त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आधी दुनिया:विवेकानंद का स्त्रीबोध: वर्तमान परिप्रेक्ष्य – अजय कुमार साव
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
आज स्त्री-शिक्षा की बात करना सामंती कहलाना है। आशय यह लिया जा सकता है कि स्त्री के लिए पुरुष के हित में दिया गया उपदेश। यदि यह नहीं है, तो अलग से स्त्री-शिक्षा की बात क्यों? विवेकानंद स्त्री-शिक्षा पर ज़ोर देते हुए स्त्री को मानसिक धरातल पर आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। ' स्वामी विवेकानंद और नारी चेतना' लेख में इंदिरा मोहन ने विवेकानंद की स्त्री-शिक्षा के उद्देश्य पर लिखा है --" हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है, न किसी को करना ही चाहिए।"(1/12/13; 01:03:01PM)1 सवाल यह किया जाना चाहिए कि वह कौन सी स्थिति है जिससे स्त्री को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है और जिस स्थित में पहुँचाने का लक्ष्य है, उसकी क्यों और कैसी अनिवार्यता है? साथ ही सबसे बड़ा और ज़रूरी सवाल यह कि किन स्त्रियों को आगे बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इन्हीं तीनों सवालों के परिप्रेक्ष्य में उनका स्त्री-बोध अपनी वर्तमान अर्थवत्ता को अपनी आध्यात्मिकता-भौतिकता में समेटे हुए है। इस दिशा में आगे बढ़ने के पहले विवेकानंद की स्त्री-शिक्षा के स्वरूप और उद्देश्य पर भी एक नज़र डालना अपेक्षित है ---" हम चाहते हैं कि भारत की स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए जिससे वह निर्भर होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भली-भाँति निभा सकें और संघमित्रा, सीता, अहिल्या बाई, मीरा बाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलाई गई परंपरा को आगे बढ़ा सकें।( स्वामी विवेकानंद और नारी चेतना, इंदिरा मोहन, 1/12/2003, ) यहाँ कई सवाल जुड़ जाते हैं कि इन महान देवियों की परंपरा क्या रही? साथ ही उस परंपरा की उनके समय में कैसी अनिवार्यता रही? नवजागरण काल में स्त्री की सामाजिक-राष्ट्रीय भूमिका को इन देवियों की परंपरा से किन मायनों में उपलब्धि-लाभ हो सकता था? 'सीता बनिये' का उपदेश किन स्त्रियों के लिए रहा एवं क्यों? किन स्त्रियों से उनका यथार्थ स्त्री-बोध निर्मित हुआ? उनके स्त्री-बोध में भारतीय और पाश्चात्य स्त्री-यथार्थ का कौन-सा संदर्भ प्रेरक एवं सृजनात्मक रहा? आज संघमित्रा, सीता, अहिल्या बाई, मीरा बाई की परंपरा का कैसा सरोकार देखा जाए? अभाव उसी का महसूस होता है, जो अनिवार्य होते हुए भी असंभाव्य प्रतीत होने लगे और इसकी आपूर्ति के प्रयास अभियान बन जाए। किन आपूर्तियों के कारण इन स्त्री-ऐतिह्य की अनिवार्यता विवेकानंद ने महसूस की एवं नवजागरण के दौरान इनकी ऐतिहासिक अनिवार्यता कैसे बन पड़ी, यह विवेकानंद के स्त्री-बोध का अनिवार्य पहलू है।
आधुनिकता के पीछे निहित नवजागरण की दिशा में सीता, संघमित्रा, मीरा, अहिल्याबाई की परंपरा का अनिवार्यताबोध विवेकानंद के स्त्री-बोध को अवश्य ही विशेष बनाता है। 'सीता बनिये' की शिक्षा आज स्त्री के लिए सर्वाधिक अपमान ही नहीं, उसे अस्तित्वहीन बनाने का षड्यंत्र भी प्रतीत होती है। इसके पीछे राम के प्रति मौन-मूक, पतिपरायणा, अस्तित्वहीन सीता का पत्नी रूप ही कारण है। सवाल सह है कि हमारा समाज सीता के पत्नी रूप को नकारता है, पर मातृत्व व्यक्तित्व को नोटिस में लेना ज़रूरी । स्त्रीत्व का आशय विवेकानंद मातृत्व के संदर्भ में लेते हैं। उनका विचार है ---" the ideal womenhood of India is motherhood that marvellous, unselfish, all suffering, ever forgiving mothers."3 सवाल यह है कि मातृत्व का यह त्यागमयी स्वरूप अपनी ऐतिहासिक भावभूमि पर अवश्य ही सराहनीय है, पर नवजागरण के दौर में मातृत्व के ऐसे संदर्भ की क्या उपलब्धि हो सकती है? सच तो यह है कि सीता के मातृत्व को महज़ पालन-पोषण तक सीमित कर देखने में आनंद-लाभ किया जाता रहा है। लव-कुश के प्रति शिक्षा-कर्म में संलग्न सीता का स्मरण एक सिरे से ग़ायब है। विवेकानंद की स्त्री-चेतना पर इंदिरा मोहन की टिप्पणी अवलोकनीय है ---"निरक्षर, पिछड़ी, आधिकारविहीन, घर की चार दीवारी में क़ैद माताओं की गोद में पलकर पुरुष वर्ग निरंतर बहलाने और कमज़ोर हो रहा है। उन्होनें तत्काल स्त्री-जागरण का शंखनाद किया।" (स्वामी विवेकानंद और स्त्री चेतना : इंदिरा मोहन, तारीख़ : 01/12/2013, 01:03:01PM) यहाँ स्त्री-जागरण का शंखनाद स्त्री के शिक्षित होने को लेकर है, ना कि नौकरीशुदा होने को लेकर। स्त्री-शिक्षा के मातृत्व संदर्भ की उपयोगिता विवेकानंद के युगीन संदर्भ को लिए है। आज नौकरी शिक्षा लक्ष्य है, तब परिवार-समाज के प्रति सृजनात्मक उपलब्धि शिक्षा का उद्देश्य रहा। लव-कुश द्वारा अर्जित सामर्थ्य में सीता के योगदान का विस्मरण हमारा स्वभाव हो सकता है, पर आज उसका अनुपालन अपना महत्व रखता है।
सीता की परंपरा को उसकी पतिपरायणा निरीह पत्नी के रूप में सुरक्षित पाते हैं। एक और रूप रहा सीता का, जिस ओर ध्यान आकर्षित किया जाना अनिवार्य है, विशेषकर सीता की परंपरा को उसकी संपूर्णता में समझने के लिए। मातृत्व संतान को जन्म देने तक सीमित नहीं है। पोषण कर्म मातृत्व के प्राण तत्व हैं। मणिमाला ने 'परंपरा और आधुनिकता के बीच' शीर्षक में लिखा है ----"सीता ने एक आम औरत की तरह सुबह से काम-धाम करते हुए अपनी रक्षा की। उसने यह नहीं कहा कि पति के अस्वीकार के बाद अब उसकी ज़िंदगी का कोई अर्थ नहीं। उसने राम के बिना भी अपनी ज़िंदगी को नया अर्थ दिया। राजस्व सुख-सुविधा छिन जाने का ज़रा-सा भी संताप उसे नहीं हुआ। उसके सामने बस एक ही उद्देश्य रहा की वह अपने उस बच्चे को जन्म देगी जिस गर्भ की पवित्रता पर ही सवाल उठाकर उसे जंगल भेज दिया गया है। उसने अपने बच्चों को जन्म दिया। पाला-पोसा' धनुर्विद्या सिखायी और एक दिन राम का मुक़ाबला करने के क़ाबिल बनाया। वे लव-कुश ...... संधर्षशील, चिन्तनशील, सतत क्रियाशील, अकेली सीता, बिना राम की सीता के पुत्र थे। .. हमने राम से अलग कर दी गई इस सीता की संघर्ष यात्रा में रुचि तो ख़ूब ली, लेकिन परंपरा का हिस्सा नहीं बनाया। " (स्त्री, परंपरा और आधुनिकता, संपादक : राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2004,पृष्ठ : 158)
आज मृदुला गर्ग स्त्री-लेखन की उपलब्धि के रूप में मातृत्व के रूपक की चर्चा करती हैं। विवेकानंद के निकटतम दौर का स्मरण करें कि हरिऔध राधा की सेविका रूप को विषय बनाते हैं। जयशंकर प्रसाद चंपा के सेवा भाव को 'देवी' का दर्जा दिलाते है। सामाजिक-राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री की सहभागिता अनिवार्य प्रतीत हो रही थी। ये सारे संदर्भ स्त्री के शिक्षित, समर्थ व्यक्तित्व के मातृत्व-बोध का ही परिचय देते हैं। मातृत्व के तहत संतान के प्रति जो दायित्वबोध सीता का रहा, उसके पीछे पुरुष-वर्चस्व समाज चुनौती की तरह रहा, पर आज संतान के सुख-सुविधा को लेकर स्त्री-बोध का जो रूप निर्मित हुआ है उसके पीछे अर्थ-संस्कृति से सुशोभित बाजार है। विवेकानंद कि इस स्त्री-बोध में युगीन सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकार है। आज संतान के पालन-पोषण का दायित्व अकेले माँ पर नहीं है। पिता भी जुड़े रहें, यह स्वस्थ दृष्टि मानी जाती है। पर, वास्तविकता तो यह है कि जब स्त्री अपनी सक्रियता में स्त्रीत्व के मातृत्व धर्म में चूक जाती है, तब पुरुष कहाँ तक समर्थ हो पाएँगे। कारण जो भी हो, परिणाम से आँखें नहीं चुरा सकते है। वर्तमान दौर में संतान के भविष्य को लेकर अपनी द्रुत सक्रियता के बावजूद संक्रमित, प्रदूषित पीढ़ी ही सामने आ रही है। विवेकानंद के मातृत्व-बोध के संदर्भ में आज की शिक्षित स्त्रियों का मातृत्व स्वयं में विडंबना है। पत्नीत्व की कौन कहे, मातृत्व भी स्त्री की व्यक्ति-सत्ता के विकास में बाधक प्रतीत होता है। एक मान उद्देश्य के लिए गौतम बुद्ध के मार्ग में उनका पति एवं पिता रूप बाधक ही रहा, पर आज स्त्री की व्यक्ति सत्ता की उपलब्धि के मार्ग में संतान का बंधक बनना स्त्री के आत्मकेंद्रित स्वरूप का ही परिचय देता है। महादेवी वर्मा ने कहा था कि यदि नौकरी करनी है, तो स्त्रियाँ बच्चे पैदा नहीं करें। आशय यही रहा कि बच्चे का पालन-पोषण बाधित होगा या माँ के रूप में एक स्त्री का कैरियर बर्बाद हो जाएगा। आज का सच है कि माँ से महरूम पीढ़ी घर-घर में मन्नू भण्डारी का बंटी बनने की दिशा में है।
संघमित्रा, मीरा, अहिल्याबाई की परंपरा में विवेकानंद का स्त्री-बोध सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकारों से अवश्य ही समृद्ध होता है। अहिल्याबाई अपने सामाजिक कर्मों से पहचानी जाती हैं। तीर्थों-मंदिरों के अलावा आम जन के सुख-सुविधा के लिए घाट, कुँआ, बावड़ियों बनबवाने के साथ-साथ भूखों के लिए अन्न-सत्र और प्रयासों के लिए प्याऊ की भी व्यवस्था की। शास्त्रों पर चिंतन-मनन के लिए विद्वानों की नियुक्ति भी की। अहिल्याबाई को उनके समकालीन न्यायाधीश रामशास्त्री की परंपरा में देखा जाता है, जिनके बाद झाँसी की रानी का इतिहास निर्मित होता है। जनता की नज़र में अहिल्याबाई 'देवी' कहलाने लगीं। संघमित्रा ने अपने पिता अशोक की प्रेरणा से बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना जीवन समर्पित कर दिया। मीराबाई ने घर-परिवार में स्त्री के प्रति बनी स्त्रीत्व संबंधी सामंती धारणा का विरोध कर स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व का अनुभव कराया। स्मरण रहे कि भारतेंदु भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो निबंध लिखकर स्त्री संबंधी जिन सामंती मूल्यों का परिष्कार-बहिष्कार अनिवार्य बता रहे थे, उसका इतिहास सर्वप्रथम मीराबाई ने अपने समय में ही रच दिया था। सती प्रथा, पर्दा प्रथा का विरोध मीरा ने पहले ही कर दिया था। इसके अलावा भ्रूण हत्या, बाल विवाह, विधवा विवाह जैसे मुद्दों पर मीरा की परंपरा असंभव को संभव बनाने वाला ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाना अनिवार्य प्रतीत हुआ।
सीता, अहिल्याबाई आदि मिथकीय एवं ऐतिहासिक स्त्री पात्रों को सामाजिक एवं राष्ट्र्ीय परिप्रेक्ष्य में स्मरणीय बताया। जिनका वर्तमान रूप तमाम अंतर्विरोधों के साथ महिला संगठनों, स्व-निर्भर समूहों, राजनेता, सेना एवं वैज्ञानिकों के रूप में सक्रिय स्त्री-समाज में देखा जा सकता है। युग संदर्भों का बदलना जितना स्वाभाविक है, वर्षों पूर्व के संदर्भों का बदले आशय में लिया जाना उतना ही अनिवार्य। सीता का मातृत्व आज की स्त्री को उतना भले ही रोज़गार के लिए प्रेरित ना करें, एक स्त्री के लिए रोज़गार में शामिल होना या नौकरी करना प्रथमत: व्यक्ति-सत्ता को तृप्त करता है और अंतत: मातृत्व-बोध को। यह अवश्य है कि आज स्त्रीत्व और मातृत्व का अनुपात अपनी यथार्थ भूमि पर, व्यावहारिकता के नाम पर अधिक से अधिक असंतुलित ही होता जा रहा है। इस कारण महिलाओं का एक वर्ग भले ही बच्चों के लिए नौकरी छोड़ रही हैं, पर जिस सोच और निष्ठा से अपनी बेटियों को बेटों के बराबर शिक्षा और नौकरी की दिशा-बोध करा रही हैं, उसमें अपनी जैसी माताओं की संभावनाओं को एक सिरे से फ़ालतू की चीज़ महसूस करा रही हैं। दूसरी ओर मीरा के सामंती आचरण के प्रति विद्रोह को आज विमर्श के नाम पर पुरुष से समानता के नाम पर पुरुष की विरोधिता में ही समाप्त होते देखते हैं। स्त्री अस्मिता के पक्ष में किया गया विद्रोह यदि एक सार्थक व्यवस्था को जन्म नहीं दे पाए, तब विद्रोह स्वयं में विडंबना बन जाता है। आज पुरुष वर्चस्व के पारिवारिक परिवेश से मुक्त स्त्री को पुरुष वर्चस्व के बाज़ारू परिवेश में हँसते -खिलखिलाते देखना एक विडंबना का 'रुटीन' बन जाना है। अन्य दिशा में संघमित्रा और अहिल्याबाई अपने सामाजिक, राष्ट्रीय संघर्ष में नव-जागरण के समृद्धि प्रदान करती रही और आज प्रत्यक्षत: स्त्री की राजनीतिक सहभागिता को भले ही अनिवार्य महसूस कराती हैं, पर वर्तमान राजनीति की दिया में महिलाओं की वर्तमान उपस्थिति 'रबर स्टैंप' से बहुत अधिक हो, ऐसा नहीं है। यदि कहीं तमाम विसंगतियों से गुज़रते हुए, राजनीतिक अवसर-लाभ करती भी हैं, तो मृदुला गर्ग की कहानी 'मेरे देश की मिट्टी, अहा' की नायिका की भाँति आत्मकेंद्रित हो जाती हैं या रंजनी गुप्त के उपन्यास ' ये आम रास्ता नहीं' की नायिका की भाँति राजनीति को महिलाओं के लिए असुरक्षित बताती हैं।
विवेकानंद के अध्ययन और उनके समसामयिक पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भों के पारस्पर्य में जो स्त्री-बोध निर्मित हुआ, उसका आज विस्तार को दिखता है, पर सरोकार के धरातल पर उसका स्वीकार विडंबनात्मक ही अधिक दिखता है। विवेकानंद का स्त्री-शिक्षा का मूल मंत्र आत्मनिर्भरता, वर्तमान दौर में आर्थिक आत्मनिर्भरता में विसर्जित होती जा रही है। यह चिंता के साथ-साथ चुनौती भी है। अपने समय में ही उन्होंने अनुभव किया कि जो भारतीय स्त्रियाँ अपने अतीत में ' spiritual, genius and great strength of mind' का पर्याय रहीं, वे उनके समय में 'nothing but eating and drinking, gossip and scandal' पर्याय बनती जा रही थीं। मिल तक एवं इतिहास का अध्ययन वर्तमान के यथार्थ के समक्ष उदाहरण स्वरूप अनिवार्य बोध को जन्म देता है, पर वर्तमान की दिशा का बोध अतीत के उदाहरणों को अवश्य ही मुँह चिढ़ाती दिख रही थी।
विवेकानंद के स्त्री-बोध का अध्यात्म उनके ही समय में भौतिकता की आँच में समूल जल रहा था। विशेष कर स्त्री पुरुष की समानता का आधुनिकता के दौरान जो मंत्रोच्चार हुआ, उसने स्त्री-पुरुष की पूरकता को सीधे-सीधे विरोधिता में बदल दिया। अवसर का समानता, लिंग की समानता में घटित हो गई। इसलिए स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंध जटिल होते विवेकानंद ने अपने समय में ही देख लिया था। विवेकानंद ने लिखा है---" उद्दण्ड स्त्रियाँ जैसे न सहन करना जानती हैं, न क्षमा करना, जो अपना स्वतंत्रता का यह अर्थ लगाती हैं कि पुरुष उनके चरणों में लोटते रहें और जो पतियों से अपनी इच्छा के प्रतिकूल कोई बात सुनते ही झगड़ा करने और चिल्लाने लगती हैं, ऐसी स्त्रियाँ संसार के लिए अभिशाप स्वरूप हैं। आश्चर्य की बात को यह है कि इसके कारण संसार के आधे आदमी आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते?' (विवेकानंद साहित्य, तृतीय खण्ड, पृ० 236) यहाँ जिन स्त्रियों को विवेकानंद ने देखा, उनके संबंध में जन्मा प्रतिबोध है। सीता यदि राम के समाज के स्त्री-बोध का प्रतिबोध है तो विवेकानंद का यह स्त्री-बोध उनके समय की स्त्रियों के स्त्रीत्व-बोध का प्रतिबोध है। वह सब कुछ जो पुरुष की पहचान रही है, पुरुष की समानता के कारण स्त्रियों का स्वभाव बन गया। ऐसी दिशा में स्त्री-स्वातंत्रय का अर्थ पुरुष का स्त्री पर 'पर-तंत्र' हो जाता है। और जो़ परिणाम स्त्री का होता रहा, वही पुरुष के साथ अवश्यंभावी घटित होता है। विवेकानंद ने देखा स्त्री की समस्याओं का समाधान उसकी समस्याओं का पुरुषों की समस्या बन जाना किसी भी सूरत में अपेक्षित नहीं है। यदि स्त्री का अपमान राष्ट्र के पतन का कारण दिखा, तो स्त्रियों के द्वारा पुरुष का सम्मान राष्ट्र का उत्थान नहीं बन सकता। स्त्री और पुरुष की पूरकता अनिवार्य है। एक ही परिणति में दूसरे की सोच की मुख्य भूमिका रहती है। इस पूरकता के संदर्भ में विवेकानंद के इस मंतव्य का उल्लेख कर सकते हैं। ---- " हम बहुधा संसार में बहुत से निर्दय पतियों तथा पुरुषों के भ्रष्टाचार के बारे में सुनते रहते हैं, परंतु क्या यह सच नहीं है कि संसार में ही निर्दय तथा भ्रष्ट स्त्रियाँ भी हैं। यदि सभी स्त्रियाँ इतनी शुद्ध और पवित्र होतीं, जितना कि वे दावा करती हैं, तो मुझे पूरा विश्वास है कि समस्त संसार में एक भी अपवित्र पुरुष न रह जाता। " (विवेकानंद साहित्य, तृतीय खण्ड, पृ०42)
स्त्री-विमर्श के वर्तमान परिदृश्य में विवेकानंद के ऐसे मंतव्य प्रत्यक्ष रूप से विमर्श के स्त्रीवादी चेहरे को अनर्थकारी बताते हैं। स्त्रीवाद के पुरुष विरोधी चरित्र के संदर्भ में ऐसे विचारों की अर्थवत्ता विमर्श को समग्रता प्रदान करती दिखाई पड़ती है। जब स्त्री की पवित्रता की बात उठती है, तब स्त्री समाज पुरुष की अपवित्रता को अपना ढाल बना लेता है। यही कारण है कि पुरुष की समानता करते-करते पुरुषों की अपवित्रता को अपना आचरण बना जाती हैं। ऐसी दशा में पवित्र पुरुष की कल्पना मूर्खता ही नहीं उदण्डता भी है। सीता, संघमित्रा, अहिल्याबाई की परंपरा के निर्वहन के दौर में ऐसी स्त्रियों का भी अनुभव विवेकानंद को प्रभावित करता रहा। दूसरी ओर अमेरिकन के बीच यह अनुभव हुआ कि अमेरिकन स्त्रियाँ विश्व में 'द ग्रैण्डेस्ट लेडी' है। इन स्त्रियों की सामाजिक- राष्ट्रीय सहभागिता में विवेकानंद को सबसे अधिक प्रभावित किया, तो साथ ही उनका सौंदर्य भी स्त्री-सौंदर्य के एकबारगी प्रभाव से विवेकानंद भी मुक्त नहीं रहे --" The American women are very beautiful" and by contrast" even the prettiest women of our country will look like a black owl there."9 विवेकानंद का यह विचार भले ही अंतरंग अभिव्यक्ति हो, पर उनका अनुभव होने के कारण विचारणीय भी है। स्त्री व्यक्तित्व में उसके सौंदर्य और कर्म पक्ष ने उन्हें अमेरिकन स्त्रियों से भारतीय स्त्रियों की तुलना करने को विवश किया। भारत की सबसे सुंदर स्त्री भी अमेरिकन की तुलना में उन्हें 'Black Owl' भले ही दिख जाए, पर भारतीय स्त्रियाँ अपने आध्यात्मिक स्वरूप में उन्हें श्रेष्ठ महसूस हुईं या अमेरिकन स्त्रियों से प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर सुखद अवश्य है, पर स्त्रीत्व के जिस आध्यात्मिक स्वरूप पर विवेकानंद को गर्व है, उसका स्खलन उन्हीं के समय में उन्हें अवश्य ही चिंता में डाले हुए हैं। ऐसा नहीं होता तो वे उदण्ड और स्वेच्छाचारी और इसीलिए अपवित्र स्त्रियों की चर्चा क्यों करते। मिथक व इतिहास से उदाहरण जुटा लेना एक बात है, और उन उदाहरणों के प्रतिकूल माहौल में जीना दूसरी और उससे भी ज़रूरी बात है। ज़रूरी बात इसलिए कि जिस सामाजिक, राष्ट्रीय सहभागिता को अहिल्याबाई, संघमित्रा, मीरा में उन्होंने देखा और अमेरिकनों में पाया, उनके समय की स्त्रियों में व्यक्तिगत धरातल पर उसका अभाव घटित होता दिखाई पड़ा। यह अभाव उनके स्त्री-बोध़ को अवश्य ही चुभन पैदा करने वाला बनाता है, पर वर्तमान स्त्री-परिदृश्य के प्रति उनकी दूरदर्शिता का भी बोध कराता है। स्त्री-शिक्षा का मुद्दा हो या सामाजिक, राष्ट्रीय सहभागिता का सारे सच्चे और सार्थक आयामों को स्त्री आज व्यक्ति-सत्ता के माध्यम से देखती हैं और स्वीकारना चाहती है। अध्यात्म का वह दौर लद गया, जब समाज एवं राष्ट्र के मार्फ़त स्त्री अपने स्वत्व की सत्यता, सफलता और सार्थकता को महसूस करें। शिक्षा का 'Man Making' स्वरूप आज 'Money Making' में तब्दील हो गया है। ऐसी स्थिति में विवेकानंद की स्त्री-शिक्षा का ऐतिहासिक महत्व हो सकता है, पर वर्तमान अर्थवत्ता नहीं बन पाती हैं।वर्तमान अर्थवत्ता युगीन संदर्भों में बदली हुई स्त्री के आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व को ही निर्मित कर रही हैं। समाज और राष्ट्र उसके दिनचर्या में नहीं है। विवेकानंद ने शिक्षित और आत्मनिर्भर मातृत्व के साये में समाज व राष्ट्र-बोध से समृद्ध संतान को स्त्री-शिक्षा का परिणाम मानते थे, पर आज स्त्री-शिक्षा की सफलता पुरुषों के बराबर धन-बल अर्जित करने में सुपरिणाम तलाशती है।
विवेकानंद की स्त्री-शिक्षा में निहित मनोकांक्षा उल्लेखनीय है -"निवेदिता, मैं बार-बार यही कहता हूँ कि हुम्हारे देश की नारियों की तरह आगे बढ़ने के लिए यहाँ की नारियों को शिक्षा मिलनी चाहिए। शिक्षा से उनमें आत्म-जागृति तथा आत्म-विश्वास आएगा, उन्हें अपने अस्तित्व का एहसास होगा। यह सारा एक शतक का कार्य है। अभी तो उसकी रूप-रेखा तैयार हो गई है।"--(- विवेकानंद तुम लौट आओ, पृ० 256, सुभांगीभरभरे, प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2013 ।) यहाँ जिस शिक्षा की बात की गई है, वह है आत्म-जागृति, आत्म-विश्वास द्वारा अस्तित्व-बोध की प्राप्ति का माध्यम। इसके लिए एक शतक की अवधि की बात भी की गई है। एक शतक पूरा हो चुका है, पर ऐसी किसी शिक्षा का अस्तित्व नहीं। माना गया शिक्षा लाती है चेतना, चेतना लाती है क्रांति और क्रांति लाती है मुक्ति। आज शार्टकट का ज़माना है। शिक्षा के साथ चेतना और क्रांति का कोई नाता नहीं, रोज़गार प्राप्त कर अर्थ-लाभ में सर्वोपरि मुक्ति उपलब्ध हो जाती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में स्त्री-शिक्षा सामाजिक सरोकार से कोसों दूर है। शिक्षा महज़ पुरुष की बराबरी का माध्यम है। शिक्षा के इस रूप में विवेकानंद की स्त्री-शिक्षा सुखद सपना मात्र है। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने तो और भी आत्म-केंद्रित बना दिया है। 'ना ऊधो का लेना, ना माघों को देना' वाली उक्ति चरितार्थ हो चुकी है। हालाँकि यह स्थिति पुरुष के संदर्भ में ही उतना ही सच है। सच तो यह है कि पुरुष की बराबरी में समय की विसंगतियों को अपनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है आज की स्त्री। इस दिशा में विवेकानंद का स्त्री-शिक्षा संबंधी बोध व्यर्थ ही प्रतीत होता है। विवेकानंद ने निवेदिता को संबोधित किया --"निवेदिता, स्वजाति, स्वतंत्रता, बुद्धि, रूप-लावण्य इन सभी पर अभिमान व गर्व करके तुम यदि इन अज्ञानी नारियों में घुल-मिलकर काम करने लगी, तो कुछ संभव होगा?" -- (उपरिवत्) । आज शिक्षित के नाम पर क्वालिफ़ाइड स्त्रियों को देख पाते हैं, विडंबना-सी। रूप-लावण्य के प्रबंधन में व्यस्त स्त्रियों की दिशा देखते ही बनती है। किसी पर्व-त्यौहार के मौक़े पर स्त्री के स्त्री-बोध को परखा जा सकता है। शिक्षिका हो या अशिक्षिता, दोनों के आचरण समान बोध से ग्रसित नज़र आते हैं।
विवेकानंद ने लिखा है ---" स्पर्धा से ईर्ष्या उत्पन्न होती है, और उससे हृदय की कोमलता नष्ट हो जाती है। " ( विवेकानंद साहित्य, तृतीय खण्ड, पृ० 46) 10 भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने भारत जैसे देशों में सबसे अधिक इज़ाफ़ा यदि किया तो हर क्षेत्र में अनिवार्य स्पर्धा में। स्पर्धा इतनी बढ़ी कि स्त्री-पुरुष का पारिवारिक-सामाजिक संबंध सबसे अधिक आहत हुआ। स्त्री-पुरुष का संबंध जितना संवेदनशील है, उसमें उससे कहीं अधिक स्पर्धा में जन्म ले लिया है। भाई बहन ही नहीं, प्रेमी-प्रेमिका तक भी इस स्पर्धा जनित ईर्ष्या से ग्रसित होने के कारण अपने-अपने आचरण में रूढ़ और इसीलिए कोमलता-आत्मीयता को खोकर प्रतिभागी और विजयी या पराजित बने हुए हैं। ऐसे ही संगतों में विवेकानंद ने स्त्री संदर्भ में 'पुरुष -परिणाम' को देखा है। 'आधे पुरुष आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते' और ' एक भी पुरुष अपवित्र नहीं रह जाता' ऐसी ही स्पर्धा का परिणाम है। यह माना जा सकता है कि कोमलता, सेवा, त्याग, समर्पण की स्त्री-छवि उनके समय में ही कलुषित हो चुकी थी, जिसकी तीव्रता और व्यापक प्रसार आज साहित्य में आने को भले ही प्रतीक्षित है, पर समाज और मीडिया में सहज-सुलभ।
विवेकानंद का स्त्री-बोध उनके मिथक और इतिहास के अध्ययन को आध्यात्मिक आधार यदि प्रदान करता है, तो सामाजिक-राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भौतिक दिशा भी। अमेरिकन स्त्रियों की सामाजिक-राष्ट्रीय सक्रियता ने समकालीन स्त्रियों के लिए अनिवार्य बोध निर्मित किया है, तो अध्यात्म-रहित अमेरिकन स्त्रियों का सौंदर्य उनके स्त्री-बोध को भारतीयता का गौरवशाली आधार भी प्रदान किया है। स्त्रीत्व को मातृत्व में समाहित कर विवेकानंद ने स्त्री को सर्वोपरि बताया, तो उसकी स्वेच्छाचारिता को उसके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप भी। अध्यात्म ओर भौतिकता के तुलनात्मक सतही संदंर्भों से ऊपर नव-जागरण के दौर में परंपरा और वर्तमान की स्त्री-दिशा में आज के भूमण्डलीय स्त्री-समाज को देखना-समझना इस कारण श्रेयस्कर प्रतीत होता है कि एक शताब्दी के बाद भी उनका भारतीय और पाश्चात्य अनुभवों से निर्मित स्त्री-बोध हमें हमारी भारतीयता के निकट खड़ा होने में मदद करता है। यदि आज पाश्चात्य स्त्री-बोध हमें आकर्षित किए है, तो भारतीय स्त्री-बोध हमारी समृद्धि को बचाए हुए है। वैसे वर्तमान आकर्षण से बच पाना असंभव-सा दिख रहा है।
अजय कुमार साव
एसिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिलीगुड़ी महाविद्यालय
सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग,
संपर्क;8509734578,shaw.ajaykumar1@gmail.com
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