त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
भारतीय कृषि में स्त्रियों की भूमिका/ डॉ.संगीता मौर्य
भारतीय कृषि में स्त्रियों की भूमिका/
स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र
भारत के बाद की स्थिति पर विचार करें तो इस अवधि में एक लम्बा अंतराल हैI भारत की स्वतंत्रता के साथ भारतीय किसानों के
मन में भी नई उमंग और नई स्फूर्ति का आगाज़ होता हैI उनको लगता है कि स्वतंत्र भारत हमारे लिए खुशियाँ लायेगाI
स्वतंत्र भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री,
किसानों के मन में लहलहाती फसलों के बीच हसिया
लिए हुए मुस्कुराते किसानों का चित्र खींचतें हैं तब वैसा ही सजीव चित्रण किसानों
के मन में भी अंकित हो जाता है लेकिन यह आजादी भी उनके लिए कुछ नया लेकर नही आईI
समय बीतता गया और धीरे-धीरे उनको यह समझ में
आने लगा कि यह आजादी उनके लिए महज एक दिखावा ही थीI उनकी इस स्थिति से किसी को कुछ फर्क नही पड़ताI धूमिल की यह कविता इसकी सटीक अभिव्यक्ति करती
जान पड़ती है:
“वहां न जंगल है,
न जनतंत्र
भाषा और गूंगेपन के बीच कोई दूरी नहीं
एक ठंडी और
गांठदार उंगली माथा टटोलती है
सोच में डूबे हुए
चेहरे और
वहां दरकी हुई
जमीन में कोई फर्क नहीं हैI”
भारतीय किसान आदर्शात्मक व्यवस्था की
कल्पना में नहीं जीता उसे तो अपनी भुजाओं की ताकत पर भरोसा रहता हैI उसके कन्धों पर न केवल अपने परिवार बल्कि देश
और समाज के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वहन की भी जिम्मेदारी रहती हैI हिंदी साहित्य के इतिहास पर विचार करें तो पाते
हैं कि एक वह समय था जब गांव, किसान, कृषक संस्कृति साहित्य की जान होती थी ऐसी कथा,
कहानियां और कविता हमें आश्वस्त करती थी वह
हमें गाँव की पगडंडियों की तरफ ले जाती थी, कहानी या कविता पढ़ने मात्र से ही हमारा मन हिलोर मारने लगता
थाI ऐसे ही ग्रामीण संस्कृति
की याद दिलाती केदार नाथ अग्रवाल की कविता ‘बसंती हवा’ पढ़कर किसका मन
गेंहूँ की बालियों की तरह नहीं झूम उठताI लेकिन आज के कवि और कथाकार की रचनाओं को पढ़कर यह महसूस होता है कि इनका मार्ग
जनपथ की ओर नहीं बल्कि राजपथ की ओर अधिक हैI हिंदी साहित्य से वह किसान अब गायब हो चुका है, जिसे प्रेमचंद के लेखन ने हिंदी के आधार
किरदारों के रूप में स्थापित किया था या फिर रेणु जी, जिसने किसानों को अपने लेखन के माध्यम से जीवंत बना दिया थाI
किसान और उसके बच्चों का भविष्य आज भी अंधेरे
में है। किसान की लाचारी जहाँ एक ओर वर्तमान में उसके फसलों की स्थिति पर निर्भर
करती है वही दूसरी तरफ विगत दो दशकों में सरकारी नौकरिओं की समाप्ति, उजड़ते कलकारखाने, कम्प्यूटरीकृत दुनिया से गाँव के युवाओं की बेदखली के सिवा
कुछ हाथ नहीं आया हैI
स्त्रीयों की स्थिति पर विचार करें तो
हम पाते हैं कि हर समाज में उनकी स्थिति ख़राब ही रही है, उसमें से गांव की स्त्रियाँ तो हमेशा से हाशिए पर ही थीं।
एक तरफ जहाँ भारत की कुल आबादी का लगभग 70प्रतिशत भाग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है वहीँ इस जनसँख्या का आधा
हिस्सा जो की महिलाएं हैं, वे भी कृषि और
मजदूरी में प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई हैंI महिलाएं एक तरफ जहाँ पूरे घर की जिम्मेदारी उठाने के
साथ-साथ पुरुषों के साथ खेती में भी अपना पूरा योगदान करती हैं, वहीं उनके इतने बडे त्याग के बावजूद भी आज उनके
योगदान को भारतीय अर्थव्यवस्था में महज एक सांकेतिक ही माना जाता हैI स्त्रियाँ आज भी भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था
में उपेक्षा की शिकार हैंI
मृणाल पांडे ‘खतरे की एक नई घंटी’ शीर्षक से दैनिक जागरण के अपने सम्पादकीय में लिखती हैं कि ‘देश भर से रोजी रोटी से हताश हमारे किसान
लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और अन्नदाता का यह हाल आने वाले समय के लिए अशुभ
संकेत हैI इस त्रासदी की नाना वजहों
और सरकारी तबके द्वारा इससे निपटने की कोशिशों पर काफी कुछ लिखा भी जा चूका है
लेकिन किसानी में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी को नजरंदाज़ कर दिया गया हैI इसी के साथ पुरुष किसानों से कहीं बड़ी तादाद
में भारत के हर शहर-गाँव में महिलाओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में लगातार आती
उछाल की बावत भी मीडिया व सरकार के नीति-निर्माता कमोवेश लापरवाह व बेसुध नज़र आते
हैंI हालात इतने संगीन हैं यह
समझाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में हर साल की जा रही
आत्महत्याओं में से 30 प्रतिशत भारत
में होती हैI उनमें भी हमारी
प्रति लाख महिलाओं के बीच आत्महत्या करने वाली महिलाओं की दर नेपाल के बाद विश्व
में दूसरे स्थान पर हैI’ मृणाल पाण्डे के
इस वक्तव्य पर गौर करें तो हमारे अख़बार तथा मीडिया किसानों की आत्महत्या की खबरों
को दिखा अपनी इतिश्री समझ लेते हैं लेकिन इन अखबारों में आजतक किसी स्त्री किसान
की आत्महत्या की खबर शायद ही किसी ने पढ़ी होगी| जबकि हक़ीकत इससे इतर बहुत कुछ कहता है|
भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव
अम्बेडकर के अनुसार “किसी भी देश या
समाज का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उस समाज या देश में एक नारी की स्थिति
क्या है" । सही सन्दर्भों में एक सुसभ्य, शिक्षित और सशक्त समाज में लोकतंत्र की यही परिभाषा है।
स्त्रियों के प्रति सम्मान उनके द्वारा मानव समाज के निर्माण में योगदान को एक
महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है। या, यूँ कहें कि लोकतंत्र अपने घटकों को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाया है और अपनी
पूरी जनसंख्या की आधी आबादी को पुरुषवादी सोच के अधीन कर दिया है जिसमें स्त्री को
अपनी पहचान (सार्वजनिक और निजिगत क्षेत्रों में) कायम रखने में काफी समस्या आ रही
है। ऐसी स्थिति में हम एक लोकतंत्र नहीं हो सकते केवल उसके होने का स्वांग कर सकते
हैं। दूसरी तरफ, पितृसत्तात्मक
समाज की सोच का आधार ही सामंती है फिर नारी सम्मान और उनका अधिकार किस प्रकार
सम्भव है? यह एक अपूर्ण लोकतंत्र की
निशानी है। पूर्णता तो वैसे एक आदर्शात्मक परिकल्पना है फिर भी उसके नजदीक पहुँचने
की प्रक्रिया हमें उसके वास्तविक लक्षणों से परिचय जरूर करवाती हैI स्त्रियां प्रत्येक समाज की आधारस्तंभ होती हैंI
परिवार हो या फिर समाज, उसके निर्माण में स्त्रियों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती
हैI
घर के साथ-साथ बच्चों की देखभाल और फिर खेती का भी काम
देखना उनकी महत्ता को दर्शाता हैI लेकिन भारतीय
समाज में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता हैI इसकी शुरुआत प्राथमिक स्तर की शिक्षा जहाँ, ‘राम स्कूल जा और सीता खाना पका’ जैसे संबोधन में ही दिखाई पड़ने लगती हैI
उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा का बंटवारा देखें
जहाँ बालिकाएं गृह विज्ञान अनिवार्य रूप से पढ़ती हैं वहीँ बालक वर्ग कृषि विज्ञान
की शिक्षा प्राप्त करता हैI उच्च शिक्षण
संस्थानों में भी छात्राओं की संख्या नाम मात्र की ही होती है|
स्त्रियों की शिक्षा के पैरोकार करने
वाले भारतीय नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र जहाँ कलकत्ता में प्रथम दो
स्नातक युवतियों के प्रोत्साहन के लिए बनारसी साड़ी भेंट करते हैं वही स्त्रियों के
विज्ञानं वर्ग की शिक्षा के विरोध में खड़े दिखाई पड़ते हैंI उनका भी यही मानना है कि एक स्त्री को वही शिक्षा दी जानी
चाहिए जो घर गृहस्थी और बच्चों के लालन-पालन में सहायक हो सकेI
आज कृषि में महिलाओं की भागीदारी तेज़ी से
बढ़ रही है। भारतीय कृषि में इनका योगदान देश की राष्ट्रीय आय का करीब एक-तिहाई है।
सरकारी अनुमान के अनुसार देश में खेतिहर मजदूरी और स्वरोजगार में लगे लोगों में
लगभग आधी संख्या महिलाओं की है। ग्रामीण क्षेत्रों की कुल महिला मजदूरी का 89.5 प्रतिशत खेती औऱ इससे संबंधित औद्योगिक
क्षेत्रों में काम कर रही हैं। लेकिन भारत की आधी आबादी जिसकी मेहनत को हमेशा
पुरुषों से कम आंका जाता रहा है, पुरुषों के बराबर
काम करने पर भी उनकी मजदूरी में काफी अंतर दिखाई पड़ता हैI जहाँ पुरुष की एक दिन की मजदूरी 300 रूपए होती है वहीँ एक स्त्री की दैनिक मजदूरी 60-100 रूपए के बीच होती हैI निश्चय ही इसी असमानता को देखकर भारतीय संविधान में ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ का प्रावधान किया गया, बावजूद इसके इस प्रावधान की अनदेखी होती रही हैI यही दोयम दर्जे का व्यवहार स्त्रीयों का कृषि
मर योगदान को लेकर भी देखा जाता हैI
जहाँ आज के समय में किसानों को उन्नत बीज
एवं आधुनिक तकनीकी से परिचय कराने की बात की जाती है, यह विडम्बना ही कही जा सकती है कि स्त्रीयों को इस ज्ञान
एवं तकनीकी से दूर रखा जाता हैI घर-बर्तन के
अलावा स्त्रीयों के सुबह की शुरुआत ही घर-बार की साफ़ सफाई से लेकर गाय-भैंस के
गोबर को सिर पर रखकर दूर खेतों में डालने से होती हैI वह पुरुषों के साथ बराबर का योगदान करती है,जब किसान कुदाल चलाता है तो वह निराई करती है,
जब वह हल चलाता है तो वह बीज डालती है, जब वह सिंचाई करता है वह क्यारियों को सहेजती
हैI इसके साथ ही बुवाई,
निराई-गुड़ाई और फसलों की कटाई में समान भूमिका
होने के बावजूद भी पुरुष समाज इनकी मेहनत का कोई मूल्य नहीं लगा पाताI
अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में महिला
श्रमिकों को दुहरी भूमिका निभानी पड़ती है। उन्हें समस्त घरेलु जिम्मेदारियां
निभाने के साथ नियोक्ता के यहाँ काम करना पड़ता हैI नियोक्ता उन्हें केवल मौखिक करार के आधार पर उन्हें काम पर
रखते हैंI मन न होने पर उन्हें निकल
भी देते हैंI उन्हें किसी भी
प्रकार की समाजिक सुरक्षा नहीं मिलतीI कृषि क्षेत्र में उनकी स्थिति और अधिक बुरी हो जाती हैI कुछ दिनों के लिए मौसमी रोजगार मिलते हैं बाकि बेरोजगारी की
स्थिति ही रहती हैंI
आधुनिक तकनीक, जैसे ट्रैक्टर, छिड़काव व सिंचाई उपकरण, स्प्रेयर व
थ्रेशर से पुरुषों का भारी मेहनत वाला काम हल्का हुआ है, किन्तु महिलाओं के कामों में तकनीकी सुधार नहीं के बराबर
हुआ है। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा सामाजिक सुरक्षा, महिला विकास व कल्याणकारी योजनाएं प्रारम्भ किए जाने के बावजूद वे अन्य
लोगों से पिछड़ी हुई हैं। समाज में परिवर्तन चाहिए तो स्त्रीयों से सम्बंधित
प्रश्नों को व्यापक स्तर पर देखना होगा तथा आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक,
और बौद्धिक प्रक्रिया का विश्लेषण करना होगाI
इस सन्दर्भ में स्त्रीयों की शिक्षा को एक
महत्वपूर्ण आयाम मानना होगाI हमें एक पूरी तरह
से बदले हुए समाज की आवश्यकता है जिसमें स्त्रीयों को विकास के समान अवसर प्रदान
किए जा सकें ताकि वे पुरुष समकक्षों के साथ व्यापक रूप से समाज के विकास के लिए
जरूरी सभी कारकों में समान रूप से अपना योगदान दे सकें।
सन्दर्भ
• http://www.deshbandhu.co.in/editorialअनौपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की स्थिति February
10,2015
• http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/06-jul-2017-edition-Delhi-City-page_12-132-5607-4.html.
• संसद से सड़क तक, धूमिल, वाणी प्रकाशन नई
दिल्लीI
• रस्साकशी: उन्नीसवीं सदी का नवजागरण और
पश्चिमोत्तर प्रांत, वीर भारत तलवार, दिल्ली सारांश
प्रकाशन, 2002
• मैला आंचल, फणीश्वर नाथ रेणु.
• गोदान, प्रेमचंद
डॉ.संगीता मौर्य
असिस्टेंट प्रोफेसर-हिंदी,गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय कर्वी, चित्रकूट
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