त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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समीक्षा:-'फाँस' – किसान जीवन की करुण गाथा /डॉ. वन्दना तिवारी
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
संजीव को आज एक ऐसे कथाकार के रुप में पहचाना जा रहा है जो एक विषय पर पहले अनुसंधान करते हैं फिर उस अनुसंधान का पक्ष अपनी सृजन धर्मिता में तब्दील कर पाठक-संसार को सौंप देते हैं। उनके अनुसार उनके लिए “साहित्य कोई निष्क्रिय उत्पाद नहीं है। मनुष्य की ऊर्जा को मनुष्य के लिए इस्तेमाल करते हुए उसे मनुष्य बनाए रखना है। ” नोबेल पुरस्कार विजेता दक्षिण अफ्रीकी रचनाकार नादीन गार्डीमर ने कहा था – “एक लेखक अपने ‘विषय’ से पहचाना जाता है और वे विषय उसकी समसामयिक युग चेतना से गढ़े जाते हैं। ”
संजीव के नए उपन्यास ‘फाँस’ की पृष्ठभूमि है देशभर में लगभग पिछले दो दशकों से बढ़ रही किसानों की आत्महत्याएँ। यों उपन्यास में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के गाँव के बनगाँव का चित्रण किया गया है, लेकिन इसमें आंध्रप्रदेश व कर्नाटक के किसानों सहित भारत के उन सभी किसानों की कहानियाँ शामिल हैं, जिन्हें पहले जी. एम. बीजों का इस्तेमाल करने के लिए फुसलाया गया और फिर कर्ज दिया गया लेकिन कुछ सूखे की मार और कुछ प्रकृति के साथ अनाचार के कारण सीधे-सादे किसानों की जिन्दगी कर्ज और सूखे के बोझ तले इस तबाही में आत्महत्या की तरफ बढ़ती गयी। बहुत ज्वलंत मुद्दा चुना है संजीव ने और शायद हिन्दी में पहली बार प्रेमचंद के ‘गोदान’ के बाद किसानों और गाँव की पूरी जिन्दगी का दर्द और कसमसाहट सामने आई है।
कुछ सुविधाभोगी लोगों को लगता है कि किसान अपना भाग्य बदलना नहीं चाहता। भाग्य बदलने के लिए जो यथेष्ट कोशिश होती है, वह हो नहीं रही। शकुन ऐसे कथन को हँसकर उड़ा देती है – “पत्तलों में नहीं खा रहे ? या कि जमीन पर नहीं सो रहे ? लेकिन कोई भी तपस्या आज तक फलवती हुई क्या ? कहने को दो एकड़ की खेती ? मिला क्या ? कापुस तक एकदम से दगा दे गया, मक्का सिर्फ नाम का जो थोड़ी बहुत उम्मीद है, वह धान से। वह भी कितनी। दो साल से ही सूखा है। यह तो कहो, पास ही जंगल है जिससे सहेरा, शाल के बीज, मावा, बाँस, लकड़ी आदि से कुछ न कुछ मिल जाता है, वरना तो ब्राह्मणों की रहनुमाई करते बीतती। वर्षों पहले कापूस का नया बीज आया तो एक आस जगी थी। वो भी साला नपुसंक निकला अब चारों तरफ निराश किसानों का एकमात्र अवलम्ब बचा जंगल। उस पर भी वन विभाग का नया फरमान-छूना मत ?” (फाँस, पृ.सं.-25-26)।
शकुन के शब्दों में किसान की दशा और विवशता का चित्रण है। खेती से मिली असफलता और पुनः असफलता की वजह से यदि किसान जीवन यापन के लिए कुदरत की देन जंगल की तरफ सहायता के लिए हाथ बढ़ाता है तो वहाँ प्रतिबंध है। बिना परमिशन के किसी भी चीज को छू नहीं सकते। न फल, न फूल, न पत्ती। भले ही पड़े-पड़े सूख जाएँ। किस्मत में आए दिन बेइज्जत होना लिखा है तो क्या कर लोगे ? विकास के नाम पर आदिवासियों से उनका सब कुछ छीन लिया गया। सरकार की मिली भगत से तरह-तरह के अत्याचार सहते हैं। सरकारी कारिन्दों को उसकी बदतमीजियों के लिए गाँव की औरतों ने पीट डाला तो पूरे गाँव पर ही तबाही आ गई। सबकी पेशी होती है। पूछा जाता है, “आप लोगों को मालूम नहीं कि बिना परमीशन के आप जंगल के किसी पेड़ को छू नहीं सकते। न बाँस, न बल्ली।”
भीड़ से जवाब आता है “और जो सुअर, भालू, बंदर खाते हैं, परमीशन लेते हैं ?”
बहस मत करो, ‘सरकारी कर्मचारी गुर्राया।
“और हम आपके सिपाही को अपनी मुलगियों के साथ मनमर्जी करने देते वो ठीक था ? मुलगी ने मुँह नोच लिया तो गलत हो गया ?” (पृ.सं.-27)
चौधरी छोटूराम ने पहले ही किसान को सावधान करने की कोशिश की थी - ऐ किसान ! चौकस हो के रह। चौंकन्ना बन। होशियरी से काम ले। यह दुनिया ठगों की बस्ती है और तू बड़ी असानी से काम ले। यह दुनिया ठगों की बस्ती है और तू बड़ी आसानी से ठगों के जाल में फँस जाता है। जिनको तू पालता है वे भी तेरे विरुद्ध हैं और तुझे खबर तक नहीं। कोई पीर बन कर लूटता है कोई पुरोहित बनकर लूटता है।”
‘फाँस’ उपन्यास की शकुन कहती है कि उसने किस देवी-देवता की पूजा नहीं की मन्नत नहीं माँगी, लेकिन कुछ बदला ? कुछ नहीं।
‘उसे दिन पर दिन इन देवी-देवताओं पर संशय होता जा रहा था।’
चौधरी छोटूराम किसान की भेष बदलने वाले वस्तु लूट का क्रम जारी रखने वालों से फिर आगाह करते हैं - कोई तुझे शाह बनकर लूटता है। कोई रिश्वत से लूटता है। कोई ग्राहक बनकर ऊन-सी उतारता है। कोई आदत से तुझे ठगता है, कोई कमीशन से तेरी दौलत चट कर जाता है। ---- कोई तुलाई में तेरी आँखों में धूल डालता है। कभी भाव में तुझसे धोखा किया जाता है कभी हिसाब में तुझे दल दिया जाता है।
‘फाँस’ का शिबू खेती की दशा देखकर मायूस है। सोचता है कि अकेला होता तो चला भी जाता कहीं ......... नागपुर, नासिक, मुम्बई, दिल्ली। लेकिन ये दो-दो मुलगियाँ, वायको (पत्नी) इन सबको लेकर कहाँ जाऊँ ?
बेटी कहती है - तुम ही नहीं, इस देश के सौ में से चालीस शेतकरी आज ही खेत छोड़ दें अगर उनके पास कोई दूसरा चारा हो। 80 लाख ने तो किसानी छोड़ भी दी। ’ परन्तु जैसे अन्न उगाना खिलाना भारतीय संस्कृति का बड़ा काम, बड़ा दायित्व रहा है ऐसे ही सरस्वती के इन्कार करने पर छोटी को विद्वान का कथन याद आता है - एक विद्वान ने कहा है कि खेती कोई धन्धा नहीं, बल्कि एक लाइफ स्टाइल है, जीने का तरीका, जिसे किसान अन्य किसी भी धन्धे के चलते नहीं छोड़ सकता। सो तुम बाबा-तुम लाख कहो कि हम खेती छोड़ देंगे, नहीं छोड़ सकते। किसानी तुम्हारे खून में है। ’ छोटी ने ‘देशोन्नति’ में विजयेन्द्र सर का लेख पढ़ रखा है। संगी अशोक से इसी विषय पर बातें होती हैं और पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए मिलती रहती हैं।
आज कॉरपोरेट सेक्टर और सरकारों के बीच सम्बन्ध पहले से कहीं ज्यादा पुख्ता हो रहे हैं। नवउदारवाद का भारत में प्रवेश 1990 के आस-पास माना जाता है। तब से बाज़ारवादी शक्तियों को खुली छूट मिलने लगी। राज्य ने आम जन को दिखाना शुरु किया कि अब मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा (साफ हवा और पानी भी नहीं)। राज्य ने घाटा उठाने वाले उद्यम में निवेश करने से इन्कार कर दिया। ‘फाँस’ उपन्यास बार-बार सिद्ध कर रहा है कि खेती से ज्यादा घाटा कहीं नहीं। नहीं तो 80 लाख लोग किसानी क्यों छोड़ देते ? नवउदारवाद का आधारभूत स्वरूप यही है कि मुनाफे की स्थिति में पूरा लाभ व्यक्ति (पूँजीवादी) को घाटे या खतरे के लिए समाजीकरण की खिड़कियाँ खोल देता है जो मुनाफे के वक्त बंद रहती है। बालजाक ने व्यवसायी वर्ग तथा कॉरपोरेट वर्ग के सम्बन्ध में कहा था कि “प्रत्येक सफल व्यवसाय के पीछे एक आर्थिक अपराध छिपा हुआ है जिसे पकड़ा नहीं गया है। ”
कॉरपोरेट हितों का ध्यान रखते हुए बड़े-बड़े उद्योगपति, बैंकों से करोड़ों रुपया कर्ज लेते हैं परन्तु नहीं। ‘फाँस’ उपन्यास की शकुन कहती है – ‘इस देश का किसान कर्ज में ही जन्म लेता है, कर्ज में ही जीता है, कर्ज में ही मर जाता है।’
तब छोटी ज्ञान बघारने का अवसर हाथ से नहीं जाने देती, कॉरपोरेट- सोशल रेसपांसब्लिटी इन देश-विदेशी सेठों की जिम्मदारी। आपूर्ति उतनी ही होती है जितने में इसका ग्राहक बचा रहे। किसी को भी किसानों की आत्महत्या की फिकर नहीं। किसी को भी नहीं। पिछले बरस सात हजार किसानों ने आत्महत्या की थी। अखबार, रेडियो, टी.वी. सबने अफीम खा ली, खबर तक न हुई।
शिबू का एक हाथ शिवाजी ने पकड़ रखा था, दूसरा राणा प्रताप ने, शिबू करे तो क्या करे , शिवाजी और राणा प्रताप .....। आप पूछेंगे इक्कीसवीं सदी में ये कहाँ से आए। तो ऐसा है कि ऐसे समझना होगा। शकुन का पति शिबू आपको बताएगा कि अपने सुनील काका में थोड़ा-थोड़ा दोनों है। एक हुकाँरती हुई आवाज का नाम है सुनील, खबरदार जो किसी ने कर्ज लिया, खबरदार जो किसी ने आत्महत्या की तरफ कदम बढ़ाए। कोई भी खुद-ब-खुद यमराज के पास नहीं जाएगा ......।’ काश जिन्दगी सुनील काका की हुंकार की तरह सीधी और सपाट होती। (पृ.सं.-27)
जब से वनरक्षी खुदाबख्श ने उसकी छोटी बेटी कलावती की बाँह पकड़ी उसके संकल्प हिल गए हैं। लड़की की जात। आज खुदाबख्श है, कल कोई और होगा, परसों कोई, और। इसका जल्दी शादी-ब्याह करना पड़ेगा। सुनील ने कहा कर्ज मत लो। ’ चलो नहीं लेते कर्ज। लेकिन पहले के लिए हुए कर्ज का क्या होगा ? जिन्दगी एक दूसरे को कैसे प्रभावित करती है। बस शादी की चिंता हो गई पिता शिबू को। आज खुदाबख्श तो कल कोई और, स्कूल जाने से तो पहले ही रोक लिया था।
समाज का यथार्थ ही साहित्य में बोलता है, बस दृष्टि चाहिये उसे समझने और फिर बयान करने की। उपन्यास की शुरुआत में ही समाज की एक प्रवृत्ति सामने आ जाती है और वह है लड़कियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने की। महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के वनगांव में भी लड़कियों के प्रति वही नजरिया है, जो हिन्दी प्रांतों में। ‘छोटी मुलगी (लड़की) स्कूल के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद अपनी सहेली मंजुला के साथ उसके गाँव क्यूँ चली गयी। , तूफान आ गया, मानो अनर्थ हो गया। ‘और पढ़ाओ इन मुलगियों को, जैसे बैरिस्टर बनेगी।’ पिता शिबू ने फरमान सुना दिया आगे से स्कूल जाना बंद।
संजीव ग्रामीण भारत के कथाकार हैं, इसलिए हर शब्द से प्रामाणिक तस्वीर बनती चलती है। किसान के लिए गाय, बैल, बकरी सब परिवार के हिस्से होते हैं। माकडू बैल घर का वासरु है। मकरी गाय की निशानी। ‘उसके बाद गाय नहीं ले पाये हम। उसे मत बेचना। ’ गोदान के दृश्यों की याद दिलाता है। कीचड़ में फँसे बैल की मर्मांतक मौत का चित्र वही खींच सकता है जो उस कीचड़ में सना हो।
किसान मोहन बाघमारे कर्ज लेने जाता है किसी अधिकारी के पास। उपन्यास का एक-एक शब्द पाठक के आर-पार होता जाता है। किसानों के नाम पर वोट लेने वाली सरकारें कैसी क्रूरता से किसानों से पेश आती है, मानों अंग्रेजी सरकार अभी भी कायम हो। खेती के लिए कर्ज न देने के हजार बहाने। पचास कानूनों की दुहाई लेकिन मोटर साईकिल के लिए तुरंत तैयार। जैसे-तैसे कर्ज लेकर जिंदगी खींच रहा था मोहन बाघमारे का परिवार सूखे की चपेट में आ गया था। सूखे के कारण बैल का सौदा करना पड़ा। एक को साँप ने काट खाया दूसरे को मजबूरी में कसाई को बेचना पड़ा और फिर खुद ही मोहन बैल की जगह खेत जोत रहा है। ताई ने हल की मूठ पकड़ रखी है लेकिन धर्म का फंदा ऐसे सस्ते में थोड़े छोड़ेगा।” कसाई को बैल बेचा। महापाप। बहुत भयंकर पाप है गो वध। प्रायश्चित का एक ही उपाय है बैल के गले का फंदा गले में डालकर भिक्षा पात्र लेकर भीख मांगनी पड़ेगी। शुद्धि तक न घर में घुस सकते हैं न मनुष्य की बोली बोल सकते हैं। “स्वामी निरंजन देव गिरी जैसे पंडित सुझाते हैं यह प्रायश्चित काशी के जो हैं। पूरी दुनिया में काशी के पंडितों का कोई सानी नहीं। शिवाजी महाराज को भी उन्होंने क्षत्रिय बनाया। (पृ-57) और सीधे सादे किसान को धर्म और विकास की चक्की के दो पाये ने किस्सा किवदंती बना दिया। कोई कहता वर्धा बस स्टैण्ड पर उन्हें देखा कोई सेवा ग्राम में बताता कोई फलाने मंदिर में। बा....बा.... करके भीख मांगते। जाति की जकड़न ! भूख की तड़पन और बराबरी की आकांक्षा ले गई इन्हें बौद्ध धर्म की शरण में। संजीव ने सचमुच घटना की बुनियाद को पकड़ा है। आखिर बाबा साहेब आम्बेडकर और दूसरे लोग पचास के दशक में बौद्ध धर्म की तरफ क्यों गये ? पहले आजादी का इंतजार किया और हारकर धर्म छोड़ना पड़ा।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में अमेरिका के पी. एल. 480 के दान की उदारता, घातक हथियार बेचने में राजनीतिक दाव-पेंच, तेल कुओं में वर्चस्व की कोशिशें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जंजाल सभी कुछ एक रेखीय है। संजीव के ही उपन्यास ‘रह गयी दिशायें इसी पार’ में कहा गया है – ‘वैज्ञानिक के पास प्रतिभा होती है लेकिन पैसा, पैसा तो पूँजीपति के पास होता है या फिर शासक या सरकारों के पास। ये सेठ और सरकारें उन्हें खिलाती हैं, पैसे देती हैं, पालतू बनाती हैं। ’
पूँजी के प्रति उदार नीतियों वाले प्रजातंत्र में किसान की आत्महत्या शायद उतना बड़ा सवाल नहीं रहा।
‘फाँस’ में मोहन जब नाना से कहता है कि उसे कोई काम चाहिए। नाना उसे बताते हैं - काम तो इन दिनों एक ही है- बालू, मिट्टी, ईंट या खाद की ढुलाई। सड़कों के किनारे सारी खेती वाली जमीनें बिक चुकी हैं। मकान बन रहे हैं। आने वाले दिनों में सिर्फ बिल्डिगें होंगी, चमचमाती सड़कें होंगी और चमचमाती गाडियाँ न हमारे तुम्हारे जैसे लोग होंगे, न खेती, न हमारी तुम्हारी बैलगाडियाँ (फाँस, पृ.सं.-36)
विकास का अविवेकपूर्ण मॉडल सारे देश के किसानों को तबाही के रास्ते पर धकेल रहा है। विदेशी गाय तो आ गई। तीस-तीस किलो दूध भी देती है। लेकिन इस बार तो समस्या और विकराल थी। आखिर इतना दूध देनेवाली गायों को खिलाए क्या ? जब अपने पेट के लाले पड़ रहे हों तो इन गायों का साना पानी कैसे हो ? दूध बेचने बाजार निकले तो उसके खरीददार नहीं। बस सरकारी दलालों की बन आई। जब ये गाय दी गई थी तो उन्हें कमीशन मिला और मजबूरी में किसानों को बेचनी पड़ रही है तो इन साहूकारों और दलालों के फिर वारे-न्यारे। प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईनाथ ने अपने मशहूर रिपोतार्ज में बार-बार इन समस्याओं पर लिखा है। ये विदेशी नस्ल की गाय खुद तो खत्म हुई ही देशी नस्ल की गाय और बछड़े भी क्षेत्र से गायब हो गये। यानी विकास की अंधी दौड़ में खेत भी बंजर और जानवर भी। और अब आत्महत्या के बाद मनुष्य भी।
बदले हुए दौर में विपदा झेलते हुए किसान के पास या तो करने के लिए अपना जिगर है या बेचने के लिए खेत- जानबूझकर बेटी विद्या का ब्याह किसान से नहीं, मजदूर परिवार में किया ...... पाँच एकड़ खेत दोनों बेटों की पढ़ाई और बेटे की शादी में होम हो गये। लड़का एम. ए. पी. एच. डी. करके बैठ गया। छोटका मुम्बई जाकर फिल्म में अपनी किस्मत आजमाना चाह रहा था। दोनों को दो-दो लाख चाहिए था। अंधेर है। सारी पढ़ाई पढ़ने के बाद भी घूस दो तो नौकरी लगे। पहले खेत बेचकर पढ़ाया, अब खेत बेचकर घूस देना पड़ेगा, जबकि नौकरी लगेगी या नहीं, कोई गारंटी नहीं। ’ पढ़े-लिखे लड़के खेती करना अपमान समझते हैं। खेत से गये, बेटों से गये, आमदनी से गये, उम्र से गये और बेटे सूदखोरों की तरह सिर पर सवार। ’
सिन्धुताई कहती है - “जो पढ़ाई, खेती से घृणा करना सिखाये स्वार्थी बनाये, वैसी पढ़ाई को चूल्हे में न डालूँ। ”
इन तीन बातों को सूत्रबद्ध करना चाहिए। कोलोनियाँ बनाने के लिए पूँजीपति सड़कों के किनारे वाली उपजाऊ जमीनें खरीदते चले जा रहे हैं। कृषि योग्य भूमि छीनती चली जा रही है। बच्चों की पढ़ाई और शादियों पर खर्च इतना ज्यादा होता है कि फिर जमीन बेच कर खर्च का धन चुकाना पड़ता है। जो बच्चे पढ़-लिख जाते हैं, संस्कार विहीन संस्कृति विहीन और किसी हद तक इतिहास और ज्ञान विहीन होकर खेती के काम को आम तौर पर अपनाना नहीं चाहते। जिनको नौकरी मिल जाती है, वे घर छोड़कर चले जाते हैं और नगरों, महानगरों का आकर्षण और आधुनिकता की छुअन गाँव लौटने नहीं देती।
उनके बारे में वर्धा वाली मास्टरनी कहती है - अकेला कमाने वाला आदमी दो-दो मुलगों को पढ़ाया। मुलगी को पढ़ा कर शादी की। समूचा गाँव जानता है कि एक बैल मर जाने पर खुद बैल बना। शेतकारी आंदोलन में पुलिस के टॉरचर से प्रायः अपंग हो गया था बेचारा फिर भी उसने परिवार और बच्चों को कष्ट न होने दिया ....... वह असफल हो सकता है लेकिन बेईमान नहीं।
आर्थिक दुर्दशा में सरकारी कर्ज दिखने में वरदान लगता है। ठेल-ठाल कर गाँव वाले मोहनदास बाघमारे को कृषि दफ्तर पहुँचा देते हैं। पड़ोसी जाधव साथ भेजा गया कि अगर वह गूँगे बने रहेगें तो वह उनकी विवशता बता सके। जाधव अधिकारी से कहता है कि वे लोग सभी जगह जा चुके हैं, कहीं से लोन-वोन नहीं मिला। कहते हैं- ’हीरो होंडा लेना है तो बोलो। खेती के लिए कितना लोन मिलेगा ?
‘फाँस’ उपन्यास में पूरा गाँव परेशान है। ‘सो नहीं पा रहा। ’ सिंधुताई पति के पीछे दबे पाँव जाती है, जो अकेले में पागलों की तरह जिस-तिस बड़े-पंछी से बातें करता रहता है - सुनने की कोशिश करती है किसी से न बोलने वाला उसका पति किससे बतिया रहा है। ऐसे में अकेले पड़ते-पड़ते लोग इतने अकेले हो जाते हैं कि जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है। सोचते हैं मेरे जीने में क्या है और मरने में क्या ?
‘मरना एक मुक्ति है और जीना एक बेहान। आये दिन तो आत्महत्या की खबरें सुनते हैं। जिधर देखो उधर, कोई पेड़ की डाल पर लटका पड़ा है, कोई कुएँ में गिर पड़ा है तो कोई कीटनाशक खाकर मुहँ से झाग फेंक रहा है। पूरे गाँव की दशा खराब है - देखो, तुम्हारे सामने इतने लोग हैं, कोई धन्ना सेठ नहीं, सब के सब जैसे तैसे जी रहे हैं। ’
सदा घोषणा कर रहा है – ‘अगले साल से अपुन खेती छोड़ रहा है। ’ शम्सुल मोहन को बता रहा है- ‘धनौर के एक शेतकरी दिल्लू ने अपने पाँच एकड़ खेत बेचकर प्यून की नौकरी पा ली। ’ यानी एक और किसान ने आत्महत्या कर ली। ’ ‘न ! ..... बच गया, जब तक किसान था, कोई अपनी लड़की देने को तैयार न था .... अगले हफ्ते उसकी शादी हो रही है। ’ समाज में किसान सम्बन्धों के स्तर पर भी हाशिये पर धकेल दिया गया जबकि एक चपरासी किसान से श्रेष्ठ माना गया। अन्नदाता का पतन हुआ दर्जा चार मुलाजिम लूडो के खेल में 99 तक पहुँच गया।
उपन्यास में नाना बता रहे हैं कि 2005 के सितम्बर में गॉर्मेंट का आडर हुआ कि पोस्टमॉर्टम केन्द्र चौबीस घंटे खुले रखे जायें।’ क्यों ? ....... ‘सरकार ने मान लिया है कि शेतकारी तो मरेंगे ही मरेंगे, इन्हें पात्र से अपात्र बनाने के लिए कोई प्रमाण देने वाला तो हो। पोस्टमॉर्टम में मिलेगा क्या जहर। न लाचारी निकलेगी, न टेंशन न कर्ज।
कर्ज के जाल से पार पाना किसान परिवार के लिए बहुत कठिन है। होरी के परिवार (गोदान) से लेकर शिबू के परिवार तक (फाँस) कर्ज गले की फांस ही बना रहा। शिबू को अगले महीने पच्चीस हजार का बैंक का कर्ज अदा करना है। गुढ़ी पाड़वा (मराठी नववर्ष) का दिन है परिवार में पकवान नहीं बने, जब तक कर्ज न उतर जाये रुखी-सूखी ही ठीक है। सोयाबीन का पूस बेच कर मिला ग्यारह हजार नौ सो। सात हजार पिछले साल का। बची तूअर से मिलेगी एक हजार, पाँच सौ की मूंग। कुल मिलाकर सत्ताइस भी न हुआ। अगली फसल का खाद-बीज घर का खर्च इसी में होना है। शिबू की नजर पत्नी की हँसुली पर टिकी रह गई।
सत्ताइस हजार लेकर बैंक पहुँचे तो रकम माँगी गई उन्नतीस हजार नौ सौ साठ। शिबू ने पच्चीस हजार लिए थे। हँसुली भी बिक गई साढ़े तीन हजार में। तब जाकर लड्डू बँटे। शेतकारी लोगों की पुकार ने दिल्ली हिला दी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा राहुल गाँधी आये। 1997 से 2006 तक पन्द्रह हजार किसान आत्महत्या कर चुके थे। विदर्भ के ग्यारह जिलों में तीस हजार। ‘दिल्ली, मुम्बई और पता नहीं कहाँ से लोग आये। समितियाँ बनीं। जाँच-पड़ताल हुई। सभी का कहना था विदर्भ कृषि का ज्वालामुखी है। ...... ज्वालामुखी। ’ 2009 के चुनाव से पहले 72 हजार करोड़ की कर्ज माफी हुई। सरकार के हिसाब से कर्ज वही था जो सरकारी बेंको से लिया गया था। ज्यादातर लोगों ने गाँव के सूदखोरों से कर्ज लिया था। उनका खून साहूकार चूसते रहे। और 72 हजार करोड़ का आँकड़ा सरकारी दान के रुप में छापकर सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहे।
विजयेन्द्र एक शोध पत्र के हवाले से कहता है कि हिन्दू शास्त्रों में मरने के पूर्व जिन 18 बातों पर जोर दिया गया था। उनमें कर्ज चुकता करना भी था। इसे धर्म कर्म, पितृ-ऋण मातृ-ऋण, गुरु-ऋण वगैरह से जोड़ दिया गया था। अगर मामूली आदमी हो तो तुम्हें कोई छूट नहीं लेकिन अगर पूँजीपति या रसूखदार हो तो करोड़ों, अरबो-खरबों का कर्ज, इनकम टैक्स डराकर शान से धंधा चमकाकर भारत रत्न या शीर्ष पद तक पा सकते हैं। महाजनी सभ्यता का उद्गम यही शास्त्र है चाणक्य, चन्द्रगुप्त के जमाने से पहले से आज तक बरकरार है। कोई यह नहीं पूछता कि कर्ज अदा करने वाला अदा कर पाने की स्थिति में है या नहीं। 2004 का एक रिपोर्ट का परचा लहरा कर कहा गया कि ये सरकारी बैंक जान-बूझकर किसानों को कम ऋण देते हैं ताकि वे निजी एजेंसियों और देसी महाजनों के जाल में जा फँसे।
दूसरा कहता है - 1996 के बाद अमेरिका के अपने 9 लाख फार्मरों के लिए 7 गुना सब्सिडी दी। सब्सिडी। जबकि हमारे यहाँ कर्ज देते हैं कर्ज, नो सब्सिडी वर्ल्ड बैंक, आई. एम. एफ. के इशारे पर चलने वाली सरकार कृषक विरोधी हैं। ( ‘फाँस’- पृ.सं.-220)
बैंक का जो कर्ज नहीं अदा कर पाता, उसकी कुर्की के आदेश आ जाते हैं। सरकारी अधिकारी जब्ती कुर्की का परवाना लेकर आ धमकते हैं। बैंक मैनेजर देशमुख भी साथ हैं। सम्पत्ति का विस्तार देखें - दो एकड़ खेत, दो अद्द बैल और इस मरतुकड़ी बैल गाड़ी के अलावा जो थे, वह थे खाली-खाली कुछ साबुन के टुकड़े, जीर्ण-शीर्ण कपड़े, प्लास्टिक की थैलियाँ एक झिलंगी खाट। एक चीकट रजाई, एक चीट चादर, एक फूटी थाली, एक फूटी पतीली, दो प्लास्टिक की बाल्टियाँ, एक कटोरी, एक लोटा। बेशर्म सवाल पूछा जाता है, बहू भी नहीं है ? उत्तर ‘उसे भी ले जाना चाहते थे क्या’ देर कर दी, भाग गई। ’
साँईपुर गाँव के लोगों ने सरकार से लिखित रुप से अनुमति माँगी है कि वे आत्महत्या करना चाहते हैं, सरकार से लिखित रुप से अनुमति माँगी गई है। (‘फाँस’- पृ.सं.-115) अमानवीय समाज व्यवस्था का उदाहरण नहीं है ? राज्य की आत्महीन तल्लीनता और निर्लज्ज अनसुनी में बुनियादी सच गुम हो जाते हैं।
विजयेन्द्र की आयोजित समानान्तर सभा में अपने टेढ़े-मेढ़े ढ़ाँचे के साथ माइक पकड़े हुए नाना कह रहे हैं, हमने सुना, आप लोगो ने सरकार से लिखकर आत्महत्या करने की इजाजत माँगी है। वाह ! क्या शिष्टाचार है ..... मरना है तो मर जाओ, ये परमिशन की नौटकीं क्यों ? सोचते हो, तुम्हारे दुःखों से दुःखी और द्रवित हो जाएगी सरकार। दान, दया की बरसात करेगी। ...... तुम क्या समझते हो, तुम्हारे आत्महत्या करने से शासन बदल जायेगा ? सिस्टम बदल जाएगा ? कुछ नहीं बदलेगा ?
सरकार को ही बताना चाहिए कि आत्महत्या करते हुए किन-किन बातों का ख्याल रखा जाए ‘कब और कैसे की जाती है आत्महत्या ? किस पंडित से पूछकर ? यह भी सिखाया जाए कि कैसे लिखी जाती है सुसाइड नोट।’ किसान आपस में बात कर रहे हैं - वह जो दिल्ली में पिलर-पिलर सजाकर मुकुट बनाकर बैठी हैं खजड़ोई (खोपड़ी) पर जिसे पार्लियामेण्ट कहते हैं, वहीं राजा रहते हैं, रानी रहती है, यही फैसला करते हैं कि यह बीज बोओगे कि वह बीज हत्या है कि आत्महत्या, पात्र है कि अपात्र ? (‘फाँस’, पृ.सं.-117)
इतनी दुर्घटनाओं से व्यापक शोषण तंत्र के चित्राकंन के बावजूद मोहनदास बाघमारे उपन्यास में नाना आत्महत्याओं के विरोध में खड़ा है। मुफलिसी में भी जीने की ताकत बटोर कर खड़ा है। मोहनदास किसान आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेता है। शकुन शराब बेचने वालों के विरोध में खड़ी है। महिला मण्डल को साथ लेकर घेराव करती है। किसी गांधीवादी की तरह जोड़कर निवेदन करती है- तुमको मालूम है अब तक डेढ़ लाख शेतकारी आत्महत्या कर चुके हैं। ‘शराब को वह इसकी एक वजह मानती है। परन्तु शराब माफिया के लोग बुरी तरह पीट देते हैं। फोन पर विजयेन्द्र कहता है – ‘अभी बहुत सी पिराइयाँ बाकी हैं।’ वहीं साहूकार जो किसानों के सर पर कर्ज देता है, उसी की दारु की दुकान भी है। कुटिल व्यवस्था में शकुन का आंदोलन प्रश्न चिन्ह के घेरे में है।
उपन्यास कई प्रश्न भी हमारे समक्ष खड़ा करता है। मसलन किसान उत्थान की योजना दिल्ली में क्यों बनती है ? .... कोयला, स्टील के भाव तो उत्पादक से पूछ कर रखे जाते हैं, कृषक उत्पादों के बारे में ऐसा क्यों नहीं होता ? गूंगी बहरी सरकार हमदर्द होने का नाटक क्यों करती है ? उपन्यासकार ने यह भी बताया है कि जेब खाली होने की वजह से कहीं दूसरे गाँव जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं होते। ये लोग 25-25 मील तक पैदल चलते हैं। इनके चेहरे देखें तो लगता है कि भारत कभी सांस्कृतिक मूल्यों का देश रहा है। आज मुनाफाखोर व्यवस्था में सभी मूल्य खंडित हो चुके हैं। अन्नदाता रहे किसान को परजीवी ने लगातार लूटा है। सामंत समाज में किसान का भरपूर शोषण जागीरदार करते थे। अंग्रेज सरकार के व्यवस्थामूलक सामंत जमींदारों के अतिरिक्त लगान उन्हें खाई खड्डों में धकेल रहा। नील रबर की खेती के लिए मजबूर किया। अकाल तथा भुखमरी ने उसकी हालत खराब की परन्तु स्वतंत्र देश में वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो गया। संजीव उपन्यास ’फाँस’ में विदर्भ में किसानों की दशा बताते हुए पूरे भारत के किसान की पीड़ा उपन्यास के पन्नों पर उतारते हैं। संजीव को किसान जीवन के अभाव सूक्ष्मता से दर्ज करने में सफलता मिली है। उपन्यास हमारे जीवन की खतरे की घंटी की आवाज बन गया है। क्योंकि हमारे समाज की राजनीति की उपेक्षा यदि किसान को भिखारी बनने पर मजबूर कर रही है। संजीव की गहरी जिज्ञासा, शोधपरकता और जरुरी किस्म की पहचान उपन्यास में दिखायी पड़ रही है। इन्हीं गुणों ने इस उपन्यास को सामाजिक दस्तावेज बना दिया है परन्तु उपन्यास के पाठक की उपन्यास के बंधाव को लेकर आकांक्षा इससे कुछ ज्यादा की होगी।
आज जबकि खेती किसानी एक डर, एक बीमारी, एक मजबूरी और एक संभावित मौत का नाम है। तब भी इस देश में विकल्पहीन किसानों की कमी नहीं। अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास इस दर के सिवा और कोई दर नहीं। वे ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ न तो हालात ही बदलते हैं, न उनसे खेती ही छूटती है, न सरकारों की नींद ही टूटती है और न ही इन आत्महत्याओं का सिलसिला ही रुकता है। ऐसे में संजीव द्वारा लिखा गया ‘फाँस’ उपन्यास कई सवालों को लेकर उभरा है।
‘फाँस’ किसानों की आत्महत्याओं के भयावह दृश्य दिखाकर, समाप्त नहीं होता बल्कि यह खेती-किसानी और उससे जुड़े समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा वैज्ञानिक पहलुओं का, क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त फसलों की विभिन्न किस्मों का, खेती की विधियों का, प्रयुक्त बीजों का, कीटनाशकों के प्रयोग आदि का गहन विश्लेषण करते हुए किसानों की समस्याओं के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक कारणों की पड़ताल भी करता है और समाधान भी खोजता है और यही कारण है कि उपन्यास दो भागों में बँटा दिखाई देता है। पहला किसानों के दुःख-दर्द, उनके संघर्ष, असफलताओं और उनकी आत्महत्याओं की केस स्टडी की तरह सामने आता है जो समस्याओं के कारणों की शिनाख्त करता है। जिससे यह विदर्भ से शुरु होकर पूरे देश के किसानों की समस्याओं को समेटता हुआ उन सबकी करुणगाथा बनकर उभरता है। तो वहीं दूसरा हिस्सा वो है जो समस्याओं के समाधान की खोज में आगे बढ़ता है। इसमें वे पात्र प्रमुखता पाते हैं जो मृतकों के जाने के बाद समय और समस्याओं से जूझने के लिए बचे रह गए हैं जो जान गए हैं कि जान देने से कुछ बदलने वाला नहीं। बदलना है तो जीना होगा, लड़ना होगा। सुनील का बेटा विजयेन्द्र, शिबू और शकुन की बेटी कलावती (छोटी), बड़ी बेटी सरस्वती, खुद शकुन, सिंधु ताई, कलावती का बचपन का साथी अशोक, मंगल मिशन पर जाने वाला मल्लेश, इन सबको एक सूत्र में पिरोने वाला, कुछ-कुछ कथा का सूत्रधार फक्कड़ नाना और किसानों के लिए आदर्श दादा जी खोबरागड़े। ये सभी पात्र निराशा और टूटन के वातावरण के बीच कथा का प्रतिपक्ष रचते हैं। ये विचार के लिए ‘मंथन’ जैसा मंच खड़ाकर किसानों को और उनकी मदद करने वालों को एक जगह एकजुट करते हैं। उन्हें खेती करते हुए भी पैसा जुटाने फसलों के अच्छे परिणाम प्राप्त करने के वैकल्पिक रास्ते सुझाते हैं। वे बताते हैं कि जहाँ हालात के आगे घुटने टेंकते, आत्महत्या करते किसान हैं वहीं हालात से जूझने वाले, धान की नई किस्में विकसित करने वाले, समाज में एक विशेष स्थान रखने वाले, बड़े से बड़े दुःख के आगे घुटने न टेकने वाले दादाजी खोबरागड़े भी हैं। पेड़ों से झूलती लाशें केवल देश की व्यवस्था से, सरकारों से सवाल नहीं करती बल्कि वह हम सबको सवालों के घेरे में खीच के खड़ा कर देती है। ‘फाँस’ तमाम जरुरी सवालों के साथ हमें सोचने पर विवश कर देता है।
डॉ. वन्दना तिवारी
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग,गुरू घासीदास विश्वविद्यालय
बिलासपुर, छत्तीसगढ़-495009
मो.नं.- 9407691976, 9584393501
ईमेल:- dr.vandanatiwary@gmail.com
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