त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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शोधमाला:महादेवी के काव्य का सौंदर्यशास्त्रीय मूल्यांकन – डॉ.योगेश राव
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे |
इस सन्दर्भ में विद्वान समीक्षक डा. गणपतिचन्द्र गुप्त लिखते हैं- “सौन्दर्य-शास्त्र का मूल प्रश्न है- सौन्दर्य क्या है? इसके उत्तर को ध्यान में रखते हुए अनेक सिद्धान्त स्थापित हुए हैं जिन्हें हम मुख्यतः तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं- 1.वस्तुवादी 2.रूपवादी 3.समन्वयवादी। जहाँ वस्तुवादी कलागत सौन्दर्य का आधार कला की विषय-वस्तु के विशिष्ट तत्व को मानते हैं वहीं रूपवादी कला के किसी रूप-विशेष में ही सौन्दर्य की सत्ता स्वीकृत करते हैं, जबकि समन्वयवादी वस्तु एवं रूप के सामंजस्य पर बल देते हैं। वस्तुवादी वर्ग के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सिद्धांत प्रचलित हैं जो अनुकृति औदात्य, भावात्मकता, नैतिकता, उपयोगिता आदि गुणों पर बल देते हुए इनमें से किसी एक को ही कला का सर्वस्व मानते हैं। पर स्थूल दृष्टि से इन सब तत्वों को दो प्रमुख तत्वों के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है- 1.सौन्दर्य 2.औदात्य। वस्तुतः कला की विषय-वस्तु में जो भी आकर्षण होगा वह इन दोनों में से किसी एक की प्रधानता के कारण होगा; इसलिए सौन्दर्य और औदात्य पाश्चात्य सौन्दर्य-शास्त्र के अत्यंत विशिष्ट सिद्धान्त हैं जिनकी विवेचना शताब्दियों से होती रही है। जो प्राचीन तथा आधुनिक युग के विद्वानों द्वारा मान्यता प्राप्त सिद्धान्त हैं।“1
महादेवी के काव्य पर औदात्य सिद्धान्त अक्षरशः लागू होता है तथा इनके काव्य का मूल्यांकन इन्हीं सौन्दर्य-शास्त्रीय तत्वों के आधार पर किया जा सकता है। औदात्य की स्थापना प्रथम शती के लगभग ग्रीक विचारक लोंजाइनस द्वारा हो चुकी थी उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ On the sublime औदात्य तत्व की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की है। औदात्य के स्वरूप का परिचय देते हुए उन्होने लिखा है- “उदात्त अभिव्यंजना का अनिर्वचनीय प्रकर्ष और वैशिष्ट्य है। यही वह साधन है जिसकी सहायता से महान कवियों और इतिहासकारों ने ख्याति और कीर्ति अर्जित की है। औदात्य का प्रभाव श्रोताओं के अनुनयन में नहीं अपितु सम्मोहन में दृष्टिगत होता है। जो केवल हमारा अनुनय या मनोरंजन करता है उसकी अपेक्षा वह निश्चय ही वह अधिक श्रेष्ठ है जो हमें विस्मित कर सर्वदा और सर्वथा सम्मोहित कर लेता है। अनुनय हमारे अधिकार की चीज है अर्थात अनुनीत होना या न होना हमारे हाथ में है किन्तु औदात्य तो प्रत्येक श्रोता और पाठक को अप्रतिरोध्य शक्ति से प्रभावित कर अपने वश में कर लेता है। सर्जनात्मक कौशल और वस्तु विन्यास पूरी रचना में आद्यन्त वर्तमान रहते हैं और क्रमशः शनैः शनैः उभरते हैं, किन्तु बिजली की कौंध की तरह सही समय पर औदात्य की एक कौंध पूरे विषय को उद्भभाषित कर देती है।“2
अतः औदात्य का स्रष्टा तो उदात्त वयक्तित्व ही हो सकता है। एक महान् प्रतिभाशाली, उच्च विद्वान एवं यशस्वी चरित्रवान व्यक्ति ही उदात्त का उद्घोषक हो सकता है। पुनः लोंजाइनस के शब्दों में – “Sublimity is, so to say, the image of greatness of soul.. true eloquence can be found only in those whose spirit is generous and aspiring. For those whose whole lives are wasted in paltry any illiberal thoughts and habits cannot possibly produce any work worthy of the lasting reverence of mankind. It is only natural that their words be full of sublimity whose thoughts are full of majesty.”3
अर्थात् ‘औदात्य आत्मा की महानता का प्रतिबिम्ब है।....सच्चा औदात्य केवल उन्हीं में प्राप्य है जिनकी चेतना उदात्त एवं विकासोन्मुख है। जिनका सारा जीवन तुच्छ एवं संकीर्ण विचारों के अनुसरण में व्यतीत होता है, वे सम्भवतः कभी भी मानवता के लिए कोई स्थायी महत्व की रचना प्रस्तुत करने में सफल नहीं होते। यह सर्वथा स्वभाविक है कि जिनके मस्तिष्क उदात्त धारणाओं से परिपूर्ण है; उन्हीं की वाणी से उदात्त शब्द झंकृत हो सकते हैं।
इस प्रकार औदात्य का सम्बन्ध केवल प्रतिभा, केवल अध्ययन और केवल भाषाभ्यास से नहीं, अपितु व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व से है। औदात्य के विभिन्न तत्वों की व्याख्या करते हुए उन्होंने उसके पाँच स्रोतों की विवेचना की है ये पाँच स्रोत क्रमशः ये हैं- 1.महान व्यक्तित्व 2.उदात्त विचार 3.उदात्त अलंकार नियोजन 4.उत्कृष्ट भाषा 5.गरिमामय शिल्प-विधान। इस संदर्भ में डा0 गणपति चन्द्र गुप्त का कथन दृष्टव्य है- “आधुनिक युग के अनेक दार्शनिकों एवं सौन्दर्य- विवेचकों में औदात्य की अपेक्षाकृत संतुलित विवेचना की है जिनमें कान्ट, हीगल, ब्रेडले, सैंतायना, कैरिट्ट आदि के नाम उल्लेखनीय है। कान्ट ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘क्रिटिक ऑफ जजमेन्ट’ में सौन्दर्य और औदात्य की तुलना करते हुए दोनों के स्वरूप की विभिन्नताओं का स्पष्टीकरण भली-भाँति किया है। उनके अनुसार जहाँ सौन्दर्य का सम्बन्ध वस्तु के रूप पक्ष से है वहाँ औदात्य का उसके गुण से है; सौन्दर्य अनुभूति का विषय है जबकि औदात्य बोध से सम्बन्धित है, सौन्दर्य रागमूलक है, औदात्य विरागमूलक है, सौन्दर्य प्रवृत्ति मूलक है, औदात्य निवृत्त-मूलक है। अस्तु, औदात्य की अनुभूति महान, विराट, भयानक, कुरूप, वीभत्स एवं करूण दृश्यों से संभव है। दूसरे शब्दों में औदात्य की आधारभूत वस्तु विराग मूलक होती है किन्तु उसका सम्बन्ध किसी महान विचार या विशेष परिस्थिति से होने के कारण ही वह मन को अभिभूत कर लेती है।“4
महादेवी के काव्य में औदात्य का विशलेषण करते हुए उनके काव्य की मूल भावनाओं को ध्यान रखना होगा जो मुख्यतः तीन है- (1) अलौकिक प्रणय या रहस्यानुभूति, (2) करूणा, (3) निर्वेद। ये तीनों ही भाव औदात्यमूलक है। महादेवी का प्रणय किसी लौकिक व्यक्ति के प्रति न होकर अलौकिक ब्रह्म के प्रति है जो कि एक स्थूल वस्तु न होकर सूक्ष्म विचार-रूप में स्थित है। उनका निर्गुण ब्रह्म इन्द्रियानुभूति का विषय न होकर तत्व बोध का विषय है, यह अलग बात है कि महादेवी ने उसे कलात्मक रूप प्रदान करते समय कहीं-कहीं उसका मानवीकरण कर लिया है पर फिर भी उनके प्रणय का आलंबन स्थूल रूप-सौन्दर्य न होकर सूक्ष्म विचार एवं विश्वास है।
यद्यपि कवयित्री ने अपनी रहस्यानुभूति को लौकिक शब्दावली में व्यक्त करने के लिए उसे लौकिक प्रेम का ही रूप प्रदान किया है पर फिर भी ऐन्द्रियकता, वासना एवं चंचल भावनाओं का उद्वेलन उसमें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता, उनकी अनुभूति को यदि हम लौकिक प्रेम के अनुरूप मान लें तो उनका प्रेम अत्यंत उदात्त प्रेम सिद्ध होगा क्योंकि उस प्रेम में आत्मत्याग बलिदान एवं आत्मिक मिलन की ही भावना है। वह प्रारम्भ से अंत तक सर्वत्र ही मन की उज्जवल, उदात्त एवं पवित्र भावनाओं पर ही आधारित है। यहां पर उनके प्रथम दर्शन की घटना को देखा जा सकता हैः
झटक जाता था पागल वात
धूलि में तुहिन-कणों के हार,
सिखाने जीवन का संगीत
तभी तुम आये थे इस पार!
भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,
तुम्हें तब आता था करूणेश!
उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!
यहां प्रियतम का आगमन जिन परिस्थितियों में लक्षित होता है, वे वासनापूर्ण न होकर सहानुभूतिजनक हैं। किन्तु आराध्य का व्यवहार भी कितना उच्च एवं महान है। जो इतने उदार एवं शान्त तथा करूण हैं कि उनकी प्रत्येक भूल पर उनके मन में और अधिक प्यार उमड़ आता है।कवयित्री का प्रियतम सामान्य व्यक्ति न होकर एक ऐसी महान् सत्ता है जिसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में महानता है, उदात्तता है! इसलिए प्रेयसी युगों-युगों तक उसके निर्देशानुसार साधना करने के अनन्तर अपनी असमर्थता एवं असफलता इन शब्दों में ही स्वीकर कर लेती हैः
गये तबसे कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण,
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान!
नहीं अब गाया जाता देव!
थकी अंगुली है ढीले तार,
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला ले यह अस्फुट झंकार!
यहां युगों-युगों तक की गई साधना के असफलता को स्वीकार किया गया है पर फिर भी साधिका के मन में किसी प्रकार का क्षोभ या शोक नहीं है, वह अपनी असमर्थता स्वीकार करते हुए कोई ग्लानि या पश्चाताप नहीं करती है, वह अपनी विफल कामना के लिए उत्तरदायी आराध्य पर न कोई आक्षेप या व्यंग्य करती है न ही इसे कोई उलाहना देती है, अपितु अत्यंत कोमल एवं विनम्र स्वर में अपना लेने का विरोध करती है। वस्तुतः यह सारा प्रसंग एक अत्यंत उदात्त एवं पवित्र भावना पर आश्रित है इसलिए इसकी गंभीरता लगातार बनी रहती है।
प्रणय की भांति महादेवी की करूणा और निर्वेद की भावना भी औदात्य की उच्च भूमि पर अवस्थित है। एक मुरझाये फूल को देखकर उनके हृदय में करूणा का प्रवाह उमड़ पड़ता है:
कर दिया मधु और सौरभ
दान सारा एक दिन,
किन्तु रोता कौन है,
तेरे लिए दानी सुमन?
फूल की आत्मत्याग की प्रशंसा प्रशंसनीय हैः
विश्व में हे फूल! तुम
सबके हृदय भाता रहा!
दान का सर्वस्व फिर भी-
हाय हर्षाता रहा!
पुष्प के माध्यम से परोपकार, आत्मत्याग एवं बलिदान के उच्च आदर्शों को चरितार्थ किया गया है। अस्तु, कवयित्री का करूण भाव अंततः उच्च आदर्श, महान प्रेरणा एवं सूक्ष्म तत्व बोध में फलीभूत होता हुआ औदात्य से परिपूर्ण हो जाता है।
इसी प्रकार ऐसा निर्वेद जो कायरता पूर्ण पलायनवाद से भिन्न हो, उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य से प्रेरित एवं महान आदर्शों की ओर उन्मुख हो- औदात्य का ही एक रूप है। जहाँ सामान्य व्यक्ति अधिक से अधिक सुख या इन्द्रिय-सुख की कामना करता है वही निर्वेद भावना से युक्त व्यक्ति दुःख की कामना करता है क्योंकि इसी से मन की पवित्रता व सात्विकता का संचार हो सकता है। इसीलिए महादेवी ने भी अपने काव्यकृतियों में दुःख और सुख में से दुःख की महत्ता स्वीकार किया। जो बुद्ध के दार्शनिक सिद्धांतो पर आधारित है। महादेवी के शब्दों मेः
उसमें मर्म छिपा जीवन का,
एक तार अगणित कंपन का,
एक सूत्र सबके बंधन का,
संसृति के सूने पृष्ठों में करूण काव्य वह लिखा जाता!
वह उर में आता बन पाहुन,
कहता मन से ’अब न कृपण बन’,
मानस की निधिया लेता गिन,
दृग-द्वारों को खोल विश्व-भिक्षुक पर हंस बरसा आता!
दुःख की महान सत्ता के कारण कवयित्री प्रिय के सुखद उपहार स्वर्ग को भी तिरस्कृत कर देती है क्योंकि वहां दुःख जैसे तत्व का सर्वथा अभाव हैः
ऐसा तेरा लोक वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद !
अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करूणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार !
इन पंक्तियों में कवयित्री केवल मिटने का अधिकार सुरक्षित रखने के लिए ही स्वर्ग को त्याग देती है; क्योंकि उसकी दृष्टि में मिटने का महत्व सर्वाधिक है। वस्तुतः कवयित्री के अनुसार जीवन का लक्ष्य ही अपने को मिटा देना है, स्वयं को मिटाकर ही वह अपने महान आदर्शों को पूर्ण कर सकती है इसीलिए उसने प्रतिपादित करते हुए लिखा हैः
स्निग्धि अपना जीवन का क्षार,
दीप करता आलोक-प्रसार,
गलाकर मृतपिंडो में प्राण,
बीज करता असंख्य निर्माण।
सृष्टि का है यह अमिट विधान
एक मिटने में सौ वरदान,
नष्ट कब अणु का हुआ प्रयास
विफलता में है पूर्ति-विकास!
महादेवी का यह अमर संदेश है- ‘एक मिटने में सौ वरदान!’ यह संदेश उनके काव्य में सर्वत्र रूप से मुखरित, व्याप्त एवं ध्वनित है ! प्रसंग एवं भावनाएं अलग-अलग हो सकती है, पर सबका मूल आधार एक ही है। प्रणय के क्षेत्र में वे मिट जाना चाहती हैं क्योंकि उनका यह अगाध विश्वास है कि जीवन दीप को जलाकर ही प्रियतम के समीप्य जाने का अवसर प्राप्त होता है, करूणा के क्षेत्र में भी वे दूसरों के लिए किसी एक के मिटने की ही बात देखती है तथा उसे आदर्श मानती है तथा निर्वेद का क्षेत्र तो अपने आप में निर्वृति, बलिदान आत्मत्याग का क्षेत्र है; अत वह स्वयं ही मिटने का पर्याय मानती है। उनकी कविता के बारे में डा0 रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है- “महादेवी वर्मा अपने गीतों में देवी के रूप में नहीं, एक मानवी के रूप में दर्शन देती है। वे अपने भाव व्यंजना में इस धरती पर काम करने वाली मनुष्य नामक प्राणी ही नहीं है, वरन् उसका एक भेद नारी भी है। उनका नारीत्व सामाजिक सीमाओं के अन्दर विकास के लिए पंख फड़फड़ाता है उसकी यह व्याकुलता अनेक सांकेतिक रूपों में उनकी कविता में प्रकट होता है।“5
महादेवी वर्मा न केवल भारतीय स्त्री जीवन के अनुभवों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने वाली कलाकार है अपितु महादेवी के काव्यों में प्रसंग की भिन्नता, भावों की विभिन्नता एवं कल्पनाशीलता के होते हुए भी उसका मूल स्रोत आत्मत्याग का वह उच्च भाव ही है जिसे उदात्त भाव का सर्वोत्कृष्ट रूप कहा जाता है। निष्कर्षतः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महादेवी का काव्य औदात्य का विशिष्टतम उदाहरण है।
रूपवादी दृष्टिकोण से महादेवी के काव्य प्रतीकात्मकता से परिपूर्ण है। रूप सम्बन्धी अनेक सिद्धांतो में क्रमबद्धता, अनुपात, संतुलन, वक्रता, अलंकरण, प्रतीकात्मकता आदि प्रमुख स्थापनायें हैं। इसमें प्रतीक सिद्धांत ही ऐसा सिद्धांत है जो महादेवी के काव्य पर पूर्णतया लागू होता है। प्रतीकात्मकता का मूल्य उद्देश्य अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत को व्यक्त करना होता है इससे कला में गंभीरता, चमत्कारिता, सूक्ष्मता एवं विचित्रता का आविर्भाव हो जाता है। आधुनिक कला-समीक्षक आर. जी. कॉलिंगवुड ने प्रतीकात्मकता की व्याख्या करते हुए लिखा है- “प्रतीकात्मकता में भाव और विचार संयुक्त हो जाते हैं।“6
महादेवी की अनुभूति आध्यात्मिक है, पर अभिव्यक्ति लौकिक है। अतः लौकिक प्रतीकों के माध्यम से अलौकिक अनुभूति को व्यक्त किया गया है, अतः प्रतीकों की काव्य योजना सहज रूप से उनके काव्य में परिलक्षित होती दिखाई देती है।समन्वयवादी दृष्टिकोण में समन्वयवादी विचारक कला में न तो विषय को ही प्रमुखता देते हैं और न ही रूप को अपितु दोनों के सामंजस्य पर बल देते हुए समन्विति (Harmony) को ही कला की आत्मा मानते हैं समन्विति को कला-दर्शन की सभी युगों में सौन्दर्य के पर्याय तथा कलाकार के लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है । वस्तुतः औचित्य, क्रम , सामंजस्य, समानुपात तथा संतुलन इसके विभिन्न अंग है।
महादेवी का विषय जहां उदात्त है वहाँ शैली प्रतीकात्मक तथा उनके काव्य में आत्मानुभूति की प्रधानता है, पर उनकी आत्मानुभूति वस्तु के स्थान पर विचार-तत्व पर आधारित है। इस प्रकार भाव और विचार मिश्रित प्रतीकात्मकता उनके काव्य के लिए सर्वाधिक अनुकूल सिद्ध होती है, उन्होंने गीति को अपनाकर समन्विति के नियमो का अक्षरशः अनुपालन किया है।
सौन्दर्य-शास्त्र के वस्तु-वादी, रूपवादी एवं समन्वयवादी तीनों दृष्टियों से विचार करने के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि उनका काव्य औदात्य का आदर्श रूप प्रस्तुत करता है, प्रतीकात्मकता, का विशिष्ट आयोजन तथा वस्तु और रूप के पारस्परिक सामंजस्य को व्याख्यायित करता है; निष्कर्षतः सौन्दर्य-शास्त्र के तीनों सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाधिक मान्य मानदण्डों की कसौटी पर महादेवी का काव्य ‘निहार’ से लेकर ‘यामा’ तक उच्चकोटि का सिद्ध होता है इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता।
सन्दर्भः
- महादेवीः नया मूल्यांकन- डा0 गणपतिचन्द्र गुप्त, पृष्ठः 313
- लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करणः 2008
- पाश्चात्य काव्यशास्त्रः डा0 विजयपाल सिंह, पृष्ठः 69-70
- जयभारती प्रकाशन इलाहाबाद, प्रथम संस्करणः 1999
- भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्तः डा0 गणपतिचन्द्र गुप्त, पृष्ठः189 लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करणः 2007
- महादेवीः नया मूल्यांकन- डा0 गणपतिचन्द्र गुप्त, पृष्ठः 315
- लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करणः2008
- ‘श्रृंखला की कड़ियां’ और मुक्ति की राहें- मैनेजर पाण्डेय, तद्भव, अंक- 25, मार्च- 2012, पृष्ठः84
- 18/201, इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016, उत्तर प्रदेश
- The principles of Art : R. G. colling wood, 21
डॉ.योगेशराव
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