त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आलेखमाला:विश्वगुरु महात्मा बसवेश्वर : एक चिंतन – श्री संगमेश नानन्नवर
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
महात्मा बसवेश्वर का जन्म १२वीं शताब्दी के आरंभिक काल में आराध्य (लिंगायत) ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका जन्म-स्थान बागेवाडी (जिला-बिजापुर, कर्नाटक) है। इनका आराध्य कृष्ण और मलप्रभा नदियों के संगम-स्थल पर स्थित ‘संगमेश्वर’ (शिव) नामक शिव-मंदिर था। यही कारण है कि इनके वचनों के अंत में सर्वत्र ‘कूडलसंगमदेव’ (शिव) संबोधन आता है। बसवेश्वर ने कलचूरी राज्य के बिज्जल महाराज के आस्थान के दंडनायक होकर राजनीतिक गुप्तचर विभाग में हो रहे अन्यायों का पर्दाफाश किया। समाज में प्रचलित राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक हीनताओं को देखकर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया। समाज में जाति, धर्म, ऊँच-नीच आदि के कारण अव्यवस्था का वातावरण निर्माण हुआ था। राजनीतिक अस्थिरता के कारण सामान्य जनता का जीवन जर्जरित था। बसवेश्वर ने अपनी मेधाशक्ति, धैर्य के बल पर राजनीतिक कूटनीतियों को रोका।
बसवेश्वर ने अध्यात्मिक चिंतन को भी महत्वपूर्ण माना। आध्यात्मिक चिंतन के चक्राधिपति रहे। इसलिए उन्हें ‘भक्तिभंडारी बसवण्ण’ (भक्ति के आगर) के नाम से भी जाना जाता है। समाज में परिवर्तन लाने हेतु ‘वीर शैव पंथ’ की स्थापना की। इस पंथ के अंतर्गत सभी धर्मियों को अपनाकर लिंग धारण करवाया। ‘अनुभव मंटप’ का निर्माण करके विचार गोष्ठियों का आयोजन करते थे। इस सभा में सभी धर्मियों का प्रवेश था। अपनी प्रखर वाणी से समाज में प्रचलित बुराइयों को समाप्त करने का महत्तर कार्य किया। वचनों (कन्नड़ की एक साहित्यिक विधा) के माध्यम से सभी जाति-धर्म को लोगों को एकत्रित करके मानवीय मूल्यों का प्रसार किया। सामाजिक कुरीतियों की तीखी आलोचना की। इस संदर्भ में उनका एक वचन इस प्रकार का है -
“भक्तों (शिवभक्त या लिंगायत) को देखकर तुम (वे लोग, जो अवसरवादी होते हैं और समय को देखकर बदलते हैं) सिर मुंड़वाकर (बौद्ध) भिक्षु, जैन-साधुओं के सामने नंगे (दिगंबर और ब्राह्मणों के सामने हरिनाम जपनेवाले (वैष्णव) ब्राह्मण बन जाते हो- जैसा देखते हो, वैसे बन जाते हो इस प्रकर का वेश्यापुत्रों जैसा आचारण (व्यवहार) मत करो। अरे! कूडलसंगमदेव को पूजकर दूसरे देवताओं के सामने सिर झुकानेवाले और ऐसा करने के बाद भी अपने को भक्त कहनेवाले इस अज्ञानियों को क्या कहूँ?”1
महात्मा बसवेश्वर के समय समाज में मूर्तिपूजा प्रचलित थी। मूर्तिपूजा के बहाने हिंसात्मक कृत्य फैले हुए थे। पत्थर की पूजा होती थी, लेकिन साधु-संत की अवहेलना की जाती थी। गरीब, भूखे लोगों को खाने के लिए अन्न नहीं रहता था। लेकिन अज्ञानी जनता पत्थर पर दूध चढाकर उसकी पूजा करते थे। ऐसे संदर्भ में बसवेश्वर ने जनता में जागृति पैदा करने के लिए वचनों का सहारा लिया। लोगों के इस प्रकार के कार्यों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि-
कल्लनागर कंडर हालन्नेरे एंबरु
दिट नागर कंदरे कोल्लेंबरु अय्या
उंब जम्गम बंदरे नड़े येंबरु
ऊण्णद लिंगक्के बोनव हिडिवरय्या॥
पत्थर से निर्मित नाग की मूर्ति दिखायी देती है तो उस पर दूध चढाते हैं। लेकिन वहीं सजीव सांप को देखते ही उसकी हत्या करते हैं। भूखे-प्यासे जंगम अगर अन्न-पानी पूछते हैं तो उन्हें भगा देते हैं। वहीं न खानेवाले निर्जीव पत्थर पर दूध, प्रसाद समर्पण करते हैं। यह कैसा अजीब समाजिक प्रथा है, हे! कूडलसंगमदेवा।
मंदिरों का निर्माण करके भगवान की पूजा करने की प्रथा आज भी हमारे यहाँ प्रचलित है। लेकिन बसवेश्वर जी का मानना था कि भगवान तो सर्वव्यापी है उसको मंदिर बनाकर उसमें कैद करने की क्या आवश्यकता है? समाज में संपन्न व्यक्ति जब मंदिर बनाकर अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे, ऐसे लोगों को पर व्यंग्य करते हुए बसवेश्वर ने उनकी निंदा की और कहा -
उल्लवरु शिवालयव माडुवरु
नानेनु माडलि बडवनय्या
एन्न काले कंब
देहवे देगुल
शिरवे होन्न कलशवय्या, कूडलसंगमदेवा।
इस वचन में बसवेश्वर ने कहा है कि जो लक्ष्मी के पुत्र हैं वे संपत्ति से मंदिरों का निर्माण करेंगे। लेकिन मैं गरीब हूँ। मेरे पास उतनी संपत्ति नहीं है। इसलिए मेरे पैर ही खंभे हैं, शरीर ही मंदिर और सिर ही सोने का कलश है, कूडलसंगमदेवा! कहकर धार्मिक मित्यांडबरों का खंडन किया।
‘अनुभव मंटप’ में हर दिन साधु-संतों, सामान्य जनता, समाज में तिरस्कृत जातियों के लोगों का प्रवेश होता था। सब मिलकर धार्मिक, आध्यात्मिक विचार मंथन करते थे। बसवेश्वर के साथ-साथ अल्लमप्रभु, चेन्नबसवण्ण, अक्कमहादेवी, मोळिगे मारय्य, आयदक्की लक्कम्मा आदि लोग भाग लेते थे। बसवेश्वर ने ‘कायकवे कैलास’ (कर्म ही स्वर्ग है) की परिकल्पना दी। ‘कायक’ यह शब्द और उसका अर्थ विस्तार विचार जगत् तथा विश्व संस्कृति को शरणों की दी गयी महान् देन है। इस शब्द में जिस आदर्श को उन्होंने पाया और जिस विशाल अर्थ में उसे ग्रहण किया उसकी परिधि में सारा संसार समा जाता है। “हर एक को काम करना ही चाहिए। बिना परिश्रम से दूसरों की कमाई पर खाने का अधिकार किसी को नहीं है। काम-चोर का वैराग्य सचा वैराग्य नहीं है।”2 इस प्रकार महात्मा बसवण्णा का मानना था कि अपने कर्म के अनुसार हमें फल की प्राप्ति करनी चाहिए। अधिक आशा करने से मन में दुराशा उत्पन्न हो सकती है, जो भगवान की उपासना में बाधा पहुँचाती है। आये हुए संपत्ति में पहले साधु-संतों को दान देकर बाद में हमें प्रसाद स्वीकार करना चाहिए। इससे मानव का कल्याण होगा।
महात्मा बसवेश्वर उसी धर्म को श्रेष्ठ मानते थे जो मानव को मानव बनाये, मानव जाति का उद्धार करे, उसे सत्य के मार्ग पर चलने की शिक्षा प्रदान करे। धर्म, भक्ति में कुलीनता का वे विरोध करते थे। सभी धर्मों का मूल दया है मानकर उसे अपने वचनों के द्वारा लोगों में प्रसारित किया। धर्म की परिभाषा देते हुए कहा कि-
“दयविल्लद धर्मवावुदय्या?
दयवे बेकु सकल प्राणिगळेल्लरल्लि।
दयवे धर्मद मूलवय्या।”
ऐसा कौन-सा धर्म है जिसमें दया नहीं है? सभी प्राणियों के प्रति दया होनी चाहिए। दया ही धर्म का मूल है। इस प्रकार कहकर बसवेश्वर ने मानवता को एक उच्च धर्म के स्वरूप का परिचय कराया।३
मानव के आचरण संबंधी विषयों पर भी बसवेश्वर ने वाणी से जनता के अंतरंग और बहिरंग शुद्धि का संदेश दिया है। उनके वचनों द्वारा समाज में मानव को कैसे रहना चाहिए, किस तरह जीने से हम भगवान के प्रिय बन सकते हैं इसका सुंदर चित्रण किया है। उनका यह वचन बहुत ही प्रसिद्ध है-
कळबेड, कोलबेड, हुसिय नुडियलु बेड
मुनिय बेड, अन्यरिगे असह्य पड़बेड
तन्न बण्णिसबेड इदिर हळीयलु बेड
इदे अंतरंग शुद्धि! इदे बहिरंग शुद्धि
इदे नम्म कूडलसंगमननोलिसुव परि।
इस वचन में उन्होंने यह संदेश दिया है कि- चोरी मत करो, हिंसा न करो, झूठ मत बोलो, क्रोध प्रकट न करो, अन्य जीवियों के प्रति घॄणा मत करो, खुद की प्रशंसा मत करो, किसी के विश्वास को मत तोडो। यही अंतरंग और बहिरंग शुद्धि है और यही हमारे कूडलसंगमदेव को प्रसन्न करने के तरीके हैं। किस प्रकार सरल रीतियों को अपनाकर हम उस भगवान के प्रिय बन सकते हैं उसका सुंदर और सरल उपाय बसवेश्वर ने बताया है।
अपने युग में प्रचलित जाति, वर्ण-व्यवस्था के प्रति बसवेश्वर के मन में क्रोध था। उसे दूर करने का संकल्प लिया था। समाज में समानता स्थापना हेतु उन्होंने निम्नस्तर के लड़की को उच्चस्तर के लड़के के साथ विवाह करवाया। उस समय यह बहुत ही क्रांतिकारी घटना थी। संप्रदायवादियों ने भी इसका प्रबल विरोध किया और बसवेश्वर को अधिकार से वंचित करने का आग्रह किया। लेकिन बसवेश्वर को न ही अधिकार की चिंता थी और न ही प्राणों के प्रति मोह। वे निड़र होकर अपने समाज सुधार कार्य करते रहे। सबको अपनाने की उनका हृदयवैश्यालता का उदाहरण उनके इस वचन में स्पष्ट होता है।
इवनारव, इवनारव, इवनारव एंदेनिसदिरय्या
इव नम्मव, इव नम्मव, इव नम्मवेंदेनिसय्या
कूडलसंगमदेव
निम्म मनेय मगनेंदोनसय्या।
इस वचन में वे कहते हैं- यह कौन है? वह कौन है? ऐसा मत सोचो, शंका मत करो। यह भी अपना ही है ऐसे भाव को अपनाओ। उसे भी अपनों में एक मानो। इस प्रकार जाति, धर्म के भेद को दूर करके सभी मानव जाति को प्रेम से, मानवीयता को बल देखने का संदेश बसवेश्वर ने दिया था।
बसवेश्वर को ‘भक्ति भंडारी’ कहा जाता है। उनकी भक्ति आडंबररहित, अहंकाररहित और लोक-कल्याण की भावना से युक्त थी। अपने आराध्यदैव कूड़लसंगमदेव के प्रति एकनिष्ठा प्रकट करते हुए वे कहते हैं -
अतलित्त होगदंते हेळवन माडय्या तंदे
सुत्ति सुळिदु नोडदंते अंधकन माडय्या तंदे
मत्तोंदु केळदंते किवुडन माडय्या तंदे
निम्म शरणर पादवल्लदे अन्य विषयक्केळसदंते इरिसु
कूडलसंगमदेवा।४
हे! कूडलसंगमदेवा, तुम मुझे लंगडा/अपंग बना दो, ताकि मैं कहीं न जा सकूँ, मुझे अंधा बना दो, ताकि मैं इधर-उधर भटककर कुछ न देखूँ, मुझे बहरा बना दो, ताकि मैं अन्यों की किवंदियाँ न सुन सकूँ; क्योंकि आपके संगत के अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए। आप ही मेरे सर्वस्व हैं। आपके चरणों में ही मुझे मुक्ति मिलेगी, कूडलसंगमदेवा।
मानव का यह एक स्वभाव है कि स्वयं की गलतियों, कमियों के बारे में न सोचकर अन्यों की गलतियों को वह झठ से ढूंढकर उन पर आरोप लगाता है। बसवेश्वर के युग में समाज के प्रतिष्ठित ओहदे पर रहनेवाले, धार्मिक पंडितों ने अन्य जाति, धर्म और लोगों के प्रति अवहेलना करते थे, तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। उनके इस हीन-भावना को दूर करने के लिए बसवेश्वर ने वचन के द्वारा ही उन्हें जगाने का प्रयास किया।
लोकद डोंक निवेके तिद्दुविरि
निम्म निम्म तनुव संतैसिकोळ्ळि
निम्म निम्म मनव संतैसिकोळ्ळि
नेरेमनेय दु:खक्के अळूववर मेच्च
नम्म कूडलसंगमदेव।
संसार की कमियों, बुराइयों के बारे में आप क्यों सोचते हैं, उसे सुधारने का प्रयास क्यों करते हैं। पहले अपने तन और मन को शुद्ध कीजिए। अन्यों को दु:ख को देखकर आँसू बहानेवालों को कूडलसंहमदेव अपनाते नहीं हैं।
कन्नड़ साहित्य जगत के अंतर्गत 12वीं शती में बसवेश्वर एक समाज सुधारक, मानव कल्याण के प्रवर्तक के रूप में उभरकर आये। अपने ‘वीरशैव पंथ’ के द्वारा समाज में प्रचलित अहितकारी मान्यताओं, विश्वासों का खंडन किया। समाज के किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय के बंधन में न बंध कर मानव कल्याण, मानवोद्धार को अपना ध्येय मानकर समाज को सुधारने का महत्वपूर्ण कार्य किया। अपने विचारों को ‘वचन’ नामक साहित्यिक विधा के माध्यम से प्रचलित करके मानव मानव बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया। हिंदी साहित्य के संदर्भ में संत कबीरदास की तुलना इनसे की जाती है। अपनी उत्कृष्ठ विचारधाराओं, चिंतन-मनन, महान् कार्यों के कारण बसवेश्व को ‘भक्तिभंडारी बसवण्ण’, ‘विश्वगुरु बसवण्ण’ एवं ‘जगज्योति बसवण्ण’ आदि अनेकों नामों से जाना जाता है।
संदर्भ ग्रंथ-
- डॉ.शशिधर एल.गुडिगेनवर – कर्नाटक संस्कृति और कन्नड़ साहित्य – पृ सं – १२५
- श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमठ – कर्नाटक संस्कृति – पॄ सं – ५०
- श्री.शरेश्चंद्र चुलकीमठ – कर्नाटक संस्कृति – पॄ सं – ५१
- गूगल अंतर्जाल
श्री.संगमेश नानन्नवर
प्रवक्ता, हिंदी विभाग,मंगलूर विश्वविद्यालय कॉलेज
हंपनकट्टा, मंगलूर-575001,जिला-मंगलूर, कर्नाटक
सम्पर्क:09481051675,snanannavar@gmail.com
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