त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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उपन्यास अंश:बिन ड्योढ़ी का घर – उर्मिला शुक्ल
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
मगर उनके कहने का, उन पर कोई असर नहीं था। और दर्द की हर लहर के साथ उनकी कमर और नीचे की देह का सारा हिस्सा जमीन से ऊपर उठ जाता और उसके साथ ही, एक चीख उभर कर, मड़हे के भीतर से बाहर तक फैल जाती थी।
उधर वे अर्थात श्रीकांत तिवारी भी बहुत ही बेचैन थे। और अपनी इस बेचैनी में वे मड़हे के द्वार तक आते और फिर लौट जाते। मगर उनके कान मड़हे के भीतर ही लगे थे। कब वहाँ से खबर आये और वे सोंठउरा बँटवायें। सोंठउरा बाँटने का मतलब था बेटे का जन्म। और इसके लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर रखी थी। षीषामऊ के बनिया से वे उधारी सौदे की बात भी कर चुके थे। और अब वे पूरे मन से यही चाह रहे थे कि उनके यहाँ लड़का ही हो। इसीलिये वे बेचेन से टहल रहे थे।
और उनकी दोनों भौजाईयाँ किवाड़ की आड़ से उनकी इस हालत के मजे ले रही थीं। और मन ही मन मना रही थीं कि इसके घर तो लड़की ही हो। वो भी इसी की तरह काली कलूटी ’’बड़ा गुमान हय न आपन मेहरिया कय खूबसूरती पर। ई कै सब गुमान झरे का चाही।’’
और मड़हा के भीतर असहनीय दर्द के पछाड़ों के बीच, वे भी तो धमसा महरानी के थान्ह पर कथा कबूल चुकी थीं । उनकी चाहत भी तो पति से अलग नही थी। कारण? कारण तो बहुत से थे, जो अब उस दर्दीले सागर को चीरकर उनके सामने आ खड़े हुए थे..........और उन्हें याद आ रहे थे वे ताने, जो उनकी चाची को सुनने पड़ते थे। और तीन-तीन बेटियों की माँ होकर भी वे, निरबंसिन ही कही जाती थीं। कितनी आहत होती थीं वे। और फिर दाइज का वो दानव भी तो, उनके सामने आ खड़ा हुआ था। जिसके चलते उनकी दिदिया को............? ये सोचकर वे सिहर उठी थीं। और झट से धमसा महरानी की कथा कबूल ली थीं। अब उन्हे पूरा विश्वास था कि धमसा महरानी उनकी जरूर सुनेंगी।
अब दर्द की लहरें और और तेज हो चली थीं। इतनी कि लगने लगा था कि अब तो उनके प्राण पखेरू उड़ ही जायेंगे। और इसी बीच दर्द की एक बड़ी सी लहर आयी थी। और लगा कि अब तो उनके प्राण गये ही, मगर इसी के साथ ही केंहाँ-केंहाँ के स्वर से पूरा मड़हा भर उठा था। और फिर तो उनका सारा बजूद ही कान बन गया था। अब तो वे चाची के मुख से एक ही वाक्य सुनना चाहती थीं। मगर वही एक वाक्य ही तो नहीं सुन पायी थीं वे। और उस एक वाक्य के बदले में , जो सुना था, उसने तो उन्हे सन्न ही कर दिया था। उस तीन शब्द ने तो, जैसे उनका सब कुछ छीन ही लिया था।
’’भवानी आयी हय।’’ कहते हुए चाची ने एक ललछौंहा सा मांस का लोंदा उनके सामने कर दिया था।
उस लोंदे में जुगनू सी चमकती दो आँख थीं, जो चारो ओर ऐसे देख रही थीं, मानों इस नई दुनिया का जायजा ले रही हों। मगर उन्होंने तो, उसे देखा ही नहीं था और सामने की दीवार को ताकती वे। रोकती रही थीं, उन आँखों को, जो अब-तब में बरसने को आतुर थीं। मगर बरबस रोक रखा था उन्हें।
बाहर इसी खबर के इंतजार में वे, बच्चे के रोने की आवाज के साथ ही लगभग मड़हा के भीतर ही घुस आये थे। मगर कानों में उसी वाक्य के पड़ते ही, उल्टे पांव लौट गये थे। उस वाक्य के सुनते ही, उन्हे लगा था जैसे जोर की बिजली कड़की हो, और सीधे उनके कानों में समा गयी हो। अब उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। उनके कानों में तो बस चाची की आवाज ही गूंज रही थी । और अब वे भागे जा रहे थे। कहाँ ? ये तो उन्हे भी मालूम नहीं था। मगर वे चलते जा रहे थे। चलते-चलते वे मउहारी पार कर गये थे। और फिर बड़की बगिया भी। मगर उनके कदम रूके नहीं थे। और फिर जब वे भया की बगिया के सामने जा पहुंचे , तब उन्हे भान हुआ था कि वे कहाँ आ पहुंचे हैं। ये बगिया सबसे बड़ी और सघन बगिया थी। बड़ें -बड़े पेड़ों की सघनता के साथ ही, इसमें करौंदे की झाडियाँ भी थीं, जो उसे और सघन बनाती थीं। और वे करौंदे के उसी झुरमुट में जा बैठे थे।
उधर बच्ची को गोद में लेकर, चाची देर तक उन्हे जाते देखती रहीं, फिर एक लम्बी उसांस लेकर, वे उसे नहलाने चली गयीं। और नहला धुलाकर एक साफ मारकीन के कपड़े मे उसे अच्छी तरह लपेटकर, उन्होंने उसे उसकी माँ के पास लिटा दिया था।
’’चलव अब तोहरव साफ-सफाई कय देई’’ कहकर चाची अब उनके कपड़े बदलने लगी थीं।
मगर उन्होने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं था। उनके अगल-बगल ऊपर-नीचे तो बस वही एक वाक्य मंडरा रहा था। और उन्हें लग रहा था कि जैसे जेठानियों ने उन्हें आज पछाड़ दिया हो। और उनकी आँखों में बड़की जेठानी की अहंकार से तनी गर्दन उभर आयी थीं। फिर तो उनके कहे वे शब्द तन-तन कर वार करने लगे थे-
’’हमरे खानदान में तीन पुस्तन से एकव बिटिया नाहीं भई हय’’ ये कहते हुए जैसे वे परोक्ष रूप से कह रही थीं कि-’’ हमने तो बेटे ही जने है। अब देखे भला तुम क्या...?’’
वे अपनी दोनो जेठानियों से ज्यादा सुन्दर थीं। और उनसे ही क्यो, वे तो पूरे गाँव ही नहीं, पूरे जँवार में सबसे सुन्दर और गुणी थीं। उन्हें जिसने भी देखा था। सबने उनकी तारीफ की थी कि ऐसी सुन्दर और सऊरदार दुलहिन तो अब तक किसी के यहाँ नही आयी। और इसी प्रशंसा से कुढ़ कर मँझली जेठानी ने उन पर कटाक्ष किया था
’’ बियाह कय आयीं रूप कय रानी। नौ नौ बिटिया रोज बियानी। यही से हमरे हिंयाँ रूप रंग नाहीं देखा जात है काकी’’। कहते हुए उनके काले चेहरे पर एक अजीब सी चमक उभर आयी थी ।
फिर जब वे गर्भवती र्हुइं, तब तो उनकी हर बात पर वे, उनके पेट में लड़की होने का ठप्पा लगाने लगी थीं। ये बातें तब की थीं, जब उनके गर्भ को महज तीन महीने ही हुए थे।
और पांचवें महीने के लगते ही, उन्होंने तो ऐलान ही कर दिया था कि लड़की ही होगी-’’ हमका लागत हय कि बिटियय होई।देखव न पेट कतना चाकर होत जात हय।’’
’’पेट से का होत हय। देख लिहो लरिकय होई हमरे ’’ कहकर उन्होने अपना बचाव तो कर लिया था, मगर उनके मन में यह बात आ बैठी थीं कि कही.......? और मड़हा के भीतर जाकर, वे देर तक आगे पीछे शीशा घुमा-घुमाकर अपने पेट को निहारती रहीं थीं। और फिर दौड़कर घमसा महरानी के थान्ह पर जा पहुंची थीं।
और कथा की आशंका बदीं मगर......? उन्होने तो हमारी सुनी ही नहीं। अरे ऐसी कौन सी बड़ी भारी चीज मांग रहे थे हम। बस...एक ठो लरिकय तव माँगे थे ?’’ सोचते हुए उनके मन में एक अलग सी कसक उठी और उनके अंतस में पैबस्त होती चली गई थी। और अपनी सोचों में गुम वे अनेक खंदके और खाईयाँ फाँद ही रही थी कि .............
’’दुलहिन ई लेव छगड़ी कय दूध लाई हन। बिटिवा का पियाय दिहो’’ अब चाची नहा धोकर आ गयी थीं और अपने हाथ में एक छोटी सी अल्मूनियम की कटोरी लिये खड़ी थीं।पता नहीं भूख और इस कटोरी का कोई रिश्ता था। या कि बच्ची को सचमुच ही भूख लग आयी थी सो अब तक शांत लेटी बच्ची अब जोर-जोर से रोने लगी थी
’’न ऽ ऽ न रोवव नाहीं। भूखान हव। चलव दुद्धा पी लेव।’’ कहकर चाची उसे गोद में लेकर रूई के फाहे से छगड़ी (बकरी) का दूध पिलाने लगी थीं।मगर उसका रूदन था कि रूक ही नहीं रहा था। और उस रूदन के प्रवाह में दूध की एक बूद भी भीतर नहीं जा रही थी। और उसके रूदन का स्वर और-और तेज होता जा रहा था। फिर तो उनकी सारी की कोशिश ही नाकाम रही थी।
’’देखत हव। बित्ता भर कय हँय। अबहिन से दांती बइठाइ कय सीख गयीं हँय। एकव बूद भीतर नाही गवा।’’ और उन्होंने उसे फिर उनके पास लिटा दिया था।
और उसका रूदन अब और तीव्र हो उठा था, इतना कि वो रोते-रोते लुढ़ककर उनके करीब जा पहुंची थी। इतने करीब कि अब उसके नन्हें-नन्हे कोमल हाथ उनके सीने को छू रहे थे। और जाने क्या था उस छुवन में कि उनकी देह में एक तरंग सी उठी थी। और उनके भीतर पैबस्त होती चली गयी थी। उन्हें लगा था जैसे किसी ने उनका कलेजा ही कनकोर लिया हो। और फिर वे एक झटके से उसकी ओर मुड़ गयी थीं। कुछ ऐसे कि उनकी छाती अनायास ही उसके ओठो से छू गयी थी। धीरे-धीरे उसका रूदन थम गया था और मड़हा चुभचुभ की आवाज से भर उठा था। और ममता से लबालब उनकी आँखे उसे देख रही थीं कि.....................
’’हाय ऽ ऽ हाय दुलहिन। ई का किहो ? आपन दूध, आज नाहीं पियावय क चाही।’’ कहकर चाची ने बच्ची को अलग हटाना चाहा, तो उन्होने उन्हे हाथों के इशारे से बरज दिया था। और अब वे उसके छोटे-छोटे हाथों को थामकर उसे गौर से देख रही थीं। उसके छोटे-छोटे हाथ, पैर और चमकीली आँखे उन्हे अपनी ओर खीच रही थीं’’
इधर वे उसमें खोई हुई थीं और उधर गाँव भर में ये खबर पुरवाई में आग की तरह फैल चली थी कि- वे तो बिटिया को मार डालना चाहती हैं। तभी तो उसे अपना ’’ पेउसिहा दूध’’ पिला रही हैं।
’’ बढ़िया हय। गढ़ही माई कय जरूरतय नाहीं परी। अब बाढत तक कय कउन रस्ता देखय। सब अबहिंन खतम’’
और इस सबसे बेखबर वे अपनी बच्ची में खोई हुई थीं...............
’’ये छोटी सी देहीं उनसे ही तो बनी है। उन्ही की तो छाया है ये’’ सोचती वे स्नेह से भर उठी थीं। और वो भी तृप्त होकर अब जैसे उन्हे देखने लगी थी। उसकी छोटी-छोटी जुगनू सी आँखें अब और अधिक चमक उठी थीं। और फिर तो ममता का एक तेज रेला सा आया और उन्होंने झपटकर बच्ची को अपने सीने से लगा लिया था। फिर तो जैसे ममता का निर्झर ही फूट चला था। और वे देर तक उसे अपने सीने से लिपटाये रहीं । जब बच्ची कुछ कसमसायी तब उन्होंने उसे अलग किया था।
मगर वे अभी भी बच्ची को ही देख रही थीं। जिसका हर अंग नाक, कान, आँख सब अपने पिता जैसा ही था। बच्ची पूरी तरह से अपने पिता पर ही गयी थी, और उन्हें याद आया, था, अम्मा कहा करती थीं कि ’’पितृमुखी कन्या बहुतय बड़भागी होती है’’ और उन्होंने धीरे से पूछा था-
“चाची वय कहाँ हय ?“
“कऊन? इनकय बप्पा? वय तव बिटिया सुनतय भाग ठाढ़ भये।’’
चाची की जगह बड़ी जेठानी ने हसते हुए जवाब दिया था। जो चाची के पीछे न जाने कब आ खड़ी हुई थीं। और उन्होंने देखा उनकी हंसी में छिपे उस व्यंग्य को, जो और भी बहुत कुछ कह रहा था।
“तब का भवा जव बिटिया भयी हय। सीता मातव त बिटियय रहीं न।“ उन्होंने अपना बचाव तो किया था। मगर मन के किसी कोने में सिमटा दुःख फिर झांक उठा था और उस पर जेठानी का दूसरा वार, वो तो इतना गहरा था कि.......................।
“हाँ, पर सीता मैया कय बप्पा तव राजा रहे । आऊर इनकय बप्पा.......? और ये अधूरा वाक्य धारदार था। भाले की तरह, उनके हृदय के आर पार हो गया था । और आंसूयायी आँखों से वे दूसरी ओर देखने लगी थीं । इस कटाक्ष ने तो चाची को भी आहत किया था, इतना कि न चाहते हुए भी वे बोल पड़ी थीं-
“चाहे राजा होय या कि रंक । सबय लईकिया आपन भाग लइके आवत हय। येहू आई होइहँय। हय न बचिया’’ कहकर वे बच्ची को पुचकारने लगी थीं। और उन्हे लगा था। कि चाची उनकी कितनी अपनी हैं। सगे सगों से भी अधिक अपनी। मगर जेठानी को चाची को यूँ दखल देना भाया नहीं था सो.........
’’अच्छा अब चलव पीतर कय थरिया लेव, आउर द्वारे पर जाय कय बजाय आव। गाँव घर, सब जानंय तव कि भवानी भई हैं।’’
कहते हुए उन्होंने पीतर शब्द पर खासा जोर देकर उन्हें देखा था। क्योंकि इस इलाके में लड़की के होने पर पीतल की थाली बजायी जाती थीं और लड़का होने पर काँसे की । मगर उन्होने जानबूझकर इस ओर ध्यान नहीं दिया था। और वे बच्ची को दुलारने में व्यस्त हो चली थीं-
’’ पीतर कय नथुनी पे अतना गुमान। सोने के पवतिंव तव चलतिंव उतान’’ कहकर जेठानी ने उन पर एक बींधती सी नजर डाली और फिर वे चली गई थीं। मगर जाते-जाते उनके छोडे़ इस तीर में बिंधी वे, देर तक बच्ची को ताकती रहीं और फिर रो पड़ी थीं बुक्का फाड़कर। और चाची उन्हे समझा रही थीं..............
’’न न दुलहिन! ई तरह मन छोट न करव। का भवा जव बिटिया भई। भगवानय तव दिहिन हँय ? देखेव दुलहिन, तोहार ई बिटिया एक दिन बड़ा नाव कमाई। इनके बेटवन से ज्यादा। ई देखव इकर माथ केतना उंच हय।’’ कहकर चाची ने उस दिशा की ओर देखा था। जिधर से वे बाहर चली गयी थीं। मगर उनकी रूलाई थी कि रूक ही नहीं रही थी। उस कहावत का एक-एक शब्द बरछी की तरह बेध रहा था उन्हें। वे जान गयी थीं कि ये कटाक्ष बच्ची के सांवलेपन को लेकर किया गया है। सो वे बच्ची को देख-देखकर रोये ही जा रही थीं। देर तक से रोने के बाद वे कुछ शांत र्हुइं तो उन्होने चाची से पूछा ’’ चाची का ई करिया होई हँय।’’
’’नाहीं दुलहिन के कहत हय? साँवर होईहँय हमार बच्ची। सँवलिया रानी कय जइसे सँवलिया रानी कय कथा तव जनतय होइहव। ’’ और फिर चाची सँवलिया रानी की कहानी सुनाने लगीं थीं कि किस तरह राजकुमार ने गोरी-नारी राजकुमारी को छोड़कर साँवली राजकुमारी से ब्याह किया था।
’’दुलहिन देखेव हमरी बिटिया कय खातिर वइसय राजकुमार जइसय दुलहा अइहँय हय न बच्ची’’ कहकर वे बच्ची को पुचकारने लगी थीं।
और वे देख रही थीं उसे। और साथ ही देख रही थीं, कहानी और जिन्दगी का फर्क। ’’कहानी में तो राजकुमार ने साँवली राजकुमारी को चुन लिया था। मगर हकीकत ? हकीकत तो कुछ और ही होती है। एक तो ये गरीबी। और उपर से ये इसका ऐसा काला रंग। कौन ब्याहेगा इसे? हे भगवान बिटिया ही देनी थी तो कम से कम गोरी देते’’ सोचते हुए उन्हें नानी की कही बात याद हो आयी थी.........................
’’कथरी होय त उजरी, आऊर बिटिया होय त सुन्दरी।’’ मगर ये तो ?
और तभी बड़की जेठानी ने फिर धावा मारा था। और अबकी वे अपने साथ एक बड़ा शगूफा लायी थीं। और आते ही ’’ तू तव बहिनी बड़ी होसियार निकरी। अस किहौ कि साँपव मरि जाय और लाठिव न टूटय’’ कहकर उन्होंने उन्हें अजीब सी बींधती नजरों से देखा था। और वे भौचक-
’’ का? कीन्ह हय हम’’
’’अरे बनत तव अइसी हव कि जानव कुछ जनतय नाहीं। अरे पेउसिहा दूध पियाय कय बिटिया का मारय कय कउनव सोच नाहीं सकत। पर तू ?’’
’’मानि गये तुम्हरी चालाकी।’’ कहकर उन्होंने उन्हें ऐसी नजरों से देखा था।’’ कि उनसे सहन ही नहीं हुआ था। और वे बदी थीं उन्होने। मगर क्या फायदा?.......................
’’आज तो मैने दो-दो कथाय बुक्का फाड़कर उनके सामने ही रोने लगी थीं। और रोते हुये उन्होंने बच्ची को हिलाया और फिर रो पड़ी थी-
’’ अब ई रोये कय छरछंद तव करव न। करनी करत तव कुछु नाहीं सोचेव। अब? बढ़िया हय।हींग लाग न फिटकिरी रंगव चोख चढ़ा।’’ कहकर वे चली गयी थी।
और वे बच्ची को हिला हिलाकर जगाने लगी थीं। मगर बच्ची पर इसका कोई असर नहीं हुआ था। और उन्हें लगा था कि वो कहीं सचमुच ही तो और...........
’’ चाची देखव तव ई उठतय नाहीं हय ’’ कहकर वे फिर से रो पड़ी थीं। और चाची ने उसकी नाक के पास ऊँगली रखी और-
’’ नाहीं दुलहिन। कुछु नाहीं भवा हय। पेउसिहा दूध कय नसा म सोय रही हय’’ मगर फिर भी उनकी चिंता खत्म नहीं हुई थी और वे बार-बर बच्ची को जगाने की कोशिश करती रहीं । और फिर कई घंटे बाद जब बच्ची ने आँखें खोली तव उनकी जान में जान आयी थी।
उधर बगिया में बैठे वे सोच रहे थे कि ’’अब क्या होगा? कैसे करेंगे उसका ब्याह? यहाँ तो दो जून की रोटी ही तो बड़ी मुश्किल से जुटती है। ऐसे में इसके ब्याह का दाइज? केसे जुटा पायेगे?’’ अभी बिटिया एक दिन की भी नहीं हुई थी। और उनके सिर पर उसके ब्याह की चिंता सवार हो गयी थी। और उसी चिन्ता में कब रात हुई और कब रात गहरा गयी, उन्हें पता ही नहीं चला था। कहने को तो उस दिन उजियारी रात थीं । मगर दूज का क्षीण सा चाँद कब निकला और कब छिप गया था उन्हे पता ही नहीं चला। अब चारों ओर अंधियारा ही अंधियारा था। बिल्कुल उनके जीवन की तरह। टप-टप-टप ऊपर से कुछ टपका, तो उनकी तंद्रा टूटी।
’’ओह ऽ ऽ रात इतनी गहरा गयी कि ओस भी चुने लगी।’’सोचकर वे उठे और घर की ओर चल पड़े। द्वार पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि मड़हा के भीतर से प्रकाश की क्षीण सी रेखा बाहर आ रही थी। उन्होंने धीरे से टटिया का दरवाजा खोला और भीतर झांककर देखा, तो सामने कुछ नजर ही नहीं आया था। रोज इस्तेमाल होने वाला, सुतली का पलंग आज खाली था। पलंग को यूँ खाली देखकर उनका जी धक्क से हुआ था ?
’’कहाँ ऽ ऽ चली गयी ? क्या भाभी के यहाँ ? न ऽ ऽ । वे तो इतनी इर्ष्या। न ऽ ऽ न? फिर ........। और वे भीतर आ गये थे, तभी उनकी नजर डेहरी (मिट्टी की बनी अनाज रखने की कोठी) की ओर गयी, जिसकी आड़ में एक झिलगीं सी खटिया पर वे सो रही थीं। और उनके चेहरे पर ढिबरी की धीमी सी रोशनी गिर रही थी। उस रोशनी में उन्होंने देखा उनका चेहरा कुम्हलाया हुआ था।
’’प्रसव के बाद जच्चा को पौष्टिक चीजें खिलायी जाती हैं। हरीरा दिया जाता है। मगर उनके घर में तो कुछ था ही नहीं। न सोंठ, न गुड, न घी और मेवे का सवाल ही नहीं था। सो वो अब तक भूखी ही है शायद। और वे? कितने स्वार्थी हैं कि ?’’ सोचकर उन्हें अपने आप पर ग्लानि सी हुई। और वे फिर लौट गये थे।
और वे। सोई ही कहाँ थीं, जो जागतीं। सो उनके कदमों की आहट से ही वे जान गयी थीं कि वे ही हैं। मगर बच्ची को आँचल से अच्छी तरह ढाँपकर उन्होंने आँखे यूँ ही मूद ली थीं। ये मान था। एक पत्नी का मान। जो पति के आते ही जाग उठा था। गाँव की एक साधारण सी औरत थीं वे। उन्हें ये नहीं मालूम था कि साइंस के अनुसार लड़की के जन्म की जिम्मेदार वे नहीं, उनके पति ही हैं, मगर वे इतना तो जानती थीं। और मानती भी थीं कि अगर लड़की हुई है, तो ये भगवान की मर्जी थी। तो उसे स्वीकारना तो चाहिये ही न। मगर ये? ये तो भाग खड़े हुए। और अब आये है अधिरितिया को।’’ और वे मान से भर उठी थीं। अब ये ऐसे भाग ही गये, तो अब तो हम इन्हें अपनी बिटिया दिखायेंगे ही नहीं।
उधर उनका मन तो कर रहा था कि वे उनके पास जायें, जाकर देखें उन्हे, और उसे भी, जो उनका ही अंश है। जिसने उन्हें आज सृष्टा बना दिया है। ये एक अलग तरह का अहसास था, जो अभी-अभी जगा था उनमें। कैसी होगी वो? कैसी दिखती होगी? क्या उनकी तरह? या कि रामदुलारी की तरह? सो वे फिर भीतर आये और दो डेहरियों की फांक से झाँककर देखा, तो उन्हें जुगनू सी चमकती दो आँखें नजर आयी थीं। वो अभी तक जाग रही थीं, मानों उसे अपने पिता का इंतजार हो। उन्हें लगा जैसे वो उन्हें ही देख रही हो। मगर रामदुलारी ने उनकी आहट पाते ही बच्ची को फिर आँचल से ढाँप लिया था। और वे एकबारगी तड़फ से उठे थे।
उन जुगनू सी आँखों में न जाने क्या था कि उनका मन किया था कि वे जाकर उसे गोद में उठा लें । और उसे सीने से लगा लें। मगर जल्दी ही उसी अँधकार और परछाइयों ने उन्हें फिर घेर लिया था। और वे अपनी कथरी लेकर बाहर निकल गये थे।
उन्होने तो सोचा था कि ’’वे कुछ देर तक मान दिखायेंगी, रूठी रहेगी उनसे। मगर जब वे बहुत मनुहार करेंगे, तब मान जाएगी । मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। मान मनुहार की तो नौबत ही नहीं आयी थी। वे तो उनके पास आये तक नहीं थे’’ सोचते हुए अब वे उठकर बैठ गयी थीं। एक बार फिर उनकी आँखे उमड़ीं और बरस पड़ी थीं। मगर बहुत खामोशी से निःशब्द और नीरव। बस गालों से होकर लुढ़कते आँसू उनकी छाती में समाते जा रहे थे। और रात गहराती जा रही थी। मगर नींद? अब नींद कहाँ थी आँखों में । वैसे भी नींद और आँसुओं का तो जनम-जनम का बैर ठहरा। सो जी भरकर रो लेने के बाद, अब वे बच्ची को देख रही थीं।
’’क्या दोष है इसका? यही कि ये बिटिया है। और उनका? यही कि उन्होंने बिटिया को जनम दिया है? तो क्या ये उनके हाथ में था?’’ और ये सोचकर उनकी आँखे एक बार फिर उमड़ी थीं। मगर उन्होंने अपने आँसुओं को पोंछ लिया था।
’’न ऽ ऽ । अब हमें नही रोना हय। कभी नहीं। का हुआ जो बिटिया भयी’’ और उन्होंने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया था।
नींद तो उनकी आँखों से दूर थी। उनकी आँखों में तो तैर रही थीं, अनेक-अनेक परछाईयाँ। और फिर वो परछाईयाँ उनके अतीत का आकार लेने लगी थीं ..........। जन्म के साथ ही माँ को खा जाने वाला श्रीकांत। हाँ बचपन से यही तो सुनता रहा था वो। श्रीकांत यानि तब का कंथु । अपने ननियाउर में पला। उसका ननियाउर कस्बे के पास मिसरन पुरवा में था। उसे तो पता भी नहीं था कि वो उसका अपना गाँव नहीं, ननियाउर है। वो तो बहुत दिनों तक, नानी को ही अपनी माँ समझता रहा था। और जब कुछ बड़ा हुआ, तो बड़के मामा ने तरस खाकर अपने बेटे के साथ-साथ उसका भी नाम स्कूल में लिखवा दिया था। और वहाँ जाते ही एक नया राज खुला था कि ये गाँव तो, उसका अपना गाँव ही नहीं है। और अब तक वो जिन्हें अपनी माँ समझता रहा, वे उसकी माँ ही नहीं हैं। वे तो उसकी नानी हैं । और वो तो ननियउरे का ’’पेटहा’’ है, पेटहा वो जो पेट भरने के लिए दूसरों पर आश्रित हो। ये सब उसे उस लड़के ने बताया था, जिससे उसकी भिडंत हो गयी थी। और वो मार खाकर बौखला गया सा गया था। फिर उसने बताया था उसे, बताया क्या था चिढाया था उसे । उसे उसकी मार से भी इतनी चोट नहीं पहुँची थी जितनी उस एक वाक्य ने पहुँचायी थी। और फिर वो रोते-रोते घर आया था। उस लड़के की शिकायत लेकर।
और नानी ने उसे अपनी छाती से लगाकर ’’ई सब झूठ आय बचवा’’ यह कहकर उसे बहलाया था। मगर बाद में तो स्कूल के दुसरे बच्चों ने भी इस बात की पुष्टि की थी-
’’बिसवास न होय, तव अचार जी से पूछ लेव। तोहरे बाप कय नाव बाबँ राम मिसिर नाहीं देवी दत्त तेवारी हय।’’
और उसी दिन, उसी पल से उसका सब कुछ बदल गया था। और उसका बचपन गुलेल की गोटी की तरह छिटककर कहीं दूर चला गया। अब उसे जो भी मिलता, वो उसे खा लेता था। पहले की तरह अम्मा से , जो अब उसकी नानी थीं, उनसे कोई ठनगन भी नहीं करता था। फिर धीरे-धीरे वो स्वावलम्बी होने की कोशिश करने लगा था। अब उसकी कोशिश रहती कि अपनी पढ़ाई और अपनी पुस्तकों का खर्चा वो खुद जुटाये। इसके लिए वो गाँव से बिलायती इमली, करौंदा, फरेंद और बेर जैसी चींजे तोड़कर लाता और स्कूल के बच्चों के हाथों बेचकर पैसे जुटाता। कस्बे का स्कूल था। सो सारी चीजें हाथों हाथ बिक भी जाती थीं। पर जैसे-जैसे उसकी क्लास बढ़ी, कापी किताब का खर्च भी बढ़ गया था।
अब किताबें माँग कर पढ़ना भी संभव नहीं था। सो अब और अधिक से अधिक चीजें बेचना जरूरी हो गया था। वो बेचता भी था। बस्ता भर-भर कर बेर और इमली लाता था वो। अब वो इसी फिराक में रहता कि कैसे भी उसके पैसे बढ़ जायें। कम से कम इतने कि वो किताबें तो खरीद ही सके। और इसी फिराक में वो एक दिन उन लोगों के हत्थे चढ गया था जो.......
स्कूल से लौटते हुए उसने देखा कि पकड़िया के नीचे कुछ लोग कुछ खेल रहे थे। वे कागज के कुछ टुकडे आपस में बाँटते और फिर उस पर पैसे रखते। फिर अंत में जो व्यक्ति जीतता वो सारे पैसे उठा लेता। इस खेल ने उसे भी अपनी ओर खीचा था और वो उनके बीच जा पहुँचा था-
’’का ई खेल म हमरो पइसवा बाढ़ जायी।’’
’’ हाँ ऽ ऽ ! हाँ ऽ ऽ ! काहे नाहीं । आवा खेल कय तव देखा’’
और उस दिन उसने अनजाने ही जुआ खेला था। और वो जीत भी गया था। पूरे चार आना जीता था उसने। पर वो नहीं जानता था कि वो जीता नहीं था, उसे जिताया गया था जानबूझकर। सो वही हुआ था जो वे लोग चाहते थे। वो दूसरे दिन फिर गया और फिर जीत गया था। और फिर वो वहां रोज-रोज जाने लगा था। वो इससे बिल्कुल बेखबर था कि वो एक जाल था। और उसमें वो फंसता ही जा रहा था। उसने तो बस यही चाहा था कि उसके पास इतने पैसे हो जायें कि उसे किसी के सामने हाथ न पसारना पड़े । और वो अपनी पढ़ायी........। और अब उन्हे उसे जिताने की जरूरत नहीं थी। चिड़िया तो जाल में पूरी तरह फँस ही गयी थी। अब तो जाल बटोरने की बारी थी। सो बहेलिये ने जाल बटोर लिया था। और उस दिन वो हार गया था। पूरे छः आने। पहली बार हारा था वो। और ये हार सिर्फ पैसों की हार नहीं थी, ये उसके सपनों की हार थी। सो वो उठ पड़ा था-
’’नाही खेलेंगे हम’’
’’एक बार हार गये तव का? अबकी जरूर जितिहव ’’ कहकर उसने फिर जाल फैलाया था।
मगर उसके सपनों ने उसे आगाह किया था और
’’ नहीं अब हम और नही खेलेंगे ’’ कहकर वो उठ पड़ा था।
’’ऐ ऽ ऽ ? जादा फारसी न बूको। चुप्पय बईठ जाव?’’ कहकर एक ने उसे बाँह से पकड़कर लगभग बैठा ही लिया था।वो छटपटाया था, मगर उसकी पकड़ से छँट नहीं पाया।
फिर भी वो जिद पर अड़ा रहा ’’ कह दिये न नहीं खेलेंगे, तो नहीं खेलेंगे। कउनव जबर्दस्ती हय का?’’ कहकर उसने एक बार फिर भरपूर प्रतिरोध किया था।
’’ हाँ ऽ ऽ हय तो। अइसे जीत के कइसे भाग जइहौ?’’कहते हुए बाँह पर उसकी जकड़न कुछ और बढ़ गयी थी।
और फिर अपने को छुड़ाने की उसने भरपूर कोशिश की थी। और नाकाम होने पर, उसने उसकी बाँह पर दाँत गड़ा दिये थे।
’’अरे ऽ ऽ ई देखव। दाँते काटत हय’’ और ये सुनते ही-
’’मारव। मारव सारे का’’ कहते हुए वे सब के सब, उस पर टूट पड़े थे। और लात घूंसों से उसे अच्छी तरह धूंसने के बाद, उन्होंने उसकी जेब से सारे पैसे निकाल लिये थे। और वे सब फिर से खेल में मशगूल हो गये थे।
इधर असहनीय पीड़ा के बीच भी वो बेचैन हो उठा था। उसे मार खाने की उतनी तकलीफ नही थी, जितनी कि पैसे निकाले जाने की। सो उसने अपने आपको सहेजा। और उठकर बस्ते से तख्ती निकाली। और फिर आव देखा न ताव, पैसे छीनने वाले के सर पे पूरी ताकत से दे मारी थी। लकड़ी की मजबूत तख्ती लगते ही, उसके सिर से खून का एक फव्वारा सा छूटा था। और वे लोग जब तक कुछ समझ पाते, वो भाग निकला था। मारते समय तो उसे होश ही नहीं था, मगर खून देखकर वो इस कदर डर गया था कि न तो उसने पीछे पलटकर ही देखा, और न ही घर गया। बस सरपट भाग चला था स्टेशन की ओर। वो ये तो जानता था कि अगर गाँव गया, तो कुटम्मस तो होगी ही, पुलिस भी पकड़ कर ले जायेगी उसे। उसने गाँव में मारपीट के बाद, पुलिस आते और लोगो को पकड़कर ले जाते देखा था। सो स्टेशन की राह पकड़ना ही ठीक लगा था उसे।
कस्बे का छोटा सा रेलवे स्टेशन था वो। जहाँ सिर्फ दो ही गाड़ियाँ रूकती थीं एक अलसुबह की जिसे लोग भोरकिया गाड़ी कहते थे। और दूसरी गहराती रात में आती थी, जो अधरतिया गाड़ी कही जाती थी।
’‘अब तो दोपहर ढल रही है, सो मुझे तो अधरतिया वाली गाड़ी ही मिलेगी। और इस बीच मुझे कोई देख न ले सो, अपने को छुपाकर रखना भी जरूरी है।’’ सोचकर वो रेलवे लाइन के उस पार, नरकुल की झाड़़ी के पीछे जा छुपा था। अब उसे इंतजार था, रात का। मगर लग रहा था जैसे दिन अड़ ही गया था। वो आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहा था। और उसकी साँसें अटकी हुई थीं कि कहीं..............। और फिर बहुत इंतजार के बाद जब दिन डँबा और अँधेरा गहराने लगा, तब उसकी अटकी साँसे सम पर आयी थीं। अब नरकुल से बाहर आकर वो टिकट घर के पीछे जा छुपा था। पर टिकट घर अभी भी सूना था। यहाँ टिकट बाबू भी गाड़ी के आने के समय ही आते थे। सो अब उसे गाड़ी का इंतजार था। और बहुत इंतजार करने के बाद जब उसकी ऊँघायी बढ़ने लगी थी, तब गाड़ी की सीटी सुनायी दी थी। और ये जाने बगैर कि वो गाड़ी कहाँ जायेगी, उसमें चढ़ गया था वो। और उसे ये जानने की जरूरत भी कहाँ थी। उसकी कोई मंजिल तो थी नहीं।
गाड़ी में भीड़ बिल्कुल नहीं थी। डिब्बे में बस इक्की दुक्की सवारियां ही थीं। बहुत जगह थी गाड़ी में। मगर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि वो भीतर जाये, सो बाथरूम के पास ही बैठ गया था। और गाड़ी चली तो पकड़े जाने की चिन्ता भी पीछे छूट गयी थी। फिर तो उसके रफ्तार पकड़ते ही उसके हिचकोलों से झपकी आने लगी थी उसे। और फिर वो वहीं बाथरूम के पास ही लुढ़कने लगा था कि.................
’’ उठव बचवा चलके हुँआ सोवव’’
उसने अधखुली आँखों से देखा था, एक बुढिया झुककर उसे उठा रही थी। मगर वो हडबड़ा कर उठ बैठा था। अब तक उसकी नींद टूट चुकी थी। उसने देखा कि उसने लट्ठा की धोती और पूरी बाँह की कमीज पहन रखी थी। और उसके होंठों पर पान की मोटी परत चढी थी, जिससे उसके होंठ कथई से हो गये थे। उसकी दोनों कलाइयों मे मोटे-मोटे गुँजहे, गले में हँसुली और पैरों में कड़े थे। जो मैले होकर काले से पड़ गये थे। एकबारगी वो डर गया था कि-
’’कही इसने सब जान तो नहीं लिया? और कही?’’ मगर उन आँखों में कोई साजिश नही थी। सिर्फ स्नेह था और वो उसके साथ जाकर उसकी बगल में बैठ गया था।
’’कहाँ जइहो?’’ कुछ देर की चुप्पी के बाद बुढ़िया ने पँछा था। अब वो उसी की ओर देख रही थी।
मगर वो क्या बताता कि कहाँ जायेगा? वो तो खुद भी नहीं जानता था कि........?
सो कुछ बोला नहीं वो। चुप ही रहा। तो..............
’’ अकेले हो?’’अबकी उसने हाँ में गर्दन हिलायी थी।
’’ घर से भाग आये हव?’’
और ये सुनते ही वो सनाका खा गया था कि जरूर उसकी चोरी पकड़ ली गई गयी है। और अब वो अकचकाहट भरी नजरों से उसे देखने लगा था कि ’’इसे कैसे मालूम हुआ कि मैं भाग...........? कहीं वो तख्ती वाली बात भी तो ............?’’ ये सोच कर वो सहम गया था कि...........
’’ न ऽ ऽ न। डेराव नाहीं बचवा। हम केहँ का कुछु नाहीं बतायेंगे। बचवा हम तोहार महतारी माफिक हन।’’ कहकर उसने उसका सर अपनी गोद में रख लिया था और ’’ निहिचिंत होयकय सोय जाव। ’’ कहकर वो उसका सर सहलाने लगी थी। और महतारी इस एक शब्द से तो उसका पहला परिचय था ये। मगर सिर पर फिरते हाथों में कुछ ऐसा जादू था कि वो निश्चिन्त होकर सो गया था। और सुकवा उगते-उगते गाड़ी लखनऊ पहुँची तो-
’’ बचवा उठव नखलऊ आय गवा ’’ वो उसे झकझोर कर जगा रही थी और वो आँखें मलते हुए उठ बैठा था और भौचक सा उसे देख रहा था। कि-
’’अतना अँधियार म अकेलय कहाँ जइहौ ? चलव हमरे घरे चलव।’’ उसने कहा तो उसका भौचकपन और बढ़ गया था। मगर बुढ़िया बिल्कुल सहज थी।
’’ अरे ऽ ऽ चलिहव की नाहीं ?’’ और वो उठकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ा था।
लखनऊ का बादशाह नगर, तब शहर के रूप में बसा नहीं था। और आसपास के गाँवों से आये लोग ही वहाँ रहा करते थे। लखनऊ जैसे महानगर में गरीबों की शरण स्थली था, बादशाह नगर। वो बुढ़िया जात से खटिक थी। गाँव में तो खटिक के हाथ का पानी भी नहीं पिया जाता था। मगर ये शहर था, लखनऊ शहर। सो यहाँ वो छोटा सा बासा भी चलाती थी। और साथ में साग-सब्जी की दुकान भी। उसके ग्राहकों में वे मजदूर और रिक्शेवाले ही थे जो खेतपात बोकर खाली समय में लखनऊ चले आते थे। और खेत काटने के समय फिर गाँव चले जाते थे। वे अपना परिवार साथ लाते नहीं थे, सो बुढ़िया का ये बासा ही उनका आधार था। उसका घर तो बहुत छोटा सा था। घर क्या था लकड़ी के फट्टों और नरकुल की टटिया से बनायी गयी छोटी-छोटी फँस की दो झोपड़ियाँ थीं। और उसके सामने बरामदेनुमा जगह थी, जो दिन में उसका बासा होती थी और रात में कुछ लोगों की पनाहगार। सच तो ये था कि बुढ़िया का घर जरूर छोटा था, मगर उसका दिल बहुत बड़ा था। इसलिए उसका घर बहुतों का पनाहगार भी बन गया था।
उसके घर में उसका बुढ़ऊ था और उसकी गौनाही बेटी कजरी। और थी उसके ही समान असहाय एक और लड़की राम कुँवर जिसे बुढ़िया ने बचपन से पाला था। और अब वो जवान हो चुकी थी। साथ ही एक लंगड़ भी था, जो दिन को गाड़ियों में गा बजाकर भीख माँगता था। और रात में आकर उसके यहाँ सो जाता था। और भी ऐसे कई लोग थे, जो किराये से कोठरी ले पाने की स्थिति में नहीं थे। वे सब रात को उसके घर और बारामदे में ही रैन बसेरा करते थे।
वो भी वहीं रहने लगा था। पहले तो कुछ दिनों तक वो बासा में बुढ़िया का हाथ बटाता रहा फिर उसने स्टेशन पर मजदूरी शुरू की थी। और पहले ही दिन उसने अठन्नी कमा ली थी। शाम को जब उसने अठन्नी बुढ़िया की हथेली पर रखी, तो बुढ़िया मुग्ध सी उसे देखती रह गयी थी। ये उसके जीवन का पहला अवसर था, जब उसे किसी ने कमाकर पैसे दिये थे। वरना अब तक तो, वो ही सबको कमाकर खिलाती रही थी। बच्चों को और अपने बुढ़उ को भी। सो उसने अब उसे खींचकर अपने सीने में छुपा लिया था। बिल्कुल उस चिड़िया की तरह, जो अपने बच्चे को अपने पँखों में छुपा लेती है। और वो । उसके लिए तो अब बुढ़िया ही सब कुछ हो चुकी थी। उसने अपनी माँ को तो देखा ही नहीं था। बस नानी ही थीं। और फिर अब वे भी तो............? तो प्यार को तरसा हुआ मन था उसका, जो अब उस स्नेह में भीग चला था। उसके भीगे मन ने उसे, उस रिश्ते को एक नाम दिया और उसके मुँह से निकला था ’’अम्मा ’’वो फिर उससे लिपट ही गया था। अब वो बुढ़िया नही थी। उसकी अम्मा थीं।
फिर समय दौड़ चला था। बरस पे बरस बीत रहे थे। धीरे-धीरे उसकी कमायी बढ़ चली थी। और अब वो मजदूरी छोड़कर, चारबाग स्टेशन के बाहर खोंचा लगाने लगा था। रेवड़ी का खोंचा। अब उसकी ग्राहकी में दिनों दिन और इजाफा होने लगा था। उसकी ईमानदारी और रेवड़ी की महक लोगों को ठेले तक खींच लाती थी। फिर तो उसने रात की पाठशाला में अपना नाम भी लिखवा लिया था। और अब वो काम के साथ-साथ पढने लगा था। फिर उसने वहाँ से नौवा दर्जा पास कर लिया था। और अब दसवें की तैयारी में था। वो अभी भी अपनी कमाई अम्मा को ही देता था। मगर वे उसमें से एक धेला भी खर्चती नहीं थीं। बस उसकी खाना खुराकी निकालकर वे उसे एक अलग बटुये में रख देती थीं। इसका भी मलाल था उन्हें कि वे उससे खाना खुराकी लेती हैं। उनका बस चलता तो वे उससे कुछ भी न लेतीं। और वे अक्सर कहती-
’’का जानी कउन जन्म कय पुन्न प्रताप रहा हय कि हम अइसन, सरवन कुमार पावा हय। मन तव करत हय कि एक्कव धेला न लेयी। फिर का करी। ई कजरिया कय दइजवव तव जुटाये का हय न।’’ और कजरी के बारे में सोचकर वे उदास हो जातीं।
कजरी का ब्याह तो उन्होंने कर दिया था। मगर गवन इसीलिए नहीं हो पा रहा था कि ब्याह के समय मांगी गई चींजे वे नही दे पाई थीं। मगर अब उन्होंने ’’पचहर तो जुटा ही लिया था, बस रूपये की थैली और जुटानी थी। जिसके लिए वे एक-एक पैसा जोड़ने में लगी थीं। इसीलिए वे अब रैन बसेरा वालों से भी किराया लेने लगी थीं। वरना इतने बरसो में उन्होंने कभी किसी से सोने का किराया नहीं लिया था। तभी तो इसका नाम ’’रैन बसेरा’’ पड़ा था’’। मगर फिर भी इससे उतना पैसा कहाँ मिलता था कि..........?
और फिर उन्होंने अपने कड़े बेचकर थैली का इंतजाम भी कर लिया था। आखिर जवान जहान बेटी को कब तक घर बिठातीं। फिर तो बढ़ी धूम-धाम से कजरी बिदा हुई थी। मगर दाइज की भूख भला कहाँ मिटती है? सो महीने के भीतर ही खबर आयी थी कि उनकी कजरी गड़हिया म डूब के मर गयी।
और इस तरह कजरी का जाना अम्मा के लिए किसी ब्रजपात से कम नहीं था। सो वे अपने आप में ही सिमट कर रह गयी थीं। धीरे-धीरे बासा भी बंद हो गया था। अब कौन चलाता उसे। बीमार रहने लगी थीं वे। उनकी ये बीमारी तन की नहीं, मन की बीमारी थी। और फिर एक दिन वे भी अपनी कजरी के पास चली गई थीं। मगर जाने से पहले अपने अंतिम समय में उन्होंने एक थैली सौंपी थी उसे-
’’ई लेव बचवा। आपन कमाई। खाना खुराकी छोड़कय एकव पइसा नाहीं खरचा हय हम’’ ये उसकी अपनी कमाई थी। जिसे अम्मा ने सम्भालकर रखा था। वे चाहतीं तो उसे पूरा खर्चकर सकती थीं। मगर उन्होंने उसके पैसे बचाकर रखे थे। और अम्मा के जाते ही वो एक बार फिर अनाथ हो गया था। इधर उसका धंधा भी मंदा हो चला था। अब उसी के बगल से एक और रेवड़ी का खोंचा लगने लगा था। वो खोंचा वाला उम्र में बहुत बड़ा था और उससे। और ज्यादा होशियार भी था। वो खाने वाले मँहगे इत्र की जगह, रेवड़ी पर देह पर लगाने वाले सस्ते इत्र का उपयोग करता था। वो भी केवल दिखाने के लिये। वो अपने कान में इत्र का फाहा लगाकर रखता था। और ग्राहक के आते ही बड़ी होशियारी से वो कान में लगे फाहे को चुटकी से छूता और उसी चुटकी से एक रेवड़ी उठाकर ग्राहक को दे देता। और ताजे-ताजे इत्र की तेज महक और उसका सस्ता दाम ग्राहको को रेवड़ी खरीदने पर मजबूर कर देता था। मगर उसकी नजर में ये बेईमानी थी। वो अभी भी खाने वाले अच्छे इत्र ही इस्तेमाल करता था। वो भी पूरी रेवड़ियों पर। सो उसकी रेवड़ी मँहगी थी। मगर लोगों को अच्छी नहीं, सस्ती चीजें ही भाती हैं। सो उसके ग्राहक टूट चले थे। और उसका धंधा बिल्कुल मंदा हो गया था।
एक तो अम्मा का न रहना और ऊपर से ग्राहक का टूटते जाना। उसका मन भी अब उचटने लगा था। और उसने गाँव लौटने का फैसला ले लिया था। इसी बीच उसने सुना था कि घाघरा में इतनी भीषण बाढ़ आयी है कि घाघरा और सरयू एक में मिल गयी हैं। और तमाम गाँव बह गये हैं। और जो लोग बचे है, उन्हें रेलवे लाइन और बंधा पर बने राहत शिविरों में रखा गया है। मगर वहाँ भी उन्हे राहत नही है। सब ओर त्राहि-त्राहि मची हुई हैं। लोग दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। सुनकर उसकी आँखो में, उसका अपना गाँव तैर उठा था। और उससे वहाँ और रूका ही नहीं गया था। सो तत्काल निकल पड़ा था वो। लोगों ने बहुत समझाया था कि अभी वहाँजाना खतरें से खाली नहीं है। अभी तो वहाँ बाढ़ का खतरा है ही, फिर बाढ़ उतरने के बाद फैलने वाली बीमारियाँ ? ऐसे में गाँव जाना अकलमंदी नहीं है। मगर जब बात प्रेम की, ममता की हो, तब अकल कहाँ काम आती है भला। सो उसकी आँखों में बार-बार नानी का चेहरा उभरता और वो प्रार्थना करता कि परिवार में सब सकुशल हों। और उनकी कुशलता के लिए उसने ’’बटउरा वाले हनुमान जी’’ को सवा सेर लड्डू भी मान दिया था। और अब वो जा रहा था।
गाड़ी अब एलगिन पुल से गुजर रही थी, उसने देखा की घाघरा का तो कहीं ओर छोर ही नजर नहीं आ रहा था। जहाँ तक नजरें जाती थीं, पानी ही पानी नजर आ रहा था। अपना तटबंध तोड़कर घाघरा इतना फैलाव ले चुकी थी कि घाघरा घाट से लेकर सरयू पुल तक अब पानी ही पानी था। और उसकी राह में आने वाले गाँव खेत, खलिहान सब घाघरा में समा गये थे। सरयू पुल के बाद ही तो उसका कस्बा है। और उसी से तो जुड़ा हैं उसका गाँव भी। लोगों के लिए वो उसका गाँव भले ही न था, मगर उसके लिए तो वहीं उसका गाँव था। और नानी ही उसकी माँ थीं। वहीं तो उसका बचपन बीता था।
’’क्या वे भी?’’उसने सोचा और भीतर तक सिहर उठा था’’ ’’नहीं’’।
“हे बजरंग बली रच्छा करना महराज’’ सोचकर एक बार फिर उसने मन ही मन अपनी मनौती दुहरायी थी। अब कर्नलगंज आ गया था। और फिर स्टेशन पर उतरकर उसने देखा, स्टेशन और उसके आसपास के इलाके में बाढ़ नहीं थी। और बाढ़ वाले गाँवों के लोगों के शिविर रेलवे लाईन पर ही लगे हुये थे। स्टेशन से लेकर स्कूल के मैदान तक आदमी ही आदमी नजर आ रहे थे। उसके मन ने उसे कुछ ढांढस बँधाया था। उसका ननियाउर भी इसी इलाके में है। सो वहाँ बाढ़ तो नहीं आयी होगी।
’’फिर भी जब तक अपनी आँखों से न देख लू’’ -सोचकर वो अपने गाँव की ओर बढ़ चला था। अब उसके दिमाग से तख्ती वाली घटना भी पूरी तरह से मिट चुकी थी। सो.....
उसका गाँव करीब आ रहा था। दूर से उसे गाँव की सीमा पर लगा पीपल का पेड़ नजर आ गया था। अब इसी पीपल की छाँव में ओ अपने बचपन को देख रहा था। उसकी आँखों में अब अपना बचपन उभर आया था। भौरा खेलते, मुरेला पकड़़ने के लिए दूर-दूर तक मुरैलों के पीछे भागते, आँखो में अपनी ही छवि उभर आयी थी। और उसके होंठो पर एक मीठी सी मुस्कान आ ठहरी थी। अपने ही ख्यालों में गुम वो गाँव पहुँच गया था।
मगर अब उसका गाँव भी पहले वाला गाँव नहीं रह गया था। और उसका घर भी तो अब पहले जैसा कहाँ था। उसको चाहने वाले उसके छोटके मामा भी तो अब चल बसे थे। और उनकी मौत का कारण भी वही दुःख था, जिसने लखनऊ में अम्मा की कजरी को लील लिया था। उसने जब सुना तो उसका मन कैसा-कैसा तो हो उठा था। और उसकी आँखे भर आई थीं। मगर तब-तक सारा गाँव इकट्ठा हो चुका था। सब उससे ही मिलने आये थे। शहर में रहने के कारण या पैसे के कारण। अब सारा गाँव उसे सम्मान की नजर से देख रहा था। सो उसने अपने को सम्हाल लिया था।
उसके लौट आने की खबर उसके उस गाँव तक भी जा पहुंची थी। उस गाँव , जहाँ उसकी नाल गड़ी थी। कहते है कि जिस जगह जिसकी नाल गड़ी हो, वो जगह उसे अपनी ओर खींचती है। मगर उसके साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। अलबत्ता इन पैसों ने उसके भाईयों को जरूर अपनी ओर खींचा था। और वे उसे लिवाने आ पहुँचे थे। वे इतने प्रेम से छोटके भैया, छोटके भैया कर रहे थे कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने उसे आज पहली बार देखा है। एकबारगी तो उसे भी लगा था कि उसकी सोच ही गलत थी। उसने बेकार ही अपने को अकेला और असहाय मान लिया था। वो अब अकेला नहीं है। उसके भाई भी हैं। सगे भाई । और फिर नानी से भी उन्होने, उसे भेजने की इतनी मनुहार की और उसे भी अपने प्रेम में कुछ ऐसा लपेटा था कि वो उनके प्रेम में विभोर होकर अपने गाँव आ गया था।
ये गाँव उसका अपना गाँव था। उसकी जन्मभूमि कहलाती थी ये। मगर यहाँ का कुछ भी उसे बाँध नहीं पा रहा था। और उसे बार-बार अपना वो गाँव याद आ रहा था, जो उसकी जन्मभूमि नहीं थी। ननियाऊर था उसका। मगर ............? और उसने महसूस किया था कि जन्मभूमि वो नहीं होती जहाँ जन्म होता है। जन्मभूमि तो वो होती है, जहाँ व्यक्ति बड़ा होता है, जिसकी हवा, जिसकी मिट्टी उसके पल-पल बढ़ने की गवाही होती है। जिससे लगाव होता हैं। मगर उसके भाईयों का वो प्रेम तब तक तो बरकरार था, सो वो वहाँ रहने पर विवश हो गया था। वरन..............। एक और भी घटना थी, जो उसके जीवन में पहली पहली बार घट रही थी। जिसके कारण उसे वहाँ रहना कुछ-कुछ भाने लगा था। और वो ये कि अब उसके लिए बरदेखुवा आने लगे थे। उसके जीवन का ये एक सुखद अहसास था। अब तक का उपेक्षित कंथु अब महत्वपूर्ण हो जो उठा था। अब उसे सबके बीच पलंगा पर बिठाया जाता था। और उसकी तारीफों के पुल बाँधे जाते थे। और ये सब उसे बहुत अच्छा लग रहा था। उसने महसूस किया था कि वो भी कुछ है। उसका भी कुछ महत्व है।
फिर उसका विवाह हो गया था। और वो अब कंथु से श्रीकांत तिवारी कहलाने लगा था। ये कहलाना सिर्फ कहलाना नहीं था। एक भाव था, जिसने उन्हें समाज में एक सम्मानित व्यक्ति बना दिया था। और इसके साथ ही वे बड़प्पन और जिम्मेदारी से भी भर उठे थे। विवाह में उन्हें दान दहेज तो कुछ खास नहीं मिला था, मगर दुलहन बहुत रूपवती थी। ऐसा उन्होंने सुना था। क्योकि अभी तक गौना नहीं हुआ था उनका, सो उन्होंने घूघट में लिपटी हुई एक लाल गठरी ही देखी थी। जिसने अपने हर अँग को उस लाल रंग के लहर पटोर में इस कदर छुपा रखा था कि उन्होंने तो बस उसके पैर ही देखे थे। वो भी तब, जब पांवपूजी के लिए नाउन ने पैर परात में रखवाये थे। बहुत नाजुक और सुन्दर थे वो पैर। और उनका मन किया था कि वे उसे छूकर देखें। मगर मंडप में सबकी नजरें उन्हीं पर थीं। सो ये संभव नही था। और अब उन्हें गौने का इंतजार था।
कुछ दिन तक तो सब ठीक रहा। मगर धीरे-धीरे भाइयों का व्यवहार बदलने लगा था। और फिर तो उन्हें अहसास ही कराया जाने लगा था कि उन्हें फिर से शहर जाना चाहिये। फिर एक दिन तो बड़के भैया ने स्पष्ट ही कहा था
’’छोटके भैया! ऊ का हय कि अब तव तोहार बियाह होय गवा हय। फिर गवनव आय जायी तव गवन कय खरचा कय बेवस्था त करय का परी न। खेत पात होत, तव आऊर बात रहा । शहरवा त जाये क परी ना’’
और उनकी इस बात से उन्हें झटका सा लगा था। ’’ खेतपात नाहीं हय। खेतपात कइसे नाहीं हय? ऊ त हइयय हय। जब इनके पास खेत है, तो वो हमारा भी तो होगा ही। आखिर हमारा भी हिस्सा है उसमें। ’’अभी ब्याह में खर्च भी तो बहुत हुआ हैं, बड़के भैया शायद वही कह रहे हैं।’’ सोचकर उन्होंने उनका समर्थन किया था। ’’ हाँ भैया हमहू का लागत हय कि अब फेर शहर जाय का परी’’
और एक बार फिर वे लखनऊ चले आये थे। मगर अब उनकी जगह पर रेवड़ी के और कई खोंचे लगने लगे थे। वो मौसम कचालू की आवक का था। सो उन्होंने कचालू का खोंचा लगाना शुरू किया था। मगर उसमें कुछ खास लाभ नहीं हो रहा था। कारण अब अम्मा भी नहीं थीं। सो उन्हें कोठरी भी लेनी पड़ी थी। उसका किराया भी पाँच रूपया महीना था। सो अब उनका खर्चा बढ़ गया था। शाम गहराते-गहराते वे बाजार जाते, वहाँ, से आलू, बंडा और मसाले खरीदते। और फिर सुकवा ऊते ही उठकर उन्हें उबालते। सारे मसाले तैयार करते। और फिर फेरी पर निकल पड़ते। मगर रेवड़ी की तरह कचालू की बिक्री नहीं हो पाती थी। दिन-दिन भर घूमने के बाद भी नहीं। सो अब बचत के नाम पर कुछ भी नहीं था उनके पास। और अब तो बचत बहुत जरूरी थी। मगर कोई उपाय नहीं था।
वे दसवीं पास थे। कायदे से उन्हें सरकारी दफ्तर में कलर्की तो मिल ही सकती थी, मगर मिली नहीं थी। कारण उनके पास न तो तगड़ी सिफारिश थी और न ही मोटी रकम। सो कचालू का खोंचा ही आधार था उनका। पर उन्होंने अब अपने व्यवसाय का दायरा बढ़ा लिया था। अब वे हजरतगंज में भी फेरी लगाने लगे थे। और उस इलाके में उनकी अच्छी ग्राहकी निकल आयी थी। कुछ ग्राहक तो ऐसे थे, जो अब उनके नियमित ग्राहक हो गये थे। उन्ही ग्राहकों में था रामदीन। जो रोज ही उनसे कचालू लिया करता था। रामदीन कानपुर कपड़ा मिल में खलासी था। यहाँ अपनी रिश्तेदारी में आया था। उसने अपने काम और लाभ का ऐसा ताना बाना बुना था कि वे उसके साथ कानपुर जा पहँचे थे।
औद्योगिक नगर होने के कारण सचमुच कानपुर में रोजगार के बहुत अवसर थे। कानपुर कपडे़ और चमड़े के व्यवसाय का केन्द्र तो था ही। इसके साथ ही वहाँ लाल इमली जैसी मिल भी थी। और वे एक कपड़ा मिल में मुलाजिम हो गये थे। अभी वे साधारण मजदूर के रूप में भर्ती हुए थे, मगर उनकी कोशिश थी कि उन्हें अपनी योग्यता के अनुरूप काम मिल जाय। फिर भी अब वे कुछ-कुछ निश्चिन्त हो चले थे। अब खोंचा वाले काम जैसी अनिश्चितता नहीं थी। मगर फिर भी उनकी कोशिश थी कि वे अपने मुकाम तक पहुँच जाएँ । पर कानपुर जैसे नगर में रहने की बड़ी समस्या थी। ये शहर लखनऊ की तरह उनका जाना पहचाना भी तो नहीं था। सो वे चिंतित थे। कि कैसे ? कहाँ रहेंगे वे? मगर रामदीन ने उन्हें इस समस्या से भी उबार लिया था-
’’भैया रहय कय फिकिर न करव। हमार कुठरिया हय न। हमरे संगे रहव चलिकय’’
और वे उसकी कोठरी में आ गये थे। कोठरी क्या थी, कच्चे ईटों को मिट्टी के गारा से जोड़कर तीन ओर दीवार खड़ी करके, पीछे किसी की बाऊंडरी का सहारा लेकर ऊपर से फँस का छाजन डाल दिया गया था। और दरवाजा भी इतना छोटा था कि उनकी डील डौल का आदमी तो, बिना निहुरे भीतर जा ही नहीं पाता। मगर उन्हें तसल्ली थी कि आसरा तो मिला। पर रामदीन कोरी था और वे?
’’ चलो कउनव बात नाहीं। खाय कय इंतजाम बहिरे कर लेब। पर बहिरे कहाँ ? अऊ कब तक?। अइसे तव सब कमाई अइसय निकल जायी।’’ और वे फिर सोच में पड़ गये थे। वैसे तो अगर वे रामदीन के हाथ का खा भी लेते, तो उन्हें इससे कोई बहुत परहेज नहीं था। वे अम्माँ के यहाँ इतने साल तक खाते ही थे। मगर जनेऊ के समय उनको दी गयी नानी की हिदायत उन्हे याद हो आयी थीं-
’’ देखव बचवा अबही तलक तु कुंवार रहेव। तब केहु के हिंया खायव-पीयव कउनव बात नाहीं। फेर अब तू ब्राम्हन होय गयव हय। तोहार जनेव होय गवा हय। तब आपन धरम बचाव कय राखेव बचवा।’’
इसके साथ ही अपने गाँव में ब्राह्मणों के बीच रहकर उनमे एक जातीय अभिमान भी जाग उठा था। इसीलिए तो अबकी वे अम्मा की मड़ैया में भी नहीं गये थे। वहाँ जाते तो अभी भी उन्हें मुफ्त तो नहीं, मगर सस्ते में आसरा मिल जाता। मगर वे कोठरी लेकर रहने लगे थे। और बड़ी मुश्किल से कच्चा पक्का खाना भी बनाने लगे थे। मगर यहाँ तो कोठरी भी मिलनी मुश्किल थी। वे इसी सोच में डूबे थे कि रामदीन ने आटे की थैली और ताजी भिन्डी उनके सामने रख दी और-
’’हिंया आपका एक तकलीफ तव करय का परी’’ और उसकी बात सुनकर, वे कुछ डर से गये थे कि-
’’कहीं कोठरी से बाहर तो.....?’’ सोचकर उन्होंने रामदीन की ओर देखा था। मगर उसके चेहरे पर वैसा कुछ नजर नहीं आ रहा था कि.............और उन्होंने कहा-’’ हाँ ऽ ऽ हाँ रामदीन, कहव का बात हय?’’
भैया आप तव हमार हाथ कय खइहव न । तव खनवा तव तुही का बनाय क परी’’ और उन्हें तो जैसे मुँह मांगी मुराद ही मिल गयी थी।
’’ हाँ ऽ ऽ हाँ। काहे नाहीं। हम रोटी पानी करय जानित हय’’ कहते हुए उनके चेहरे से चिन्ता की लकीरें मिट चली थीं।
अब रामदीन के साथ उनकी अच्छी कटने लगी थी। मिल से लौटते समय वे दोनों बाजार जाते और जरूरत की चीजें खरीद लाते। रामदीन सब्जी काट देता और चूल्हा भी जला देता। और फिर उनसे कुछ दूरी पर बैठ जाता। वे खाना बनाते और साथ में रामदीन से बतियाते भी जाते। अपने गाँव घर और रामदीन के जीवन से जुडी बातें । ऐसे ही बातों-बातों में ही एक दिन ’’तोहार परिवार कहाँ हय ? बियाहवा तव होय गवा होई?’’ उन्होंने रामदीन से पूछा था।
और उनकी बात सुनकर रामदीन एकाएक गमगीन सा हो उठा था। फिर धीरे-धीरे उसने कहना शुरू किया था। उसकी आवाज इतनी धीमी और डूबी हुई थी कि लगता था जैसे रामदीन किसी खोह में उतर गया हो। और सचमुच खोह ही तो थी उसकी बीती जिंदगी। फिर रामदीन ने बताया था कि....................
वो बम्हनान का रहने वाला है। और मजूरी ही उसके जीवन का आधार थी। पुरखों से यही करते आये थे वे। घर में आठ भाई बहनों में वो सबसे बड़ा था, सो वो भी अम्मा बप्पा के साथ मजूरी करने भयापुरवा जाने लगा था। और मंझले भया ने उसे गाय बैलों की सानी-पानी में लगा लिया था। बहुत खुश था वो। मजूरी में अधन्नी (आधा आना) मिलती थी उसे। तब उसे उस हिकारत का अहसास ही नही था, जो भया के व्यवहार में व्याप्त था। मगर जब भयाईन काकी, अम्माँ को झिड़कतीं तब उसे कुछ-कुछ बुरा जरूर लगता था। पर फिर भी उसे लगता था कि जैसे अम्माँ उसे, उसकी गलती पर डाँटती हैं, वैसे ही भयाइन काकी भी अम्माँ को? सो सब कुछ चलता ही चला आ रहा था। चलता भी रहता अगर उसका ब्याह न हुआ होता। और सुखिया के साथ वो सब न होता जिसके कारण..........?
अब वो काम से लग गया था। तो उसके लिए बरदेखुआ भी आने लगे थे। अब वो ब्याह के लायक भी हो चला था। सो अम्माँ-बप्पा ने सुखिया के बप्पा को हामी भर दी थी। और फिर उसका ब्याह हो गया। मगर सुखिया अभी छोटी थी। सो तीन साल बाद का गौना तय हुआ था। मगर हल्दी तेल पाकर सुखिया की देह बड़ी जल्दी ही गदरा गयी थी। और उसकी ससुराल से संदेशा आया था कि तीन साल की जगह पर साल भीतर गौना करवा लें। लड़की सयान हो गयी है। और वे सयान लड़की को नइहरे नहीं रख पायेंगे। पर बप्पा ने मना कर दिया था। गौना के खातिर, पइसा भी तो चाहिये था। तब मझले भया ने उन्हें समझाया था। और रूपयों से उनकी मदद भी की थी। मगर उस मदद से बप्पा खुश नहीं थे। और वो समझ नहीं पाया था कि मदद पाकर भी बप्पा खुश क्यों नहीं हैं? फिर उसका गौना हुआ था। और सुखिया उसकी मड़हिया में आ गई थी।
उस दिन उसकी देव पुजईया थी। देव पुजईया के बाद ही उसका गृहस्थ जीवन शुरू होना था। मगर...........। देव पुजईया अभी पूरी भी नही नहीं हुई थी कि भैया का संदेश आ पहँचा था। उनके दरबान ने आकर अम्माँ से कहा-
’’ हे झमकिया मँझले भया येहका बलाये हँय। कोंछ भराई खतिर ’’ और ये कहते हुए उसने एक कुटिल सी मुस्कान के साथ रामदीन को देखा था। और अम्माँ की आँखों में राख सी उभर आयी थी। फिर उन्होंने धीरे से प्रतिवाद सा किया-
’’हे भैया अबहीं तव देव पुजईया नाहीं भय है। अबहीं से ? तनी....’’
’’देख झमकिया हमसे ज्यादा मक्ककर तव करव न। हमका ई सब खबर हय। फेर हमका का ? हम तव कहि देबय कि?’’ कहकर वो जैसे ही पल्टा, झमकिया ने दौड़कर उसकी राह रोक ली-
’’हे भैया हम मना नाहीं करत हन। अबहीं, बस अबहीं पठये देत हन’’ कहते हुए उसने आसमान की ओर देखा था। और उसकी आवाज का दुख गाढ़ा होकर उसके चेहरे में समाता चला गया था। फिर उसका सारा उछाह जाने कहाँ बिला गया था। उसने सुखिया को दरबान के साथ भेज दिया था।
मगर रामदीन सहज ही था। उसे तो इस कांछ भराई का अर्थ ही नही मालूम था। सो उसने अम्मा से पूछ ही लिया था ’’ अम्माँ ई कोंछ भराई का होत हय?’’
मगर अम्माँ ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया था। और वो ये सोचकर चुप रह गया था कि सुखिया जब वहाँ से लौटकर आयेगी, तब उससे ही पूछ लेगा। और जब अधरतिया में सुखिया वहाँ से लौटी थी, तो सचमुच उसकी कोंछ भरी हुई थी। उसमें गेहूँ रूपये और आधी भेली गुड़ था। मगर उसकी आँख में था एक रीतापन। वो समझ नहीं पाया था कि इतना सब पाकर भी सुखिया के चेहरे पर कोई खुशी क्यो नहीं थी। जबकि भया ने उन्हें इतने रूपये तो कभी नहीं दिये। और वो अम्माँ! वो भी क्यो उदास हो उठी थीं।
फिर उसने सुखिया से रात को पूछा भी था। ’’का रे ऊ कोंछ भराई म का का भवा? येतना देर काहे म लाग गा।’’
उसकी बात सुनकर सुखिया पल भर को सिहर उठी थीं। पर उसने अपने को जल्दी ही संभाल लिया था। और
’’कुछु नाही बस देव पुजईया भई ’’ कहकर उसने तुरन्त ढिबरी बुझा दी थी। और वो उस अँधेरे में सुखिया के चेहरे पर और कुछ देख ही नहीं पाया था। वैसे भी उस समय कुछ देखने का अवकाश भी कहाँ था। मगर उस रात को कोंछ के साथ-साथ उसकी कोख भी भरी गयी थी, ये बात उसे बहुत बाद में मालूम हुई थी , जब उसके घर बेटे ने जन्म लिया था। बहुत प्यार करता था रामदीन उससे। जब तक वो छोटा था, तब तक तो कोई रंग रूप उभरा नहीं था उसका। मगर जैसे-जैसे वो बड़ा होता गया था। उसके बाल, उसकी नाक और उसकी घनी भौहें चुगली करने लगी थीं। और उसका मन करता कि वो सुखिया से पूछे कि आखिर ऐसा का किया था उसने कि? पर सुखिया के भोले मुख को देखकर उसे लगता, ’’। नहीं! ऐसा कुछ भी नहीं होगा। तभी तो सुखिया खुशी –खुशी मँझले भया के खेत में, घर में काम करती रही है। जरूर उसे ही गफलत हो रही है,
’’ मगर धीरे-धीरे बच्चे में मँझले भया यानि सुखभजन सिंह का चेहरा पूरी तरह से उभर आया था। अब तो संदेह की कोई गुंजाईश ही नहीं बची थी। पर सुखिया अभी भी वैसी ही थी। बल्कि पहले से भी ज्यादा खुश और बिंदास। शायद उसने हकीकत को स्वीकार लिया था। मगर अब रामदीन गीली लकड़ी सा सुलग रहा था। और एक दिन जब सुखिया ने बेटे को उसकी गोद में डालकर..... कहा- ‘‘ तनिक बहिलाव इहका । हम भया के हिंयां से आइथय । ‘‘ तब रामदीन की सुलगन भक्क से बर उठी थी । और फिर उसने उसे झोंटा पकड़कर घसीट लिया था -
‘‘ बहुतय चुलक बाढ़ी हय तव जाति हव अपने भतार कय लगे । हमका बाउर समझत हव का ? रूकव तुहँय तव अबहिन बताइत हय । ‘‘ कहते हुए वो उठा तो बच्चा गोद से गिर पड़ा था, मगर आज उसे बच्चे की तो क्या किसी की कोई चिन्ता नहीं थी । वो सीधे भीतर मढ़ही में गया और गेंड़सा उठा लाया था....
‘‘ अबहीं तोहार सब चुलकी झारे देत हन,‘‘ कहकर उसने गेंड़सा लेकर सुखिया पर वार किया था । मगर सुखिया छिटकर वार बचा ले गयी थीं । और जोर से रोने लगी थी । उधर गिर जाने के कारण बच्चा भी जोर-जोर से रो रहा था । ये चिल्ल पों सुनकर झमकिया भी भीतर आ गयी थी । और माजरा समझते ही वो सुखिया को पीछे करके उसके आगे आ खड़ी हुई थी ।
‘‘ तू हटव अम्मा । तू नाहीं जानत हव । ई हुआ का चरित्तर करत हय । ‘‘ कहकर वो फिर सुखिया की ओर झपटा, तो सुखिया सास को ठेलकर सामने आ खड़ी हुई-
‘‘ का ? का करिहव ? मार डरिहौ ? तब मारि डारव । फेर असल मरद होव त पहिले वोहका मारव जऊन देव पुजइया के पहिलेन, तोहरे घरे से हमका बलवाय लिहिस ? आऊर तू देखत सब रहेव । का जानत नहीं रहेव कि कोंछ भराई म का होत हय ? ‘‘ कहती सुखिया की आँखों से अंगारे बरस रहे थे ।
‘‘ ससुरी हम पर तोहमत लगाय रही हय। अरे हम जानित तव? वही घरी....।‘‘
‘‘ काहे कबँहू सीसा म आपन मुँह नाहीं देखेव का ?- तुहका आपन मुँह म बुढ़ऊ भया कबहू नाहीं देखाय परिन का ?‘‘
‘‘ ससुरी छिनार । आपन कारिखा हमरी अम्मा पर लगाय रही हय तू । ‘‘ कहकर वो एक बार फिर सुखिया की ओर लपका । मगर अम्मा फिर उनके बीच में आ गयी थीं । अम्मा तू हटव तव, आज हम येहका.........। ससुरी हमरी अम्मा पर ............कहकर उसने गेंड़सा ताना ही था कि.......
“ई कउनव गलत कहत हय का ।‘‘
और ये वाक्य सुनते ही वो कुछ क्षण को तो, काठ सा हो गया था । उसने अम्मा को देखा, उनकी आँखें भी पनिया गई थीं । और फिर वो भया की बखरी की ओर दौड़ पड़ा था । मगर अम्मा दौड़कर उसके आगे आ खड़ी हुईं और फिर अपने हाथों से उसके पैर छाँद लिये थे ।
‘‘ न ऽऽ न । ई न करव बचवा ? तोहका हमार किरिया । हम आपन जवान जहान लरिका नाहीं गँवाइब । देखव अपने बप्पा क । ई एकय गोड़ आऊर एकय आँख कय पैदा नाहीं भये रहे । कह कर फिर वे बुक्का फाड़कर रो पड़ी थीं । और उसने बप्पा को देखा था जो निस्सहाय से टुकुर-टुकुर उसे ही देख रहे थे ।
‘‘ ये ही खातिर बचवा हम तोहका नाहीं बतावा । आऊर तोहरे मेहरियव का बरज दीन कि ऊ तोहका कुछ न बतावय । फेर ई तकदीर का का करि हम कि तोहार बचवा ऊ नासपीटा के मुहरन..........निकर आवा ।‘‘
और ये सब सुनकर उसका मन किया कि या तो वो जरूर भया को मार दे या फिर खुद मर जाये । मगर दोनों में से कुछ भी नहीं कर पाया था वो । क्योंकि उसकी राह में अम्मा की किरिया खड़ी थी । और वो उसे फलाँग नहीं सकता था । सो सिर पकड़कर जमीन पर बैठ गया था । और वो मना रहा था कि ये धरती फटे और वो उसमें समा जाये । मगर वो सीता तो नहीं था कि उसके कहने पर धरती फट जाती । सो अपनी ही घुटन लिये जीता रहा वो । और फिर सब कुछ छोड़कर अधरतिया में ही उठकर भाग आया था यहाँ ।
रामदीन की इस कहानी ने उनके बीच एक सन्नाटा सा खींच दिया था । देर तक दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा था । फिर उन्होंने ही पहल की -‘‘चलव जऊन बीत गा तऊन बीत गा । अब गाँव जाव, अम्मा, बप्पा आऊर सुखिया का लेवाय लाव।‘‘
‘‘ये ही त सोच कय पउर गये रहिन फेर ..............।‘‘ अम्मा, बप्पा हमरे दुख मे चलि बसे। आऊर सुखिया ? ऊ तव मंझले भया के घरय बइठ गई।‘‘ कहते हुए अब रामदीन की आँखें छलक आयी थीं । और माहौल में दुःख और गहरा गया था।
उर्मिला शुक्ल
ए-21 स्टील सिटी अवंती विहार, रायपुर (छ.ग.)
संपर्क:urmilashukla20@gmail.com
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