आलेखमाला:हिंदी कथालोचन और निर्मला जैन – विशाल कुमार सिंह

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आलेखमाला:हिंदी कथालोचन और निर्मला जैन – विशाल कुमार सिंह

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में निर्मला जैन का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। इन्होंने अपनी निष्ठा और लगन के बल पर हिन्दी आलोचना के जगत में अपनी एक अलग पहचान बनायी है। हिन्दी आलोचना को ऊँचाइयों के शिखरों तक पहुँचाने में निर्मला जैन के कृतित्व का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है जो आगे चलकर हिन्दी आलोचना के आधार ग्रन्थ बन गये। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं – ‘आधुनिक हिन्दी काव्य में रूप विधाएँ’, ‘रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र,’ ‘आधुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्याकंन,’ ‘आधुनिक हिन्दी काव्य : रूप और संरचना’, ‘पाश्चात्य साहित्य चिन्तन’, ‘कविता का प्रति संसार’, हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी’ आदि। 

उपर्युक्त सभी पुस्तकें उनकी काव्यालोचन के प्रतिभा का परिचय है। परन्तु निर्मला जैन सिर्फ काव्यालोचन या सैद्धांतिक आलोचना तक सीमित रहने वाली आलोचकों में से नहीं है। उन्हें समय की परख है। इसलिए बदलते समय के रुख को देखते हुए तथा हिन्दी साहित्य में कथा-साहित्य की बढ़ती माँग को समझते हुए उन्होंने कथालोचन पर अपनी कलम चलाने का जोखिम निर्भीकता के साथ उठाया है। 

यहाँ एक बात साफ़-साफ़ ध्यान देने योग्य है कि ‘कथालोचन’ किसी तीसरे साहित्य की नहीं बल्कि आलोचना का ही हिस्सा है। फ़र्क बस इतना है कि वह अपनी अलग सिद्धांतों के कारण काव्यालोचन और नाट्यालोचन से थोड़ा भिन्न है। अब प्रश्न उठता है कि ये कौन-से सिद्धांत हैं जिनके दम पर कथालोचन, काव्यालोचन और नाट्यालोचन से अलग हैं। उत्तर साफ़ है - कहानी तथा उपन्यास के आलोचनात्मक कसौटी को कभी भी काव्यालोचन और नाट्यालोचन के प्रतिमानों पर आँका नहीं जा सकता। क्योंकि तीनों धाराएँ साहित्य की अलग-अलग विधाए हैं और अपने आप में अलग शैली को लिए विद्यमान हैं। जाहिर है, कविता या नाटक जैसी विधा को हम कथालोचन के सिद्धांतों पर नहीं उकेर सकते। इसलिए आलोचकों को कथा-साहित्य में आलोचना के लिए अलग से नये आधारों को तय करने की आवश्यकता महसूस हुई । अगर ऐसा नहीं है तो नामवर सिंह को ‘कहानी नयी कहानी’ पुस्तक लिखने की आवश्यकता नहीं होती और न ही नेमिचंद्र जैन को ‘अधूरे साक्षात्कार’ की। ये पुस्तकें कथालोचन के नये प्रतिमान की ओर इशारा करती हैं। साथ ही साथ यह संकेत भी देती हैं कि अब घिसी-पिटी परम्परा को पालकर कथालोचन की नैया को पार नहीं लगाया जा सकता। सर्वथा कथा-साहित्य का अलग अस्तित्व है। इसलिए कथालोचन के लिए नए सिद्धांतों और प्रतिमानों की माँग करना कथाकारों का अधिकार है। यह बात अलग है कि कथालोचन की कालावधि अभी ज्यादा विस्तृत नहीं हो पायी है। इसके बावजूद कथालोचन की विकास-यात्रा जारी है जिसने दर्जनों कथा-समीक्षकों को आगे आने का मौका दिया है ।

समय के ऐसे बहाव में निर्मला जैन का प्रवेश हिन्दी-कथालोचन के क्षेत्र में हुआ और उन्होंने अपनी सूझ-बूझ के साथ कथा-साहित्य की समीक्षाएँ की। ऐसा माना जाता है कि हिन्दी-कथालोचन में उनका प्रवेश दबे पाँव और बिना किसी शोर-शराबे के हुआ। हिन्दी-कथालोचन के ऊपर उनकी मुख्यतः दो ही पुस्तकें अब तक सामने आयी हैं। ‘कथाप्रसंग-यथाप्रसंग’ सन 2000 में एवं ‘कथा समय में तीन हमसफर’ का प्रकाशन 2011 में हुआ। इन दोनों रचनाओं के माध्यम से उन्होंने अपनी कथा-समीक्षा की वैचारिकी प्रकट की है। साथ ही साथ कथालोचकों को नये ढंग से सचेत और सक्रिय होने की चुनौती भी दी है। रचनाओं में नयी बहसों की संभावनाओं को कैसे पैदा किया जाये, उसके बारे में उन्होंने पाठकों के मन में जिज्ञासा को उद्भूत किया है। प्रमाण के तौर पर उनका ‘कथा समीक्षा की दुश्वारियाँ’ लेख उल्लेखनीय है जिसमें वे यह बताती हैं कि “हिन्दी कथा-समीक्षा की संभवतः सबसे महत्वपूर्ण समस्या है उपन्यास को वास्तविक जीवन के दस्तावेज के रूप में ग्रहण करके जाँचना। यदि कलावादी किसी कथाकृति को स्वतः सम्पूर्ण कलाकृति मानकर एक छोर पर जा खड़े होते हैं तो स्थूल यथार्थवादी कथाकृति को जीवन का पर्याय मानकर दूसरे अतिवादी का सहारा लेते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी कथा-समीक्षा मुख्यतः इस दूसरे छोर पर है।”1  वहीं आगे लिखती हैं- “हिन्दी की कथा-समीक्षा अभी तक वास्तविकता के सन्दर्भ में इस विशिष्ट कलात्मक स्थिति की चुनौतियों से प्रायः अनजान है, इसलिए कथा-समीक्षा के नाम पर आने वाली अधिकांश आलोचनाएँ बाहरी यानी ‘एक्सट्रिंजिक’ हैं। हिन्दी में ‘फैंटेसी’ के रूप में रचित कथाकृतियों की समीक्षा का जो गंभीर प्रयास नहीं मिलता उसका एक बड़ा कारण उपन्यास की प्रकृति के विषय में यह भ्रामक अवधारणा ही है।”2  कथा-समीक्षा की समस्याओं को दिखाते हुए वे लिखती हैं - “कथा-समीक्षा की समस्याएँ और भी हैं तथा हो सकती हैं, किंतु उन सभी समस्याओं से सुलझने का मार्ग यही है कि उपन्यास को एक निजी गतिशील और जटिल कलात्मक रूप की तरह लेकर उसकी विविधता के अनुरूप विश्लेषण एवं मूल्यांकन के लिए निरंतर नवीन प्रविधियों की दिशा में प्रयास होता रहे। दृष्टि के इस खुलेपन में ही कथा-समीक्षा के विकास की संभावनाएँ निहित हैं।”3  कथा-समीक्षा की बात हो और प्रेमचंद, निराला और जैनेन्द्र की कहानियों की चर्चा न हो, ऐसा असम्भव है। निर्मला जैन ने कथाप्रसंग-यथाप्रसंग पुस्तक में इन तीनों की कहानियों पर अपनी पैनी नजर देते हुए कहा है - “समस्या को दोनों बखूबी पहचानते हैं। सही जगह चोट करते हैं पर निराला की रोमानी ऊर्जा जितने आश्वस्त भाव से समस्या के समधानों की प्रस्तावना करती है, प्रेमचंद उतने विश्वास के साथ निदान प्रस्तुत नहीं कर पाते।”4  इससे यह स्पस्ट होता है कि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में जाति, धर्म, संस्कृति के आधार पर सवाल तो उठाए हैं पर कहानी के अंत तक उन सवालों का जवाब नहीं दिया है, जैसे- कफ़न, पूस की रात, सवा सेर गेहूँ तथा सद्गति आदि कहानियाँ। 

दूसरी तरफ निराला की अनेक कहानियों पर सुधारवादी नैतिक आग्रह हावी हो जाता है। निर्मला जैन ने इस पुस्तक के माध्यम से यह स्पस्ट दिखाया है कि कैसे निराला की कहानियों की बनावट प्रेमचंद की ठेठ यथार्थ केन्द्रित कहानियों से अलग है। “निराला हर ब्राह्मण परिवार में एक विरोधी पुत्र देखना चाहते हैं। ऐसा पुत्र जो असहाय, विपन्न, रिआया का मददगार हो, भले ही वह परिवार का कोपभाजन हो जाए और अपनी राह अलग बना ले। ऐसे युवक-युवतियों के संघर्ष को सुगम बनाने के लिए निराला आर्य समाज जैसी संस्थाओं की भूमिका के बारे में भी आश्वस्त दिखाई पड़ते हैं। ऐसे ही मानस-पुत्र हैं ‘श्यामा’ कहानी के बंकिम।”5 अतः दोनों रचानाकारों के यथार्थ चित्रण के स्वरूप की ओर लेखिका ने इंगित किया है। जैनेन्द्र के बारे में आपका कहना है - “जैनेन्द्र अपनी कहानी की घटना को ‘जागतिक और सामयिक’ न बनाकर मानसिक बनाने का प्रयास करते हैं ताकि वे सनातन बन सके। अक्सर वे इस मानसिकता के आवरण के लिए रूपक-कथाओं या फैंटेसी का प्रयोग करने से भी नहीं झिझकते।”6 शायद इसीलिए जैनेन्द्र को यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की। उनकी रचनाओं का साठ प्रतिशत ऐसा ही है। उदाहरण के लिए जैनेन्द्र की ‘तत्सत्’ कहानी को देखा जा सकता है।

  वहीं दूसरी ओर इलाचंद्र जोशी के उपन्यास ‘जहाज का पंछी’ के बारे में आप कहती हैं - “जहाज का पंछी की शक्ति उसकी शैली में नहीं, रचनाकार के सामाजिक सरोकार में है। सामान्य व्यवहार की भाषा में सीधी-सादी वर्णनात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास इस प्रचलित धारणा को झुठलाता है कि इलाचंद्र जोशी ने फ्रायड से प्रभावित मनोवैज्ञानिक कथा साहित्य की ही रचना की थी। वस्तुतः ‘जहाज का पंछी’ अपने समय के महानगरीय यथार्थ का समीक्षात्मक बयान है।”7 ध्यान देने वाली बात यह है कि उपन्यासों में आपने इलाचंद्र जोशी के ‘जहाज का पंछी’ से शुरू करके प्रभा खेतान और अलका सरावगी तक के उपन्यासों का चुनाव किया है। ध्यानाकर्षित करने वाली बात यह है कि उपन्यास के मूल्यांकन के लिए आपने उपन्यास की रचना-प्रक्रिया को समझने पर ज्यादा बल दिया है। ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ और ‘जिन्दगीनामा’ जैसे अपेक्षाकृत विवादास्पद उपन्यासों पर भी उनकी संतुलित दृष्टि का परिचय मिलता है। निर्मला जैन की कथालोचन की प्रक्रिया दूसरे कथालोचाकों से भिन्न है। कथा-समीक्षा के लिए आपने जिस पद्धति का अनुसरण किया है, आज तक शायद ही किसी आलोचक ने किया हो। 

‘कथा समय में तीन हमसफर’ पुस्तक की ‘जरूरी है यह कहना’ नामक अपने लेख में निर्मला जैन ने मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों के एवं हमसफर रही इन तीनों लेखिकाओं की रचनाशीलता को समझने की कोशिश की है। इसी पुस्तक के दूसरे लेख ‘अपना-अपना जीवन’ के अंतर्गत इन तीनों लेखिकाओं के सामाजिक परिवेश और पारिवारिक परिस्थितियों की चर्चा की है। निर्मला जैन ने इस लेख के माध्यम से यह बताने की पूरी कोशिश की है कि किसी भी रचनाकार के लिए उसकी सामाजिक एवं पारिवारिक परिवेश की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। निर्मला जैन ने अपने अगले लेख ‘छठे दशक में साथ-साथ और अलग-अलग’ के अंतर्गत लगभग छठे दशक के समय तीनों महिला कहानीकारों द्वारा लिखी गयी कहानियों पर चर्चा की है। इस पुस्तक के प्रथम खंड में ‘कहानियाँ समान्तर और अलग-अलग’ के अंतर्गत प्रतिमान का सवाल और रचना प्रक्रिया में इन तीनों महिला कहानीकारों की रचना प्रक्रिया तथा समय के साथ उनके रिश्ते, कहानियों में चित्रित स्त्री-पुरूष संबंधों तथा उसे प्रस्तुत करने की चुनौतियों आदि पर विचार किया है। 

वहीं दूसरे खंड के अंतर्गत ‘उपन्यासों में जीवन’ नामक लेख में इन तीनों महिला कथाकारों के उपन्यासों पर चर्चा की है और बताया है कि तीनों लेखिकाओं के अधिकांश उपन्यास स्त्री जीवन पर केन्द्रित हैं। स्त्री जीवन की यथार्थ घटनाओं को इन तीनों महिला उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। वहीं आगे ‘स्त्री जीवन : अपनी-अपनी नजर’ नामक लेख में निर्मला जैन ने इन तीनों महिला कथाकारों के उपन्यासों, उसकी विषय-वस्तु तथा उसकी अनुभूति की प्रामाणिकता पर बात की है। कृष्णा सोबती कृत ‘जिंदगीनामा’ के बारे में वे कहती हैं - “जिंदगीनामा सिर्फ़ सफ़ेद पोश समाज की दास्तान नहीं है। उसमें एक भू-खंड का समाज अपनी समग्रता में सबरंग विद्यमान है। इसलिए उसकी भाषा समय के एक खास दौर की जिन्दगी की बोलती धड़कती भाषा है। अपनी समूची लय, मुहावरेदानी और ज़िंदा शब्दावली के साथ सबरंग भाषा।”8 यहाँ निर्मला जैन द्वारा किया जाने वाला भाषिक विवेचन अपनी सम्पूर्णता में सामने आता है। ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ नामक अपनी एक स्वतंत्र लेख में बताया कि “यह उपन्यास की तात्कालिक लोकप्रियता का कारण उसका कथानक था, जो मध्यवर्ग की एक ऐसी शिक्षित युवती के चरित्र पर केन्द्रित है जो दिल्ली के एक महाविद्यालय में प्राध्यापिका है और यह उषा प्रियंवदा के निजी जीवन का सच था।”9  अतः कहा जा सकता है कि यह उपन्यास मध्यवर्गीय शिक्षित युवती के चरित्र को केंद्र में रखकर लिखी गयी है। वे आगे कहती हैं - “पचपन खम्भे इन तथाकथित प्रबुद्ध प्रगतिशील महिलाओं से घिरी, कहने के लिए आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर शिक्षित महिला की कहानी है जो हर निर्णायक क्षण में अपने लिए स्वैच्छिक जीवन का चयन करने का साहस जुटा नहीं पाती।”10 निर्मला जैन का मानना है कि व्यक्तियों और स्थितियों को अक्सर जैसे एक फ्रेम में प्रस्तुत करती है। रूप-रंग, हाव-भाव, चारों ओर के वातावरण के दृश्य पटल पर लगभग एक रील की तरह संचारित होते चलते हैं। उनके उपन्यासों की विशेषता है कि अपने चारों तरफ के जीवन से एक पक्ष की गहन पकड़ है। वे कथावस्तु को बड़े ही कौशल के साथ अनुभूति में समेट लेती हैं। ‘आपका बंटी’ उपन्यास के बारे में निर्मला जैन की सोच दूसरे समीक्षकों से थोड़ी अलग है क्योंकि निर्मला जैन यह मानती हैं कि आपका बंटी उपन्यास केवल बंटी के ऊपर केन्द्रित नहीं है, उससे भी अधिक कहीं कुछ और है जो गहरे वैचारिक स्तर पर प्रभावित करता है परन्तु सहसा पकड़ में नहीं आता। इस कुहासे को हटाते हुए वे लिखती हैं - “बंटी केवल उसका बेटा ही नहीं, बल्कि वह हथियार भी हो जाता है जिससे वह अजय को टॉर्चर कर सकती है, करेगी ।”11  अर्थात् बंटी से न मिल पाने के कारण अजय को जो यातना होगी, उसकी कल्पना मात्र से ही शकुन को एक क्रूर-सा संतोष मिलता है। उपन्यास में शकुन का पूरा जीवन इसी एक लक्ष्य से नियंत्रित होता है। 

निर्मला जैन ने इस पुस्तक के माध्यम से तीनों लेखिकाओं की रचना-प्रक्रिया को न केवल समझाने का प्रयास किया है बल्कि उनके पाठ की बनावट और कृतियों के वैशिष्ट्य को उभारने का प्रयास भी किया है। तत्पश्चात तीनों रचनाकारों के सामर्थ्य और सीमा को कुशलता के साथ दर्शाया है। तीनों लेखिकाओं की समीक्षा करते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया है कि ‘कमोबेश राजनीतिक सन्दर्भ की अनुपस्थिति सब में है कृष्णा और मन्नू की कहानियों में राजनीतिक वातावरण जहाँ कहीं-कहीं देखने को मिलता है वहीं पर उषा प्रियंवदा की कहानियों में राजनीतिक परिदृश्य लगभग गायब है।’ इस पुस्तक के माध्यम से निर्मला जैन ने तीनों लेखिकाओं की तुलना अपने ढंग से प्रस्तुत की है। पहले उन्होंने तीनों लेखिकाओं में समानता की बात कही और जहाँ उन्हें लगा कि तीनों लेखिकाएँ एक-दूसरे से भिन्न है, वहाँ उन्होंने तीनों में विविधता दर्शाया है, जैसे- “इन तीनों में एक बात समान है विषयवस्तु की विविधता। संख्या में कम कहानियाँ लिखने पर भी यह विविधता और ज्यादा कहानियाँ लिखने पर भी उषा प्रियंवदा में सबसे कम। कृष्णा जी मन्नू और उषा की तुलना में कहीं अधिक समय सजग भी हैं। देश-काल का विस्तार भी उनकी कहानियों में अपेक्षाकृत अधिक है।”12  निर्मला जैन ने तीनों रचाकारों की रचना प्रक्रिया के बारे में अपना मत दी है जिसके अनुसार मन्नू भंडारी की रचना-प्रक्रिया में सहज पारदर्शिता है, वहीं उषा प्रियंवदा की रचनाओं में ललित प्रांजलता है। दूसरी तरफ कृष्णा सोबती को वो बहुमुखी प्राणवत्ता के रूप में स्वीकार करती हैं। कुल मिलाकर दोनों पुस्तकें अपने विजन को विषय-वस्तु की दृष्टि से स्पष्टतः दर्शाने में उपयोगी हैं। 


सहायक ग्रन्थ सूची :- 
  1. निर्मला जैन, कथाप्रसंग : यथाप्रसंग, पृष्ठ- 17, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2000 
  2. वही, पृष्ठ- 17
  3. वही, पृष्ठ- 19-20
  4. वही, पृष्ठ- 44
  5. वही, पृष्ठ- 43
  6. वही, पृष्ठ- 56
  7. वही, पृष्ठ- 67
  8. निर्मला जैन, कथा-समय में तीन हमसफ़र, पृष्ठ-195, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण – 2011
  9. निर्मला जैन, लेख - अपने में संपृक्त : पचपन खम्भे लाल दीवारें, पृष्ठ-45, हंस, जून-2011
  10. वही, पृष्ठ- 47
  11. निर्मला जैन, कथा-समय में तीन हमसफ़र, पृष्ठ-174, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण- 2011
  12. वही, पृष्ठ- 60


विशाल कुमार सिंह
शोधार्थी, हिंदी विभाग 
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद - 500 007 
सम्पर्क: vishalhcu@gmail.com,9441376867

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