त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
कृषि प्रधान देश
और मुस्लिम समाज/ बृजेश कुमार यादव
जिस तरह से पिछले वर्षों में
मुसलमानों को चिन्हित कर उनको गो रक्षा के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा, उससे मुस्लिम किसान तथा देश भर के पशु
व्यापारियों में डर व्याप्त गया है। उनकी प्रताड़ना का कारण मुसलमान होने के अलावा
कोई दूसरी वज़ह नज़र नहीं आती ! वर्षों से बाप –दादों के ज़माने से वह खेती-किसानी करते आ रहे हैं। वह खेती –
किसानी के साथ–साथ किसी भी आम हिन्दू किसान और पशु व्यापारी की तरह पशुओं
की खरीद – फरोख्त करते रहे हैं,
बिना किसी भेद भाव का सामना किये। कभी ऐसे
हालात नहीं बने। लेकिन पिछले वर्षों में जिस तरह के राजनीतिक हालात बने हैं,
उससे न सिर्फ मुस्लिम समाज बल्कि पशु व्यापार
से जुड़े ग़रीब दलित-पिछड़े-आदिवासी समाज के लोग भी खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे
हैं। इसके लिए मौजूदा सरकार तथा लचर कानून व्यवस्था जिम्मेदार है। मौजूदा सरकार के
नेताओं की बोली-वाणी, व्यवहार से ऐसा
लगता है कि सत्ता का उन्मादियों को परोक्ष, अपरोक्ष रूप से संरक्षण प्राप्त है। नहीं क्या कारण है कि
तथाकथित गौ रक्षकों पर कानूनी कार्रवाई की बजाय हिंसा के शिकार लोगों को दोषी
ठहराने का एक भी अवसर सत्तासीन नेता चूक नहीं रहे?
मेरे समझ में नहीं आ रहा कि क्या
अब वे (मुसलमान) किसान नहीं रहे? क्या अब वे खेती
किसानी के साथ पशुओं का व्यापर छोड़ देंगे? अगर ऐसा होगा तो उनका जीवन यापन कठिन से कठिनतर हो जायेगा। महंगाई और प्रकृति
की मार ने वैसे भी किसानों की कमर तोड़ रखी है। ऐसे में उनका इस तरह घर बैठना ठाले
का धंधा भी छीन जाना है।
मेरी बेचैनी का सबसे महत्त्वपूर्ण
कारण मेरा ख़ुद का इस क्षेत्र (किसानी के साथ पशु व्यापर– गाय बैल और भैंस का ) से जुड़ा होना है। यही वह कारण है जो
बार – बार बेध रहा है, टीस रहा। कहाँ से कहाँ पहुँच गये हम ..! चूंकि
मेरा ताल्लुक किसान मजदूर परिवार से है तो घर रहकर खेती किसानी के कार्यों के साथ–साथ पशु व्यापार (गाय, बैल और भैंस) का छोटा सा थोड़ा व्यावहारिक अनुभव है। मौसमी
तथा प्रछन्न बेरोजगारी के समय में ग्रामीण किसान – मजदूर, सभी जाति–धर्म के लोग पशु मेलों में जानवरों की खरीद–फरोख्त कर कुछ अर्थोपार्जन का जुगाड़ करते हैं।
लेकिन नवउदारवाद और तकनीकी विकास ने इस कार्य व्यापार को चौपट कर दिया। जगह–जगह लगने वाले पशु मेले एक-एक कर बंद होते चले
गये, जिससे गाँव में
किसान-मजदूरों की न सिर्फ़ माली हालत ख़राब होती चली गयी अपितु बेरोजगारी में भी बड़ी
मात्रा में इजाफा हुआ। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे रोजगार विहीन दौर में बीसवीं
शताब्दी के अंतिम दशक में और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में गाँवों से किसान,
मजदूरों का रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ
सबसे ज्यादा पलायन हुआ। वैसे भी किसान पशु व्यापारियों पर पुलिस के बेत की मार कम
न पड़ी थी कि कथित गो रक्षक दल भी सक्रीय हो गया, प्राण लेने की हद तक।
विगत कुछ वर्षों से मुसलमानों को
मीडिया और एक खास पार्टी-विचारधारा से जुड़े नेताओं द्वारा ऐसे प्रस्तुत किया जा
रहा है जैसे वह हर रोज मांस ही खाता है, और वह भी गाय का ! मुसलमान गाय या भैंस का मांस खाता जरुर है लेकिन ऐसा नहीं
है कि वह हर रोज़ मांस ही खाता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। सभी धर्म, जाति समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा ग्रामीण
क्षेत्रों में गुजर-बसर करता है, उसका जीवन
कृषिकार्य पर आधारित है। आमतौर पर कृषि-कार्य को सिर्फ खेती-बाड़ी तक ही सीमित करके
देखा जाता है। किसान पशुओं का भी सबसे बड़ा पालक और कारोबारी है, इस तरफ बहुत कम ही ध्यान जाता है। कहना न होगा
कि कोई भी देश कृषि प्रधान एक धर्म, जाति-समुदाय विशेष के योगदान से नहीं बनता। मुसलमानों की आम जनता से लेकर ‘खास जनता’ तक में स्वावलंबी कारोबारी की छवि रूढ़ हो चुकी है। लेकिन,
मुसलामानों की बहुत बड़ी आबादी कृषिप्रधान देश
में खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन और उसका कारोबार कर अपना जीवन यापन करती है—किसी भी आम हिन्दू कृषक की तरह। यह दुर्भाग्य
है कि कभी भी इस क्षेत्र में कार्यरत बहुत बड़ी मुस्लिम आबादी की कोई बात नहीं होती,
कभी किसी पत्रकार द्वारा खोज –खबर नहीं ली जाती।
प्रेमचंद के समय में भी गाय एक
मुख्य मुद्दा था। उस समय भी गाय के नाम पर मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा था।
तब प्रेमचंद ने कहानी लिखी थी ‘मुक्तिधन’। कहानी में प्रेमचंद ने यह दिखाया है कि एक
मुसलमान किसान कसाई द्वारा अधिक मूल्य देने पर भी वह अपनी गाय कसाई को नहीं बेचता।
वह कम दाम में भी दाऊ दयाल को गाय बेच देता है। रहमान का मानना है कि “हजूर, आप हिंदू हैं इसे लेकर आप पालेंगे, इसकी सेवा करेंगे। ये सब कसाई हैं, इनके हाथ मैं 50 रु. को भी कभी न
बेचता। आप बड़े मौके से आ गये, नहीं तो ये सब
जबरदस्ती से गऊ को छीन ले जाते। बड़ी बिपत में पड़ गया हूँ सरकार, तब यह गाय बेचने निकला हूँ। नहीं तो इस घर की
लक्ष्मी को कभी न बेचता। इसे अपने हाथों से पाला-पोसा है। कसाइयों के हाथ कैसे बेच
देता ? सरकार, इसे जितनी ही खली देंगे, उतना ही यह दूध देगी। भैंस का दूध भी इतना मीठा और गाढ़ा
नहीं होता। हजूर से एक अरज और है, अपने चरवाहे को
डाँट दीजियेगा कि इसे मारे-पीटे नहीं।“
दाऊदयाल ने चकित हो कर रहमान
की ओर देखा। भगवान् ! इस श्रेणी के मनुष्य में भी इतना सौजन्य, इतनी सहृदयता है ! यहाँ तो बड़े-बड़े तिलक
त्रिपुंडधारी महात्मा कसाइयों के हाथ गउएँ बेच जाते हैं; एक पैसे का घाटा भी नहीं उठाना चाहते। और यह गरीब 5 रु. का घाटा सहकर इसलिए मेरे हाथ गऊ बेच रहा
है कि यह किसी कसाई के हाथ न पड़ जाय। गरीबों में भी इतनी समझ हो सकती है !”(मुक्तिधन) मौजूदा वक्त में प्रेमचंद जैसे
साहित्यकारों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है।
‘षड्यंत्रकारी राजनीति’ और ‘बिकाऊं मीडिया’
के दुष्प्रचार से मुस्लिम समुदाय की छवि
जनसामान्य में गो भक्षक की बनती जा रही है। यही वज़ह है कि जन सामान्य (विशेषकर
मध्यवर्ग) के मानस में यह बात घर कर गयी है कि मुस्लिम सिर्फ ‘गो –भक्षक’ हो सकता है, गौ पालक नहीं। जबकि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों
में जीवन यापन कर रहे सभी मुसलमान कृषक के जीविकोपार्जन का बड़ा माध्यम खेती–बाड़ी के साथ –साथ गाय, भैंस और बकरी
पालन है। पहलू खान एक ऐसा ही किसान था जिसे अलवर में सिर्फ इसलिए कुछ हिन्दू ‘गोरक्षकों’ ने पीट कर मार डाला क्योंकि वह मुसलमान था ! मुसलमान गाय
खाता है, इसलिए वह सिर्फ़ गो भक्षक
हो सकता है लेकिन गो पालक या किसान नहीं? हिंदुत्व द्वारा दुष्प्रचारित मुसलमानों की इस छवि को बदलने की आवश्यकता है।
इसके लिए हिन्दुओं को आगे आना चाहिए।
दरअसल गाय को लेकर पिछले वर्षों
में जो उग्र हिंसा, उपद्रव देखने को
मिला है उसकी सबसे बड़ी वज़ह है गाय की भावनात्मक और धार्मिक राजनीति करने वालों का
सत्ता पर काबिज़ होना। कथित गो रक्षकों और उपद्रवियों पर सरकार द्वारा कार्रवाई न
किया जाना। दादरी के अकलाख के हत्यारों को कानूनी कार्रवाई के बजाय उल्टा अकलाख और
उसके परिवार पर ‘गो मांस’ रखने के जुर्म में केश चलाने की मांग करना,
वहशियों का हौसला अफजाई करना ही है। पहलू खान
मामले में राजस्थान सरकार के गृहमंत्री का बयान कि ‘गलती दोनों तरफ से हुयी है’ जितना गैर जिम्मेदाराना है, उससे कही ज्यादा वहशियों को संरक्षण और आश्वस्तकारी करने
वाला था। हद तो राज्यसभा में हो गयी जब मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि ‘ऐसी कोई घटना हुयी ही नहीं है असल में !’
क्या किसी मुसलमान किसान या पशु व्यापारी को
सिर्फ़ इसलिए मार देना चाहिए कि वह मुसलमान है?
पशु तस्कर कानून
और किसान
गुजरात सरकार ने हाल ही में गो
वध, गाय तस्करी आदि से जुड़े
मामलों को लेकर बहुत ही कठोर कानून बनाया है। दरसल गोवध और तस्करी की आड़ में
गुजरात सरकार संघ के हिंदुत्ववादी पुराने एजेंडे को ही सेट कर रही है, जिससे गो रक्षा के नाम पर एक समुदाय विशेष को
बदनाम कर सके। गुजरात सरकार का हाल ही में बना कानून पूरी तरह से अव्यवहारिक और
किसान विरोधी है। दुखद है कि किसान-मजदूर से जुड़े मुद्दों को लेकर वह लोग नियम –
कानून बनाते हैं, जिनको खेती-किसानी तथा मजदूरी के कार्यों की कोई व्यावहारिक
जानकारी और समझ नहीं होती।
यह बात समझने के लिए गुजरात सरकार
के पशु तस्करी संबंधी बने नए कानून को जानना होगा। रात में आप अगर जानवर ले जाते
पकड़े गये, तो आप कानूनन अपराधी माने
जायेंगे, और इसके लिए आपको पांच
लाख रूपये जुर्माने से लेकर उम्र कैद तक की सजा का प्रावधान किया गया है। यह फैसला
पूरी तरह से किसान विरोधी है। जो भी किसान पशु व्यापार करते हैं, वह जानवरों की ख़रीद तो दिन में करते हैं,
लेकिन अपनी और आम जनता की सुविधानुसार जानवरों
को पशु मेलों या गंतव्य तक रात को ही ले जाना पसंद करते हैं। इसके पीछे की वज़ह
रात्रिगमन में उनको सुविधा होना है। ज्यादातर बैलों को गंतव्य तक पैदल ही हांक कर
ले जाया जाता है, क्योंकि बैल की
चलने की गति अच्छी होती है। गाय और भैंस को छोटे – बड़े ट्रक या पीकअप में लाद कर गंतव्य तक पहुँचाया जाता है।
गाय और भैंस का शरीर भारी होता है, जिस वज़ह से वह
तेज गति से नहीं चल पातीं। गाय और भैंस के बच्चे होने के कारण भी इनको गाड़ी से ले
जाया जाता है। रात्रि में पशुओं को हांककर ले जाने का मुख्य कारण जगह –जगह पर भीडभाड़ का न मिलना है। चूंकि जानवर भीड़
को देख कर भड़कते बहुत हैं, इसलिए लोगों को
भी तथा व्यापारियों को भी असुविधा होती है। रात का मौसम ठंठा और सड़क ख़ाली मिलती है,
जिससे वह गंतव्य तक जल्दी पहुँच जाते हैं। यही
कुछ कारण हैं जिनकी वज़ह से जानवरों को लोग पैदल या गाड़ी से रात्रि में ले जाना
पसंद करते हैं। लेकिन गुजरात सरकार ने कानून बनाकर इसे अब अवैध घोषित कर दिया है।
इसका कहीं कोई विरोध भी नहीं दिख रहा। इसकी वज़ह यह है कि ज्यादातर को पता ही नहीं
कि इस फैसले का आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा !दूर से देखने में भले ही यह फैसला
ठीक लगे लेकिन यह किसान विरोधी फैसला है, जिसका विरोध होना चाहिए। कहना न होगा कि समुदाय विशेष को टारगेट करने के अलावा
इस फैसले का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए यह फैसला विशुद्ध रूप से राजनीतिक है,
जिसकी राजनीति भाजपा जन्मकाल से ही करती रही
है। नहीं तो क्या कारण है कि गो कशी के लिए मुस्लिम समुदाय को बदनाम किया जाता है,जबकि बीफ के सबसे बड़े कारोबारियों में एक भी
मुसलमान का नाम नहीं है। कहना न होगा कि अपने पुराने एजेंडों को संघ अपनी सरकारों
के माध्यम से थोपना शुरू कर दिया है। आने वाले दिनों में अगर यह पूरे देश में
गुजरात नमूना लागू करने (करवाने) की उग्र मांग दिखे, तो हमें आश्चर्यचकित नहीं करना चाहिए। क्या विडम्बना है कि
एक तरफ जहाँ हम अन्तरिक्ष, चाँद, मंगलयान तथा तकनीक के मार्फ़त वैज्ञानिक विकास
की दुर्गम यात्रा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ
ऐसी घटनाएँ घट रहीं हैं जैसे हम किसी अन्धकार युग में आ गये हैं।
खेती – किसानी और तकनीक
आर्थिक नवउदारवाद
तथा तकनीकी विकास का प्रभाव खेती –किसानी पर बहुत
व्यापक पड़ा है। पारंपरिक खेती दिन–प्रतिदिन समाप्ति
के कगार पर पहुँच रही है। जहाँ खेत की जुताई बैलों से होती थी अब उसकी जगह
ट्रेक्टर ने ले ली है। मड़ाई का कार्य भी चंद घंटों में बड़े –बड़े थ्रेसरों से निपट जा रहा रहा। अब ऐसे समय में ‘बाज़ार में रामधन’ के रामधन की भावुकता, लगाव, मोह तथा किसान का
अपने जानवर के प्रति संवेदनात्मक लगावआज के समय में मुर्खता ही कहाएगा। अब सभी
क्षेत्रों में नफा –नुकसान मुख्य हो
गया है। किसानों ने भी मजबूर होकर बाछे को या तो छुट्टा सांड छोड़ना उचित समझा या
कसाइयों के हवाले करना उचित समाधान समझते हैं। अब गाय से बाछे की आकांक्षा कोई
किसान भूलवश भी नहीं करता। हाँ, इधर डेयरी उद्योग
ने विकास किया है तो किसानों में दूध की अकांक्षा जरुर बलवती हुई है। इस अकांक्षा
ने किसानों को गाय की नस्ल भी बदलने को मजबूर किया। अब देसी गाय की जगह किसान
जर्सी नस्ल (शंकर नस्ल) को प्राथमिकता प्रदान कर रहा है, जिसके बाछे किसी कार्य के नहीं होते। आजकल गाँव में जर्सी नस्ल
के साड़ों की संख्या जिस मात्र में बढ़ रही है, और वह फसलों को जितना नुक्सान पहुंचा रहे हैं, उसको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि बिहार
में जिस प्रकार से नील गायों को गोली मारने के आदेश पर सरकार विचार कर रही है,
कुछ उसी प्रकार आने वाले भविष्य में साड़ों को भी
मारने पर विचार हमारी सरकारों को करना पड़े तो कोई अचंभा की बात न होगी ! क्योंकि,
गाय-बैल पालना एक बात है, उसकी राजनीति करना दूसरी। हमारे गो शालाओं की
स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अगर वह बहुत अच्छी स्थिति में भी हो जाएँ तो भी देश
में इतने निकम्मे बैल या सांड हो जायेंगे कि उनको बैठाकर खिलाना किसी सरकार के
औकात की बात नहीं। आर्थिक रूप से बैल अब किसानों पर आर्थिक बोझ – भार बनने के अलावा कुछ नहीं। ऐसे में उनका
समाधान सरकार को निकलना होगा।
उपर्युक्त विवेचन
से स्पष्ट है कि भारत का मुसलमान उतना ही बड़ा गो पालक या रक्षक है जितना कोई भी
किसान हो सकता है। पशु का महत्त्व—चाहे वह गाय हो,
बैल हो या भैंस या अन्य पशु—–एक किसान से ज्यादा कोई दूसरा नहीं जान और समझ
सकता। यह पूरे देशवासियों को समझाना होगा। गाय के नाम पर हो रही राजनीति को समझाना
होगा। अगर हमारे तथाकथित गौ रक्षक संगठनों तथा सरकार को इतनी ही पशुओं की चिंता है
तो उन्हें लोगों को पीटने के बजाय गाय को लेकर विभिन्न योजनाओं की शुरुआत करनी
चाहिए। जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार ने सफल ‘कामधेनु योजना’ चलायी। उन्होंने गाय पालन के लिए किसानों को ब्याजमुक्त क़र्ज़ दिया। डेयरी
उद्योग का सुदूर ग्रामीण अंचलों में तक विकास किया। जिससे सभी तरह की जनता को
फैयदा मिला। नहीं तो पशु तस्करी और गौ रक्षा के नाम पर जो संवैधानिक तथा
गैर-संवैधानिक तरीका मौजूदा केंद्र और राज्य सरकार तथा सरकरेतर संगठनों द्वारा
अपनाया जा रहा है वह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं होगा। इसके पीछे की राजनीतिक मंशा
बहुत स्पष्ट है।
हिंसात्मक चक्की
में सिर्फ और सिर्फ आम गरीब जनता, किसान – मजदूर पिस रहा है। खेती – किसानी अब घाटे का सौदा बनती जा रही है। तकनीकी विकास ने खेती – किसानी को बहुत प्रभावित किया है। ऐसे में कुछ
पशुओं की उपयोगिता पर सरकार को पुनः विचार करने की जरुरत है।
बृजेश यादव
भारतीय भाषा केंद्र जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय
मो. 9968396448, ई-मेल kisanlokchinta@gmail.com
बहुत ही सरल और सहज ढंग से आपने खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं को रखा।यदि आपके सुझावों पर विचार किया जाय तो अवश्य ही देश का कुछ भला हो सकता हैं,।
जवाब देंहटाएंआपके इस शानदार लेखन शैली और विषय की स्पष्टता के लिए कोटिशः बधाई हो भईया जी।
एक टिप्पणी भेजें