त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
-------------------------
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
भारतीय समाज आज भी मनुस्मृति जैसे ग्रंथ में निहित मूल्यों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखे हुए है जिसके अनुसार समाज को चार वर्णों में बांटकर लोगों के व्यवसाय को तय करने में भेदभाव पूर्ण भूमिका निभाई है। चार वर्ण यानि ब्राहमण,क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र क्रमश: धार्मिक अनुष्ठान व ज्ञान देने, सुरक्षा व राज करने, व्यापार करने तथा उत्पादन व सेवा के अपने धर्म समर्थित वृत्ती को सदियों से अपनाते आ रहे है । धर्म समर्थित यह वृत्ती मुख्य रूप से पुरुषों को संबोधित करता है जिसमें आजीविका चलाने के लिए मूल रूप से पुरुषों को ही जिम्मेदार माना जाता रहा हैं तथा महिलाओं की भूमिका को घरेलू कार्यों तक सीमित। पितृसत्ता से संचालित समाज में महिलाओं के लिए “गृहणी” शब्द प्रयुक्त हैं लेकिन पुरुषों के लिए इस संदर्भ में कोई शब्द सामान्य रूप से प्रचलन में नहीं है। अपितु अगर कोई पुरुष घरेलु कार्य करता है तो उसे मजाकिया तानों से नवाजा जाता है। इस संकीर्ण नजरिए का परिणाम यह हैं कि महिलाओं द्वारा घर में किए जाने वाले दैनिक कामों को वृति के तुल्य नहीं माना जाता है। बदलते समाज ने जिसकी कई वजहें रही जैसे औद्योगीकरण व शहरीकरण तथा विभिन्न समाजों में समानता, न्याय, बराबरी जैसे नवीन मूल्यों पर विचार विमर्श का शुरू होना आदि ने महिलाओं को आजीविका हेतु आय अर्जन के अवसरों से जोड़ा है। इस अवसर ने महिलाओं की उपस्थिति को वृत्ती के क्षेत्र में तो बढ़ाया लेकिन दूसरी ओर महिलाओं से समाज की संकुचित व संकीर्ण अपेक्षाएँ उनके वृतीक विकास के अवसर सीमित कर देती रही हैं। यद्यपि हर एक काल में महिलाओं के श्रम और सृजन के उदाहरण विद्यमान हैं लेकिन महिलाओं को वृतीक विकास के लिए ऐसे कई अवरोधों का सामना करना पड़ता हैं जिसकी वजह भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक होने में निहित हैं। भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज की विशेषताओं ओत-प्रोत हैं, यह परिवेश महिलाओं के वृतीक विकास को प्रभावित करता है।
महिलाओं के वृत्ती चयन व उससे बनी पहचान के संदर्भ में मैं यहाँ बेबी हालदार के द्वारा लिखित बांग्ला मूल के उपन्यास ‘आलो आंधारी’का जिक्र करना चाहूंगी। कई पहलुओ से यह एक बेहतरीन कृति है। यह कृति एक स्त्री के संघर्ष को उसके अपने शब्दों में प्रस्तुत करती है। पुस्तक का मुख पृष्ठ इस लाइन से शुरू होता है कि “झाड़ू, पोछा,चौका बर्तन करने वाली महिला की लिखी गई अविस्मरणीय आत्मकथा”। झाड़ू पोछा चौका बर्तन ये सब वे कार्य हैं जिसमें महिलाओं से कुशल होने की अपेक्षा के साथ उनके समाजीकरण का एक अनिवार्य हिस्सा बन जाता है। बदलते समाज में आज यह एक वृत्ती बन गया है जिसमें कई महिलाओं के जुडने से अन्य महिलाओं खासकर मध्यम वर्गीय को वृत्ती में अपनी उपस्थिती को बढ़ाने का अवसर दिया है। खैर यह एक अलग मुद्दा है लेकिन पुस्तक के मुख पृष्ठ की इस पहली लाइन पढ़ते ही समझ में आता है कि यह इस व्यवसाय से जुड़ी महिला की आत्मकथा है। किसी भी पाठ्य सामग्री को पढ़ते हुए पाठक के अपने व्यक्तिगत विचार व सवाल बनते हैं। मैं यहाँ अपने विचार या सवाल रखना चाहूंगी। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मैं मुख्यत दो विचारों के आसपास ज्यादा केन्द्रित रही। पहला विचार व्यवसाय चयन व उसे कुशलतापूर्वक पूर्ण कर आत्मविश्वास प्राप्त करने से जुड़ा है और दूसरा विचार व्यवसाय चयन के समय उसके मानसिक द्वंद से संबन्धित है। जैसे-जैसे आत्मकथा आगे बढ़ती है बेबी यह बताती है कि यह व्यवसाय बेबी का व्यवसाय किन परिस्थितियों में बना। यह इस आत्मकथा का एक ऐसा पहलू है जिसके आसपास कई स्त्रियों का जीवन भी लगभग एक जैसा रहता है। कोई स्त्री किसी व्यवसाय का चयन किन परिस्थितियों के आधार पर करती है? किस व्यवसाय में उसे सफलता मिलती है किसमें नहीं? इसमें उसके पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं व वातावरण की क्या भूमिका होती है? इसके जवाब बेबी की आत्मकथा में दिखाई देते हैं। स्त्री के किसी व्यवसाय में सफलता और असफलता का निर्धारण केवल उसके व्यक्तिगत गुणों व मेहनत पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि इस स्थिति पर भी निर्भर करता है कि जो उसने चयन किया हैं उसे कुशलतापूर्वक पूरा करने में उसके परिवेश का क्या योगदान है?
बेबी हालदार घर की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु पहले बच्चों को पढ़ाना शुरू करती है जिससे उसे ठीकठाक आमदनी हो जाती थी। लेकिन कुछ समय बाद ही पति के द्वारा घर की जिम्मेदारियों की उपेक्षा करने, पुन: माँ बनने और उसके परिश्रम का मूल्य ना मिलने के कारण वह अपनी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त आर्थिक उपार्जन नहीं कर पाती है। परिणामस्वरूप वह इस व्यवसाय को छोड़ दूसरा कार्य खोजने लगती हैं। उसे उसके पति के द्वारा घर खर्च के लिए पैसे नहीं दिये जाते और उसे घर चलाने में कठिनाई होने लगती है। कुछ वर्षों बाद स्थिति यह होती है कि कोई उसे ट्यूशन फीस देता, कोई नहीं देता। इस कारण वह यह काम छोड़ दूसरे काम की तलाश करती है। उसे मदद मिलती है उसके पड़ोस में रहने वाली एक घरेलू कार्य करने वाली स्त्री से। वह स्त्री उसे किसी घर में झाड़ू पोछा चौका बर्तन के कार्य में उसे लगा देती है। यह कार्य वह इतनी कुशलता से करती हैं कि लोगों को उसका काम पसंद आता और उसे लगातार काम मिलता रहा। इस काम में मिली सफलता व प्रोत्साहन ने उसके अंदर आत्मविश्वास जगाया कि वह अपने पति से अलग रह कर भी काम करके आय अर्जन कर सकती है और अपने बच्चों को पढ़ा सकती है। उसका यही विश्वास उसे एक अंजान शहर में लाता है और अपनी कुशलता के कारण ही वह लोगो को शिकायत का मौका नहीं देती। बेबी पुस्तक में एक जगह लिखती है कि लोग आश्चर्य से मुझसे पूछते हैं कि “तुम इतना काम कैसे कर लेती हो तो मैं कहती हूँ कि बचपन से किया है इसलिए आदत है।”
व्यवसाय चयन के पहले जो मानसिक द्वंद बेबी के मन में चलते है वे स्त्री के व्यक्तिगत व प्रस्थिति की अपेक्षाओं के साथ साथ उसके परिस्थितियों के द्वंद को सामने लाता है। घर की आर्थिक स्थिति को सुधारना व बच्चो को पढ़ाना उसकी व्यक्तिगत आकांक्षा है जिसे पूरा करने के लिए वह ट्यूशन को वृत्ती के रूप में चुनती है। इसे चुनते हुए उसके जेहन में कोई सवाल नहीं आते और वह आसपास के लोगो से स्वयं बात कर अपना काम शुरू कर देती है। इस वृत्ती को शुरू करने में जो दो बातें निहित है एक तो उसका अपने आसपास उपलब्ध संसाधनो की पहचान और दूसरा उसका इस कार्य में अपना चयन और इस हेतु उसका अपना प्रयास। बेबी कहती है कि पड़ोस में सभी घरों में लगभग तीन से चार बच्चे है जिनकी माताओं से बात कर वह खुद ही इस व्यवसाय की पहल करती है। अपनी पहली उपलब्धि से वह खुश है और सोचती है कि इस काम के साथ वह अपने बच्चों को भी पढ़ा पाएगी।
दूसरे व्यवसाय के चयन में वह लोगो से बात करती है कि कोई उसे नौकरी दिला दे लेकिन लोग उससे पलट कर यह कहते है कि उसे नौकरी करने की क्या जरूरत। जब उसका पति ठीक-ठाक कमा लेता है तो उसे कमाने की क्या जरूरत। उसे हठात यह बैठे-बैठे क्या सूझ रहा है। सत्ता के ढांचे में मूल्यांकन हमेशा सत्ताधीन का होता है सत्ता धारी के मूल्यांकन का तो प्रश्न ही नहीं होता चाहे सत्ताधारी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में सफल न हुआ हो। इसलिए समस्त आक्षेप व प्रश्नो का सामना सत्ताधीन को करना पड़ता है। खैर,अपने पति के व्यवहार से दुखी वो अपने काम की तलाश जारी रखती है। उसे घरों में काम दिलाने का प्रस्ताव एक स्त्री देती है जो स्वयं घरों में कार्य करती है। स्वयं कार्य कर आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के अपने पहल में बेबी निरंतर पितृसत्ता के ढांचे में कैद अपनी सामाजिक प्रस्थिति के द्वंद में उलझती दिखती है। वह कहती है कि अगर मैं यह काम करूंगी तो लोग मेरे बाबा के बारें में कैसी बात करेंगे। उसे पहली चिंता इस बात की नहीं है कि उसे काम किन घरों में किन परिस्थितियों में किन मूल्य पर करना होगा। ना ही उसे चिंता अपने पति की है क्योंकि उसे बेबी का काम करना उसे उसकी जिम्मेदारियों से मुक्त कर उसे आरोपित करने का अवसर देता है। स्त्री तो दो कुलों का दायित्व निभाती है इसलिए उसे पति के साथ साथ पिता की सामाजिक प्रस्थिति का भी सोचना पड़ता है। बेबी की चिंता अब उसके पिता के सामाजिक प्रस्थिति से जुड़ती है। वह सोचती हैं कि लोग उसके पिता के बारे में क्या सोचेंगे। जब कार्य का प्रस्ताव देने वाली स्त्री उसके पिता के गैर जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार को याद दिलाकर उसकी आकांक्षाओं को अधिक महत्व देने की बात करती है तो वह इस कार्य को करने के लिए तैयार हो जाती है। व्यवसाय चयन व किसी व्यवसाय को कुशलता पूर्वक करने की बेबी की यह आत्मकथा केवल बेबी की नहीं है बल्कि इन सवालों व परिस्थितियों से कई महिलाएं निरंतर जूझती रहती है ।
हमें यह बात याद रखनी होगी कि भारत की आजादी के लगभग 68 वर्षों बाद भी बालिका शिशु को वयस्क होने अर्थात समाजीकरण और शिक्षा की प्रक्रिया के दौरान उपेक्षित व भेदभाव पूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता हैं। आज भी भारतीय परिवारों में बालक.बालिका के बीच उनकी वेषभूषा, कार्य जिम्मेदारियों,पोषण आहार तथा घर के बाहर आने जाने की छूट संबन्धित कई आधारों पर भेदभाव किया जाता हैं। यह बालिकाएं अपने विद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के दौरान भी कई प्रकार के लिंगगत भेदभावों का सामना करती हैं जैसे कि विषयों का चयन तथा पाठ्यसहगामी क्रियाकलापों में भागीदारी के दौरान लड़कियों को कुछ विशेष प्रकार की गतिविधियों जैसे नृत्य, संगीत, समाज उपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW) की क्रियाएँ आदि। अतः सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को इन मुद्दों के प्रति संवेदनशील होकर सोचने तथा पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित संगठनिक व्यवस्था में बदलाव पर ज़ोर देना होगा। अन्यथा घर, परिवार और समाज से संघर्ष कर इन संगठनों में प्रवेश करने वाले लोगो में से उन लोगो कई अनापेक्षित पीड़ाओं और व्यर्थ के संघर्षों से जूझना पड़ेगा जो वंचित तबकों से हैं, विशेषकर जो महिलाएँ हैं।
भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विविध तबकों की महिलाओं की शिक्षा के प्रतिशत में यद्यपि लगातार इजाफा देखने को मिलता हैं। लेकिन महिलाओं का वृतीक विकास इन आंकड़ों के सापेक्ष बड़ा नहीं हैं। इन संघर्षों की बानगी और विषमता राजनैतिक भागीदारी की आंकड़ों से समझी जा सकती है-
लोकसभा कुल सीटे महिला सदस्य प्रतिशत
1952 489 - -
1962 494 31 6.2%
1977 542 19 3.5%
2004 543 45 8.2%
2014 543 62 11.4%
उपरोक्त आंकड़ें दर्शाते है कि आधी आबादी से आज 11.4% महिलाएं लोकसभा सीटों पर विद्यमान हैं। सवाल यह भी है कि यह 11.4%महिलाओं की मानसिकता कितनी पुरुषवादी हैं। राजनीति के क्षेत्र में यह महज एक उदाहरण है, कई अन्य राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र इस तरह के आंकड़ों से भरे पड़े है । जिन पर कई व्यक्तियों व संगठनों द्वारा निरंतर अपने विचार रखे जाते रहे हैं। यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि विचार रखना एक पक्ष है और उसे व्यवहार के धरातल पर लाना दूसरा। दुर्भाग्य से हमारा व्यावहारिक पक्ष हमारे वैचारिक या सैद्धांतिक पक्ष से मेल नही खाता। इसके कई उदाहरण महिलाओं के लिए केंद्र व राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न सरकारी योजनाओं में लिंगगत भेदभाव की उपस्थिती देखि जा सकती हैं.जैसे
- कुछ राज्य सरकारों द्वारा बेटी के विवाह पर दी जाने वाली आर्थिक मदद ;जो बेटियों के शिक्षा के उच्च शिक्षा के बजाए उनके विवाह का कारण भी बनती हैं।
- आईटीआई जैसे वोकेशनल कोर्स में लड़कियों के लिए केवल ब्यूटीपार्लर, कूकिंग और हाउस कीपिंग जैसे विकल्प का होना।
- ASHA वर्कर के रूप में ज्यातर महिलाओं की भर्ती या महिलाओं की ASHA वर्कर के रूप में पहचान।
- नर्स के रूप में अधिकांश लड़कियों का दाखिला।
- स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत शौचालय निर्माण की आवश्यकता को घर की बहू बेटीयों की इज्जत से जोड़कर दिखाये जाने वाले सरकारी विज्ञापन।
- शिक्षा के पेशे में शिक्षक के रूप में लगभग आधी संख्या महिला शिक्षिकाओ की है लेकिन जैसे जैसे ऊपर के पदों में यह संख्या देखि जाए तो यह संख्या दहाई में भी मुश्किल से पहुँच पाती है।
यद्यपि महिलाओं के लिए समाज में वृतीक विकास के सीमित अवसर और नेतृत्वकारी भूमिकाओं में निम्न प्रतिनिधित्व के कारण पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की विशेषताओं में निहित हैं। लेकिन किसी महिला की जाति, धर्म, आर्थिक स्थितियाँ, उम्र, शैक्षिक स्थिति और स्तर, परिवार का इतिहास आदि कारकों के द्वारा उसका वृतीक विकास विविध तरह से प्रभावित होता हैं और कई रूपों में परिलक्षित होता हैं।
भारतीय समाज न तो अब एक आदिम समाज हैं और ना ही औपनिवेशिक। वर्तमान भारत एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। मानवीय अस्मिता और पहचान, सामाजिक न्याय, इंसानी बराबरी इसके कोर मूल्य हैं। ऐसे में महिलाओं के वृतीक विकास को समुचित अवसर, परिवेश और नीति निर्धारण को एक अनिवार्यता के रूप में पहचाना जाना चाहिए। इन उद्देश्यों को अपना लक्ष्य मानकर कई सरकारी और गैर सरकारी संगठन कार्य करते है, कर रहें है। नए कार्मिकों के चयन, कार्मिकों के वार्षिक मूल्यांकन और वृतीक विकास के लिए इनकी विकासात्मक नीतियाँ होती हैं। काम के लिए सुरक्षित, समुचित माहौल और अवसर के लिए POSHजैसी समितियों का गठन एक कारगर कदम हैं। एक अन्य सकारात्मक उदाहरण मातृत्व अवकाश या गर्भपात होने पर दिये जाने वाले अवकाश संबन्धित प्रावधान है। लेकिन यह सब यह भी किसी संगठन में पुरुषवादी मानसिकता वाले नेतृत्व के द्वारा कुचला जा सकता है। जैसे कि मातृत्व अवकाश या गर्भपात होने पर दिये जाने अवकाश यदि किसी महिला कार्मिक को देने के उपरांत उसके वार्षिक मूल्यांकन में उसके काम का हिसाब मांगा जाये और इस विशेष आवश्यकता के प्रति संस्थान के नेतृत्व कर्ताओं का उपेक्षित नजरिया हो तो यह नीतियाँ भी पुरुष नेतृत्व की भेट चढ़ जाती है।अन्य कई उदाहरणों में देखा है कि किसी महिला या पुरुष को इसलिए उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है क्योकि वह भाषाई रूप से अल्पसंख्यक है, किसी कार्मिक को इसलिए विकास के समान अवसर नहीं मिल पाते क्योकि वह उस भाषा से अपरिचित है तो उसके बॉस को समझ में आती है। अर्थात पुरुषवादी नेतृत्व काम के अवसरों से महिलाओं और वंचितों का हाशियाकरण करता है। इसके अन्य कई उदाहरण संवैधानिक मूल्यों की पैरवी और विकास के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों में भी वंचितों,पिछड़ों और विशेषकर महिलाओं की सामाजिक सांस्कृतिक यथार्थ की अवहेलना देखी जा सकती है। आज जरूरत है कि सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में काम करने के लिए उभर कर आने वाले विस्फोटक बढ़े.बढ़े संगठन अपनी कार्य शैली में छोटी-छोटी संवेदनाओं के प्रति जागरूक रह कर कार्य करें, अन्यथा इन बड़े विस्फोटक संगठनों का लिखित विजन कितना भी पवित्र हो, हकीकत में ये ईस्ट इंडिया कंपनी के तुल्य साबित होंगे।
संदर्भ.
1. एससीईआरटी पाठ्यपुस्तक, छत्तीसगढ़
2. वृतीक विकास,IGNOU प्रकाशन दिल्ली
3. आलो आंधारी,बेबी हालदार के द्वारा लिखित उपन्यास
वंदना पाठक
संपर्क:Vandanapathak93@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें