त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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सम्पादकीय:सामाजिक न्याय बनाम साक्षात्कार /जितेन्द्र यादव
(1)
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
साक्षात्कार को लेकर जेएनयू परिसर में कई दिनों से दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक छात्र आंदोलित हैं। यह मुद्दा चर्चा में तब आया जब एम.फिल. प्रवेश परीक्षा में साक्षात्कार के अंक को कम करने की मांग कर रहे वहाँ के कुछ छात्रों को कुलपति द्वारा निष्काषित कर दिया गया। रोचक बात यह है कि जितने छात्रों को निष्काषित किया गया उसमें दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक का अद्भुत समीकरण था। इससे पहले प्रवेश परीक्षा प्रणाली में 100 नंबर के पूर्णांक में 70 नंबर लिखित तथा 30 नंबर का साक्षात्कार होता था तथा लिखित व साक्षात्कार को मिलाकर मेरिट बनती थी। किन्तु अचानक नई प्रवेश-परीक्षा की प्रणाली में बदलाव करके लिखित परीक्षा को सिर्फ क्वालीफाई तक सीमित करके साक्षात्कार को अधिक महत्व देते हुए उसी को एकमात्र मापदंड मानकर शोध हेतु अनिवार्य योग्यता बना दिया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब यूजीसी के नियमों की अवहेलना करते हुए किया गया है। इस नई प्रणाली से वंचित तबकों में आक्रोश होना स्वाभाविक था क्योंकि उन्हें पता है कि इस परिसर में उन्हें शोध करने का अवसर साक्षात्कार की वजह से नहीं बल्कि लिखित पेपर में अच्छे प्रदर्शन के कारण प्राप्त हुआ है इसीलिए वह भविष्य में आने वाली अपनी पीढ़ी के साथ अन्याय देखना नहीं चाहते हैं।
आज हमारी कोशिश और जरूरत सामाजिक विषमता को पाटने की होनी चाहिए न कि उसे पीछे धकेलने की, और इसके लिए सबसे उपयुक्त जगह कॉलेज, विश्वविद्यालय ही हो सकती हैं किन्तु दुःख की बात यह है कि हम भले राजनीतिक दलों और नेताओं को जाति, धर्म और ईमानदारी के मुद्दे पर खूब कोसते हों, मुंह भर–भरकर गलियां देते हों लेकिन कॉलेज, विश्वविद्यालय उससे भी बड़ा अखाड़ा है जहाँ सभी तरह के खेल बौद्धिकता के आड़ में खूब फलते–फूलते हैं। लगभग सभी वंचित तबकों के छात्रों की पढ़ाई से लेकर नौकरी पाने के संघर्ष तक न जाने कितने जाति भेदभाव के दंश झेलने की पीड़ा उनके अंतर्मन में भरी होती है। मुझे याद है कि इसी भेदभाव से त्रस्त व दुखी होकर एक शोधार्थी दोस्त ने गुस्से में मुझसे कहा था कि यदि मैं प्रोफेसर बन गया तो किसी सवर्ण छात्र को अपने अंदर पीएचडी नहीं कराऊंगा। मैंने महसूस किया कि उसका भोगा हुआ भेदभाव बदले की आँच में कितना दहक रहा है। यदि सामाजिक न्याय के मुद्दे की इसी तरह अवहेलना होती रही तो सचमुच इस तरह बदले की भावना से उपजी पीड़ा भविष्य में देश की प्रगति और समरसता दोनों के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है।
हालाँकि साक्षात्कार के फोबिया से थोड़ा बहुत सभी वर्ग के परीक्षार्थी डरते हैं किन्तु उच्च वर्ग और वंचित वर्ग के डर में अंतर होता है। जहाँ उच्चवर्ग का छात्र निश्चिन्त होकर साक्षात्कार की तैयारी पर ध्यान केन्द्रित करता है वहीं वंचित वर्ग का छात्र (जो अमूमन अपनी पीढ़ी का पहला छात्र होता है) साक्षात्कार की तैयारी के साथ–साथ अपनी पृष्ठभूमि व जातिगत पहचान को लेकर भी असहज रहता है। क्योंकि विश्वविद्यालय का माहौल भी उच्चवर्गीय होता है। इसीलिए वंचित तबका जिसको सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्वास है। वह साक्षात्कार को पंख कतरने का सबसे बड़ा हथियार मानता है तथा उसे एकलव्य–द्रोणाचार्य के मिथक से जोड़कर देखता है जहाँ कि द्रोणाचार्य जाति-भावना से प्रेरित होकर एकलव्य जैसे प्रतिभाशाली धनुर्धर का अंगूठा लेने से भी नहीं चुकते हैं।
साक्षात्कार को लेकर आक्रोश और विरोध के पीछे सबसे बड़ा कारण जो है, वह है अघोषित आरक्षण। वंचित वर्ग के छात्रों का मानना है कि लिखित परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद उन्हें खींचकर आरक्षित वर्ग में समेट दिया जाता है जबकि पचास प्रतिशत का अनारक्षित जगह सिर्फ उच्चवर्गीय छात्रों के लिए सुरक्षित कर दिया जाता है। यह उनके साथ सबसे बड़ा सामाजिक अन्याय है, जिसकी अनदेखी होती चली आ रही है।
दरअसल जेएनयू प्रकरण जो साक्षात्कार को लेकर चल रहा है। यह कोई पहला विश्वविद्यालय नहीं है जहाँ पर ऐसी प्रवेश-परीक्षा-प्रणाली लागू की जा रही है बल्कि बीएचयू, डीयू (हालाँकि डीयू पिछले साल से पीएचडी की आधी सीटों के लिए परीक्षा की बहुविकल्पीय प्रणाली अपनाकर मेरिट के आधार पर चयन की शुरुआत कर चुका है फिर भी आधी सीटें सीधे साक्षात्कार से ही भरी जाती हैं) समेत यह व्यवस्था वहाँ पहले से चली आ रही है जहाँ केवल दबे स्वर में परीक्षार्थी विरोध करते रहते हैं किन्तु जेएनयू अपनी प्रखर सामाजिक, राजनीतिक चेतना के कारण इसका विरोध खुलकर कर रहा है।
आज सामाजिक न्याय के रास्ते में साक्षात्कार एक बड़ी रुकावट बनकर खड़ा है जहाँ पर परीक्षार्थी की पूरी योग्यता कुछ मिनटों में उससे मुखातिब होकर तय कर दी जाती है। सरकार का कोई भी महकमा अब ऐसा नहीं रह गया है जहाँ के साक्षात्कार सवालिया निशान के घेरे में न हों। यहाँ तक कि संघ लोक सेवा आयोग में भी साक्षात्कार की अनियमितता पर वंचित तबका सवाल खड़ा करता रहा है। विश्वविद्यालय और कॉलेज में नियुक्तियों में जातीय समीकरण और पैसे की सांठ-गाठ को बिलकुल नकारा नहीं जा सकता।
तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद यह सच है कि कुछ जगहों पर साक्षात्कार की जरूरत है, किन्तु इस जरूरत का संतुलन बनाकर चलना होगा, लिखित परीक्षा का अवमूल्यन करके साक्षात्कार को एकमात्र मापदंड बनाना, यह मानकर चलना है कि साक्षात्कार पैनल में बैठने वाला व्यक्ति निर्विवाद कोई फ़रिश्ता, पैगम्बर या देवदूत है जो पक्षपात नहीं कर सकता है। साक्षात्कार के प्रतिशत को निर्धारित करना आज समय की जरूरत बन गई है। लोकतंत्र और व्यवस्था में आम आदमी का भरोसा ज्यादा से ज्यादा पैदा करना है तो उसमें पारदर्शिता लाना बेहद जरुरी है। पारदर्शिता लाने के क्रम में अदालत के हस्तक्षेप से ही परीक्षार्थियों को प्रवेश परीक्षा का प्रश्नपत्र के साथ उत्तर कॉपी के लिए कार्बन कॉपी मिलना शुरू हुआ वरना इससे पहले अँधेरे में तीर जैसा होता था। आरटीआई 2005 ने तो और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किन्तु साक्षात्कार के मनमाने पूर्ण रवैये को जब तक निर्धारित नहीं किया जायेगा तब तक परीक्षा की पारदर्शिता पर सवाल उठते रहेंगे और सामाजिक न्याय की अवधारणा को भी भारी धक्का लगेगा। हाल में ही जेएनयू के शोधार्थी मुथू कृष्णन ने आत्महत्या से पहले जातिगत भेदभाव और साक्षात्कार को लेकर फेसबुक पर पोस्ट लिखी थी जो हमारी चिंता को और बल देता है।
(2)
बीते आठ मार्च को दुनिया भर में विश्व महिला दिवस मनाया गया। इसमें सोशल मीडिया पर बधाइयों से लेकर संगोष्ठी आयोजित करने तक की अनेक गतविधियाँ शामिल हैं। यह एक अच्छी पहल है। समय के साथ सोचने, समझने, देखने में एक बदलाव तो आया है किन्तु अभी वह बदलाव व्यापक परिवर्तन का हिस्सा नहीं बना है। घरेलू-हिंसा से लेकर यौन-हिंसा तक की अखबारी घटनाएँ और महिलाओं के ऊपर तरह-तरह की पाबन्दियाँ इस बात की तस्दीक करती हैं। जहाँ लड़के के पालन–पोषण-संस्कार मर्द की तरह होते हैं तो वहीं लड़कियों के पालन–पोषण-संस्कार स्त्री की तरह होते हैं। इसीलिए अभी समानता के आधार पर मनुष्यता निर्माण शेष है। एक की आजादी ही दूसरे की पराधीनता का कारण बन गई है। तमाम शोध और रिपोर्टों से पता चलता है कि स्त्रियों पर ज्यादातर यौन-शोषण मान–सम्मान की आड़ में उसका करीबी व्यक्ति ही करता है। चाहे वह घर का हो, चाहे रिश्तेदारी का हो। जिस दिन लड़कियां मुखर होकर अपनी बात कहने लगेंगी तो ज्यादातर पुरुष नंगे हो जायेंगे। उनका न बोलना ही पुरुषों की सबसे बड़ी ताकत है। घर में उन्हें अपनी निजी बात बताने के लिए स्पेस बहुत कम मिल पाता है। प्रायः लोक–लाज का भय दिखाकर चुप रहने की हिदायत दी जाती है। बड़े से बड़े मुकाम पर पहुंची महिलाएं भी अपनी किशोरवस्था में हुए यौन उत्पीड़न को स्वीकार करती हैं। इस सारी समस्या की जड़ हमारी वह सामाजिक पितृसत्तात्मक संरचना है जो नैतिकता, पवित्रता, लोक–लाज की दुहाई देकर स्त्रियों पर अपना एकाधिकार जमा लेती है। स्त्री की देह, उसकी आजादी, आकांक्षा, इच्छा का अलमदार खुद पुरुष बन जाता है।
आपके बीच अपनी माटी का 24वां अंक प्रस्तुत है जो कई मायनों में अपने पहले के अंकों से भिन्न होगा। पहला यह कि अब तक का सबसे बड़ा अंक है दूसरा यह कि दक्षिण भारत का शायद ही कोई राज्य होगा, जहाँ से लेख न आए हों, तीसरा यह कि देश से बाहर अमेरिका से भी लेख शामिल किया गया है, चौथा यह कि इसमें विषयवस्तु की विविधता है। कहानी, कविता, साक्षात्कार, आलेख, शोध- आलेख, पुस्तक-समीक्षा, सिनेमा, दलित, स्त्री-विमर्श और प्रवासी साहित्य, शैक्षिक सरोकार तथा वैचारिक और ज्वलंत मुद्दों पर आप विभिन्न सामग्रियाँ पढ़ पाएंगे। ऐसा निरंतर आप लोगों के सहयोग से ही हो पा रहा है। पत्रिका के लिए देश के कोने–कोने से लेख आना हमारी व्यापक स्वीकार्यता को प्रमाणित करता है। हमारा उद्देश्य है कि हम अपनी माटी को ई-पत्रिका के क्षेत्र में मिसाल के तौर पर स्थापित करें और ऐसा आप लोगों के सहयोग के बिना यह संभव नहीं है। आज अपनी माटी त्रैमासिक हिन्दी ई-पत्रिका के पाठकों की संख्या नौ लाख के करीब पहुँच गई है जो निश्चित ही हमारे लिए हर्ष की बात है किन्तु दूसरी तरफ हमारे लिए चुनौती भी है कि पाठकों के विश्वास को हमेशा कैसे बरकरार रखा जाए? ताकि उनको गुणवत्तापूर्ण सामग्री ‘अपनी माटी’ से मिलती रहे। इसके प्रति हम प्रतिबद्ध हैं।
जैसा कि आप जानते हैं अपनी माटी त्रैमासिक हिन्दी ई-पत्रिका लगातार आगे बढ़ते हुए 25वें अंक में प्रवेश करने वाली है यह निश्चिय ही किसी पत्रिका के लिए ख़ुशी की बात है। विदित है कि ‘अपनी माटी’ में माटी से गहराई से जुड़े होने का भाव है और माटी से किसान का अभिन्न रिश्ता है। खेद है कि माटी का सबसे करीबी किसान आज नाजुक स्थिति से गुजर रहा हैं। नवउदारवादी नीतियाँ और देश की आर्थिक नीतियों का सबसे ज्यादा मार वही झेल रहे हैं। उन्हें अपने उत्पादन का सही मूल्य तक नहीं मिल पा रहा है। एक तरफ सरकारी कर्मचारियों का वेतन तेजी से बढ़ा है किन्तु उस गति से किसान के उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिला है। यह फ़ासला बताता है कि हम किसानों के प्रति कितने असंवेदनशील हो गए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर आज कोई किसानों का सर्वमान्य नेता भी नहीं रहा। कम्पनियां अपने उत्पादन का दाम खुद तय करती हैं वहीं किसान के उत्पाद का मूल्य सरकार तय करती है। प्याज का दाम जब अस्सी रुपया किलो होता है तो राष्ट्रीय खबर बनता है किन्तु जब वही प्याज किसान को औने–पौने दाम पर बेचना पड़ता है तो मीडिया भी कोई खबर नहीं लेता। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में टमाटर का भाव पाँच-दस रुपये प्रति किलो है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किसानों ने कितने रूपये किलो बेचे होंगे, उनको अपनी लागत भी मिल पायी होगी यह ज्वलंत सवाल है। विदर्भ, बुन्देलखण्ड और तेलंगाना में किसानों की आत्महत्या हमें अब नहीं झकझोरती है। जनसत्ता अख़बार के हवाले से पता चलता है कि हर चौबीस घंटे में बावन किसान आत्महत्या करते हैं। विकास के चकाचौंध में हम किस तरफ जा रहे हैं।
इस विषय को ध्यान में रखते हुए अपनी माटी ने निर्णय किया है कि इसका 25वां अंक ‘किसान विशेषांक’ के रूप में निकाला जाएगा, जिसमें साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक दृष्टिकोण से किसानों की समस्याओं की पड़ताल की जाएगी। इस संदर्भ में आप से आग्रह है कि बेहतर लेख और साहित्यिक रचनाएँ लिखकर भेजें।
प्रसिद्ध दलित आलोचक डा. धर्मवीर अब हमारे बीच नहीं रहें। कबीर के आलोचक के रूप में उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किया और हमेशा अपनी लेखनी से चर्चा और विवाद में बने रहें। उन्होंने साहित्य में नयी स्थापनाएं दीं, जिसके लिए उन्हें सदा स्मरण किया जाता रहेगा। उन्हें अपनी माटी की तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि। इस अंक के लिए प्रतिभाशाली चित्रकार पूनम राणा के बनाए चित्र चुने हैं। उन्हें अपनी माटी की तरफ से बहुत–बहुत आभार।
मित्र पहले संपादक बाद में----
जवाब देंहटाएंतुम अपने संपादकीय में तीनों (युवा,स्त्री और किसान) पर मजे हुए शब्दों में बात रखे हो इसके लिए तहे दिल से बधाई देता हूँ।
बीच में मुझे भी घुसेड़ दिए हो, बीच में तो उक्ति मात्र है पर पूरा लेख ही मुझे अपना निजी अनुभव लग रहा है,जाति और साक्षात्कार का जो संयोगात्मक दंश होता है उसे मैं बखूबी झेल हूँ।
मैं कोशिश करूँगा कि अगले अंक में एक अनुभव के आधार पर लेख लिखूँ।
बहरहाल समयाभाव में बिस्तार से feedback नहीं दे पा रहा हूँ।
तुम ऐसे ही लिखते रहो, ढेरों शुभकामनाएं संपादक जी!!����
धन्यवाद मित्रवर !
जवाब देंहटाएंमित्र पहले संपादक बाद में----
जवाब देंहटाएंतुम अपने संपादकीय में तीनों (युवा,स्त्री और किसान) पर मजे हुए शब्दों में बात रखे हो इसके लिए तहे दिल से बधाई देता हूँ।
बीच में मुझे भी घुसेड़ दिए हो, बीच में तो उक्ति मात्र है पर पूरा लेख ही मुझे अपना निजी अनुभव लग रहा है,जाति और साक्षात्कार का जो संयोगात्मक दंश होता है उसे मैं बखूबी झेल हूँ।
मैं कोशिश करूँगा कि अगले अंक में एक अनुभव के आधार पर लेख लिखूँ।
बहरहाल समयाभाव में बिस्तार से feedback नहीं दे पा रहा हूँ।
तुम ऐसे ही लिखते रहो, ढेरों शुभकामनाएं संपादक जी!!����
धन्यवाद मित्र .
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