‘हलाला’ धर्म की आड़ में मुस्लिम स्त्री के नारकीय जीवन की कथा – इन्द्रदेव शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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  समीक्षा:हलाला’ धर्म की आड़ में मुस्लिम स्त्री के नारकीय जीवन की कथा – इन्द्रदेव शर्मा

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
भारत देश विविध संस्कृतियों और परम्पराओं का देश हैं । यहाँ विभिन्न धर्मो एवं जातियों के लोग रहते हैं । भारतीय संविधान उल्लिखित है कि सबको समानता का अधिकार है । किसी के ऊपर धर्म या संस्कार को थोपा नहीं जा सकता है परन्तु प्रत्येक समाजों की अपनी अलग- अलग मान्यताएँ और संस्कार हैं ।  स्त्री भी मनुष्य जाति का एक अंग है । इसलिए उसे भी पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए । जिन-जिन कार्यों में पुरुषों को अधिकार है उन कार्यों पर स्त्रियों का अधिकार होना ही न्याय संगत है । जब हम भारत की आधी आबादी की बात करते हैं तो इसका अर्थ है - वे तमाम औरतें जो भारत में रह रही हैं । उनकी भी बात की जानी चाहिए वे चाहे किसी भी वर्ग, जाति, धर्म या समुदाय की हों। 

धर्म के नाम पर स्त्री का शोषण, उसके अधिकारों का हनन तो आम बात हो गई है | चाहे वह किसी भी धर्म में हो | सिफ़त ये कि महिलाएं इस प्रकार की थोपी गई ऊटपटांग सामाजिक रिवायतों ढो रही हैं | इन तमाम धर्मों में मुस्लिम धर्म के महिलाओं की स्थिति कुछ ज्यादा ही चिंताजनक और हास्यास्पद है | वो चाहे तलाक के रूप में हो, खतना के रूप में या फिर हलाला जैसी घोर निंदनीय प्रथा, इन तमाम रिवायतों को मुस्लिम महिला सदियों से ढोती आ रही हैं |  भले ही देश विकसित होने की प्रक्रिया में हो परन्तु मुस्लिम महिलाओं के लिए आज भी दुनिया वहीं की वहीं टिकी हुई है | बहरहाल देखा जाय तो सभी धर्म के महिलाओं का शोषण हो रहा है बशर्तें शोषण का तरीका अलग-अलग है । भगवान दास मोरवाल का ‘हलाला’ उपन्यास मुस्लिम स्त्रियों का मुस्लिम समाज द्वारा हुए शोषण को उन तमाम बारीकियों को उजागर करते हैं जिससे स्वयं मुस्लिम स्त्रियाँ भी अपरचित हैं । 
यहाँ हम उस समाज की चर्चा कर रहें हैं (अर्थात मुस्लिम समाज) जिसका वर्णन भगवान दास मोरवाल ने 'हलाला' उपन्यास में किया है । उपन्यास के केंद्र में जाने से पहले हमें ‘हलाला’ शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है । हलाला यानी तलाक शुदा औरत किसी दूसरे मर्द से निकाह करे और फिर उससे तलाक या उसकी मौत के बाद ही वह पहले शौहर के लिए हलाल होती है इसी का नाम ‘हलाला’ है । हलाला मुस्लिम समाज की एक ऐसी प्रथा है जिसमे एक तलाकशुदा पत्नी को अपने पति से दोबारा निकाह करने के लिए उससे पहले किसी दूसरे मर्द से निकाह करना पड़ता है | यही नहीं उसके साथ हमबिस्तर भी जरुरी है | यह उपन्यास मुस्लिम समाज को केंद्र में रखकर लिखा गया है । जिसमें उस समाज के जीवन के विविध पहलुओं को उजागर किया गया है । जिसमें संयुक्त परिवार में हो रहे रोज-रोज के झगड़े और स्त्री शोषण का चित्रण हुआ है । धर्म की आड़ में स्त्री को इतना परेशान किया जाता है कि वह जानवर से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर होती     है -"दरअसल हलाला धर्म के नाम पर बनाया गया एक ऐसा कानून है, जिसने स्त्री को भोग्या बनाने का काम किया है सच तो यह है कि हलाला मर्द को तथाकथित सज़ा देने के नाम पर गढ़ा गया षड्यंत्र है जिसका खमियाजा अन्तत: औरत को ही भुगतना पड़ता है । सज़ा भी ऐसी जिसे आदिम बर्बरता के अलावा कुछ नही कहा जा सकता"1
यह उपन्यास धर्म के नाम पर पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर होने वाले शोषण को केंद्र में रखकर लिखा गाया है । हलाला मुस्लिम औरत के लिए क्यों आवश्यक है ? क्या सिर्फ पुरुष ही तलाक दे सकता है औरत नहीं ? इन सभी प्रश्नों पर मोलवीवों और मुक्तिओं की अपनी-अपनी राय है । इस बात को ठीक से समझने के लिए मुसलमानों की पारिवारिक स्थितियों के बारे में जानना बहुत जरुरी है । मुसलमानों में दो-दो, तीन-तीन औरतें रखना साधारण सी बात है । फिर मुसलमान रिश्ते की बहनों में शादियाँ कर लेते हैं और अक्सर संयुक्त परिवार में रहना पसंद करते हैं । इसलिए पति-पत्नी में झगड़े होते रहते हैं और कभी पति गुस्से में आकर तलाक दे भी देता है चूँकि स्त्रियाँ अल्लाह की नजर में पैदायशी अपराधी होती हैं इसलिए कुरान में पति की जगह पत्नी को ही सजा देने का नियम है । यद्यपि तलाक देने के कई कारण और तरीके हो सकते हैं लेकिन सजा सिर्फ औरत को ही मिलती है । इसे विस्तार से प्रमाण सहित बतलाया गया है जो कुरान और हदीसों पर आधारित है । अगर ऐसा मुस्लिम धर्म ग्रंथों में है तो मानवीयता का पूरी तरह हनन किया गया है । देखा जाय तो हलाला का उद्देश्य पति-पत्नी में सुलह करना नहीं बल्कि तलाक के बहाने मुस्लिम औरत वेश्यावृत्ति का शिकार हो रही है ।      

उपन्यास की कथावस्तु कुछ इस प्रकार है -जिसमें दो परिवार हैं और वे लोग अपने-अपने जीवन में मस्त है । एक ऐसा परिवार है जिसमें चार लोग है, जमाल खां, कमाल खां, नवाब खां और साथ में इनकी पत्नियाँ भी है जिनका नाम नसीबन, फातिमा और आमना है । इन सब के बीच डमरू भी परिवार का सदस्य है । ये सब लोग एक परिवार में संयुक्त रूप से रहते हैं पर आपस में मतभेद भी काफी दिखाई पड़ता है । यह मतभेद 'डमरू ' को लेकर सबसे ज्यादा है। वह एक सीधा-साधा इन्सान है डमरू के अन्दर छल-कपट जैसी भावना नहीं है । पारिवारिक मतभेद होने के कारण डमरू का भी मन नही लगता है । वह भी शांति की तलाश में कुछ दिन के लिए साथी लपरलेंडी(पात्र) के सुझाव में जमात पर चला जाना चाहता है । क्योंकि उसके ऊपर अपने भावज की कई शंकाये रहती हैं । लपरलेंडी डमरू को इस पंक्ति के माध्यम से समझाता है । 

                       " तिरिया और तुमड़ी, सब बिष की सी बेल ।
                         बैरी मारे दाव सू, तिरिया मारे हँस-खेल" ।।2 

यह उस घर में तीन भावज की बात कर रहा है एक को छोड़कर चिंतित है कि यह भी उनकी सम्पति में हिस्सा का भागीदार होगा । धर्म की आड़ में क्या-क्या हो रहा है ।इस उपन्यास में देखा जा सकता है। सब लोग यह भली-भांति जानते हैं कि इस्लाम में इबादतें को महत्त्वपूर्ण माना जाता है । जिसमें नमाज़, ज़कात, रोज़ा, हज सभी मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं । उपन्यास में कई प्रकार के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया गया है । एक कहावत है कि ‘आदमी अपने दुखों से नहीं पड़ोसी के सुखों से परेशान है’ वह पात्र है- लपरलेंडी । इस उपन्यास में कई प्रकार के चुगलखोर को दिखाया गया है जो अपने से ज्यादा पड़ोसी की चिंता रखते हैं । उपन्यास के केंद्र में जाएं जिसका वर्णन लेखक ने किया है वह है -'हलाला' । 

डॉ संतोष राय ने अपने एक लेख ‘हलाला के बहानें मौलवी लेते हैं कमसीन महिलाओं का मजा’ में इस प्रकार लिखा हैं -"इस्लामी पारिभाषिक शब्दों में “हलाल, और “हलाला” यह ऐसे दो शब्द हैं, जिनका कुरान और हदीसों में कई जगह प्रयोग किया गया है । दिखने में यह दोनों शब्द एक जैसे लगते हैं ।यह बात तो सभी जानते हैं कि जब मुसलमान किसी जानवर के गले पर अल्लाह के नाम पर छूरी चलाकर मार डालते हैं, तो इसे हलाल करना कहते हैं । हलाल का अर्थ ‘अवर्जित’ होता है। लेकिन हलाला के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं । क्योंकि इस शब्द का सम्बन्ध मुसलमानों के वैवाहिक जीवन और कुरान के महिला विरोधी कानून से है । कुरान में अल्लाह के बनाये हुए इस जंगली और मूर्खतापूर्ण कानून की आड़ में मुल्ले, मौलवी और मुफ्ती खुल कर अय्याशी करते हैं"  हलाला दो परिवारों में फूट डालता यह सामाजिक मर्यादाओं को भी तोड़ता है । जो लोग दो दिन पहले मित्र होते हैं वही आज एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं । यहाँ एक कहावत का उल्लेख करना मुनासिब समझता हूँ ।'गरीब की जोरू सब की भाभी' जो इस उपन्यास में सौ फीसदी सही बैठता है । किसी स्त्री का सुन्दर होना और साथ ही हँस-मुख स्वभाव का होना भी उसके लिए खतरा होता है। 

              धान पुराणों घी नयो और कुटम- परिवार । 
             उनको टोटो कहा करे, जिसकी हँसती पावें नार ।।3  

उपन्यास में उपन्यासकार ने एक ऐसी स्त्री को लिया है जो हँस-मुख स्वभाव की है । जिसका नाम नज़राना है । इसका घर में कुछ आपसी झगड़ा होने की वजह से पति से तलाक हो जाता है। इस तलाक का कारण डमरू को नसीबन इस प्रकार बताती है "वैसे यह सारा बीज या हरामी टटलू का बोया हुआ है । वाही की ही बेटा बहू पे गलत नजर । जब बहू काबू में न आयी तो ई अफवाह उड़ा दी के बाको चाल-चलन ठीक न है । ऐसा ढेड रावण सू हम कहान तलक बचती डोलें ई तो ऊ बात होगी के वही बहू को पीसनों, वही की खाट आवे पिसनों, सतकत आवे खाट"4 भगवान दास के इस उपन्यास में एक नयापन दिखाई देता है। वह है मुस्लिम स्त्री चेतना । अगर स्त्रियों को लगातार दबाने की कोशिश की गयी तो वह अब शांत नही बैठेगी ‘आमना’ को जब उसका पति मारने की धमकी देता है । तब आमना जवाब इस प्रकार देती है कि "तू अबके हाथ तो लगा के देख... दारी का ए कच्चो ना चबा जाऊं तो!"5 

हलाला उपन्यास को पढ़ने से यह संकेत मिलता है कि स्त्रियाँ के अन्दर चेतना जगी है जो जवाब भी दे सकती है उपन्यास में एक नया मोड़ तब आता है । जब 'हलाला' के लिए किसी स्त्री को अनेक अंतरविरोधो का सामना करना पड़ता है जिसमें पहला है जिस घर में वह विवाहित रही है । दूसरा जहाँ वह 'हलाल' होने जाती है और धर्म के ठेकेदारों, मौलवी, मुक्ति, हफिजो द्वारा उसका शोषण होता है । इतना ही नही और अन्य आरोप लगाया जाता है । धार्मिक ठेकेदारों द्वारा धर्म और शरीयत का हवाला देकर कई प्रकार से शोषण होता है । क्योंकि इन ठेकेदारों ने अपने सुविधा के लिए अब तक कई हलाला सेंटर भी खोल लिए है । जहाँ मनमाफिक धन उगाही करते हैं  । साथ ही वह उनके मौजमस्ती का अड्डा भी होता है । जहाँ वह कई प्रकार के पुरषों को भी पाल कर रखते हैं ।  जिन्हें पैसे के मुतावित भेजते हैं । 

यहाँ तक की उन हलाला करने वाली स्त्रियों की बोली भी लगाते हैं । जिस प्रकार 'साड़ की बोली उसके अगली नश्ल को बढाने के लिए लगाया जाता है उपन्यास में मौलवी ने कहा है कि शरीयत के अनुसार ही हलाला होना चाहिए जिसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है - "जी शरीयत के अनुसार हलाला यह नहीं कि खाली निकाह कराकर फिर तलाक दिलवा दो...। यह तो अल्लाह पाक में एक और गुनाह हो गया है । ऐसे तो रोज तलाक दो और रोजाना हलाला कराओ । इसके मायने यह हुआ की आपको हलाला का असली मकसद और मतलब ही नही मालूम है । हजरत हलाला के बारे में नवी सल्ला हेव लैह असलम ने फ़रमाया है की हलाला के लिए सिर्फ दूसरा निकाह ही काफी नही है, बल्कि उस वक़्त तक औरत पहले शौहर के लिए हलाल नही हो सकती, जब तक वह दूसरे शौहर के साथ हमविस्तर न हो"6 इन सब के बीच स्त्री कठपुतली बनकर नाचती रहती है । 

यह कहां का नियम है जो गलती उसके पति ने तलाक करके किया उसका अंजाम स्त्री को भुगतना पड़ रहा है । फिर उसी घर जाने के लिए इतने जुल्म सहना होता है । लेकिन मजे की बात तो यह है कि जब दूसरे आदमी के साथ निकाह हो जायेगा तो स्थिति भिन्न हो सकने का डर बन जाता है । जैसे वह पुरूष अपने मर्जी के अनुसार तलाक देगा । इसका मतलब वह अपने मर्जी के अनुसार रख सकता है । अब वह स्त्री कहीं की नहीं रह जाती है । वह कठमुल्लों दलालों और मौलवियों के बीच पिसती रहती है । कल्लो जो अपने बहू का हलाला करवाना चाहती थी उसे जब मौलवी द्वारा जानकारी मिलती है कि उसकी बहू को हलाला करने वाले के साथ हमबिस्तर भी होना पड़ेगा तब वह भी उसे रखने को तैयार नहीं होती है । कल्लो का सर चकरा जाता है और कुछ समय के लिए उसका दिमाग काम करना बंद कर देता है ।  

निष्कर्ष – इस प्रकार कहा जा सकता है कि समाज में हलाला के आड़ में स्त्रियों का जबरजस्त शोषण किया जाता हैं । वह दो परिवारों के बीच पिसती रहती है । पहला वह जिस घर से पति के कारण अलग कर दी गयी । दूसरा वह जहाँ हालाल के लिए भेजा जाता है । अब यह कहा जा सकता है कि यह पुरूषवादी सत्ता और सामाजिक पारिवारिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा स्त्री के दैहिक के खिलाफ बिगुल बजाने और महिला शुचिता को बचाए रखने की कोशिश है । नियाज, डमरू, नजराना, के माध्यम से स्त्री पुरूष आदिम संबंधो लोक संस्कृति के रंगों और किस्सागोई से पगा यह उपन्यास हिन्दुस्तानी गंध लवरेज है । लेखक भगवान दास मोरवाल ने कल्लो में माध्यम से मुस्लिम समाज में स्त्रियों की बदहाली को दिखाया है । इस समाज में न जाने कितनी ‘नजराना’ जैसी स्त्रियाँ शोषण का शिकार हो रही हैं । यह उपन्यास पाठक के सामने कई सवाल खड़ा करता है । अपने पहले शौहर द्वारा तलाक दे दी गयी नज़राना का उसके पड़ोसी व दूसरे मर्द डमरू यानी कलसंडा से तथाकथित निकाह और इस निकाह के बाद फिर से तलाक देने की कोशिश के बावजूद नजराना को क्या उसका पहला शौहर नियाज और उसका परिवार उसे अपनाने के लिए तौयार हो जायेगा ? हलाला बजरीए नज़राना सीधे-सीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिक-सामाजिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिक-शोषण के खिलाफ बिगुल बजाने और स्त्री सुचिता को बचाए रखने की कोशिश का आख्यान है । भगवान दास मोरवाल एक बार फिर उस अवधारणा को तोड़ने में सफल हुए है कि आजादी के बाद मुस्लिम परिवेश को केंद्र में रखकर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं ।     

सन्दर्भ ग्रन्थ 
1 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 188
2 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 36  
3 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 65 
4 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 77 
5 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 85 
6 हलाला, भगवान दास मोरवाल, पृ.सं 130 

                                                                           
इन्द्रदेव शर्मा
शोधार्थी ,हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
संपर्क 7668904682 

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