त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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शोधमाला:रीतिकाव्य के सौन्दर्यशास्त्र की निर्मितियां – डॉ.राजेश मिश्र
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
रीतिकाव्य का सौन्दर्यबोध संस्कृत काव्य, दर्शन, शास्त्र-पुराण-उपनिषद्, समाज के लोकव्यवहार काव्यशास्त्र तथा प्राचीन कवियों की परिपाटी को संश्लेषित करते हुए तैयार होता है | रीतिकाव्य में सुन्दर, सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध की अर्थ-व्यंजनायें अपने क्रमिक विकास में विशेष और पारिभाषिक अर्थ रखतें हैं जिसमें शास्त्र, दर्शन, विज्ञान और साहित्य का उदात्त रूप संश्लिष्ट हैं | प्रकृति, स्त्री ,प्रेम-व्यवहार, लोक-व्यवहार, नीति-उपदेश कथन जैसे विषयों की प्रस्तुति में रीतिकालीन कवियों ने अपनी लेखनी को अभूतपूर्व मोड़ दिया है | जिसके अनुशीलन से काव्य विषय के प्रति उनके सौन्दर्यबोध के सूक्ष्म परतों की पहचान की जा सकती है | संस्कृत कवियों की लेखनी का यह सौन्दर्य धीरे-धीरे पारंपरिक होते हुए वृत्ति के रूप में ढल गयी | इस वृत्ति को भरत ने ‘प्रकृति’ कहा और संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति कहा गया | आचार्य बाणभट्ट ने सातवी शताब्दी में भारत की दिशाओ के आधार पर चार प्रमुख रीतियों का उल्लेख किया है – “ श्लेष प्राय मुरीच्येषु गौडेष्वराक्षराम्बर: प्रतीच्येश्वर्य मत्रकम उत्प्रेक्षा दक्षिणत्येशु”1 –हर्ष चरित | भारत के विभिन्न दिशाओं में रह रहे लोगों के जीवन व्यवहार में शब्द और अर्थ की स्थिति को इस श्लोक के आधार पर समझा जा सकता है | काव्य रीतियों का जन्म इसी आधार पर हुआ है |
भारतीय साहित्य में भरत जैसे ऋषियों ने जिस श्रृंगार को आदि-रस माना , दर्शन ने जिसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा ; रीतिकालीन कवियों ने उसी आदि-रस को अनुभवगम्य और सर्वसुलभ बनाते हुए उसे लोक का विषय बना दिया | विभिन्न काव्य-शिल्प के लिए समर्पित अपनी अनुभूत-साधना के माध्यम से उन्होंने काव्य और विषय के भेद को ही मिटा दिया | उन्होंने काव्य और कला (विद्या और उपविद्या) के बीच की भेदक रेखा को भी मिटा दिया | अपने युग के सौन्दर्यबोध को देश और काल की परिधि के पार लाकर उसका ऐसा मानक रूप प्रस्तुत किया कि आज भी हम सौन्दर्य की अभिव्यंजना के लिए उनकी अनुभीतियों का अनुकरण करते हैं | उपमानों की नव्यता ने विषय के प्रस्तुतीकरण का तरीका भले ही नया पा लिया हो लेकिन अनुभूतियों की सूक्ष्म व्यंजना के लिए रीतिकाकालीन सौन्दर्यबोध का विस्तृत क्षेत्र हमें आज भी अपनी ओर आकर्षित करता है |
सांख्य और रामानुज वेदान्त के अनुसार सतोगुण सौन्दर्य का अधिष्ठान है | इसके साथ ही प्रमाणशास्त्र, प्रज्ञाशास्त्र, तत्वमीमांसा,व्यवहारशास्त्र,मनोविज्ञान तथा सौंदर्यशास्त्र भी दर्शनशास्त्र की ही शाखाएं हैं | सौन्दर्य ब्रह्म है कला उसकी माया है, महान जीवन का ऐश्वर्य उसका प्रकाश है जो सौन्दर्य से अभीभूत है ,जिसकी विवेचना दर्शन शास्त्र में भली-भाति हुयी है | स्वयं शंकराचार्य ने सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से अद्वैत को विश्लेषित किया है | जिसका दर्शन अथवा अनुभव आनंद को उत्पन्न करने वाला है वही सुन्दर है और उसका तादात्म्य ही अद्वैत स्थिति की प्राप्ति है |
भरत आदि ऋषियों का प्रिय “रस” जिसे दर्शन ने निर्गुण और निराकार कहकर ब्रह्म के सामान बना दिया था, भक्ति ने जिसकी अनुभूति को गूंगे का गुड़ कहा था और साधना ने जिसे सिद्धि माना ; रीतिकाव्य ने उसी रस को “सौन्दर्य” कहते हुए उसे सामाजिक लोक-व्यवहार का विषय बनाया | रीतिकवियों ने पहली बार अनुभूत सत्य और शास्त्र सत्य को लोक के लिए सुलभ बनाया | शास्त्रों के आदि-रस के स्वरूप को काव्य का प्रतिमान बनाते हुए ये रीतिकवि उसकी अन्विति सौन्दर्य में दिखाने के लिए जिन उपमानों और साधनों का उपयोग किया वे साधन और उपमान उनकी स्वयं की मौलिक उद्भावनाएँ हैं | ‘कला’ को ‘हाथों के कौशल’ से अलग करके उसे आध्यात्मिक रहस्य की अनुभूति से जोड़कर इन कवियों ने कला का उद्धार किया है | यही कारण है कि अभ्यास से अधिक उन्होंने प्रतिभा को महत्त्व दिया है | रीतियुग की प्रतिभा और लोक वादी जुड़ाव की बराबरी में हिन्दी साहित्य का कोई और युग नहीं है |
रीति कवियों के लिए काव्य उनका साध्य था और भक्त कवियों के लिए काव्य उनका साधन था | रीति कवियों ने विभिन्न भावस्थितियों और दशाओं के लिए जो भी लक्षण बताये उनके लिए उदाहरणों को स्वयं ही तैयार किये | किसी भी स्तर पर वे उदाहरण उधार नहीं लिए, इन अर्थों में उनकी यह मौलिकता सहज प्रतिभा और कठोर अभ्यास की देन थी | रूढ़ियों को यदि न गिना जाय तो | द्विवेदी युगीन बंधन-वृत्ति के विरोध में जैसे छायावाद का उदय हुआ उसी प्रकार भक्त कवियों की नारी-निंदा के विरोध में रीतिकाल का जन्म हुआ | जिसे भक्त-कवियों ने ‘नरक का द्वार’ कहा रीति कवियों ने उसे संसार का सार सिद्ध कर दिया | “बानी का सार बखानों सिंगार, सिंगार को सार किशोर - किशोरी |” रीतिकाव्य में नारी सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि वह सम्प्रेषण के लिए योग्य, अनुभूति की एक “प्रकार” भी है | इसलिए रीतिकाल की मूल चेतना श्रृंगारिक है तो इसमें पूर्व काव्य-परम्परा का विरोध, ऊब और उसके प्रति एक विक्षोभ भी है | जिसे परखने के लिए श्रृंगार की उहात्मक चेष्टाओं के आकर्षण से दूर, काव्यशिल्प, उसकी मौलिकता, परवर्ती काल को उसकी देन, रसांकन,और सौन्दर्यबोध आदि सभी तत्वों का अन्वेषण आवश्यक होगा |
पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर ने कहा है कि भारत में सौन्दर्य की चर्चा नहीं है | दार्शनिक डॉ. सुरेन्द्रनाथ दास भी यही मानते हैं कि – “बहुत से लोगों का विशवास है कि हमारे उपनिषदों में सत्यम शिवम् सुन्दरम कहकर ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण किया गया है किन्तु उनकी यह धारणा निर्मूल है | उपनिषद प्राचीन दर्शन या साहित्य किसी में भी सुन्दर का स्वरूप निश्चित करने का प्रयत्न नहीं किया गया है |” मराठी के भी विद्वान प्रो.रा.श्री. जोग का भी मत है कि सौंदर्यशास्त्र अपने यहाँ नहीं रहा है | इसका एक कारण मैं यह समझता हूँ कि भारत में सौन्दर्य अंग रूप में रहा है अंगी रूप में नहीं, भारत में सुन्दर अन्य गुणों के साथ मिलकर अपना स्वरूप बनता है, पूर्ण होता है | स्वतन्त्र गुण या अवयव के रूप में नहीं माना गया है | यही कारण है कि कोई शास्त्र या विज्ञान स्वतन्त्र रूप से सौन्दर्य या सुन्दर को अपना विषय नहीं बनाया | भारतीय काव्यशास्त्र में नानाविध सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ और इसी क्रम में रस के अंतर्गत सुन्दर और सौन्दर्य को भी समेकित कर लिया गया | जिस प्रकार पाश्चात्य चिंतन की कला-मीमांसा ने अनिवार्य रूप से सुन्दर की साधना पर स्वयं को अधिक केन्द्रित रखा है भारतीय चिंतन ने ऐसा कोई उपक्रम नहीं किया | भारतीय ‘शास्त्र’ सुन्दर को भावानुभूतिक तत्व के रूप में स्वीकार करता है तो पाश्चात्य ‘विज्ञान’ उसे विश्लेषण और व्याख्या के विषय के रूप में | भारतीय शास्त्र सौन्दर्य के भावानुभूतिक तत्व के आध्यात्मिक प्रभावों का भी अध्ययन करता है और इस हेतु मनन करता है किन्तु पाश्चात्य का व्यवस्थित-ज्ञान सौन्दर्य को वस्तु या विषय रूप में मानकर उसका विश्लेषण करने के लिए मनन करता है, अन्वेषण करता है | लेकिन शास्त्र और विज्ञान दोनों सौन्दर्य के चरम स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्येक वस्तु और अनुभूति एक पूर्ण सत्ता का अंश है जहाँ सिर्फ दर्शन ही पहुच पाता है विज्ञान पीछे रह जाता है | यह दर्शन ही आनंद के चेतन स्वरूप का परिचय करा सकता है उसके आत्मस्थ स्वरूप को दिखा सकता है जो स्वयं रसमय है जिसे हमारे शास्त्र “रसो वै सः” कहते हैं |सुन्दर वस्तुओं के दर्शन से मन आह्लादित होता है, आनंदित होता है |प्रत्यक्ष, स्मृत और कल्पना के द्वारा उस आनंद की पुनः संप्राप्ति होती है और आनंद को उत्पन्न करने की क्षमता रखने वाले वस्तु का गुण सुन्दर ही कहा जाएगा | वस्तुतः सौन्दर्य का यही आध्यात्मिक स्वरूप है जहाँ सुख और दुःख दोनों में आनंदानुभूति होती है जिसे शास्त्रकारों के ‘उदात्त’ कहा है |
प्राकृतिक और आध्यात्मिक गुणों के समन्वित स्वरूप को धारण करने वाले देश में प्रकृत-काव्य के रूप में साहित्य का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही कहा जाएगा | क्योकि आर्यजन स्वभावतः भावुक और कल्पनाशील थे | उषा-अरुण,दिवा-रात्रि,तरु-पादप,वायु-मेघ,अग्नि-जल,दुःख-सुख आदि तमाम वस्तु तथा मनःस्थितियों के स्थूल और सूक्ष्म सौन्दर्य से हमारे ऋषि-मुनि अभीभूत हुए |वेद इसके साक्षी हैं |फिर भारतीय दर्शन का ह्रदय भी तो कवि-ह्रदय ही है “कविर्मनीषिः परिभु: स्वयंभू:” अतः सौन्दर्य के विविध स्वरूपों से उसका परिचय सहज और स्वाभाविक ही है | जो साहित्य में कवि और काव्य रीतियों के रूप में विकसित होता रहा है |
सत और चित का मंगलमय स्वरूप ही आनंद है और इसका मूल है सौन्दर्य की अनुभूति, जिसे आध्यात्मिक अर्थों में सच्चिदानंद भी कह सकतें हैं | प्रातिभ-ज्ञान की परिधि में सत्य जब दर्शन का रूप धारण कर ले तब वह सुन्दर हो जाता है, दार्शनिक का वही आनंद और ‘सत्य’ है, कवि का वही ‘सौन्दर्य’ है, ज्ञानी का वही ‘आध्यात्म’ और भावुक का वही ‘काव्य’ है | वही अमृत है, वही चिर सुन्दर है, विद्यापति के यहाँ वही “तिरपित भेल” की स्थिति है तो सूरदास के यहाँ “गूंगे का गुण” है और कबीर का वही “बेगमपुर” है | निश्चित ही भारतीय मनीषा को सौन्दर्य के चेतन स्वरूप की पहचान से रिक्त नहीं कहा जा सकता है | अनुभूत, सत्य, दार्शनिक व्याख्या, साधना की अवस्था, काव्य की सिद्धावस्था और लोकव्यवहार की कसौटियों में सौन्दर्य की जिज्ञासा और उसकी पुष्टि के अनगिनत प्रमाण हैं जिनके समवेत स्वरूप से हमारे भारतीय मनीषियों का सौन्दर्यबोध तैयार होता है |काव्य में उसकी उपस्थिति तो संकेत भर है |
काव्यशास्त्र के अवयवों के बारे में जैसे भारत के संस्कृत आचार्यों में मतभेद है उसी प्रकार पाश्चात्य विद्वान भी वैचारिक भिन्नता के प्रभाव में रहे हैं भारत ने ‘नाट्य’ को तीनो लोकों की अनुकृति मानकर उसका अनुकरण स्वीकार किया है उसी प्रकार अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने अनुकरण को महत्त्व दिया हैं , अरस्तू जिसके पुरोधा रहे हैं | फिलिप, सिडनी, और डेनिश आदि ने ऐसा ही माना है | कालरिज और मैथ्यू आर्नाल्ड आदि ने काव्य को आनंदाभिव्यक्ति का उत्कृष्ट साधन माना है ईगल एलेन पो ने काव्य का दो स्वरूप स्वीकार किया है – संगीत और आनंद | क्रोचे ने काव्य को अंतर्ज्ञान कहा है तो वर्डस्वर्थ ने उसे तीव्र मनोवेगों की अभिव्यक्ति के रूप में रेखांकित किया है | इसी क्रम में शेली ने भी काव्य को कल्पना तथा मनोवेगों की अभिव्यक्ति स्वीकार किया है | निश्चित ही पाश्चात्य विद्वानों के विभिन्न दृष्टिकोण अपनी अलग व्यंजना रखतें हैं लेकिन मूल रूप में सभी ने काव्य को ‘आनंद’ का ही रूप माना है | कवि या कलाकार जिन कारणों से अपनी सृजन की प्रक्रिया शुरू करते हैं उस पर भारतीय और पाश्चात्य सभी विचारक एक मत हैं, दोनों ने ही काव्य-प्रतिभा को इसका कारण माना है | भारतीय काव्यशास्त्र का मुख्य-प्रश्न ‘काव्य की आत्मा’ पाश्चात्य विद्वानों के विषय-क्षेत्र में नहीं है फिरभी कुछ विद्वान संकेत रूप में इसपर अपना मत प्रस्तुत करते हैं | अरस्तू ने काव्य की आत्मा ‘अनुकरण’ को माना है | होरेस ने आचार्य क्षेमेन्द्र की भाँति काव्य की आत्मा ‘औचित्य’ को माना है, लोंजाईनस ने अलंकार को काव्य की आत्मा मानते हुए भामह के सामान अलंकार को ही काव्य का मुख्य प्रेरक तत्व स्वीकार किया है |कोलरिज ने कल्पना को काव्य की आत्मा माना तथा कुछ दुसरे विद्वानों ने सौन्दर्य को ही काव्य की आत्मा स्वीकार किया है |
भारतीय काव्यशास्त्र ‘रस’ और ‘ध्वनि’ को आधार बनाकर काव्य के आत्मा की खोज की है जबकि पाश्चात्य सौदर्यशास्त्र में संवेदना और मनोवेग को इसका आधार माना गया है | पाश्चात्य विचारक काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र को अलग-अलग विषय के रूप में महत्त्व देतें हैं जबकि भारतीय मनीषा इसे एक ही विषय स्वीकार करते रहा है | जार्ज संत्यायन ने लिखा है कि – “काव्यशास्त्र निर्णय प्रधान है और सौंदर्यशास्त्र में प्रतिबोधन या प्रत्यक्षीकरण (परसेप्शन ) का अध्ययन मुख्य रूप से किया जाता है |”-2 इस विषय पर व्यवहारिक दृष्टि रखते हुए सेंट्सवेरी ने स्वीकार किया है कि – “काव्य में आलोचना की अपेक्षा की जाती है जिसके फलस्वरूप निर्णय भावना का विकास होता है परन्तु जब सौंदर्यशास्त्र के साथ काव्यशास्त्र को शामिल कर लिया जाता है तो निर्णय की भावना खंडित हो जाती है |”-3 पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र ने काव्य को संवेदनात्मक स्वरूप में स्वीकार किया है इसी आधार पर यूरोपीय विचारकों ने एस्थेटिक्स का अर्थ इन्द्रियानुभूति या संवेदनात्मक अनुभूति मान लिया है और यही कारण है कि पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र में कला रूप में निहित सौन्दर्य का रूप संवेदनात्मक अधिक हो गया है | जबकि कला सौन्दर्य की दृष्टि से भारतीय काव्यशास्त्र में ऐसी संवेदनात्मकता का अभाव मिलता है |संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य को ‘विद्या’ कहा गया है और कलाओं को ‘उपविद्या’ स्वीकार किया गया है |दूसरे शब्दों में कलाओं को क्रियात्मक माना गया और काव्य को ज्ञानात्मक |हिन्दी में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि- “सारा उपद्रव काव्य को कलाओं के भीतर लेने से हुआ है हमारे यहाँ काव्य की गिनती चौसठ कलाओं में नहीं की गयी है |”-4 जयशंकर प्रसाद ने भी इसी क्रम में काव्य की गणना विद्या में और कलाओं की गणना उप्विद्याओं में स्थापित की है भारतीय दृष्टिकोण से काव्य में अनुभूति की प्रधानता होती है | क्रोचे ने जिसे अभिव्यंजना के रूप में पहचाना है वे इसकी अनुभूति को कभी चेतना (कोंशसनेस ) के रूप में लेते हैं तो कभी अनुभव (एक्सपीरिएंस) के परिप्रेक्ष्य में |साहित्य में ये अनुभूतियाँ कई रूपों में हैं – काव्य,रस,भाव,प्रतिभा,विलक्षण, रहस्य, दिव्य, लौकिक, समानुभूति, महानुभूति और सौन्दर्यानुभूति |जबकि काव्य का वास्तविक स्वरूप इन सभी के प्रकार की अनुभूतियों के धारण करते हुए भी अंततः कवि के मन का सौन्दर्यबोध ही है जिसे कवि विविध कलाओं के माध्यम से शब्द-रूप प्रदान करता है |
निष्कर्षतः काव्य से रचना के भाव पक्ष और अन्तःसौन्दर्य का बोध होता है जिसमें कलापक्ष और रूपात्मक सौन्दर्य भी छिपा होता है | हमारे ऋषि मुनियों तथा शास्त्रकारों ने काव्य को कला के रूप में इसलिए स्वीकार नहीं किया कि कला के माध्यम से हमें जो प्राप्त होता है वह कवि के ह्रदय में बसे सौन्दर्यबोध की तुलना में बहुत कम होता है | कवि तो काव्य को उत्कर्ष प्रदान कराने के लिए विविध कलाओं का उपयोग करता है और इस बिंदु पर काव्य के कलापक्ष को ध्यान में रखकर देखें तो यहाँ काव्येतर कलाओं का निषेध नहीं मिलेगा |चित्र, मूर्ति, संगीत, नृत्य,स्थापत्य आदि की सहायता से वह (कवि) काव्य वर्णन को और भी रोचक बनाता है | उसका यही सौन्दर्यबोध काव्य के रूप में प्रकट होकर,विविध कलाओं का साथ पा कर , रस की निष्पत्तियों को और भी अधिक प्रभावशाली या बोधगम्य बनाता है |जो विभाव अनुभाव तथा संचारी के सहयोग से स्थायी रति को लेकर श्रृंगार रस के रूप में अवतरित होता है |रीतिकाव्य में समानुभूत वही श्रृंगार रस अपने पूर्ण परिपाक में विषय को शरीरी उपमानों से सम्बद्ध करते हुए भी अध्यात्म के लोकोत्तर आनंद को लोक समाज के बीच उतारता है | इस अर्थ में रीति कालीन साहित्य अपनी कलात्मक कौशल के विभिन्न विधाओं को साधन बनाते हुए रस के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवयवों का वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति करता है | यदि यह रीति कवियों का मनः विलास मात्र होता तो निश्चित ही समय के परिवर्तन के साथ अप्रासंगिक हो गया होता |
सन्दर्भ :-
1 –हर्ष चरित : आचार्य बाणभट्ट |
2- जार्ज संत्यायन (‘द सेन्स ऑफ़ ब्यूटी’/1955 पेज-16)
3- सेंट्सवेरी (हिस्ट्री ऑफ़ क्रिटिसिज्म,अध्याय-1,पेज-03 )
4- चिंतामणि भाग-2,पेज-180)
5- रीतिकाव्य की भूमिका : डॉ. नगेन्द्र
6- देव और उनकी कविता : डॉ. नगेन्द्र
7- हिन्दी रीति साहित्य : भगीरथ मिश्र
8- हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास : भगीरथ मिश्र
9 - रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना : डॉ. बच्चन सिंह
10 - ‘भारतीय काव्यशास्त्र’ दो भाग : बलदेव उपाध्याय
11-सौंदर्यशास्त्र के मूल तत्व : क्रोचे (अनु. श्रीकांत खरे)
12 - रस सिद्धांत और सौंदर्यशास्त्र : निर्मला जैन
13 - कालीदास की लालित्य योजना : हजारी प्रसाद द्विवेदी
डॉ. राजेश मिश्र
हिन्दी विभाग,गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर
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