त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आलेखमाला:निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्री – डॉ. रमया बलान .के
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
आदिवासी एक ऐसा समूह हैं जो पीढ़ियों से हाशिये पर ही है, लेकिन आज कल यह लोग अखबार, पत्रिका और टेलिविज़न के द्वारा समाज के सामने आ रहे हैं या लाया जा रहा है। दुःख की बात यह है कि इन सारे माध्यमों से भी इनकी सही खबर समाज के सामने नहीं आ रही है। फिर भी अपने घर के रेशमी सोफ़े पर लेटकर इस पूरी दुनिया को बेचने के सपने देखने वालों को इतनी तो खबर अवश्य मिल जाती है कि इसी संसार के जंगलों में हमारी तरह कुछ और लोग भी जी रहे हैं। उनकी जिन्दगी हमारे ही कारण अभी खतरे में है, इसका अहसास उन्हें शायद ही होता है। दुनिया के किसी कोने में यह रेड इन्डियन्स हैं तो कहीं यह वनवासी हैं और कहीं काट्टुजाति हैं। सच कहूँ तो यह लोग चारों तरफ से संकट में हैं। अपनी पहचान को लेकर, जल, ज़मीन, जंगल और आने वाले कल को लेकर । क्योंकि अब आदिवासियों में से कुछ जनजातियों की ऐसी स्थिति है कि वह लोग वंशनाश के मोड़ पर हैं, विलुप्ति के कगार पर हैं। जैसे कि ‘आन्डमान’ की कुछ जनजातियाँ और केरल के ‘काट्टुनाय्क्कन’ । फिर भी हमारी संसद मौन है, आखिर कब तक ?
आज हमारे समाने साहित्य के कई रूप दिखाई देते है। दलितों ने मिलकर मुख्यधारा के साहित्य से अलग अपनी अलग साहित्यिक दुनिया का निर्माण किया है। जब लेखन पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होता है तो उसके विरोध में आवाज़ उठना सहज है। लेखक जब अपने समाज के लिए लिखता है उसे पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। हाशिए के समाज की समस्याएँ मुख्यधारा के साहित्य में दबायी गयी या उनको गलत रूप में चित्रित किया गया। आदिवासी, दलित , स्री समाज ने यह अहसास किया कि उनकी समस्या को वे खुद लिखेंगे क्योंकि वे समाज को सच्चाई बताना चाहते हैं। आदिवासी लेखक पहले से लिख रहे हैं। लेकिन वे अपनी भाषा में लिखने के कारण मुख्यधारा में नहीं आये। भले ही आदिवासी साहित्य का दायरा छोटा हो फिर भी आदिवासी जीवन और संघर्ष हमारे सामने आने लगा है। आज साहित्य सिर्फ रचनात्मक प्रक्रिया नहीं बल्कि वह एक आन्दोलन का रूप ले लिया है। हिन्दी और मलयालम साहित्य में आदिवासी साहित्य और विमर्श शुरुआती दौर में है। आदिवासी एवं गैर- आदिवासी लेखकों के माध्यम से यह साहित्य समृद्ध होता जा रहा है। इन समाजों के लिए अब उनकी कलम बोलने लगी है। क्योंकि साहित्य में वह शक्ति है कि वह अपने समय और समाज को बदलने की ताकत रखता है।
आज हिन्दी साहित्य में आदिवासी साहित्य अपनी छवि खड़ा करने की कोशिश में है। आदिवासी समाज से कई लोग लिख रहे हैं। इसमें निर्मला पुतुल का नाम महत्वपूर्ण है। वह साहित्य और समाज विगत 15 वर्षों से भी अधिक समय से शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय है। अनेक राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ उनका जुड़ाव रहा है। आदिवासी, महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों पर आयोजित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में व्याख्यान व मुख्य भूमिका के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। अनेक संगठनों व संस्थाओं की संस्थापक सदस्या, स्वास्थ्य परिचायिक के रूप में संथाल परगना के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कार्य किया जा रहा है। निर्मला पुतुल भारत के आदिवासी स्त्री संघर्ष को अपनी कविताओं के माध्यम से सामने ला रही है।
किसी भी रचनाकार के लिए उनका परिवेश एक महत्वपूर्ण अंग होता है। हम देख सकते है कि निर्मला जी की कविताओं में उनका परिवेश ही प्रमुख रूप में सामने आती है। ‘निर्मला पुतुल की कविताओं से गुज़रने पर उनकी कविताओं के बारे में जो बात फौरी तौर पर कही जा सकती है वह यह कि निर्मला पुतुल की कविताओं के तीन प्रमुख आधार है। स्त्री होने के कारण लैंगिक आधार, आदिवासी होने के कारण जातीय आधार और संथाल परगना का होने के कारण उनकी कविताओं का एक देशगत आधार भी है। ’ अपनी कविता के माध्यम से आदिवासी स्री संघर्ष और प्रतिरोध को एक नया अर्थ देने की कोशिश में है। उनकी कविताओं में आदिवासी स्त्रीयों के शोषण और उनके अधिकार के बारे में चर्चा किया गया है। हर समाज में स्त्रियाँ तिरस्कृत, पीड़ित और शोषित हैं। निर्मला पुतुल ने अपनी कविताओं में स्त्रियों के सारे मुद्दों को उठाया है। उनकी स्त्रियाँ सारे बंधनों को तोड़कर आज़ादी की ओर भागना चाहती है। वह समाज के सामने ऐसी सवालें खड़ा करती है जिससे कोई मूँह फेर नहीं सकता । वह सवालें एक चुनौती है पितृसत्तात्मक समाज के लिए । जहाँ हम मानवाधिकार की बात करते हैं , आदिवासियों को हम मानव का दर्जा ही नहीं देते हैं, मुख्यधारा समाज के लिए वह असुर है या वनवासी । सभ्य समाज ने उन्हें मानव ही नहीं माना तो अधिकार की बात कैसे कर सकते हैं। ऐसी समाज में आदिवासी स्त्री की स्थिति और दयनीय होती है। कुछ लोगों का मानना है कि आदिवासी समाज की स्त्री स्वतंत्र रहती हैं। लेकिन सच बात यह है कि हर समाज में वह द्वयं दर्जे की स्थिति में ही है। अलबत्ता हाशिए की समाज के होने के कारण उसे बाहरी लेगों की बुरी नज़र से भी बचने के लिए संघर्ष करनी पडती है। क्योंकि स्री को उसके देह से अलग होकर पुरुष उसे जानने की कोशिश ही नहीं करते है। जैसे निर्मला पुतुल लिखती है,
क्या जानते हो तुम
पुरुष से भिन्न
एक स्री का एकान्त....
अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में......... (निर्मला पुतुल)
आदिवासी स्त्री और ज़मीन
आदिवासियों के लिए ज़मीन का अपना महत्व है। लेकिन आदिवासी और अधिकार शब्द परस्पर पूरक लगते है। क्योंकि आदिवासी जैसे समाज को मानव का दर्जा ही नहीं दिया है। पहले उस समाज को शिक्षा देकर उन्हें अपने अधिकार के बारे में जागृत कराना होगा । आदिवासी समाज के लिए उनका ज़मीन ही सब कुछ है। ज़मीन ही उनके जीवन का आधार है। ज़मीन पर उनका अधिकार स्थापित करने से ही आदिवासी समाज अपना पहचान बना सकता है।
जनतंत्र की पराजय गाथा दुहराती रही समाज में मानवाधिकार की बात कैसे की जा सकती है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्रोत्तर भारत के आदिवासियों के स्थिति में कोई फर्क नहीं है। विकास के नाम पर हो रहे कारनामों में आदिवासी स्त्री समाज को भी कई यातनाएँ सहनी पड़ती है। बिटिया मुरम्मू के लिए, बाँस , तुम्हें आपत्ति है , मिट पाओगे सब कुछ तुम, अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री, आदिवासी स्त्रीयाँ, उतनी दूर मत ब्याहना बाबा, आदि कविताओं में उनके संघर्ष नज़र आती है।
हम जानते है कि उत्तराधुनिक समाज में स्त्रियों की क्या स्थिति है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है, मुख्यधारा समाज के नियम –कानून उन स्त्रीयों को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं तो हम सोच सकते हैं कि मुख्यधारा के सारे विधि विधानों से दूर आदिवासी जैसे समाज में स्त्री की क्या स्थिति हो सकती है। वह एक ही समय अपने ही समाज के पुरुषों के द्वारा शोषित होती है तो उसी समय मुख्यधारा के पुरुषों द्वारा भी शोषित होती है। यहाँ निर्मला पुतुल ने झारखंड और उसके तितर बितर प्रदेशों के आदिवासी स्त्रियों के बारे में कहती हैं लेकिन हम जानते हैं कि केरल जैसे सौ प्रतिशत शिक्षित केरल में भी स्थिति बदत्तर है। आज कल खबरों में हम देख सकते हैं कि बाहर से लोग आकर आदिवासी क्षेत्रों में आकर आदिवासी लड़कियों को बलात्कार करते हैं। उनको नौकरी के नाम पर ट्राफिक्लिंग का शिकार होना पड़ता है।
“उनकी आँखों की पहूँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ
शामिल हैं इस दुनिया में/ नहीं जानतीं वे
वे नहीं जानतीं कि
कैसे पहूँचती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली
जबकि राजमार्ग तक पहूँचने से पहले ही
दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ
आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति मुख्यधारा समाज से कई मायनों में भिन्न भी है और स्त्रित्व के नाते उनमें कुछ समानताएँ भी देखी जा सकती हैं। मुख्यधारा की तुलना में आदिवासी समाज की स्त्री स्वतंत्र होती है, लेकिन परिवार में वह पितृसत्ता की शिकार होती हैं। स्त्री किसी भी समाज में हो उसे दूसरे दर्जें की मान्यता ही मिलती है। आदिवासी स्त्री ज्यादात्तर बाहरी समाज के द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से पीड़ित होती है। कई बार नौकरी का वादा देकर दलाल इन्हें वेश्याओं की गलियों में छोड़ देते हैं। निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्रियों का संघर्ष और उनकी दुनिया साफ दिखाई देती है।
अपनी समाज में स्त्रियों को हो रहे इन सारी संघर्षों को सामने रखते हुए पुतुल जी ने हमारे शासन व्यवस्था और सरकार के सामने कई सवालें रखती हैं। वह कहती हैं एक आदिवासी स्त्री को अपने समाज में कई प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ता है। दूर दूर से लड़कियों को पानी भरकर लाना पड़ती है। रात में ढिबरियों के रोशनी में उसे काम करना पड़ता है। निर्मला जी अपनी कविता ‘अगर तुम मेरी जगह होते होते’ कविता मे इस प्रकार के कई सवालें उठाती हैं।
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रहे रहे होते तुम
घास-फूस की झोंपड़ियों में
गाय, बैल और बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में..
इसी प्रकार वह अपने जीवन में जो संघर्षों का सामना किया है उसी के सहारे वह सारे आदिवासी स्त्रियों के संघर्ष को दिखाया है।
आदिवासी स्त्री शोषण के विभिन्न रूप
हम देख सकते हैं कि निर्मला पुतुल ने किस प्रकार आदिवासी स्त्रियों के शोषण को दिखाया है। निर्मला पुतुल को अपने वैयक्तिक जीवन में कई प्रकार के समस्याओं का सामना करना पडा है। इसलिए एक आदिवासी स्त्री के हर प्रकार के विषमताओं को यथार्थ चित्रण इनकी कविताओं में देख सकते हैं। जैसे अपनी क्षेत्र से दूर ब्याह होती जा रही एक आदिवासी स्त्री का दुख मुझे उतने दूर मत ब्याहना बाबा कविता में देख सकते है। यह मात्र एक आदिवासी स्त्री की व्यथा नहीं है तथाकथित सभ्य समाज के स्त्रियाँ भी इस प्रकार के कठिनाईयों का सामना करती है। जिस जगह में वह पली पढ़ी बड़ी हुई हैं उस जगह को हमेशा के लिए छोडकर लडकियों को दूसरे जगह को अपनाना पड़ता है। अपनी ज़मीन, पहाड , नदियाँ इस प्रकार उसके जीवन से जुडे हुए इन तमाम वस्तुओं से दूर वह जाती है। वह नहीं चाहती हैं कि अपनी क्षेत्र से दूर जाएँ , इसलिए वह अपने परिवारवालों से ब्याह के लिए मना करती हैं।
प्रतिरोध के स्वर
निर्मला पुतुल की कविताओं की मुख्य विशेषता उसमें निहित प्रतिरोध का स्वर है। हाशिए के समाज और साहित्य की यह विशेषता ही है उनका प्रतिरोध । साहित्य की विभिन्न विधाएँ अब प्रतिरोध का औजार बनकर हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है। इस प्रकार हाशिए के समाज के लिए साहित्य प्रतिरोध का माध्यम बन गया है। इस प्रकार यहाँ साहित्य कर्म एक राजनीतिक कदम बनती है। लेकिन इस प्रकार के प्रतिरोध शोषक समाज एक आपत्ति के रूप में लेते है। हम जानते है कि शोषक समाज यही चाहते है कि शोषित हमेशा शोषित ही रहें, और उनके जीवन हमेशा शोषकों के पैर के नीचे दबकर समाप्त हो जाएँ । शोषकों की इस मानसिकता का उदाहरण हमें निर्मला पुतुल के कविताओं में देख सकते हैं। स्त्रियों के प्रतिरोध को पितृसत्तात्मक समाज कभी सह नहीं पाते हैं। वह यही चाहते हैं कि स्त्री हमेशा पुरुष के नीचे रहे, उसकी आज्ञा का पालन करते रहे । खुली मानसिकता रखनेवाले स्त्रियों के बारे में वह गलत मनोभाव रखते हैं। अपनी स्वतंत्र अस्तित्व बनाकर जीनेवाले स्त्रियाँ इन पुरुषों के लिए हीन होती हैं। क्योंकि वह चाहते हैं कि स्त्रियाँ उनके सीमित दायरें में रहे । जब भी स्त्रियाँ अपने परिवार से बाहर आकर पुरुष के साथ मिलकर कुछ करना चाहती है , तो उसे रोकने की कोशिश करते हैं। इस स्थिति में कवयत्रि कहती है कि विरोध नहीं तो क्या करें । जब विरोध करती है तब भी यह पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को बार बार अपनी सवालों से प्रहार करते रहते है वह लिखती हैं
तुम कहते हो
मेरी सोच गलत है
चीज़ों और मुद्दों को
देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा
आपत्ति है तुम्हें
मेरे विरोध जताने के तरीके पर....
इस प्रकार कवयत्रि अपनी कविताओं के माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज के अलिखित उन सारे नियमों पर कड़ी सवाल खड़ा करती हैं। वह पूछती हैं कि क्यों स्त्री को लाख कडुवाहट के बावजूद भी स्त्रियों को मीठा ही बोलना चाहिए, हर यातनाओं के बावजूद भी उसे चुप रहना चाहिए ।
इन सारे समस्याओं का हल किसी के पास नहीं है। अपनी समाज को इस तरह से शोषण बचाने के लिए किससे कहे । जो सरकार इस समाज को सुरक्षा देना है वही सरकार उन्हें अंधेरे में धकेल रही है। रोशनी अब कोसों दूर है। इन आदिवासियों के पास बिरसाईत का एवं सिद्धो कान्हों का एक लम्बा परंपरा रहा है । वीर नायकों का इतिहास इनके पास भी है। लेकिन मुख्यधारा समाज ने इनके इतिहासों को मिटाया । आदिवासी आन्दोलनों को इतिहास में ज्यादा महत्व नहीं दिया है। ब्रिटिश शासन के समय एवं देशी राजाओं के क्रूरता के विरोध में आदिवासियों ने प्रतिरोध किया है। इस तरह प्रतिरोध का एक लम्बा इतिहास इनके पास भी है लेकिन कालांतर में यह इतिहास भी इनसे दूर हो गया । दीकुओं के शोषण का शिकार होते रहे हैं । इसलिए कवयत्रि यहाँ अपने वीर परम्परा को याद करती है। वह चाहती है कि सिद्धो कान्हो का फिर से जन्म हो और वह उसे इन यातनाओं से बचाये ।
सिद्धो मैं पीटती हूँ नगाडा
कि इसकी आवाज़ सुन
तुम आओगे कहीं न कहीं से
मैं पीटती हूँ नगाडा....
हम जानते हैं कि आदिवासी जीवन में नगाड़े का महत्वपूर्ण स्थान है। आदिवासी अपने जीवन के हर महत्वपूर्ण अवसर पर नगाड़े बजाते हैं। नगाड़े की धुन उनकी जीवन का धुन है। निर्मला पुतुल की कविता संग्रह का नाम ही है नगाड़े की तरह बजते है शब्द । इस शीर्षक में कई बातें छिपी हुई है। इसमें सवाल है , चुनौती है उन समाजों के लिए जो आदिवासियों को तिरस्कृत किया है। वह कहती हैं कि अब आदिवासियों के शब्द उन सारे भ्रष्टाचार और शोषण के विरोध में शब्द उठेंगे । वह शब्द नगाड़े की तरह इस पूरे दुनिया में खलबली मचेगी । इस प्रकार हम देख सकते है कि निर्मला पुतुल के हर कविताओं के शीर्षक उस कविता की पूरी बात कहती है। अपनी सारी संवेदनाओं को वह कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। वह संथाली में कविता लिखती है। इसलिए हम देख सकते है कि उनकी सारी कविताएँ ज़मीन से जुडी हुई है। प्रकृति से जुडे हुए मानव के सारी संवेदनाएँ इसमें दिखाई देते है। इसके साथ ही प्रकृति और स्त्री के नाभिनाल संबंध को भी अभिव्यक्त करती है।
निर्मला पुतुल की कविताएँ पढ़ते समय कही हमें पाश्चात्य नारीवाद का याद दिलाते है। लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि स्त्री के बारे में लिखने के लिए स्त्रीवादी होना या नारीवाद पढ़ना ज़रूरी है। उनके पास जीवन के इतने सारे अनुभव है कि वह इन सारे सिद्धान्तों से भी आगे की बात कहती हैं। और वह अपनी समाज के लोगों को एकजुट होकर काम करने के लिए आह्वान देती है। इनकी कविताओं की ओर एक विशेषता है कि स्त्री संवेदनाओं के उन सारे जगहों को छूती है जो सिर्फ एक स्त्री रचनाकार ही समझ सकती हैं। निर्मला पुतुल को पढ़ते समय आलीस वाक्कर की याद आते है। हमें मालूम है कि रोज़ केरक्केट्टा भी आदिवासियों के लिए लिख रही हैं वह अपने क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिन्दी में भी लिखती हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आदिवासी समाज से स्त्रियाँ सशक्त रूप में सामने आ रही हैं। अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्रियों का मार्मिक चित्रण हमें यहाँ मिलते हैं। जैसे वह स्वयं अपनी कविता के बारे में कहती हैं ‘यह कविता नहीं, मेरे एकान्त का प्रवेश द्वार है, यहाँ आकर सुस्ताती हूँ मैं, टिकाती हूँ यहीं अपना सिर जिन्दगी की भाग – दौड से थक- हारकर, यहीं वह होती हूँ जिसे होने के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, पूरी दुनिया से छिटककर अपनी नाभ से जुडती हूँ यहीं ’।
निर्मला पुतुल ने अपनी सवालों से पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर प्रहार करती रहती हैं। अपनी बात रखने के लिए वह हिचकती नहीं , बने बनाये लकीरों पर चलना नहीं चाहती हैं इसलिए अपने तरीके से लिख रही हैं। अब इनके शब्द नगाड़े की तरह बजेंगे और खलबली मचेगी कोने कोने में .....
संदर्भ ग्रन्थ
1. नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ,18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नयी दिल्ली-003, तीसरा संस्करण 2012
2. इस्पातिका, आदिवासी विशेषांक,वोलियम 1, जमशेदपुर
डॉ. रमया बलान .के
कन्नूर,केरल,ई-मेल:ramyamhere@gmail.com
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