ही बलिष्ट आदमी
था। ऐसे व्यक्ति के साथ फुलन का ब्याह किया जाता है। ब्याह के बाद वह अपने पति के
घर जाती है, जहाँ उस पर पति द्वारा कानूनी रीति
से अत्याचार होता है। उस हिंसा को वह सह नहीं पाती। फिर अगले दिन सुबह उसे जल्दी
उठकर घर का काम करना पड़ता है। इस तरह की अपनी त्रासदायक जीवन से तंग आकर वह ससुराल
से भागकर माइके आती है। लेकिन उसे आश्रय देनेवाला कोई नहीं था। सब लोग उस पर आरोप
लगाकर पंचायत में उसका अपमान करते हैं और गांव से बाहर निकाल देते हैं। अपने चचेरे
भई मय्यादीन के पास जाती है और वहाँ से वह डाकुओं के हाथ लगती है। डाकुओं द्वारा
भी उस पर निरंतर अत्याचार किए जाते हैं। गांव में उस पर अत्याचार होने पर लोग उसे
निर्वस्त्र करके उसके हाथ में घड़ा देकर कुंए में से पानी लाने के लिए कहते हैं। तब
उसकी स्थिति बहुत ही मार्मिक होती है। ऐसी स्त्री एक दिन फूलन देवी बनकर अपने सारे
शत्रुओं से बदला लेती है। इस फिल्म में अत्याचार, शोषण को अधिक मात्रा में दिखाया गया है। ऐसे अत्याचार से संबंधित दृश्यों
को लेकर, फिल्म की गुणवत्ता-हीनता को लेकर बहुत
चर्चाएँ चलती रही।
इस फिल्म के संदर्भ में मुंबई के एक महिला संगठन ‘अग्निशिखा मंच’ ने इसका खुलकर
विरोध किया। उस मंच की अध्यक्षा का कहना था कि- “यह गंदा दृश्य है, इसे अपने घर पर
लोगों के साथ कैसे देखा जा सकता है? इसमें मूवमेंट्स
दिखाए गए हैं। क्या यही कला है? आखिर फूलन है
क्या? उसने समाज को क्या सिखाया? यही कि डकैत बन जाओ! इसके अलावा फूलन ने हमें दिया ही क्या है?
समाज-सुधार पर ही फिल्म बनानी थी, तो किरण बेदी पर बनाते, जिसने इतने जेल
सुधार किए हैं।”२ लेकिन कुछ लोगों का कहना था कि
फिल्म अच्छी है। बीस वर्षीय एक छात्रा ने कहा कि ‘वाच दिस, बट वाच इट विद इंटेलीजेंस।’ और एक महिला कार्यकर्ता ने कहा कि- “कुछ महिलाएँ सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करती हैं- मुद्दा चाहे हो या न
हो। आज हर हिंदी फिल्म में नाच के नाम पर भद्दे तरीके से सिर्फ वक्ष और कूल्हों को
हिलाया जाता है। क्या उसमें उन्हें नग्नता नहीं दिखती।”३ इस फिल्म में फूलन देवी और विक्रम मल्लाह के अश्लील दृश्यों को जोडे गये
थे, जो फूलन देवी के जीवन से संबंधित नहीं थे। प्रेक्षक
को ध्यान में रखकार निदेशक ने उन दृश्यों को जोड़ा था। फिल्म को युवाओं को आकर्षित
करने के लिए बनाया गया था। फूलन देवी के जैसे ही ममता कुलकर्णी और उर्मिला मातोड़कर
जैसी अभिनेत्रियों को भी कम कपड़े पहनाकर उत्तेजक दृश्यों द्वारा दिखाया जाता है
ताकि लोग सीटी मारे और ऐसे दॄश्यों को देखने के लिए ही सही फिल्म थियेटर में आये। ‘बैंडिट क्वीन’ फिल्म में जब
फूलन को निर्वस्त्र करके कुंए से पाने लाने को कहा जाता है तो उस संदर्भ में
थियेटर में बैठे कुछ लड़के उस दृश्य को देखकर हँसते हुए उसका मजाक उडा रहे थे। तब
एक महिला ने उन पुरुषों को डांटा। तब से ऐसी घटनाएँ नहीं हुई थी। भारतीय समाज अभी
इतना आगे नहीं गया है कि अश्लीलता को बड़े पर्दे पर आसानी के साथ देख सके। आज भी
हमारे यहाँ महिलाओं पर अत्याचार जैसे दृश्य दिखाते हैं अथवा उसे नग्न किया जाता है
तो स्त्रियाँ उसे देख नहीं पाते। एक स्त्री को नग्न करना इसका अर्थ वे स्वयं को
निर्वस्त्र करना मानते हैं। इस संदर्भ में ‘अपालम महानगर’ के संपादक निखिल वागले जी का कहना
है- “भारतीय दर्शकों को क्या पचता है और क्या
नहीं पचता, यह कौन तय करेगा? कितने जोर से धक्का देने पर इस समाज के संस्कार डगमगाने लगते
हैं, इसे किस पैमाने से नापा जाएगा? इंच भर कपड़े पहनकर की गई अश्लील हरकतें हम बाल-बच्चों के साथ
बैठकर टीवी पर देखते हैं, लेकिन अत्याचार
की परिसीमा देखना हमें आपत्तिजनक लगता है।”४ लेखिका
का मानना है कि यह फिल्म एक कलात्मक मूर्ति की तरह है, जिसके हाथ कटे हुए हैं और उसे प्रदर्शन के लिए रखे तो अच्छी कलाकृति मानी
जाएगी और अगर खुली नालियों में थूकनेवाली लोगों के बीच चौराहे पर रखे तो कपडे से
ढंकने को दिल चाहता है।
‘‘बवंडर’ : समांतर सिनेमा :
कितनी व्यावसायिकता, कितना सामाजिक सरोकार?’ आलेख में राजस्थान के भटेरी नामक गाँव की आम महिला भंवरी देवी
पर जो शोषण, अत्याचार हुए और उससे संबंधित
न्यायालय के मुकद्दमें और निर्णय के आधार पर बनी ‘बवंडर’ फिल्म की चर्चा की गई है। इस फिल्म
बनने के पीछे के संदर्भ, स्थितियाँ और
फिल्म के पटकथा लिखनेवाली लेखिका सुधा अरोड़ा की मानसिकता का अंकन यहाँ प्रस्तुत
है। इसके साथ ही बाजारीकरण के कारण गंभीर, महत्वपूर्ण
एवं शोषित नारी के जीवन को फिल्मी दुनियावाले किस प्रकार अपने व्यावसायिक रीति से
प्रस्तुत करते हैं इसका सुंदर और यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है।
सामान्यत: फिल्म के निर्माताओं को समाज में प्रचलित प्रसिद्ध
व्यक्तियों के जीवन से संबंधित विषयों पर फिल्म बनाने की उत्सुकता रहती है। कारण
स्पष्ट है कि ऐसी विषयों पर बने फिल्म लोगों को आकर्षित करते हैं, जिससे निर्माता, निदेशक को आर्थिक
लाभ एवं कीर्ति भी मिलती है। भंवरी देवी के जीवन गाथा में निर्माताओं को जो मुद्धे
चाहिए वे सारे मुद्दे थे। ग्रामीण भोली भाली स्त्री, बाल्य-विवाह, यौन शोषण, अत्याचार, समाजिक बहिष्कार, प्रताड़ना, राजनीति, न्यायालय अव्यवस्था, आदि
विषयों के कारण निर्देशक श्री जगमोहन मूंधडा ने इस फिल्म को बनाने के लिए तैयार
हुए। इसके लिए उन्होंने बहुत सी तैयारियाँ भी कर ली थी। न्यायालय निर्णय के
कॉपियाँ, पत्र-पत्रिकाओं को प्रकाशित भंवरी के जीवन
चरित, पर-विरुद्ध विचार आदि विषयों को उन्होंने
इकट्टा किया। सुधा जी को पता चला कि भंवरी देवी पर फिल्म निर्माण हो रहा है। सुधा
जी ने भी कुछ आलेख बनाये थे। इस कारण निर्देशक ने फिल्म की पटकथा को सुधा जी को
लिखने के लिए कहा। सुधा जी के शुभचिंतकों के मना करने के बावजूद भी हामी भर दी,
ताकि उनकी ओर से भंवरी देवी को कुछ सहायता हो मिले। मगर
उनका यह भ्रम था; क्योंकि निर्माता, निर्देशक कला, फिल्म के माधयम
से पैसा, कीर्ति चाहते हैं। इस कारण से वे पटकथा
लिखनेवाले लेखक को ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं मानते। उन्हें अपना व्यवसाय ही प्रमुख
है। १९९९ मार्च को सुधा जी ने फिल्म का संक्षिप्त ड्राफ्ट लिखकर निर्देशक को भेजा।
कुछ दिनों के बाद निर्देशक ने सुधा जी से संपर्क करके ड्राफ्ट को विस्तार के साथ
लिखने के लिए कहा। तब सुधा जी को लगा कि उनके ड्राफ्ट के प्रति गंभीरता से विचार
किया जा रहा है। इसके लिए सुधा जी ने एक भरा हुआ ब्रीफकेस जितनी सामग्री जुडाकर
काम आरंभ किया। भंवरी के वास्तविक जीवन को बहुत ही बारीकि के साथ चित्रित किया।
उन्हें लगा कि शोषित नारी को उनकी ओर से कुछ न्याय, समाधान दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य वे कर रहे हैं। फिल्म की पटकथा एवं
संवाद लगभग समाप्त होने को आया था कि निर्देशक ने उस पटकथा एवं संवाद को ‘हायर’ कर दिया। अर्थात्
किसी अन्य लेखक के द्वारा परिष्करण करवाना चाहा। लेकिन यह बात सुधा जी को पसंद
नहीं आयी। साथ ही निर्देशक ने दो-तीन दृश्य और जोड़ने के लिए कहा जो पूरे फिल्म के
दिशा को बदलनेवाले थे। महिला कार्यकर्ताओं के द्वारा भी भंवरी को अपना नाम
प्रयुक्त होने के दृश को लेकर निर्देशक और सुधा जी में बहुत बहस हुई। इसलिए
उन्होंने मना किया। शूटिंग के दौरान निर्देशक को जो संवाद चाहिए अथवा उसमें बदलाव
लानी हो तो संपर्क करने के लिए कहकर सुधा जी अपने कार्य में निरत रही। पूरी पटकता
मिलते ही निर्देशक ने सुधा जी से कोई संपर्क नहीं किया। इसके बाद सुधा जी को
निर्देशक ने लंबे-चौडे एग्रीमेंट कॉपी भिजवा दिया जिसमें लिखा था कि पटकथा पर पूरी
तरह से निर्माता का अधिकार है और सुधा जी इसे कहीं पर छपवा नहीं सकती। सुधा जी
द्वंद्व में पड़ गयीं। निर्देशक जगमोहन के बड़े भाई बृजमोहन मूंधड़ा इनके परिचित थे।
उनके कहने पर सुधा जी हस्ताक्षर कर दिए। २१ नवंबर २००१ में फिल्म रिलीज हुई। सुधा
अपने शुभचिंतक वरिष्ठ पत्रकार लाजपत राय और आशा पाणेमंगलोर के साथ फिल्म देखने
जाती हैं। पूरी फिल्म देखने के बाद सुधा जी को बहुत बुरा लगा; क्योंकि जिन दृश्यों पर फिल्म टिकी थी, जो बेहद ‘लाउड’ थे उन्हीं दृश्यों में हास्यास्पद बना दिया गया था। “पुलिस स्टेशन में हवलदार का रेडियो के गाने पर लहंगा हाथ में
लेकर नाचने का लंबा उबाऊ दृश्य, भंवरी के
लिपे-पुते सिनेमाई घर में महिला कार्यकर्ताओं के राजमंदिर में सिनेमा देखने और
पानीपूरी के फूहड़ वार्तालाप और महिला थामें महिला पुलिस के असभ्य और अश्लील संवाद…।”५ सुधा जी के इस स्थिति को देखकर
लाजपत राय हँसते हुए फिल्म-लेखन के उद्धेश्य को समझा रहे थे कि “स्क्रिफ्ट लिखो, पैसे लो और भूल
जाओ! इस तरह इमोशनल होने हो तो सिर्फ कहानियाँ लिखो, जहाँ अपने किरदारों की डोर तुम्हारे हाथों में रहे।“”६
‘बवंडर’ फिल्म भारत में
और विदेश में भी रिलीज हुआ। फिल्म कुछ दिनों तक प्रदर्शित हुई। निर्देशक श्री
जगमोहन मूंधड़ा के बहुत से साक्षात्कार पत्र-पत्रिकाओं में आए थे। साक्षात्कार के
संदर्भ में निर्देशक ने भंवरी देवी को तीन हजार पाउंड और जमीन देने की बात की थी।
लंदन में फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद लंदन वीमेंस ग्रुप ने भंवरी देवी के नाम पर
तीन हजार पाउंड का चेक दिया गया था, जो
निर्माता-निर्देशक और उनके मित्र के संयुक्त खाते में बैंक में डाल दिये थे। लेकिन
भंवरी देवी को किसी से भी एक कौडी भी नहीं मिली। यह बात जब सुधा जी को पता चला तो
वे जगमोहन जी से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि “मैं अपनी जड़ों में लौटना चाहता हूँ। आय बिलांग टु राजस्थान और मैं चाहता
हूँ कि अब जरा मीनिंगफुल सिनेमा बनाऊं। मैंने बहुत फिल्मे बनाई, बहुत पैसा भी कमाया, पर अब मैं
पैसे के लिए नहीं, अपने मन के संतोष के लिए काम करना
चाहता हूँ। मैं बहुत बड़ा रिस्क ले रहाँ हूँ। हो सकता है, फिल्म बिल्कुल न चले और मेरा सारा पैसा पानी में जाए, पर मैं चाहता हूँ कि मेरी फिल्म के बाद भंवरी को जनता का
न्याय मिले। मैं किसी सुधा को नही जानता।”७ २००२ का
आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) का ‘शिस्टिंग्विश्ड
एल्यूमनस अवॉर्द’ जगमोहन मूंधड़ा को प्राप्त हुआ।
जगमोहन मूंधड़ा के लिए यह गौरव का विषय था। फिल्म के कारण निर्माता-निर्देशक को
पैसा और कीर्ति मिली और सुधा जी को फिल्म-लेखन का नाम। लेकिन भंवरी देवी को कुछ भी
हासिल नहीं हुआ। भंवरी देवी के बेटे पर इसका बुरा असर हुआ। उसके साथी उसे चिड़ाते
हैं, “किता रोकड़ा लिया तेरी माँ ने? साली रांड का बेटा, हरामी,
माँ की चुदाई का खाता है!।”८ सुधा जी को आज भी यह बात खटकती है कि कलाकार, निर्माता-निर्देशक सभी अपनी मंजिल पाने के लिए किसी के वैयक्तिक जीवन के
साथ खिलवाड करते हैं। उन्हें उनका लक्ष्य तो मिल जाता है लेकिन उस व्यक्ति के
प्रति इनकी जो जिम्मेदारियाँ थी उन्हें निभाने में अथवा न्याय दिलाने में असमर्थ
हो जाते हैं। इस प्रकार मिडिया के द्वारा व्यक्ति के मान हरण होता है।
छोटे-बड़े
पर्दे पर औरत : कुछ फुटकर नोट्स –
पिछले आलेखों में बड़े
पर्दे पर औरत की स्थिति-गतियों के बारे में चर्चा की गयी थी। लेकिन इस आलेख में
सुधा जी छोटे पर्दे यानी टी.वी पर किस प्रकार नारी का चित्रण होता है, औरत इस छोटे पर्दे से किस हद तक प्रभावित हुई है आदि का
चित्रण करते हुए कुछ घटनाओं का जिक्र कर रही हैं।
‘सांस’ की फांस’ आलेख की लक्ष्मी अपने पति के शक के स्वभाव के कारण शोषित थी।
एक दिन वह महिला संगठन से मदद मांगी। उसका पति किसी दूसरी बीवी को घर ले आया और
लक्ष्मी से उसकी सेवा करने के लिए कहा। लक्ष्मी उस औरत को खाना बनाकर देती थी और
उसके सारे काम करती रही। ऐसे ही कुछ दिनों तक चला। कुछ समय बाद उसे अपने अस्तित्व
को लेकर चिंता होने लगी तो उसने घर से बाहर आकर एक मेड़म के घर में काम करने लगी।
उस मेडम का एक शौक था कि हर सोमवार को प्रसारित होनेवाली नीना गुप्ता का सिरीयल ‘सांस’ देखना। मेडम के
साथ लक्ष्मी भी उस सिरीयल को देखने लगी। उस सिरीयल में भी नायक दो पत्नियों का संग
करता है। उसको देखकर लक्ष्मी को लगता है कि सिफ्र मेरा मर्द ही ऐसा नहीं करता,
बल्कि बड़े घरों के मर्द भी ऐसे ही होते हैं। तब उसे अपने
पति पर थोड़ी नाराजगी कम हुई। उसे लगा कि कुछ दिन बितने के बाद दूसरी बिवी भी
पुरानी हो जाएगी तो उसका पति फिर से उसके पास ही आएगा। ‘सास’ सिरीयल की कथा इतनी लंबी थी कि नायक
पहली पत्नी के पास जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसे देखते देखते लक्ष्मी की
उम्मीद भी घटती गयी। लक्ष्मी को पता नहीं था कि असल में ‘सांस’ की कथावस्तु कुछ महिनों के बाद ही
खत्म हुआ था। लेकिन बाज़ारवादी और विज्ञापनों के कारण उस सिरीयल को रबर की तरह
कींचा जा रहा है जिसमें वास्तविकता से कोई तालुक नहीं है।
मंजू सिंह एक ‘अधिकार’ नामक सिरीयल आता था, जिसमें
महिलाओं के अधिकारों के प्रति उन्हें सचेत किया जाता था। कुछ कारणवश वह बीच में ही
रुक गयी। उसी प्रकार दीप्ति नवल का ‘छोटा-सा आसमान’
नाम का सइरीयल आता था जिसमें महिलाओं के जीवन के यथार्थ
जीवन का अंकन किया जाता था। वह सिरियल भी बीच में प्रसारण होना बंद हो गया। इस
प्रकार जो कार्यक्रम, सिरीयल वास्तविकता के नजदीक, ज्ञान प्रधान अथवा समाजोन्मुखी होते हैं ऐसे कार्यक्रमों को
ज्यादा मान्यता नहीं मिलती। ‘सांस’ जैसे मनगडंत कहानियों के सिरीयल्स ही सालों तक प्रसारित होते
हैं। जनता भी विशेष रूप से मध्यवर्गीय स्त्रियाँ भी ऐसे सिरीयल्स को ही पसंद करती
हैं और बिना छूटे देखती हैं। उनको बस मनोरंजन मिला तो हो गया। वास्तविकता, समाज सुधार आदि विषयों के बारे में विचार नहीं करते। और
मीडियावाले भी स्त्रियों की इस मन:स्थिति को भलीभांति जानती हैं और उनको आकर्षित
करने के लिए ऐसे बिनमतलब के कार्यक्रमों का प्रसारण करते हैं।
‘मैं चुप रहूंगी’ से ‘क्या कहना’ तक- आलेख में एक
सत्रह साल की लड़की बिना विवाह के अपने प्रेमी के संग द्वारा उत्पन्न बच्चे को जन्म
देना चाहती है। वह लड़की सुधा जी के डॉक्टर मित्र के पास आयी थी। बहुत समझाने के
बावजूद भी नहीं मान रही थी। उसका मानना था कि “क्या सिर्फ मंदिर में या चार लोगों के सामने फेरे लेने से किसी अनजान आदमी
के साथ सोना जायज हो जाता है? और जिससे प्रेम
करो और भीतरी इच्छा के तहत संसर्ग हो, उसके साथ
सोना नाजायज क्यों है?”९ उसके इस तर्क का मूल ‘क्या कहना’ फिल्म में दिए
गये तर्कों से एक कदम आगे था। ‘क्या कहना’
फिल्म अविवाहित मातृत्व के विषय से संबंधित था, जिसमें स्त्री शोषण का जिक्र किया गया है। फिल्म में नायिका
बिन विवाह के बच्चे को जन्म देती है और अंत में उस नायिका से विवाह करने के लिए
दो-दो लड़के तैयार होते हैं और फिल्म सुखांत में खत्म होता है। पूरे फिल्म में
सिर्फ अविवाहित मातृत्व का मुद्दा प्रमुख है। लेकिन निर्देशन ने औरत की देह की
पवित्रता, सामाजिक-आर्थिक पहलूओं के बारे में विचार ही
नहीं किया है। कॉलेज में पढ़नेवाली लड़की माँ बनती है और बच्चे को जन्म देना चाहती
है तो सामाजिक प्रतिष्ठा या देह की पवित्रता से बड़कर यह सवाल उत्पन्न होता है कि
लड़की या उसका प्रेमी कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं की है बच्चा पैदा करने और उसकी
परवरिश का खर्च उठाने में समर्थ हैं? फिल्म में लड़की
के पिता अनुपम खेर और माँ फरीदा जलाल अपने बेटी के तर्क से सहमत होकर उसे
प्रोत्साहन देते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसे कितने मध्यवर्गीय परिवार के
माता-पिता होते हैं जो अपने बेटी के इस प्रकार के हरकत का समर्थन करके उसको आगे
बड़ने के लिए कहते हैं।
भले ही फिल्में समाज से जुड़ी हुई होती हैं या समाज में घटित
घटनाओं को आधार बनाकर बनाये जाते हैं। लेकिन कुछ फिल्मों में वास्तविकता से ज्यादा
काल्पनिकता अधिक मात्रा में रहती हैं। फिल्म के निर्माता, निर्देशक और कलाकार अपनी रोजी रोटी या आर्थिक रूप से संपन्न होने के लिए
ऐसी फिल्में या विषयों को केंद्रित करते हैं। लेकिन इसका प्रभाव जनता पर पड़ता है।
प्रारंभ में औरत के दो रूपों को दिखाया जाता था, एक सफेद, जिसमें वह माथे पर बिंदी, हाथों में चूडियाँ डालकर, अपने परिवार को बचाने के खातिर अपने सर्वस्व को न्योछावर करती थी। और
दूसरी ओ स्त्री जो हमेशा दूसरों की बुराई सोचनेवाली, पारिवारिक मान्यताओं को दुत्कारनेवाली। लेकिन आजकल इसमें बहुत अंतर आ गया
है। आज नायिका-खलनायिका का पता लगाना बहुत कठिण है; क्योंकि दोनों में लगभग समानता आ गयी है। उनकी सोच हो, वेशभूषा हो या मानसिकता को सभी में तेजी के साथ बदलाव आ रहे
हैं। “आज, जब हर
लड़की अपने कैरियर को लेकर पहले से कहीं अधिक जागरुक हो चुकी है और आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भर होना चाहती है, यह फिल्मी ‘सर्वश्रेष्ठ कहानी’ इत्मीनान
से इन आर्थिक सवालों से कन्नी काट लेती है। क्यों आखिर? क्योंकि फिल्म के लेखक, निर्देशक और
निर्माता का सामाजिक मुद्दों से कोई सरोकर नहीं है। उन्होंने समाज-सुधार का ठेका
नहीं ले रखा। उन्हें सिर्फ सनसनीखोज मुद्दा चाहिए और औरत की देह की आजादी को लेकर
दो-चार तालियाँ बटोरनेवाले संवाद। बस। औरत का यथार्थ बॉक्स ऑफिस पर बिकने की चीज
बनकर रह गया है। बड़ा पर्दा औरत के यथार्थ के नाम पर पैसे और पुरस्कार बटोर रहा है।”१० फिल्मों में वास्तविकता, नैतिकता, समाज-सुधार आदि विषयों के बदले
बाजारिकरण, आर्थिक सुव्यवस्था को ही प्रमुखता दी
जा रही है। लेकिन कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं जो समाजोन्मुखी हैं। लेकिन उनकी संख्या
बहुत ही कम है और ऐसे लोगों की सक्त आवश्यकता भी है।
‘मटुकनाथ कहाँ नहीं है?’ उर्फ मीडिया का तमाशा’ इस आलेख में सुधा
जी ने शिक्षा क्षेत्र में किस प्रकार अनैतिक संबंधित जुड़ते हैं और वह परिवार को
तोड़ने में कारणीभूत बनते हैं, इसका सुंदर
चित्रण किया है। २००६ ई. में प्रो.मटूकनाथ चौधरी और उनके अधीन शोध करनेवाली जूली
नामक छात्रा के प्रेम प्रकरण से मटूकनाथ जी की पत्नी श्रीमती आभा चौधरी तंग आ चुकी
थी। पटना में हो रहे एक पत्रिका के प्रेम-विशेषांक का लोकार्पण समारोह के अंत में
श्रीमती आभा जी ने मंच पर जाकर अपने पति के प्रेम प्रकरण का खुलासा कर दिया था।
लेकिन इस विषय को लेकर किसी ने कुछ प्रतिक्रिया देने का कार्य नहीं किया। इस घटना
को किसी ने महत्वपूर्ण नहीं माना। किसी भी पत्रिका में, मीडिया में इसकी चर्चा नहीं हुई। लेकिन श्रीमती आभा भी चुप बैठनेवाली
औरतों में से नहीं थी। कुछ दिनों के बाद अपने चार-पांच लोगों को लेकर आयी। उनके
पति जो ५३ साल के थे और उनकी २३ साल की प्रेमिका को केमरे के सामने ले आकर पति का
अपमान किया और जूली के बाल खिंचकर उसे धराशाही कर दिया। पत्नी के इस हरकत से
प्रो.मटुकनाथ को अपमानित होना पड़ा। तब पत्रिकार, मीडियावाले ने मिलकर इस विषय को एक रोचक, सनसनी खबर बनाकर अखबार और टी.वी चेनलों में प्रसारित करने लगे। उनके इस
प्रेम प्रकरण को लेकर काफी चर्चाएं हुई। ‘आजतक’
ने इसे ‘प्यार किया तो
डरना क्या?’ शीर्षक से प्रसारित करता रहा।
२३ जुलाई को एन.डी. टी.वी ने ‘मुकाबला’ नामक कार्यक्रम में प्रो.मटुकनाथ एवं
जूली को बुलाकर चर्चा की गयी। श्रीमती.अभा को यहाँ आमंत्रण नहीं था। रंजना जी ने
मटूकनाथ जी के बच्चों के प्रति विचार करते हुए प्रश्न किया कि “जिस दिन आपके मुहम पर कालिख पोतकर आपको पटना की सड़कों पर
घुमाया गया, आपने सोचा कि आपके बच्चों पर क्या
बीती होगी? उनकी भावनाओं का आपको खयाल नहीं आता?”
मटुकनाथ ने गर्व से कहा, “बच्चों की भावनाओं के हिसाब से चलने के लिए मटूकनाथ पैदा नहीं हुआ।”११ आभा जी ने आपने ऊपर हुए अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए
पुलिस, न्यायालय के दरवाजे को खटखटाया। लेकिन पति
और उसके प्रेमिका को लोगों के सामने अपमानित करने के कारण किसी महिला संगठन ने
उनका साथ देने के लिए पीछे हट रहे थे। तलाक देकर अथवा पुलिस थाने में केस दर्ज
करके अपने आक्रोश को प्रकट कर सकती थी। लेकिन उनके इस प्रकार के हरकत से उनको ही
अपमानित होना पड़ा। दूसरी तरफ से विचार करेंगे तो आभा जी करना सही था; क्योंकि पहली बार उन्होंने समारोह में अपने पति के बारे में
कहा तो किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी थी। अगर वे इस प्रकार पति और प्रेमिका को
कैमरे के सामने नहीं लाती तो शायद लोगों को यह पता भी नहीं चलता था। प्रो.मटुकनाथ
अपने अधीन में पीएच.डी करने के लिए आनेवाली छात्राओं के साथ ऐसा ही व्यवहार करते
थे। कुछ छात्राएँ उनके इस करतूत के लिए मान जाती थी तो कुछ इसका विरोध करती थी। तो
ऐसे छात्राओं से माफी मांगकर प्रोफेसर छुप हो जाते थे। इनका यह प्रेम प्रकरण पहला
भी नहीं था और अंतिम भी। आभा जी कहती हैं कि उनके पति हर महात्वाकांक्षी छात्रा के
साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। छात्राओं को अधिक अंक देकर उन्हें आकर्षित करना और
अपने अधीन में रखकर उनसे प्रेम का नाटक करना।
मीडियावाले किसी घर को बचाते या नहीं पता नहीं, लेकिन परिवार को तोड़ने का काम बहुत अच्छी तरह से करते हैं।
उनके लिए ऐसी घटनाएँ मात्र एक मनोरंजन का कार्यक्रम हैं और ऐसी घटनाओं को लेकर
बार-बार चर्चाएँ करते हैं और प्रसारित भी करते हैं। उन्हें सिर्फ अपने टी.आर.पी से
लेना-देना है। कुछ दिनों तक यह खबर प्रसारित हो गयी। लेकिन जैसे ही कुछ नयी न्यूज
मिली तो इस प्रकरण को भूल देते हैं। यह प्रकारण अनाथ जैसा बन जाता है।
प्रो.मटुकनाथ और मीडिया के बीच अगर किसी को अन्याय हुआ है तो वह आभा जी को।
मटुकनाथ और जूली तो अपने किए हुए गलती को शान से बता रहे थे और मीडियावाले कुछ
दिनों तक इस विषय को जोर देकर बाद में कोई नये विषय के पीछे दौड़ गये। आभा जी और
उनके बच्चों के मानसिक, सामाजिक स्थिति को पूछनेवाला कोई
नहीं था। यह कहानी फूनलदेवी, भंवरी देवी और
आभा तक सीमित नहीं है। ऐसी अनगिनत महिलाएँ हैं जो इस बाजारीकरण, मीडिया के प्रभाव के कारण अथवा विवशता के कारण शोषित हैं।
बाजारीकरण के कारण नारी मात्र एक वस्तु बनकर रह गयी है।
संदर्भ
ग्रंथ –
१. अंतर्जाल
२. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २०३
३. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २०७
४. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २१०
५. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २१७
६. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २१७
७. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २१४
८. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २१९
९. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २२५
१०. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं - २२६
११. सुधा अरोड़ा – आम औरत जिंदा सवाल – पॄ सं – २३६
१२. डॉ.शिवप्रसाद शुक्ल – वैश्वीकरण एवं हिंदी गद्य साहित्य – १९०-१९१
१३. डॉ.कृष्णकुमार रत्तू – नया मीडिया संसार
- श्री.संगमेश नानन्नवर,प्रवक्ता, हिंदी विभाग,मंगलूर विश्वविद्यालय कॉलेज,हंपनकट्टा, मंगलूर-575001,कर्नाटक, भारत,संपर्क:09481051675,snanannavar@gmail.com
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