समीक्षा:अल्पसंख्यकबोध और साम्प्रदायिकता के प्रश्न ‘मैं हिन्दू हूँ’ के सन्दर्भ में – अमरेन्द्र कुमार

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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समीक्षा:अल्पसंख्यकबोध और साम्प्रदायिकता के प्रश्न ‘मैं हिन्दू हूँ’ के सन्दर्भ में – अमरेन्द्र कुमार

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
अल्पसंख्यकका शाब्दिक अर्थ है संख्या की दृष्टि से कम मात्रा में होना।  अल्पसंख्यक होने का बोध भी इसी संख्यात्मक दृष्टि से जुड़ता है जो मूलतः मात्रा में कम होने का होता है। भारत के सन्दर्भ में धर्म की दृष्टि से दो वर्ग उपस्थित है, एक बहुसंख्यक वर्ग और दूसरा अल्पसंख्यक वर्ग। धर्म की दृष्टि से भारत का बहुसंख्यक वर्ग हिन्दू है और अल्पसंख्यक वर्ग में मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, आदि है। मुस्लिम समुदाय के भीतर भी अल्पसंख्यक बोध विद्यमान है जो कभी-कभी विरोध और प्रतिशोध जैसी भावना के साथ सामने आती है तो कभी-कभी मुस्लिम समुदाय के अंतरमन में या तो उसे कचोटती रहती है या फिर उन्हें मानसिक स्तर तक भीतर से तोड़ देती है। अल्पसंख्यक होने का बोध मुस्लिम समुदाय को आतंकित भी करता रहता है और आक्रोशित भी, यह अलग बात है कि दोनों के परिप्रेक्ष्य अलग-अलग हैं। भारत में मुस्लिम वर्ग वास्तव में बहुत पहले से अरब से आये व्यापारी और लुटरों के रूप आये थे। बाद में धीरे-धीरे इस समुदाय के लोगों ने यहाँ अपना साम्राज्य विस्तार किया। इनका इतिहास गजनवी, अकबर, औरंगजेब आदि मुस्लिम शासकों के साथ जुड़ा हुआ है।
इस समुदाय ने फिर भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। परन्तु आजादी मिलने के बाद से ही यह समुदाय भारत में अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है। कारण- समय-समय पर होने वाले सांप्रदायिक दंगे। मुस्लिम समुदाय का यह अल्पसंख्यक बोध उनके असुरक्षाबोध को भी जन्म देता है। यह असुरक्षाबोध सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर तक व्याप्त रहता है। संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के ह्रास होने तक की चिंता इस अल्पसंख्यक बोध के कारण आनी शुरू हो जाती है। मुस्लिम समुदाय के खिलाफ लगातार कट्टरवादी संगठनों द्वारा अफवाहों की निर्मिति इस अल्पसंख्यक बोध को मुस्लिम समुदाय के ऊपर हावी करती जाती है। सुहैल वाहिद अपने लेख भारत में मुसलमान होनामें अल्पसंख्यक होने के बोध को व्यक्त करते हुए एक घटना का जिक्र करते है जिसमें वह बताते हैं कि दिल्ली के एक पाश इलाके में रहने वाले मुस्लिम प्रोफेसर की बेटी को महज इसलिए छेड़ा गया था क्योंकि वह मुस्लिम लड़की थी।  भारत में बसने वाले मुस्लिम समुदाय अपने इसी अल्पसंख्यक बोध के कारण हिन्दू समुदाय के लोगों से सामाजिक और मानसिक दोनों स्तरों तक एक तरह के अलगाव का अनुभव करते है। असगर वजाहत की कहानियों में भी अल्पसंख्यक बोध के कारण उपजे अलगाव और असुरक्षा बोध का चित्रण किया गया है।  
असगर वजाहत भी उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान की। असगर वजाहत समाज में आए बदलावों को भी अपनी कहानियों में दर्ज करने के साथ-साथ बदलावों के कारण समाज के आम लोगों पर पड़ते हुए प्रभाव को भी अभिव्यक्त करते है। असगर वजाहत के इस कहानी संग्रह में भी अल्पसंख्यक बोध के कारणों की पड़ताल की गयी है। असगर वजाहत कृत मैं हिंदू हूँकहानी संग्रह का प्रकाशन सन् 2007 में राजकमल प्रकाशन दिल्ली से हुआ है। इस कहानी संग्रह में कुल 18 कहानियां संगृहीत है। इनकी कहानियों में विषय-वैविध्य के साथ-साथ समाज के उन सूक्ष्म पहलुओं को भी पकड़ने की कोशिश की गयी है, जिनकी ओर इस भाग-दौड की जिंदगी में ध्यान भी नहीं जाता। अपनी कहानियों में राजनीतिक, सामाजिक, और मानसिक विश्लेषण के साथ-साथ फैंटसी और संवाद शैली का प्रयोग असगर वजाहत अपनी कहानियों में करते है।
असगर वजाहत की कहानी जख्ममें मुस्लिम अल्पसंख्यकों की संवेदना को चित्रित करने का  प्रयास किया गया है। कहानी की शुरूआत कुछ इस तरह होती है, “बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में सांप्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है।”  इस कहानी में असगर वजाहत ने मुख़्तारपात्र का सृजन किया है जो अपने चरित्र में बिल्कुल साधारण सा है और अपने पुश्तैनी सिलाई के धंधे में लगा हुआ। परन्तु मुख़्तारसाधारण चरित्र होने के बावजूद एक ऐसा चरित्र है जो समाज और उसकी समस्याओं में रूचि रखता है। वह उर्दू अखबार पढता है और हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता से संबंधित खबरों का विश्लेषण भी करता है। द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को सही मानने वाला मुख़्तार मुहम्मद अली जिन्ना की बड़ी इज्जत करता है और पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर पाकिस्तान पर गर्व भी करता है। विभाजन के बाद दरअसल ऐसी स्थिति पनप चुकी थी जिससे हमारे देश की साझा-संस्कृति खतरे में दिखाई दे रही थी। विभाजन के कारण भारत में रह गए मुसलमान दरअसल दोहरे मानसिक बोध में जीते हुए नज़र आते है जो भारतीय मुसलमानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जाती है। इस कहानी का पात्र मुख़्तार भी इसी दोहरे मानसिक बोध से ग्रस्त दिखाई देता है।
कलकत्ता के दैनिक अखबारे मशरिकमें मुस्लिम नेता जावेद हबीबअपने लेख मुसलमानों के घर तारीख क्यों’(7 जनवरी, 1992) में इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखते है, “आजादी के बाद दो सियासी रास्ते थे। कुछ लोगों ने पाकिस्तान बनाकर यह समझा कि वहाँ मुसलमानों का मसला हल हो जाएगा और कुछ लोगों ने यह समझा कि हिन्दुस्तान में ही वे सब कुछ हासिल कर सकेंगे। न वहाँ सुकून है, न यहाँ इत्मीनान।”  इस कहानी में शुरू में मुख़्तार भी इसी बोध से ग्रस्त दिखाई देता है, परन्तु धीरे-धीरे जब वह कथावाचक के संपर्क में आता है तब अनेक वाद-विवाद के बाद मुख़्तार की सोच में परिवर्तन आ जाता है। परन्तु शहर में जब दंगा होता है तो मुख़्तार उसमें घायल हो जाता है। इसके बाद कथावाचक मुख़्तार को लेकर सांप्रदायिकता विरोधी सम्मलेन में लेकर जाता है जहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख सारे समुदाय के लोग आए हुए होते है। कथावाचक जब मुख़्तार को लेकर उस सम्मलेन में जाता है तब मुख़्तार उससे सम्मलेन के दौरान ही कई सवाल पूछता है। वह उस सम्मलेन में बोल रहे प्रोफेसर साहब, लेखक, स्वतंत्रता सेनानी आदि के भाषणों से खुश नहीं होता है। वह कथावाचक से वहाँ बोल रहे लोगों से कुछ ऐलानकरने की इच्छा जाहिर करता है। मुख़्तार की वह इच्छा साम्प्रदायिकता की समस्या को जड़ से खत्म करने के संवेदनात्मक प्रयास के साथ-साथ भारत में बसे मुस्लिम समुदाय की मनोस्थिति को भी उद्घाटित करती है। मुख़्तार कथावाचक से कहता है, “प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जाएँगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पदमश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटने की धमकी देते।”  मुख़्तार को दुःख इस बात का है कि कुछ ठोस तरीके से नहीं हो रहा है बस सांप्रदायिक दंगे के बाद साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मलेन में हिंदू, मुस्लिम, सिख समुदाय के प्रतिष्ठित लोग भाषण देकर चले जाते है। इस कहानी में साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मलेन की असलियत की भी पड़ताल करने की कोशिश की गयी है।अंदर मंच पर एक बड़ा सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मलेनलिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किए गए सम्मलेन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफ़ेद कागज चिपकाकर नयी तारीख लिख दी गयी थी। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया।”  इस कहानी में साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनकी असलियत के साथ-साथ मुख़्तार के माध्यम से भारत के मुस्लिम समुदाय के प्रश्नों को उद्घाटित किया गया है जो आज भी समाज में व्याप्त है।
इस संग्रह की महत्त्वपूर्ण कहानी मैं हिंदू हूँमें मुस्लिम समुदाय के उस मानसिक स्थिति का बयान है जिसमें एक मुस्लिम समुदाय का लड़का दंगों के कारण इस स्तर तक विक्षिप्तावस्था में पहुँच चुका है कि वह अपने आप को हिंदू बनाने पर तूल जाता है। सैफू हिंदू इसलिए बनना चाहता है क्योंकि वह मानता है कि हिंदू बनने से वह सांप्रदायिक दंगों की आग से बच जाएगा। इस कहानी में सैफू जो मानसिक रूप से विछिप्त है उसकी मनोदशा का चित्रण किया गया है। इस कहानी में बदल चुके दंगे के समाजशास्त्र को भी चित्रित किया गया है। इस कहानी में लेखक कहता है, “तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते है। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिन्दा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियाँ वीरान की जाती थी। उस ज़माने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपना स्थानीय और छुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंदिता, जमीन पर कब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेट लेना वगैरा उद्देश्य होते थे। अब तो दिल्ली दरबार पर कब्ज़ा ज़माने का साधन बन गए हैं सांप्रदायिक दंगे।”  इस कहानी में मुसलमानों के मौहल्ले मुगलपुरा में कर्फ्यू के समय की स्थिति का जिक्र किया गया है। मुस्लिम नवयुवकों की दंगों के दौरान पनप चुकी मानसिक स्थिति का भी उल्लेख करते हुए लेखक कहता है, “दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए अजीब तरह का उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिंदुओं को जमीन चटा देंगे; समझ क्या रखा है धोती बांधने वालों ने...अजी बुजदिल होते है...एक मुसलमान दस हिंदूओं पर भारी पड़ता है... हँस के लिया है पाकिस्तान; लड़कर लेंगे हिंदुस्तानजैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मौहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी।”  इस कहानी में मौहल्ले के लड़के सैफू को हिंदुओं के नाम से डराते है, जिसके कारण सैफू के मन में हिंदुओं को लेकर दहशत भर जाती है। वह यह समझने लगता है कि हिंदुओं को कोई भी कुछ नहीं कर सकता है, इसी की प्रतिक्रिया में वह पीएसी के लोगों पर चिल्लाता है, “तुमने मुझे मारा कैसे...मैं हिंदू...”  इस कहानी में भारतीय मुसलमानों की परस्पर विरोधी विचारधाराओं को दिखाने की कोशिश की गई है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस तरह के परस्पर विरोधी विचारों के पीछे क्या कारण है? अरविन्द मोहन अपने लेख विभाजन की विरासतमें इस तथ्य को सामने लाते है कि, “मुसलमान होने भर से देश की आबादी के एक हिस्से को पाकिस्तानपरस्त बता दिया जाता है। उस पर पाकिस्तान भक्ति का भी आरोप लगाया जाता है।”  मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लेकर हमारे समाज में व्याप्त यह सोच भी कुछ हद तक भारतीय मुसलमानों को अलग-थलग करने में जिम्मेदार है। इस कहानी दंगों के बदल चुके समाजशास्त्र और मुस्लिम नवयुवकों की मनोस्थिति का उल्लेख करने के साथ-साथ सैफू के माध्यम से उसके हिंदू बनने की जिद और पीएसी वालों के सामने अपने को हिंदू घोषित करना मुस्लिम अल्पसंख्यकों की दोहरी मनोस्थिति को दर्शाता है।
शीशों का मसीहा कोई नहींकहानी में असगर वजाहत ने एक नाई की कथा को आधार बनाया है। पांच साल बाद कथावाचक अपने घर फतेहगढ़ आता है तो देखता है कि मामू का दुकान बदल चुका है। मामू के दुकान भारत हेयर कटिंग सैलूनके बदले हुए रूप में खास बात यह होती है कि मामू के दुकान की एक समय पर शान होने वाली खानबहादुर आईनाभी वहाँ नहीं होता।खानबहादुर आईनेसे मामू को बहुत लगाव था।लैला-मजनू और शीरीं फरहाद जैसा इश्क हो गया था मामू को खानबहादुर आईने से। दुकान के किसी कारीगर की हिम्मत न थी इसे छूने की। मामू ही उसे रोज साफ़ करते थे। हफ्ते में एक बार चूने के पानी से रगड़ते थे। सूखे कपड़े से पोंछते थे। मामू ये सब ऐसे किया करते थे जैसे माएं अपने बच्चों की मालिश करती हैं। मामू की दुकान का ही नहीं, यह शहर की शान बन गया था।”  लेखक को बाद में पता चलता है कि फसाद के बाद शहर की सामाजिक संरचना में भी बदलाव आ चुका है। मामू लेखक को बताते हैं कि, “उन्होंने अपनी अलग सब्जी मंडी बना ली है...इधर हम लोगों ने अपनी अलग अनाज मंडी बना ली है।”  इसके बाद जब लेखक मामू से खानबहादुर आईना दिखाने को कहता है तो मामू उसे अपने घर ले जाते है जहाँ वह फसाद के दौरान तोड़ दिए गए खानबहादुर आईने को बोरी में सहेज कर रखे रहते है। इस कहानी में लेखक ने यह दिखाया है कि कैसे फसाद के कारण मामू का रोजगार प्रभावित होता है और जिस खानबहादुर शीशे को वह अपनी जान से अधिक सहेज कर रखते थे उसे फसाद में तोड़े जाने के बावजूद उसे सहेजकर रखे हुए है। फसाद के कारण सामान्य मुस्लिम कामगार वर्ग की आजीविका प्रभावित तो होती ही है साथ ही उसकी मनोदशा भी प्रभावित होती है। अंत में मामू की आँखों में कुछ नहोने का भाव इसी बदली हुई मनोदशा को चित्रित करता है।
तेरह सौ साल का बेबी कैमिलमें मुस्लिम समुदाय की परस्पर विरोधी मनोस्थिति का चित्रण किया गया है। इस कहानी में ओमप्रकाश शर्मा मुहम्मद अली पोस्ट ग्रेजुएट कालिज में नौकरी कर रहे होते है। ओमप्रकाश शर्मा का कालिज उस जगह पर रहता है जो इस्लाम पसंद है। कहानीकार ने अपने शब्दों में इस बात को कहा है, “आजकल नहीं बल्कि पन्द्रह-तीस साल पहले यहाँ पाकिस्तान के जीतने और भारत के हारने की खुशी में मिठाई बंटा करती थी। आजकल ओसामा बिन लादेन के पोस्टर बिकते है। मस्जिदें जितनी ऊँची होती चली जा रही हैं उतनी ही लाउडस्पीकरों की आवाज में इजाफा हो रहा है। पांच मस्जिदों के लाउडस्पीकर पूरे इलाके को हिला कर रख देते हैं।”  ओमप्रकाश शर्मा के नौकरी के दिन धीरे-धीरे बीतते जाते हैं, परन्तु नौकरी के दौरान कोई उन्हें मांस खिलाने की कोशिश करता है तो कोई उन्हें गुरु गोलवलकर का प्रतिनिधि मानता है। इन सारी परिस्थितियों में ओमप्रकाश शर्मा के साथ नौकरी कर रहे उनके साथी साजिद, डॉ.शुजाअत, अतिया अजीज, ताहिर हुसैन आदि लोग ओमप्रकाश शर्मा की मदद करते है। इस कहानी में ख्वाजा अब्दुल माजिद हक्कानीअपने संपूर्ण चरित्र में एक कट्टर और धर्म के प्रति संकुचित सोच के साथ उपस्थित हुआ है।
ख्वाजा अब्दुल माजिद हक्कानीओमप्रकाश शर्मा के कालिज में ही कामर्स पढाता है।हक्कानीप्राध्यापक होने के साथ-साथ कई संस्था और पत्र-पत्रिकाओं के साथ भी जुड़ा हुआ होता है, जैसे वह अंजुमने अकदे बेवगाने मुसलमीनका अध्यक्ष होने के साथ-साथ उस दुनियानाम के संगठन के साथ भी जुड़ा हुआ होता है जो इस्लाम का प्रचार करता है।हक्कानीको टीचर्स कालोनी में रहने वाली औरते नापसंद करती है।हक्कानीअपने धर्म को लेकर इतना कट्टर है कि जब वह कालिज जाता है तो अपनी पत्नी को किचन में बंद करके जाता है और जब उससे इसका कारण पूछा जाता है तो वह इस्लाम धर्म के आड़ में अपने आपको सही साबित करने का प्रयास करता है। वह कहता है, “हज़रत कलामे-पाक में साफसाफ़ कहा गया है कि औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तो जनाब जिस तरह हम अपने खेत की देखभाल और रखवाली करते हैं उसी तरह मैं...”  ‘हक्कानीके यहाँ बकरीद के दिन ऊंट के बच्चे की बलि दी जाती है जिसके कारण ओमप्रकाश शर्मा की बेटी लिली जो उस ऊंट के बच्चे को बहुत चाहती है उसे देखकर बीमार पड़ जाती है और उसकी हालात गंभीर हो जाती है। इसपर साजिद, डॉ.शुजाअत, अतिया अजीज और ताहिर हुसैन गुस्सा हो जाते है और वह हक्कानीको अस्पताल बुलाने पर अड़ जाते है और अंत में डॉ.अतिया कहती है, “वो समझता है इस्लाम की आड़ में जो चाहे कर सकता है, पहले तो उसका यही भ्रम तोडना चहिए।”  इस कहानी में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि अगर समाज में हक्कानीजैसे कट्टर मुस्लिम हैं तो साजिद, डॉ.शुजाअत, अतिया अजीज और ताहिर हुसैन जैसे लोग भी है जो इस साझा-संस्कृति को बचाने के प्रयास में लगे हुए है और इस्लाम के भीतर व्याप्त धर्म के नाम पर कट्टरपन के सख्त विरोधी है। उर्दू पत्र इन्कलाब’(9नवम्बर,1991) के संपादकीय में भी इस बात को स्पष्ट किया है कि, “अधिसंख्यक मुसलमान शुरू से ही एकता और भाईचारे के हिमायती रहे है। इस सिद्धांत को असली जामा पहनाने में मुसलमानों की जबरदस्त भूमिका रही है। अगर कोई पार्टी किसी अवतार या धर्म के नाम पर मुल्क की एकता और भाईचारे को तोड़ने की कोशिश करती है तो मुसलमान अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों के सहयोग से उसका डटकर मुकाबला करेंगे।”  इस कहानी में भी साजिद, डॉ.शुजाअत, अतिया अजीज और ताहिर हुसैन जैसे लोग एकता और भाईचारे के हिमायती के रूप में आए है जो हक्कानीजैसे कट्टर लोग का हर स्तर पर विरोध करते नज़र आते है।
इस संग्रह की कहानी मेरे मौला...में मुस्लिम समुदाय के एक ऐसे व्यक्ति की कहानी कही गयी है जिसमें वह अपने धर्म के प्रति कट्टर नहीं होने के बावजूद भयग्रस्त है। इस कहानी में बहुत की संक्षेप में बाबरी मस्जिद विध्वंसके प्रसंग को रेखांकित किया गया है और उसके कारण सामान्य मुस्लिम समुदाय के मनोभावों को उकेरने का प्रयास किया गया है। इस कहानी में नकवी साहब एक सरकारी नौकरी कर रहा होता है, जो अपने धर्म के प्रति कट्टर नहीं है। वह बकरीद में अपने घर गोश्त बनाने से परहेज करता है क्योंकि उसके गोश्त बनाने से उसके मौहल्ले में उसके साथ रहने वाले तिवारीजी, त्रिपाठीजी, वर्माजी और सिंह साहब की पत्नियों को दिक्कत होती है। वह मौहल्ले के नाई खलील मियां से कहता है, “तुम तो जानते हो खलील मियां, हम गाँव में ही कुर्बानी करा देते है...।”  इस पर खलील मियां नकवी से कहता है, “हाँ, मियां...यहाँ कहाँ लफड़े में फंसोगे।”  खलील मियां का यह कथन हिंदू बहुल क्षेत्र में अपनी रोजी-रोटी के लिए रह रहे उन सभी मुस्लिम समुदाय के दृष्टीकोण को व्यक्त करता है जो अपने त्यौहार मनाने में भी संकोच करते है।यहाँ कहाँ लफड़े में फंसोगेकथन के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि वर्त्तमान में स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि न जाने कब धर्म के इस त्यौहार में राजनीति हो जाए और कुर्बानीसांप्रदायिक रंग इख़्तियार कर ले। भारतीय मुसलमानों पर अक्सर उनके वतनपरस्ती को लेकर संदेह किया जाता है। उनकी देशभक्ति को शक की नज़र से देखा जाता है।
संदेह के इस घेरे में आज भी भारतीय मुसलमान अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। मुसलमानों पर उनकी रूढ़िवादी परंपरगत शैली और मुख्यधारा में न रहने का प्रश्न उठता रहता है। उर्दू पत्र इन्कलाबके संपादकीय में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि, “अगर राष्ट्र की मुख्यधारा का मतलब दूसरे संप्रदायों के मजहबी रस्मों-रिवाजों को अपनाना नहीं है तो, हिन्दुस्तानी मुसलमान न सिर्फ मुख्यधारा में शामिल हैं बल्कि बीच मंझधार में खड़े है और चारों तरफ से लगनेवाले थपेड़े का लुफ्त भी उठा रहे है।”   इस कहानी का पात्र नकवी साहब नेशनलिस्ट मुसलमानहै, क्योंकि वह होली, दिवाली मनाता है, वह अपनी बेटी को स्कूल में संस्कृत दिलवाता है। परन्तु इसके बावजूद वह आशंकित रहता है। नकवी साहब की ऑफिस में परचेजविभाग में जब कोई खानलड़का काम करने आता है तब उनके साथी कर्मचारी नकवी साहब को उस लकड़े के बारे में बताते है परन्तु नकवी साहब को यह बात समझ में नहीं आती कि यह लोग मुझे क्यों बता रहे है कि ऑफिस में एक खानलड़का आया है। नकवी कहता है, “अबे, हम शिया मुसलमान हैं...सैयद हैं...नकवी हैं...हमें खानों-पठानों से क्या मतलब?...ये बारी-बारी से आकर क्यों बताते हैं कि परचेजमें खान का कोई लड़का...।”  जब टीवी पर उसकी बीवी सोफिया बाबरी मस्जिद विध्वंस की खबर सुनती है तो वह उसे ऑफिस जाने से मना करती है लेकिन वह नहीं मानता। नकवी जानता है कि यह सब पोलिटिक्सका हिस्सा है। नकवी साहब को पता होता है कि यह कृत्य सांप्रदायिक राजनीति का हिस्सा है जिसका इस्तेमाल तत्कालीन समय में संघ परिवार और भाजपा द्वारा दिल्ली की सत्ता हासिल करने के लिए किया गया था। पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने लेख 1948-1992 का फर्कमें लिखते है, “आरंभिक संकोच के बाद संघ परिवार और भाजपा मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी से कतराने के बजाय उसे स्वाभाविकसिद्ध कर रहे है और घृणा के ज्वार पर सवार हो दिल्ली पहुँचने का सपना देख रहे है।”  इस कहानी में भी इस तथ्य की ओर संकेत किया गया है। फसाद होने के डर से खलील मियां अंत में नकवी साहब की दाढ़ी को शेव बनाने के दौरान छोटा कर देता है जिससे कि वह हिंदू दिखे। इस पर नकवी साहब बुरी तरह डर जाता है। मुस्लिम समुदाय का यह भय और शक वर्तमान व्यवस्था की ही उपज है, जहाँ वह अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है।  
असगर वजाहत की ये कहानियाँ उन तमाम सत्यों को मुखर रूप से अभिव्यक्त करती है जो भारतीय मुसलमानों की वर्तमान स्थिति और संवेदना को उद्घाटित करने का प्रयास करती है। विषयों को विविधता के साथ पाठक के समक्ष रखना असगर वजाहत की कहानियों की विशेषता है।जख्ममें अगर मुख़्तारके माध्यम से एक मुस्लिम की व्यग्रता को दिखाया गया है तो शीशों का मसीहा कोई नहींके मामूतक आते-आते वह व्यग्रता एक स्थिरता में बदल जाती है।मैं हिंदू हूँके सैफूको अगर उसका अल्पसंख्यकबोध उसे हिंदू बनने के लिए विवश करता है तो मेरे मौलाके नकवी साहबभी उस डर से आशंकित हो उठते है।तेरह सौ साल का बेबी कैमिलके हक्कानीके माध्यम से असगर वजाहत मुस्लिमों के भीतर उनके धर्म के प्रति कट्टर स्वाभाव को दिखाते है तो साजिद, डॉ.शुजाअत, अतिया अजीज और ताहिर हुसैन के माध्यम से मुस्लिम समुदाय के उस वर्ग का भी चित्रण करते है जो दूसरे धर्म के लोगों की संवेदनाओं की इज्जत करता है। अपने दो-टुक शैली में असगर वजाहत मुस्लिम समुदाय की संवेदनाओं को उद्घाटित करने के क्रम में उन तमाम प्रश्नों से मुठभेड़ करते है जो आज भी मुस्लिम समुदाय के सामने मुहँ बाये खड़े है।

संदर्भ ग्रन्थ:
1. संपादक-राजकिशोर, मुसलमान क्या  सोचते है (2000), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
2. संपादक-राजकिशोर, भारतीय मुसलमान:मिथक और यथार्थ(2011), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
3. वजाहत, असगर , मैं हिंदू हूँ, (2007), राजकमल पेपरबैक्स प्रकाशन, नयी दिल्ली

अमरेन्द्र कुमार
शोधार्थी गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात
संपर्क 7698223935,amrendracug@gmail.com

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