त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
किसान आन्दोलन के अग्रणी नेता सहजानंद सरस्वती
किसान आन्दोलन के अग्रणी नेता सहजानंद सरस्वती
भारतीय किसान
आन्दोलन भारतीय जनमानस की आवाज थी। लेकिन इस किसान आन्दोलन को सफल बनाने में बहुत
से लोगों का हाथ रहा है। मुख्यतः यदि नाम लें तो उनमें स्वामी सहजानंद सरस्वती,
राहुल सांकृत्यायन, यदुनन्दन शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, कार्यानन्द शर्मा
जैसे वैचारिक एवं जमीनी स्तर से जुड़े हुए लोगों का हाथ था। जिन्होंने किसान
आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार की, जनमानस के बीच एक
वैचारिकी स्थापित की और किसान आन्दोलन को सुदृढ़ जमीन प्रदान की। लेकिन इन सबको एक
साथ लाने का दायित्व स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है। इसीलिए सहजानंद सरस्वती
किसान आन्दोलन के अग्रणी नेता थे। किसानों के नेता उस रूप में नहीं जिस रूप में आज
के नेता होते हैं या हैं। बल्कि उस रूप में जिस तरह किसान अपनी रोजमर्रा की
जिन्दगी जीता है उसी तरह से संघर्ष करते हुए। किसान जिस भाषा में बात करता है,
उस भाषा में बात करते हुए। ऐसे किसान नेता थे
सहजानंद सरस्वती। यह खूबी केवल सहजानंद सरस्वती में ही नहीं थी बल्कि उस दौरान के
सभी किसान नेताओं की थी। जिनमें राहुल सांकृत्यायन का नाम भुलाया नहीं जा सकता ।
सहजानंद सरस्वती के समकालीन किसान नेता रामवृक्ष बेनीपुरी ने स्वामी सहजानंद की
जीवन शैली के बारे में लिखा है कि “वह जनता का अपना
आदमी है। वह रहता है जनता के बीच, उसी की तरह । वह
बोलता है जनता की बात, उसी की वाणी में।”
रामवृक्ष बेनीपुरी ने आगे लिखा है “निस्संदेह, वह भारतीय किसान आन्दोलन का एकक्षत्र नेता है। उसे बादकर
दीजिए, अखिल भारतीय किसान सभा
बिना प्राण का शरीर मालूम पड़े। भारतीय किसानों की विद्रोह भावना का वह प्रतीक,
जिनकी ताकत पर उसे इतना विश्वास है कि यदि कभी
हम उसके मुंह से यह सुन लें कि अकेले किसान हिंदुस्तान में स्वराज्य स्थापित कर
सकता है, तो हमें आश्चर्य नहीं
होना चाहिए ।”
स्वामी सहजानंद सरस्वती की यह उपलब्धि
उनके जीवन संघर्ष की गाथा है। जिसे उन्होंने आम जनता के बीच रहकर प्राप्त की है।
जब हम यह बात करते हैं कि वे किसान आन्दोलन के नेता थे तो वह केवल बिहार के किसान
आन्दोलन के नेता ही नहीं थे बल्कि भारतीय किसान आन्दोलन के अग्रणी नेता थे। हालाकि
उन्होंने अपनी प्रारम्भिक कर्मभूमि के रूप में बिहार को चुना। सहजानंद ही वे पहले
व्यक्ति थे जिन्होंने सर्वप्रथम किसानों को संगठित कर इंदु लाल याज्ञिक तथा किसान
बन्धु आचार्य ए. जी. रंगा के सहयोग से अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया। यह कोई
साधारण बात नहीं थी। कारण यह कि उस समय किसानों और मजदूरों की बात करनेवाला कोई
नहीं था। बात यदि हो रही थी तो स्वराज की। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी की।
स्वामी सहजानंद ने स्वराज के साथ-साथ किसानों, मजदूरों की भी आजादी की बात की। इसके पीछे उनका बहुत बड़ा
ध्येय था। क्योंकि जो किसान-मजदूर कांग्रेस के साथ और सहजानंद सरस्वती और उनके
साथियों के साथ स्वराज की लड़ाई में शामिल थे, उनमें जमींदार भी शामिल थे। जबकि कांग्रेस जमींदारों की
विरोधी नहीं थी। अधिकांश जमींदार ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता थे। और जमींदार ही
थे जो आर्थिक मदद प्रदान कर रहे थे। गांधी जी इसके अगुआ थे। गांधी जी नहीं चाहते
थे कि स्वराज की लड़ाई में किसान और मजदूर कोई अड़चन पैदा करें । इसीलिए किसान एवं
मजदूरों की इसी लड़ाई पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने पाबंदी लगा दी । जिसका उल्लेख
करते हुए शीलभद्र याजी ने लिखा है कि “जब 1936 में अखिल भारतीय
कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी समिति ने अपने प्रस्ताव द्वारा सभी किसान एवं
मजदूरों के वर्ग-संघर्ष पर पाबंदी लगा दी उस समय स्वामी सहजानंद सरस्वती, नेता जी सुभाषचंद्र बोस, श्री के. एफ. नारीमैन, श्री किशोरी प्रसन्न सिंह तथा लेखक आदि ने 9 जुलाई 1936 में कांग्रेस के इस किसान मजदूर विरोधी फैसले के खिलाफ
सारे भारतवर्ष में प्रतिवाद मनाकर विरोध किया। कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने
इन किसान-मजदूर नेताओं को प्रतिवाद दिवस मनाने के अपराध में तीन-तीन वर्ष तक
कांग्रेस संस्था में कोई भी पदाधिकारी नहीं बनने के लिए अनुशासन की कार्यवाई की।
परन्तु स्वामीजी, नेताजी
वर्ग-संघर्ष के रास्ते से नहीं हटे। उस समय बहुत से नामधारी समाजवादी नेता जैसे
श्री. एम. राय, श्री जयप्रकाश
नारायण आदि अनुशासन की कार्यवाई के भय से प्रतिवाद दिवस में शामिल नहीं हुए।” शीलभद्र याजी की
यह पंक्तियाँ तात्कालिक कांग्रेस कमेटी की नीतियों एवं तात्कालिक राजनैतिक लोभियों
की भी पोल खोलती हैं। हालाकि कांग्रेस कमेटी ने किसान और मजदूर आन्दोलन का
प्रतिवाद किया था लेकिन इसके विपरीत किसान आन्दोलन ने कांग्रेस के विस्तार में बड़ी
मदद की थी। जिससे किसान आन्दोलन को भी एक विस्तृत फलक मिला। जिसका उल्लेख करते हुए
रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखा है कि “1936 में किसानों ने कांग्रेस को इतनी मदद दी कि सात प्रान्तों में कांग्रेसी
मंत्रिमंडल बन पाया। कांग्रेसी मंत्रिमंडल के बाद किसान आन्दोलन में और तीव्रता
आई। पटना में हम लोगों ने किसानों की वैसी रैली की जैसी फिर कभी देखी नहीं गई ।
बिहार के कोने-कोने से किसान पैदल आए थे।...किन्तु किसानों की इस भीड़ को देखकर ही
जैसे कांग्रेस नेता भीत हो गए। उन्होंने जमींदारों से एक समझौता कर लिया और किसान
सभा को अपना कोपभाजन बना लिया ।”
गौर करने की बात है कि जिस किसान आन्दोलन
ने कांग्रेस कमेटी को एक सुदृढ़ जमीन प्रदान की, उसी कांग्रेस कमेटी ने किसान आन्दोलन का विरोध किया और आगे
चलकर उसको नेस्तानाबूद करने की भी साजिश की। उसके पीछे कई कारण थे। एक तो केवल और
केवल खोखले स्वराज की बात करना। वह भी केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति की।
यही समस्या की जड़ है। जिससे हम कोशों दूर हैं। सहजानंद सरस्वती इस बात से अनभिज्ञ
नहीं थे। इसीलिए उन्होंने किसानों-मजदूरों की समस्याओं पर बात की । जिस आजादी के लिए
भारतीय जनता प्रतिबद्ध थी । उसी आजादी को लेकर आजादी के बाद सहजानंद सरस्वती ने 12-13 मार्च 1949 को ढकाइच जिला शाहाबाद में बिहार प्रांतीय संयुक्त किसान
आन्दोलन में अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि “मरखप के हमने आजादी हासिल की । मगर आजादी का यह सिक्का खोटा
निकला । आजादी तो सभी तरह की होती है न ? भूखों मरने की आजादी, नंगे रहने की
आजादी, चोर डाकुओं से लुटपिट
जाने की आजादी, बीमारियों में
सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही है न ? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है ? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे, कोयले, सीमेंट और किरासिन
तेल को खा पीकर तो चले गये नहीं । ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं । फिर भी
मिलती नहीं ! जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं !”
चिंतन का विषय है कि सहजानंद सरस्वती
और उनके जैसे लोग आखिर क्यों किसानों और मजदूरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े
थे ? क्योंकि वे जमीनी हकीकत
से बेखबर नहीं थे । वे जानते थे कि यदि किसान की स्थिति अच्छी रहेगी तो देश भी
प्रगति करेगा। प्रेमचंद भी कुछ इसी तरह से सोचते थे । अपनी मृत्यु से 4 वर्ष पहले ही 1932 में उन्होंने लिखा था कि “हमें तो परिस्थिति में कुछ ऐसा परिवर्तन करने की जरुरत है
कि किसान सुखी और स्वस्थ रहे। जमींदार महाजन और सरकार सबकी आर्थिक समृद्धि किसान
की आर्थिक दशा के अधीन है। अगर उसकी आर्थिक दशा हीन हुई तो दूसरों की भी अच्छी
नहीं हो सकती। किसी देश के सशासन की पहचान साधारण जनता की दशा है । थोड़े से जमींदार
और महाजन या राजपदाधिकारियों की सुदशा से राष्ट्र की सुदशा नहीं समझी जा सकती ।” प्रेमचंद कितनी
बड़ी बात कह रहे हैं । लेकिन इस बात को देश का नेता आज सत्तर साल बाद भी नहीं समझ
सका है । और किसान की दशा आज भी जस की तस है । कोई बड़े बदलाव दिखाई नहीं दे रहे
हैं और न ही आज भी किसी भी प्रकार के किसान आन्दोलन की आवाज है ।
सहजानंद सरस्वती का किसान आन्दोलन के
प्रतिनिधित्व करने के पीछे उनका लम्बा वैचारिक चिंतन रहा है और एक गहरी धार्मिक,
सामाजिक एवं राजनैतिक पृष्ठभूमि रही है ।
स्वामी सहजानंद सरस्वती को समझते हुए वाल्टर हाउजर ने उनके परिवर्तनशील व्यक्तित्व
का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि “सहजानंद सरस्वती का व्यक्तित्व मूलतः
परिवर्तनशील था । गाजीपुर के ग्रामीण, घरेलू लालन-पालन से आगे बढ़कर उन्होंने धार्मिक चिंतन-मनन का जीवन अपनाया,
धर्म से जातिगत राजनीति की दिशा में बढ़े,
फिर जातिगत राजनीति से आगे बढ़कर स्वाधीनता
आन्दोलन की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा में बढ़े, फिर जातिगत राजनीति से आगे बढ़कर स्वाधीनता आन्दोलन की
राष्ट्रीय राजनीति में पहुँचे, इसके बाद वे
किसान सभा की किसान राजनीति में और अंततः मूलगामी कृषि-विषयक राजनीति में पहुँचे ।” वाल्टर हाउजर ने
अपने लेख ‘स्वामी सहजानंद सरस्वती
और समाज सुधार की राजनीति’ (1907-1950) के अंतर्गत सहजानंद सरस्वती के परिवर्तनशील व्यक्तित्व की पड़ताल की है कि कैसे
एक साधारण मनुष्य संन्यास ग्रहण करता है और फिर जातिगत गौरव के लिए संन्यास त्यागकर
समाज सुधार के लिए सामने आता है। सन्यास लेना एक अपने में बड़ी घटना है। वह समाज के
लिए भले ही उपयोगी न हो, लेकिन एक व्यक्ति
के व्यक्तित्व को नया स्वरूप प्रदान करने में अहम् भूमिका अदा करता है। और फिर
स्वामी सहजानंद का सन्यास लेना और फिर सन्यास त्यागकर समाज सुधार की ओर मुड़ जाना
एक अपने में परिर्वतनशील व्यक्तित्व को दर्शाता है। वाल्टर हाउजर ने दिखाया है कि
कैसे स्वामी जी के व्यक्तित्व में उतरोत्तर विकास हुआ और कैसे उन्होंने अपने को एक
सामाजिक एवं राजनैतिक चिन्तक और सुधारक के रूप में स्थापित किया। वाल्टर हाउजर ने
लिखा है कि “लोकसेवा तथा
विशेष रूप से सामाजिक-राजनीतिक सुधार के प्रति सहजानंद की प्रवृत्ति तब तीव्र हो
गई जब उनको दिसंबर 1914 में पूर्वी
संयुक्त प्रान्त के बलिया में आयोजित भूमिहार ब्राम्हण महासभा के वार्षिक सम्मेलन
को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। यह देखकर कि भूमिहारों को उनके आसपास
के ब्राम्हणों का व्यापकतर समाज सांस्कृतिक रूप से “उत्पीड़ित अपमानित करता और हीन समझता है” और भूमिहार स्थिति संबंधी इस स्पष्ट भेदभाव का
जवाब देने में स्पष्ट रूप से असमर्थ हैं, वे बड़े उद्धिग्न हुए ।”
स्वामी सहजानंद सरस्वती के परिजन
बुन्देलखण्ड के जुझौतिया ब्राम्हण थे। जो कुछ पीढ़ियों पहले बुन्देलखण्ड से गाजीपुर
आ गए थे। गाजीपुर में जुझौतिया ब्राम्हणों के अभाव में उनके वैवाहिक संबंध कई
दशकों से भूमिहार ब्राम्हणों के साथ हो रहे थे। लेकिन मैथिल, कान्यकुब्ज जैसे ब्राम्हण समुदाय भूमिहारों को
ब्राम्हण मानने के लिए तैयार नहीं थे। इसीलिए जातिगत अपमानित महसूस करने के कारण
स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इस पर अच्छा ख़ासा अध्ययन किया और उनके उत्त्थान के लिए
उन्होंने भरसक प्रयत्न किया और और तर्क प्रस्तुत किए। वाल्टर हाउजर ने इस ओर ध्यान
दिलाते हुए लिखा है कि “उन्नीसवीं सदी के
अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में भूमिहार ब्राम्हणों के सामने सामाजिक
स्थिति संबंधी ऐसे ही मुद्दे थे जिनको सहजानंद ने अपने मुद्दे बना लिए। वे अपने या
अपने भूमिहार ब्राम्हण नातेदारों के लिए हीन स्थिति के इस कलंक को स्वीकार करने को
तैयार नहीं थे।” इसके लिए सहजानंद सरस्वती ने भूमिहार ब्राम्हणों के
आत्मगौरव के लिए उनको जागृत किया। पुरोहिती कर्मकांड की शिक्षा के लिए उन्होंने
इसकी व्यवस्था कराई। संस्कृत के स्कूल खुलवाये। संस्कृत पढ़ने के लिए स्कालरशिप की
व्यवस्था कराई। साथ ही साथ जिन भाइयों को संस्कृत में कठिनाई होती थी उनके लिए
हिंदी में हिन्दू कर्मकांड के बारे में ‘कर्मकलाप’ शीर्षक से 1200 पृष्ठों की एक भारी-भरकम पुस्तक लिखी। लेकिन
यह स्वामी जी का शुरआती दौर था और प्रतिवाद का प्रस्फुटन भी था। यही प्रतिवाद के बीज
जो जातिगत उद्धार के लिए थे वही आगे चलकर समाज को बदलने और किसानों और मजदूरों के
सहायक बने।
स्वामी सहजानंद का व्यक्तित्व परिवर्तनशील
था। उन्होंने जातिगत आत्मगौरव के सुधार से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना शुरू
किया। लेकिन जब देश के बारे में सोचना शुरू किया तो देश के दुश्मन ही उनके सबसे
बड़े दुश्मन बन गए। जातिगत सुधार की भावनाएं जाती रहीं। जब उन्होंने
किसानों-मजदूरों का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया तो सिर्फ और सिर्फ उनके सुख-दुःख
स्वामी जी के सुख-दुःख हो गए। जमींदारी व्यवस्था को लेकर एक समय वे अंतर्विरोध से
घिरे हुए थे। लेकिन जब उन्होंने किसानों और मजदूरों का सही तरह से आकलन किया तो
जमींदारी व्यवस्था उनकी नजर में साम्राज्यशाही से भी ज्यादा शोषण का तंत्र मालूम
होती है। राहुल सांकृत्यायन ने इस ओर दिलाते हुए लिखा है कि “1935 में किसान-सभा-कौंसिल में जमींदारी प्रथा के
उठा देने का प्रस्ताव रखा गया । स्वामीजी ने विरोध किया- अभी भी उनके दिल में
जमींदारों के लिए कुछ कोमल स्थान था ।...नवम्बर में हाजीपुर की प्रांतीय कांफ्रेंस
में उन्होंने खुद जमींदारी प्रथा हटा देने के लिए प्रस्ताव पास कराया।” ये एक बड़े
व्यक्तित्व की पहचान होती है जो खुद के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने व्यावहारिक
ज्ञान को विस्तृत करते हुए समाज के हित के बारे में विचार करे। उन्होंने देश के
स्वराज और किसान-मजदूरों के स्वराज को अलग करके नहीं देखा। उनकी नजर में जितना
साम्राज्यशाही स्वराज के रास्ते में बाधक है उससे कहीं ज्यादा जमींदारी व्यवस्था
बाधक है । ‘किसानों के दोस्त और
दुश्मन’ में स्वामी सहजानंद
सरस्वती ने लिखा है कि “यद्यपि जब तक
किसान-मजदूर राज्य या कमानेवालों का राज्य सारे देश में कायम नहीं हो जाता और शासन
की बागडोर कमानेवालों के हाथ में नहीं आ जाती तब तक हमारे कष्टों का अंत नहीं हो
सकता, अतएव वही राज्य हमारा परम
लक्ष्य है और वही असली स्वराज है । यद्यपि उसकी प्राप्ति में साम्राज्यशाही की ही
तरह या उससे भी शायद बढ़कर जमींदारी और साहूकारी बाधक है ।”
सहजानंद सरस्वती की यह वैचारिकी एक
बारगी नहीं बनी बल्कि इसके पीछे एक लम्बी यात्रा है । जो व्यक्ति किसी एक जाति
विशेष के आत्मगौरव को लेकर चिंतित था वही व्यक्ति एक समय आता है जब पूरे समाज के
शोषण के तंत्र को देखकर चिंतित दिखाई पड़ता है और साथ ही संघर्ष करता हुआ भी ।
वाल्टर हाउजर ने स्वामी जी के बारे में सही लिखा है “अब सहजानंद जो भेद करने लगे वह सभी जमींदारों और सभी
किसानों का भेद था। सहजानंद के चिंतन में जाति और वर्ग मिलकर जब सामाजिक और आर्थिक
शोषण की एक ही श्रेणी बन चुके थे। उनके शब्दों में, सीताराम आश्रम “क्रांति का प्रतीक” बन गया था।” सहजानंद सरस्वती
अपने में एक परिवर्तनशील व्यक्तित्व है। जिसने अपनी सीमा का निर्धारण नहीं किया।
जब जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई और जब जैसा चिंतन किया, उसी का अनुगमन किया। बिना किसी की परवाह किए बगैर। इसीलिए
स्वामी सहजानंद का व्यक्तित्व परिवर्तनशील होते हुए विकसित होता है निरंतर।
क्योंकि वह पीछे ले जानेवाला नहीं बल्कि आगे की राह दिखाने वाला है।
सहजानंद सरस्वती का राजनीति की ओर
आगमन और फिर किसान आन्दोलन को अपना सबकुछ मान बैठना यह उनके आमजन के प्रति
प्रतिबद्धता को दर्शाता है। लेकिन स्वामी जी का राजनीति की तरफ रुझान बहुत कुछ
गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन को जाता है। तात्कालिक दौर का कोई भी बड़ा-से-बड़ा
व्यक्तित्व ऐसा नहीं जिसका गांधी जी के प्रति रुझान न रहा हो, लेकिन इसके साथ यह भी बात सच है कि तात्कालिक
दौर में कोई भी ऐसा बड़ा व्यक्तित्व नहीं जिसका गांधी जी के विचारों से मोहभंग न
हुआ हो। स्वामी सहजानंद इसी श्रेणी में आते हैं। स्वामी जी के मन में गांधी जी के
विचारों के प्रति बहुत आस्था थी लेकिन एक समय आया जब वह आस्था जाती रही।
कहना यह है कि सहजानंद सरस्वती का जीवन
जहाँ एक संन्यासी के रूप में शुरू हुआ वह अपनी अंतिम परिणति में मार्क्सवादी
पद्धति का अनुगमन करता है। उनका जीवन अंतर्विरोधों से भरा हुआ था। इसीलिए वे इतनी
लम्बी दूर तय कर सके। स्वामी जी ने निरंतर अपने व्यक्तित्व और समाज से संघर्ष
किया। किसानों और मजदूरों का उन्होंने कभी साथ नहीं छोड़ा। वे लेनिन के लेखन को
बार-बार याद करते हैं। जिस प्रकार रुसी किसान-मजदूरों के हितों के लिए लेनिन
संघर्षरत थे उसी प्रकार का व्यक्तित्व स्वामी जी का भी था। सहजानंद सरस्वती पक्के
मार्क्सवादी नेता थे। किसानों-मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते हुए वे लम्बे समय तक
कांग्रेस के साथ जुड़े रहे। लेकिन जब उन्हें लगा कि कांग्रेस का किसानों-मजदूरों से
दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है तब उन्होंने 15 अगस्त 1947 को कांग्रेस
कमेटी से संबंध विच्छेद कर लिया और समाजवाद की स्थापना के उद्देश्य से पटना में
भारत की सभी वामपक्षी दलों का सम्मेलन किया। इस वामपक्षी सम्मेलन का सभापतित्त्व
स्वामी सहजानंद सरस्वती ने खुद किया था। यह किसानों और मजदूरों के प्रति उनकी
प्रतिबद्धता को दर्शाता है । स्वामी सहजानंद सरस्वती के समकालीन शीलभद्र याजी ने
इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि “18 वैज्ञानिक समाजवादी पार्टियों तथा वर्ग संस्थाओं को बुलाकर भारतवर्ष में जल्द
से जल्द समाजवादी गणतंत्र की स्थापना के लिए संयुक्त वामपक्षी मोर्चा बनाया तथा
उसका एक घोषणा-पत्र तैयार हुआ जिस पर उपर्युक्त 18 वैज्ञानिक समाजवादी पार्टियों एवं किसान-मजदूर वर्ग
संस्थाओं के नेताओं के हस्ताक्षर हुए ।”
यह स्वामी जी का
व्यक्तित्व ही था जिससे भारत की सभी वैज्ञानिक समाजवादी पार्टियाँ एक मंच पर आ
सकीं अपने-अपने अंतर्विरोधों के बावजूद ।
इसीलिए सहजानंद सरस्वती
किसानों-मजदूरों की रीढ़ थे। उनके रहते हुए किसानों के हित को लेकर जितने क़दम उठाए
गये वे अधिकांशतः सफल रहे। लेकिन वर्तमान समय में देश के अंदर किसानों-मजदूरों की
समस्याओं को लेकर नेतृत्व करनेवाला कोई किसान आन्दोलन नहीं है। सरकार भी इनकी
समस्याओं को नजरअंदाज करती है। किसान के कर्ज के नाम पर वोट बैंक की राजनीति होती
है। किसान और मजदूर जगह-जगह अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहा है। प्रेमचंद जी सही
सोचते थे कि जब तक किसान की आर्थिक दशा अच्छी नहीं होगी, किसान स्वस्थ और सुखी नहीं रहेगा तब तक जमींदार, महाजन और सरकार सबकी आर्थिक दशा अच्छी नहीं
रहेगी।
संदर्भ-
अभिनव क़दम-26, स्वामी सहजानंद सरस्वती :किसान विशेषांक-1
महारुद्र का महाताण्डव, (किसानों का यह नेता, रामवृक्ष बेनीपुरी), पृ.46
[1]अभिनव क़दम-26, पृ.47
[1]अभिनव क़दम 26, (वैज्ञानिक समाजवादी स्वामी सहजानंद, शीलभद्र
याजी), पृ.66-67
[1]
अभिनव क़दम-26, पृ.47-48
[1]
अभिनव क़दम-26, पृ.73
[1]
अभिनव क़दम-26 (हतभागे किसान, प्रेमचंद), पृ.614
[1]
अभिनव क़दम-26 (स्वामी सहजानंद और समाज सुधार की राजनीति,
वाल्टर हाउजर), पृ.211
[1]
अभिनव क़दम-26, पृ.203
[1]
अबिनव क़दम-26, पृ.204
[1]
अभिनव क़दम-26, (नए भारत के नए नेता : स्वामी सहजानंद
सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन) पृ.127
[1]अभिनव क़दम-27, (किसानों के दोस्त और दुश्मन, स्वामी सहजानंद
सरस्वती), 61
[1]
अभिनव क़दम-26, पृ.208
[1]
अबिनव क़दम-26, पृ.68
राकेश कुमार सिंह
शोध छात्र, हैदराबाद
विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500046
संपर्क-MH-E(ANNEXE), ROOM NO-44
मो. 8184840137, ई-मेल rakeshkumarsingh.singh454@gmail.com
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