आधी दुनिया:भारतीय संस्कृति में नारी – डॉ. के. आर. महिया और डॉ. विमलेश शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
-------------------------

 आधी दुनिया:भारतीय संस्कृति में नारी -डॉ. के. आर. महिया और डॉ. विमलेश शर्मा


चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
प्रत्येक युग में, सभ्यताओं के आवर्तन, विवर्तन में, प्रत्येक संस्कृति ने यह उद्घोषित किया है कि नारी सृष्टि की नियामिका शक्ति है ,अखिल ब्रहमाण्ड की आधारशिला है। अखिल ब्रह्माण्ड को नियोजित, नियमित व संचालित करने वाले, अपने दिव्य स्पंदनों से स्पंदित करने वाले उस विधाता की मूल प्रतिकृति है नारी । या यूँ कहे कि समस्त चराचर सृष्टि ही नारीमय है, इसके राहित्य से इतर कुछ भी अकल्पनीय है, अचिन्त्य प्राक्कल्पना है। प्रश्न उठता है कि, आखिर क्यों स्त्री को इतना महती और पूजनीया बताया गया है,  आखिर क्यों उसे  इतना विशेष दर्ज़ा प्रदान किया है?  जब हम वैदिक साहित्य औऱ संहिताओँ का अध्ययन करते हैं, तत्कालीन सामाजिक व साहित्यिक परिस्थिति को देखते हैं तो स्त्री की यह विशेष प्रस्थिति सहज ही समझ आ जाती है। बात आती है कि स्त्री को माया, ज्ञान मार्ग में बाधक और मुग्धा भी तो कहा गया है ,सिद्ध, नाथ , संत साहित्य भी स्त्री को साधना में बाधक मानते हैं, फिर क्यों भारतीय संस्कृति इसके महनीय रूप को ही रेखांकित करती है। इसके अनेक दृष्टान्त भारतीय साहित्यिक धारा में बिखरे पड़े हैं। वैदिक सभ्यता औऱ साहित्य के निर्माण में नारी का महती योगदान रहा है। वैदिक साहित्य में संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद् तथा रामायण काल, महाभारत काल, स्मृति काल, पौराणिक काल, बौद्ध साहित्य, अपभ्रंश साहित्य, सिद्ध- साहित्य, नाथ-साहित्य, आदि तथा मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य  तक नारी स्वरूपों का विस्तार से विवेचन मिलता है। अगर वर्तमान समाज स्त्री के इन साहित्यिक स्वरूपों और स्त्री स्वयं आत्मस्वरूप के प्रति सजग हो जाए तो इस वर्ग की खोयी हुई शक्ति पुनः प्राप्त हो सकती है। अनेक उदाहरणों में जब पहले- पहल  हम व्यक्ति अभिव्यक्तियों पर दृष्टि डालते हैं तो स्त्री शक्ति के सात्विक भाव  सहज ही नज़र आ जाते हैं। इस तथाकथित प्रपंचमय जगत में जब भी मनुष्य ने स्वबोधगम्यता की प्राप्ति की तथा उसने उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति आभार प्रकट करने का यत्न किया तो अनायास ही मानव के मुख से ये पंक्तियाँ निसृत हो उठी कि-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

अर्थात् हे विधाता! तुम ही माँ हो, सबसे पूर्व प्रयुक्त हुआ यह शब्द भी स्वयंमेव इस सृष्टि को, सृष्टि संचालक ब्रह्म को ‘माँ’ शब्द से संबोधित कर , इस शब्द की अवर्णनीय महत्ता को समुद्घाटित कर देता है। बहुशः देखा जाता है कि जब हम किसी दुर्धर्ष सांसारिक विपत्ति या जब किसी प्रसंगवशात् किसी कृत्य से खिन्न या आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है ‘माँ’। भयावह क्षणों और जीवन के  वैपरित्य में अनायास याद आया यह शब्द हमें नवीन ऊर्जा और चेतना से संपृक्त कर देता है। ‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा औऱ ऊष्मा समाहित है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तिष्क को भीतर तक झंकृत कर देता है। यह नारी ही है जिसे माँ, यामिनी,कांता, स्त्री, मही इत्यादि नामों से संकेतित किया जाता है। यह शक्ति मानव की ही नहीं अपितु समस्त मानवता की जन्मदात्री है। इसी कारण नारी मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित समस्त मानवीय गुणों की, मूल्यों की, संस्कारों की जननी है, आधारशिला है, स्रोत है। यही कारण रहा है कि इतनी गुरूतरा व महनीया शक्ति का वर्णन हमारी इस गौरवमयी संस्कृति में प्रायः हर कालखण्ड में विवेचित हुआ है। 

वैदिक काल से लेकर अधुनातन पर्यन्त नारी के लिए अनेक संज्ञाओं और विशेषणों का प्रयोग किया गया जिनसे इस वर्ग के उदात्त स्वरूप और अतिमानवीय गुणों का सहज ही पता चल जाता है।  इन नामों की व्युत्पत्ति और अर्थों का अध्ययन करने पर भारतीय संस्कृति  में नारी का औदात्य स्वतः ही  स्पष्ट हो जाता है-

  • निरूक्त में उल्लेख है- “माययन्ति एनाः पुरूषाः। ” अर्थात् पुरूष उसका सम्मान करते हैं अतः उसे मेना कहा गया है।
  • उसे ‘योषा’ संबोधित किया गया जिसका अर्थ नारी नर की सहयोगिनी है, से है। 
  • ‘वामति सौन्दर्यम्’ कहकर उसे वामा कहा गया। जिसका अर्थ है जो सौन्दर्य से संसार को बुनती है, या बिखेरती है।
  • वह ‘प्रमदा’ है, क्योंकि वह पुरूष के मन को प्रमदित करती है।
  • अपने सभी रुपो यथा- माता,पत्नी, भगिनी, पुत्र आदि सभी रूपों में पूजनीया होने से उसे ‘महिला’ कहा गया।
  • कुक्षि धारणात् धात्री -नारी की ‘धात्री’ संज्ञा इस बात का संकेत है कि वह अपनी कुक्षि में गर्भ को धारण किए रहती है।
  • जननाति जननी स्मृता- शिशु के जन्म लेते ही उसका नाम जन औऱ माता का नाम ‘जननी’ सार्थक होता है।
  •  अड़ंगानाम् वर्धनादम्बा- नारी अपने कर्म और वाणी से शिशु को सुसंस्कृत करती है अतः उसका एक नाम ‘अम्बा’ हुआ। वह शिशु को ओम् नाम से आरम्भ कर वेद मंत्रों की गुनगुनाहट से उसे संस्कृत बनाती है तथा अपने अम्बा नाम को सार्थक करती है।
  • वीरसूत्वेन वीरसूः – माता जो वीर पुत्र को जन्म देती हो, वह पुत्र शत्रु को अपनी वीरता के प्रकर्ष से कंपकंपा देता है, ऐसी माता ‘वीरसू’ कहलाती है।
  • स्त्री को जाया नाम से पुकारा गया है। “भार्यां पति समाविश्य स यस्मात् जायते पुनः। जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणाः कवयोः विदुः।”(छांदोग्य उपनिषद्-6.2.3) अर्थात् भार्या में पति प्रविष्ट होकर भार्या में से वह पुनः उत्पन्न होता है। इसलिए ‘जाया’ का जायत्व सार्थक होता है।
  • वह काम्या होने से ‘कामिनी’ , रम्या होने से ‘रमणी’ और तेजस्विनी होने के कारण ‘भामा’ कहलायी।
  •  पति द्वारा उसका भरण पोषण होता है अतः वह ‘भार्या’ (भर्तु योग्य)  कहलाती है।
  •   इन सभी संज्ञाओं से सहज ही बोध होता है कि स्त्री कितनी गुरूतरा है।  उसे इन्हीं गूढ़ भावों से युक्त होने के कारण भूमि से  भी श्रेयस्कर कहा है,पूर्ण वंदन किया है- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाद अपि गरीयसी।’
  • ‘पत्नात् त्रायते’ अर्थात् नारी अपने पति को पतन से बचाती है, अतः इसकी संज्ञा पत्नी है।
  •  ‘मीयते इति माताः’ क्योंकि वह अपनी संतान को स्नेह या वात्सल्य से मापती है, अतः वह माता है।


पृथिवी सूक्त का प्रथम मंत्र उन धर्मों की गणना करता है जिससे पृथिवी धारित है। इस प्रथम मंत्र में ही कहा गया- ‘सत्यं बृहदऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरूं लोकं पृथिवीः नः कृणोतु।।’(अथर्व. 12.11) अर्थात् सत्य, वृहद ऋतम्,उग्रता, दीक्षा, तप, ब्रह्म,यज्ञ, यह धर्म के सात अंग पृथिवी को धारण करते हैं औऱ यह पृथिवी हमारे भूत-भविष्य औऱ वर्तमान तीनो कालों की रक्षिका व पालिका है। “सर्वथा इन्हीं शब्दों में अपनी पत्नी के रूप में,नारी जाति  की प्रशंसा में गा रहा है- यस्यां भूतं समभवत् यस्यां विश्वं इदं जगत्। तामद्य गाथां गास्यामि स्त्रीणां यदुत्तमं यशः।। जिसमें हमारे कुल का बीता हुआ युग, भूतकाल उज्ज्वल रहा है,नहीं-नहीं, हमारे वंश की ही नहीं अपितु हमारे समाज और राष्ट्र का भूतकाल उज्ज्वल रहा है औऱ भविष्य भी उज्ज्वल रहेगा और वर्तमान भी जिनसे उज्ज्वल है। उन गाथाओं को गा-गाकर ऐ नारी-जाति! हम तेरा यशोगान करते हैं।”(वैदिक संहिताओँ में नारी-स्वामी दीक्षानंद सरस्वती के विचार, वांडंमय-मधुपर्क में वर्णित विचार)

इतिहास के गह्वरों में गोते लगाने से स्पष्ट होता है कि ऋग्वेदकालीन समाज पितृसत्तात्मक होते हुए भी नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण रखता है। आर्यों के देवतासमूह में शामिल अनेक स्त्रियाँ इसका उदाहरण है। स्त्री ने उस समय ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा भी अर्जित की औऱ ऋचाओं की रचना भी की। इस काल में लोपामुद्रा, रोमसां, घोषा, सूर्या, अपाला, मैत्रेयी, गार्गी, विलोमी, सावित्री,यमी, विश्वम्भरा, श्रद्धा, शती, देवयानी आदि नामों के उल्लेख मिलते हैं, जिन्हें उनकी विद्वता के आधार पर ही ऋषिका या ब्राह्मणी कहा गया है। ब्रह्मवादिनी औऱ सघोद्वाहा भी तत्कालीन ज्ञानार्जन करने वाली स्त्रियों के प्रकार थे। अपनी विद्वता के कारण ही रामायणकालीन परिवार पैतृक परिवार थे। इनमें पत्नी, गृहस्वामिनी होकर भी पति की अनुगामिनी व समर्पिता होती थी। “इस समय परिवार प्रथा ने यौन-भावना की विधि, व्यवहार,संस्कार, परम्परा तथा नैतिकता के बंधन लगा संयमित और मर्यादित कर दिया था , जिसमें उद्दाम कामवासना का वेश परिवर्तन की अभिलाषा में शिष्ट रूपांतर हो गया था।”(सामाजिक आंदोलन- प्रो. गुरुनाथ नडगौड़ा,पृ.80) सीता, तारा, कैकयी, मंदोदरी के प्रसंग इस काल की विदुषी महिलाओं की श्रेणी  में मिलते हैं। महाभारत काल में स्त्री की प्रस्थिति में कुछ बदलाव देखने को मिलते हैं। तदनन्तर बौद्ध साहित्य की अनेक जातक कथाएँ नारी के सतीत्व के आदर्श को प्रतिष्ठित करती हुई नज़र आती हैं।

अगर संस्कृत वांड्मय में वर्णित स्त्री के विविध रूपों की बात करें तो जीव का माँ से ज्यादा सामीप्य या तादात्म्य अन्य किसी से नहीं हो सकता। इसका कारण है कि अन्य सभी शब्द कंठ का विषय हैं, कंठ से निकलते हैं जबकि ‘माँ’ की ध्वनि आत्मा से गुंजायमान होती है। संभवतः इतनी आत्मीयता से, इंसानी रूह से निकलने वाला यही प्रभावी शब्द है। इसीलिए उस परम तत्त्व, सत्ता या शक्ति को मानव ने पहली बार मातृस्वरूप में स्मरण किया औऱ अनन्तर उसे पिता, बन्धु, मित्र, धन, धान्य, सम्पदा इत्यादि शब्दों से संबोधित किया। शायद यही कारण है कि महाकवि कालिदास ने भी स्त्री शक्ति को बारम्बार प्रणाम किया है-

“वागर्थाविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ।।”(कुमारसंभवम्- आदिश्लोक 1/1)
अर्थात् जगत के माता-पिता(पितरौ) भवानी, शंकर, वाणी और अर्थ की भाँति एकीभूत है, संपृक्त है, उन्हें वंदन करता हूँ, प्रणाम करता हूँ।
इसी क्रम में महाकवि तुलसीदास  का कथन भी द्रष्टव्य है- 
“जगत मातु-पितु- संभु-भवानी”(बालकाण्ड-रामचरितमानस)

स्पष्टतः नारी से उत्पन्न सब प्राणिजात नारी ही होते हैं। शारीरिक आकार-प्रकार एवं वैशिष्ट्य में विभेदता लक्षित हो सकती है परन्तु वस्तुतः औऱ तात्विक रूप से सब नारी ही होते हैं। ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर ने भी भावनात्मक रहस्यवाद का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए आत्मा को स्त्री रूप में चित्रित किया है-

‘दुलहिन गावहु मंगलाचार, हमहु घर आए राजा राम भरतार।’(कबीर) यहाँ आत्मा को ‘दुलहिन’ शब्द से चित्रित करते हैं। प्रसिद्ध सूफी संत जायसी ने भी नायिका को परमात्मा शब्द से संकेतित किया है। स्पष्ट है भारतीय संस्कृति में नारी को समग्र सृष्टि की अधिष्ठात्री माना गया है। पूरी सृष्टि ही स्त्री है, क्योंकि इस सृष्टि में दया, दाक्षिण्य, बुद्धि, शुद्धि, शक्ति, शांति, लज्जा, प्रेम, करूणा, इच्छा, तृष्णा, श्रद्धा, चेतना औऱ लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इन्हीं अनेकविध मानवीय आदर्शों की पूर्णता को संवलित करने से ही नारियाँ भाव प्रधान ह्रदय की स्वामीनियाँ होती है। वास्तविकता तो यह है कि नारी ह्रदय का ही पर्याय है, उसके शरीर में ह्रय की ही प्रधानता है। नारी बुद्धि में भी ह्रदय का प्राधान्य परिलक्षित होता है, तभी तो गर्भाधान से लेकर पालन- पोषण तक अनिर्वचनीय असीम वेदनाओँ औऱ कष्टों में भी उसे अद्वितीय आनंद की अनुभूति होती है। उसी का प्रतिफल है कि वे एक नवीन सृष्टि की सृजक बन जाती है। सृजन की इस प्रक्रिया में वे कोई व्यावसायिक या हिसाबी दृष्टि न रखते हुए सानन्द इसे पूर्णता प्रदान करती है। ह्रदय या भाव प्राधान्य होने के कारण ही उसका अन्तःकरण अनेक बार पति, पुत्र या परिजनों द्वारा दी गई अनेक प्रताड़नाओं के बावजूद भी वह सभी के प्रति शुभशंसा या कल्याणमयी कामना करती नज़र आती है। जबकि इसके विपरीत पुरूष ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि नर औऱ नारी में यही आधारभूत वैभिन्य है कि नर बौद्धिक या विवेक प्रधान है , हिसाबी है, क्योंकि  विवेक हिसाब तथा जोड़-भाग में उलझा रहता है। लाभ-हानि जोड़ता है ; वहीं नारी ह्रदय हिसाब नहीं करता, नफ़ा-नुकसान नहीं देखता,  उसका कार्य केवल श्रद्दा एवं निष्कामता के साथ सभी का हित करना होता है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में इसी तत्त्व को समुद्घाटित किया है-

“यह आज समझ मैं पाई हूँ कि,
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुन्दर कोमलता ,
लेकर में सबसे हारी हूँ।।” (कामायनी)
भाव-प्रधान नारी का यही चित्त प्रसाद को भी आकर्षित कर रहा है-
“नारी जीवन का चित्र यही ,
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में,
आकार कला को देती है।।”(कामायनी)

भारतीय संस्कति  में नारी का उल्लेख   जगत्-जननी,आदि शक्ति- स्वरूपा, ज्ञान-स्वरूपा व सृष्टि अधिष्ठात्री के रूप में किया गया है। संहिता, ब्राह्मण , आरण्यक,उपनिषद्, स्मृतियों औऱ पुराणों में नारी को इसी रूप में चित्रित किया गया है। विश्व को सभी सभ्यताओं औऱ संस्कृतियों में सम्भवतः हमारी सभ्यता ही ऐसी है जिसमें स्त्रियों को देवी, शक्ति या पुरूषों से सौ गुना ज्यादा वंदनीया व पूजनीया बताया गया है। भारतीय जीवन मूल्यों की संकल्पना व प्रकृति की अवधारणा के केन्द्र बिन्दु में स्त्री ही है। हमने भूमि को माता कहा, गौ को मातृवत् कहा, गंगा,यमुना, सरस्वती प्रभृति नदियों को भी इसी शब्द से संबोधित किया है। गायत्री मंत्र जिसे  हम पवित्र स्तुति मानते हैं ; उसमें भी माँ गायत्री की आराधना है। अन्नपूर्णा स्थूलांश की संचालिका या खाद्यान्न की देवी है।
मनुस्मृति में भी कहा गया है- 

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता
यत्रास्तु ना पूज्यन्ते  सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। ”

भाव यह है कि जिस स्थल पर नारी की उपेक्षा हो वहाँ कोई मंगल कार्य संपन्न नहीं होता; परन्तु जहाँ नारी की दैवीय रूप में स्तुति की जाएगी , देवता भी प्रसन्नपूर्वक उसी स्थल पर सुशोभित होंगे। इसी कथ्य को पल्लवित करते हुए ‘महर्षि गर्ग’ कहते हैं- 

‘यद्  गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
 देवता कोटिशो वत्सः न त्यजन्ति गृहं ही तत्।। - 

अर्थात् जिस घर में  सद्गुण भूषित नारी आनन्दपूर्वक निवास करती है, उस घर में निरंतर लक्ष्मी का वास होता है। हे वत्स! कोटि देवता भी ऐसे घर का त्याग नहीं करते हैं।

भारतीय संस्कृति की यह महत्ता  ही है कि इस तथ्य को समझते हुए कुछेक स्थलों को छोड़कर नारी को सदैव वंदनीया ही माना  गया है। मनुष्य जीवन के सर्वांगीण समुत्कर्ष एवं निःश्रेयस के लिए आधारभूत, श्री, ज्ञान, ऐश्वर्य तथा शौर्य को अधिष्ठात्री नारी रूपों में अवतरित देवियों को ही माना गया है। वैदिक काल से ही हमारे देश में नारी को पूज्या मानते हुए उसकी बहुविध स्तुतियाँ की गई हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में ‘अर्धनारीश्वर’ का आदर्श स्पंदित रहा है। अर्धनारीश्वर की कल्पना से लोमहर्षक कुछ भी नहीं हो सकता। सौंदर्य औऱ भाव के इस सागर को अगर हर कालखण्ड अपने भीतर समाहित कर ले वर्गभेद के प्रति हिंसा शमित हो जाएगी। अधुनातन समय में भी इसी आदर्श की परिणति त्रिदेवियों में विद्यमान है। संतति को विद्या संस्कार देते समय उसका  सरस्वती रूप उद्घाटित होता है, गृह संचालन एवं गृह स्वामिनी की कुशलता में उसका लक्ष्मी रूप तथा पापियों व दुष्टों का संहार करते समय उसका दुर्गा रूप प्रकट हो जाता है। यहाँ तक कि किसी भी शुभ व मंगलकार्य को नारी की अनुपस्थिति में निष्फल ही माना गया है। 

त्रिलोकों में नारी के इन सभी रूपों में मातृत्व रूप को ही विशिष्ट माना गया। इसी के पग तले स्वर्ग एवं मोक्ष की परिकल्पना की गई। जिसके ह्रदय में कोमलता, पवित्रता, शीतलता, वत्सलता सदृश अनेक उत्कृष्ट गुण समावेशित है। जिसकी निश्छल मुस्कान में सृजन रूपी अद्वितीय शक्ति है ; जो मनुष्य मात्र को सन्मार्ग की दर्शिका है ; तभी तो कहा गया है- “मातृदेवो भव।” हमने नारी के इसी रूप व चरित्र का सम्मान किया। पुरूषों का दायित्व है कि नारी चेतना को सर्वोपरि मानते हुए वे उसके सम्मान की रक्षा करें, उसके स्त्रीत्व रूप के ग्राही बनें। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है कि भगवान श्रीराम बालि से कहते हैं-

“अनुज वधू, भगिनी, सुत नारी, सुन! सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकई जोई,ताहि बधे कछु पाप न होई।।” 

अर्थात् छोटे भाई  की वधू, बहन, पुत्र की पत्नी, कन्या के  समान होती है। इन्हें  कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पाप नहीं है। भारतीय संस्कृति में उल्लेखित ये द्रष्टान्त स्त्री सत्ता की महत्ता को परिलक्षित करते हैं। ये उदाहरण इसलिए ज़रूरी हैं क्योंकि संस्कृति में हो रहे बदलावों से वर्तमान मानव मन  संक्रमित हुआ है। अतः आवश्यकता है जड़ों की ओऱ लौटने की। इसी क्रम में इस लेख में भारतीय साहित्य में नारी विषयक विभिन्न अवधारणाओँ के संदर्भ देने के प्रयास किए गए हैं जिससे नयी पीढ़ी औऱ युववर्ग के समक्ष भारतीय संस्कृति के आदर्शों का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत हो सके। वेद, उपनिषद् औऱ स्मृतियाँ में अनेक प्रमाण हैं कि मानव जीवन पद्धति में नारी, विधाता की सर्वोत्तम परिकल्पना मानी गई है। सनातन काल से नारी का इस सृष्टि में अतुलनीय एवं प्रभूत योगदान है। उपनिषद् सृष्टि को स्त्री की अनुपस्थिति में अपूर्ण मानते हैं। वहाँ सृष्टि की सम्पूर्णता या रिक्तता का हेतु स्त्री को ही माना गया है- ‘अयमाकाशः स्त्रियाः पूर्यते।’ ( वृहदारण्यकोपनिषद् -1.4.3)  इसी संदर्भ में ऋग्वेद का कथन है कि स्त्री ही ब्रह्मा है- ‘स्त्री हि ब्रह्मा बभूविध।’ इसी संदर्भ में वेदवाणी ने यह भी उद्घोषित किया है कि-

 ‘त्वे विश्वा सरस्वती’ (ऋग्वेद-2.41.17)

अर्थात् हे विदुषी! तुझ देवी पर सब जीवन आश्रित है, क्योंकि तू ही सरस्वती रूपा है। भारतीय संस्कृति में मंत्रद्रष्टा ऋषियों (मंत्र-द्रष्टारः ऋषयः) ने  नारी को गौरवशाली व्यक्तित्व प्रदान किया है। अतः वैदिक काल नारी का अति अभिनंदनीय एवं उज्ज्वल रूप प्रस्तुत करता है- ‘विराडियं सुप्रजा अत्यजैषीत्’ (अथर्ववेद-14.2.74)
स्त्री शक्ति रूपा है, यह वही स्त्री है जो सृष्टि के पोर-पोर में कभी कोंपल बन खिलती है तो कभी फूल बन महकती है। उसका समर्पण स्तुत्य है। स्त्री की इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए यजुर्वेद कहता है- 

“इड़े रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योतिअदिते सरस्वती मही विश्रुति।
एता तेअघन्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्।”(य़जुर्वेद-8.43)

इस मंत्र में स्त्री को संबोधित करते हुए कहा गया है कि हे स्त्री! – तू स्तुति योग्य,उत्तम वाणी युक्ता, रमणीया, पूजनीया, कमनीया, चन्द्रवत् आह्लादकारिणी, श्रेष्ठशील से  प्रकाशमान  अर्थात् ज्योति के समान अज्ञानांधकार को अपने दिव्यगुणों से दूर करने वाली, दीनता एवं हीनता के भावों से रहित गौरवमयी परम्परा से  परिपूर्ण, विविध गुणों से मण्डित अथवा विविध कल्याणमयी विधाओँ का जिसने श्रवण किया हुआ है, तथा विविध विधाओं में प्रवीण, ये तेरे नाम है। तू उत्तम गुणों के लिए मुझे उपदेश दिया कर । इस मंत्र का विशेष सौंदर्य यह है कि नारी को इस मंत्र में अघन्ये अर्थात् ताड़ना ना करने योग्य एवं मही अर्थात् अत्यंत पूजनीया एवं वंदनीया कहा गया है।  

ऋग्वेद भारतीय नारी को सूनृता अर्थात् मधुर एवं सत्यवचन की प्रेरिका तथा सुमति अर्थात सम्यक् मति प्रदात्री के रूप में चित्रित कर रहा है-

“ चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती।”( ऋग्वेद-1.3.11)

 ऋग्वेद नारी को सुलाभिका - उत्तम लाभ अर्थात् महैश्वर्य को  प्रदान कराने वाली घोषित करता है।
“उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाड़्ग भविष्यति। ”(ऋग्वेद-10.87.7)

 वेद में नारी को सुभद्रिका अर्थात् श्रेष्ठ कल्याणदायिका लक्ष्मी कहा है। 
“ सुभद्रिका काम्पीलवासिनीम्” (यजुर्वेद-23.18)

 यजुर्वेद के अनुसार स्त्री दानशीलता, ऐश्वर्यवती एवं सिर पर पगड़ी के समान आदर पूर्वक धारण करने योग्य है- 
“रास्नासि इंद्राण्या उष्णीषः।”( यजुर्वेद-38.3)

 स्मृति ग्रंथों में भी कहा गया है कि -
“ प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्त्य:। 
स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु, न विशेषोsस्ति कश्चन।”

 अर्थात् उत्तम संतानों को जन्म देने हेतु जिनका निर्माण हुआ है, ऐसी महान भाग्यशालिनी, पूजनीया, और घर की शोभा कहलाने वाली स्त्रियां हैं। वे ही साक्षात् लक्ष्मियां हैं; अतः स्त्रियों और लक्ष्मियों में कोई अंतर नहीं है । 

“उत्पादनमपत्यस्य, जातस्य परिपालनम्।
 प्रत्यहं  लोकयात्रायाः , प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम्।। 

 अर्थात् संतान को जन्म देने, जन्मे हुए का पालन पोषण करने और दैनिक लोक व्यवहार का स्त्री ही प्रत्यक्ष एवं एकमात्र मूल आधार है। 

“अपत्यं धर्मकार्याणि, शुश्रूषा रतिरुत्तमा
दाराधीनस्तथा स्वर्गः, पितृणामात्मानश्च ह ।।” (मनुस्मृति-1.28)

 अर्थात् संतानों का निर्माण, धर्मकृत्य, सेवा, औऱ उत्तमरति तथा अपना औऱ पिता आदि का विशेष सुख, ये सब कार्य स्त्री पर ही निर्भर है ।

महाभारत के उद्योग पर्व में भी कहा गया है कि- 

“पूजनीयाः महाभागाः, पुण्याश्च ग्रहदीप्तयः,
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः।।”

 अर्थात् पूजायोग्य, अतिभाग्यशालिनी, पुण्य कर्म वाली औऱ गृह की शोभा बढ़ाने वाली स्त्रियों को ही घर की लक्ष्मी कहा गया है। अतः नारियों की विशेष रूप से रक्षा की जानी चाहिए। इसी प्रकार महाभारत में भी स्त्रियों को सत्कार योग्य बताते हुए वेदव्यास कहते हैं कि – 

“पूज्या लालयितव्याश्च, स्त्रियो नित्यं जनाधिप:।
स्त्रियो यत्र  हि पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता।। 
अपूजिताश्च यत्रैता: सर्वास्तत्राऽफलाःक्रियाः।
तदा चैतत्कुलम् नास्ति, यदा शोचन्ति जामयः।।”

अर्थात् हे राजन् ! स्त्रियों का सदा सत्कार करना चाहिए और इन्हें लाड़ से रखना चाहिए। जहां स्त्रियों का  सत्कार किया जाता है वहां दिव्य गुण संपन्न आत्माएं जन्म लेती हैं।  और जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहाँ सब क्रियाएँ निष्फल होती है, उसका परिवार नष्ट हो जाता है, वहां पत्नी ,बहू आदि स्त्रियां शोकमग्न रहती है । कुटुम्ब की अवधारणा में स्त्री के अवदान के संदर्भ में यह भी कहा गया है कि-

' न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते। 
गृहं तु गृहिणीहीनं कान्तारादतिरिच्यते।। 

यानी भवन को घर नहीं कहते हैं अपितु गृहिणी (गृहनारी) ही घर कहलाता है। जो घर गृहिणी से विहिन है , वह तो जंगल से भी बढ़कर सूना है। 

स्पष्ट है  स्त्री सदैव महती भूमिकाओं में रही है। फिर जो स्वयं शक्ति है आखिर क्यों इस दौर में उसके शक्तिकरण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। अगर आज एक वर्ग किसी परिस्थितिवश कमज़ोर है तो दूसरे वर्ग की भी उतनी ही जवाबदेही है।  स्त्री को अपने इतिहास पर नज़र डाल कर अपने स्वरूप को पहचानना होगा। समाज को भी  उसके संकुचित दृष्टिकोण को छोड़कर ,पथ-प्रदर्शक की भूमिका में लौटना होगा। स्त्री को अपने आत्मस्वरूप को जानना होगा, कि वह अबला नहीं है। वह पुरूष से अधिक नैतिक है, वह मित्र है, परिवार की धुरी है, अधिक मानवीय है और यूँ अनेकानेक दैवीय गुणों से युक्त है। इन्हीं गुणों  के कारण महात्मा गांधी भी स्त्री को अबला कहना उसका अपमान मानते हैं। और संभवतः इसी कारण राधाकृष्णन् कहते हैं कि नारी हर हाल में पुरूष की शिक्षिका है । स्त्री के ही कारण हमारी संस्कृति, सभ्यता, व्यक्तित्व, भूत , वर्तमान औऱ भविष्य सदा सर्वदा सुरक्षित रहेंगे। वह श्रद्धा की भाति विनम्र है, मैत्रेयी , गार्गी की भाँति बौद्धिक  और राधा, मीरां औऱ मरवण की भाँति प्रेमिल। वह उसी प्रेममार्ग की धीर पथिक है जिसके प्रेम के निश्छल तर्कों से उद्धव जैसे योग के परमज्ञानी भी निरूत्तर हो जाते हैं। स्त्री से ही जीव है,जीवन है, पुरूष है औऱ ब्रह्माण्ड सुचारू रूप से चलायमान है। स्त्री के इन रूपों को, उसके प्रदेय को, समर्पण को स्मृति में रखते हुए ही वेद, उपनिषद्, पुराण, स्मृतियां औऱ अनेकानेक लोक-ग्रंथ उसे ईश्वर की संज्ञा देते है। 


लेखकद्वय 
डॉ. के. आर. महिया
सहायक आचार्य(संस्कृत),राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर,संपर्क:95212 20234

डॉ.विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका(हिंदी),राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर,ई-मेल:vimlesh27@gmail.com

Post a Comment

और नया पुराने