त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
राजनेता व किसान नेता योगेन्द्र यादव से बृजेश यादव और जितेन्द्र यादव की बातचीत
राजनेता व किसान नेता योगेन्द्र यादव से बृजेश यादव और जितेन्द्र यादव की बातचीत
(किसान को अगर कुछ भी हासिल होगा तो राजनीति से ही
हासिल होगा- योगेन्द्र यादव)
गाँधी जी के चंपारण किसान आन्दोलन को सौ वर्ष
पूरे हो रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद शासक तो बदल गये लेकिन शासन में कोई मूलभूत
संरचनात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। किसान आज भी बदहाल है? आप कैसे देखते हैं?
योगेन्द्र यादव :हम अपनी बात चंपारण से शुरू करते हैं। आज चंपारण में किसान कैसे हैं? नीलहे गए मिलहे आये। जो हम गांधीजी का सन्दर्भ याद करते हैं वो जो चंपारण में नील की खेती करते थे किसान – जमींदार उनका संदर्भ है। उनका शोषण करते थे जमींदार तो गांधीजी उनके (किसान ) पक्ष में खड़ा हुए। और उन्होंने किसान को जागृत करने का कार्य किया। उन्होंने किसान में नई चेतना और आत्मविश्वास का संचार किया कि वह भी अंग्रेजों के सामने खड़ा हो सकता है। लेकिन वह आत्मविश्वास स्थायी नहीं रहा, जो किसान के शोषण का तंत्र था उसका स्वरुप बदल गया। यही बात आज हमें समझने की जरुरत है कि आज़ादी के पहले किसान के शोषण का स्वरुप एक था, जिसमें अंग्रेज थे, जमींदारी व्यवस्था थी, और उसके द्वारा लादे गए शोषण का एक बिलकुल स्थूल स्वरुप था। नील की खेती जिसका एक उदहारण था। लेकिन आज़ादी के बाद शोषण समाप्त नहीं होता है, उसका स्वरुप बदल जाता है,तो निलहे गए मिलहे आये। मिलहे का मतलब चीनी मिल से है। कानून बनाकर यह किया जाने लगा कि आपको अपना गन्ना इस मिल को ही देना है।
इस
तरह एक बार फिर राज्य सत्ता, राज्य व्यवस्था का इस्तेमाल
किसान पर बंदिश लगाने के लिए किया जाता है। बस उस बंदिश का सोच बदल जाता है। अगर
निलहे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतीक थे तो मिलहे अब एक जो औद्योगिक कार्पोरेट
पूंजीवादी सत्ता है उसके प्रति। तो किसान एक तरह की शोषण व्यवस्था से निकल कर
दुसरे तरह की शोषण व्यवस्था में आ गया। तब भी किसान गुलाम था आज भी किसान गुलाम
है। आज भी किसान के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है, इस देश में लाखों – करोड़ रुपया
का लोन लेके बैठे हुए व्यक्तियों का नाम बताने में रिजर्व बैंक संकोच करता है। जब
तक कुछ मज़बूरी नहीं बनेगी तब तक वह नाम सार्वजानिक नहीं किये जायेंगे। और किसान जब
पचास हज़ार का लोन वापस नहीं कर पाता है, एक लाख का लोन वापस
नहीं कर पाता है तो तब उसकी मुनादी होती है।
तहसील की दीवार पर उसके नाम लिखवा दिये जाते हैं। कौन किसान हैं, कितना देनदार है। तो ये तो एकदम औपनिवेशिक संबंध हैं। औपनिवेशिक संबंध के
शोषण की व्यवस्था समाप्त नहीं हुयी। स्वराज, जो कि हमारे
स्वतंत्रता आन्दोलन का आदर्श था, वह आदर्श हमें नापने में
मदद देता है,स्वयं किसान अपनी आज़ादी से दूरी में। उस समय वह
अपने स्वराज से दूर था, एक कारण से, आज एक दूसरे कारण से किसान
अपने स्वराज से दूर है। अगर स्वराज हमारे आज़ादी के आन्दोलन का लक्ष्य था तो स्वराज
किसान तक तो नहीं पहुंचा।
कार्पोरेट पूंजीवाद और बाज़ार जिस तरह हावी हो
रहा है, हमारी सरकारें भी उसके लिए आवश्यक सुविधाएँ, खाद–पानी मुहैय्या करा रही हैं, क्या ऐसे में किसान और
किसानी को बचाया जा सकता है?अगर बचाया जा सकता है तो क्या
किसान खेती – किसानी के मार्फ़त सम्मानपूर्वक जीवन निर्वहन कर
सकता है, पहले की तरह, अगर कभी रही हो
तो? क्या खेती – किसानी से वह अपनी
आवश्यक जरूरतें पूरी कर सकता है?
योगेन्द्र यादव : किसान
सम्मान के साथ जी सके यह संभव है, संभव होना चाहिए ! यह
राजनैतिक इच्छा का सवाल है, नैतिक संकल्प का सवाल है। किसान
पुरानी अवस्था में लौट सके इसका हमें प्रयास नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पुरानी अवस्था में लौट नहीं सकता। जैसा कि ग्रीक
कहावत है— नदी में जब भी आप पाँव डालते हैं तो वह एक नई नदी
होती है, क्योंकि पानी बदल जाता है। तो हम वापिस उस पुरानी
व्यवस्था में, और वो पता नहीं पुरानी व्यवस्था कितना गरिमामय
थी, गौरवमय थी, इसका मोह हमें छोड़ना
चाहिए। अतीत में किसान कैसा था उसके महिमामंडन का मोह हमें छोड़ना चाहिए। एक और बात
हमें छोड़नी चाहिए वो ये कि ग़लतफ़हमी ये कि ‘ग्रामीण भारत एक
कृषि प्रधान देश था’। ग्रामीण व्यवस्था कृषिप्रधान थी यह बात
सही है, लेकिन एकमात्र कृषि पर आधारित नहीं है। ग्रामीण भारत
एक कृषक भारत नहीं था।
ग्रामीण भारत औद्योगिक था। ग्रामीण भारत में तमाम तरह के हुनर थे, तमाम तरह की कलाएं थीं, तमाम तरह का
हस्त कौशल था और कपड़ा वहां बन रहा था। सब चीज़ वहां बन रही थी। तो इसलिए हमें ये
गलतफ़हमी छोड़नी चाहिए कि आजतक ऐसा किया जा सकता है कि सत्तर – बहत्तर प्रतिशत भारत केवल कृषि के सहारे जी लेगा। ये गलत बात है। ऐसा कभी
न था। आज तो यह बिलकुल असंभव है। ग्रामीण जनसँख्या केवल कृषि पर आधारित रहे,
ये न संभव है न वाजिब है, ये बहुत खतरनाक चीज़ है। अगर वह केवल कृषि पर
आधारित रहेंगे तो बहुत गरीबी में रहेंगे। लेकिन किसान एक इज्ज़त की जिन्दगी जी सके, किसान गुलाम न रहे, किसान स्वराज हासिल कर सके
ये संभव है। इसके लिए हमें ग्रामीण व्यवस्था पर नए शिरे से सोचना होगा।
आज इस देश में अलिखित योजना है, अब तो योजना आयोग
समाप्त हो गया, जो पहले योजनायें हुआ करती थीं। लेकिन आज भी
अलिखित योजना है। अलिखित योजना यह कहती है कि गाँव में खेती – कृषि का बहुत ज्यादा लोड है। और इसलिए धीरे – धीरे
गाँव उजड़ेंगे। खेती कंपनियों के हाथ में जाएगी;किसान दिहाड़ी
का मजदूर बन जायेगा। यह कहने का साहस किसी को नहीं होता, क्योंकि
जानते हैं की जो व्यक्ति कहेगा वो बदनाम हो जायेगा, जो नेता कहेगा वह चुनाव हार
जायेगा लेकिन ये अलिखित योजना है जिसपर पूरा देश काम कर रहा है। इस अलिखित योजना
को चुनौती देने के लिए आपको केवल व्यक्तिगत साहस नहीं चाहिए। इसके लिए आपको नई
सभ्यता की परिकल्पना चाहिए, इसके लिए आपको एक सांस्कृतिक स्वाभिमान चाहिए। इसके लिए आपको दूरदृष्टि
चाहिए। क्या एक आधुनिक भारत ऐसा हो सकता है जिसके गाँव संपन्न और खुशहाल हों?
हम आधुनिकता की ऐसी कल्पना क्यों करते हैं, जिसमें आधुनिकता का मतलब
गाँव का ख़त्म होना हो? भारत के सबसे आधुनिक इलाकों में मैं केरल को समझता हूँ। जहाँ शिक्षा बेहतर
है, जहाँ चेतना ज्यादा है। केरल
में तो गाँव ख़त्म नहीं हुए ! केरल में तो दीखता नहीं है कि कहाँ गाँव ख़त्म हुए
कहाँ शहर शुरू हो गया ! यूरोप में यह जरुर हुआ कि जब आधुनिकता आई तो यूरोप की
आधुनिककता की जो प्रकृति थी, प्रवृत्ति थी वो ये थी कि वहां गाँव उजड़े, उद्योग आये, उद्योग और फक्ट्रियां शहरों
में आईं और शहरों की तरफ पलायन लोगों का हुआ, और उद्योगों में उनको नौकरी दी गयी। भारत का ये
सन्दर्भ नहीं है। पहली बात भारत में आज अचानक गाँव से पंद्रह – बीस प्रतिशत
आबादी को निकाल कर शहरों में धकेल दिया जाए, तो हमारे शहरों में न तो जगह है उनको बसाने के
लिए, ना नौकरी है उन्हें देने के लिए। भारत में इस तरह के पोस्ट पलायन का तो
एकही अर्थ हो सकता है, बहुत बड़ी संख्या में लोगों की हत्या, जोकि संभव
नहीं है।
ये जो अन्धविश्वास है कि दुनिया भर में आधुनिकता एक ही सड़क से चलेगी इसे
हमें छोड़ना होगा। दुनिया में आधुनिकता अलग – अलग रूप लेती है,
अलग–अलग रास्ते चुनती है, अलग–अलग औजार
चुनती है। हमारी आधुनिकता गाँव उजाड़ करके नहीं बनी। हमारी आधुनिकता—अगर सच्ची आधुनिकता हम बनाना चाहते हैं—हमारी
आधुनिकता गाँव – देहात को सुविधा का केंद्र बनाकर बनाईये।
आधुनिकीकरण में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो ये कहता हो कि गाँव
को सुविधाविहीन बनाया जाए ! गाँव को विपन्न बनाया जाए, गाँव को मनोरंजन से मुक्त
बनाया जाए। गाँव में अच्छी लाइब्रेरी की सुविधा न हो, अच्छा स्कूल ना हो, और ये सब चीज़ों का इंतेज़ाम
किया जा सकता है, तो हमें आधुनिक गाँव की कल्पना क्यों नहीं करनी चाहिए। ये इसलिए भी जरुरी
है, ये जो दूसरी प्लानिंग है, सोचना है कि गाँव संपन्न होंगे कि शहर संपन्न होंगे? भारत बनाम इंडिया? इसपर भी हमें दुबारा सोचने की
जरुरत है। जब तक इस देश के गाँव संपन्न नहीं होंगे, तब तक
हमारे शहरी सभ्यता की संपन्नता और आर्थिक विकास की एक सीमा है। जब तक गाँव में
क्रयशक्ति (परचेजिंग पॉवर) नहीं आएगा, तब तक हमारे मैन्युफैक्चरिंग
सेक्टर, हमारे जो पूरा कंज्यूमर
इंडस्ट्री है, ये एक हद से ज्यादा आगे नहीं
बढ़ सकता। गाँव और शहर की संपन्नता जुड़ी हुयी है। अगर ये सब सोच कर हम गाँव की
परिकल्पना करेंगे, तो हम एक नए आधुनिक सभ्यता
सोचेंगे, जिसमें गाँव के लिए, खेती के लिए, किसान के लिए, एक अलग जगह होगी। वहां का किसान केवल और केवल
किसान नहीं होगा। वो किसान उद्योग चलाएगा, जिसको हम एग्रो बिजनेस कहते हैं, एग्रो
इंडस्ट्री कहते हैं। वैल्यू एडिशन करेगा, अर्थशास्त्र की
भाषा में कहें ! किसान अपने कच्चे पदार्थ को मंडी में क्यों बेचेगा, किसान अचार बनाकर क्यों न बेचे, किसान जूस बनाकर
क्यों न बेचे? किसान अपने आयुर्वेदिक प्लांट का उपयोग खुद
क्यों न करे? तो हमें एक ऐसी ग्रामीण सभ्यता की कल्पना करनी
चाहिए जो यूरोप के गाँव से बहुत अलग है, जो हमारे आज के गाँव
की दुर्दशा से बहुत भिन्न है।
इसलिए हमें गांधीजी ने जो सपना देखा था उस सपने के जो तफसील है उसकी नकल
करने की कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन उनके सपने की बुनियाद में
था, गाँव गणराज्य, गाँव स्वराज, ग्राम स्वराज हो सकता है उसकी
शक्ल बहुत अलग है ! आज जो कम्युनिकेशन टेक्नोलोजी, इन्फोर्मेशन
टेक्नोलोजी में जो परिवर्तन आये हैं, उसके चलते अब तो
ग्रामीण इलाकों को सुविधा संपन्न करना कहीं आसान हो गया है। अब जो उर्जा के जो
परिवर्तन आ रहे हैं, खासकर सोलर एनर्जी में जो क्रांति हो
रही है उसके चलते ग्रामीण इलाकों में बिजली देने ज्यादा आसान हो गया है। क्यों
नहीं हो सकता ये जो आधुनिक सभ्यता आधुनिकता के मर्म है कि किसी की नक़ल न करें, आधुनिकता का मतलब है अपनी
चुनौती को स्वीकार कर ऐसे विकल्प निकालना जो किसी ने पहले सोचे न हों। इस लिहाज़ से
हिन्दुस्तान की यूरोप से नकल करने की प्रवृत्ति होती है मुझे वो आधुनिकता नज़र ही
नहीं आती, ये कैसी आधुनिकता है !
इंग्लॅण्ड के कपड़े बदल गये हमारे कपडे बदल जायेंगे, उनका बोलने का तरीका बदल गया हमारे बदल जायेंगे, उनका टीवी शो बदल गया हमारे
टीवी शो बदल जायेंगे, ये आधुनिकता काहे की !
आर्थिक नवउदारवाद और किसान?
योगेन्द्र यादव : नवउदारवाद
एक लेवल में हम कई बातों को डालते हैं, जो कही जाती हैं कि किसान के खिलाफ हैं, नवउदारवाद
में एक तो बाज़ार का विस्तार जो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। बाजारवाद को हम नवउदारवाद न कहें। इससे पहले भी बाज़ार था, उदारवाद से पहले भी बाज़ार था, पूंजीवाद से पहले भी बाज़ार
था। और ये मान लेना कि बाज़ार किसान का दुश्मन है, ये जल्दबाजी होगी। बाज़ार सिर्फ
एक औजार है, एक जगह का नाम है, वो अलग अलग तरह के काम कर
सकता है। अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग राजनैतिक सत्ता समीकरण में बाज़ार
अलग-अलग काम करता है। जिसे हम नवउदारवाद कहते हैं उसमें दो बातें हैं। एक तो
आंतरिक हमारे देश की, और एक बाह्य ! आन्तरिक तौर पर देश में सरकार ने अपनी दखलंदाजी कम कर दी,
जिसको हम नवउदारवाद कहते हैं, हालाँकि कृषि
क्षेत्र में ऐसा बहुत कम हुआ। दूसरा, अंतर्राष्ट्रीय समझौते,
जिसकी वज़ह से हमारे हाथ कुछ बंध गये हैं। कृषि क्षेत्र में दोनों
अभी बहुत सीमित हैं। सरकार ने जिन चीजों से अपने हाथ खींचे हैं उनमें अभी कृषि की
बहुत कम बातें हैं। अभी भी कृषि को सुविधाएँ दी जा रही हैं। अभी भी कृषि को
सब्सिडी दी जा रही है अभी भी, नवउदारवादी जो बाते न चाहेंगे, यानि कि फर्टिलाइजर पर
सब्सिडी दी जा रही है। अभी भी बड़े पैमाने पर धान गेंहूं की खरीद होती है सरकार के
द्वारा, अभी भी सरकार काफी कुछ कर रही है कृषि के क्षेत्र में। नवउदारवाद का कैसा
दायरा,असर अभी मुझे दिखाई नहीं देता। WTO का असर है ! WTO का असर इसलिए है कि WTO धीरे – धीरे भारत की खेती के बारे में भारत सरकार
किसान को कितनी रियायत, कितनी सब्सिडी दे सकती है, उसपर सीमायें लगा देता है।
वो सीमाएं अभी ओप्रेटिव नहीं हुयी हैं, लेकिन अगले कुछ सालों में बहुत
तेजी से हो जाएँगी, तो वह एक चिंता है। लेकिन
मैं इन दोनों बातों को इसलिए कह रहा हूँ कि आंशिक है, अभी भी जो
हमारा किसान गुलाम है, उसका प्रमुख कारण नवउदारवादी परिवर्तन नहीं है।
उसका प्रमुख कारण है आज़ादी के बाद से देश की सत्ता का जो किसान विरोधी रुख रहा है, दूसरी
पंचवर्षीय योजना से उद्योग को खुल्लम-खुल्ला समर्थन देना शुरू किया गया कृषि को
नज़रअंदाज करके। 1966-67 में जब अकाल पड़ा तो ध्यान गया कि कृषि को कुछ
करना तो है। लेकिन उसके बाद कृषि नीति का मुख्य ध्येय उत्पादन बनाये रखना है, सारी कृषि नीति में हमारा
ध्यान उत्पादन पर है, उत्पादक पर नहीं है। उत्पादक को क्या होता है वह कुछ कमाई कर पाता है या
नहीं, इसके तरफ कोई ध्यान नहीं गया। उसके बाद से जितने भी
बदलाव आये हैं उस सबमें कृषि को बेहतर बनाने के लिए देश में कुछ बड़ा किया गया हो,
यह तो देश में रहा ही नहीं ! वो मानकर चल रहे थे कि
विकास-आधुनिकीकरण का मतलब है कि बाकि सब चीज़ें बेहतर होंगी कृषि जैसी है वैसी रह
जाएगी ! ये जो सोच है, हमारे देश में विकास का जो मॉडल है,
जो नवउदारवाद के पहले बना था, वो मॉडल इसके
लिए जिम्मेवार है जिसके बारे चौधरी चरण सिंह लिखा करते थे, जिसके
बारे में कई अर्थशास्त्रियों ने लिखा।
अभी भी मैं नवउदारवाद को इसका प्रमुख कारण नहीं मानता। नवउदारवाद इसको
ज्यादा कठिन बनाये देता है। लेकिन प्रमुख कारण तो वो नीतियाँ हैं। ये बात बिल्कुल
सही है कि किसान की स्थिति बेहतर करने के लिए एक छोटी –मोटी
नीति से काम नहीं चलेगा। ये नहीं हो सकता कि बजट में वित्तमंत्री ने एक नई योजना
घोषित कर दी जिसमें दस हज़ार करोड़ रुपया खर्च होंगे और किसान कल से फ़िदा हो जायेगा, नहीं आपको अपनी पूरी आर्थिक
नीति की जो डिजाइन है, आर्थिक नीति की जो पूरी
संकल्पना है, वो बदलनी होगी। देश का भविष्य क्या है इसकी सोच बदलनी होगी और आधुनिकता के
प्रति अपनी दृष्टि ठीक करनी होगी।
आज किसान आन्दोलन जगह – जगह
उत्तेजित होता जा रहा है इसके पीछे बड़ा कारण आप क्या मानते हैं?
योगेन्द्र यादव : एक
तात्कालिक कारण है, एक बुनियादी कारण है।
तात्कालिक कारण तो ये है कि दो साल तक सूखे में किसान ने किसी तरह तो बर्दाश्त
किया ! चलो अगली बार तो बारिश आएगी। तीसरे साल बारिश आई फसल अच्छी हो गयी। किसान
ने योजना बनायीं होगी। किसी ने लड़की की शादी के बारे में सोचा होगा, किसी ने बच्चे को मोटर साइकिल लेने के बारे में सोचा होगा, किसी ने सोचा होगा बाबा का ओपरेशन करवाना था वो इसी साल करवा देंगे। और जब
वह मंडी में जाता है तो उसको दाम नहीं मिलता, उस साल जबकि
सबकुछ ठीक है, तो किसान का सब्र का बाँध टूट
जाता है। ये इसका एक तात्कालिक कारण है। तात्कालिक कारण जो ये किसान का सब्र का
बाँध टूटता है, जब वह मंडी में पहुंचता है, तो उसकी फ़सल का वाजिब
दाम क्यों नहीं मिलता, 2017 में जब वह पहुंचता है मंडी
में तब ! उसके पीछे सरकार कहेगी इतने की फसल ज्यादा हो गयी हम क्या करें? आपूर्ति
ज्यादा है मांग कम है। लेकिन दरसल वो नहीं है, इसके पीछे कई
कारण हैं, एकाक फसल में जरुर आपूर्ति
ज्यादा हो गयी है और वह सीजनल होता है, वह हमेशा रहता है। कृषि का एक नियम है। उस
आपूर्ति और मांग के बीच सामंजस्य करने के लिए सरकार को जो काम करना चाहिए था, गोदाम बनाने चाहिए थे, सरकार को खरीद करनी चाहिए थी, वे सब तो सरकार ने किया
नहीं! लेकिन केवल ये नहीं !
दो, आप और देखिये सरकार की
नीतियाँ। एक, विमुद्रीकरण। नोटबंदी से उस
वक्त हमें लगा कि बहुत फर्क नहीं पड़ा। लेकिन नोटबंदी का सबसे बड़ा असर ये हुआ कि जो
कृषि उत्पाद की मंडियां हैं, वे मंडियां मुखतः कैश पर चलने वाली मंडियां हैं
और जब कैश बाज़ार से ख़त्म हो गया, तो उससे मांग पर असर पड़ा। क्योंकि ये हो नहीं
सकता कि अचानक हर फसल का दाम गिर जाए ! आप देखें फसल का दाम सिर्फ दालों में नहीं
गिरा है, दालों में आप कह सकते हैं
आपूर्ति ज्यादा हो गयी। गेंहू में गिरा, सोयाबीन में गिरा, चलो इनको भी
आप कह लीजिये बड़े फ़ूड ब्रेंड हैं लेकिन दाम कलौंजी में गिरा है, दाम लहसुन का गिरा है, दाम जीरे का गिरा है। दाम हर
छोटी – बड़ी चीज़ का गिरा है। ये तभी है क्योंकि बाज़ार में कैश फ्लो कम होने की वज़ह
से डिमांड जो है थोड़ी सी कम हुई है। ये ऐसी चीजें हैं जिनमें दाम थोड़ा सा भी कम हो
जाये तो किसान पर असर पड़ता है।
बुनियादी कारण ये है कि पिछले इतने साल से सरकार की आयात नीति—इम्पोर्ट पालिसी ! जब एकबार ऐसा लगने लगा कि गेंहू की पैदावार पर्याप्त
नहीं हुयी। सन् 2015-2016 में तो सरकार ने थोड़ी सी कमी महसूस की। सरकार
को लगा कि जो स्टॉक हैं वह कम हो रहे हैं। तो सरकार ने गेंहू पर आयात शुल्क घटाकर
पहले दस प्रतिशत कर दिया, फिर उसको शून्य प्रतिशत कर
दिया ! मतलब क्या है कि जब गेंहू की फसल आएगी तब तक इंपोर्टेट गेंहू आ चुका होगा !
तो उसके ऊपर लाने का वह खतरा है। दाल का इतनी बड़ी मात्र में आयात किया गया। अगर
प्याज चालीस – पचास रुपये प्रति किलो होती है तो सरकार आयात करना शुरू कर देती है। जब
प्याज इतने सस्ते में बिक रही है तो उसके निर्यात की कोई व्यवस्था ही नहीं ! जैसे
ही प्याज हलकी सी मंहगी होनी शुरू होती है प्याज के निर्यात पर बैन लगा दिया जाता है। यानि कि सरकारी नीतियाँ ऐसी हैं जो कुल मिलाकर
सुनिश्चित कर रही हैं कि कहीं किसान को उसके फसल का दाम न मिल जाय। उद्देश्य उसके
दाम रोकना नहीं है, उद्देश्य खाद्यान्न पदार्थों
की जो कीमतें हैं वह कम रहें। देश में खाद्यान्न की कीमत कम रखने की सारी
जिम्मेवारी किसान के कंधे पर है।
ये कभी नहीं होता कि सरकार कहती है कि देश में ज्यादा लोहे के सरिये की
जरूरत है अस्पतालों के लिये, स्कूलों के लिए, सरकारी बिल्डिंग के लिए इस लिए लोहे का दाम
गिरा दो बाज़ार में। ये नहीं होता। सरकार लोहे के सरिये खरीदकर सस्ते में दे देती
है। केवल किसान के साथ होता है क्योंकि आपकी फसल के एक हिस्से का इस्तेमाल गरीबों
के लिए करना है। इसलिए आपकी फसल का दाम ही कम कर दिया जाय। ये दो नीतियाँ हैं
क्योंकि ये पिछले साल में दाम कम हुआ। नोटबंदी और आयात नीति जिससे किसान का आक्रोश
बढ़ता गया है !
दीर्घकालिक देखें तो किसानी एक घाटे का धंधा है। चार शब्द में आपको किसान
का अर्थशास्त्र पता चल सकता है। आमद, क़र्ज़, आपद, खर्च—ये चार शब्द आपको
पूरा किसान का अर्थशास्त्र बता सकते हैं ! किसान की आमद यानि फसलों का दाम। पिछले
चालीस – पचास साल में फसलों का दाम बिल्कुल कछुए की रफ़्तार
से बढ़ा है। खर्च, जो उसका लागत है वो बहुत तेजी से बढ़ा है।
खेती के अलावा जो दूसरा खर्च है किसान का वो तो इतनी तेजी से बढ़ा है शिक्षा पर, स्वास्थ्य पर, किसान का
खर्च ऐसे बढ़ा है। बाकी लोग जिन्हें वह गाँव में देखता है, शहर में देखता है, उनकी आमदनी किस तेजी से बढ़ी
है कि दोनों में कोई संबंध ही नहीं बचा है। पिछले चालीस साल के अंदर गेंहू के दाम
उन्नीस – बीस गुना बढ़े। इसी समय में जो गाँव में टीचर है उसकी तनखा ढेढ़ से दो सौ
गुना बढ़ गयी। इसी समय में प्राइवेट नौकरी करने वालों की तनखा दो सौ से तीन सौ गुना
बढ़ गयी। जूता का दाम दो सौ गुना बढ़ा है। ऐसे में किसान कैसे भरपाई कर पायेगा?
आमद और खर्च का संबंध जो है वह बिल्कुल आउट साइटेड हो गया है। खेती
घाटे का धंधा है, एक अच्छा साल होता है तो किसान किसी तरह से
अपना पुराना ऋण चुका देता है और अपने सालभर की व्यवस्था कर लेता है। जब ख़राब साल
आता है, एक भी छोटी आपदा जब आती है, तो आपदा को
किसान बर्दाश्त नहीं कर सकते। वो आपदा प्राकृतिक आपदा हो सकती है, वो आपदा दाम का गिरना हो सकता है, वो आपदा पशुओं का खेत चर जाना हो सकता है। आपदा
का सिलसिला इस वक़्त बढ़ रहा है क्योंकि क्लाइमेट चेंज की वज़ह से अब विचित्र मौसम की
संभावना बढ़ती जा रही है।
इस
बार अच्छा मानसून था, लेकिन क्या हुआ दक्षिण से जम्प करके
सीधे उत्तर में आ गया। पूरे सेन्ट्रल इंडिया पर छलांग लगाते हुए मानसून आ रहा है।
इस तरह की बातें पहले हुआ नहीं करती थीं, तो क्लाइमेट चेंज की वज़ह से किसान का ज्यादा
औसत पानी पूरा हो गया लेकिन सारा पानी तीन दिन में पड़ गया। तो किसान उसका कुछ नहीं
कर सकता। इन सब बात से आपदा की संभावना बढ़ गई है। आपदा को झेलने की उनकी आर्थिक
कैपेसिटी ख़त्म हो चुकी है, उसकी वज़ह से किसान क़र्ज़ में फँस जाता है। क़र्ज़ में जाता है तो क़र्ज़ का एक
ऐसा लॉजिक है कि उस क़र्ज़ को चुकाने की स्थिति उसकी है नहीं! जब वह साहूकार से क़र्ज़
लेता है तो वह चालीस या पचास फीसदी पर क़र्ज़ लेता है, तो कैसे
उसे चुकाया जा सकता है। क़र्ज़ के भँवर में वह डूबता जाता है, तब
या तो वह चोर बनता है या आत्महत्या करता है। आजकी जो पूरी अर्थव्यवस्था जो है वह
किसान को चोर बना रही है, भिखमंगा बना रही है, क़र्ज़ लेकर भागने वाला बना
रही है। यह अर्थव्यवस्था बुनियादीरूप से जिम्मेदार है, जो किसान
आन्दोलन इस वक़्त कमजोर पड़े हैं उसका बुनियादी कारण है।
स्वामीनाथन आयोग की चर्चा हो रही है, वह किसानों
की समस्या को हल करने में कितना मददगार है?
योगेन्द्र यादव : स्वामीनाथन
रिपोर्ट एक बहुत बड़ा दस्तावेज है, जो भारत के किसानों के
तमाम पक्षों पर कुछ विचार करता है। उसके बारे में कई रिकमंडेशन देता है, बहुत रिकमंडेशन हैं स्वामीनाथन रिपोर्ट। उनमें से एक रिकमंडेशन किसानों
में बहुत चर्चा का विषय बना हुआ है। वो था कि किसानों को जो मूल्य दिया जाय वो कम
से कम लागत मूल्य से इतना ज्यादा हो कि किसान को पचास फीसदी ज्यादा हो। किसान को
पचास प्रतिशत बचत होनी चाहिए, ये उस रिपोर्ट की सिफारिश थी।
उस सिफारिश से किसानों को अचानक लगा कि उनकी बात कोई कहने वाला सरकारी दस्तावेज
जैसे सच्चर आयोग की रिपोर्ट ने ऐसा कुछ नहीं बताया कि जो किसी को पता न हो लेकिन
हां, अचानक मुसलमान को लगा कि मेरे सच को सरकारी दस्तावेज
में दर्ज किया गया है। इसी तरह से स्वामीनाथन आयोग ने जो कहा ये बात सबलोग जानते
रहते हैं।
लेकिन
स्वामीनाथन आयोग ने, स्वामीनाथन की अपनी एक
प्रतिष्ठा रही है, हरित क्रांति की शुरुआत करने वाले व्यक्ति थे, इसलिए
आयोग की प्रतिष्ठा रही है, तो किसानों को लगा हाँ, कोई हमारी बात कहने वाला है। वो जो मांग है, जो उसकी सिफारिश है, वो सिफारिश अब सबसे ज्यादा
जानी जाती है। क्या वो सिफारिश सही है? हाँ, बिल्कुल सही है। कोई भी बिजनेस हो, खासतौर से किसानी जैसा बिजनेस जिसके अंदर इतनी अनिश्चितता, उसमें अगर आपका मार्जिन पचास
प्रतिशत नहीं होगा तो आप कैसे चलाएंगे? ढाबे से लेके होटल तक का बिजनेस कम से कम सौ प्रतिशत मार्जिन पर चलता है।
सिर्फ फिनेंस की कंपनी है जो छोटे मार्जिन पर चल सकती है, तो
पचास प्रतिशत मार्जिन की बात बिल्कुल सही है; लेकिन ये
अपर्याप्त है। अपर्याप्त इसलिए है कि सरकार लागत को जिस तरह से से कैलकुलेट करती
है उस तरह से किसान की लागत कितनी है? किसान के जो श्रम हैं
उस श्रम को एक अकुशल मजदूर, एक दिहाड़ी के मजदूर के रूप में गिना जाता है।
दूसरा, किसान की जमीन की जो लागत है
या तो उसको जोड़ा नहीं जाता या बहुत थोड़े से जोड़ा जाता है। वास्तविक लागत जो है
उससे एक चौथाई से कम जोड़ा जाता है।
पहले आप तो किसान की लागत ठीक से नहीं कैलकुलेट करते, लागत कैलकुलेट कर लें तो उसके ऊपर बचत नहीं है। आज भी आप (CCPA) कमीशन ओन एग्रीकल्चर कास्ट एंड प्राइस की रिपोर्ट देख लीजिये तो आज भी ऐसी
फसल हैं, जो सरकार द्वारा रिकमेंडेड न्यूनतम समर्थन मूल्य
(एमएसपी) से कम आज भी है। मैं जाकर CSP वालों को उनको अपनी
रिपोर्ट दिखाई। आपके हिसाब से, आपकी कम से कम रिकमंड करें।
ये बात सुनिश्चित होनी चाहिए लेकिन वे केवल एक छोटे से सरकारी निर्णय का मामला
नहीं है। पहला मामला ये है कि एमएसपी ठीक ढंग से गिनी जाय, दूसरा
उस पर पचास प्रतिशत लाभ दिया जाय एमएसपी की घोषणा करते समय। तीसरा और सबसे
महत्त्वपूर्ण सवाल ये कि एमएसपी मिले किसान को। मिलती नहीं है। आज की तारिख में न
एमएसपी ठीक से कैलकुलेट हो रही है, न एमएसपी पर पचास प्रतिशत मुनाफा दिया जा रहा
है, लेकिन
विडंबना ये है कि जो भी एमएसपी घोषित होती है वो भी किसान को नहीं मिल रही।
संकट क्या है? चौदह सौ पचास रुपए गेंहू का दाम है, बिक रहा है
गेंहू तेरह सौ रुपया में। चौदह सौ रुपया धान की कई प्रजातियों का है लेकिन बिक रहा
बारह सौ में। दाल का एमएसपी है पांच हज़ार पचास रूपये बिक रही है ढाई हज़ार में। जब
तक सचमुच व्यवस्था नहीं होती कि एमएसपी गिना जाय कि नहीं, तब
तक ये केवल कागज़ का एक टुकड़ा है, जिसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
सरकार या तो खरीद करे या जहाँ खरीद नहीं कर सकती, सरकार
कलौंजी क्यों खरीदे, जीरा क्यों खरीदे, मैं मानता
हूँ सरकार लहसुन क्यों खरीदे, गेंहू – धान
इसलिए खरीदती है क्योंकि उसे राशन की दुकानों पर देना होता है, लेकिन जो चीज़ें देनी नहीं है वो चीज़ें न खरीदे तो समझ आता है, लेकिन अगर ऐसा है तो सरकार को उसमें जो भिन्न है, अंतर
है, सरकार के न्यूनतम मूल्य से कम कितना किसान को मिलता है,
उसके भरपाई की व्यवस्था करनी होगी। जब तक यह नहीं होता यह कह देना
कि स्वामीनाथन का वो पचास प्रतिशत एमएसपी लागू कर दो, उसका कोई मतलब नहीं है।
किसान खेती बाड़ी के साथ
पशुओं का भी पालन करता है। किसानों का बहुत बड़ा गरीब तबका पशु-व्यापार पर आश्रित
है। भाजपा की गुजरात सरकार ने पशु तस्करी के नाम पर कुछ ऐसे नियम कानून बना दिए
हैं जो अव्यवहारिक है। इस कानून के अंतर्गत पकड़े गए व्यक्ति को आजीवन कारावास या
दस लाख का जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है। पशु तस्करी के बहाने भाजपा और संघ
परिवार अपने पुराने एजेंडे को लोगों पर थोपने की कोशिश कर रहा है। इस कानून को अब राष्ट्रीय स्तर पर लागू कराने की उग्र मांग भाजपा और अन्य
हिंदूवादी संगठनों द्वारा हो रही है, इसका किसान संगठनों
द्वारा कोई विरोध देखने को नहीं मिल रहा? ऐसा क्यों?
योगेन्द्र यादव : भारत
सरकार के हिसाब से किसान की खेती से औसत आय है, तीन हज़ार
अस्सी रूपये प्रति महीना और आठ सौ रुपया उसे प्रतिमाह पशुपालन से मिलता है। वो
किसान जो मुख्यतः खेतिहर नहीं है, भूमिहीन है, उसकी आमदनी का भी एक बड़ा हिस्सा पशुपालन से है, तो
पशुपालन किसान के गुजर बसर का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। अभी जो कानून बनाया जा
रहा है वह सिर्फ अव्यावहारिक ही नहीं है बल्कि पाखंडी भी है। भारतीय जनता पार्टी
गौ की रक्षा करना चाहती है, बहुत अच्छी बात है ! क्योंकि आज
भी इस देश का हिन्दू समाज गऊ की रक्षा करना अपना धर्म समझता है। इसलिए गौ रक्षा के
लिए कोई कानून बनता है तो मैं नहीं समझता हूँ कि उसका विरोध करना चाहिए ! लेकिन गौ
रक्षा का मतलब क्या है?
हमें ये तय करना होगा कि गौ रक्षा करनी है या मुसलमान का का शिकार करना है?
दोनों चीज़े एक साथ नहीं !
अगर गौ रक्षा करनी है, जो अपने आप में बुरी बात नहीं है, हमारा संविधान भी कहता है गो
रक्षा करो, इस देश का बहुमत समुदाय, बहुमत समुदाय नहीं संस्कृति
का सामान्य हिस्सा है कि गौ की हत्या न की जाय। कुछ हिन्दू जातियां और कुछ गैर
हिन्दू लोग गाय मांस खाते हैं लेकिन उनका धर्म ये नहीं कहता कि गाय मांस ही खाओ,
तो उसको बचाने में कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत ये है कि गौ को बचाने
के लिए वास्तव में जो करना चाहिए वो ना किसी की इच्छा है, ना
ही किसी की हिम्मत है ! गाय को अगर बचाना है तो सबसे पहले गोचर ज़मीन बचानी होगी,
जिसको हर गाँव में सरकार और राजनेता लोग मिलकर खा गए हैं। गौ को
बचाना है तो उसका जिम्मा किसान पर तो नहीं डाला जा सकता !
किसान को तो आप ये नहीं कह सकते कि छह साल आपने गौ का दूध पिया है। इसलिए
पांच साल भी दूध पीने के बाद भी पालो आप ! नहीं तो अपराध हो जायेगा। बेच आप सकते
नहीं, मार आप सकते नहीं। अगर
भारतीय जनता पार्टी की सरकार गंभीर है तो वो गाय पर सब्सिडी देना शुरू कर दे।
मैंने चेक किया है कोई आठ – नौ सौ रूपये माह की सब्सिडी होगी। आठ सौ – नौ सौ
रुपया माह किसान को सब्सिडी दे दे। या जैसा कि रिटायरमेंट के समय होता है एक समय
पर पेंशन मिल जाती है, तो ठीक है गाय जब दूध देना बंद कर देती है तो
उसको पालने के लिए बीस हज़ार रुपया पेंशन दे दे। किसान अगले चार – पांच साल तक
पाल लेगा। इतनी इच्छा शक्ति है, इतना संकल्प है, तो जेब से पैसा निकालिए या पूरे हिन्दू समाज को मनाईये। पच्चीस करोड़
हिन्दू परिवार इस देश में होंगे, उसकी आधी गाय होंगी। तो हर
परिवार एक-एक गाय पाले। ये जितने गो रक्षक हैं इन सबके फ्लैट में गाय बांधिए, वो पालें, पता लग
जाएगा कितनी निष्ठा है गाय के प्रति। गाय को आप पूजना चाहते हैं, तो गाय की फोटो को पूजना छोडिये, लेकिन गाय से इनका
कोई मतलब नहीं है। अगर गाय से इनको मतलब होता तो इनके घर के बाहर जो गाय प्लास्टिक
खाती है, हर जगह पर, हर शहर में गाय
कूड़ा खा रही है, प्लास्टिक खा रही है, मर
रही है, बिल्कुल ह्रदय विदारक स्थिति है, किसी को कोई फरक नहीं पड़ता। ये तो पाखंड है।
ये आरएसएस का षड्यन्त्र है और यह हिन्दू समाज का पाखंड है। अगर हिन्दू
समाज वाकई गाय बचाना चाहता है तो कौन इनको गाय बचाने से रोक रहा है। मुझे ये बताइए
कहाँ कोई हिन्दू है जो वह गाय पाल रहा है और मुसलमान उससे छीन – छीन ले जा रहा है। गाय को बेचने वाले आप, गाय को घर
से खदेड़ने वाले आप, उसकी सड़क पर सेवा न करने वाले आप,
बड़े – बड़े बुचड़खानों के मालिक आप, दोषी मुसलमान? ये कैसे हो सकता है ! इतना बड़ा पाखंड कैसे चल सकता है देश में ! समस्या
दूध देती हुयी गाय की नहीं है, बाछी की समस्या नहीं है,
जो कुछ वर्षों बाद दूध देने लगेगी। समस्या बछड़े, बैल और दूध देना बंद कर चुकी बूढ़ी गाय की है। अब तक उसका एक यही तरीका था
कि उसको काटने के लिए भेज दिया जाता था। बेचने वाला भी इस बात को जानता है। आप गाय
के लिए संसाधन खर्च कीजिये, इस देश में जैसे शेर को बचाया जा
सकता है वैसे गाय को क्यों नहीं? गाय को भी बचाया जा सकता है।
आपने गुजरात में पाटीदार
आन्दोलन के आरक्षण की मांग को लेकर एक बार कहा था
कि इसकी वजह घाटे की खेती और किसानी से मोह भंग है? तो जहाँ – जहाँ
भी आरक्षण की मांग हो रही है उसके पीछे क्या घाटे की खेती ही जिम्मेदार है?
योगेन्द्र यादव :
देखिये जहाँ – जहाँ , कृषक समुदाय
पिछले दो साल में बार – बार मांग कर रहे हैं कि उनको
रिजर्वेशन मिल जाय, जाट को आरक्षण चाहिए, पाटीदार को चाहिए, मराठा को चाहिए, कापू को चाहिए ! ये क्या है? इसकी जड़ में ये बात है कि यह कृषक
समुदाय है। किसान की हालत बहुत ख़राब है। अब ये कृषक समुदाय का दो –पांच प्रतिशत शहरों में पहुँच जाता है। कुछ पटेल आ गये हैं जो अमरीका तक
चले गये हैं, इंग्लॅण्ड तक पहुँच गए हैं। कुछ जाट हैं जो
काफी संपन्न हो गये हैं। लेकिन आज भी बहुसंख्यक पटेल, गाँव
का खेती करता है, बहुसंख्यक जाट एक किसान है, और बहुत गरीब किसान है। जमीन
उतना नहीं है, जाटों के बारे में आप जितनी भी धारणा चाहे शहरों में बना लें, जाट गरीब किसान है। ये जो मराठा है, कोंदी, कोंदी जो है बिल्कुल गरीब
कृषक समुदाय है।
ये किसान लोग हैं, किसानी घाटे का धंधा है, किसानी में
कुछ मिलता नहीं है, तो ये मांग, आन्दोलन ऐसे हैं नहीं कि किसान
की आर्थिक आवश्यकता को बेहतर करे। किसान को उसका दाम मिले, किसान को आमदनी मिले। वो
नहीं मिलता तो फिर आँख में धुल झोंकने वाला आन्दोलन मिलेगा कि रिजर्वेशन मिलेगा? मैं जाट आन्दोलन में गया। गाँव –
गाँव घरों में गया। उन घरों में गया जिनके बच्चे गोली से मारे गए।
सबसे बड़ी त्रासदी की बात ये है कि वे बच्चे दसवीं पास नहीं थे। यानी आरक्षण कभी
मिलता तो उस बच्चे को कभी मिलना ही नहीं। आरक्षण के आन्दोलन में मरा उसको आरक्षण
कभी मिल ही नहीं सकता तो ये सब भटके हुए किसान आन्दोलन हैं। और इन आन्दोलनों को
दिशा देने का तरीका यही है कि किसान का सवाल उठाया जाय, किसान की बदहाली का सवाल
उठाया जाय, उसपर इमानदारी से चर्चा हो।
क्या आपको लगता है कि
देश में कुछ वर्षों से राजनीतिक पार्टियाँ ‘अस्मिता’ (पहचान) और उग्र ‘राष्ट्रवाद’ की
जो राजनीति कर रही हैं उसकी वजह से किसान और उसका सवाल हाशिये पर चला गया था?किसानों के सवालों को लेकर पिछले तीन-चार वर्षों में आपकी सक्रियता ने
राजनीतिक पार्टियों में चर्चा का विषय बनाया है, आपको क्या
लगता है किसान राजनीति को चुनौती कहाँ से मिलाने वाली है?
योगेन्द्र यादव : दुनिया में हर राजनीति
अस्मिता की राजनीति होती है। वर्कर्स ऑफ़ द वर्ल्ड यूनाइट हियर यू हैव नथिंग टू
व्हाट योर चेंज’ ये अस्मिता की राजनीति है। वर्कर, आप वर्कर हैं, या तुम औरत हो, जाति और धार्मिक एक अस्मिता है। ये बेहतर तब चलती है जब एक दूसरे किस्म की
अस्मिता की राजनीति दब जाती है। अगर आप किसान की अस्मिता को बनायें, किसान के आत्मसम्मान को
जगाएं और ये कहें कि ‘तुम किसान हो जैसा कि मैं अपने भाषणों वगैरह में कहता हूँ कि किसान की
एकही जाति है ‘किसान’ ! यही अस्मिता की
राजनीति है। लेकिन ये राजनीति सकारात्मक स्वस्थ दिशा में आपको ले जाती है। जो
नकारात्मक दिशा में ले जाने वाली राजनीति होती है, वह इसलिए
भी होती है कि थोड़ा आसान होती है। ये चालू सस्ती राजनीति होती है। थोड़ा करके आपको
ज्यादा मिल जाए। हार्दिक पटेल जैसे तुरत बड़े नेता बन सकते हैं। ये बात जरुर है कि
धार्मिक जाति उन्माद बढाने की राजनीति का शार्टकट है। राजनीति में बिना मेहनत किये
कुछ मिल जाए इसका जो लालच होता है वो आपको अस्मिता की राजनीति की तरफ धकेलता है। लेकिन
अंततः किसान राजनीति इसके खिलाफ खड़ी की जा सकती है जैसे कि अब हो रहा है। अब जो हो
रहा है वह तो जाति से परे हो रहा है।
मध्यप्रदेश जैसी घटनाओं को आप किस तरह देखते
हैं? इस तरह के आन्दोलन को सरकारों ने कर्ज माफ़ी के तुरंता हथियार अपनाकर बहला
लिया जा रहा है ! ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जा रहा जिससे देश के किसानों-मजदूरों की
आर्थिक स्थिति में मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तन ला सके।
योगेन्द्र यादव: सब तरह से हो रहा है। आज
क़र्ज़ माफ़ी एक मुद्दा बन जा रहा जिससे किसान को गोलबंद करना आसान हो जाता है। लेकिन
क़र्ज़ किसान की असल समस्या नहीं है जैसा कि मैंने कहा क़र्ज़ आमद खर्च आपद से शुरू
होता है, फिर मामला क़र्ज़ तक पहुंचता है। जबतक आमद को एड्रेस नहीं करेंगे तबतक,
क़र्ज़ मुक्ति आज कर दीजिये, पांच साल बाद फिर
करनी पड़ेगी क़र्ज़ मुक्ति। मगर इसे मैं बहुत सकारात्मक पक्ष मानता हूँ। कि मध्य प्रदेश
और महाराष्ट्र दोनों के आन्दोलन ने आमद का सवाल उठाया है। फसलों के दाम के सवाल
उठाया, केवल क़र्ज़ मुक्ति का सवाल नहीं उठाया।
आप कई वर्षों से किसानों के बीच काम कर रहे हैं
तथा आपने पूर्व दो वर्षों में जंतर मंतर पर दो बड़े आन्दोलन किये किसान के सवालों
को लेकर। आपकी जो मांगे थी उस समय सरकार और राजनीतिक पार्टियों ने अनदेखी न की
होती तो आज शायद मंदसौर जैसी घटना न होती, किसानों को अपनी जान न
गंवानी पड़ती?
योगेन्द्र यादव : देखिये
राजनीति में कोई कॉपीराइट नहीं होता, नहीं होना चाहिए। हमने
कोई आन्दोलन किया उस वक्त माहौल नहीं था उसको स्वीकार करने का ! उसके छः महीने बाद
किसी ने किया और वह सफल हो गया। मेरे सवालों को लेकर उस समय पूरे देश में माहौल
बना सकना असंभव था। क्योंकि एक बार की चोट में में दीवार हिलती भी नहीं है। दूसरी
बार में हिल जाती है। तीसरी बार उसी चोट से, हल्की चोट से दीवार ढह सकती है। ये इतिहास का
नियम है। इसके बारे में कुछ कर नहीं सकते, शिकायत तो नहीं ही करनी चाहिए
! मेरी, जय किसान आन्दोलन की काफी
समय से मान्यता रही है कि किसान का सवाल इस देश का सबसे बड़ा सवाल है। यह सबसे बड़ा
आर्थिक सवाल है सबसे बड़ा राजनैतिक सवाल है। मेरी आज भी मान्यता है कि अगर मोदी
सरकार को चुनौती दी जा सकती है तो वो राष्ट्रवाद के सवाल पर नहीं दी जा सकती है।
धार्मिक कट्टरपंथ के सवाल पर नहीं दी जा सकती। ये चुनौती किसान के सवाल पर और युवा
बेरोजगार के सवाल पर। ये दो ही सवाल हैं जिसपर मोदी सरकार को चुनौती दी जा सकती
है। ये दो बड़े सवाल हैं। हमने शुरू से इन्हें चिन्हित किया है।
मौजूदा परिदृश्य को
देखते हुए आप किसान और किसान राजनीति का भविष्य किस रूप में देखते हैं?
योगेन्द्र यादव : किसान
राजनीति के पास सिर्फ दस साल हैं। इस देश में विकास का पिछले सत्तर साल का जो
ढांचा रहा है उस ढांचे के हिसाब से यदि हम चलेंगे गाँव उजड़ेंगे, खेती किसान के हाथ से जायेगी। किसान पत्थर तोड़ेगा, दिहाड़ी का मजदूर बनेगा।
लेकिन ये नियति नहीं है किसान की। इसको बदलने के लिए राजनीति और संकल्प की जरूरत
है। किसान को अगर कुछ भी हासिल होगा तो राजनीति से ही हासिल होगा। ट्रेड यूनियन
बिना राजनीति के काम चला सकती है, सरकारी कर्मचारी को राजनीति की बिल्कुल
आवश्यकता नहीं है। बड़े – बड़े उद्योगपतियों का काम मोबाइल या
होटलों में मीटिंग से चल जाता है। किसान को जो कुछ मिलेगा केवल राजनीति से मिलेगा।
सड़क पर संघर्ष से मिल सकता है।
लेकिन अपनी इस नियति को बदलने के लिए किसान के पास अब केवल दस साल है।
क्योंकि देश की जनसंख्या का अनुपात बदल रहा है। किसान कुछ ही दिन बाद देश का
अल्पसंख्यक बन जायेगा। इस देश की जीडीपी में तो अब वह बहुत छोटा हिस्सा बन ही चुका
है, जनसंख्या में अल्पसंख्यक हो जायेगा। यानी कि अब तक
राजनेता जो कम से कम डरते हैं, इस बात से कि किसानों का
आन्दोलन न हो जाए, किसान भड़क न जाय। चूंकि उन्हें वोट दिखाई
देता है, जिस दिन नेताओं को वोट भी
दिखना बंद हो जायेगा किसान का उस दिन तो किसान की कीमत एक छिलके के बराबर भी नहीं
बचेगी। इसलिए किसान के पास दस साल का समय है। इसलिए ये जो नवीनतम घटनाक्रम हुआ है
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश और उसके बाद पूरे देश में ये बहुत महत्त्वपूर्ण
घटनाक्रम है। इस घटना क्रम से ये आशा बंधती है कि एक नया किसान आन्दोलन पैदा हो
सकता है। इस इस देश क्या किसान आन्दोलन को देश के पुराने किसान आन्दोलनों से कुछ
बुनियादी मायनों में अलग होना होगा।
पहला, ये सिर्फ अमीर किसान का
आन्दोलन नहीं होगा, संपन्न किसान का आन्दोलन नहीं हो सकता। इसे पूरे देश के सभी वर्गों के
किसान का आन्दोलन बनना होगा, जिसमें भूमिहीन भी शामिल हैं।
जिसका भूमि से कोई संबंध नहीं हैं उन सबका आन्दोलन बनना होगा और संभव है तो उसमें
पशुपालक को भी जोड़ना होगा। जो भारत सरकार की परिभाषा के अंतर्गत किसान है यानि
मछुआरा भी, गाय पालने वाला भी, पोल्ट्रीफॉर्म वाला भी। ये
सब किसान है— भारत सरकार के हिसाब से। इस परिभाषा के अंदर जो किसान है उन सबको जोड़ना
होगा।
दूसरा, ये किसान आन्दोलन केवल एमएसपी के सवाल पर
नहीं होगा। इसे बड़े रेंज के सवाल उठाने होंगे। किसानों के जीवन से जुड़े हुए तमाम
प्रश्न उठाने होंगे। आज का किसान आन्दोलन ग्रीन रेवुलुशन के सपने से बंधा नहीं रह
सकता। उस मोह –मायाजाल से बंधा नहीं रह सकता, जिससे
अस्सी के दशक का किसान आन्दोलन बंधा था। उस समय गलत फहमी थी कि पूरा देश पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसा
बन जाएगा। आज हम जानते हैं कि वो संभव नहीं है यानि कि किसान आन्दोलन पर्यावरण की
चिंता को अलग नहीं कर सकता।
तीसरा, किसान आन्दोलन राजनीति से
परहेज नहीं कर सकता। राजनीति और किसान आन्दोलन के संबंध में बड़ी सीधी सी बात है,
या तो राजनीति किसान को चलाएगी या किसान राजनीति को चलाएगा ! तरीका
एकही है कि किसान राजनीति को चलाना शुरू करे। वो चलाएगा तो कुछ बुनियादी बदलाव की
गुंजाइश होगी, मैं आज भी इसके प्रति आशावान हूँ और है।
चौथा, बात यह कि पुराने जो किसान
आन्दोलन के तौर तरीके थे, वो जो खाट पर जाकर हुक्का
गुडगुडाते हुए किसान आन्दोलन की चर्चाएँ हुआ करती थीं, वो सब
ज़माने लद गये, समय बदल गया है। आज एक नए तरीके से संप्रेषण
होगा। नए तरीके से किसान आन्दोलन खड़ा किया जायेगा। उसके तरीके, उसके औजार, उसके मुहावरे सब बदलने
होंगे। लेकिन अगर ये करने की तयारी है तो जैसा कि पिछले पंद्रह दिन की घटनाओं ने
दिखाया है अभी भी किसान आन्दोलन की बहुत बड़ी संभावना बाकी है।
अब आप एक राजनेता भी है, किसान
समस्याओं को किसान यात्राओं अलग – अलग मंचों से उठा भी रहे
हैं यदि भविष्य में सत्ता मिलती है तो कौन सी नीतियाँ अपनाना चाहेंगे?
योगेन्द्र यादव : हम तो
अपने घोषणापत्र वगैरह में लिखते रहे हैं। जैसा कि सभी बातों से स्पष्ट है कि हमारे
विकास के ढांचे को बदलने का सवाल है। ये ऐसा सवाल है जिसमें हम केवल एक –दो नीति बना कर काम नहीं कर सकते। किसान की अवस्था बेहतर करने का मतलब
होगा हमारे पूरे विकास को कृषि उन्मुख बनाना, ग्रामौन्मुख
बनाना। गाँव में उद्योग स्थापित करना। कृषि से जुड़े हुए उद्योग को तरजीह देना।
उसको केंद्र में लाना। उसको सपोर्ट देना। इसके लिए जरुरी होगा किसानों को एक
न्यूनतम आय की सुरक्षा देना, जिसके लिए कानून बनाने की जरुरत
है। ये बहुत बड़ा मामला है कि कैसे होगा, क्या होगा लेकिन किसान को न्यूनतम आय की गारंटी
देने वाला व्यवस्था और कानून बनाने की जरुरत है। नहीं, तो किसान बच
नहीं पायेगा हमारे यहाँ। हमें कृषि का पैटर्न बदलना पड़ेगा। हरियाणा में चावल पैदा
हो ये चल नहीं सकता। जिस तरह से हम अपने संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं, जैसे पानी का दुरुपयोग कर रहे हैं ये सब तो बुनियादी रूप से बदलना होगा।
कृषि की पूरी नीति बदलनी होगी। हमारे स्वराज दर्शन का जो हिस्सा है उसमें कृषि के
बारे में हमने विस्तार से दिखाया है, आप चाहें तो वहां से
देख सकते हैं।
आपकी नज़र में दुनिया में ऐसा कौन सा देश है
जहाँ किसान की स्थिति बेहतर है?
योगेन्द्र यादव :पता नहीं ! मैं किसी एक देश
के बारे में ऐसा नहीं सोच पाता। मैं आराम से यूरोप – अमेरिका का नाम ले सकता हूँ
लेकिन उनकी स्थिति हमसे बहुत अलग है। अमेरिका में हमसे कम चार गुना आबादी है और
हमसे चार गुना ज्यादा जमीन है। तो उनकी हमारी क्या तुलना? हमें अपना अलग मौजू बनाना होगा।
जो मैं बार – बार कह रहा हूँ कि आधुनिक होने का मतलब ये नहीं
है कि आधुनिकता के नाम पर दूसरों ने जो किया है वही हम नकल करें। हमारी आधुनिकता
एक अलग तरह की आधुनिकता होगी। भारत जैसे देश में तो यह सवाल पूछना ही नहीं चाहिए
कि दूसरे देश ने क्या किया? सिंगापूर ने क्या किया, मलेशिया ने क्या किया? आधुनिक होने का मतलब यह है कि हम
उसके संदर्भ अपने तरीके से ढूंढेंगे।
आपको पढ़-सुनकर ऐसा लगता है कि आपको साहित्य में
गहरी रूचि है। क्या आप किसी ऐसे लेखक – साहित्यकार को पाते हैं जो
किसान के करीब हो?
योगेन्द्र यादव :मुझे साहित्य की उतनी
जानकारी नहीं है जितना आपको लगता होगा ! दिक्कत ये हो गयी है हमारे देश में कि जो
भी हिंदी ठीक – ठाक बोल लेता है लोगों को लगता है साहित्य से होगा। मैं और कुछ करता हूँ।
बाकि सब चीजें लिखता हूँ। जिन्दगी में आज तक न कोई कविता लिखी है न लिखने का कोई
इरादा ही है। पढ़ता हूँ। शौक से पढ़ता हूँ कभी – कभार। आजकल
बहुत कम समय मिलता है, पहले बहुत समय मिलता था। फणीश्वर नाथ रेणु मेरे
बिल्कुल प्रिय लेखक रहे हैं।
मेरे प्रिय कवि हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। प्रेमचंद को पढ़ता रहा लेकिन
मुझे लगता है रेणु में जो बात है कभी किसी में नहीं है। हो सकता है मैंने जिस
ज़माने में पढ़ा था उस ज़माने का असर रहा होगा। कविता में, कला में, साहित्य में मैं राजनीतिक
नारे नहीं ढूंढता। राजनैतिक नारे लिखने होंगे मैं लिख लूँगा न ! पोस्टर लिखना है
मुझे मैं लिख लूँगा। जब कविता को, कला को साहित्य को राजनैतिक पोस्टरबाजी में
रिड्यूस कर दिया जाता है, जैसा कि बाकी प्रगतिशील आन्दोलन में किया गया उससे मुझे जरा कोफ़्त होती है
! अजीब लगेगा आपको चूंकि मैं राजनीति में हूँ, हाँ मुझे
जरूरत होती है तो मैं जरुर साथियों से कहता हूँ कि यार थोड़ा सा लिख दो लेकिन कला
और साहित्य उपयोग की वस्तु नहीं है। उसके साथ जो किया गया, जिसे हम कई बार प्रगतिशील
साहित्य कहते हैं, जो मेड टू आर्डर था, आन्दोलन के लिए, वो साहित्य नहीं होता। कम से कम मेरे दिल को नहीं छूता। सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना की कविताओं में कभी – कभी एक ऐसा अंश आता है,
एक शब्द आ जाता है, दो पंक्तियाँ आ जाती हैं,
जिसमें सीधी तल्ख़ राजनैतिक बात की जा रही है लेकिन वो करने के लिए
वो कविता नहीं लिखी जा रही है। तो मेरा इस मायने में विचार बहुत अलग है। दरसल जो
राजनैतिक सरोकार वाला, सामजिक सरोकार वाली कविता – साहित्य कहा जाता है, मैं उसे पसंद नहीं करता। मैं
अभी भी साहित्य को इस लिए पढ़ता हूँ कि वह मुझे अंदर से बदल सके। मेरे मन को बदल
सके, मुझे दृष्टि दे। जो मैं
सोचता था उससे कुछ नया मुहावरा बनाये। कुछ सृजन करे। मेरी बात की गूँज मुझे किसी
साहित्यकार में मिल जाए ये साहित्य का अपमान है। ऐसी मेरी समझदारी है, हो सकता है
मैं गलत होऊं!
बहुमूल्य समय देने के लिए हम आपके आभारी हैं।
बहुत – बहुत धन्यवाद।
बृजेश कुमार यादव
भारतीय भाषा केंद्र जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली—110067, मो.9968396448, ई-मेल - kisanlokchinta@gmail.com
जितेन्द्र यादव
हिंदी विभाग, दिल्ली
विश्वविद्यालय दिल्ली,मो. 9001092806, ई-मेल- jitendrayadav.bhu@gmail.com
बहुत अच्छा साक्षात्कार
जवाब देंहटाएंBahut saarthak prayaas. Brijesh aur Jitendra aap dono ko bahut-bahut badhai!
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