त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
धरोहर:किसान क्या करें ? नेताओं पर कड़ी नजर रखें / स्वामी सहजानन्द सरस्वती
धरोहर:किसान क्या करें ? नेताओं पर कड़ी नजर रखें / स्वामी सहजानन्द सरस्वती
कमाने वालों की, जिनमें किसानों की संख्या प्रायः तीन चौथाई है, कुछ ऐसी बेढब हालत हैं कि करते तो हैं सब कुछ
वही, मगर उनके कान और नाक को
पकड़कर उन्हें मनमाने ढंग से चलाते हैं दूसरे ही। चाहे जीवन के लिए जरूरी चीजों को
लीजिए, फौज और पुलिस को लीजिए,
जेल और कचहरियों को लीजिए, कल कारखानों को लीजिए और अन्त में चाहे आजादी
तथा हक की लड़ाई को लीजिए, सर्वत्र खटते
मरते हैं वे लोग ही, मगर उनके ऊपर
बैठते हैं दूसरे ही लोग, आजादी और अधिकार
की लड़ाई में नेता और लीडर की हैसियत से और बाकी जगहों में शासक, शोषक, जमींदार और पूँजीपति के रूप में। सिर्फ दर्जे और रूप का - नाम का – ही फर्क है। लेकिन सर्वत्र उनके सिर पर बैठते
हैं वही लोग जो उनमें से नहीं हैं, किन्तु उनसे बाहर
के हैं। या यों कह सकते हैं कि यदि उनमें से भी है तो दूसरों के मुड़िया और चेले
बन गये हैं और इस प्रकार अपनी श्रेणी तथा अपना दल बदल कर अज्ञात और विधर्मी बन गये
हैं। यही असली परिस्थिति है और यही कारण है कि संसार के सभी मुल्कों में
क्रान्तियाँ होती रहीं, मगर नतीजा क्या
हुआ? यही न कि केवल शासन और
शोषक का बाहरी रूप और नाम बदल गया। मगर वह जारी है ज्यों का त्यों, बल्कि और भी भीषण रूप में।
रूस के सिवाय और भी जगह क्रान्तियाँ हुईं,
इन्कलाब हुए – फ्रांस में, जर्मनी में,
इंग्लैण्ड में, अमेरिका में और अन्य मुल्कों में भी। मगर क्या वहाँ के
किसानों और मजदूरों के कष्ट दूर हुए? क्या उनका शोषण बन्द हुआ? पहले यदि असभ्य
और मनमाने ढंग से शोषण होता था तो अब वही सभ्य और कानूनी ढंग से होता है, पहले यदि किसी शासक के नाम में होता था,
फलतः उसे ही गालियाँ देते और बदनाम करते थे,
तो अब शोषितों के ही नाम पर उन्हीं की राय से
होता है। फिर गाली किसे दें? असल में कमाने
वाले अपनी तकलीफों से ऊब कर बाहर निकालने की कोशिश तो करते हैं और कभी-कभी जानों
की बाजी तक की लगा देते हैं, जिस पर वे
विश्वास करते और जिनको अपना अगुवा मानते हैं, उनकी ये सारी कोशिशें अंत में बेकार हो जाती हैं। उनका सब
किया कराया गजस्नान – हाथी का नहाना –
हो जाता है। वे चूल्हे से निकलकर भाड़ में और
गढ़े से निकलकर कुएँ में पड़ जाते हैं।
यह बड़ी ही पेचीदा पहेली है और इसको सुलझाना निहायत
जरूरी है। यदि सब किया दिया मिट्टी में ही मिल जाय तो अच्छा है कि कुछ करने से
पहले यह नेतृत्व की समस्या ही हल कर लें। उसके चलते होने वाला धोखा फिर क्योंकि न
हो सकेगा, यह बात साफ कर लें। हम यह
तो नहीं चाहते कि किसान और मजदूर अपनी आजादी और अपने हक की लड़ाई को रोककर यही
सवाल सुलझाने में लग जायें। ऐसा करना खतरनाक है। इससे उनकी दिक्कतें बढ़ सकती हैं।
बढ़ जाएँगी। अतः लड़ाई जारी रहे। मगर नेतृत्व की पेचीदा समस्या की ओर, उसी के साथ-साथ, उनका पूरा ध्यान रहे। न कि अब तक की सी हालत रहने देना
चाहिए। अब तक तो वे सारी शक्ति और बुद्धि लड़ाई में ही खर्च करते रहे हैं। उसका
नतीजा क्या होगा, यह बात तो अच्छी
तरह उन्होंने समझी नहीं, सिर्फ गोल-गोल
बातों में ही पड़े रहे।
आखिर किसान धान की खेती करता है तो गोल नतीजे
सोचकर तो नहीं। किन्तु ब्यौरेवार ठोस नतीजा पहले से ही मन में बिठा लेता है कि
कैसा, कितना धान होगा और कब। और
उसमें जरा भी गड़बड़ी हुई कि अगले साल सजग हो जाता है। गाय-भैंस खरीदता है तो गोल
बातों के लिए नहीं। किंतु कैसा, कितना दूध,
कब तक उससे निकलेगा, यह खूब ही पक्का करके रुपये गिनता है। जरा सी भी ऐब हो और
पशु छटक जाने या लात चलाने वाला हो तो गाँठ का पूरा पैसा हरगिज नहीं खोलता है।
फिर जिस लड़ाई में धन, जन, जान सब गँवायें
उसका रत्ती-रत्ती नतीजा पहले से ही न जान लें यह कैसी नादानी है? इसी का तो बुरा नतीजा अब तक होता रहा है। हक
मिलने पर इसकी रक्षा कैसे कौन करेगा, यह भी हम अब तक कभी नहीं सोचते रहे हैं। अब ऐसी गोल बातों का जमाना गया। अब तो
हमें इन सब बातों को अच्छी तरह शुरू में ही साफ कर लेना होगा और बखूबी जान लेना
होगा कि कहीं धोखा तो नहीं है, कहीं ऐसा तो नहीं
होगा कि यत्न पूर्वक प्राप्त किये दूध की रखवाली बिल्ली को ही सौंप दी जायेगी। वे
यह साफ-साफ देख लें कि गाय और बकरी हासिल तो की जायेंगी पैसे और परिश्रम से,
मगर कहीं उनका रखवाला बनने वाला गधे की खाल में
छिपा बाघ तो नहीं हैं।
इसलिए पद-पद पर अपने नेताओं के विश्लेषण,
उनकी देख-रेख, उनकी निगरानी, उन पर कड़ी निगाह रखने की जरूरत आ जाती है। जिस प्रकार अपने शत्रुओं, शोषकों और शासकों का अच्छी शासकों का अच्छी तरह
विश्लेषण करते हैं, क्योंकि बिना ऐसा
किये काम नहीं चलता और धोखा हो जाता है, ठीक उसी प्रकार अपने नेताओं का और भी हजार गुना विश्लेषण बड़ी ही बेमुरव्वती
के साथ करना लाजिमी है। नहीं तो जरूर ही धोखा खा जायेंगे। शत्रुओं की निगरानी और
उनकी रत्ती-रत्ती को जानना भी हो तो ज्यादा से ज्यादा यही न होगा कि शोषण रहेगा और
हम पूर्ववत् दुनिया में बने रहेंगे? मगर कोई नयी दिक्कत तो आयेगी नहीं।
लेकिन नेताओं पर कड़ी नजर बिना रखे और विश्लेषण
किये बिना तो घर का भी आटा गीला करने की नौबत होगी। हमने धन, जन और जान गँवा के और सर्वस्व की बाजी लगा के
हक की लड़ाई लड़ी। मगर नतीजा कुछ न हुआ। वही गरीबी, वही शोषण और वही कष्ट रूपान्तर में जारी रहे, यह तो परले दर्जे की नादानी होगी। यह तो नाव का
किराया देकर बह जाना और डूब मरना होगा। इसलिए हमें मजबूर हो के कहना पड़ता है कि
नेताओं के ऊपर खुफिया पुलिस का पहरा किसान और मजदूर ही रखें। नहीं तो पीछे धोखा
होने पर हमें दोषी न बनावें। खासकर जब कही चुके हैं कि मध्यम वर्ग का ही नेतृत्व
होता है और उसी दल के लोग खामाखाह अगुआ होते ही हैं। और उस दल में क्या ऐब है,
यह भी बता ही चुके हैं। वह तो ऐन मौके पर लड़ाई
को खटाई में डाल देता है, ज्यों ही देखता
है कि उसकी असली बिरादरी वाले शोषकों की जड़ एक ही धक्के में उखड़ जाने वाली है।
लोग कहते हैं और भोला-भाला किसान मानता है कि
भला हमारे नेता हमें कैसे धोखा देंगे। जो कई बार जेल गये, जिन्होंने अनेक यातनायें झेलीं, जुर्माने दिये, जायदादों को जब्त कराया और जो फाँसी का तख्ता चूमने तक के लिए सर पर कफन
बाँधकर कभी निकल पड़े थे, वही लोग भला
क्यों कर हमें गुमराह करेंगे? वही हमें धोखा
देंगे यह कौन माने? और अगर ऐसे लोग
भी धोखा देंगे तो विश्वास किन पर किया जाय? फिर तो सर्वत्र अविश्वास ही होगा और लड़ाई ही बंद कर देनी
पड़ेगी।
बात तो सही है! इसलिए तो लड़ाई बंद करके नेताओं
की परीक्षा करना हम चाहते नहीं। हम तो लड़ाई के दौरान और उस सिलसिले में ही उनकी
परीक्षा करना चाहते हैं और वही पक्की परीक्षा होगी भी। यह बात आगे साफ की जायेगी।
मगर इतना तो मान लिया जाय कि केवल जाति-पाँति या धर्म-मजहब के नाम पर तो कोई भी
आदमी किसानों और मजदूरों का नेता होई नहीं सकता। उसे नेता बनने ही न देना होगा। जब
त्याग, बलिदान, जेल वगैरह की बात उठ गई तब तो ऐसे लोग नेता
बनने योग्य नहीं हैं, यह बात मान ली
गई। यह इसलिए भी कि जाति और धर्म के नाम पर सस्ती लीडरी का जामा पहनकर आज हजारों
मिलते और धोखा देते हैं। किसान स्वभावतः उनकी बातों में फँस जाते हैं। यह भी देखते
हैं कि त्याग और बलिदान तो हमसे हो सकता नहीं और लीडरी चाहिए ही, क्योंकि बोर्डों और कौन्सिल-असेम्बलियों में
जाना जो है। इसलिए जाति और धर्म के नाम पर नकली आँसू बहाते और गला फाड़ते हैं,
ताकि लोगों पर जादू चले और काम बने। इसलिए
किसान मजदूर उनसे पहले ही सजग हो जाय।
अब यहीं त्याग और बलिदान की बात है। सो तो ठीक
ही है। मगर फ्रांस, इटली, जर्मनी, अमेरिका, चीन आदि देशों
में किसानों और मजदूरों के नेता जो पहले हुए क्या उनके त्याग और बलिदान नहीं थे?
या कि उनका त्याग, बलिदान, उनकी तपस्या और
उनका कष्टसहन आज के बरसाती नेताओं से कम था? वे तो ऐसे थे कि जिनकी जिंदगी ही जेल और जलावती
(देश-निकाला) में बीती थी। जो एक बार नहीं कई बार फाँसी के तख्ते तक
पहुँचते-पहुँचते न जाने कैसे बच पाये थे। वे तो मस्त और अपनी धुन के पक्के थे।
उनके सामने तो आज के त्यागी और तपस्वी नेता कुछ भी नहीं हैं, किसी गिनती में नहीं हैं। फिर भी किसानों और
मजदूरों की मुराद क्यों न पूरी हुई और वे आज भी क्यों पहले जैसे ही, या उससे भी बुरी तरह मुसीबतों के फंदे में फँसे
पड़े हैं?
इसलिए महज त्याग और बलिदान की बात पर विश्वास
करना इतिहास की शिक्षा से मुँह मोड़ना और आँख मूँदकर अपने को आग में झोंकना है।
नेता बनने के लिए तो त्याग और बलिदान जरूरी ही है। नहीं तो क्या किसी को सुरखाब के
पर लगे हैं कि वही नेता हो और किसान और मजदूर न हो? ड्राइवर वही हो सकता है जिसने उसकी शिक्षा पायी हो। सेनापति
वही हो सकता है जिसने फौजी तालीम पायी हो। उसी प्रकार आर्थिक और राजनैतिक मामलों
में भी पुश्तैनी पंडितों और मुल्लाओं को ही लीडरी न मिले, किन्तु दूसरों को ही मिले, इसके लिए जरूरी है कि वे भी परीक्षायें पास कर चुके हों।
किसान मजदूरों के लिए मुल्क की आजादी का आन्दोलन उठाकर जेल जाना आदि बातें,
यही तो वह तालीमें हैं और उनमें पास होना ही
नेतृत्व का सर्टिफिकेट प्रदान करना है। इसलिए महज त्याग बलिदान की बात उठाना ठीक
नहीं।
नेता लोग पहले तो ठीक ही रहते हैं। पहले आखिर
उन्हें पूछता कौन है? मगर ज्यों ही
उनकी ख्याति हुई त्यों ही मनुष्य की कमजोरियों ने उन्हें दबाना शुरू किया और जब
उनपर कोई बंधन या निगरानी नहीं है तो खामखाह दब जाते हैं। मगर खतरा तो पीछे आता
है। जो चढ़ता है वही तो गिरता है। जो जमीन पर ही पड़ा है वह क्या गिरेगा? परिस्थितियाँ भी उन्हें मजबूर करती हैं। एक तो
किसान लापरवाह हो के उन्हें छूट देता है और पूछता भी नहीं कि क्या करते, क्या नहीं करते। दूसरे चारों ओर का वायुमंडल
मोहक होता है, शोषक लोग अनेक
प्रकारों से फँसाने की कोशिश करते हैं। जल्दी सफलता न मिलने से उन्हें निराशा भी
धर दबाती है कि किसानों के हक शायद ही मिलें। जब वे देखते हैं कि उनका साथ खूब जम
के जनता नहीं देती है तो घबराहट में भी पड़ जाते हैं। ज्यादा उम्र गुजर जाने पर
कुछ असर होता ही है। यह भी देखते हैं कि दुनिया में और लोग भी नेता हो चुके हैं,
मगर उन्होंने भी आखिर क्या किया? यही न कि किसी पद पर जा बैठे और संतोष कर लिया,
या यों ही मर मिटे और कुछ न हुआ। फिर हमीं ने
क्या किसान-मजदूर राज्य का ठेका लिया है? इन्हीं सब कारणों से पीछे चलकर उनका पतन हो जाता है।
यह सब बातें उनके लिए हैं जो शुरू में ईमानदारी
से काम में पड़ते हैं और अपना कोई भी मतलब नहीं रखते। मगर जो शुरू से ही मतलब के
लिए आते हैं उनका क्या कहना? वह तो जान-बूझकर
ही धोखा देते हैं। वह तो धोखा देने की नीयत से ही आते हैं। नहीं तो उनका मतलब
सिद्ध होगा कैसे? बासी जलेबी को भी
ताजी-ताजी पुकार के जो खोमचे वाला बेचता है, उसका तो मतलब साफ ही है, बिना वैसे कहे लोग खरीदेंगे ही नहीं। मगर भूल तो उनकी है जो
उसकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और विचार नहीं करते कि बात क्या है।
नेताओं के पतन या धोखे की जो बातें अभी-अभी कही
गई हैं उनसे तो आसानी से बच सकते हैं, यदि एक ही काम करें, उन पर निगरानी
रखें। लेनिन ने बार-बार कहा है कि जनता को दबाने के लिए तो पुराने साधन ही जिन्हें
लाठी, गोली, फाँसी, जेल, देशनिकाला, जायदाद-जब्ती आदि कहते हैं, इनसे तो उसे दबाया जाता ही है। इसी का नाम तो
दमन है। मगर अब दमन का एक नया साधन और नया अस्त्र किसान-मजदूरों को दबाने के लिए
निकला है। जैसे अनेक आविष्कार होते रहते हैं वैसे ही इसका भी आविष्कार किया गया है,
बहुत सोच-समझ के। शोषकों ने सोचा कि यदि शत्रु
गुड़ खिलाने से ही मरे तो नाहक जहर क्यों देना? उन्होंने देखा कि दमन से बदनामी भी बहुत होती है और हमेशा
काम निकलता भी नहीं। ज्यादा दमन हो जाने पर जनता नल के जल की तरह उमड़ जाती है,
ऊपर आ जाती है। फिर तो उसको रोकना कभी-कभी असंभव
हो जाता है। इसलिए उन्होंने दिमाग लगा के दमन का अत्यंत शांतिपूर्ण साधन ढूँढ़
निकाला। इसे ही कहते हैं खूब बातें बनाना। किसानों के सामने उनकी तकलीफों की बातें
खूब करना, गर्मागर्म स्पीचें झाड़ना,
मौका मिलते ही सबसे पहले उन्हें ही दूर करने की
बार-बार प्रतिज्ञा करना, नकली आँसू बहाना,
जमींदारों, साहूकारों तथा सरकार को भर-पेट कोसना और गिन के गालियाँ
देना। यही आज का नवीन आविष्कृत ब्रह्मास्त्र है, जिससे किसान और मजदूर बेलाग मारे जाते हैं। वे कुछ भी कर भी
नहीं सकते। रेशम के कीड़े की तरह अपने ही बनाये जाल में फँसकर मर जाते हैं। यह ऐसी
मीठी छुरी है, ऐसा मीठा नश्तर
है कि पता भी नहीं चलता, अच्छा मालूम होता
है और एकाएक जान भी चली जाती है। तब भी आँखें नहीं खुलतीं। यह इसकी खूबी है। यही
है शान्तिपूर्ण हत्या।
जनता का स्वभाव है कि वह आँख मूँद के विश्वास
कर लेती है। जब तक अविश्वास रहा तब तक रहा। मगर ज्यों ही वह हटा कि उसकी जगह
विश्वास बैठ जाता है। यह अविश्वास भी सबमें नहीं पाया जाता है, किन्तु कुछ लोगों में जो व्यवहारकुशल और चतुर
होते हैं। जनता तो देखादेखी चलती है। उसने देखा कि किसी नेता या बड़े आदमी को लोग
बहुत मानते हैं, बस वह उस नेता के
पीछे हो लेती है। यही नहीं सोचती कि आखिर वह कौन हैं, कैसे हैं, उसके काम के हैं
भी या नहीं। ऐसे लोग जिनसे कभी कोई ताल्लुक नहीं खूब ही पूजे जाते हैं और बेखटके
अगुवा बने फिरते हैं। असल में किसान ने – जनता ने – मिट्टी, पेड़, पत्थर वगैरह जिसे भी ऊँचा देखा या गोल-मोल, उसे ही देवता मान लिया। उसके सामने सिर झुकाकर प्रार्थना
शुरू कर दी। जैसे देवी-देवताओं के बारे में प्रश्न नहीं करते वैसे ही आदमियों के
बारे में भी नहीं बशर्ते कि वे बड़े और लीडर हों।
मगर यह सरासर गलत रास्ता है। देवी और देवता तो
बोलते-चालते नहीं और न जमींदारों या पूँजीपतियों से मिलते ही जुलते हैं। इसलिए
उनसे तो यह खतरा नहीं कि दुश्मन से मिलकर वार करें और कत्ल कर डालें। मगर नेता लोग
तो सब कुछ करते हैं, सर्वत्र जाते और
कानाफूसी करते हैं। यह भी देखा जाता है कि शोषकों से कितने ही नेता जा मिले। इसलिए
जिसे ऊँचा देखा, वहीं चंदन लगा
पाया, वहीं सिन्दूर या ईगुंर
चिपटा देखा, उसे ही देवता मान
लिया, वैसे ही खादी और गाँधी
टोपी पहने और गर्मागर्म स्पीच देते देखा, या यह जान लिया कि जेल वेल गया है, चट उसे ही नेता मान लिया, यह बहुत गलत है।
मगर होता तो ऐसा ही है।
अगर पूर्वोक्त खोद-विनोद और विश्लेषण करने तथा
दलील करने की आदत जनता में होती तो उसे धोखा होता ही क्यों? आँख मूँद के भेड़ की तरह पीछे-पीछे न चल के खूब समझ-बूझकर
अपने नेताओं के पीछे अगर वह चलती रहती तो यह दुर्दशा उसकी होती ही क्यों? कहावत है कि पानी छान के, गुरु बनाना जान के। यदि यही सिद्धांत दूर तक
लागू हो जाता और नेताओं के लिए भी कोई कसौटी रखकर बिना उस पर कसे उसे हरगिज नहीं
मानते तब तो सब खुद ठीक ही हो जाता। जैसे धर्म के मामले में बुद्धि या तर्क के लिए
कोई गुंजाइश ही नहीं रखी गई और आँख मूँदकर मानने का स्वभाव लोगों में जान-बूझकर
डाला गया, ठीक वैसे ही नेतागिरी के
मामले में भी हो गया। जब आदत पड़ जाती है तो धीरे-धीरे उसका विस्तार हो ही जाता
है। धार्मिक नेताओं के पीछे-पीछे भेड़ियाधँसान करते-करते आर्थिक एवं राजनीतिक
लीडरी के पीछे भी होने लगी। पहले तो ऐसे नेता होते ही न थे। केवल धार्मिक ही होते
थे इसलिए सारा क्षेत्र उन्होंने ही हथिया लिया था और जनता में दिमागी गुलामी पैदा
कर दी थी। क्योंकि ऐसा न होने पर जोई मूर्ख या कुकर्मी मलाई उड़ा नहीं पाते। इसलिए
जान-बूझकर दिमागी गुलामी जनता में पैदा की गई। अब उसी का नतीजा है कि लोग आर्थिक
और राजनीतिक मामलों में भी नेताओं को आँख मूँद के ही मानते हैं और अंत में बर्बाद
होते हैं।
जब दो-चार पैसे के और दूसरे बर्तनों को लोग
ठोंक-बजा लेते हैं तो यह कौन-सी बुद्धिमानी है कि जन्दगी और मौत के सौदे में आँख
मूँद के चलें और नेता लोगों को ठोंक-बजा न लें। यह तो बड़ा ही कीमती सौदा है। यहाँ
तो क्रांति का प्रश्न है। फिर मुरव्वत या लापरवाही कैसी? यदि ठोंकने बजाने में नेता लोगों के दिमाग का पारा चढ़ जाय
और वे लोग आपे से बाहर हो जायँ तो बुरा क्या होगा? आगे चलके धोखा देते सो शुरू में ही खुल गये। कुछ दिन पुजवा
के आखिर पोल खुलती ही। यदि पहले ही खुली तो और खुशी होनी चाहिए। जो हमारी मामूली
बातें बर्दाश्त नहीं कर सकते, हमारे प्रश्नों
से बौखला उठते हैं, वे हमारे लिए
गोली बर्दाश्त कैसे करेंगे, फाँसी पर कैसे
चढ़ेंगे? यह तो मोटी दलील है। और
इसी से काम चल जाता है, बशर्ते कि हम
इसका बराबर प्रयोग करें।
कहते हैं कि एक चतुर बनिया कुछ महात्माओं के
पास गया और बोला कि मैं किसी एक को गुरु बनाऊँगा? उसका ऐसा कहना ही था कि सभी तैयार नजर आये। भला गुरु बनना
कौन नहीं चाहता? लेकिन उसने कहा
कि मैं तो मुर्दा गुरु चाहता हूँ। फिर तो सब बिगड़ उठे और बोले कैसा सनकी है?
कहीं मुर्दा भी गुरु बना करता है।? लाचार हो वो चला गया। उसके बाद गुरु की तलाश
में दर-दर की खाक छानता फिरा और न जाने कहाँ-कहाँ घूमा। मगर उसकी मुराद पूरी न
हुई। सर्वत्र एक ही जवाब मिलता कि मुर्दा और गुरु? यह तो पागलों की बात है। वह परेशान और निराश हो गया। ऊबकर वापस
जाना चाहता था कि अचानक रास्ते में एक मस्तराम मिल गये। उसने सोचा कि चलो इनसे भी
पूछ देखें।
उसने मस्तराम से कहा कि महराज मुझे चेला बनाओगे?
उत्तर मिला कि चेले तो बनाये नहीं जाते खुद
बनते हैं। हाँ, गुरु बनाये जाते
हैं जरूर। उसने कहा कि हाँ, हाँ मुझे गुरु ही
बनाना है और मैं आपको बनाना चाहता हूँ। लेकिन शर्त यही है कि मैं मुर्दा गुरु
चाहता हूँ। मस्तराम ने कहा कि मैं पूरा मुर्दा तो हूँ नहीं। हाँ, आधा मुर्दा जरूर हूँ। उसने कहा कि अच्छा यही
सही। पूरा मुर्दा गुरु तो कोई मिला नहीं, मैं हैरान हो गया। इसलिए आधे से ही सन्तोष करूँगा। फिर दोनों साथ-साथ चल पड़े।
दोनों का कुछ समय साथ ही बीता। बनिया बड़ा ही काइयाँ था। उसने रह-रहकर मस्तराम को
दिक करना शुरू किया। कभी अँधेरे में राह चलते जान-बूझ के उन्हें गड्ढे में पड़ने
देता, कभी काँटों और कुशों में
बिंध जाने देता, कभी चारों को
ललकार कर पिटवा देता, कभी आगे परोसी
थाली उठा लेता, कभी सोये में खाट
ही उलट देता, कभी कुएँ में
ढकेल देता, कभी स्नान के समय तालाब
के गहरे पानी में उन्हें घसीटकर डुबाने की कोशिश करता। सारांश यह है कि हजारों
मौकों पर उसने मस्तराम को काफी तंग किया और उनका नाकों दम कर दिया। मगर हर बार
उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही कि जब भी देखता मस्तराम के मुख पर जरा भी क्रोध और
मलिनता नहीं या विषाद का चिह्न नदारद। बराबर उन्हें हँसते पाया। अंत में उसने उनके
पाँव पकड़ के सब अपराधों की माफी चाही और कहा कि महराज आप आधा मुर्दा नहीं पूरा
मुर्दा हैं। मस्तराम ने इतना ही कहा कि माफी का क्या सवाल? जब मुझे गुरु, पथप्रदर्शक बनाने चले हो तो स्पष्ट है कि बहुत कीमती सौदा करने वाले हो। ऐसी
दशा में खूब जाँच-परख करना और ठोंक-ठाँक लेना उचित ही है। मैं भी यही करता यदि
तुम्हें गुरु बनाने चलता। यही तो रास्ता है।
यह मुर्दा गुरु वाली बात नेताओं के भी बारे में
लागू करना किसानों का फर्ज है। यदि भविष्य में धोखे से बचना चाहते हैं तो उसके लिए
दूसरा उपाय है भी नहीं। यदि सस्ते और बाजारू नेताओं से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते
हैं, यदि चाहते हैं कि उनका
लक्ष्य सिद्ध हो, किसान-मजदूर
राज्य कायम हो, तो बिना ऐसे किये
काम चलने वाला नहीं। जहाँ उन्होंने इसका निश्चय किया कि अधिकांश नेता लोग शुरू में
ही दुम दबा के भाग निकलेंगे। वे सामने आयेंगे ही नहीं। उनकी लालसा मन में ही मुरझा
जायेगी। यदि कुछ लोग हिम्मत और बेहयाई करके आ ही जायेंगे तो धीरे-धीरे उन्हें भी
घिसकना ही होगा। आखिर मुर्दा तो सभी बन सकते नहीं। फिर उनके लिए चारा ही क्या
रहेगा?
कहते हैं, किसी के यहाँ चार मेहमान पहुँचे। उसने उन्हें आदर से
खिलाया-पिलाया। कई दिन गुजर गये, मगर वे लोग जाने
को रवादार नहीं हुए। उसने उपाय किया। पहले दिन घी परोसना रोक दिया। बस, एक ने जो शानियल था, ताड़ लिया और चला गया। मगर तीन तो इतने पर भी डटे रहे। फिर
उसने तरकारी बन्द कर दी। तब दूसरा भी गया। जब दाल बन्द करके केवल सूखी रोटी दी तो
तीसरा भी चला गया। मगर चौथा जिसका धोधली नाम था, फिर भी डटा रहा। वह पूरा बेहया जो था। अब घर वालों ने देखा
कि ‘गलहस्तेन धोधली’ –
धोधली को गर्दनियाँ देके निकाले बिना काम नहीं
चलेगा। उसने ऐसा ही किया। ठीक यही हालत रँगे नेताओं की होगी। एक के बाद दीगरे सभी
निकल भागेंगे। मगर जो पक्के निर्लज्ज होंगे उन्हें भी गर्दनियाँ देना ही होगा,
और इस प्रकार उनसे अपना पल्ला छुड़ाना ही होगा।
इस प्रकार छँटते-छँटते जो रह जायेंगे वही सच्चे नेता होंगे। वही अन्त तक साथ
देंगे।
हम कोई नई बात नहीं कहते हैं। यही तो संसार का
नियम है। बराबर ऐसा तो करना ही होता है। बिना बार-बार की छँटैया के काम तो चलता ही
नहीं। हम देखते हैं कि लोग खाते हैं भात जो चावलों से बनता है। मगर क्या चावल पैदा
होते हैं? किसी ने चावल के पौधे
कहीं देखे हैं? पैदा तो होता है
धान। सो भी डंठलों और पुवाल के भीतर। चावल तैयार करने के लिए कम से कम छः बार
छँटैया करनी पड़ती है। पहले तो पीट के या बैलों के पाँव तले रौंद के पुवाल को अलग
करते हैं। फिर भूसे से अलग करने के लिए उसे हवा में फटकारना (ओसाना) होता है।
लेकिन फिर भी देखा जाता है कि बिना चावल वाले और चावल वाले दोनों ही प्रकार के धान
मिले रहते हैं। इसीलिए तीसरी कोशिश से चावल वाला साफ हो जाता है। फिर ओखली में एक
बार कूटने और फटकारने के बाद चावल अलग हो जाता है। फिर भी देखने में सुर्ख रह जाता
है। अंत में छपाछप उजला चावल प्राप्त करने के लिए छठी बार कूटना तथा फटकारना जरूरी
होता है। नेताओं के बारे में किसान यही सिद्धांत क्यों न लागू करेगा? वह तो चावल के संबंध में बार-बार ऐसा ही करता
है। यह तो कोई नयी बात उसके लिए है नहीं।
नेता लोग आँसू बहाते हैं सही और उनके आँसू और
उनकी बातें – उनके धारावाही
लेक्चर से उनके दिल का पता लगाने पर तो मानना ही पड़ेगा कि किसानों और मजदूरों के
कष्टों की प्रचंड पीड़ा ने उनके दिल तक असर कर लिया है। वह पिघलकर आँखों के रास्ते
बहा जा रहा है। जो प्रतिज्ञा वे लोग करते हैं यदि उस पर कुछ भी यकीन किया जाय और
सौ बातों में एक भी बात मान ली जाय तो कहना ही पड़ता है कि वे लोग मौका पाते ही
किसानों के लिए सब कुछ कर डालेंगे और जरा भी कसर न रहने देंगे। इतना ही नहीं,
अपनी और अपने बाल-बच्चों की कतई परवाह न करेंगे
और आसमान-जमीन को एक कर डालेंगे।
मगर व्यावहारिक रूप में देखा क्या जाता है?
क्या सचमुच ये प्रतिक्रियायें, ये आँसू और गर्म लेक्चर कोई कीमत रखते हैं?
ज्यों ही मामूली अधिकार मिले कि ये लीडर लोग
अपने ऊपर का बुर्का उठा फेंकते हैं। फिर तो ये सारी प्रतिज्ञा को ताक पर रख के खुद
उन पदों पर जैसे हो तैसे जा लिपटते हैं – लिपट जाने की कोशिश जी जान से करते हैं। आज का इतिहास चिल्ला-चिल्ला के यही
बताता है। अपने देश में भी हमने यही पाया है और गैर मुल्कों में भी ये नेता ऐसे
बेशर्म होते हैं कि करते हैं धोखेबाजी और किसान-मजदूरों के साथ गद्दारी-द्रोह,
मगर फिर भी बात बनाये जाते हैं और कहने की
हिम्मत करते हैं कि हम तो उन्हीं की भलाई के लिए यह काम कर रहे हैं, बोर्डों, कौंसिलों, असेम्बलियों में
जा के उनकी ही भलाई करेंगे, करते हैं। क्या
खूब! यदि भलाई ही करनी थी तो उन्हीं को क्यों नहीं जाने दिया? आप उनके सलाहकार और मददगार रहते और क्या-क्या
किया जाय, कैसे किया जाय, यह बताते रहते। खैर, भत्ता वेतन वगैरह छोड़कर यदि कुछ करते तो एक बात भी थी। मगर
यह कैसे होगा? सेकण्ड क्लास के
बिना रेल में चल ही नहीं सकते? क्या यह पैसा
विलायत से आयेगा जो उनके लिए खर्च होगा?
आज तक उन लोगों ने उन पदों से क्या-क्या किया
जिससे किसानों को लाभ हुआ? क्या शिक्षा को
मुफ्त और अनिवार्य कर सके? सफाई और दवा का
प्रबंध सर्वत्र कर सके? मलेरिया वगैरह से
इनका पिण्ड छुड़ा दिया? बाढ़ और पानी रुक
जाने से होने वाली तबाही से बचा सके? लगान वगैरह को इतना कम कर सके कि किसान परिवार खा-पी सके? क्या सचमुच किसानों की माली और शारीरिक हालत
में कोई खास ढंग की उन्नति कर सके?
हुआ तो कुछ नहीं। किया-कराया तो कुछ भी नहीं। कहेंगे
पैसे नहीं हैं तो करें क्या? तो क्या यह पैसे
की कमी पीछे हो गई या पहले से ही थी, जब आप लोग यहाँ पधारे थे? बीच में कोई चीज
तो हुई नहीं। फर पहले ही क्यों न ऐसा सोचा? असल में कहा था अपने स्वार्थ के लिए खामाखाह, अब बहाने ढूँढ़ने लगे हैं। यही बहाने हमेशा हुआ
करते हैं। पुलिस, फौज या शासन-चक्र
चलाने के लिए जरूरी जितनी भी चीजें हैं उनके लिए यदि पैसे मिलते हैं तो किसानों के
फायदे के लिए क्यों न मिलेंगे? और अगर नहीं
मिलते तो शासन का खर्च क्यों न रोका जाय और नेता लोग उसी काम को क्यों न करें,
करायें?
हिंदुओं के यहाँ पुराने जमाने में बड़े-बड़े
यज्ञ-योग होते थे। उनमें अनेक पशु मारे जाते थे। जब विरोधियों ने कहा कि तुम लोग
तो हत्यारे हो, तो उत्तर मिला कि
तुम्हें पता नहीं कि जो पशु मारा जाता है वह सीधे स्वर्ग पहुँच जाता है, इस प्रकार हम उसका बड़ा भारी उपकार करते हैं। क्या
खूब! यदि ऐसा ही उपकार करना था तो परिवार वालों को ही क्यों न सीधे स्वर्ग
पहुँचाया? नेता लोग भी पदों को
स्वीकार करके ऐसा ही दावा करते हैं जैसा यज्ञ में पशु मारने वाले उसके बारे में
करते हैं। मगर ऐसे भयंकर उपकार से खुदा बचाये।
असल में किसानों का उपकार किया या नहीं किया,
मगर अपना और अपने परिवार का तो कर ही लिया।
आखिर जो धन कमायेंगे, कमाते हैं –
वह कुएँ में तो फेंका जाता नहीं, वह घर वालों को ही मिलता है, सभी का उपकार तो असम्भव था। इसलिए जितनों का कर
सके किया। यह तो किसानों की नादानी थी जो ऐसा समझते थे कि सबका एक ही साथ भला हो
जाएगा। आखिर स्वराज्य की ही तो बात होती थी और वह स्वराज्य सबका जुदा है। जब नेता
लोग स्वराज्य कहते हैं तो उस शब्द में जो ‘स्व’ शब्द है उसका अर्थ है
अपना। मगर उस अपना से नेता लोग निज का न समझ के किसान का समझें यह तो अजीब बात है।
वह तो अपने राज्य की बात कहते हैं। यदि किसान उसे अपना राज्य समझता है तो इसमें
भूल किसकी है? नेताओं ने साफ ही
कह दिया था कि वे ‘अपने’ (स्व) राज्य के लिये कोशिश कर रहे हैं। और वह
स्वराज्य छोटा, मझोला, बड़ा, बड़े से बड़ा, सबसे बड़ा इस
प्रकार कई तरह का होता है। यह यूनियन बोर्ड, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड वगैरह छोटे, मझोले आदि की श्रेणी में ही हैं और अगर वे मिले तो उन्हें
वे लोग छोड़ क्यों दें? वे यह बेवकूफी
क्यों करें? यदि किसान अपना
(स्व) राज्य चाहते हैं तो खुद लड़ें। उसे वे खुद हासिल करें।
कहते हैं कि किसी गरीब ब्राह्मण ने समुद्र के
तट पर जाकर बड़ी उग्र तपस्या दीर्घ समय तक की। वह चाहता था कि उसकी परले दरजे की
गरीबी से उसे छुटकारा मिले। अंत में समुद्र प्रसन्न हुआ और उसने एक शंख ब्राह्मण
को दे के कहा कि जाओ, इससे जो माँगोगे
वही देगा। ब्राह्मण कृतकृत्य होकर घर रवाना हुआ। थोड़ी दूर चल के उसने सोचा कि
खाने-पीने का समय है, जरा शंख की
परीक्षा भी करूँ। स्नानादि के बाद शंख की उसने विधिवत् पूजा की और हाथ जोड़ के
माँगा कि मेवा, मिष्ठान्न और
हलवा-मलाई दो। चार लोगों के खाने भर मिले। फौरन सभी चीजें हाजिर हुईं और खा-पी के
विश्वास पूर्वक वह घर चला। मगर इस झमेले में देर हो गई। शाम हो जाने से रास्ते में
ही किसी परिचित के यहाँ जा टिका। परिचित था बड़ा काइयाँ। ठगने का सामान उसके पास
भी काफी था। इधर ब्राह्मण था भोला-भाला। उसने परिचित के हाथ में शंख वाली झोली
देते हुए कहा कि भाई इसे जरा हिफाजत से रखना, बड़ी तपस्या के बाद यह शंख मिला है। अब मेरी गरीबी भागेगी
क्योंकि जो ही माँगिये वह वही देता है। परिचित ने खूब मीठी बातें बनाईं और कहा कि
भला हुआ जो आपको दरिद्रता भगाने की सामग्री मिली। मैं इसे बक्से में बंद किये देता
हूँ, आपके सामने ही। चलिये
देखिये और उसकी कुंजी आप ही अपने पास रखिए। ब्राह्मण ने प्रसन्नता पूर्वक शंख की
झोली बक्से में बंद करवाई। कुंजी लेना वह नहीं चाहता था। जब रात में सभी सो गये तो
परिचित ने उस ताले की दूसरी कुंजी निकाली, बक्सा खोला, शंख निकाल के उस
झोले में हू-ब-हू वैसा ही शंख रख दिया, ताला बंद कर दिया और खुद भी सो गया। सुबह हुई और ब्राह्मण ने उसे जगा के शंख
वाली झोली माँगी। उसने कहा कि घर आपका ही है, जा के खोल लाइये। ब्राह्मण ने वैसा ही किया। वह झोली को ठीक
उसी स्थान पर पा के तथा उसमें रखे शंख को देख के झोली के साथ बाहर आया और तेजी से
घर पहुँचा। पहुँचते ही बड़ी खुशी से स्त्री से कहा कि जल्दी स्नानादि का प्रबंध
करो। मैं ऐसा शंख लेकर आया हूँ कि वह मनमाँगी मुराद पूरी करेगा।
फिर तो तैयारी हुई। स्नानादि के बाद शंख को
ऊँचे स्थान पर रखकर खूब प्रेम से पूजा की। फिर माँगा कि पाँच रुपये दो। शंख ने कहा
– दस लो। उसने कहा –
अच्छा दस दो। शंख बोला – बीस लो। ब्राह्मण बोला – अच्छा, बीस ही सही। शंख
ने चालीस कहा। जब चालीस की माँग हुई तो उसने अस्सी कहा। सारांश यह कि जितना माँगा
जाता उससे ठीक दूने का वचन वह देता जाता था। ब्राह्मण बेचारा घंटों इस दूने के
चक्कर में पड़ा रहा। और भौंकते-भौंकते उसका गला फट गया। अंत में उसे रंज हुआ और
डाँट के बोला कि हरामजादे, कुछ देता भी कि
सिर्फ दूने का हिसाब ही लगायेगा। यदि नहीं दिया तो पत्थर से पीस दूँगा। इस पर
लाचार हो के शंख ने अपना असली रूप प्रकट किया और कहा कि मैं तो डपोरशंख हूँ। मैं
सिर्फ कहता हूँ, देता नहीं। अब तो
ब्राह्मण के शरीर में खून नहीं। वह समझ न सका कि यह क्या हुआ। मगर करता क्या?
लाचारी थी।
ठीक यही डपोरशंखी बात नेताओं की भी है। किसान
जो भी सोचता और चाहता है, उससे भी बढ़-बढ़
के वचन ये नेता देते जाते हैं। वह बेचारा क्या समझे? विश्वास करता रहता है। मगर जब नेताओं का काम बन जाता है और
किसान का कुछ भी नहीं होता, तब वह बौखलाता
जरूर है। मगर अब वह करेगा ही क्या? अब तो तीर हाथ से
निकल गया। नेताओं की तो बन गई। वह तो गद्दी पर जा बैठे। अब यदि उनसे पूछता या
जवाब-तलब करता है तो उत्तर देते हैं कि क्या दान करें, परिस्थिति ही ऐसी है, फलाँ-फलाँ दिक्कतें हैं, पैसे नहीं हैं, मुल्क तैयार नहीं है आदि-आदि। लेकिन अब कुछ किया भी तो नहीं जा सकता। ‘अब तो मियाँ की जूती और मियाँ का सर’ के अनुसार किसान के ही बनाये नेता उसी का गला
काटने में उसके विरोधियों से गठजोड़ कर लेते हैं।
ऐसी दशा में यदि उन्हें पदच्युत करना और
पछाड़ना भी चाहे तो कुछ कर नहीं सकता। अब तो उनके ही हाथ में शक्ति रहनी है। और
शासन भी उनके ही हाथ में रहना है। यदि न भी रहे तो भी एकाएक कोई बात किसान कर नहीं
सकता। वह तो पहले से तैयार ही नहीं रहता और बिना पूरी तैयारी, पूरी वर्ग-चेतना, पूरी संघ-शक्ति के वह कर ही क्या सकता है? ये सब चीजें ऐसी भी नहीं हैं कि चटपट हो जायँ।
इनके लिए तो काफी समय चाहिए।
मध्यम वर्गीय नेताओं की इधर यह हालत होती है कि
किसानों और मजदूरों की पूरी तैयारी के न रहने पर गोलमाल खूब ही करते हैं। उनमें जो
बोल-चाल और बातें बनाने की शक्ति होती है, उसका खूब ही उपयोग उन्हीं किसानों और मजदूरों के विरुद्ध बेखटके करते हैं
जिनके कंधों पर चढ़ के उड़ रहे हैं। खूबी तो यह होती है कि उन्हीं किसानों तथा
मजदूरों के नाम पर ही लोग चालाकी करके उनका ही गला रेतते हैं।
असल में मध्यम वर्ग की उस परिस्थिति में यह खास
खूबी होती है कि वह जिधर ही झुकता है, लोगों को – भोली-भाली आम
जनता को – उधर ही खींचता है क्योंकि
स्वभावतः जनता पर उसकी धाक होती है और वह उसमें विश्वास करती है और जिधर जनता झुकी,
जीत हुई। इसलिए जब वह किसानों और मजदूरों का
विरोध करता है, तब वह शोषकों और
शासकों का समर्थन करता है, तो लोकमत की तरफ
झुक जाने के कारण किसानों एवं मजदूरों का हार जाना जरूरी हो जाता है। क्रांति और
किसान-मजदूरों की लड़ाई के इतिहास में सैकड़ों बार यह बात देखी जा चुकी है और सभी
समझदार इसे स्वीकार करते हैं। इसलिए जब तक किसानों और मजदूरों का, शोषितों एवं उत्पीड़ितों का जीता-जागता संगठन न
हो जाय, उनमें पूर्णरूप से
वर्ग-चेतना विकसित न हो जाय और एक छोर से दूसरे छोर तक बिजली दौड़ने न लगे तब तक
इन मध्यमवर्गीय नेताओं से लड़ाई या खुल्लमखुल्ला विरोध करना बड़ा ही खतरनाक है। वे
यह जानते हैं और इसी से अनुचित लाभ उठाते हैं। यही लाभ उठाने के लिए तो शोषितों को
पूरा-पूरा तैयार करते ही नहीं, तैयार होने ही
नहीं देते। हजार बहानेबाजी से यह काम रोकते हैं, रोकना चाहते हैं। इसलिए तो उनसे विरोध न करके उन पर कड़ी
नजर रखने और उनकी पक्की जाँच करने की बात कही जा रही है, साथ ही अपनी तैयारी करने की भी पक्की सलाह दी जा रही है।
किसानों के लिये सबसे जरूरी काम यह है कि वह
हरेक नेता का पूरा-पूरा वत्तान्त जानें। वह शुरू से लेकर कैसे, कहाँ और किस दशा में क्या-क्या काम करता था,
यह अच्छी तरह पता लगायें। पूरा ब्यौरा और पूरा
पूर्व-इतिहास जाने बिना असलियत की पहचान असंभव है। वह इतिहास ही आइने की तरह झलक
देता है कि नेताओं के विचार कैसे हैं, उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति एवं रुचि किस ओर है और स्वभावतः वे कैसे-कैसे लोगों
का सम्पर्क पसन्द करते हैं। यदि सदा से उनका यही काम रहा हो कि जिन्हें ही गिरा
हुआ और पद-दलित पाया, उनको ही उठाने
में पड़ गये तो मानना पड़ेगा कि उनकी प्रवृत्ति किसानों के ही अनुकूल है। लेकिन
सिर्फ एकाध दृष्टान्त से ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। यह जरूरी नहीं कि
नेताओं ने सर्वत्र लड़ाई ही लड़ी हो। चाहे लड़ के, चाहे आन्दोलन से या बातों से और अपने व्यवहारों से ही बेशक
ऐसा नतीजा निकाला जा सकता है। यदि उन्होंने बराबर ऐसा किया हो तो उनके सुझाव का
अन्दाज लग सकता है। यदि उन्होंने बराबर ऐसा किया हो तो उनके झुकाव का अन्दाज लग
सकता है। तब माना जा सकता है कि वे किसानों का भी पूरा साथ जरूर देंगे। इसलिए
ब्यौरेवार पता इस चीज का लगाना निहायत जरूरी है। उनकी असलियत की यह एक पक्की कुंजी
है।
दूसरी चीज देखनी यह होगी कि उसके विचार कैसे
रहे हैं और आज भी कैसे हैं। जो निर्भीक हो, निर्भयता से स्वतंत्र विचारों को प्रकट करें और उनका समर्थन
करें, वही मजलूमों और पीड़ितों
का नेता हो सकता है। सब चीजों की गुलामी भले ही बर्दाश्त कर ली जाय, मगर विचार की गुलामी और बुद्धि की परतंत्रता
जिसे दिमागी गुलामी कहते हैं, हर्गिज बर्दाश्त
नहीं की जा सकती। कौन चीज बुरी और कौन चीज भली है, कौन मान्य और कौन अमान्य है, किससे हित होगा और किससे अहित, इसका पता तो विचार ही दे सकता है। इसके लिये दूसरा तराजू या
दूसरी कसौटी है नहीं। अगर चीज ठीक है तो फिर विचार-सूर्य के सामने आने से उसे क्या
डर? प्रकाश में आने से तो ठग
और चोर ही डरते हैं। इसलिए जब तक विचार की स्वतंत्रता है, तब तक आशा है कि सच्ची बातें छिप नहीं सकती हैं, कोई उन्हें सदा के लिये छिपा नहीं सकता।
इसलिये दूसरी जितने प्रकार की गुलामियाँ हैं,
सभी मिट सकती हैं, सभी के लिए मिट जाने की आशा की जा सकती है, यदि बुद्धि आजाद हो और विचारों को प्रकट करने
या रखने में कोई बाधा न हो। असल में विचार-स्वातंत्र्य से कितनी ही बेबुनियाद और
हानिकारक रूढ़ियाँ और अन्ध परम्पराएँ खत्म हो जाती हैं, टिक नहीं सकती हैं। और शोषक लोग तो ज्यादातर रूढ़ियों के बल
पर ही अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते हैं। जब पुरानी चीजें एक के बाद दीगरें
मिटने लगीं तो उन्हें खतरा होता है कि जमींदारी वगैरह भी मिट सकती है, इसलिए वे रूढ़ियों को पकड़ रखना चाहते हैं। यही
कारण है कि वे स्वतंत्र विचारों के पक्षपाती कभी नहीं होते। फलतः जो
विचार-स्वातंत्र्य का समर्थक होगा, वह उनका विरोधी
हो सकता है, यह संभावना
पूरी-पूरी है।
विचारों के बारे में एक चीज और है। गरीबों का,
किसानों का निस्तार तब तक नहीं होगा जब तक
क्रान्ति न हो और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था न बदल जाय। लेकिन बाहरी क्रान्ति के
पहले भीतरी क्रान्ति – विचार की
क्रान्ति – जरूरी है। दकियानूसी,
पुराने और खूसट विचारों वाले क्रान्ति से हजार
कोस दूर भागते हैं। जब हमें नई दुनिया लानी है, जब नया संसार बनाना है तो उस संसार का खाका तो पहले मन में
आयेगा ही। जो चित्रकार अपने मन में किसी का चित्र नहीं बना सकता, वह बाहर कागज या दीवार पर कैसे बनायेगा?
इसलिए बाहरी उथल-पुथल से पहले विचारों की
उथल-पुथल अनिवार्य है। जब विचारों में यह चीज हुई तो उसे रोकना नहीं किन्तु
खुल्लमखुल्ला प्रकट करना आवश्यक है क्योंकि केवल एक-दो या दस-बीस के विचारों की
उथल-पुथल से ही कुछ होने-जाने का नहीं, जब तक आम लोगों में वह बात बैठ न जाय। इसी से मानना होगा कि स्वतंत्र विचारों
को स्वतंत्रता पूर्वक प्रकट करने से क्रान्ति की परिस्थिति और उसके अनुकूल वातावरण
तैयार होता है। इसलिए वह जरूरी है। जो विचारों को प्रकट करने से डरेगा, वह किसानों की हकों की लड़ाई लड़ने की हिम्मत
कहाँ से पायेगा? जो बात में ही
इतना कमजोर है, वह काम में तो
खामख्वाह हजार गुना दब्बू साबित होगा और दब्बू नेता तो डुबो देगा ही, यह ध्रुव है।
तीसरी चीज यह देखने की है कि वह धुन का कैसा
है। काम छोटा हो या बड़ा, कोई बात नहीं।
मगर उसे पूरा करने में उसने पहले क्या किया, यह देखना जरूरी है। किसी चीज की सफलता के लिये जो सबसे
जरूरी चीज है, वह है धुन,
लगन, जीवट। कहते हैं कि आदमी की धुन में बड़ी ताकत है, अपार शक्ति है। यदि हम दृढ़ संकल्प के हों तो सफलता मिल के
ही रहेगी। देखा जाता है कि जितने धर्म और मजहब हुए, सैकड़ों प्रकार के जो आस्तिक, नास्तिक आदि विचार हुए, सभी को पूर्ण सफलता मिली, और सभी के मानने वाले भी खूब ही हुए। यदि सच्चाई की ही बात
होती तो परस्पर सभी विचारों और बातों में किसी एक को ही सफलता मिलती। मगर मिली
सफलता सभी को। सो भी खूब ही क्यों? इसलिए कि उनके
प्रवर्तकों में धुन थी, लगन थी और उनका
संकल्प दृढ़ था। यदि सफलता लोहा है तो लगन और दृढ़ संकल्प चुम्बक है जो खामख्वाह
उसे पास में घसीट लाता है।
कहते हैं किसी जमाने में टिट्टिभ (टिटिहरी)
पक्षी – नर मादा दोनों ही –
समुद्र के किनारे रहते थे। समय पाकर उन्होंने
ऐसी जगह अंडे दिये जहाँ पर कभी पानी (लहर का) पहुँचता ही न था। मगर अकस्मात् एक
दिन ऐसी ऊँची लहर आई कि उनके अंडे बह गये। वे दोनों चारा चुगने गये थे, इसलिए बचा न सके। नहीं तो अंडे ले के अन्यत्र
उड़ जाते। जब लौटे तो अंडे गायब। उनके मन में बड़ा रंज हुआ। उनके क्रोध की सीमा न
रही। सोचने लगे, अंडे बहाने में
समुद्र को क्या मिला? यहाँ तक तो कभी
आता न था। हमारी सारी जिन्दगी यहीं बीती। हो न हो, जान-बूझ के शैतानियत की है। अच्छा, तो उसका नतीजा उसे भुगतना ही होगा। दोनों ने तय कर लिया कि
चाहे जो हो, या तो दोनों मारे
जायेंगे, या अंडे ही वापस ले के दम
लेंगे। समुद्र को लौटाने के लिए दो-चार दिन की मुहलत दी गई और कहा गया कि न देने
पर या तो तुम्हीं या तो हमीं। कहते हैं कि न सिर्फ समुद्र बल्कि सुनने और देखने
वाले सभी हँसे कि यह क्या बच्चों की-सी नादानी है, देखो इन तुच्छ पक्षियों की हिम्मत! मगर पक्षी अड़े रहे। वे
अपने दृढ़ संकल्प से विचलित न हुए।
मुहलत की अवधि भी बीत गई। मगर अंडे कौन देता?
किसे इसकी परवाह थी? अपार विस्तार वाला और मच्छ, कच्छ आदि अनेक खूंखार जानवरों और पहाड़ों तक को अपने उदर
में पालने और स्थान देने वाला समुद्र इनकी बात सुनने भी क्यों लगा? जब अवधि पूरी हुई तो पक्षियों ने न कुछ सोचा और
न विचारा और लगे चोंच से समुद्र का पानी उठा-उठाकर बाहर उलीचने! खाना-पीना बन्द!
उसकी फिक्र उन्हें काम के आगे कहाँ थी? काम बराबर चालू रहा। देखा-देखी पास-पड़ोस के पक्षी भी आये और पूछने लगे कि
आखिर पानी पीना क्यों छोड़ दिया और यह क्या कर रहे हो? मगर वे दोनों सुनने को भी तैयार नहीं। सभी हैरान थे,
परन्तु उनका उलीचना तो अखंड रूप से चालू था।
उन्होंने बात की अपेक्षा काम से ही उत्तर देना उचित समझा। बातों को अपनी तपस्या
में वे दोनों विघ्न मानते थे। जैसे योगी अपनी तपस्या के विघ्नों से बचता है,
वही बात वे दोनों भी करते थे। आखिर योग बी तो
किसी लक्ष्य की साधना ही है न? और वह भी अपने
लक्ष्य की साधना में ही लग्न थे, तल्लीन थे। फिर
विघ्न-बाधाओं से बचते क्यों नहीं?
अन्त में उनकी इस धुन का, इस लक्ष्य के प्रति अनन्य भक्ति ‘मर जाये या लक्ष्य की सिद्धि करे’ इस अटूट संकल्प का असर आखिर और पक्षियों पर भी
हो के ही रहा। यहाँ तक कि जो बड़े-बड़े समझदार थे, जो इनको ही समझा-बुझा के उस नादानी के काम से विरत करने का
बीड़ा उठाने आये थे, उन पर भी असर हुआ
और ‘चौबे गए छब्बे बनने मगर
दूबे हो के लौटे’ वाली बात
चरितार्थ हुई। फलतः धीरे-धीरे सभी पक्षी उसी बेवकूफी में फँस गये। फिर तो उलीचने
वालों का ताँता बँध गया। कुछ ही दिनों में देखा-देखी लाखों, करोड़ों, अनन्त पक्षी जहाँ
देखो चोंच से समुद्र का पानी उलीच रहे हैं। खूबी तो यह कि पूछने पर कोई किसी से
वजह भी नहीं बताता। पीछे तो पूछने की हिम्मत भी किसी को नहीं होती थी। वह नादानी
ऐसी थी कि सबों के सिर पर सवार हो गई। लगन और धुन का जादू ऐसा ही होता है। ऐसा ही
यह कीमिया है जो सभी चीजों को पारस बना देता है ज्यों ही इसने छुआ। यह ऐसी भयंकर
छूत है।
आखिर में एक दिन नारद महराज भी घूमते-घामते उधर
आ निकले और यह तमाशा देख के दंग रह गये। उन्होंने हजार कोशिश की कि इस नादानी के
कारण का पता लगायें। मगर सुनता कौन? उन्हें अभिमान था कि हम तो महर्षि हैं, हमारा अनादर तो कोई कर नहीं सकता। मगर वहाँ क्षण-मात्र के
लिए भी फुर्सत ही किसे थी जो उनका आदर करता। फलतः रंज होने के बजाय उन पर भी इसका
बड़ा असर हुआ। वे फौरन ढूँढ़ते-ढाँढ़ते गरुड़ के पास पहुँचे और पक्षिराज को कस के
फटकारा कि तुम यहाँ मौज करते हो और तुम्हारे वंश पर उधर बला आई है। छी!छी! खबर भी
नहीं लेते। सुनते हैं कि तुम्हारे परों में अपार शक्ति है जिससे समुद्र को जला
सकते हो, वह अब कब काम आयेगा?
गरुड़ शर्मिंदा हुए और दौड़ पड़े। वहाँ जा के
जो नजारा उन्होंने देखा, उससे अत्यंत
विचलित हो उठे। फिर क्रोध के साथ अपने पंखों को उठा के समुद्र में मारना इसलिए
चाहा कि सारा पानी जला दें। इतने में ही हाथ जोड़ के मनुष्य के रूप में समुद्र ने
सभी अंडे हाजिर किये। चलो, मामला तय हुआ।
गरुड़ ने उन दोनों नर-मादा पक्षियों को किसी प्रकार ढूँढ़ के अंडे सौंपे, फिर रवाना हो गये। उसके बाद ही कहीं जाकर वह
उलीचना रुका।
जनता के काम के लिए और खासकर क्रान्ति लाने के
लिये जब तक टिट्टिभ जैसा व्यवसाय और दृढ़ संकल्प न हो, कुछ भी होने जाने का नहीं। और जब नेताओं एवं कार्यकर्ताओं
में ही यह धुन नहीं तो जनता में और किसानों में वह कहाँ से आयेगी, उसकी छूत उनमें कैसे लगेगी? टिट्टिभ की छूत असंख्य पक्षियों में लगी थी।
वैसे ही नेताओं और कार्यकर्ताओं में ही यह धुन की छूत भी किसानों में लगती है।
टाल्सटाय ने कहा है कि हमारे लेक्चरों, नोटिसों, किताबों और गीतों
का स्थायी प्रभाव जनता पर नहीं पड़ता। कुछ समय के लिये भले ही पड़ जाय और बिना
स्थायी प्रभाव के काम निकलता नहीं। लेकिन जिन बातों के लिये नोटिसें बाँटते या
लेक्चर देते हैं, उन्हीं के लिये
जब मर मिटने को, जेल जाने,
मार खाने, जायदाद जब्त करवाने को तैयार हो जाते हैं – सारांश कि उन्हीं की धुन में मस्त हो जाते हैं
और अन्य सारी बातें भूल जाते हैं – तभी दुनिया की
आँखें खुलती हैं और वह पीछे-पीछे दौड़ पड़ती है। तभी उसके दिल पर उन बातों का
स्थायी असर होता है। इसलिए नेता और कार्यकर्ता में इस धुन का होना सबसे ज्यादा
जरूरी है, चाहे वह लिखना-पढ़ना और
लेक्चर झाड़ना भले ही न जानता हो।
नेताओं में जो चौथी चीज होनी चाहिए वह है इसी
धुन के सिलसिले में। कहते हैं कि ‘हाँके भीम होय
चौगुना’। मगर जहाँ हाँकने का
प्रश्न न हो? जहाँ मदद देने
वाला और हिम्मत बँधाने वाला तो हो नहीं, किन्तु विरोधी हो और चारों ओर से बाधाओं का पहाड़ टूट पड़े? वहाँ क्या हो? वहाँ सच्चा नेता क्या करे – ‘अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे न दैन्यं न पलायनम्’ – खायेंगे गेहूँ या रहेंगे एहूँ। जितने ही विघ्न
आयें, जितनी ही दिक्कतें हों,
जितनी ही रोक-टोक की वृद्धि हो उतनी ही हिम्मत
बढ़े, तभी कार्यसिद्धि होती है।
बाधायें तो हमारी मजबूती की जाँच के लिए ही आती हैं, क्योंकि कमजोरों को विजयश्री जयमाला पहनाना नहीं चाहती है।
इसलिए परीक्षा की जाती है, जब वैसे मौकों पर
भी हम डटे रहें, हमने पस्ती न
दिखाई, किन्तु और भी हजार गुना
जोर लगा के आगे बढ़े, तो किसकी ताकत है
कि सफलता को रोक सके? और जब नेता में
ही यह बात न होगी, जब वही चट्टान की
तरह अड़ा रहेगा, तो अनुयायी और
किसान कैसे अड़ेंगे? इसलिए उसमें इस
गुण का होना भी निहायत जरूरी है, अनिवार्य रूप से
आवश्यक है।
पाँचवीं चीज है अपने आप में, अपने लक्ष्य और किसानों में अमिट विश्वास।
नेताओं और कार्यकर्ताओं के पूर्व इतिहास से इस बात का पता लगाना चाहिए और वर्तमान
समय की बात-चीत से भी टटोलना चाहिए कि उनमें आत्मविश्वास है या नहीं। वे यह पूरा
यकीन रखते हैं या नहीं कि उनका लक्ष्य – किसान राज्य कायम होना – सिद्ध होगा या
नहीं। यह भी देखना तथा अच्छी तरह पता लगाना होगा कि कहीं वे ऐसा तो नहीं समझते कि
उनसे यह काम तो होगा ही नहीं, इसे तो कोई और ही
पूरा करेगा। यह भी देखना चाहिए कि किसानों पर उन्हें पूरा विश्वास है या नहीं कि
उनका लक्ष्य – किसान राज्य कायम
होना – सिद्ध होगा या नहीं। यह
भी देखना तथा अच्छी तरह पता लगाना होगा कि कहीं काम लक्ष्य-सिद्धि के लिये किसान
जरूर करेंगे। यदि तीन बातों में एक-दो या सभी के बारे में उनके दिल में जरा भी शक
हो तो वह हर्गिज नेता नहीं बन सकते। वह सेनापति ही कैसा, वह सिपाही ही कैसा जिसे न तो अपने में विश्वास हो और न अपने
लक्ष्य में। वह तो मैदाने जंग में टिक सकता ही नहीं। वह तो बात की बात में पछाड़
खायेगा। उसे हिम्मत कहाँ कि अन्त तक टिक सके? और जो सेनापति अपनी सेना पर ही शक करता है, जिसे सेना की योग्यता में ही विश्वास नहीं,
वह क्या लड़ेगा और क्या विजयी होगा? उसकी तो जड़ ही खोखली है, उसमें घुन लग चुका है। इसलिए नेता के लिये इन
तीनों में अटूट और अपार विश्वास का होना निहायत ही जरूरी है।
छठी चीज है नेता का बाहर और भीतर एक रंग होना।
कहा है कि “दुरंगी छोड़ दे, इकरंगा हो जा”। दुरंगी चाल खतरनाक है। दुरंगी तो बाहर होती है जिसे
गंगा-जमुना चाल कहते हैं। जो लोग चमगादड़ की तरह सभी को खुश करना चाहते हैं और जो
मौका देख के ही बातें किया करते हैं, वे सर्वत्र अपनी सफाई ही पेश करते फिरते हैं। किसान के सामने किसान की बात और
जमींदार के सामने उसकी बात करना। यदि कोई पूछे कि अमुक स्थान पर तो आपने इसके
उल्टा कहा था तो चटपट उसके अनुकूल ही मतलब लगा लेना और इस प्रकार सफाई पेश कर देना
रँगे सियारों का ही काम होता है। वे तो बाजारू सौदा करते हैं, फलतः सभी जगह अपनी कीमत लगवाना चाहते हैं। उनकी
जिंदगी यों ही गुजरती है। वे तो कुछ ठोस काम कर ही नहीं पाते, तब तो पकड़ लिये ही जायँ। जीवन-भर उनकी सर्वत्र
पूछ होती रही, उनके लिये यही
क्या कम है?
मगर कुछ लोग तो ऐसे काइयाँ और धोंखड़े होते हैं
कि बातें करते हैं खुल्लमखुल्ला ऐसी जो या तो साफ किसानों के ही हित की हों या कम
से कम ऊपर से उनका ऐसा ही दुमानियाँ बातों में खर्चते हैं, गोया कचहरी में बैठे वकालत करते हों। नतीजा यह होता है कि
किसान धोखे में पड़ जाता है और उन पर लट्टू हो जाता है। साफ बातों का तो कहना ही
नहीं, मगर गोल बातों में भी
अपना ही मतलब निकालता है और समझता है कि यही हमारे कर्णधार हैं।
कहते हैं कि किसी भविष्यवक्ता से, जो बड़ा चालाक था, किसी ने अपनी गर्भवती स्त्री के बारे में पूछा कि इसे लड़का
होगा या लड़की? उसने जबानी न कह
के एक कागज पर लिख दिया – ‘लड़का न लड़की’। पूछने वाला सीधा था। कागज ले के चला गया।
उससे भविष्यवक्ता ने कहा था कि कागज को अभी मत पढ़ो। जब संतान हो जाए तभी खोलकर
पढ़ना और अगर मेरी बात मिथ्या हो तो कहना। उसमें चालाकी यह थी कि ‘लड़का न लड़की’ के बीच में जो ‘न’ था दोनों ओर चलता था।
फलतः यदि लड़का पैदा होता तो उसका अर्थ लगता है कि लड़का, न लड़की। यदि लड़की होती तो मतलब होता कि लड़का न, लड़की। लेकिन यदि गर्भपात हो जाता तो मानी लगता
की न लड़का, न लड़की। ऐसी ही
बातें चतुर नेता करते हैं।
लेकिन बातें करने और स्पीच झाड़ने के बाद
समय-समय पर जमींदारों और मालदारों की दरबारदारी भी करते हैं। उनसे इस प्रकार
घुल-घुल के बातें करते हैं कि लगता है उन्हीं के खैरखाह हैं। होते भी हैं वे लोग
ऐसे ही। बातें करते हैं किसानों की और काम करते हैं उनके शत्रुओं का! काम तो हर
घड़ी होता भी नहीं, किन्तु मौके से
ही। जब किसानों का उन पर विश्वास है तो वे शक तो करेंगे नहीं। अतः मौका पाते ही ये
हजरत लोग जमींदारों का काम बना देंगे। उनसे जमींदारों की भेंट-मुलाकात बहुत ही
लुक-छिप और किसी न किसी बहाने से ही होती है। ताकि किसानों के दिलों में उनके
प्रति शक न हो सके। वही माल भी चखते हैं। उनके ही पैसे से अपना काम भी करते हैं।
उनसे ही जमीन भी चुपके से लिखा-पढ़ी करके ले लेते हैं। सगे-संबंधियों को उनके यहाँ,
या उनके द्वारा नौकरी-चाकरी भी दिलवा देते हैं।
उनकी मोटरों से सैर-सपाटे भी करते हैं। ये लोग बड़े ही खतरनाक हैं। ये सब रेशम की
फाँसी हैं, काले नाग के बच्चे हैं।
इसीलिए जरूरत इस बात की है कि किसान उनके पीछे
अपने खुफिया बराबर तैनात रखें। वह दिन-रात उनकी खबर लेता रहे कि कहाँ गए, कहाँ कब उठे-बैठे, कहाँ खाया-पीया, कहाँ सोये और किससे कब क्या लिया-दिया। उनकी दिनचर्या का रत्ती-रत्ती पता
लगाना निहायत ही जरूरी है। जो जमींदारों या किसानों के विरोधियों से मिले-जुले,
घुल के बातें करेगा, उनके यहाँ खाए-पीएगा, सोवेगा और उनका काम भी करेगा, वह किसानों को जरूर धोखा देगा। वह बड़ा ही बगुला भगत है,
उससे सजग रहना होगा। धनियों के पैसे में ऐसा
जादू है कि कुछ कहिये मत। ऐसी मीठी छुरी है कि नेता लोग तो उससे खामखाह जबह होते
ही हैं। यदि वे न भी चाहते हों और ईमानदार भी हों, मगर उनके साथ किसान भी कट जाते हैं। नेताओं का जबह होना तो
इतना ही है कि वे जमींदार के हाथ के कठपुतले हो गए। मगर किसान तो खत्म ही होते
हैं। और पता भी नहीं चलता! यही तो खूबी है।
धनियों के इस पैसे की बात ऐसी खतरनाक है,
यह समझना आसान नहीं है। नेता लोग उनसे पैसा
लेते हैं और कहते हैं कि स्कूल खोलेंगे, पुस्तकालय खोलेंगे, आश्रम खोलेंगे,
कार्यकर्ताओं को खिलाए-पिलाएँगे। यहाँ मैं उन
नेताओं की बात करता हूँ जो सचमुच अपने लिए कुछ नहीं चाहते, जो जनता की भलाई चाहते हैं। वह समझते भी हैं कि इस प्रकार
भलाई होगी। उधर अमीर और जमींदार समझता है कि चारा खिला-पिला के फँसा रहे हैं। पीछे
तो कहीं अलग जा ही न सकेंगे। स्कूल खुल गया, पुस्तकालय बन गया और उसी के साथ अमीर का डंका भी पिट गया।
नेता ने भी कहा कि फलना बाबू ने या फलना सेठ जी ने उपकार किया। इस प्रकार जनता के
दिल पर उसकी धाक जमी।
अब अगर किसी बोर्ड या असेम्बली के चुनाव में वह
धनी खड़ा हो जाए तो क्या होगा? नेता को तो
हिम्मत ही नहीं कि विरोध करें। क्योंकि स्कूल जो टूटेगा, पुस्तकालय जो बंद हो जाएगा, यदि उसके रुपये न मिलें, यह देखा जादू! नेता
हुआ कि वह अमीर जीत गया। वहाँ जाने के बाद दो हजारों ढंग से वसूल ही कर लेता है,
उस रुपये का हजार गुना जो उसने उपकार में दिया
था। यही नहीं, यदि नेता हिम्मत
करके विरोध भी करे तो क्या होगा? उसकी धाक तो पहले
से थी ही। ऐसा ही सोचते हैं। यदि कहीं वह चीनी की मिल का मालिक है और किसानों और
मजदूरों को हजार ढंग से दिक करता है, पैसे कम देता है। ऊख की तोल आदि में चोरी करता है, दाम देने में जाल करता है, तो भी नेता के मुँह पर तो ताला ही लगा रहता है। यदि बोले वह
मालदार किसानों से और मजदूरों से भी लाखों-करोड़ों रुपये लूटता है और नेता लोग ‘टुक-टुक दीदम, दमन कसीदम’ करते हैं। उसी
लूट में से एक बूँद खून हमें भी चंदा देता है, नेताओं को देता है। सो भी उपकारों के नाम पर। धन्य है यह
उपकार और धन्य है हमारी बुद्धि! यही किसान-हितैषियों तो किसानों को बर्बाद करती
है। खूबी तो यह है कि न तो वे और हमीं इसे समझ पाते हैं, यह मीठा जहर है।
कहते हैं कि चोरों का दल रात में कहीं चलता है।
अगर रास्ते में दैवात् कुत्ते मिल जाएँ तो भौंकने लगते हैं। इससे चोरों को बराबर
खतरा रहता है। इसीलिए हमेशा कुछ गुड़ पास में रखते गए और चोर निकल गए। यही बात
अमीरों और शोषकों की है। वे नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी स्वच्छंद लूट में बाधक
और भौंकने वाले कुत्ते समझते हैं। वे खूब जानते हैं कि यही लोग शोर-गुल मचाएँगे,
आंदोलन करेंगे, इसीलिए उनका ही मुँह बंद करना चाहिए। यही कारण है कि यदि
नेता वगैरह स्वार्थी हुए तो उन्हें उनके लिए पैसे आदि दे-दिलाकर काम चला लिया और
उनका मुँह बंद कर दिया। लेकिन अगर स्वार्थी न हुए तो परोपकार और आश्रम वगैरह के
नाम पर ही पैसे दे के उनकी आवाज रोक दी। हमारे पास समझ कहाँ जो इसे समझ पाएँ?
यह तो धनियों का महाजाल है। न जाने आश्रम और
कार्यकर्ता रख के हम क्या करेंगे, जब किसान ही लुट
जाएँगे? मगर यह समझें तब न! असल
में इस प्रकार जो कार्यकर्ता तैयार होंगे, वह तो भाड़े के ही होंगे। उन पर विश्वास तो किया जा सकता नहीं क्योंकि जिनका
भरण-पोषण किसानों के शत्रु एवं उनका रक्तपान करने वाले करें वे कब तक किसानों का
साथ दे सकते हैं।? बकरे की माँ कब
तक खैर मनाएगी?
इसीलिए यह सबसे जरूरी सातवाँ गुण नेता का होना
चाहिए कि लड़ाई के लिए जो तीन आवश्यक और बुनियादी चीजें हैं, उन्हें किसान के भीतर से ही प्राप्त करें। आदमी
(कार्यकर्ता) अन्न-पानादि सामान और पैसे, इन तीनों के बिना कोई लड़ाई लड़ी जा सकती नहीं। इसीलिए ये तीनों (man,
monkey, materials) किसानों को ही
अपने भीतर से जुटाना होगा। उन्हें अपने ही से ये तीनों पदार्थ एकत्र करने होंगे।
यही पक्का सिद्धांत है और नेता का इसमें पूरा जोर, उसकी इसमें दृढ़ धारणा चाहिए, क्योंकि वही तो किसानों को इनकी तैयारी के लिए प्रेरित
करेगा, कटिबद्ध करेगा और जब उसी
में लोगों का पक्का विश्वास नहीं, अब वही बात जरूरी
नहीं मानता तो उन्हें इसके लिए बराबर सुलझाएगा क्योंकर?
क्या मँगनी के सिपाही, गोला, बारूद और पैसे से
किसी फौज को कभी विजय मिली है? क्या दुश्मनों के
ही सिपाही, उन्हीं के अस्त्र-शस्त्र
और उन्हीं के रुपये-पैसे से हम किसानों का महान संग्राम जीतेंगे? ऐसा सोचना तो नेता का राजनीतिक दिवालियापन है,
उसके दिमाग की दरिद्रता है। शत्रु भी गधा थोड़े
ही हैं कि वे यों ही हमारे लिए ये चीजें देगा। इसीलिए अगर देता है तो किसी चाल से
ही सीखें ताकि ऐन मौके पर गोलमाल हो जाए। इसीलिए उससे सजग रहना ही होगा।
किसानों के सच्चे नेता के लिए जो सबसे जरूरी और
बुनियादी चीज है और जिसके बिना अंत में विफलता ही होगी, चाहे और सभी सामान मौजूद ही क्यों न रहें, वह है उसमें श्रेणी-संघर्ष की दृढ़तम एवं
निरूढ़ भावना। किसानों और शोषितों का उद्धारक और लीडर वही हो सकता है जिसे इस बात
का पूरा विश्वास हो कि शोषितों की उनमें किसान और मजदूर हैं। एक श्रेणी है,
उनका एक दल है और जब तक वह अपने शोषकों,
जमींदारों एवं पूँजीपतियों से बिना समझौता किये
ही, चाहे ‘वह रहे या हम रहें’, दोनों तो - शोषित और शोषक – रह सकते नहीं, एक श्रेणी को तो मिटना ही है और अंत में शोषक ही मिटेंगे, ऐसे जीते-जागते विश्वास के साथ लड़ेंगे नहीं तब
तक निस्तार हो सकता नहीं। जो सुलह सपाटे और समझौते की बातें सोचता और करता है,
या जिसके दिल और दिमाग में वर्ग-सामंजस्य और
सभी दलों के मेल-जोल (collaboration) का ख्याल है वह तो किसानों की नाव को मध्यधारा में ही अवश्य ही डुबाएगा। इसमें
जरा-भी शक नहीं। यही श्रेणी-संघर्ष तो कमाने वालों के सारे आंदोलनों और लड़ाइयों
का मूलाधार है, नींव है, बुनियाद है। यही असली कसौटी है। इसके बारे में
जरा-भी मुरव्वत और लल्लो-चप्पो नहीं होना चाहिए। नेता लोगों को इसी कसौटी पर अच्छी
तरह से कस के जाँचना चाहिए। उन्हें इसी तराजू पर तौलना हमारा फर्ज है। यही चित्र
का आधार है और बाकी गुण इसमें भरे गए रंग हैं। यह आठवाँ गुण असल में सबसे पहला है।
प्रायः देखा जाता है कि जब असेम्बली आदि का
चुनाव होता है तो हजारों-हजार रुपये खर्च होते हैं। खर्च का कोई हिसाब ही नहीं
रहा। ठीक ही तो है। इन्हीं रुपयों के बल पर ही तो विजयी बन के किसानों और मजदूरों
को उनकी श्रेणी के शत्रु, उनके मददगार तथा
उनके दलाल सदा के लिए गुलाम बनाते हैं। इसीलिए यदि वे लोग ये पैसे पानी की तरह
बहाते हैं तो ठीक ही है। यह बात बखूबी समझ में आती है मगर जब किसानों के लिए आँसू
बहाने वाले नेता लोग ये पैसे खर्चते हैं और कहते हैं कि जीतने पर असेम्बली में
उनकी भलाई करेंगे तो यह बात दिमाग में आती ही नहीं। आखिर वे लोग ये रुपये कहाँ
खर्चते हैं? यदि अपने पास से,
तब तो शक होता है कि वे भी इतने रुपये जमा करने
के कारण शोषक श्रेणी वाले ही तो नहीं हैं? इन रुपयों को रोजगार व्यापार में खर्च न करके चुनाव में खर्च का मतलब आखिर
क्या हो सकता है? यदि व्यापार में
मुनाफा करते हैं और बैंक में सूद पाते हैं तो चुनाव के बाद भी वह यही बात क्यों न
करेंगे और अपना मुनाफा क्यों न कमाएँगे?
वर्तमान समय में जैसे नए-नए व्यापार और कमाने
के रास्ते निकलते हैं, उसी प्रकार यह
चुनाव भी एक व्यापार क्यों न माना जाए? और मानने की बात भी क्या? वह तो साफ ही है।
हमेशा यही देखा जाता है जो वहाँ गया, उसे ही अपनी ही फिक्र पड़ी और किसान छूटे। किसान इस चीज को समझें, यही असल बात है। फलतः जो नेता ऐसा करे उन पर
हर्गिज यकीन न करे। जो उनके असली नेता होंगे, वह तो साफ कहेंगे कि हमें न तो चुनाव में पड़ना है और न ही
व्यस्थापक सभा का सदस्य बनना है। हाँ, यदि किसान-सभा और किसान इसकी जरूरत समझते हैं, तो चाहे पैसा खुद खर्च करें, या बिना खर्च के ही हम वहाँ पहुँचा दें। हमें क्या गरज पड़ी
है कि पैसे खर्च करें, या इसके लिए
परेशान हों। हमें तो किसानों की सेवा करनी है। जहाँ हुक्म होगा, वहीं जाएँगे। यह नवीं बात नेता में होनी चाहिए।
दसवीं बात जाति और धर्म की है। हम स्थानांतर
में बता चुके हैं कि जाति और धर्म की दुहाई देना मालदारों और मध्यवर्ग का काम है,
उनकी पहचान है। वे जाति-पाँति और धर्म को
खामखाह आर्थिक और राजनीतिक मामलों में घसीटते हैं। यहाँ तो रोटी और जमीन का सवाल
है। चाहे सीधी लड़ाई हो या व्यवस्थापक सभाओं आदि में जाना हो। हर हाल में जाति और
धर्म का प्रश्न तो उठता ही नहीं। वहाँ न तो पूजा-पाठ करना है और न ही शादी और भोज
वगैरह। फिर जाति या धर्म का वहाँ मौका ही क्या? किसी खास धर्म या जाति के लिए वहाँ कानून भी नहीं बनते और न
जमीन ही दी जाती है। रोटी, कपड़े आदि का
ताल्लुक किसी जाति या धर्म से है भी नहीं। फिर यह गोलमाल क्यों? किसान की जमात में रह के ऐसा प्रश्न, ऐसी हरकत और ऐसी कार्यवाही क्यों? उन्हें तो इन सवालों को सपने में भी नहीं उठाना
चाहिए। भूलकर भी मन में इन्हें आने देना नहीं चाहिए। उन्हें इनसे गरज ही क्या?
ये तो सारा गुड़ गोबर कर देंगे और धोखा देंगे।
इसीलिए किसान नेता भूलकर भी ये बातें न करें। वे तो इनसे सदा अलग रहें।
हम पहले धुन की बात कर चुके हैं। उसी के संबंध
से नेता में ग्यारवीं बात भी रहती है – ग्यारहवीं बात पाई जाती है, आप चाहे उन्हें
जेल में रखिये या काले पानी में रखिये या विदेश में, सभा में रखिये या सीधी लड़ाई में, व्यवस्थापक समिति में रखिये या साधारण बातचीत में, वे चाहे सोते हों या जागते हों, बीमार हों या अच्छे हों, घूमते-टहलते हों या चुपचाप बैठे हों, हर हालत में हम एक ही बात देखेंगे। वह बराबर किसी न किसी
समस्या या सवाल पर जिससे किसानों का ताल्लुक है, सोचते-विचारते रहेंगे। वे बराबर ही ऐसे उधेड़पन में लगे
रहेंगे, चाहे कोई वक्तव्य लिखें,
पुस्तक-पुस्तिका लिखें, प्रस्ताव तैयार करें, कार्यपद्धति बनायें या किसी ढंग की और बात करें, मगर कुछ न कुछ करते जरूर रहेंगे। ऐसी ही चीज
जिससे किसानों का सीधा हित हो, उनकी लड़ाई आगे
बढ़े और उनका सिर ऊँचा हो, सारांश ‘जागत सोवत शरण तिहारी’ को चरितार्थ करेंगे। यही उनकी अनन्य भक्ति है। उन्होंने
किसान की बातों को इस कदर अपनाया है कि सपने में वहीं बातें दिखती हैं। अपनाने का
यही अर्थ भी है। सफल लीडर बनने के लिए वह बहुत जरूरी चीज है।
बारहवीं और आखिरी चीज तो हम नेताओं के बारे में
कहना चाहते हैं खान-पान औऱ रहन-सहन की पूरी सादगी के साथ ही वह अपनी धारण को असली
रूप देगा। सादगी न होने से तो मामला बेढब हो जाएगा। वह तो किसान दिल खोलकर सभी
उससे हिल-मिल न सकेंगे। वह तो उनके खान-पान और रहन-सहन से वैसे ही भड़केंगे जैसे
लाल कपड़े से साँड़ भड़कता है। भड़कना तो किसान का स्वभाव ही है और यह तो ठीक ही
है। उन्हें तो हमें अपने निकट लाना है ताकि हिल-मिल जाएँ। इसीलिए सादगी जरूरी है।
उसके साथ व्यवहार करने में जरा भी भेद-भाव की गंध नहीं होनी चाहिए। नेता का दिल
गंगा की धारा की तरह स्वच्छ होना चाहिए। उसका सलूक ऐसा हो ताकि सभी उसके पास खिंच
जाएँ। जैसे गंगा में डुबकी लगाने को सभी का दिल चाहता है, वैसे ही सभी उसके पास अपनी रक्षा के लिए दौड़ के आएँ। नेता
अपने अमल से ही अपने प्रति किसानों में यह विश्वास पैदा कर दे कि यही हमारा असली
उद्धारक है।
इसीलिए जरूरत इस बात की है कि नेता, राजे, महाराजे, सेठ, साहूकार और धनियों की अपेक्षा किसानों की कदर
हजार गुणा ज्यादा करे। वह बाकी लोगों का अपमान तो कर सकते नहीं। ऐसा करने की न तो
उन्हीं जरूरत ही है और न ही उचित ही है। इसीलिए वह ऐसा हरगिज न करे जिससे देखने
वालों के दिल पर यह असर खामखाह पड़े कि किसानों की अपेक्षा उनकी कदर वह ज्यादा
करते हैं। असल में हम हजार उपदेश दें और नारे लगाएँ लेकिन हमारे पुराने संस्कार
इतने में आ जाते हैं तो उनके लिए अच्छे आसन और कुर्सी आदि का प्रबंध खामखाह करते
ही हैं। मगर जब किसान या किसान सेवक आते हैं तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं समझते। यह
बात बराबर होती है। कट्टर से कट्टर नेता यह करते जाते हैं। हो सकता है, उसके दिल में कोई दूसरा भाव न हो। मगर उसका
परिणाम तो बुरा होता ही है और इसे देखकर बाहरी दुनिया पर, खासकर किसानों पर ही बहुत बुरा असर होता ही है।
सीधी और साफ बात है कि हमारे सब किये-दिये को
यह धो देता है। हम जान के न करें इससे क्या? साबुन अनाज में भी लगाइये तो धोएगा ही। हमारे पुराने
संस्कार हमें ऐसा करने को मजबूर करते हैं और उसका नतीजा खतरनाक होता है। इसीलिए
हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्रति बेमुरव्वत हो के यह व्यवहार बदलें। जब हम सचमुच
किसान को अन्नदाता और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो उसके साथ खुद वैसा ही बर्ताव क्यों
न करें? जब हमीं न करेंगे तो और
लोग कैसे करेंगे? क्यों करेंगे?
आखिर कहने से तो कुछ होता नहीं, करने से ही होता है, इसीलए जैसा मानते हैं, वैसा करें, क्यों नहीं?
यदि अमीर लोग आते हैं तो आएँ, मगर समझ-बूझ के आएँ। वह अपमानित और निरादृत तो
कभी होंगे नहीं, होने पाएँगे
नहीं। मगर जिस सम्मान और प्रतिष्ठा की आदत उन्हें है, वह हमारे यहाँ कभी मिलने वाली नहीं, यह जान के आएँ। उनके लिए खास आसन और कुर्सी क्यों? यह तो यदि हो भी तो किसान के ही लिए चाहिए।
नहीं तो कम से कम इतने से भी शुरू हो कि किसी के लिए भी न रहे। इससे भी काम चल
जाएगा और धीरे-धीरे हम असली जगह पहुँच ही जाएँगे। यह बात निहायत जरूरी है। हरेक
किसान का फर्ज है कि इस बात पर खास नजर रखे। जब कभी नेताओं के पास रहे तो देखे कि
उनका बर्ताव जमींदारों तथा अमीरों की कुछ भी खास ढंग की कदर हो रही है तो बेखटके
टोक-टाक करे और पूछ बैठे कि यह क्यों हो रहा है? यह गड़बड़ी क्यों?
अगर किसान अपना दब्बूपन छोड़ के सख्ती के साथ
यह पूछ-ताछ, या निगरानी,
या परख, या देख-भाल और परीक्षा शुरू कर दे, तो सिर्फ यही नहीं कि नेताओं की कमजोरियाँ और त्रुटियाँ
खत्म हो जाएँ और वह पक्के बन जाएँ बल्कि उनका कच्चा चिट्ठा भी खुल जाए औऱ यदि वह
नकली हो तो सभी को मालूम हो जाय। फिर तो दुम दबा के भागे बिना उनकी गुजर ही नहीं
होगी। सौदा खरीद करना है तो किसान को, फिर उसकी परख और उसकी जाँच दूसरा कौन करेगा? दूसरे को गरज ही क्या पड़ी है? ऐसी आशा भी वह क्यों करता है कि दूसरे देख-भाल कर देंगे?
उनकी मुरव्वत और दब्बूपन ने ही तो उसे रसातल
भेजा है। फिर भी उसे वह खुद यदि तिलांजलि नहीं देता तो उसके उद्धार की आशा नहीं।
नेता लोग जमींदार या साहूकार भी तो नहीं कि जमीन ही छीन लेंगे, या कर्ज ही न देंगे। फिर रुपये की तरह
बराबर-बराबर ठनका के ही उन्हें क्यों नहीं स्वीकार करेंगे?
इस नेतृत्व के बारे में एक और भी अत्यन्त
महत्वपूर्ण तथा किसान जैसे दलों के लिए सबसे जरूरी एवं बुनियादी प्रश्न रह जाता
है। बातें तो पहले बहुत ही कुछ कहीं गईं हैं जिनसे सच्चा नेतृत्व किसानों को मिल
सकेगा। इसमें भी शक नहीं कि यदि उन बातों पर अमल हो और किसान एवं उनके हितैषी उनके
अनुसार काम करने लग जाएँ तो नेताओं की गड़बड़ी एवं धोखाधड़ी का झमेला ही खत्म हो
जाय। मगर सवाल तो यह है कि क्या यह बात संभव और व्यावहारिक है? क्या उन सभी कसौटियों, परिस्थितियों एवं लक्षणों के अनुसार देख-रेख एवं नाप-तौल
मुमकिन है? क्या व्यावहारिक दृष्टि
से किसान जैसी सबसे पिछड़ी श्रेणी और जमात के लिए यह अधिकांश में आदर्श मात्र नहीं
है? किसे इतनी फुरसत है कि
नेताओं का जन्म-कर्म, पूर्व इतिहास और
जीवन भर की दिनचर्या का पता लगाए और बारीकी से उसकी खोद-विनोद करे? और किसान ऐसा कर सकता है? और अगर किसान ऐसा करने ही लग जाए तब किसान-सभा
और उनके नेताओं की जरूरत ही क्या रह जाएगी? क्या तब वे खुद सब
कुछ न कर लेंगे? यदि नेताओं के
सामने बुद्धूपन और दब्बूपन दिखाना ही छूट जाए तो फिर छप्पन लाख मुफ्तखोर साधु-फकीर
उन्हें क्योंकर ठगें? और भाग्य तथा
भगवान के नाम पर अमीरों के बैल उन्हें क्यों बनाते रहें? क्या यह बात तब तक सोलह आना संभव है जब तक खुद उनमें ही खुद
क्रांति न हो जाए? हम मानते हैं कि
वे लोग धीरे-धीरे इस काम में अग्रसर हो सकते हैं, धीरे-धीरे ही सफाई कर सकते हैं, मगर यह धीरे-धीरे भी किस प्रकार माना जाए? उसकी पहचान भी क्या? और इस चींटी की चाल से चलने पर कब तक वे पूर्णरूपेण तैयार
होंगे? हम यदि मान भी लें कि
सामूहिक रूप से इन बातों का प्रचार किसानों में कर देने पर वे स्वयं इस ओर ज्यादा
ध्यान क्रमशः देंगे और आगे बढ़ेंगे, मगर आखिर जनसमूह की मनोवृत्ति भी तो एक चीज है। महज प्रचार कर देने से अब तक
कितनी बातें सफल हो सकी हैं? और प्रचार करने
वालों की एक लंबी सेना भी तो आखिर चाहिए और कोष भी। वह पहले ही कैसे होगा? यदि वही हो जाए तब तक तो मान ही लेना होगा कि
सच्चे नेता और कार्यकर्ता काफी तादाद में पहले से ही तैयार हैं और पर्याप्त कोष भी
हैं। मगर बात तो ऐसी नहीं है। नहीं तो इन शिक्षाओं की जरूरत ही क्यों होती?
सौ बात की एक बात है कि कोई ऐसा सीधा उपाय होना
चाहिए जो उसकी समझ में आए, जिसे सभी किसान
दिल से पसंद करे, जिसे जरूरी समझें,
जिसके खिलाफ जाने या बोलने की हिम्मत
किसान-हितैषी नामधारी किसी को भी न हो सके, और जो अंततोगत्वा नकली नेताओं की कलई खोल दे। फलतः या तो वे
लोग पहले ही भागें या बीच में ही खुद खिसक जाएँ। यदि और कुछ भी न हो तो भी कम से
कम किसानों का ध्यान तो उनकी ओर स्वयं आकृष्ट हो जिससे उनके आगा-पाछी को पहचान के
उन पर कड़ी नजर रख सके। यदि ऐसी कोई चीज उनकी और हमारी इस समूची हलचल का एक आवश्यक
अंग हो तभी काम चल सकता है। बात तो सही है। इसीलिए तो नेताओं के पहचान के सिलसिले
में किसान के छोटे-मोटे हकों, उन पर होने वाले
आए दिन के अत्याचारों और उनकी रोज-रोज की माँगों के संबंध में लड़ाई और संघर्ष को
बराबर जारी रखना निहायत जरूरी है। इसी से सब मुराद पूरी होगी। इसी से सबका रहस्य
खुलेगा। इतना ही नहीं, किसान के खाँटी
और असली नेता इन्हीं संघर्षों और मुठभेड़ों से निकलेंगे। असल में जब तक दलितों के
भीतर से ही उनके नेता नहीं निकलते, तब तक उनका दुःख
दूर हो नहीं सकता। इसीलिए किसानों के नेता उन्हीं के भीतर से और मजदूर में से ही
जब निकलेंगे और उनकी लड़ाइयाँ जब वे खुद चलाएँगे, तभी किसान और मजदूरों की विपत्तियों की काली रात खत्म हो के
सुख-सम्पत्ति के सूर्य का उदय होगा। यह चीज पहले हो नहीं सकती। यह तो उन्हीं
रोजाना ही छोटी-मोटी लड़ाइयों से ही होगी।
स्थानान्तर में जिस छँटैया की बात कर चुके हैं
और बता चुके हैं कि बिना छः बार की छँटैया के असली नेता मिल ही नहीं सकते, वह भी दूसरे ढंग से ठीक हो ही नहीं सकती। किसान
के प्रतिदिन के कष्टों और प्रश्नों को लेकर जो छोटी-मोटी लड़ाइयाँ लड़ीं जाया
करेंगी और उनका सिलसिला जो बराबर जारी रहेगा, उन्हीं के द्वारा वह छँटैया (Purging) होगी। उनमें किसानों को लड़ने की तालीम तौर से
मिलेगी। उन्हें सीधी चोट और आमने-सामने की लड़ाई का प्रत्यक्ष अनुभव भी उनसे खूब
ही होगा कि वह कैसे चलाई जा सकती है और उसमें कौन-कौन-सी दिक्कतें आ सकती हैं।
सच्ची बात तो यह है कि जैसे बिल्ली को देखते ही
चूहे भाग जाते हैं और लाल कपड़े से साँड़ भड़कता है, ठीक वैसे ही ऐसी लड़ाइयों से नकली नेता और स्वार्थसाधक लोग
भागते हैं। वह जैसे-तैसे इन्हें टालना चाहते हैं, क्योंकि वहाँ तो दोतरफी चाल रह नहीं सकती। वहाँ तो खत्म ठोक
के किसानों की ओर से लड़ना और उन्हें लड़ाना है। और इसी प्रकार की और लड़ाइयों को
वह भले ही खूब न समझे और उनमें उनका दिल भी उतना न लगे, नागरिक स्वतंत्रता के नाम पर लड़ने का महत्व उनके दिमाग में
भले ही न घुसे, मगर जमीन मिलने,
लगान की कमी, उसकी छूट, सूद की कमी,
ऋण की छूट, जमींदारों के जुल्म आदि के विरुद्ध जो भी लड़ाई लड़ी जाय,
उसे तो खामखाह वह अपनी ही लड़ाई समझते ही हैं,
उसमें पूरा उत्साह दिखाते हैं और चाहते हैं कि
वह जारी हो, जारी रहे। केवल
इसीलिए कि वह तत्कालीन फायदा पहुँचाने तथा आराम देने के लिए होती है। जिससे पाँवों
के जूते की काँटी बार-बार चुभती है, वह जरूर ही उससे बचने का उपाय फौरन करता है, करना चाहता है। मगर मौत से बचने का उपाय कोई नहीं करता।
हालाँकि मौत की तकलीफ काँटा चुभने की तकलीफ से हजार गुनी ज्यादा मानी जाती है। यह
क्यों? इसीलिए न कि वो तकलीफ प्रत्यक्ष
नहीं, रोज की नहीं। मगर काँटा
की तकलीफ या सरदर्द प्रत्यक्ष है, निकट है।
अतः ज्यों ही वह लड़ाई छिड़ी कि कुछ लोग तो ‘देखि सरासन गवहिं पधारे’। चलो, अच्छा हुआ। मगर
जिसने हिम्मत की वह आगे बढ़े और भिड़े। नतीजा किसानों के लिए ठीक ही हुआ। पर उनके
लिए वह तो समझते थे कि उनकी लीडरी अब बरकरार रह जाएगी। इसमें पड़ने पर ही जीत जाने
के बाद उनकी ख्याति तथा पूजा भी खूब ही हुई। लेकिन यदि एक ही लड़ाई हो तब न?
यहाँ तो चला सिलसिला। फिर तो उनके लिए आफत हुई।
इधर किसान को चस्का लगा कि यही ठीक है। मगर उधर वे घबराने लगे। चुपके से सटक
सीताराम हुए। इस प्रकार पहली बार जो भी निकले, बल्कि हिम्मत करके आगे बढ़े, वे दूसरी बार छँट गए। मगर कुछ तो ऐसा भी निकल सकते हैं जो
फिर भी हिम्मत करें और दूसरी लड़ाई में भिड़ें, सफलता भी प्राप्त करें। लेकिन यहाँ तो एक के बाद दीगरे
लड़ाइयों की भरमार है। भरमार होनी ही चाहिए। यह काम जरूरी है। फलतः तीसरी, चौथी, पाँचवीं बार या कुछ ही बार और आगे जाने पर भी सभी कच्चे लोग छँट जाएँ तो विवश
होंगे। यह तो स्वाभाविक छँटैया है। इसे कोई रोक नहीं सकता। इसी के चलते चावल और
भूसी अलग-अलग खामखाह हो ही जाएँगे। बिना ऐसा हुए काम भी नहीं चल सकता। भात बन नहीं
सकता और वही हमारा लक्ष्य है।
कहते हैं कि एक मुसलमान बहुत ही भूखा था। उसे
खाना-पीना कहीं न मिला। एक दिन पता लगा कि कहीं ब्रह्मभोज है जिसमें हजारों
ब्राह्मणों के आमंत्रित किये जाने की बात है। किसी काइयाँ ने कहा कि तुम भी चले
जाओ और ब्राह्मण बन के कम से कम एक दिन तो माल चख आओ। वह चिंतित था कि यदि पकड़ा
गया तो? सलाहकार ने एक जनेऊ पहना
दिया और उसकी दाढ़ी मुँड़वा दिया। सिर पर गमछा रख के ढँक लेने को भी कहा ताकि शिखा
के न होने की शंका भी किसी को न होने पावे। कुछ और भी बातें जहाँ तक उसे सूझीं
उसने बता दी। फिर एक लोटा और गिलास दे के रवाना किया। वह पहुँच भी गया, और हजारों की भीड़ में हाथ-पाँव धो के भोजन की
पत्ती में जा बैठा। भोज्य पदार्थ परोसे गए और सभी के साथ उसने खाना भी शुरू किया।
मगर उसका खाने-पीने का तरीका निराला ही देख के दैवात् किसी को शक हो गया। बस चट
उसने उसका पता पूछा। उसने अपना गाँव वगैरह बता दिया। इस पर पास-पड़ोस वाले को शक
हुआ कि ये, वहाँ का यह कौन? तब प्रश्न हुआ कि तुम किस जाति के हो? क्योंकि उस गाँव में ब्राह्मण तो थे नहीं। उसने
कहना चाहा ‘ब्राह्मण’ मगर उच्चारण ठीक न हो सका। तब सवाल हुआ कि कौन?
ब्राह्मण भी बहुत रंग के होते हैं। फिर तो यह
भोज से निकाल ही दिया गया। कई जाँचों से उसे जैसे-तैसे पास होने पर भी आखिर पकड़ा
ही गया। ऐसी ही दशा इन रोजमर्रे की लड़ाइयों में निकली नेताओं की होती है औऱ अंत
में या तो वे खुद निकल जाते हैं, या निकाले जाते
हैं।
सीधी लड़ाई लड़ना तो किसी को लेक्चर देना या
बातें बनाना है। नहीं कि दुमानिया शब्द बोलेंगे और उससे समयानुसार सभी अर्थ लगा
लेंगे। यह तो काम है। यहाँ तो इधर आओ या उधर रहो, यह साफ मामला है। इसमें तो हो सकता है, नेताओं के निजी स्वार्थ का ही संघर्ष हो,
यदि वे खुद जमींदार, साहूकार या पूँजीपति हुआ या उसके संबंधी ही सही, फिर तो उसमें पड़ेंगे ही नहीं। यद्यपि अपने
स्वार्थ की गड़बड़ी न भी हुई तो शोषक दल के स्वार्थ को गड़बड़ी में भी पड़ेंगे ही।
फिर ये नेता उन्हें कैसे समझा सकेंगे कि किसानों के साथी न होने के असल में वे
उन्हीं के साथी तथा खैरखाह हैं? यह तो गैर-मुमकिन
हो जाएगा, सो भी लगातार लड़ी जाने
वाली लड़ाइयों के चलते। इसीलिए तो उन्हें बराबर जारी रखना होगा और इसीलिए तो
बनावटी नेता दुम दबा के अंततोगत्वा भागेंगे।
दूसरी ओर किसानों को यह लाभ होगा कि उन्हीं में
से नेता और अनुभवी नेता तैयार हो जाएँगे क्योंकि एक तो नकली और बाहरी नेताओं के
धीरे-धीरे खिसक जाने से किसानों पर ही लड़ाई चलाने की जवाबदेही आ पड़ेगी और वह
क्रमशः उसमें कुशल हो ही जाएँगे। आखिर वह तो भाग नहीं सकेंगे। उन्हें तो उसी में
मरना-जीना है। दूसरे, बार-बार लड़ते
रहने से उसमें तप-तपा के पक्के बन जाएँगे। एकाएक पक्का तो कोई भी नहीं बनता। कहते
हैं कि ‘लै लागत लागत लागे,
भय भागत भागत भागे’। बार-बार की आँच सैकड़ों बार खाने के बाद कच्चा लोहा खुद
इस्पात बन जाता है। यही हालत किसान के भीतर के जवानों और उत्साही लोगों की होगी।
लड़ाई या लड़ाई का व्यावहारिक अनुभव और उसे चलाने की कठिनाइयों का व्यावहारिक
ज्ञान उन्हें दूसरी तरह हो सकता भी नहीं। ये लड़ाइयाँ ही उनके लिए अखाड़े का काम
देगी।
किसानों को भी इस तरह सामूहिक लड़ाई लड़ने का
ज्ञान होगा। वे स्वावलम्बन का पाठ भी पढ़ेंगे। वे खुद अपने कष्टों को दूर कर सकते
हैं, न कि दूसरे के जरिये,
इसकी पूरी जानकारी और इसका यकीन भी उन्हें
इन्हीं लड़ाइयों से होगा। उनमें जीत होने से उन्हें आगे की सफलता का विश्वास भी
होगा। तत्कालीन भाग होने से हिम्मत भी बढ़ेगी और चस्का लगेगा। उनमें जो वर्ग-चेतना
और संघर्ष-शक्ति नहीं है, वह भी धीरे-धीरे
अपने आप न उनमें आएगी, किन्तु मजबूत भी
होती जाएगी। जरूरत होने से पहले तो उसकी तरफ मजबूरन बढ़ना ही होगा। आदमी कहाँ
पाएगा? धन कहाँ से लाएगा?
और पार कैसे पाएगा? इत्यादि जितने भी निराधार वहम और गलत ख्याल उन्हें आगे
बढ़ने से रोकते हैं, वे अपने आप भाग
जाएँगे। उनके लिए गुंजाइश रह ही न जाएगी। दुश्मन की भी हिम्मत हारेगी। इसमें पस्ती
आएगी। इसीलिए ये दैनिक लड़ाइयाँ हर तरह से वांछनीय हैं।
(सहजानन्द सरस्वती
रचनावली से साभार)
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