त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
किसान जीवन के
संघर्षों की त्रिवेणी/ इन्द्रदेव शर्मा
साहित्य समाज को देखने का एक अच्छा जरिया है।
जिस समय प्रेमचन्द ‘गोदान’ और ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास लिख रहे थे उस समय
भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहा था। किसान सामन्ती और जमींदारी तथा महाजनी
जैसी कुव्यवस्थाओं से जूझ रहा था। समाज में घटित होने वाली घटनाओं का प्रभाव लेखक
पर पड़ना स्वाभाविक था। आम तौर पर प्रेमचन्द को किसानों का कथाकार कहा जाता है और
गोदान भारतीय किसानों के जीवन का महाकाव्य। हिंदी साहित्य में औपन्यासिक क्षेत्र
में पहली बार ऐसा हुआ था जब प्रेमचन्द ने किसी किसान को नायक बनाकर उपन्यास लिखा
तथा किसानों की दयनीय स्थिति को हू-ब-हू अभिव्यक्क्त किया है। खैर जो भी हो
किसानों के प्रति हो रहे अन्याय, शोषण, सूदखोरों द्वारा बेरहमी में इन पर किया गया
अत्याचार और किसान किस तरह अपने ही खेतों में मजदूर बन जाता है इन सभी का चित्रण
प्रेमचन्द से ही प्रारम्भ होता है।
आज का भारत प्रेमचन्द के भारत से काफी बदला है।
मनुष्य अब उतना और वैसा सामाजिक नहीं रहा जैसा पहले था। समाज में आये इन
परिवर्तनों का असर उपन्यासकारों के लेखन में भी दिखाई देता है। नब्बे दशक में भारत
सरकार द्वारा लागू की गई ‘नई आर्थिक नीति’(1991) अर्थशास्त्रियों के अनुसार
भारतीय समाज के निम्न तबके से उच्च तबकों तक एक परिवर्तन दिखाई दिया और किसानों के
जीवन शैली में भी कुछ बदलाव दिखाई दिया। एक वैश्विक ग्राम या बाजारवाद का प्रभाव
समाज में दिखाई दे रहा है। इसी समय उदारवाद और नव-उदारवाद का दौर आरम्भ होता है और
किस तरह साहित्य लेखन में भी एक नई शैली पनपती है। कार्पोरेट कंपनियों का लगातार
विस्तार हो रहा है। किसानों के उपजाऊ जमीनों को पूंजीपतियों द्वारा अपार्टमेन्ट
में बदला जा रहा है।
सामाजिक व्यवस्था, सभ्यता और संस्कृति के
संबर्धन और विकास के लिए अर्थ(रूपया) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत कृषि
प्रधान देश माना जाता है। आज भी सत्तर फीसदी लोग जीवन यापन के लिए कृषि को आधार
बनाया है। समय की मांग के अनुसार कृषि के उत्पादन में परिवर्तन होना लाजमी है।
इग्लैंड से भारत तक का औद्योगिक क्रांति का सफ़र और भारत में हरित क्रांति होने से
कृषि उत्पादन में काफी बदलाव आया है परन्तु किसान किसी न किसी रूप से शोषित और
प्रताड़ित रहा है। जिसकी अभिव्यक्ति उपन्यासकारों ने की है। किसानों के संघर्षमय
जीवन को केन्द्रीय बिंदु बनाकर प्रेमचन्द से कथाकार संजीव और पंकज सुबीर तक एक
लम्बी परम्परा रही है।
प्रेमचन्द के ‘गोदान’ और ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास के बाद भगवानदास मोरवाल (नरक मसीहा), राजू शर्मा (हलफनामा), जगदीश गुप्त(कभी न छोड़े खेत), विवेकी राय(सोना माटी)
कमलाकांत त्रिपाठी(बेदखल) तथा काशीनाथ सिंह (रेहन पर रग्घू), संजीव (फ़ांस) और पंकज सुबीर
का ‘अकाल में उत्सव’। इन उपन्यासकारों ने
सामन्ती व्यवस्था, महजनी सभ्यता, जमींदारी प्रथा, जमीन चकबंदी, जमीन से बेदखली, भूमिहीन होना तथा बाजारवाद
का साधारण किसानों की चकाचौंध से बदलती संस्कृति, सरकारी बैंको में कर्ज अदायगी न करने की समस्या
तथा किसान आत्महत्या इन सारी समस्याओं को लेखक अपने-अपने तरीके से अभिव्यक्ति दी
है। किसान जीवन पर आधारित सभी उपन्यासों का चित्रण करना तो संभव नहीं है फिर भी
कुछ प्रमुख उपन्यासों में अभिव्यक्त कृषकों की सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक स्थिति
तथा दयनीय और भयावह स्थिति को दिखाया जा रहा है। गोदान महाकव्य का नायक ‘होरी’ है जो खेतों में जीतोड़ मेहनत
करने के बाद भी अपने परिवार वालों का भरण-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाता है। भारतीय
समाज में व्याप्त सामंती और सूदखोरी जैसी कुव्यवस्थाओं का शिकार ‘होरी’ होता है। नजराना देने के बाद
भी जब होरी रायसाहब के यहाँ बेगार करने जाता है तो मुन्नी कड़े शब्दों में विरोध
करती है। फिर भी सामाजिक परंपरा में बंधा होरी उसकी एक नहीं मनाता। अंततः होरी
अपने खेतों में काम करते- करते प्राण त्याग देता है। ऐसी स्थिति केवल एक होरी की
ही नहीं है बल्कि कई होरी इस समाज में कर्ज भरा जीवन जी रहें है। गोदान उपन्यास
किसान जीवन के अंदरूनी तह को परत-दर-परत खोलता है। किसानों से लगान इतना अधिक लिया
जाता था कि इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –
अहा
विचारे दुःख के मरे निसिदिन पच पच मरे किसान।
जब
अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवा ले जाय लगान।। --- बालमुकुन्द गुप्त
‘फाँस’ उपन्यास कथाकार संजीव द्वारा लिखित है जो
महाराष्ट्र राज्य के विदर्भ क्षेत्र में निवास करने वाले किसानों के जीवन तथा उनके
जीवन में आने वाली तमाम विनाशकारी समस्याओं पर आधारित है। यह उपन्यास सबका पेट
भरने वाले और तन ढकने वाले देश के लाखों किसानों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या पर केन्द्रित
है। यह कहा जाता रहा है कि भारत किसानों का देश है और भारत की आत्मा गांवों में
निवास करती
है। यहाँ आधे से अधिक जनता कृषि पर निर्भर रहती है। विगत कुछ दशकों
से इस देश में किसान आत्महत्या तेजी से हो रही है। परिस्थितिवस किसान लगातार
आत्महत्या कर रहे हैं। जिस त्रिवेणी कि मै बात करना चाहता हूँ। उसमे तीन उपन्यास-
गोदान, फ़ांस और अकाल में उत्सव.
तीनों उपन्यास आत्महत्या पर केन्द्रित है।
बहरहाल यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कथाकार
संजीव का यह उपन्यास भारतीय कृषक समस्या की दारुण दशा पर केन्द्रित है। ‘फाँस’ उपन्यास के माध्यम से संजीव
ने उन सभी पहलुओं को दिखाने की कोशिश करते हैं जिन पहलुओं से केवल विदर्भ का किसान
ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय किसानों को गुजरना पड़ रहा है। हमारे सामने सबसे बड़ा
प्रश्न यह है कि किसान लगातार आत्महत्या कर रहा है पिछले कुछ वर्षों से
सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में जितने लोग मारे गए हैं उनकी तुलना में आत्महत्या
करने वाले किसानों की संख्या कई गुना ज्यादा है। सरकार द्वारा कृषि नीति
बनाने और आत्महत्या जैसी भीषण समस्या को समूल ख़त्म करने के बजाय सिर्फ आर्थिक
पैकेज के दिखावटी टोटकों के सहारे आत्महत्या जैसी समस्या को जीवित रखते हुए कृषि
व्यवसाय को लगातार हाशिए पर ढकेला जा रहा है।
उपन्यास की कथावस्तु के शुरुआत महारष्ट्र के ‘यवतमाल’ जिले से होती है जो आधा वन
है और आधा गाँव, एक ओर देखो तो जंगल दिखाई
देता है दूसरी ओर पठार। वनगांव का चित्र संजीव इस तरह खीचते हैं- “भला कोई कह सकता है कि सुखाड़
के ठनठनाते यवतमाल जिले के इस पूरबी छोर पर ‘बनगाँव’ जैसा कोई गाँव भी होगा जो आधा वन होगा, आधा गाँव, आधा गीला होगा, आधा सूखा। स्कूल में लड़के के
साथ लड़कियाँ भी, जुए में भैस के साथ बैल भी।
जो भी होगा आधा-आधा।”1
संजीव के इस उपन्यास में एक किसान की बुनियादी
समस्याओं जैसे- बीज बोने से लेकर खाद-पानी तथा घर परिवार की आर्थिक समस्या या फिर
उत्पादित की गई फसलों को बेचने की जैसी समस्याओं को देखते हुए सहज ही प्रेमचन्द का
उपन्यास ‘गोदान’ के केन्द्रीय पात्र ‘होरी’ की आ जाती है। संजीव
प्रेमचन्द की लेखन परम्परा को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। जिस प्रकार ‘गोदान’ में प्रेमचन्द ‘होरी’ में माध्यम से भारतीय
किसानों की दयनीय स्थिति को दिखाया है उसी तरह ‘फाँस’ उपन्यास में संजीव ने ‘शिबू’ के माध्यम से किसानों की
बदहाली को दिखाया
है। फर्क इतना है कि होरी खेतों में काम करते-करते अपना प्राण त्याग
देता है अर्थात प्रेमचन्द के यहाँ संघर्ष दिखाई देता ह। वास्तव में प्रेमचंद ने
होरी को संघर्ष करते हुए प्राण त्यागते हुए दिखाते हैं पर सच्चाई कुछ और ही है वह
यह कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था का शिकार होकर होरी आत्महत्या करता है।
‘फाँस’ उपन्यास में किसान आर्थिक समस्याओं का सामना
करते-करते अंत में हताश और निराश होकर आत्महत्या कर लेता है। संजीव का यह उपन्यास
सामाजिक संरचना के तमाम जटिलताओं के बीच खेती किसानी की त्रासदी के हकीकतों को
परत-दर-परत भेदते हुए समस्या और विकास के नाम पर जारी उपक्रमों की समीक्षा करता है।
यह किसान जो कभी ‘भारत की आत्मा’ के नाम से जाना जाता रहा है
वही आज अपनी गरीबी भरी जिंदगी से टूटकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहा है। यह
आत्महत्या एक किसान की आत्महत्या नहीं है बल्कि यह किसानी संस्कृति की हत्या है।
उपन्यास में एक पात्र ‘शिबू’ जब समस्याओं का सामना नहीं
कर पाता और आत्महत्या कर लेता है तब उसके आत्महत्या को पात्र ठहराने के लिए
घरवालों को काफी मशक्कत करनी पड़ती है यदि सरकारी कर्मचारी, बिचौलियों, दलालों को कुछ नहीं मिलता तो
आत्महत्या, आत्महत्या नहीं ठहराते। अंत
में घरवालों को मुआवजा भी नहीं मिलता है।
कर्ज की जाल में फंस कर किसान आत्महत्या कर रहे
हैं। बहुचर्चित उपन्यास फाँस को पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है कि यह व्यवस्था किसानों के
साथ छल कर रही है। बड़े जमींदारों, काश्तकारों तथा साधारण किसान और माध्यम वर्ग के
किसानों का यही हाल है। महंगाई आकाश चूम रही है। पहले किसान फसल बोने के लिए अपने
घर में ही रखे बीज का प्रयोग करते थे। उत्पादन की वृद्धि के लिए नए-नए बीजों
प्रयोग तथा उर्वर शक्ति बढ़ाने के लिए नई-नई खादों जैसी सामग्री का प्रयोग किया
जाने लगा जिससे खेतों की उर्वर शक्ति धीरे-धीरे समाप्त होती गई। परस्थिति से मजबूर
किसान कर्ज के लिए बैंकों या ग्रामीण स्तर के सूदखोरों का मदद लेने लगा। फसल अच्छी
न होने से या सूखा, बाढ़ से किसान इन कर्ज को
चुका नहीं पाता था। दिन प्रतिदिन कर्ज बढ़ता जाता इन्हीं समस्याओं की मकड़जाल में
फंसकर किसान आत्महत्या कर रहा है।
विदेशी बीजों के प्रयोग से कर्ज तो बढ़ता ही था
साथ ही साथ जमीन की उर्वर शक्ति भी नष्ट होती रही। बी. टी. काटन और
सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों ने सबसे ज्यादा इस त्रासदी के शिकार हुए। कापूस
की खेती से परेशान होकर किसान इस प्रकार फसलों को बदलने की बात करते हैं- “कापूस में क्या है ? आत्महत्या ! हमने तो ताई
कापूस छोड़कर ऊस (ईख) की शेती (खेती) करने का निर्णय ले लिया है। आप बताओ सबको, सबका भला हो जाए। सिर्फ
बताया ही नहीं, उत्साह में उसे सरपंच के घर
तक लाकर ही दम लिया। सरपंच के यहाँ तीन धोतीधारी, दो पैंट वाले चाय-पानी कर रहे थे। बीस-एक
शेतकरी पहले से हाजिर थे।”
यह माना जाता है कि चीन दुनिया का सबसे
ज्यादा कपास उत्पादन करने वाला देश है। पूरे विश्व में होने वाले कपास उत्पादन का एक चौथाई भाग भारत के
हिस्से में आता है। विश्व पटल पर खासकर चीन की तुलना में कपास उत्पादन और किसानों
की बदहाली से संबंधित भारतीय आंकड़े चिंतनीय है। आखिर क्या कारण है कि इसी कपास की
खेती करने वाला चीन लगातार समृद्ध होता जाता है और भारतीय किसान लगातार आत्महत्या
करने पर मजबूर हो रहा है। कथाकार संजीव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस उपन्यास
में कहीं विखराव नहीं दिखाई देता है। ये सिर्फ किसान समस्या या उसकी विडम्बना की
ही बात नहीं करते बल्कि उसके समाधान का विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं।
उपन्यासों में किसान जीवन की अभिव्यक्ति की
अगली कड़ी में पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास है जो गाँव और किसानी संस्कृति का एक
बहुत ही बेहतरीन उपन्यास है। किस प्रकार किसान महाजनी, सामंती व्यवस्था सूदखोरी और
कर्ज के दलदल में फंसकर आत्महत्या करने पर विवश हो रहा है। पंकज
सुबीर के इस उपन्यास को पढ़ते समय प्रेमचन्द के उपन्यास गोदान और गबन की याद दिलाती
है। दरअसल प्रेमचन्द के समय में किसान के समक्ष जो समस्याएं थी चाहे वह ऋण
सम्बन्धी समस्याएँ हो या किसानों की बदहाली सम्बन्धी अन्य समस्याएँ हो उसी कड़ी या
परम्परा को उपन्यास जगत में आगे बढ़ाने का काम पंकज सुबीर ने किया है।
अकाल में उत्सव उपन्यास का शीर्षक जैसे ही
मैंने देखा कुछ अजीब-सा लगा। पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि एक तरफ सरकारी फंड को सही
समय में उपयोग करने के लिए सरकारी प्यादों द्वारा उत्सव मनाया जा रहा है और वहीं
दूसरी तरफ ‘सूखापानी’ नामक गाँव के किसान
आत्महत्या कर रहा है। इस उपन्यास में चित्रित गाँव ‘सूखापानी’ का एक अजीब नाम है। यानी किसान की फसल को
अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही स्थिति में नुकसान है। किसान जीवन सम्बन्धी
समस्याओं का केन्द्रीय बिंदु बनाकर यद्यपि कई उपन्यास लिखे गए। किसी उपन्यास में
जमीन बेदखली की समस्या तो किसी में कास्तकारों द्वारा किया जा रहा बेरहमी से शोषण। लेकिन
कर्ज जैसी समस्याओं के बेसुमार मार से आत्महत्या करते किसान पर मेरे संज्ञान में
अभी तक दो ही उपन्यास हैं एक है- कथाकार संजीव का उपन्यास ‘फांस’ और दूसरा पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’। इन
दोनों उपन्यासों में कर्ज जैसी समस्या को किसान परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ट्रांसफर
होता दिखाया गया है।
‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास की कथावस्तु ‘सूखापनी’ नामक गाँव से प्रारम्भ होती
है जो मध्य प्रदेश का एक आदिवासी गाँव है। इसकी कहानी दो एकड़ जमीन के जोत वाले
छोटे किसान रामप्रसाद के इर्द-गिर्द घूमती है। किसान खेतों में रात दिन जीतोड़
मेहनत करता है तभी तो फसलें भी अच्छी होती हैं परन्तु महाजन खलिहान पर ही फसल को
उठवा लेता है।
अंत में रामप्रसाद बैंक द्वारा लिया गया कर्ज के फर्जीवाड़े का शिकार
होता है। ऊपर से प्रकृति की मार से उसकी सारी फसल
बर्बाद हो जाती है। बैंक के कर्जे को सुनकर उसे ऐसा सदमा लगता है कि वह आत्महत्या
कर लेता है। और अंत में भ्रष्ट शासन तंत्र के चलते उसे पागल सिद्ध कर दिया जाता था।
पंकज सुबीर छोटे-छोटे वाक्यों में पूरा दृश्य
खड़ा कर देते हैं। “कमला की तोड़ी बिक गई, बिकनी ही थी, छोटे जोत किसान की पत्नी के
शारीर पर के जेवर क्रमशः घटने के लिए ही होते हैं। और हर घटाव का एक भौतिक अंत
शून्य से होता है, घटाव की प्रक्रिया शून्य
होने तक जारी रहती है।”3 इस अपार
दुःख में दाम्पत्य का विरल प्रसंग भी है जो बेहत मर्मस्पर्शी है। संवेदना और विचार
में संतुलन ‘अकाल में उत्सव’ की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
इस उपन्यास में प्रशासन की कथित चालाकियों को
बेपर्दा किया गया है।
शासन तंत्र इतना भ्रष्ट है कि किसानों के हित में सरकार द्वारा चलाई
गई योजना जिसके अंतर्गत किसान अपना ‘क्रेडिट कार्ड’ दिखाकर कृषिकार्य हेतु बैंक से लोन के रूप में
रूपया ले सकता है। समाज में फर्जीवाड़ा इतना हो रहा है कि बैंक अधिकारी और दलाल की
मिली भगत से गरीब और भोले भाले किसानों के नाम पर लोन ले लिया करते हैं।
अकाल में उत्सव उपन्यास की कथावस्तु दो खण्डों
में चलती है। एक तरफ मुख्यमंत्री के आदेशानुसार भव्य उत्सव के आयोजन की चर्चा हो
रही है तो दूसरी तरफ वर्षा, तूफ़ान और ओले पड़ने से
किसानों के नष्ट हुई फसल का दृश्य दिखाई दे रहा है। प्रशासनिक अधिकारियों को मंच
की सजावट की चिंता ज्यादा रहती है। भारत का अन्नदाता किसान
की कोई चिंता नहीं रहती है। वास्तव में यह उपन्यास किसानों के शोषण का रेशे-रेशे
को उधेड़ने वाला उपन्यास है जो यह जाहिर करता है कि किसानों की आत्महत्या के पीछे
केवल ओला वृष्टि, सूखा और प्रशासनिक निष्ठुरता
ही जवाबदार है।
इसके पीछे और भी कई कारण हैं जो साफ-साफ दिखाई नहीं देते हैं।
भारतीय किसानों का ह्रदय इतना सरल और निष्कपट
होता है कि वह मनुष्य तथा मानवेतर प्राणियों से भी भावनात्मक लगाव रखता है। ‘तोड़ी’ नामक आभूषण जिसे स्त्रियाँ
पैरों में पहनती हैं को आधार बनाकर लेखक ने किसानों का जो गहनों के प्रति परंपरागत
लगाव होता है उसे बड़े ही ह्रदयविदारक लहजे में अभिव्यक्त किया है। रामप्रसाद जब
तोड़ी बेचने महाजन के पास जाता है वहाँ का दृश्य उसे अपने पुरखों की बनी बनाई ईमारत
को ढहते दिखाई देता है। तोड़ी पिघल रही है ऐसा लग रहा है कि कोई पदार्थ नहीं बल्कि
रामप्रसाद का ह्रदय पिघल रहा है।
अकाल में उत्सव उपन्यास का
ताना बना मुहावरों और कहावतों से बुना गया है। इस उपन्यास को आलोचकों ने अपने अपने
तरीके से व्याख्यायित किया है। नासिरा शर्मा ने इसे ‘प्रेमचन्द का गाँव एक नई
भाषा शैली में फिर से जिन्दा हो उठा’ कहा है, महेश कटारे ने ‘भारतीय किसान के जीवन का शोकगीत’, डॉ. पुष्पा दुबे ने ‘कंपकंपाती लौ और थरथराते
धुंएँ की दुःख भरी कहानी’ कहा, ब्रजेश राजपूत ने ‘किसानों के दुःख दर्द का
बेचैन करने वाला किस्सा’ कहा, ओम शर्मा ने ‘आज के किसान की जिंदगी का
सच्चा दस्तावेज़ कहा। मेरे हिसाब से यह उपन्यास ‘किसान की बदकिस्मती का जीता जागता आईना’ है। ऐसा आईना जिसमें किसानों
की दयनीयता को देखा जा सकता है। एक बार फिर से पंकज सुबीर ने गंवाई जीवन शैली और
किसान आत्महत्या जैसे विषय को कथा साहित्य में पाठकों, आलोचकों और समीक्षकों को
सोचने पर मजबूर करता है।
निष्कर्ष- गोदान, फाँस और अकाल में उत्सव इन तीनों उपन्यास में
किसानों की संघर्ष की कारुणिक कहानी है किसी में किसान महाजनी या जमींदारी
व्यवस्था का शिकार है तो किसी में सरकारी बैंकों से लिया गया कर्ज का। कर्ज की
अदायगी न होने के कारण किसान आत्महत्या कर रहा है इन त्रासदियों की घटनाचक्र की
सम्पूर्ण सामजिक विडम्बनाओं के साथ शब्दबद्ध किया गया है। वह सिर्फ हमारी संवेदना
को झकझोरता ही नहीं बल्कि उपन्यास को एक कलात्मक ऊँचाई भी प्रदान करता है। देखा
जाय तो आज भी सामंती और पूंजीवादी संस्कृति की टकराहट में किसानी संस्कृति पिस रही
है। इसका इतना बड़ा दुष्परिणाम है यही है कि वर्तमान समय में किसान लाखों की संख्या
में आत्महत्या कर रहे हैं।
संदर्श
1. फाँस, संजीव, पृ. सं – 9
2. फाँस, संजीव, पृ. सं –
153
3. अकाल में उत्सव, पंकज सुबीर,
पृ. सं. 107
इन्द्रदेव शर्मा
शोधार्थी,केन्द्रीय
विश्वविद्यालय,हैदराबाद मो.7668904682
behatreen lekh 👍
जवाब देंहटाएंHlo sir🙏🙏
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें