त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आधी दुनिया :आत्मकथा और स्त्री – डॉ. रामाशंकर कुशवाहा
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
भारत में, विशेषकर हिन्दी में आत्मकथा लेखन की कोई विशिष्ट परंपरा नहीं रही है। इसका कारण यह नहीं है कि प्राचीन भारतीय मनीषा आत्मचिन्तन के क्षेत्र में सचेष्ट नहीं थी, बल्कि यह है कि अतिरिक्त विनम्रता, निरभिमानता, आत्मगोपन-लजालुता के विशेषाग्रह के कारण आत्मश्लाघा और आत्मख्यापन को आत्महत्या के समान समझा जाता था, जिसके अपने सामाजिक-सांस्कृतिक कारण थे। साहित्य में निर्मित यह रूढ़ि आधुनिक काल में आकर टूटने लगी। वैसे हमारे यहाँ आत्मचरित या आत्मपरिचय की परम्परा का बीजांकुर संस्कृत-काल में ही शुरू हो गया था, लेकिन इन्हें आत्मकथा के ‘बीजांकुर’ के रूप में प्रस्तुत करना कितना उचित है, यह विचारणीय है! आमतौर पर हिंदी गद्य की शुरूआत आधुनिककाल से मानी जाती है। हालांकि इससे पहले भी हिन्दी गद्य के छिटपुट उदाहरण बीज रूप में प्राप्त अवश्य होते हैं, लेकिन उनकी अपनी कोई पंरपरा दिखलाई नहीं पड़ती। यह स्थिति तमाम गद्य विधाओं के साथ है। इसी तरह कतिपय विशिष्ट प्रयासों की उपस्थिति के बावजूद एक विधा के रूप में आत्मकथा का प्रवर्तन आधुनिक काल से ही माना जाना चाहिए। इसके अपने कारण हैं। आधुनिककाल में गद्य के विकास के लिए उत्तरदायी युगीन परिस्थितियों ने आत्मकथा की संवृद्धि में भी सहयोग दिया। आधुनिककाल में आत्मकथा दुनियाभर की सबसे लोकप्रिय विधाओं में एक रही है। अकेले अमरीका में बीसवीं शताब्दी में 55000 आत्मकथाएँ लिखी गईं। इसका सीधा असर हिंदी समाज पर भी पड़ा।
आत्मकथा हिन्दी साहित्य की आधुनिक गद्य विधा है और साथ ही साहित्य में यह एक ऐसी विधा भी है, जिसे हर हाल में जीवन-वास्तव के अधीन रहना होता है। जिस तरह एक नैसर्गिक जिन्दगी का पहले से कोई सोचा-समझा शिल्प नहीं हो सकता, उसी तरह उसको जीने की कोई सुनिश्चित ‘कला’ भी नहीं हो सकती। वहाँ अप्रत्याशित परिस्थितियों से सीधी मुठभेड़ होती है, जिसमें सीखे हुए दाँव-पेंच अक्सर काम नहीं आते। इतना अवश्य है कि खाली हाथ भी बहुत कम ही लोग जाते हैं, अर्थात् सबको कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त होता है। सबके पास कुछ-न-कुछ मार्मिक निष्कर्ष भी होते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके प्रभाव को हम रोक नहीं पाते और उसे अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त कर डालते हैं। यही कारण है कि आत्मकथा लिखने का तात्पर्य सबके लिए अलग-अलग है। जैसे, यह किसी के लिए पूरा का पूरा सच बोलना है तो किसी के लिए लेखक की नैतिक ही नहीं सौन्दर्यबोधी शर्त की तरह है। कोई इसे आइने की तरह साफ देखना चाहता है, तो किसी के लिए यह स्ट्रीप्टीस का नाच है, जिसमें चैराहे पर खड़ा होकर एक-एक करके कपड़े उतारते जाते हैं। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आत्मकथा विधा का क्षेत्र कितना व्यापक है।
हिन्दी आत्मकथा की शुरूआत सत्रहवीं शताब्दी के जैन कवि बनारसीदास के ‘अर्द्धकथानक’ (सन् 1641 ईस्वी) से मानी जाती है। उसके बाद हिन्दी में कुछ पठनीय आत्मकथाएँ अवश्य लिखी गईं, लेकिन इस विधा का समुचित विकास न हो सका। हालांकि इसी समय पाश्चात्य देशों में यह विधा काफी लोकप्रिय थी। आधुनिककाल में हिन्दी आत्मकथा लेखन की ठोस पहल मुंशी प्रेमचंद ने सन् 1932 में ‘हंस’ पत्रिका के ‘आत्मकथांक’ के माध्यम से शुरू की। उसी अंक से प्रेमचंद और नन्ददुलारे वाजपेयी के बीच एक नई बहस पैदा हुई कि ‘आत्मकथा किसकी हो?’ नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना था कि आत्मकथा केवल ‘महान्’ (इस महान के लिए उनका कोई मानक रहा होगा) व्यक्ति ही लिख सकता है, जबकि प्रेमचंद का कहना था कि एक मामूली आदमी या नौकर से लेकर महान् व्यक्ति तक की आत्मकथा जीवन के किसी न किसी क्षेत्र में प्रेरणादायी हो सकती है। आत्मकथा लेखन में प्रेमचंद की बात सार्थक सिद्ध हुई। अब प्रतिष्ठित व्यक्ति या साहित्यकार से लेकर घर में काम करने वाली नौकरानी और यौनकर्मी अपनी आत्मकथा लिखने लगीं हैं। यह लेखन केवल लेखन भर नहीं हैं, बल्कि इनका अपना सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्य है।
बीसवीं सदी के अन्त में हिंदी में आत्मकथा लेखन की जो शुरूआत हुई, उसमें इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही गति दिखाई देने लगी है। हिंदी के शुरूआती आत्मकथा लेखन में पुरूष लेखकों का वर्चस्व रहा तो इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में लिखी गई दर्जन भर आत्मकथाओं में अधिकांश स्त्री लेखिकाओं द्वारा लिखित हैं। हिंदी के आत्मकथा लेखन में यह एक बड़ा बदलाव है। आधी आबादी के सम्मिलन से प्रेमचंद की पहल व्यापक रूप धारण करने लगती है। जब पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों ने आत्मकथा लेखन शुरू किया तो इससे आत्मकथा लेखन के गति आई। अब यह इक्कीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में एक है। स्त्री आत्मकथा लेखन के मूल में आत्मकहानी भर नहीं है, बल्कि साहित्यिक और वैचारिक सरोकार भी हैं। इसे केवल स्त्री-साहित्य भर नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि इसका विकास उन ठोस सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच से हुआ है, जिसके कारण स्त्रियों में ‘पराधीनता का बोध’ और ‘स्वाधीनता की आकांक्षा’ की समझ काफी गहरी हुई है। अपने इन्हीं तल्ख अनुभवों के कारण स्त्री-साहित्य हिन्दी साहित्य का मुख्य हिस्सा बना। स्त्री-साहित्य ‘वैचारिक’ और ‘रचनात्मक’, दोनों धरातलों पर चिरस्थापित मान्यताओं, परम्पराओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों इत्यादि को नकार रहा है और स्वतंत्र रूप से अपने लिए प्रत्येक क्षेत्र में नई भूमि तलाश रहा है। हिंदी के स्त्री आत्मकथा लेखन ने प्रायः इसी तरह एक विशिष्ट और निजी साहित्यिक रूप प्राप्त किया है। इसमें जानकीदेवी बजाज (मेरी जीवन यात्रा) से लेकर दिनेशनन्दिनी डालमिया (मुझे माफ करना), अनिता राकेश (चन्द सतरें और), कृष्णा अग्निहोत्री (लगता नहीं है दिल मेरा, और...और...औरत) और कुसुम अंसल (जो कहा नहीं गया), प्रभा खेतान (अन्या से अनन्या), मन्नू भंडारी (एक कहानी यह भी), कौसल्या बैसन्त्री (दोहरा अभिशाप), सुशीला टाकभौरे की (शिकंजे का दर्द) आदि की आत्मकथाओं को शामिल किया जा सकता है। यह आत्मकथात्मक लेखन अपने निजी साहित्यिक रूप की तरह विकसित हुआ है।
हिंदी आत्मकथा लेखन में स्त्री का प्रवेश अभी नया है। पुरूष की आत्मकथा में उसके आश्वस्त ‘अहं’ के साक्ष्य मिलते हैं तो स्त्री का आत्मबोध अभी संकोची, संशयग्रस्त और निर्मिति की प्रक्रिया में है। स्त्री के आत्मबोध की निर्मिति की प्रक्रिया का अर्थ स्त्री चेतना के उदय से है। यही चेतना उनकी समस्याओं को सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक दृष्टि से विमर्श का रूप प्रदान करती है। ‘मेरी जीवन यात्रा’, ‘हादसे’, ‘अन्या से अनन्या’ और ‘एक कहानी यह भी’ आदि आत्मकथाएँ अपने समय में हो रहे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों का खाका प्रस्तुत करती हैं। इन आत्मकथाओं में भूदान आन्दोलन और नक्सलबाड़ी आन्दोलन से लेकर आपातकाल और इन्दिरा गाँधी की हत्या और उसके दुष्प्रभाव तक की घटनाओं का बहुत बारीकी से चित्रण किया गया है। समस्याओं की भिन्नता के कारण स्त्री रचनाकार अपनी कथात्मक या आत्मकथात्मक रचनाओं में परिवार की संस्था और स्त्री-पुरूष संबंधों से अलग तरह का व्यवहार करती हैं। जैसे दिनेशनन्दिनी डालमिया (मुझे माफ करना), कुसुम अंसल (जो कहा नहीं गया), प्रभा खेतान (अन्या से अनन्या) और मन्नू भंडारी (एक कहानी यह भी) की आत्मकथाएँ यह बताती हैं कि उपभोग के सभी संसाधन जीवन के खालीपन को भरने के लिए पूरे नहीं पड़ते। इनमें कई ऐसे सामाजिक चित्र खींचे गए हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि आज भी समाज में स्त्रियों का शोषण कम नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि उसका स्वरूप बदल गया है, बल्कि उसका दायरा और व्यापक हो गया है। इसका सबसे विस्तृत रूप प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ में दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों में स्त्रियों को अधिक आजादी है, किन्तु व्यावहारिक बात यह है कि वहाँ भी स्त्री दोयम दर्जे की ही नागरिक है। क्योंकि स्त्री को अनन्या मानने की यह परम्परा किसी देश-विशेष में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक-सी है।
सामाजिक उपेक्षा और अवहेलना के कारण अब चेतनासंपन्न स्त्रियों का तमाम सामाजिक संस्थाओं के प्रति नजरिया बदला है। इस चेतनशीलता से न केवल समाज का बल्कि साहित्य का भी स्वरूप बदला है, बदल रहा है। उसका दायरा और अधिक व्यापक हो गया है। निश्चित रूप से शिक्षा के प्रचार-प्रसार से भारतीय स्त्री के अंदर चेतना पैदा हुई है और वे कई विषयों पर सहज और स्वाभाविक विद्रोह दर्ज कर रही हैं, लेकिन इसके बावजूद वह आज़ादी अब भी बहुत दूर है, जिसकी लड़ाई हमारा स्त्री समाज लड़ रहा है पितृसत्तात्मक मानसिकता के साथ-साथ इसके जिम्मेदार स्त्रीमन के अपने कुछेक पूर्वग्रह भी हैं, जिसके कारण कभी-कभी ऐसा लगता है कि स्त्री रचनाकार के मानस में परंपरागत आदर्श परिवार और स्त्री-पुरुष के आदर्श संबंधों की कामना अभी जिन्दा है, जो पानी के बुलबुले की तरह अक्सर दिखाई दे जाती है और आपसी द्वंद्व के कारण वे फिर घोषित या अघोषित, प्रतिबद्ध या अप्रतिबद्ध बगावत में लौट जाती हैं। ऐसे में स्त्री-विमर्श बहुत पेचीदा स्थिति में पहुँच जाता है। ‘एक कहानी यह भी’ (मन्नू भंडारी) और ‘अन्या से अनन्या’ (प्रभा खेतान) में जो घटित होता है, वह इसी द्वंद्व का उदाहरण है।
असल में, आत्मकथाओं में पूरा समाज बोलता है, इसीलिए आत्मकथा सिर्फ किसी एक व्यक्ति विशेष के जीवन की कहानी भर नहीं होती बल्कि उसमें मूल्य और विचारधारा भी निहित होती है, जिसमें गूँथकर उसकी कथा को प्रस्तुत किया जाता है। इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि वह दिखाई तो दे परन्तु आरोपित न लगे। आत्मकथा में मूल्य और विचारधारा प्रच्छन्न रूप से अपनी भूमिका अदा करती है, जिससे आत्मकथा अपनी अलग पहचान निर्मित करती है। जब स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री-विमर्श के धरातल पर मूल्यांकन किया जाता है तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनमें प्रस्तुत आक्रोश का कारण केवल एक परिवार नहीं बल्कि वह सामाजिक व्यवस्था है, जो एक तरफ विधवा विवाह का विरोध करती है तो दूसरी तरफ अकेले जीने वाली औरत के हौसले का माखौल बनाती है। मैत्रेयी पुष्पा की माँ (कसतूरी) इसका उदाहरण है। वह जब तक समाज में अपना लोहा नहीं मनवा लेतीं, तब तक समाज उन्हें महत्त्व देने के लिए तैयार नहीं होता। इस तरह स्त्री आत्मकथाओं को स्त्री के आक्रोश और प्रतिरोध की रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके साथ-साथ हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कई बार लेखिका के अंदर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी संस्कारित स्त्री पाठक को ऐसा सोचने से रोक देती है। अक्सर स्त्री आत्मकथाओं में आत्मकथ्य की अपेक्षा संबंधों को अधिक महत्त्व दिया जाता है, यही स्वाभाविकता उन्हें पुरुष आत्मकथाकारों से अलग करती है। (अधिकांश स्त्री आत्मकथाओं में केंद्रीय समस्या संबंध हैं।) यहाँ स्त्री आत्मकथाएँ पुरुषों के ‘मैं’ के बदले अधिक ‘सामाजिक’ हो जाती हैं। वह जिन्दगी के उन सभी पहलुओं का उल्लेख करती हैं, जो उन्हें लिंग-भेद से अवगत कराता है, क्योंकि असल जीवन में उनसे बार-बार यह बताने का प्रयास किया जाता है कि स्त्री अबला होती है। उदाहरण के लिए सुशीला टाकभौरे के पति उनके महाविद्यालय में प्रवक्ता बन जाने के बाद भी यह जताते रहते थे कि मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं हो।
शिल्प या रूप की भिन्नता स्त्री आत्मकथाओं को परम्परागत आत्मकथाओं से अलग नया रूप और तेवर प्रदान करती है। यह भिन्नता पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों में भी दिखाई देती है और स्त्री लेखन की ‘पुंसवादी’ नजरिए से समीक्षा के आरोप तो गाहे-बगाहे लगते ही रहते है। (इससे बचने के लिए यहाँ जोर स्त्री आत्मकथाओं के पाठ केन्द्रित अध्ययन पर दिया गया है।) इसमें विभिन्न विचारधाराओं के विद्वान-विमर्शकार शामिल हैं, जो यह मानते हैं कि स्त्री-साहित्य की कोई परम्परा नहीं है, क्योंकि उनको इतिहास में जगह नहीं दी गई है। ऐसे में आत्मकथा की परम्परा, उसमें स्त्री आत्मकथाओं का स्थान, उसकी मानसिक बुनावट, उनसे जुड़े अन्य तथ्यों तथा समकालीन विविध विमर्शों आदि ने इसे चिन्तन के केन्द्र में ला दिया है। सवाल स्त्री आत्मकथा लेखन के अध्ययन के ढ़ंग को लेकर भी हैं। कुछ लेखिकाएँ स्त्री-साहित्य की समीक्षा स्त्रीवादी ढंग से करना चाहती हैं, जिसमें भारतीय विदुषियों में महादेवी वर्मा और पश्चिमी विदुषियों में एलेन शोवाल्टर प्रमुख हैं। दोनों यह मानकर चलती हैं कि स्त्री एक खास विचारधारा की अभिव्यक्ति करती है और रचना के समय उसके सामने कुछ भाषा संबंधी समस्याएँ आती हैं, जिसकी जाँच स्त्रीवादी समीक्षा के द्वारा ही की जा सकती है। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि जब कोई स्त्री लिखती है तो यह जरूरी नहीं है कि वह स्त्री-भाषा में ही लिखे। सृजनकार्य करने वाली सभी स्त्रियाँ दुनिया जहान की विचारधारा और साहित्य से अवगत भी नहीं होती। कुछ ऐसी भी लेखिकाएँ हैं, जिन्हें यह हुनर आत्मपीड़ा से मिलता है। ऐसे में, वह जिस समाज में रहकर रचना करती हैं, वहीं की भाषा उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाती है। भाषा-भेद की चेतनता तभी सम्भव है, जब वह पितृसत्तात्मक औजारों और कूटनीतियों से भलीभाँति वाकिफ हो।
डॉ. रामाशंकर कुशवाहा
युवा आलोचक
संपर्क : rsmoon.kushwaha@gmail.com
वाह,
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