चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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(पहली
कड़ी - जब ग़ालिब-ओ-मंटो की अर्ज़ी ठुकराई गयी)
पात्र
दरबान
2 - जहन्नमपर
का दरबान
सआदत
हसन मंटो
मिर्ज़ा
असदुल्लाह ख़ाँ 'ग़ालिब'
दृश्य
1
(दो इंसान अलग-अलग रास्तों से आ रहे हैं और एक जगह आकर दोनों एक-दूजे से
टकरा जाते हैं।)
ग़ालिब
–
तुम्हें मैंने पहचाना नहीं मियाँ। कौन हो तुम और तुम मुझे कैसे
जानते हो?
मंटो
–
मेरा नाम सआदत हसन मंटो है मगर लोग मुझे बस मंटो बुलाते हैं। जब
पैदा हुआ तो हिन्दुस्तानी था, उसके बाद पाकिस्तानी हो गया,
तो अब मैं पाकिस्तान से हूँ।
ऐसा लोग कहते हैं।
ग़ालिब
–
पाकिस्तान? ये कौन-सी जगह है मियाँ? मैंने तो पहले कभी सुनी नहीं।
मंटो-
ये एक नया मुल्क है चचा। हिन्दुस्तान से अलग होकर बना है। हिन्दुस्तान का बँटवारा
हो चुका है।
ग़ालिब
–
पता नहीं मंटो।जबसे यहाँ आया हूँ, तबसे ख़त
मिलने भी बंद हो गए। अब कोई ख़बर भी नहीं आती।
वैसे ये तक़सीम हुआ क्यूँ?
मंटो-
ये एक लम्बी दास्ताँ है चचा। इसे तारीख़ ने
वक़्त के सीने पर ख़ून की स्याही से दर्ज़ किया है। कभी फ़ुर्सत में आपको ये दास्तान
सुनाऊँगा मैं। फ़िलहाल ये बताइए आप अभी
तूफ़ान की तरह जा कहाँ रहे थे?
ग़ालिब
–
मैं जन्नतनगर जा रहा था।
वहाँ अन्दर जाने की अर्ज़ी दे रखी है। और तुम?
मंटो-
अर्ज़ी तो जन्नतनगर में मैंने भी दे रखी है, मगर अभी मैं जहन्नमपुर जा रहा था। ये
देखने कि वहाँ की अर्ज़ी का क्या हुआ।
ग़ालिब
–
अच्छा! ये बात है। देखो,
अर्ज़ी तो मेरी भी जहन्नमपुर में पड़ी है। एक काम करते हैं फिर साथ ही जन्नतनगर में पता
करते हैं कि अर्ज़ी की आवाज़ कहाँ तक पहुँची है। अगर जन्नतनगर में बात बन गई,
तो ठीक है , नहीं बनी तो फिर वहीं से जहन्नमपुर भी चल चलेंगे। क्या ख़्याल है तुम्हारा?
मंटो-
नेकी और पूछ-पूछ। आईये चलते हैं फिर।
(दोनों चलते हुए जन्नतनगर के दरवाज़े तक आते हैं)
दृश्य 2
दरबान
1 - (ग़ालिब से ) कौन हो तुम?
ऐसे टुकर-टुकर क्या देख रहे हो ? जाओ, यहाँ से।
ग़ालिब - “होगा
कोई ऐसा भी जो ‘ग़ालिब’ को न जाने
मंटो
- शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।”
दरबान
1
– निकलो यहाँ से तुमलोग ?
ग़ालिब
–
अरे! मियाँ इतने जोश में क्यों हो? ठहर जाओ
ज़रा। बात-बात पर इतना ग़ुस्सा करना
तुम्हारे सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा।
दरबान
1
– ये तुमदोनों मक्खन लगाना बंद करो। ये तुम्हारी दुनिया नहीं
है। यहाँ मक्खन लगाने की इजाज़त नहीं है।
मंटो
–
भाई! अब तुम ठुमरी में मल्हार मत मिलाओ।
दरबान
1
– क्या कहा तुमने ? बात समझ नहीं आई मुझे।
मंटो
–
बात समझने के लिए ज़मीन पर पैदा होने की ज़हमत करनी पड़ती है। वो तुम जन्नतवालों से होगी नहीं। अंकल सैम की
तरह आराम करने की आदत जो पड़ गई है।
दरबान
1
– ये क्या बके जा रहे हो तुम दोनों ? और अब ये
अंकल सैम कौन है ?
मंटो
–
वो जो भी हैं तुम्हरे इस जन्नत में नहीं पाए जाते हैं।
दरबान
1
– क्या मतलब है तुम्हारा? हमारे जन्नत में सब
पाया जाता है।
मंटो
–
तुम्हरे जन्नत में दिल नहीं है और न दर्द।
दरबान
1
– क्या? क्या?
ग़ालिब
–
“मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ,
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है।”
दरबान
1
– क्या मुद्दआ है फिर ?
ग़ालिब
–
बात ये है मियाँ कि हमने यानि हमदोनों ने अन्दर आने की अर्ज़ी दी थी,
तो हम ये जानने आए थे कि उसका क्या हुआ।
दरबान
1
– मुझे नहीं पता। कल
आओ। साहब यहाँ नहीं हैं।
मंटो
–
यहाँ भी साहब हैं?
ग़ालिब
–
कौन से साहब ?
दरबान
1
– वही साहब जो तुमलोगों की अर्ज़ी देखकर ये बताएँगे कि तुमलोगों को
अन्दर आने की इजाज़त दी जाए या नहीं।
मंटो
–
(ग़ालिब से) चच्चा यहाँ भी अफ़सरशाही है, हमारा
कोई भला नहीं हो सकता। अफ़सरशाही अवाम की सबसे बड़ी दुश्मन है। जब सरकारें अवाम से
सीधे बातचीत न कर अफ़सरशाही का राह पकड़ती है, अवाम की भलाई का
अंत वहीं हो जाता है। मुझे तो लगा था कि
दुनिया से कूच करूँगा, तो इससे छूटकारा मिलेगा। मगर ये तो यहाँ भी पीछे पड़ी है।
ग़ालिब
–
दिल छोटा न करो मंटो। आओ,
जह्न्नमपुर चलके देखते हैं।
हमारी अर्ज़ियों का वहाँ क्या हाल है।
मंटो
–
हाँ चच्चा , आईए चलते हैं.
(फिर दोनों जहन्नमपुर की ओर रवाना हो जाते हैं और वहाँ पहुँचकर उसके दरवाज़े
पर दस्तक देते हैं।)
दृश्य
3
दरबान
2-
कौन है बे ? ऐसे दरवाज़े काहे पीट रहे हो?
चढ़ाके सीधे-सीधे यहीं आ गए हो?
ग़ालिब
–
(मंटो की तरफ़ देखते हुए) कैसा बदज़बान है ये ? बात
करने की तमीज़ भी नहीं है।
मंटो-
चचा आप भी न दिल पे ले रहे हैं अब। अरे! ये जहन्नमपुर है। अब यहाँ ये हमारे
इस्तक़बाल में कोई फूलों की थाल लिए तो आएँगे नहीं।
ग़ालिब – बात
तो तुमने बड़ी दुरुस्त कही है।
दरबान
2
– (दोनों को टोकते हुए) हाँ, तुमलोगों ने
बताया नहीं कि यहाँ क्या कर रहे हो भला? यूँ यहाँ मजलिस
लगाना मना है।
मंटो- भाई साहब हमारा मजलिस लगाने का यहाँ कोई
इरादा नहीं है। ऐसा नेक ख़्याल तुम्हें ही
मुबारक हो।
दरबान
2
– फिर तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो? और कहाँ
से आए हो?
ग़ालिब-
भाई ! जन्नतनगर में अन्दर जाने की अर्ज़ी दी थी। उसी के बारे में पूछताछ करने के
लिए गया था। जब कोई माक़ूल जवाब नहीं मिला,
तो सोचा यहाँ से होता चलूँ क्योंकि यहाँ भी हम दोनों ने अर्ज़ी दे रखी
है ।
दरबान
2-
जन्नतनगर से आ रहे हो. (ऐसा
कहते हुए वो हँसने लगा) हा! हा! हा! ...
मंटो
–
भाई ये तुम दाँत क्यों दिखा रहे हो, हमें
तुम्हारे दाँतों में कोई दिलचस्पी नहीं है।
दरबान
2-
तुमलोगों के जन्नतपुर जाने की बात से हँसी आ गई मुझे।
ग़ालिब-
मियाँ तुम्हारा जन्नत और जहन्नम का क्या झगड़ा है, हमें नहीं मालूम। तुमलोग अपनी सियासत में हमलोगों को मत घसीटो। हमने यहाँ
सालों गुज़ार दिए मगर अभी तक रहने की जगह नहीं दी गई। ये कुछ वैसे ही जैसे मेरे हक़
का पेंशन देने में भी ब्रितानी सरकार ने ज़माना लगा दिया था।
मंटो-
और ठीक वैसे ही जैसे अदालत होते हुए भी लोगों को इंसाफ़ मिलने में इतना वक़्त लग
जाता है कि उनके हालात पत्थर से पानी बन जाते हैं।
दरबान
2
– तुम लोग अपनी रामकहानी बंद करो। जन्नत की बात पर थोड़ी हँसी क्या
आई, क्लास के मास्टर की तरह तुमलोग शुरू हो गए।
मंटो
–
फिर हँसे क्यूँ तुम?
दरबान
2
- तुमलोगों की ऐसी कोशिश पर
हँसी न आएगी तो और क्या आएगा। जन्नतनगर
अमीरों का वो इलाक़ा है, जहाँ किसी भी बाग़ी या ग़रीब को रहने
की बिल्कुल भी इजाज़त नहीं है। और तुम लोग वहाँ अपना ठिकाना ढूँढने निकले हो,
तो हँसूँ नहीं तो क्या करूँ।
आदम ने बग़ावत किया था, उसको जन्नत से बहार निकाल
दिया।
ग़ालिब
–
ये क़िस्सा तो मैंने भी सुना है।
मंटो
-मतलब हमें वहाँ रहने को जगह नहीं मिलेगी।
दरबान
2
– वो मुझे नहीं पता, मैं कोई ज्योतिषी या
नुजूमी नहीं। मगर ज़्यादा उम्मीद यही है कि नहीं मिलेगी।
ग़ालिब-
(दरबान 2 से मुख़ातिब होते हुए) ठीक है, वहाँ
जो होना होगा, सो होगा। तुम्हारे यहाँ जो अर्ज़ी दी थी, उसका क्या हुआ।
दरबान
2-
मुझे क्या प़ता? देखकर बता सकता हूँ। नाम क्या
है तुम लोगों का?
ग़ालिब
–
“वो पूछते हैं कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाए कि हम बतलाएँ क्या।”
दरबान
2-
क्या है ये? मैंने बस नाम पूछा है, तुम्हारी ख़ैर-ख़बर नहीं।
मंटो
–
ग़ालिब और मंटो।
दरबान
2-
मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब! सआदत हसन मंटो!
(दोनों हाँ-हाँ बोलते हैं।)
तो
तुममें से एक शायर है और एक अफ़सानानिगार। अब तो ये बात तय हो गई कि तुम्हें
जन्नतनगर में कभी भी अन्दर जाने की इजाज़त नहीं दी जाएगी।
ग़ालिब-
ऐसा क्यों है भला?
मंटो
–
अफ़साना लिखना या शायरी करना कोई गुनाह तो नहीं।
ग़ालिब
–
कोई कुफ़्र भी नहीं।
दरबान
2
– लिखनेवाले लोग पैदाइशी और क़ुदरती तौर बाग़ी होते हैं, वो दिमाग़ चलाते हैं और दिमाग़ चलानेवालों से जन्नतनगर को हमेशा डर लगता
है। आदम ने दिमाग़ चलाया था, क्या हश्र हुआ उसका। तबसे किसी भी दिमाग़ वाले
को अन्दर जाने की इजाज़त नहीं
है।
ग़ालिब
–
मियाँ तुम हमें यूँ अपनी बातों में न लगाओ। बल्कि ये बताओ हमारी
अर्ज़ी कहाँ तक पहुँची है? हमें यहाँ रहने की इजाज़त मिलेगी या
यहाँ भी ...
मंटो- यहाँ न रहने देने के लिए तुम्हारे पास भी ऐसे कोई
ग़ैरज़रूरी बहाने हैं क्योंकि हमदोनों शायरी करते हैं।
दरबान
2-
ऐसा कुछ नहीं है यहाँ। जहन्नम में बहुत जम्हूरियत है। ऐसा भेदभाव
नहीं होता है। लेकिन तुम्हें अभी तक यहाँ रहने की इजाज़त नहीं दी गई है।
मंटो
–
क्यों भाई?
ग़ालिब
–
हाँ , बताओ, बताओ।
दरबान
2
– ख़ून-ख़राबा किए हो?
मंटो
–
करने के लिए और कोई काम नहीं बचा था, जो ये सब
करते।
ग़ालिब
–
कैसी बेतुकी बात करते हो मियाँ तुम?
दरबान
2
– जहन्नम फिर तुमलोगों के नसीब में नहीं है, क्योंकि
तुमलोगों की ज़िंदगी की रसीद पर इतने गुनाह दर्ज़ नहीं हैं कि तुमलोगों जहन्नमपुर
में आने की इजाज़त दे दी जाए।
ग़ालिब
–
मतलब तुम भी भी हमसे डरते हैं।
दरबान
2-
डरे हमारे दुशमन! एक पल के लिए मान लो कि हमने तुम्हारी अर्ज़ी क़बूल
भी कर ली, तो भी तुमदोनों यहाँ अभी अन्दर नहीं आ पाओगे।
ग़ालिब
–
ये कौन-सा फ़लसफ़ा है मियाँ? मान भी लें और
अन्दर भी नहीं आ सकते।
दरबार
2-
ये कोई फ़लसफ़ा नहीं है बल्कि जहन्नम में जगह नहीं है अभी। बहुत भीड़
है यहाँ। यहाँ धक्कममुक्की चल रही
है। क़ाफ़िला का क़ाफ़िला इंतज़ार में है। जन्नतनगर किसी को अपनी बस्ती में को आने नहीं
देता, तो सब मुँह उठाए यहीं चले आते हैं, तो जगह की बड़ी क़िल्लत है भाई।
ग़ालिब
–
(थोड़ा
सुस्त्ताते हुए)“हज़ारों
ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी
कम निकले। ”
मंटो-
जगह नहीं है? यहाँ भी।
ग़ालिब
–
आओ! रात काटें मंटो। कल
सुबह फिर जन्नतनगर जाना है।
मंटो
–
हाँ, आईये चलते हैं अब।
(फिर दोनों वहाँ से चले जाते हैं)
(जन्नतनगर के दरवाज़े पर अगली सुबह का नज़ारा)
दृश्य
4
मंटो-
कल तुमने ही तो कहा था कल आने को यानि आज आने को।
ग़ालिब
– सो हम आ गए मियाँ।
दरबान
1
– तुमदोनों की अर्ज़ी नामंज़ूर कर दी गई है, इसलिए
तुमदोनों अब यहाँ से जा सकते हो।
ग़ालिब
–
ये भी कोई बात हुई भला?
मंटो
–
ऐसे क्यूँ जाएँ? तुमको बताना ही होगा कि अर्ज़ी
के ख़ारिज़ होने के पीछे की वजह क्या है?
दरबान
1
– अपना वक़्त ज़ाया कर रहे हो? सौ बातों की एक
बात अन्दर जाने की सूरत तुम्हें नसीब नहीं होनेवाली है।
ग़ालिब
–
वो हम देख लेंगे। तुम वजहें गिनाना शुरू करो।
मंटो-
हम सोचेंगे, हमें उसके बाद क्या करना है।
दरबान
1
– (ग़ालिब की ओर देखकर बोलते हुए )
तुमने मुसलमान होकर शराब पी है।
ग़ालिब
–
मुझसे किसी ने पूछकर मुझे मुसलमान तो बनाया नहीं, तो मैंने भी किसी से पूछकर शराब पी नहीं। एक ख़ता आपलोगों से हुई और दूसरी
हमने कर डाली , हिसाब बराबर हो गया।
मंटो
- मुसलमान , शराब ये सब क्या है? कोई और कमी निकालो भाई?
दरबान
1
– तुम तो चुप ही रहो? तुमने तो ख़ुदा की शान
में गुस्ताख़ी की है। तुम्हें तो कहीं भी जगह न दी जाएगी।
मंटो
–
अब तुम मुसलमान से ख़ुदा पर आ गए। वैसे मैंने कौन-सी गुस्ताख़ी की है
भला?
दरबार
1
– तुम वही मंटो हो न जो चाहते थे कि उसकी क़ब्र पर ये लिखा जाए-
“यहाँ सआदत हसन
मंटो दफ़न है।
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी
के
सारे अस्रारो-रमूज़ दफ़्न हैं-
वह अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच
रहा है
कि वह बड़ा
अफ़सानानिगार है या ख़ुदा।“
मंटो
–
इसमें तौहीन कहाँ से नज़र आ गई तुम्हें?
ग़ालिब
–
बड़े अहमक़ मालूम होते हो मियाँ तुम।
दरबार
1
– (मंटो को देखते हुए) ये
कहकर तुमने ख़ुदा से तुमने अपनी बराबरी करने की कोशिश की। ये ख़ुदा के ज़ात की तौहीन
है। अब भुगतो ख़ुदा की तौहीन का नतीज़ा।
मंटो
–
भाई इतनी अक़्लतुम्हें होती, तो तुम ज़मीन पर एकाध बार तो जन्म ले ही
चुके होते। अफ़साने या शायरी की तुमको इतनी समझ होती, तो
तुम्हारे हमारे साथ यहाँ खड़ा होते इस तरफ़। अहमक़! चचा ये तो बड़ा नामाक़ूल मालूम पड़ता
है।
ग़ालिब
–
(मंटो को समझाने जैसी शक़्ल बनाते हुए)"‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,
ऐसा
भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे। "
ग़ालिब
–
क्या बात है? उसे ज़ेहन से बाहर आने की आज़ादी
दो।
मंटो
–
जब हमारा ये हश्र है, तो कबीर का क्या हुआ
होगा। उसे तो ज़िंदा रहते भी लोगों ने क़बूल नहीं किया। पंडितों ने सारी उम्र उसे
हिन्दुओं के ख़िलाफ़ माना, मौलवियों ने उसे मुसलमानों के ख़िलाफ़
समझा। मगर कबीर तो बस इंसान और इंसानियत के हक़ में बोलता था। सोचिये चचा उसके
ख़िलाफ़ इन पंडितों और मौलवियों ने कितनी लानतें भेजी होंगी, कितनी
शिकायतें दर्ज़ कार्रवाई होंगी। वो भी फिर हमारी ही तरह यहीं कहीं भटक रहा होगा,
है न? बीच में कहीं लटका हुआ।
ग़ालिब
–
तुम्हारी बात में दम तो है।
मंटो
–
चलिए फिर कबीर को ढूँढते हैं।
ग़ालिब
–
आओ चलें फिर और क्या।
“निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन, बहुत बेआबरू
होकर तेरे कूचे से आज हम निकले।”
(ये शेर गुनगुनाते हुए दोनों वहाँ से चले जाते हैं।)
-अगली कड़ी जब मंटो और ग़ालिब कबीर से मिले।
धीरज कुमार, शोध छात्र (फ्रेंच विभाग) अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद, संपर्क-9618544072, dheeru.ghazal@yahoo.com
beautifully written 👍👍 keep it up 👍
जवाब देंहटाएंनाटक के लिए क्या खूब ज़मीन चुनी है भाई, बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक नाटक है. बधाई.
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