त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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साक्षात्कार:पढ़ना, लिखना औऱ पढ़ाना मुझे मनुष्य बनाता है- बद्री प्रसाद पंचोली से बातचीत
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
उनसे भेंट कर प्रश्नोत्तरी करने पर मन में बहुत संकोच था। स्वाभाविक था , गुरू से प्रश्न करना वास्तव में बड़ा कठिन होता है पर मैं इस भेंट में भी, उन्हें शिशुवत् ही सुनती रही और वे मेरे बचकाने प्रश्नों पर भी अनवरत बोलते रहे। भेंट के लिए समय लेते वक्त कि ये पंक्तियाँ उनकी स्नेहिल आवाज के साथ ही मेरे जेहन में अंकित हैं, कि -
‘एक शिक्षक का घर सदैव खुला होता है, कभी भी आ जाओ...’
प्रश्न तो नहीं कहूँगी पर उनके साथ जो पल बिताएं हैं, जो बातचीत की और जो मैंने सुना उसका कुछ अंश आपके सन्मुख प्रस्तुत है । लिखते हुए बहुत कुछ छूट गया है क्योंकि गुरूजी जब बोलते हैं तो आप सिर्फ सुन रहे होते हैं। लिखने में सुनना छूट जाता है। मैंने उस ऊर्जा के जादू को तोड़ने की कोशिश करते हुए साथ-साथ लिखने की चेष्टा की, पर विफल रही। जो सुना , जो सीखा वो सभी स्मृति के सहारे आप तक पहुँचा रही हूँ। जो मैंने सुना और आँचल में समेटा उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन है पर एक प्रयास यह भी..
गुरु जी प्रत्येक साधना के नेपथ्य में कोई ना कोई आदर्श रहता है, आपकी इस रचनात्मक यात्रा के नेपथ्य पर प्रकाश डालें?
डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली |
2. भारतीय संस्कृति की जड़े बहुत गहरी है। आप इस संस्कृति को अपने लेखन से कैसे जोड़ते हैं।
प्रश्न ठीक है। स्पष्टीकरण करना चाहूँगा कि यजुर्वेद में कहा गया है कि ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववत्रा’ अर्थात् जो विश्व के द्वारा वरण करने योग्य है वही एकमात्र संस्कृति है। हम यह कहकर पुकारते है कि बौद्ध संस्कृति, आर्य संस्कृति या अमुक संस्कृति तो यह गलत है । इसके स्थान पर कहना होगा कि संस्कार युक्त बौद्ध, संस्कार युक्त आर्य़ आदि। भारतीय संस्कृति इस दृष्टि से अनूठी है औऱ विश्व के कल्याण की कामना रखने वाली है और हम चूँकि भारतीय है तो यह हमारे रक्त में , यहाँ की हवा में घुली मिली है। इसके लिए किसी विशेष प्रयास की कहाँ आवश्यकता है।
3. काव्यशास्त्र और व्याकरण में आपका अच्छा दखल है, एक तरह से कहूँ तो एकाधिकार है। ये विषय गहन साधना कि माँग करते हैं। इनमे रूचि के बीज बिन्दुओं से हमारा परिचय करवाएँ?
व्याकरण के बारे में कहूँगा कि प्रथम वर्ष में अध्ययन करते समय छः आने की पुस्तक विजुपाणीनीयम् पढ़ी थी उसमें 1100 सूत्र हैं औऱ वो आज भी याद हैं , बस उतना ही जानता हूँ। बाकि यहाँ कुछ भी असंभव नहीं, बस संकल्प किजिए औऱ चल पड़िए कर्म की और, कुछ भी असंभव नहीं। ये विषय मेरी रूचि में शामिल हुए बस इतनी जानकारी है, इनमें कब सिद्ध हुआ, जैसा कि आप लोग कहते हैं, मुझे मालूम नहीं। मैं तो अभी भी विद्यार्थी ही हूँ, ऐसा ही मानता हूँ।
4.नवलेखन की बात की जाए तो आधुनिकता के नाम पर संस्कृति से खिलवाड़ कर रचनाएं लिखी जा रही हैं, वहाँ संवेदना का राहित्य है, इस बारे में अपनी राय दें।
यह पश्चिम का प्रभाव है। आज अनेक रचनाएँ जिन्हें कविता कहा जा रहा है पर वास्तव में वे कविता है ही नहीं। इसी तरह साहित्य की अन्य विधाएँ अपने अंगीरस से हीन है। कथाएँ कथातत्व से हीन हैं। मूल बात यह है कि व्यंजना से कथात्मकता पैदा की जाती है पर व्यंजना को कोई नहीं समझता। किसी को शब्द की ही समझ नहीं है और जिस ध्वनिकाव्य को श्रेष्ठ माना जाता है उसकी छाया भी कोई नहीं लिख पा रहा है। कहने को तो दो पद में भी कविता हो जाती है जैसे कि ‘रात बहक गयी, सुबह ना हुई’ औऱ इसी के विपरीत आप शब्दों की झड़ी लगा दे तो वह कविता नहीं कही जाएगी। कविता वस्तुतः कम शब्दों में अधिक कहने की कला है, इसीलिए इसे शब्द- चित्र भी कहा गया है।
5. गुरूजी बहुत ही विनम्रता के साथ मैं आपके रचना संसार के बारे में जानना चाहती हूँ..
देखिए पहले कुछ बताना चाहूँगा कि 1953-54 में इण्टर के बाद मैंने एक नियम बनाया कि रोज़ दो नए आदमियों से नमस्ते करना और दूसरा कि एक पृष्ठ रोजाना लिखना और कहूँगा कि यह व्रत आज भी कायम है । अब तक 160 पुस्तकें प्रकाशित हैं और लगभग इतनी ही अप्रकाशित। इन सबके पीछे बस आपकी संकल्पशीलता काम करती है। छोटा सा संकल्प ही प्रबल होता है ,देर होती है तो बस उसे लेने भर की। उस पर चलने भर की।
6. आज अध्यापकों में एक अहंभाव देखने को मिलता है ,क्या यह सही है?
अध्यापक तो वही है जो बच्चों के बीच रमा रहे। मेरी आखिरी सांस तक यही इच्छा है कि मैं अध्यापक बना रहूँ। मैं आज भी विद्यार्थियों के बीच सहज महसूस करता है। हाँ पर थोड़ा अहम् तो शिक्षक में होना ही चाहिए और राजनीति को कोढ़ समझ कर दूर रहना चाहिए। थोड़ा स्वाभिमान ज़रूर हो पर अहं नहीं।
7. वर्तमान साहित्यिक परिवेश में विमर्शों की बाढ़ आयी हुई है, इस पर अपनी राय दें?
सबसे पहले कहना चाहूँगा कि विमर्श शैव दर्शन का पारिभाषिक शब्द है औऱ पारिभाषिक शब्दों को सामान्य व्यवहार में लाना अप्रतीत्व दोष कहलाता है। विशिष्ट अर्थों का यूँ सामान्यीकरण नहीं करना चाहिए। लेखन की बात करें तो ये जो धाराएँ आज आ गयी हैं इनकी ज़रूरत थी ही नहीं। हमारे समाज और संस्कृति में तो जीवन को यज्ञ माना गया है और यज्ञ अपत्नीक नहीं हो सकता। हम श्रद्धाविश्वास रूपणे मानने वाले लोग हैं तो स्त्री और पुरूष को अलग समझने की हमारी दृष्टि कभी रही ही नहीं है। ये दोनों तो परस्पर समाहित है। पुरूषयति अर्थात् जो पुरी में शयन करता है अतः जो इस संसार में निवास कर रहा है सभी पुरूष हैं , भेद कहाँ हैं। ये सभी अवधारणाएँ पश्चिम की देन हैं। दलित लेखन की बात की जाए तो हम तो सभी को मनुष्य समझते हैं औऱ यह जो बाँटने की प्रवृत्ति चल पड़ी है वह आदमी को आदमी से अपरिचित करने की प्रवृत्ति है। इससे बचना होगा। अगर हम गाँवों की तरफ़ रूख करें तो गाँव समृद्ध हैं वहाँ असुरक्षा भाव नहीं है, वे संगठित हैं इसीलिए अपराध वहाँ नहीं मिलते। सबसे पहले तो हमें अपने भीतर नागरिक बोध विकसित करना होगा। सन् 53 की बात है मैं प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था। मैंने एक दुकान से घी का डिब्बा खरीदा । घर आकर खोला तो उसके भीतर गोबर पाया। मैंने उसी समय नेहरू जी को पत्र लिखा कि डब्बे के भीतर इस प्रकार अखाद्य पदार्थ पाया गया। जाँच हुई और उसे सही पाया गया। पूरे देश में उस समय ऐसी घटनाएँ घट रही थी। उस एक पोस्टकार्ड पर राष्ट्रीय हित में निर्णय लिया गया और तब से डिब्बों पर डबल ढक्कन आने का चलन हुआ। तो देखिए एक सामान्य छात्र का पोस्टकार्ड कितना बड़ा कदम उठाने में सहायक हो सकता है। हम अपना कर्तव्य निभाने में आलस कर जाते हैं। किसी भी प्रकार की धारा की बजाय़ आत्म चेतना को विकसित करना आज समय की सबसे बड़ी माँग है।
8. गुरु जी क्या साहित्य राजनीति सापेक्ष भी होता है?
राज का अर्थ है प्रकाश ..राजनीति का अर्थ हुआ प्रकाश की नीति तो आज प्रकाश की नीति है ही कहाँ। आज तो वोट की नीति है। वोट के लिए आदमी को महज दो टाँगों वाला प्राणी समझा जाता है जिसमें प्राण है ही नहीं। कितनी विडम्बना है कि 1969 में स्त्री को मत देने का अधिकार मिला अर्थात् उससे पहले उसे मनुष्य ही नहीं माना गया। कितना दुखद है कि आज धर्म को भी राज खरीद रहा है।
9. इन्टरनेट के बढ़ते चलन औऱ साहित्य पर आप क्या सोचते हैं?
शरद कुमार इन्टरनेट पर एक विश्वविद्यालय चला रहे हैं। 76000 विद्यार्थी इस माध्यम से शिक्षा अर्जित कर रहे हैं। निःसंदेह यह सुखद स्थिति है। इन्टरनेट का साहित्य के क्षेत्र में सकारात्मक प्रयोग हो रहा है। व्यापारियों को हैकर्स परेशान कर रहे हैं , वहाँ सोचने की जरूरत है। इन्टरनेट पर बहुत कुछ उपलब्ध है। यही कहूँगा कि अच्छा पढ़े और अच्छा लिखें।
10.हिन्दी अध्ययन, अध्यापन में शिक्षण संस्थाओं की भूमिका पर अपनी राय दें।
हिन्दी की स्थिति तो सदा सुखद रही है हाँ बड़े दुःख के साथ कहूँगा कि इस दृष्टि से राजकीय संस्थाओं के हाल बुरे हैं। वहाँ विद्यार्थियों को उचित मार्गदर्शन ही नहीं मिल पाता। मैं जब शिक्षक था तब प्रतिवर्ष प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन करता था। मेरा उद्देश्य था कि अधिक से अधिक छात्र इन आयोजनों से लाभ प्राप्त करें परन्तु अब ऐसे आयोजन होते ही नहीं। सही मायने में अब आयोजन करना किसी को आता ही नहीं है। अच्छाई की गंध फैलाने से फैलती है इस सूत्र को सभी भूल गए हैं। यू.जी.सी आज 6000 में से 5500 शोध ग्रंथों को अयोग्य और सामाजिक अनुसंधान की तरह से अनुपयोगी बताती है तो हमें इस दिशा में सोचने की तो वाकई ज़रूरत है।
11. साहित्य में नवलेखकों औऱ शोधार्थियों के लिए आपकी क्या सलाह है?
कॉलेज प्राध्यापिका(हिंदी),राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर,ई-मेल:vimlesh27 @gmail.com
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