त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
‘फांस’ से उठता सवाल : खेती से किसान मन क्यों लगाए?/डॉ.विजय शिंदे
1.
जिस
मिट्टी में हम लोग पले-बढ़े उससे गद्दारी कर अपने ही भोगों में लिप्त नवीन भारत के
हम जैसे नागरिक उस मिट्टी के ऋण को भूल चुके हैं। ‘फांस’ को पढ़ते हुए हर जगह पर, हर समय लगता है कि हम अपराधी है। कानों
में कर्कश आवाजें परदों को चिरती हुई कलेजे तक दर्दों को निर्माण करती है कि भाई
तुम भी इस व्यवस्था के टूकड़ों पर पलनेवाला एक परजीवि जीव हो जो किसान का खून चुसने
का भागीदार है। कुछ सालों पहले कहां जाता था कि भारत में अस्सी फिसदी किसान है और
खेती पर निर्भरता है। परंतु वर्तमान में कहां जा रहा है कि भारत में साठ फिसदी
किसान है और खेती पर निर्भरता है। सवाल यह उठता है कि अस्सी से साठ तक पहुंचना
प्रगति की निशानी है या किसानी से हारकर किसानों ने खेती करना छोड़कर अपनी निर्भरता
के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लिया है। चितंक, ए.सी.
में बैठे पॉलिसी मेकर और किसानों को अन्नदाता कहकर उसके दुःखों पर मरहमपट्टी कर
मरने के लिए पृष्ठभूमि तैयार करनेवाला हर शख्स कुछ भी कहे या स्पष्टीकरण दें कुछ
फर्क नहीं पड़ता; वास्तव यहीं है और एक वाक्य में ही
बताया जा सकता है, अब किसानों का खेती से जी भर चुका है, पेट भरने के लिए दूसरा मार्ग नहीं, अतः वे मजबूरन खेती कर रहे हैं। जिस
दिन उनके लिए जीने का दूसरा रास्ता मिलेगा, आर्थिक
निर्भरता का दूसरा स्रोत निर्माण होगा और पेट भरने का खेती के अलावा दूसरा विकल्प
खुलेगा, उस दिन किसान खेती छोड़ देगा। अस्सी से
साठ फिसदी तक आना मतलब बीस फिसदी की कटौती यही बयां करती है कि इन बीस फिसदी लोगों
के लिए जिंदगी जीने के दूसरे मार्ग मिल गए हैं, खेती
को छोड़ दिया, बेच दिया। किसानों के लिए खेती केवल
जिंदगी जीने का मार्ग नहीं है यह उसकी आदत है और यह आदत अचानक छूट जाए तो पीड़ा
होती है, तकलीफ देती है। इन बीस फिसदी किसानों
ने उसे सहा है और पचाया भी है। उन्हें मलाल भी है, पर दूसरी तरफ वे सुख और शांति से यह भी कहते हैं कि भाई मैंने और
मेरे पुरखों ने हजारों बरसों से गुलामी सही, अब
कम-से-कम हमारी अगली पीढ़ी इस गुलामी से मुक्त हो गई।
खेती
से गुलामी है, जिंदगी का मिट्टी बनना है, कर्जे में मौत मिलनी है, साहूकारों के पास जमीनों के साथ अपनी
आत्मा गिरवी रखनी है, आत्मा के पानी से सींचे हरे-भरे पौधे
अकाल के कारण खेती में सूख जाने हैं, बेमौसमी
बारिश और तूफान से खेती के भीतर फूली-फली फसल बह जानी है, तबाह होनी है, हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद भी दो वक्त की
रोटी के लिए तरसना है, दो-दो, चार-चार किलोमिटर पानी के एक घड़े के लिए भटकना है, अपने घर में गाय-भैस-बकरी होकर भी दूध
के लिए तरसना है.... तो हमेशा के लिए सवाल यह उठता है कि भाई खेती में किसान मन
क्यों लगाए? संजीव के ‘फांस’ को समझने के लिए किसान होना जरूरी है या किसानी से वास्ता पड़ना भी
जरूरी है। हालांकि संजीव के उपन्यास का केंद्र महाराष्ट्र है; विशेषकर विदर्भ, मराठवाड़ा और खांदेश का वह हिस्सा है, जहां पर सिंचाई कम है और किसानों की
आत्महत्याएं ज्यादा हो चुकी है। लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहा है और महाराष्ट्र
तथा देश के तमाम चितंक यह तय करने में लगे हैं कि हमारे प्रदेश की अपेक्षा दूसरे
प्रदेशों में और राज्यों में आबादी और प्रदेश विस्तार में आंका जाए तो आत्महत्याएं
ज्यादा हो रही है। मतलब नंबर एक पर कोई और है, हमारा
नंबर उसके बाद का है। महाराष्ट्र में भी नरेंद्र जाधव की रिपोर्ट यहीं बताती है।
आत्महत्या के कारणों में यह भी बताया गया कि खेती के लिए उठाए गए कर्जे की अपेक्षा
कई अन्य कारणों से किसान अधिक आत्महत्या करता है, जैसे बेटी-बेटे की शादी का खर्चा, शराबी
होना, मौज-मस्ती, बीमारी... आदि कारणों का लंबा लेखाजोखा
इन विद्वानों (?) की रिपोर्टों में हैं। जैसे कोई
पोस्टमार्टम करनेवाला डॉक्टर घूस लेकर रिपोर्ट बदल देता है वैसी यह रिपोर्टे। कोई
विश्वसनीयता नहीं और कोई मानवीयता नहीं। इन रिपोर्ट लेखकों को पूछना चाहिए कि भाई
आपने कभी शराब पी नहीं, कोई नौकरी पेशा व्यक्ति को शराब की आदत
नहीं, आपने धूमधाम से अपने बच्चों की शादी
नहीं की, कर्जा लेकर घर-गाड़ी नहीं खरीदी, छोटीसी बीमारी के बदले सरकारी ऑफिस से
खर्चा वसूल नहीं किया, टी.ए., डी.ए. के झूठे बिल बनाकर कई बार सरकारी खजाने को लूटकर डाका नहीं
डाला। सौ बहाने और सौ झूठ के बाद अपने सुखों को तलाशता नौकरशाह व्यक्ति और सौ
फिसदी ईमानदारी से सेल्फ फायनांस करता भारतीय किसान स्पर्धा में कैसे टीक पाएगा? ऊपर से नौकरशाहों-पूजीपतियों को लूटने
के लिए कोई है नहीं, अगर कभी लूटा भी जाए तो ऐसी कुर्सी पर
बैठे हैं कि जितनी लूट हो चुकी है उससे दस गुना बहुत जल्दी वसूल कर लेते हैं। और
सौ चूहें खाकर बिल्ली चली हजवाली इनकी सूरतें किसानों की आत्महत्याओं पर रिपोर्टों
को लिख रही है। अगर इन कुर्सिवालों, अफसरों, नौकरशाहों, रिपोर्ट लेखकों का बस चले तो मरे हुए
किसानों के शवों को आत्महत्या के अपराध मै दूबारा सजाए-मौत दे सकते हैं! आखिरकार
भारत का किसान कितने सालों से कितनी बार मरता रहेगा और आगे कितनी बार मरना है?
‘भारत कृषि प्रधान देश है’ यह वाक्य बचपन से कितनी बार पढ़ा और
कितनी बार सुना। यह कोई गर्व की बात नहीं है, बचपन
में इसे सुनना अच्छा लगता था परंतु अब ऐसे लगता है मानो कोई इस वाक्य के साथ
भद्दी-गंदी गाली दे रहा है। किसानों के लिए शोषण, लूट ही तो है। इनकी आत्महत्याओं को झूठा मानकर और सच्चाई को
छिपानेवाली रिपोर्टे आएगी और छापी जाएगी। आत्महत्या इनकी कलमों से वैध्य और अवैध्य
ठहराई जाएगी। पात्र और अपात्र के बीच फंसा किसान यह जान चुका है कि अपने गले में
पड़े फांसी के फंदे की चिंता को छोड़कर अगली पीढ़ी को सुरक्षित करना है; अतः जैसे भी हो हमारे बच्चे किसानी
नहीं करेंगे इस निष्कर्ष तक वह आ चुका है। नतीजन अस्सी से साठ फिसदी तक आना हुआ
है। अर्थात् भारत के बीस फिसदी किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है और बचे हुए
बार-बार यह सवाल कर है कि आखिरकार खेती से किसान मन क्यों लगाए?
संजीव
के ‘फांस’ उपन्यास को पढ़ते हुए यह सवाल से मेरे मन और अंतरआत्मा में बैठा किसान
जिसे मैंने सालों पहले मार दिया है, वह
बार-बार पूछ रहा है। मुझे पता नहीं कि मेरे पुरखों ने कितने सालों तक इस प्रकार की
गुलामी को ढोया है। हमें मौका मिला और किसानी छोड़ दी। मेरे पिता तक यह एक लंबा दौर
रहा, अब खेती है परंतु परिवार को चलाने का
मुख्य आर्थिक स्रोत वह नहीं है, या
युं कहे कि खेती मनोरंजन का साधन है, मिट्टी
से जुड़े रहने का बहाना है। उससे होनेवाला नुकसान, हां नुकसान क्योंकि किसानों के लिए खेती कभी मुनाफे की हुई ही नहीं; मेरी आर्थिक तबाही करती नहीं है। खेती
से होनेवाला डॅमेज सहन करने की क्षमता मुझे मेरी नौकरी बहाल करती है। बीस फिसदी जो
खेती से पलायन कर चुके या छोड़ चुके लोगों की यहीं प्रतिक्रियाएं हैं। गांव सूख रहे
हैं प्राकृतिक आपदाओं से,
सरकारी नीतियों से, कर्जतले दब कर। चारों तरफ एक बंजरता
फैलती जा रही है। पूंजीपति,
संपन्न परिवार, उद्योगपति, राजनेता, सरकारी अफसर अब गांवों में कई एकड़ जमीनें धड़ाधड़ खरीदते जा रहा है।
कुर्सियों पर बैठकर अपने अनुकूल सरकारी नीतियों को बना रहे हैं और सरकारी खजाने को
लूटकर सिंचाई योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। विभिन्न स्किमों के तहत अनुदान राशि की
लूट की जा रही है और सालों से गुलामी कर चुके, शोषित
किसानों को त्यौरियां चढ़ाकर कह रहे हैं कि खेती ऐसी की जाती है; आपको रोने की आदत लगी है, खेती नुकसान का नहीं फायदे का सौदा है।
बिल्कुल खेती फायदे का सौदा है! कब? तब, जब उसके पीछे निश्चित आर्थिक ताकत हो।
आप अपनी नौकरी को छोड़ किसानी करे तो पता चलेगा नफा और नुकसान क्या होता है। अब
बड़े-बड़े कार्पोरेटर, बिझनेसमॅन, बैंकर, राजनेता... खेती पर उतर आ चुके हैं। उनके लिए खेती किसानी नहीं एक
बिझनेस बन चुकी है। ऐशोआराम और मौजमस्ती का साधन बन चुकी है। बिझनेस और राजनीति से
फुरसत निकालकर फार्महाऊस पर पार्टी और ऐयाशी करने की जगह है। अर्थात चितंकों की
भाषा में नवनिर्मित, आधुनिक, उत्तरआधुनिक,
ग्लोबलाईजड़... किसानों के लिए खेती
ऐयाशी का साधन है। नफा हुआ तो ठीक नहीं तो साल में दो-चार बार वहां जाकर घूम-फिरकर
आए तो खुशियां, प्राकृतिक हवा और सौंदर्य पाने के लिए
किया गया मात्र खर्चा है। प्रत्येक आर्थिक वर्ष के अंत में यह खर्चा बिझनेस अकाऊंट
या सरकारी टी.ए., डी.ए. में भी जोड़ा जा सकता है। या दो
नंबरवाला कालाधन कमाने का मौका है तो वहां भी इसकी सेटलमेंट हो सकती है। इस
सेटलमेंट के तहत इनका मन लग सकता है। परंतु हमारे परंपरागत किसान के पास ऐसी सेटलमेंट
का कोई मौका नहीं, अतः सवाल यह उठता है कि खेती से किसान
क्यों मन लगाए?
2.
भारतीय
किसानों के पास अपनी जमीन से उपज निकालने के लिए दिमाग है, उनकी हाड़तोड़ मेहनत करने की तैयारी है। आज जितने भी किसान
मेहनत कर रहे हैं या परिस्थितियों से लड़ रहे हैं, उनकी तारिफ करनी पड़ेगी, उसका
कारण यह है कि उनकी यह लड़ाई संपूर्णता विपरित परिस्थितियों के साथ है। खेती करने
लायक न प्राकृतिक माहौल है,
न सरकारी नीतियां है और न ही मुश्किल
तथा जरूरी क्षणों में पैसों का आधार है। हर समय किसानों को खेती करने के लिए
आवश्यक पैसों हेतु दूसरों के सामने हाथ फैलाने पड़ता है। आप कहेंगे कि भाई इतने
सालों में किसान खेती के लिए आवश्यक पैसा क्यों इकठ्ठा कर नहीं पाया है। उसका कारण
यह है कि जिस परंपरागत ढर्रे पर खेती की जा रही है, वहां बहुत अधिक लाभ कमाने के मौके नहीं है। आपको उदाहरण के तौर बता
दें तो कई उदाहरण सामने आ जाते हैं। वैसे किसान अगर लागत और नफे का तालमेल बिठा
दें तो कब का खेती छोड़ चुका होता। खेती हमेशा घाटे का सौदा है। जवार, गेहूं, अरहर, सोयाबिन, कपास, चना, टमाटर, प्याज, विविध सब्जियां... आदि उत्पादों का विचार करें तो इस प्रकार की खेती
में किसानों का सालों से नुकसान हो रहा है अगर लाभ मिला तो केवल घर खर्चा चलाने
लायक। अतः अगले साल की खेती के लिए पैसे इक्ठ्ठा करना कभी बनता नहीं है। खेती से
उपज और उत्पादन करना किसान के हाथ में है, उसका
बाजार मूल्य दुनिया तय करती है। चारों तरफ किसानों के माल की लूट शुरू है, इससे किसान के पास कुछ बचता नहीं। अगले
साल के आवश्यक पैसों का इंतजाम वह कैसे करेगा? मिल
रहे नाममात्र मुनाफे में किसान अपना और अपने पारिवारिक सदस्यों का चौबीस घंटों का
पारिश्रमिक जोड़ने लगा तो यह खेती किसी भी हालत में लाभकारी नहीं है।
कंपनी
और बिझनेस में यह मौका है,
अपने ही उद्योग और अपने ही बिझनेस में
कॅशबुकों, पेमेंट सिटों और बॅलंस सिटों में अपना
मानधन-वेतन जोड़ा जाता है,
टॅक्स से बचने के लिए। वैसे किसान करने
लगा तो उसके हाथों में केवल शून्य बचता है। मोटे तौर पर संक्षेप में यहां उल्लेख
करें तो खेती से किसानों के लाभ की रकम वहीं है जो अपना पारिश्रमिक छोड़ा जा चुका
है। जवार वर्गीय खेती से लाभ केवल चारे का मूल्य है। मवेशियों (गाय, भैस) को पालकर दूध बेचे तो लाभ केवल
उनके गोबर का है। मुर्गियां पाले तो लाभ कभी मेहमान आए तो चिकन खाने का है। बकरी
पाले तो लाभ उनके बछड़ों के साथ खेलने का है... कुलमिलाकर किसानों के लिए हमेशा
हानि और नुकसान ही है। अगर लाभ किसी का हो रहा है तो वह दलाल, दुकानदार, व्यापारी, ट्रांसपोर्ट कंपनियों का और साथ ही
ग्राहकों का भी। केवल नुकसान किसानों का। ऐसे में वह अगले साल की खेती के लिए दूसरों
के सामने हाथ फैलाए नहीं तो करें क्या? "इस देश का किसान कर्ज में ही जन्म लेता है, कर्ज में ही जीता है, कर्ज में ही मर जाता है।" (फांस, पृ. 15) अपने बाप का कर्जा उतारते-उतारते किसानों की जिंदगियां खत्म हो चुकी
है। एक किसान बाप का कर्जा भर रहा है, उसकी
मौत हो गई कि यह उधारी का खाता बेटे के नाम चढ़ जाता है। बेटा अपने बाप के कर्ज
खाते को आगे बढ़ाता है और यहीं खाता फिर उसके बेटे के नाम से चलता है। मतलब
बेटा-बाप-दादा-परदादा... यह बहुत दिनों से, पुरखों
से चले आ रहा है। चिंतक, अर्थशास्त्री, राजनेता... हमेशा कहते हैं कि किसान
बैंकों से कर्जा उठाए, कम व्याज के साथ मिल जाएगा। परंतु
हमारे देश का अनाड़ी, अशिक्षित, अनपढ़ किसान बैंकों की भाषा और फॉर्मों
से अनभिज्ञ है। उसके फांस उससे खुलते नहीं और नियमों के तहत जो रकम मिलती है उससे
उसकी जरूरतें पूरी नहीं होती है। मजबूरन साहूकारों के पास जाना पड़ता है।
साहूकार
जमीन और जिंदगियां गिरवी रखकर जितनी मांग है उतना कर्जा देता है। ऐसी स्थिति में
किसान ब्याज का सोचता नहीं,
बस आज का दिन दिखता है। उस आज को जीना
है इसीलिए कल और अगली पीढ़ी को साहूकारों के दरवाजे में, खतियानों में गिरवी रख देता है।
साहूकारी ब्याज मिठे बोलों और बड़ी आत्मीयता के साथ 10 फिसदी होता है, परंतु
हमारे देश के अर्थशास्त्री इससे कभी अचंभित नहीं होते...! यह दस फिसदी महिने का
होता है। अर्थात् अर्थशास्त्रीय भाषा में इसका आकलन करे तो साल भर के लिए इसका
हिसाब 120 फिसदी होता है। साहूकारों के लिए
दुनिया की ऐसी कोई बैंक नहीं कि जो एक साल में अपनी रकम को दुगुना से भी ज्यादा
करें। अर्थात कोई साहूकार किसी किसान को एक लाख देता है तो वह केवल ब्याज स्वरूप
में एक लाख बीस हजार वसूल कर लेता है। मुद्दल जैसे के वैसे बकाया रहती है। यहीं बात
अगर बैकों की करें तो 12 फिसदी पर्सनल लोन के लिए व्याज लिया
जाता है। यह 12 फिसदी सालभर के लिए होता है। एक लाख
लोन का साल भर का व्याज चौदह हजार चार सौ। मेरे देश के तमाम चिंतकों, अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं, पॉलिसी मेकरों, तत्त्वज्ञानियों... चौदह हजार चार सौ कहां
और एक लाख बीस हजार कहां?
इन आंकड़ों को देखे तो सबको आश्चर्य
होगा कि ऐसी स्थिति में, इतनी लूट में किसान जिंदा है तो कैसे? किसान आत्महत्याओं पर रिपोर्ट
बनानेवाले महान मसिहाओं को यह वास्तव पता है। इसे इन्होंने जानबूझकर नजरंदाज किया
है। इन बातों को रिपोर्टो में जोड़ना जरूरी था ताकि इधर-उधर बगले झांकने का उनको
कोई कारण नहीं पड़ता था...! कारण व्याज स्वरूपों में वसूल किए जानेवाले इन आंकड़ों
से यही पता चलता है हमारे देश के सारे किसानों ने आत्महत्याएं करनी चाहिए थी, वैसे हुआ नहीं मतलब रिपोर्ट लेखकों के
कॅल्क्यूलेशन से हालात तो बहुत अच्छे है...! नंबरों का गेम करने की भी जरूरत नहीं
पड़ती। किसान जिंदा है मतलब बाजार अच्छा है...! सरकार अच्छा काम कर रही है...! और
रिपोर्ट लेखकों का रिपोर्ट कार्ड भी अच्छा है...! सभी अपनी-अपनी पीठ ठोके और
एक-दूसरे की भी ठोके...! और इन सारी स्थितियों के बावजूद भी किसान जिंदा है तो
दूबारा लूट करने के लिए तैयार हो जाए...!
उपर्युक्त
स्थितियों को संजीव ने ‘फांस’ के भीतर विस्तार से लिखा है। "महंगे बीजों, खादों और कीटकनाशकों की वजह से
ज्यादातर किसानों को कर्ज लेना पड़ता है। सरकारी बैंकों में खसरा-खतौनी, नकल दुरुस्ति समेत कई लफड़े, कर्ज की राशि भी कम। फलतः ज्यादातर
किसान वहां जाने से ही घबराते हैं और उन्हें ऋण एजंसियों और गांव के साहूकारों से
कर्ज लेना ही आसान लगता है। जो होता तो 10
प्रतिशत प्रतिमाह या उससे भी ज्यादा, पर
वे यह नहीं पूछते थे कि किसलिए ले रहे हो, उनसे
रिश्ता अंत तक आत्मीय बना रहता है। एक किसान को सिर्फ खेती, बीज, खाद, कीटकनाशक, सिंचाई नहीं, जीवन और परिवार की अन्य जरूरतें भी
होती हैं, जैसे बच्चे की शिक्षा, स्वास्थ्य, बेटी की शादी, खुशी, गमी जैसे चीजों के कर्ज सरकार से नहीं मिलते। ऐसे हालात तक ले ही आए
हैं क्यों हमारे हुक्मरान हमें यहां? सारे
राजनेता, सारे पार्टियों के राजनेता लगता है, दलाल है उन्हीं के।" (फांस, पृ. 110-111) लेखक द्वारा प्रस्तुत वास्तव कितना भयानक है। ऐसा नहीं कि राजनेता और
कृषि अर्थशास्त्री इन वास्तवों से परिचीत नहीं है, वे इन स्थितियों को भलीभांति जानते हैं पर उन्हें कभी लगता नहीं कि
किसान हमारे देश का और घर का हिस्सा है। किसान किसी दूसरे देश और दूसरे घर का
प्राणी लगते हैं। मर रहे हैं मरने दो...! की मानसिकता से सारे देश के परजीवि जी
रहे हैं। इसीके चलते सूखे से खाली पड़ चुके डैमों में अजीत पवार जैसे जिम्मेदार
राजनेता ‘मुतने’ की बात करते हैं या रावसाहेब दानवे जैसा राजनेता किसानों के लिए ‘रोते हैं साले’ जैसी गाली आसानी से देते हैं। स्लिप ऑफ
टंग हो या जो भी हो इस प्रकार के वाक्य किसानों के प्रति राजनेता, नौकरशाह, अफसर, अधिकारी, बिझनेसमन... के नजरिए को बयां करते हैं। मीड़िया जिंदा है इसलिए यह
बातें पता चल रही है। मीड़िया के अनुपस्थिति में अकेले, रात की पार्टियों में, गोपनीय चर्चाओं में, आपसी चर्चाओं में, अंदरूनी बैठकों में किसानों के प्रति
इनके मन में कोई सम्मान नहीं है। स्लिप ऑफ टंग भी उसी को बयां करती है। पार्टियों
का खुमार सभाओं में अपने-आप आ जाता है। दिल की बात जाने-अनजाने जुबां पर आ जाती
है। इन लोगों को दिल की भड़ास निकालने का मौका दिया जाए या इनको बेहोश कर
पॉलिग्राफिक टेस्ट की जाए तो सबसे ज्यादा गालियां, किसान, गरीब, मतदाताओं, लाचारों के लिए निकलेगी। इनमें देश से
भाग चुके या भगाए गए विजय मल्या जैसे चोरों से पैसे वसूलने की हिम्मत नहीं है और न
ही पकड़ने की ताकत है। क्योंकि इसके पहले चुनाओं के दौरान ऐसे लोगों से पहले ही
चुमाचाटी कर चुके होते हैं। इनके सामने यह पहले से नंगे होते हैं, भीकारी होते हैं। इन पर ऍक्शन के दौरान
हाथ थरथारने लगते हैं, कारण कहीं यह अपनी पोल खोल ना दें।
बेचारा किसान ही है जो किसी की पोल खोल नहीं सकता; अतः गाली देने, अपमानित
करने और अपना फर्स्टेशन निकालने की आसान जगह तो वहीं है।
महाराष्ट्र
के पांच प्राकृतिक हिस्से हैं। कोंकण, पश्चिम
महाराष्ट्र, खांदेश, मराठवाड़ा और विदर्भ। कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र में आत्महत्याओं का
प्रमाण बहुत कम है या न के बराबर है, उसके
कई कारण है। किसानों के पास खेती कम है, अतः
जो भी है उसमें वह परंपरागत खेती के अपेक्षा फल, गन्ना जैसे उत्पादन लेते हैं, ताकि
लाभ हो। दूसरा पानी की उपलब्धता के कारण सिंचाई की जा चुकी है। तीसरा राजनेता, कुछ राजनेताओं की दूरदृष्टि इस प्रदेश
को विकसित कर चुकी है, जिसमें शाहू महाराज, यशवंतराव चव्हाण, वसंतदादा पाटिल, शरद पवार, आर. आर. पाटिल जैसे नेताओं का
नामोल्लेख किया जा सकता है। चौथा किसानों की मानसिकता, पढ़ाई, मेहनत, परवर्तनीय दृष्टिकोण, प्रगतिशीलता आ जाती है। परंपराओं को
छोड़कर रास्ते बदलने का निर्णय इन किसानों ने जल्दी लिया नतीजन लाभ में आ चुके।
अपनी चादर देखकर पैर फैलाना इन्होंने चाहा। अपनी ताकत से बाहर के निर्णय इन्होंने
लिए नहीं। अस्पताल किसी से छुट नहीं सकता परंतु शादी-ब्याह-त्यौहारों की अनावश्यक
प्रदर्शनीयता पर रोक लगाई। उन पैसों को खेती और बच्चों की पढ़ाई में लगाया। परिवार
के भीतर के किसी-न-किसी सदस्य की आर्थिक निर्भरता खेती से खत्म की और उसे नौकरी
करने के लिए पोषक माहौल बनाया। इन दो प्रदेशों में मुंबई और पूना जैसे दो शहर है, जहां पर इन गांवों के शिक्षित युवकों
के लिए नौकरी या धंधा करने के मौके आसानी से मिल जाते हैं। कोंकण और पश्चिम
महाराष्ट्र के गांवों का सर्वे किया जाए तो लगभग चालिस फिसदी लोग की आबादी नौकरी
और व्यवसायों में इन दो शहरों या अन्य शहरों में काम कर रही है यह पता चलेगा। मतलब
खेती से कभी नुकसान हो भी जाए या प्राकृतिक आपदा आ भी जाए तो इन परिवारों के लिए
एक दूसरा बॅकअप प्लैन मौजूद है। इन दो प्रदेशों में उर्वर जमीन की कमी है, और जो भी है उसमें उबड़खाबड़ता है, इसके बावजूद भी दूरदृष्टि और बॅकअप
प्लॅन के कारण आर्थिक संपन्नता आ चुकी है। इन किसानों में या यहां की जनता की यह
संपन्नता राजनेताओं को सवाल पूछने का साहस भी रखती है। नौकरशाहों और अफसरों को गलत
कामों से रोक भी सकती है। सरकारी योजनाओं का बिना घूस दिए लाभ भी पा सकती है।
कोंकण
और पश्चिम महाराष्ट्र की तुलना में खांदेश, मराठवाड़ा
और विदर्भ की जमीन उर्वर है, सपाट
है। इस भूमि से कपास बहुत अधिक निकलती है, अतः
इसे सफेद सोना उगानेवाली भूमि भी कहा जा सकता है। सपाट प्रदेश, काली मिट्टी, विस्तृत और लंबे फैले खेतों के बावजूद
भी केवल सिंचाई के अभाव में इन प्रदेशों की उर्वर भूमि आत्महत्याओं का कलंक माथे
पर ढोती जा रही है। नासिक,
औरंगाबाद और नागपुर जैसे बड़े शहर है, वह किसानों के लिए कोई मदतगार नहीं है।
इनमें औद्योगिक प्रगति के लिए नासिक और नागपुर आगे है। नासिक के लिए पूना और मुंबई
की नजदीकियां उभार रही है। भविष्य में यह अपने प्रदेश के लोगों और किसानों को ताकत
देने के लिए सक्षम है। परंतु नागपुर औद्योगिक प्रगति के बावजूद किसानों को अपने
भीतर समाने नहीं दे रहा है और औरंगाबाद के हालात तो अत्यंत भयावह है। औरंगाबाद, मध्य महाराष्ट्र का प्रमुख शहर, महाराष्ट्र की पर्यटन राजधानी फिर भी
राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में तथा आपसी रंजिशों के कारण प्रगति मानो रूक-सी गई
है। बताया जाता है कि एशिया खंड़ में सबसे अधिक बहुत जल्दी प्रगतिपथ पर अग्रसर कोई
शहर है, तो वह औरंगाबाद है। परंतु यह सरकार की
देन हो सकती है, चाहे वह राज्य सरकार की हो या केंद्र
सरकार की। लोकल राजनेताओं और स्थानीय लोगों का जिस प्रकार का सपोर्ट होना चाहिए वह
यहां पर नहीं है। धर्म और जातिगत राजनीति से यह शहर खोखला बनते जा रहा है।
दिल्ली-मुंबई कॅरिड़ोअर के भीतर आनेवाला यह शहर उद्योगपतियों के आकर्षण का केंद्र
है, परंतु राजनेता और राजनीतिक मंशाओं के
अभाव में यहां आने के लिए वे कतरा रहे हैं। केवल धर्म और जाति के आधार पर पिछले
चालिस सालों से एक ही पार्टी यहां पर कुर्सी पर बैठी है, अतः स्थानीय सपोर्ट के साथ भविष्यकालीन
विकास की सारी योजनाएं ठप्प है। जो भी हो रहा है वह अपने-आप हो रहा है, दुनिया और देश की गति के साथ। उसमें
यहां के नेताओं की दूरदर्शिता की कोई हिस्सेदारी नहीं है। शंकरराव चव्हाण, विलासराव देशमुख ने नांदेड़ और लातूर का
विकास किया। विलासराव जी के अकाल जाने से मराठवाड़े का बहुत बड़ा नुकसान हुआ और इनके
पश्चात् गोपिनाथराव मुंढ़े जी की दिल्ली में दुर्घटनावश मौत मराठवाड़े को अनाथ कर
चुकी है। विकास का विजन इस नेता के पास था। आप कहे कि दादा ने लगाए हुए आम को पोते
ने खाने का मौका था कि पोते की मौत हो गई। कहने का तात्पर्य है इन प्रदेशों में
विजनवाले नेताओं का अभाव है।
आज
शरद पवार से महाराष्ट्र को बहुत अधिक अपेक्षाएं हैं, जो किसानों के लिए कुछ ठोस निर्णय लेकर पूरे महाराष्ट्र में सिंचाई
के काम को अंजाम तक लेकर जाए। शरद पवार केवल महाराष्ट्र में ही नहीं भारत में एक
ऐसे नेता है, जो सत्ता में हो या न हो बहुत कुछ करने
की क्षमता रखते हैं। महाराष्ट्र और विदर्भ के प्रमुख नेता के नाते किसानों को
नितीन गड़करी जी से भी यह अपेक्षाएं हैं कि वे सिंचाई को अंजाम तक लेकर जाए।
किसानों को कर्जे से मुक्ति नहीं चाहिए, उन्हें
सिंचाई के ठोस उपाय चाहिए ताकि वे अपना कर्जा खुद उतार सके। खेती का विकास करना है
तो तीन चीजों की जरूरत है,
एक विजनवाले नेता, दूसरा सफल कारगर सिंचाई और तीसरा सारी
परंपराओं-रूढ़ियों-अंधविश्वासों को छोड़कर किसानों का आत्मनिर्भर होना। यहां केवल
पश्चिम महाराष्ट्र या कोंकण की बात नहीं है, यह
तीन बातें अगर हो जाए तो मराठवाड़ा और विदर्भ रिकार्डतोड़ फसल उगा सकता है। पंजाब की
हरितक्रांति का बखान जो किया जाता है उसको कई गुना पीछे छोड़ने की क्षमता इन दो
प्रदेशों की उर्वर भूमि में है। किसानों को कभी किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत
नहीं पड़ेगी। न बैंकों के सामने, न
साहूकारों के सामने और न ही सरकार के सामने। एक ही बार आर-पार विकास की लड़ाई हो
जाए तो यह किसान भी आंखें तरेर सकता है। फिलहाल तो कर्जतले दबकर फांसी के फंदे पर
लटक रहा है और जाने से पहले हमारे सामने जलता हुआ सवाल छोड़े जा रहा है कि किसान
खेती से मन क्यों लगाए?
3.
आज
अगर कोई भी अखबार उठाए तो प्रत्येक प्रदेश के स्थानीय वृत्तपत्रों में एकाध किसान
की आत्महत्या की खबर छपती है। 1985-1990 से
शुरू यह सिलसिला पिछले 25-30 सालों से लगातार शुरू है। शुरू-शुरू
में खबरों को पढ़कर बहुत दुःख और पीड़ा होती थी। आज हम इतने अमानवीय, असंवेदनशील हो चुके हैं कि यह खबरें
रोज पढ़ते हैं लेकिन किसी का मन आंदोलित नहीं हो रहा है; न सरकार का, न देशवासियों का, न हुक्मरानों का। यहां तक कि किसान भी
अपने जीवन की दयनीय खबरों से कोई पाठ पढ़ता नहीं है। ऐसे मर रहा है मानो किसी
बीमारी के तहत मुर्गियां मर रही हो। किसी जानवर से भी बदतर हालात किसान के है। वह
भी कहता है कि हमारी जिंदगी ऐसी है ‘रोज
मरे त्याला कोण रड़े’ (जिसकी मौत रोज हो रही है उसके लिए
रोज-रोज कौन आंखें बहाए)। ‘फांस‘ उपन्यास में किसानों की लाखों आत्महत्याओं का जिक्र है। उपन्यास के
भीतर के सुनील, विट्ठल, शिबू और आशा यह पात्र विभिन्न दबाओं के तहत आत्महत्या कर चुके हैं।
प्रेमचंद के ‘गोदान’ उपन्यास में होरी की असमय और अकाल मौत के कारण पूरे भारतभर का दिल
दहल उठा था और आज हम इतने अमानवीय हो चुके हैं कि केवल ‘फांस’ के किसान ही नहीं बल्कि मराठवाड़ा, विदर्भ
और खांदेश से किसान रोज मौत को गले लगा रहा है। देश के कोने-कोने में किसान रोज मर
रहा है। फांसी का ‘फांस’ मानो छूत की बीमारी हो गया है और देखा-देखी, सुनी-सुनाई खबरों की तहत एक से दूसरे
तक पहुंच रही है। क्या किसान की जिंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि उसे युं मरता हुआ
देखें?
किसानों
की उपेक्षा से वह दुःखी तो है ही, उसका
परिवार भी दुःखी है। गांव के गांव दुःखी है। अब उनका मन उचट चुका है खेती से, जमीनों से। उसका मन नहीं करता कि कंधे
पर हल उठाकर बैलों के साथ खेती में जाए। पहले कहां जाता था कि खेती कोई धंधा नहीं
जिंदगी जीने का तरीका है,
लाईफ स्टाईल है। जिसे किसान कितना भी
चाहे वह छोड़ नहीं सकता। किसानी, किसानों
के खून में बंसी है। परंतु अब यह कोरी आदर्शवादी बातें हैं। इन आदर्शवादी बातों से
किसानों को झांसा देकर मुर्ख भी बनाया गया है। आप तो अन्नदाता है, देवता है...! हमारे पेट की भूख मिटाने
का पवित्र कार्य आप कर रहे हो। पूरे देश और दुनिया की भूख मिटाने का जरिया आप, आपकी खेती और आपकी किसानी है। आदि-आदि
बातों से किसानों को कई सालों से मुर्ख बनाया है। परंतु अब वह इस निष्कर्ष तक
पहुंचा है कि हमारी कई पीढ़ियां दूसरों की गुलामी करने में बीत चुकी है, दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस
कर फांसी लगा चुकी है। अब और नहीं। हमारा भी मन है, आत्मा है। हमें भी लगता है कि हमारे बच्चे पढ़-लिखकर बड़े बने। शहरों
में जाए। अच्छा वेतन पाए और वेतन के बदले में सारे सुख पाए जिसके लिए हमारी सारी
पीढ़ियां ताकत लगाती रही, मिली नहीं। वह सुख इसे इस जिंदगी में
मिले। उसका भी घर हो, उसके बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़े।
उसके घर के सामने भी बड़ी नहीं तो कम-से-कम छोटी गाड़ी हो। जिन सपनों को किसानों के
कंधे पर बैठकर नौकरशाही, अफसरशाही देखती रही वहीं किसान आज अपने
लिए देख रहा है। उसको उसकी जमीन और खेती का वास्ता दिया जाएगा। यहां पूछना चाहते
हैं कि सबके पेट भरने का ठेका और भूख मिटाने का ठेका केवल किसान ही क्यों लें? यह जिम्मेदारी भारत के प्रत्येक नागरिक
की क्यों न हो? किसानों के घर जलते रहे, उनके घरों में रोज मौत हो, हर समय वह गमी का सामना करता रहे और
बाकी देशवासी सुख में जीवन बिताए यह कहां का न्याय है?
अब
किसानों के बच्चों ने खेती से मुंह मोड़ लिया है। इनके देखा-देखी और भी इस झूंड़ में
शामील हो रहे हैं। हमें अब दूसरों की भूख की चिंता करने की जरूरत नहीं है। अब हम
अपनी भूख और सुख का सोचेंगे इस निष्कर्ष तक आ चुके हैं। जब देश घोर अन्नधान्य की
कमी से गुजरेगा तो देखा जाएगा। हमारे खून में खेती पहले से बसी है, जिसका जिक्र विद्वान...!, चिंतक...!, आदर्शवादी...! हमेशा करता है; तो उस समय हम हमारी रोटी के लिए हाथों
में हल उठाएंगे। दुनिया कहेंगी कि किसान और किसानों के बच्चे स्वार्थी बने हैं, अमानवीयता पर उतर चुके हैं। भाई हम
स्वार्थी है, अमानवीय है। आपने कहने की जरूरत नहीं, हम खुद ही कह रहें है, कोई बात नहीं। फिलहाल तो किसानों के
बच्चे आक्रोश के साथ नकार पर उतर चुके हैं। इन्हें अब रोका नहीं जा सकता। जिन
किसानों के पास मौके नहीं है, वे
मजबूरी में खेती कर रहे हैं, उसे
अगर मौका मिले तो वह युं खेती छोड़ने की स्थिति में पहुंचा है। रोज मारा जा रहा
किसान, रोज मरता किसान और रोज आत्महत्या करता
किसान, किसान-परिवारों में खेती के प्रति
घिन्न पैदा कर रहा है। "इस देश के सौ में से चालीस शेतकरी आज खेती छोड़ दें
अगर उनके पास कोई दूसरा चारा हो। 80
लाख ने तो किसानी छोड़ भी दी।" (फांस, पृ.
17) जब सारा देश किसानों के प्रति अमानवीय
व्यवहार कर रहा है तो केवल वहीं मानवीयता पर क्यों अड़ा रहें। देश की बंजरता पर
संजीव सवाल उठाते हैं कि "शेत क्यों बंजर हो जाता है और क्यों बंजर हो जाता
है आदमी का मन? इस मरण के खिलाफ उठकर खड़े होने की
कोशिश में बार-बार लड़खड़ा कर क्यों गिरता है आदमी?" (फांस, पृ. 73)
अब
सवाल यह उठता है कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? इससे वह कौनसी प्राप्ति कर रहा है? दुनियाभर के मनोवैज्ञानिक आत्महत्या
करनेवाले व्यक्ति की मानसिकता का आकलन करने में लग चुके हैं। वैसे किसानों की
मानसिकता और मनोविज्ञान का आकलन भी शुरू है। सैद्धांतिक, मनोवैज्ञानिक, शास्त्रीय, किताबी, प्रयोगशाला में विविध उपकरणों के साथ किया गया आकलन...! किस काम का? खोखला अध्ययन और आकलन...! आखिरकार अपने
मरण से किसान क्या पाता है?
पहले ही मुश्किलों का ‘फांस’ परिवार के आस-पास गूंथ चुका है और उसमें परिवार के प्रमुख की मौत, आत्महत्या उसको और कस देती है। उस
प्रमुख को लगता है कि अपनी मौत के पश्चात शायद इनको रिलिफ फंड़ों में से कुछ
मिलेगा। खुली आंखों से मैं पारिवारिक दयनीयता को देख नहीं सकता हूं। मेरे जिंदा
रहने से परिवार को कोई सुख मिला नहीं शायद मौत से मिले। यह एक कोशिश है। साथ ही
अमानवीय, राक्षस बने साहूकार, बैंक अधिकारी, सरकार, राजनेताओं, नौकरशाह और अफसरों के मुंह पर करारा
थप्पड़ मारने का मौका भी है,
मार दें। पर इस बात से भी किसानों को
वाकिफ होना जरूरी है, गैरतभरी दुनिया बहुत निर्दयी है, जैसे आपके जिंदा रहने से उन्हें कोई
फर्क पड़ता नहीं, आपकी दयनीयता, गरीबी, अभावों और पीड़ाओं से जैसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, वैसे ही आपकी मौत से भी फर्क नहीं
पड़ता। निष्कर्ष दुनिया बहुत निर्दयी बन चुकी है। संजीव ने ‘फांस’ के भीतर वर्धा में चल रहे एक सेमिनार की लंबी चर्चा की है, जिसमें किसानों की मुश्किलों, आत्महत्याओं, सिंचाई पर चर्चा शुरू है। उसमें एक
टीचर ने कुछ निष्कर्षों को सामने रखा है। "आत्महत्या, खुदकुशी, सुसायड़। सिर्फ इस्केप नहीं है प्रतिवाद भी है, अंतिम अन्याय के विरुद्ध चिख है, मौन चिख। सायलेंट क्राय! साने गुरुजी
कभी बालों में तेल-कंघी न करते। महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब उन्हें पता चला
कि गांधी जी को गोली मारनेवाला व्यक्ति एक मराठी है तो उन्होंने बालों में तेल
लगाया, कंघी की और आत्महत्या की। मै
प्रायश्चित कर रहा हूं उन पापों के लिए जो हमने भले न किए हो, मगर हत्यारे से कहीं न कहीं जुड़ता है
हमारा मन। ....आत्महत्या महज कायरता नहीं, भाव
प्रवणता का उदात्त मुहूर्त है, पश्चाताप
और निर्वेद की आग में मानवता का झुलसता हुआ परचम।" (फांस, पृ. 197) वैसे यह एक टिचर का सेमिनार के भीतर का वाक्य है। बहुत अच्छा, तालियां पाने के लिए। आजकल सेमिनार...!, चर्चाओ...!, संगोष्ठियों...!, गोष्ठियों...!, बैठकों...! में केवल थूंक निकलती है।
तालियां पाई जाती है। इससे युजीसी और मानव संसाधन मंत्रालय, खुद आलेख वाचक और भाषणबाज भी भलिभांति
जानते हैं। साने गुरुजी का दौर गुजर चुका है और उनकी न किए अपराध के प्रति की
आत्मग्लानी भी गुजर चुकी है। सवाल यह उठता है कि साने गुरुजी की आत्महत्या के बाद
समाज और देश में हत्याएं होना क्या बंद हो गया है? गांधी जी को तो रोज मारा जा रहा है। क्या हत्यारों की मानसिकता में
कोई फर्क पड़ा है? उन्हें गलती का एहसास हो चुका है? या वे अपराध भाव से भर चुके हैं? नरेंद्र दाभोळकर जी की हत्या, गोविंद पानसरे की हत्या, कलबुर्गी की हत्या किसका परिचायक है? रोज गांधी जी को मारा जा रहा है का
एहसास देती है। दिन-ब-दिन समाज क्रूरता की हदों को पार कर रहा है। गांधी जी को रोज
मारा जा रहा है। अतः सेमिनार के भीतर के टिचर का किसानों की आत्महत्या के लिए ‘अंतिम अन्याय के विरुद्ध चिख है, मौन चिख। सायलेंट क्राय!’ कहना किसानों को आत्महत्या के लिए
उकसाने जैसा है। इस कृति को आदर्श मानने जैसा है। उसकी पुष्टि में दिया साने
गुरुजी का उदाहरण तो सारी हदों को पार करनेवाला है। इससे इन सेमिनारों का थोथापन
भी प्रकट होता है।
किसानों
की आत्महत्या को कोई भी उदात्तता का जामा पहनाने की कोशिश करें, बर्दाश्त से बाहर है। मौत उपाय नहीं, पलायन है। असल जीत लड़ाई में है। अब
किसानों को ध्यान रखना जरूरी है, सावधान
रहना भी जरूरी है कि अपनी मेहनत पर कोई आकर झपट्टा मारे तो गलती खुद की है। आस-पास
के पाखंड़, झूठ-फरेबों से समय पर चेतित होकर अपना
रूख बदले, नीति तय करे तो इस मतलबी देश में वह, उसका परिवार और अगली पीढ़ी टिक पाएगी।
आत्महत्या कर अपना जीवन खत्म करने की अपेक्षा खुद की जिंदगी दांव पर लगाकर, आग पर तपाकर अपने अगले पीढ़ी का भविष्य
सुरक्षित बनाने में लगा दें। जिस किसानी के चलते उसके जीवन की दुर्गत हो रही है
उसी का सहारा लेकर इस बोझ से वह अपने बच्चों को मुक्त करें तो मौत पाने पर गर्व
होगा। आत्महत्या से खुद को छुटकारा तो मिलेगा पर अपने पश्चात सारे परिवार को दूसरों
के दरवाजे पर भीख मांगने के लिए छोड़े जाना कहां की अक्लमंदी है। किसी दूसरे ने
बताने की क्या जरूरत है, भारत देश में किसान सौत का बेटा है। वह
खुद ही समझ ले कि भाई मैं सौत का बेटा हूं, परंतु
अपने लिए न सही लेकिन अगले पीढ़ी के लिए वह ध्रूव जैसी पक्की जगह निर्माण करें, जिससे उसे कोई धक्का देने का साहस ही न
कर पाए। किसान और बच्चे भी याद रखे कि ऐसी पढ़ाई हम पाए जिसका बाजारमूल्य होगा, ऐसे स्किलों में हम महारत हासिल करे
जिसके चलते हमारे जिंदगी का रूख बदल जाए। यहां भी मिसगाईड़ करनेवालों की संख्या कम
नहीं है; भाषा, संस्कृति, देशभक्ति, आदर्शवाद, देवता... और न जाने कौन-कौनसी दुहाई दी
जाएगी। अतः इस मैदान में तय करके ही उतरो कि झांसा देनेवालों को पटखनी देनी है।
अपनी जगह पर ईमानदार रहकर वह स्थान हमें पाना है, जिसे कोई चैलेंज ही न करे। हमारे देश में किसान ध्रुव जैसे सौत का
बेटा है, जिसे अपने बाप के गोद से उतारकर फर्श
पर पटक दिया है। अतः ध्रुव ने ‘तपस्या’कर जो स्थान पाने में सफलता पाई वह
स्थान किसान का बेटा भी पाने में सफल हो जाए। यह भी याद रखे कि वह स्थान ‘तपस्या’ के फलस्वरूप ही मिलता है। गरीबी, अर्थाभाव, पीड़ाएं, मुश्किलें, खाना, रहना, भाषा... हजारों बांधाएं होगी पर बाधाओं
के बिना ‘तपस्या’ अपने मकाम तक पहुंचती नहीं, अतः
उससे लड़ने की मानसिकता बनानी चाहिए।
4.
गांवों
के नगर बने, नगरों के शहर बने और शहरों के महानगर
बने। आज भी यह सिलसिला जारी है। भारत के लिए एक उक्ति अब इतिहास के पन्नों में
खोते जा रही है – गांवों का देश भारत। अब वह समय दूर
नहीं जहां भारत की यह पहचान मिट जाएगी। बाजारीकरण के चलते गांवों के लिए मिला हुआ
यह शाप कह सकते हैं कि अब गांव, गांव
नहीं, शहर बन चुके हैं। आकार से छोटे हैं, परंतु अपने आपमें किसी शहर से कम नहीं।
शहरों के आस-पास मिलों लंबी सड़कें, उन
सड़कों के आस-पास के गांव और जमीनों की कीमतें इतनी बढ़ चुकी है कि परंपरा से चलती
सारी अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है। सालों से खेती से लड़ाई करते थक चुके किसानों की
जमीनों के भाव अचानक बढ़ गए और उन्हें लगने लगा कि इससे कोई उपज तो मिलती नहीं
क्यों न बेचा जाए? थोड़ी-थोड़ी करके जमीनें बेची जा रही है
और खरीदी भी जा रही है। शहर इतने तेजी से फैल रहे हैं कि उनका फैलाव गांवों को
खाते जा रहा है। दूसरी बात खेती में मेहनत कर जिन्हें जो मिलता नहीं था उन्हें
मजदूरी कर मिल रहा है। हाथों को मजदूरी मिलनेवाला खुश है और किसान खेती बेचकर खुश
है। अचानक आए पैसों को कैसे खर्च करना है, इसका
निश्चित नियोजन नहीं और भविष्य के लिए कोई ठोस इंतजाम नहीं, अतः किसान अब शहरों में मालगुजारी और
मजदूरी पर उतर चुके हैं। शहर और सड़कों ने सारी अर्थनीतियां ही बदल दी है।
"सड़कों के किनारे सारी खेतीवाली जमीनें बिक चुकी हैं। मकान बन रहे हैं।
आनेवाले दिनों में सिर्फ बिल्डिंगे होंगी, न
शेती, न हमारी-तुम्हारी बैलगाड़ियां।"
(फांस, पृ. 36) उपन्यास के भीतर नाना के मुख से निकला यह वाक्य इस बात को अभिव्यक्त
करता है कि किसानों ने किसानी करने की अपेक्षा जमीनों को बेचना पसंद किया है।
शहरों में और शहरों के आस-पास ऐसे कितने किसान है कि जो जमीनों को बेचकर अपने लिए
जिंदगी जीने का दूसरा मार्ग अपना चुके हैं। कुछ ने विकास की गति के साथ कदम मिलाए
और कुछ के कदम न मिलने के कारण उखड़ भी चुके हैं। कुलमिलाकर विकास और बदलती
अर्थनीतियों के तहत निष्कर्ष यह निकलता है कि किसानों ने किसानी करने की अपेक्षा
खेती को बेचना पसंत किया।
5.
संजीव
ने ‘फांस’ उपन्यास के भीतर किसान आंदोलन और किसानों के नेताओं पर भी प्रकाश
डाला है। किसान ही क्यों किसी भी सामान्य व्यक्ति की और कार्यकर्ता की राजनीतिक
मंशाएं कभी छिपी नहीं है। जहां भी और जैसे भी हो हर एक छोटे-बड़े नेता को कुर्सी पर
बैठने का मौका चाहिए। आकर्षण कुर्सी, पद, सत्ता और पैसे का है। कुर्सी पर बैठकर
पद को भोगा जाता है, सत्ता का उपभोग किया जाता है और साथ ही
इन सबसे ऊपर कई लाभों के साथ पैसे भी कमाए जाते हैं। भारतीय राजनीति के लिए यह शाप
है कि वहां राजनीति में प्रवेश कर चुका प्रत्येक शख्स बेईमानी को ही ईमानदारी
मानता है। राजनीति का पर्यायी अर्थ बन चुका है – कुटिलता, षड़यंत्र, भ्रष्टाचार,
बेईमानी। विकास, ईमानदारी, सेवा आदि बातें भारतीय राजनीति में
बहुत कम नजर आती है। महाराष्ट्र और भारत के किसान-आंदोलन और उनके नेताओं का भी
वैसे ही हुआ है।
देश
और राज्यों में किसानों की संख्या ज्यादा है, अतः
राजनेताओं के लिए यह बहुत बड़ा वोट बैंक है। सारे किसानों को अपनी ओर करना है तो
राजनीतिक पार्टियों की यह कोशिश रहती है कि जाति, धर्म के ट्रमकार्ड का इस्तेमाल कर किसानों के नेताओं को अपनी ओर
करें। कई लाभ और लालच की थालियां इन नेताओं के सामने परोसी जाती है। नाजुक क्षणों
में यह नेता इन पार्टियों के शिकार भी बनते हैं। वैसे इन नेताओं का छिपा अंजड़ा भी
यहीं होता है कि किसानों के दुःखों को कमर्शिअली इस्तेमाल कर उसके कंधे पर, छाती पर पैर रखा जाए और मौका मिलते ही
किसी राजनीतिक पार्टी में प्रवेश करें। इन नेताओं ने हमेशा किसानों को छला है।
उपन्यास के भीतर संजीव ने किसान नेता शरद जोशी का उल्लेख किया है। अब जोशी जिंदा
नहीं है। हालांकि इन्होंने राजनीतिक पार्टियों से फासला रखने की भरसक कोशिश की
लेकिन यह भी कभी छिपा नहीं था कि इनका मूलतः भाजपा की ओर झुकाव रहा। 2003 में किसानों के मुआवजे के लिए बनाए गए
टास्क फोर्स का अध्यक्ष सरकार ने शरद जोशी को बनाया, जोशी जी ने इसे स्वीकारा और किसानों के दिलों-दिमाग तथा नजरों में
बनी अपनी विश्वसनीयता को खो दिया। 2004
में शेतकरी संगठन के टूटन के बीज इसी घटना से बोऐ गए। आगे राजू शेट्टी ने
महाराष्ट्र के भीतर स्वाभिमानी शेतकरी संगठन बनाया। फिलहाल महाराष्ट्र और पूरे
भारत में किसानों का प्रतिनिधित्व करनेवाला और केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं ईमानदार
प्रतिनिधित्व करनेवाला कद्दावार नेता है। इनकी विशेषता यह है कि राजनीति में और
फिलहाल सत्ता के साथ होकर भी सरकार की नीतियों की आलोचना करने का ईमानदार प्रयास
इनका है। किसानों के लिए किसी भी पद और कुर्सी से दूर रहनेवाला यह नेता किसानों के
हकों के लिए लड़ रहा है।
राजू
शेट्टी कभी शरद जोशी के अनुयायी भी रहे हैं और उन्हें वे अपना गुरु भी मानते हैं।
शरद जोशी को गुरु मानकर भी विरोध करने की और किसानों के पक्ष में खड़ा रहने की
क्षमता इस नेता में रही है। पश्चिम महाराष्ट्र, सांगली, कोल्हापुर, सातारा, पूना, सोलापुर इनका किला है। गन्ने की खेती
करनेवाला किसान इनका मुरिद है। केवल महाराष्ट्र ही नहीं तो पूरे भारत में इन्होंने
गन्ने को जो कीमत मिलनी चाहिए उसे सरकार और शुगर मिलों के मालिकों की छाती पर अंगद
का पैर रखकर वसूल की है। इस नेता के कारण गन्ने का किसान सुखी है। परंतु इनके एक
साथी-संगी सदाभाऊ खोत महाराष्ट्र में मंत्री क्या बने किसानों के हित को भूल चुके।
हमेशा ऐसे ही हुआ है, किसानों के नेता अपनी प्राथमिकता भूल
जाते हैं, सत्ता और कुर्सी के लालच में। यह काम
दिल्ली की राजनीति में भी हुआ। अण्णा हजारे के आंदोलन का लाभ उठाकर अरविंद केजवाल
अँड़ पार्टी कुर्सी पर जाकर क्या बैठी भ्रष्टाचार विरोध आंदोलन ही भूल गई। किरण
बेदी ने तो अपनी हदों को पार करते हुए भाजपा में प्रवेश कर एक राज्य की राज्यपाल
होना पसंद किया। अर्थात इन उदाहरणों से यहीं स्पष्ट होता है कि आम जनता और किसान
हमेशा नेताओं से छला गया है।
अपने
नेता की गद्दारी और लालच किसानों को अंदर-बाहर से तोड़ देता है। उन्हें आशा होती है
परिवर्तन की, वह पूरी तरह से तबाह होती है। पहले से
हारा, पराजीत हो चुका किसान इनके भरौसे लड़ने
का विश्वास जुटा चुका होता है। इनके जाते ही निराशा, उदासीनता, दुःख और पीड़ा सारे प्रदेशों में घिर
जाती है। पहले प्राकृतिक अत्याचारों से पीड़ित किसान अपने नेताओं की गद्दारी से
मानो अपाहिज हो जाता है। गहरी निराशा और उदासीनता उसकी जिंदगी में घने-काले अंधकार
को और गाढ़ा बना देती है। कहीं कोई आशावादी किरण दिखता नहीं। निराशा और उदासीनता से
घिरा किसान फिर सबके सामने एक सवाल जड़ देता है कि खेती से किसान क्यों मन लगाए?
6.
‘फांस’ उपन्यास में मोहन वाघमारे और उसकी पत्नी की दर्दनाक कहानी का भी
वर्णन है। किसी समय यह आदमी नाम की तरह ही किसान आंदोलनों में शेर जैसी दहाड़ लगा
चुका था। जेल भी जा चुका और पुलिस टॉरचर के बाद अपाहिज होकर फिर अपने पैरों पर खड़ा
भी हुआ। पत्नी के अलावा दो बेटे और एक बेटी। पांच जनों के परिवार का भार अकेले
मोहन वाघमारे के कंधे पर। तीनों बच्चों को पढ़ाया। बेटी को पढ़ाकर शादी की। भारतीय
समाज में बेटी को बड़ा करना और फिर बच्चे पैदा करने के लिए उसकी शादी करना, यह एक मात्र परंपरागत मार्ग है। शहरों
में ना सही, परंतु गांवों की तो ऐसी ही स्थितियां
है। बड़ा लड़का एम. ए., पीएच. डी. हो चुका है और छोटा जरूरी
पढ़ाई कर मुंबई जाकर फिल्मी दुनिया में अपना नसीब अजमाना चाहता है। बेटी की शादी एक
मजदूर से, बड़ा बेटा पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी का
इंतजार कर थक चुका है और छोटे को भी कहीं कोई मौका नहीं। एक व्यक्ति कितने दिनों
तक परिवार को खिंचेगा? खिंचा भी जा सकता है अगर भविष्य की कोई
आशा हो तो। दोनों बेटों की मांग है कि हमें दो-दो लाख दे ताकि कहीं नौकरी के लिए
घूस देकर प्राप्ति हो। मोहन वाघमारे जैसा किसान इतने पैसे कहां से लाएगा? बच्चों की शिकायत है कि ‘हमें काहे को पैदा किया?’ बच्चे जब अपने मां-बाप को पैदा करने का
कारण पूछते हैं तो क्या बताए और कौनसा उत्तर दें? सिर झूक जाता है। बच्चे कहते हैं कि "दूसरे लड़कों के बापों ने
हाथ-पांव जोड़कर दे-दिलाकर जैसे-तैसे हासिल कर ली नौकरी और एक हमारा बाप है, जिंदाबाद-मुर्दाबाद कहते मुर्दा हो गया
है।" (फांस, पृ. 39) आज गांवों के सामान्य परिवार और किसान परिवार का यह दर्दनाक वास्तव
है। किसी भी पढ़-लिखे युवक को पूछा जाए तो उत्तर आता है, ‘एम.पी.एस.सी., पीएच. डी., नेट, सेट... कर रहा हूं। सरकारी नौकरी के इंतजार में हूं। इंटरव्यूव दे
रहा हूं। नौकरी के लिए पैसों का जुगाड़ कर रहा हूं।’
सरकारी
नौकरी का बाजार बहुत गर्म है। लाखों में बेची और खरीदी जा रही है। ‘फांस’ में लेखक ने दो लाख का उल्लेख किया है परंतु अब इन परिवारों के लिए
नौकरी पाने का फांस 25 से 50 लाखों में गूंथ चुका है। महाराष्ट्र के किसी भी युनिव्हर्सिटी में
जाकर आप रिड़िंग रूम, डिपार्टमेंट, हॉस्टल या कँपस का एक दिन का चक्कर लगा
देंगे तो इस वास्तव का परिचय होता है। कदम-कदम पर आप पीएच. डी. धारक और नेट-सेट
परीक्षा पास कर चुके युवकों से टकरा जाएंगे। कभी फुर्सत मिले तो उससे बात करें, तो प्राध्यापकी कितने में बेची जाती है, इसका भी पता चलेगा। मोहन वाघमारे का
बेटा भी इसी दौर का शिकार हो चुका है। इस क्षेत्र में पैसे तो चलते हैं ही, साथ ही संपर्क, मॅनेज करना और नौकरी की स्पर्धा में
दौड़कर कुर्सी पर बैठनवाले के लिए जगह है। यह एक संगीत कुर्सी का खेल है, नौकरी उसे ही मिलती है, जिसने मौका देख चौका मारा हो। इतना
स्मार्ट आप अगर नहीं है तो इस क्षेत्र में आपके लिए जलील होकर मौत के अलावा दूसरा
रास्ता नहीं है। ऐसी स्थितियों पर सामान्य परिवार, गरीब और किसान परिवारों के कर्ताओं और उनके बच्चों को भी सोचना जरूरी
है। ऐसी पढ़ाई किस काम की जो हमें दूसरे के दरवाजे पर हाथ फैलाने के लिए मजबूर करें, जलील करें? पिता, जो किसान है,
जिसे सारे देश ने जलील किया है, और बेटा जो नौकरी की तलाश में जलील हो
रहा है, दोनों की जिंदगी में क्या फर्क है? पढ़े-लिखे बच्चों की बाप के प्रति
शिकायतें किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रही है।
शिक्षा
पाकर भी जीने की असमर्थता हमारे देश की शिक्षा नीति की कमी को दर्शाती है। अतः
प्रत्येक बच्चा, चाहे वह किसान परिवार का हो या और किसी
परिवार का, वहीं पढ़े जो रोटी दे सकता है, अपने परिवार का पेट भर सकता है।
स्पर्धा में सबसे आगे रहे,
कौशल और स्किलोंवाली पढ़ाई जरूरी है।
जिंदगी में एक के लिए दूसरे विकल्पों की नितांत आवश्यकता है। किसी भी क्षेत्र में
परंपरागत ढर्रे पर भेड़-बकरियों जैसे चलना मौत दे सकता है। अतः आंखें खुली रखकर
चलना जरूरी है। स्मार्ट इतना हो जैसे बिल्ली होती है, जिसे कैसे भी ऊपर फेंके वह जमीन पर
अपने पैरों पर ही गिरेगी। बिल्कुल वैसे ही किसानों के बच्चों को होना चाहिए। किसी
भी परिस्थिति का सामना करने की तत्परता, ताकत, क्षमता, आत्मविश्वास और भरौसा उसमें हो। सरकारी नौकरी प्राप्त न भी हो तो
बाकी विकल्पों के साथ अपने-आप को अजमाकर अपना और परिवार का पेट पालने का भरौसा
होना चाहिए। यह भरौसा किसान परिवार के प्रमुख को भी उभार सकता है। बच्चों के आंखों
की निराशा, उदासीनता और शिकायत उसे कुरेदती है।
हजार बार मरवाती है। किसानों ने खेती से बच्चों को दूर रखा इस सवाल के साथ कि खेती
से किसान क्यों मन लगाए? ओके, परंतु अपने बच्चों को ऐसी पढ़ाई भी देना जरूरी है, जिससे वह स्वाभिमान के साथ अपने भविष्य
को बनाने में सक्षम हो और परिवार को ढर्रे पर लगा सके। शिक्षा पाकर भी रोटी पाने
की असमर्थता, दयनीयता, उदासीनता किसी भी रूप में सम्मानजनक नहीं है।
7.
किसान
जिंदा रहे या मरे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर फर्क पड़ता है तो केवल किसान के
परिवार को। आए दिन एक-दो किसानों की आत्महत्याएं हो रही है और निर्दयी समाज उसका
उपहास कर रहा है। किसान आंदोलन, किसानों
की हड़ताल और किसानों की मौतों का मजाग उड़ाया जा रहा है। अर्थात किसानों की
आत्महत्याएं, उसके प्रति समाज को न जिम्मेदार बनाती है और न ही सोचने के लिए मजबूर
करती है। उल्टा इन खबरों को पढ़कर, सुनकर, देखकर जो किसान नहीं है वह उपहास, व्यंग्य और कुटिलता से हंस रहा है।
राजनेताओं के लिए चुनकर आने के लिए अजंड़ा है। सरकार के लिए हमदर्दी दिखाने की जगह
है और विरोधी पार्टियों के लिए अगली बार सत्ता में आने का मौका है। बस इससे ज्यादा
कुछ नहीं। किसान मरते रहे मुर्गी और बिल्ली की तरह...! यहीं प्रतिक्रियाएं बेदर्द
दुनिया की और देशवासियों की है।
‘फांस’ के भीतर के चुनिंदा वाक्यों को यहां पर कोट कर रहा हूं जो इन
स्थितियों का वास्वववादी दर्शन कराते हैं। ऐसे वाक्यों और घटनाओं का हम भी कभी
सामना कर चुके होते हैं। अपने आस-पास साथी-संगी जिनका कभी किसानी से वास्ता पड़ा
नहीं वे बड़ी बेदर्दी और गैरजिम्मेदाराना वृत्ति से मजाग उड़ाते हम देखते हैं, दर्द होता है। इनकी अमानवीयता और
एहसानफरामोशी के बदले जोरदार तमाचा लगाने का भी मन भी करता है।
"आए दिन तो आत्महत्या की खबरें सुनते
रहते हैं। जिधर देखो उधर,
कोई पेड़ की डाल पर लटका पड़ा है, कोई कुएं में गिर पड़ा है तो कोई
कीटकनाशक खाकर मुंह से झाग फेंक रहा है।" (फांस, पृ. 43)
"सरकार ने मान लिया है कि शेतकरी तो
मरेंगे ही मरेंगे, इन्हें पात्र से अपात्र बनाने के लिए
कोई प्रमाण देनेवाला तो हो। पोस्टमार्टम में क्या मिलेगा – जहर! न लाचारी निकलेगी, न टेंशन, न कर्ज।" (फांस, पृ.
54)
"महिला शेतकरी आशा वानखेड़ी की मौत ‘अपात्र’ करार दे दी गई – लिखा
गया – ‘शराबी पति, आए दिन के घरगुती के झगड़े से आजिज आकर
उसने जहर पी लिया।" (फांस, पृ.
147)
यह
किसानों की मौतों के पश्चात् का वास्तव है। भाई क्यों अपने आपको जलील कर रहे हो? दुनिया राक्षस है, बड़ी बेदर्द है। तुम्हारे दुःखों के साथ
उसे कुछ लेना-देना नहीं है,
और तुम्हारे आंसुओं को पोछने की
दर्यादिली भी उसके पास नहीं है। अतः पलायन कर मरने की अपेक्षा, या आक्रोश और नकार के साथ मौत पाने की
अपेक्षा लड़कर मरे। अपनी अगली पीढ़ी के दर्दों को मिटाने के लिए लड़ने का जज्बा रखें।
कैसे भी करे और अगली पीढ़ी को किसानी से मुक्ति देने का भरसक प्रयास करें। दुनिया
की नजर में अपनी आत्महत्या और मौत केवल एक मजाग है इसे ध्यान में रखें। इस बेदर्द
दुनिया को हंसी उड़ाने का,
व्यंग्य करने का, मजाग उड़ाने का मौका न दें तो बेहतर
होगा।
8.
भारतीय
किसानों के गले में फांसी का फंदा लटक चुका है, भारतीय
किसान जहर पीकर मौत को गले लगा रहे हैं, भारतीय
किसान आग में जलगर दर्दनाक मौत पा रहे हैं, कुलमिलाकर
भारतीय किसान मौत की ओर धकेला जा रहा है, क्यों? इसके कारणों को संजीव ने ‘फांस’ उपन्यास के भीतर खंगालने की कोशिश की है। उन्होंने उपन्यास के भीतर
सरकार, प्रशासन, नेता, सेवक, बैंक कर्मचारी और किसानों पर भी कई सवाल उठाए हैं। प्रकृति के साथ
हमें समझौता करना है, वह हमारे हिसाब से चलेगी नहीं। अतः
उसके अनुकूल खेती से जुड़े निर्णय भारतीय किसान, प्रशासन
और सरकार को लेने हैं, लेना जरूरी है, परंतु हमारे देश में इस पर कभी गंभीरता
से सोचा नहीं गया। किसी भी काम की सफलता के लिए उचित निर्णय, योजना और नीतियों की जरूरत होती है, इसकी कमी के कारण बने-बनाए कार्य भी
बिघड़ जाते हैं। खेती, उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, खेल... और तमाम क्षेत्रों के निर्णय, योजना और नीतियां से आसमान छूते अनेक उदाहरण हमारे आस-पास उपलब्ध है।
परंपरागत ढर्रे और आम-साधारण दृष्टिकोण को त्यागकर किसानी को गंभीरता से देखना
पड़ेगा तभी खेती प्रगति पथ पर आएगी और किसान को आत्महत्या करने से रोका जाएगा।
संजीव ने ‘फांस’ में नीतिगत गलतियों पर सीधे उंगली रखी है और यह गलतियां किसानों को
कैसे तबाह कर रही है इसका लंबा ब्यौरा भी दिया है।
"यहां तो सब गलत ही गलत है, इसलिए कि कोई भी चीज अपनी माटी-पानी की
नहीं। विदेशी बीज, विदेशी कर्ज, विदेशी गाय, विदेशी नीति और यहां का सूखा किसान और
सूखी धरती।" (फांस, पृ. 69) इस वाक्य से संजीव ने नीतिगत फांस पर उंगली रखी है। किसान अज्ञानी है
और सरकार बेफरवाह यहीं इससे प्रकट होता है। हमारे देश के खेती विषयक विद्वानों का
अपनी मिट्टी से कम जुड़वा रहा है। विदेशी पढ़ाई, विदेशी
ज्ञान और उसके आधार पर अपने देशी किसानों पर प्रयोग, देशी मिट्टी पर बलात्कार। यह कैसे प्रगति का रास्ता तय करेगा। अतः
जरूरी है कि अपनी मिट्टी और देशी लोगों के अनुकूल विकास नीतियां बनानी जरूरी है।
सिंचाई, मिट्टी की उर्वरता, उसके गुणधर्म, अच्छे बीज और सिंचाई के अनुकूल
टिकनेवाले बीजों का चुनाव आदि बातों का ध्यान रखने की जरूरत है। इसका एक उदाहरण के
साथ स्पष्टीकरण दिया जा सकता है। महाराष्ट्र के पांच भौगोलिक हिस्सों में पश्चिम
महाराष्ट्र और खांदेश भी एक है। इन दो भौगोलिक इलाके के सांगली जिले के ज्यादातर
तहसीलों में और मुख्यतः तासगांव। और सोलापुर और सातारा के कई तहसीलों में तथा
नासिक और उसके आस-पास भी अंगूर की खेती ज्यादा होती है। यहां सबको इकठ्ठा कर देखा
जाए तो ऍव्हरेज एक एकड़ के लिए कम-से-कम पांच लाख का उत्पादन लिया जाता है। हालांकि
अंगूर की खेती, साल में एक ही बार होनेवाली है, परंतु किसान अपने बच्चों को थोड़ी देर
के लिए आंखों से ओंझल होना बर्दाश्त करेंगे परंतु खेतों को नहीं। मतलब इनके लिए
खेत बच्चों से ज्यादा प्रिय है। 15-20
साल पहले अंगूर का जमीन से ऊपर उठनेवाला बेल स्वरूपवाला जो पौधा था वह गर्मी के
दिनों में धूप से झुलसता था, ज्यादा
पानी की मांग करता था और इसमें कमी पड़ जाए तो अंगूर के उत्पादन पर असर पड़ता था।
किसानों की इस समस्या पर अनुसंधान हुआ और अपनी ही मिठ्ठी से मूल पौधे को ढूंढ़ा गया
जिसका शास्त्रीय नाम है ‘रूटस्टाक’ और इन प्रदेशों में इसके प्रचलित नाम ‘डोंगरी’ (पहाड़ी) और ‘जंगली’ भी है। यह एक ऐसा पौधा है, जिसकी
जड़े जमीन के अंदर तक जाती हैं, अपने
लिए और ऊपरी बेल और फलों के लिए आवश्यक खाद-पानी ढूंढ़ लेती है। मतलब यह एक ऐसा
पौधा है, जिसने किसानों के पानी और खाद की बचत
की। इसका पूरे प्रदेश में फायदा हुआ। पहले जितने खाद और पानी की उपलब्धता में खेती
की जाती थी उतने में लगभग दुगुनी खेती की जानी लगी। अंगूर का क्षेत्र बढ़ा, उत्पादन बढ़ चुका और फलस्वरूप किसानों
का आर्थिक लाभ और प्रगति हो गई। यहां कई चीजों का जिक्र किया जा सकता है, परंतु केवल सँपलिंग होगा जैसे एक एकड़
अंगूर की खेती के लिए ऍव्हरेज खर्चा जिसमें पानी, खाद, बिजली, दवाइयां, मजदूरी... आदि के साथ सबकुछ खर्चा दो
लाख के आस-पास होता है और उत्पादन पांच लाख। लगभग तीन लाख का मुनाफा। एक और बात
कहीं जा सकती है, अंगूर की खेती करनेवाले किसानों की
खेती में जहां आवश्यक है,
वहीं पर मजदूरों की मदत ली जाती है, लेकिन उस खेती का मालिक घर के सारे
सदस्य के साथ दिन-रात मेहनत करता है। घर का प्रमुख स्वयं चड्डी और टी शर्ट पहनकर
खेती में मिट्टी में लोट-पोट हो जाता है, उसके
देखा-देखी उसकी पत्नी, मां, पिताजी, लड़की, लड़का और छोटे बच्चे भी जब समय मिलता कंधे से कंधा मिलाकर खेती के काम
करते हैं। इनकी खेती केवल मजदूरों के भरौसे पर नहीं है। लगभग साठ फिसदी काम यहां
किसान घर के भीतर ही निपटता है। मतलब इस प्रकार की खेती ने अन्यों के लिए रोजगार
निर्मिति तो की ही है, परंतु घर के सदस्यों को भी काम दिया
है। घर के सदस्य खेती में हमेशा उपलब्ध रहते हैं तो उत्पादन खर्चे में कमी होती है
मुनाफे का प्रमाण भी बढ़ जाता है। हर एक गांव के भीतर अंगूर की खेती करनेवाले प्रगत
किसान भी है, जिन्हें इसका परिपूर्ण ज्ञान है। इनके
मार्गदर्शन में पास-पड़ोसवालों की खेती भी फलती-फूलती है। फोन पर चर्चाएं होती हैं।
अन्यों के खेतों में जाकर मदत और मार्गदर्शन होता है। रासायनिक खादों का कम
इस्तेमाल और सेंद्रिय खादों की जरूरी मात्रा पर इनका भरौसा है। बारिश के दिनों में
पानी की बूंद-बूंद को बचाने के कोशिश होती है। उसको सुरक्षित किया जाता हैं, बांधों में, तालाबों में, छोटे-छोटे नालों में, बावड़ियों में... अर्थात् प्रत्येक बूंद
जमीन के भीतर लेकर जाने की कोशिश होती है। सौ फिसदी खेती ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation) के साथ। खेती के आस-पास पेड़ों की
हरियाली। ऐसे पेड़ लगाए जाते हैं जो अंगूर को मदत करेंगे और अन्य फलों का उत्पादन
भी दे देंगे। जैसे आम, चिकु, नारिअल अमरूद... आदि फलों के पेड़ फल तो देते हैं ही साथ ही अंगूर के
आस-पास ठंड़ाई रखते हैं, जिससे पानी का बाष्पीकरण भी कम होता है
और पानी की बचत होती है। ....कुलमिलाकर यह एक लंबे लेखन का विषय है, बस हमें यहां केवल इतना बताना है कि हर
बात सरकारी नीतियों के साथ चलेगी इसका भरौसा रखना गलत है, मौत की ओर कदम बढ़ाना है। अतः अपनी खेती
का मालिक, अनुसंधाता, निर्माणकर्ता, निर्णयकर्ता, नीतिकर्ता हमें खुद बनना है। पश्चिम
महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या नहीं करते हैं, उसका
अकेला कारण है, उनका प्रगत होना, वैज्ञानिक होना, मेहनती होना, प्रकृति प्रेमी होना।
मराठवाड़ा
और विदर्भ में चुनिंदा किसानों को छोड़े तो इसका अभाव ही अभाव दिखता है। प्रकृति और
पानी के प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है। यहां खेतों के बांध और किनारे छोड़ दो
घर के आस-पासवाला इलाका भी उजड़ा हुआ है। पेड़-पौधों के प्रति प्रेम नहीं। अतः गर्मी, धूप. उजड़ापन, धूल है। बारिश का पानी नालों, नदी में बह जाता है। घर का पानी नालों
और गटारों में बह जाता है। उसके भरौसों घरों के आस-पास के पौधें हरे-भरे करने की
मानसिकता नहीं। परंपरागत खेती छोड़ने का मन नहीं। घर के सदस्य खेती में काम करें
इसकी जागरूगता नहीं। मजदूरों के भरौसे खेती। सिंचाई का अभाव। ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation) की जागरूकता नहीं। पानी जब उपलब्ध है
तब उसका गैरजिम्मेदाराना इस्तेमाल। ...अर्थात हर चीज सरकार करें इसका इंतजार करने
से अपनी जिंदगी का रास्ता बनेगा नहीं और न हीं घर-गाड़ी पटरी पर आएगी। पीछे लिखा है
कि मराठवाड़ा और विदर्भ की मिट्टी उर्वर है, एकदम
काली और सपाट है, नीति और नियोजन हो तो इसमें आधे से भी
कम खेती में यह प्रदेश स्वाभिमानी और स्वयंपूर्ण बन सकता है। हर बार दूसरे प्रदेश
और सरकार पर उंगली उठाने से काम होगा नहीं। आपसी रंजीशों, ईर्षा, द्वेषों से बाहर आकर खेती को नया आयाम देना पड़ेगा। तभी कुछ बन सकता
है। जहर की बोतलें, फांसी के फंदे सरकार आकर हमारे हाथों
से छीन नहीं सकती है और न ही इसे छीपा सकती है। अपने ही निर्णय, नीतियों और नियोजन के तहत जहर की
बोतलों, गंदी आदतों, परंपराओं, रूढ़ियों और फांसी के फदों को उतार
फेंकना होगा तभी जिंदगी संवर सकती है।
संजीव
के ‘फांस’ के बहाने यह सारी चीजें अपने-आप उतरी है। यहां और एक उदाहरण देना
जरूरी है, जो सबके लिए मार्गदर्शक होगा जिसका
वास्तविक असर भी होगा। केवल हवाई बातें और सेमिनारोंवाले खोखले वैचारिक मंथन से
परहेज करना है। पीछे पश्चिम महाराष्ट्र के सांगली जिले का उल्लेख किया है, जो खेती के नजरिए से प्रगत है, आधुनिक है। इसी जिले के तासगांव तहसील
का भी जिक्र आया है जो अंगूर की ऊपज करता है। इस आलेख के आरंभ में माननीय आर. आर.
पाटिल (आबा) का जिक्र भी है। जो महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री रह चुके
हैं। जमीन से जुड़ा नेता और किसानों के लिए, अपने
प्रदेश और राज्य के लिए कई विकासात्मक निर्णय लिए। अचानक मौत हो गई अब इनकी पत्नी
सुमनताई पाटिल विधानसभा में पार्शद (आमदार) है। परंतु जब पति थे तब एक मंत्री की
बीवी होने के नाते कोई गर्व नहीं कोई घमंड़ नहीं, खेती के काम,
गाएं-भैसे और मिट्टी से परहेज नहीं। यह
बात केवल इनकी नहीं पूरे परिवार की। आर. आर. पाटिल (आबा) की मां, पत्नी, उनके बच्चे,
भाई, भाई का पूरा परिवार, असल
में एक किसान को जैसी खेती करनी चाहिए वैसे खेती करता है। पाटिलकी को छोड़कर। यह
असली किसान का गुण है। आज भी तासगांव के अंजणी गांव में जाकर इस वास्तव को देखा जा
सकता है। दूसरा उदाहरण दोस्त रवि पाटिल का है। अंजणी से नजदिक तीन किलोमिटर पर
वड़गांव है। पानी की किल्लत,
जो मराठवाड़ा और विदर्भ में है, वहीं तासगांव, अंजणी और वड़गांव में है, लेकिन जैसे ऊपर लिखा है वैसे यहां का
किसान नियोजन, नीति के साथ खेती कर रहा है, परंपराओं को रूढ़ियों के परदों को
हटाकर। रवि पाटिल उसी में से एक है। जमीन केवल पांच एकड़ दस गुंठा। उसमें चार एकड़
अंगूर के बाग है। इस साल और एक एकड़ बढ़ा दिया है। खाली जमीन केवल दस गुंठा है।
पूराने चार एकड़ में इस साल का अंगूर का इन्कम अठ्ठाईस लाख है। उत्पादन खर्चा दस
लाख। कुल मुनाफा अठारह लाख। खेतों में अन्य मजदूर तो है ही परंतु वह स्वयं बीवी, मां और बच्चों के साथ दिन-रात मेहनत कर
रहा है। इसे उसकी खेती में जाकर देखेंगे तो उसके हाथों में कभी एसटिपी की फाईप
होगी, कभी छोटे टॅक्टर का स्टेअरिंग होगा, कभी घूमने के लिए मंहिद्रा कॉन्टों का
स्टेअरिंग होगा, तो कभी भैस का दूध दुहाते हाथ भी होंगे
और कभी भैसों का गोबर साफ करते फावड़ा भी होगा। मतलब मेहनत, परिश्रम, लगन के साथ एक उदाहरण देनेलायक आदर्श किसान। इसकी खेती में उपजे
अंगूर दुबई और अन्य अरबी देशों में जाते हैं। पूरी खेती ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation) के तहत ‘रूटस्टाक’ के साथ। अंगूर की तासगणीस, थॉमसन, सोनाक्का, कृष्णा सिड़लेस, सुपर सोनाक्का की जातियां है। ऐसे रवि
पाटिल गांव-गांव में देखे जा सकते हैं। इन सबके साथ पढ़ाई को यहां के बच्चे नजंदाज
नहीं करते हैं। बड़ी गंभीरता और जिममेदारी के साथ पढ़ाई और मौका मिले तो नौकरी भी।
खेती को नगद पैसों के लिए किसी बैंक और साहूकार के पास जाने की जरूरत क्यों पड़े, अगर कोई घर का सरकारी या प्रायव्हेट
सेक्टर में नौकरी पर हो तो। घर का हो, पड़ोसी
हो, आत्मीय हो, दोस्त हो। मराठवाड़ा और विदर्भ में
साहूकार है लैटने के लिए। जिस प्रदेशों का जिक्र कर रहा हूं वहां साहूकार नाम की
जाति का आजादी के कुछ सालोंपरांत नामोनिशान मिट चुका है। संजीव के ‘फांस’ उपन्यास में और प्रत्यक्ष मराठवाड़ा और विदर्भ में साहूकारों के
कर्जतले दबकर आत्महत्या करनेवाले किसानों का प्रमाण अधिक है। आत्महत्या के इन
कारणों में नीतिगत फांस है,
इसे अपने हाथों से खोलना पड़ेगा।
संजीव
‘फांस’ में सरकारी नीतियों की आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं, "दिल्ली में ही बैठकर क्यों बना ली
सरकारों ने हमारे गांवों के कायाकल्प की योजना? क्यों
जगाए सपने, बी. टी. बीज की तरह बांझ सपने? मर गए लोग? हमसे पूछते, हम बताते, बड़े नहीं, छोटे-छोटे सपने चाहिए हमारे गांव को।
हवाई नहीं धरती के! गाय नहीं बकरी। फिर सबसे ऊपर दान नहीं। पानी। दान वापस ले लो।
हमें सिर्फ सिंचाई के लिए थोड़ा-सा पानी दे दो।" (फांस, पृ. 72) संजीव का यह लेखन नीतिगत गलतियों की और इशारा करता है। सरकार, पॉलिसी मेकर, कृषि विद्वान, कृषि अर्थशास्त्रज्ञ की गलतियां
किसानों के गले में फांस बनकर अटक जाती है। किसान की अपेक्षा भीक की नहीं है उसे
केवल पानी और ठोस सिंचाई व्यवस्था की जरूरत है। पानी की मांग भी मुफ्त नहीं पैसे
देकर। अतः सिंचाई को लेकर एक बार, सरकार
ने बेसिक इन्फ्रास्टक्चर खड़ा किया तो यह रोज-रोज की मौते बंद हो सकती है। विदेशी
गाय, विदेशी बीज, विदेशी पौधें, विदेशी नीतियां, विदेशी दवाइयां, विदेशी खाद और विदेश में पढ़े सो कॉल्ड
विद्वान (?), कृषिशास्त्री (?) और अर्थशास्त्री (?) भारतीय कृषि व्यवस्था की वाट लगा रहे
हैं और किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे में किसान किसानी
क्यों करेगा? उसका मन और दिल खेती में क्यों लगेगा?
संजीव
ने विदेशी बीजों से हुऐ नुकसान को स्पष्टता से लिखा है कि "मिलीबग नामक कीड़ा
बी. टी. के आने के पहले भारत में नहीं देखा गया था। बी. टी. मिलीबग को लेकर आया...
वैसे ही जैसे पीएल 480 नाम के अमेरिकन गेहूं के साथ आया था
जहरीला पौधा पर्थेनियम जो अब भारतीय हो गया है, नाम
– गाजर घास।" (फांस, पृ.
189-190) इस कीड़े और गाजर-घास से हरिभरी खेती
बर्बाद हो रही है। यह नीतिगत फांस नहीं तो और क्या है? इससे न केवल गेहूं और कपास की फसल
प्रभावित हो चुकी है उससे अन्य फसलों की बर्बादी भी हो गई है। इसके नियंत्रण की
जहरिली दवाइयों को ज्यादा छिड़का जा रहा है, इससे
वह बीमारी दुरुस्त होने की अपेक्षा खेती के लिए पोषक कृमि-कीटक मर रहे हैं और सारा
पर्यावरणीय संतुलन बिघड़ते जा रहा है। बी. टी. कॉटन के एक किलो बीज की फिलहाल कीमत 900 से 1200 रु. तक है और हमारा देशी कपास का बीज जो अब नष्ट हो चुका है जिसे
गांवठी (गांव का, देशी) कहा जाता है, वह मिलता था 7 से 10 रु. किलो। कितना अंतर। हां बी. टी. से उत्पादन बढ़ चुका है, परंतु किस कीमत को चुकाने के बाद। क्या
हम अपने देशी बीजों को विकसित कर उत्पादन बढ़ा नहीं सकते थे? आज भी कई प्रदेशों में किसान धान, गेहूं, जवार जैसी फसल के लिए देशी बीजों का इस्तेमाल करते हैं? हमारे खेती विषयक प्रयोग और नीतियां
प्रकृति को गंभीर रूप से हानि पहुंचा रही है। आज किसानों के दरवाजें में गमी है, दुःख है यह गैरजिम्मेराना हरकतवाली आग
धीरे-धीरे सारे देश को तबाह करेगी। जिस-जिस दिन भारत का किसान मरेगा उस-उस दिन
भारत के कृषि और कृषिप्रधानता होने की भी मौत है।
9.
हमारे
देश में किसान मर रहा है,
किसान आत्महत्या कर रहा है। हम वह
नैतिक अधिकार खो चुके हैं कि कहे ‘भारत
कृषिप्रधान देश है’, ‘भारत सुजलाम्-सुफलाम् है।‘ ऐसे कहने और यह बिरुदावली वहन करने का
हमें कोई अधिकार नहीं है। जिस देश में किसान की खेती से पराजीत होकर कर्जतले मौत
हो रही है, वह देश किसी भी हालत में कृषिप्रधान
होने का दांवा नहीं कर सकता है। हमारे देश का एक भी किसान मौत को गले लगा रहा है
तो वह दर्दनाक है। मौतों पर मौतें। क्या बता देती हैं? आत्महत्यारों का देश...! हत्यारो का देश...!
बी. बी. सी. ने दिल्ली की निर्भया दुर्घटना पर
‘इंड़ियाज डॉटर’ यह डाकुमेंट्री बनाई जिसे हमारे देश
में देखना और दिखाना बॅन किया है। कितना बड़ा उपहास है, हम कह रहे हैं कि ‘इसे देखने की क्या जरूरत है...! इसे तो
हम कर चुके हैं...! अंजाम दे चुके हैं...! ऐसे कृत्यों को करना हमारे बाएं हाथ का
खेल है...! नया क्या है इसमें...! देखे नहीं बॅन कर दे...!’ सवाल यह उठता है कि क्या हमारा देश
बलात्कारियों का देश है...?
क्या हमारा देश किसानों की हत्या
करनेवाला हत्यारा देश है...? क्या
हमारा देश उत्तर प्रदेश के रामपुर (या रावणपुर...?) जैसे है...?
जहां दो लड़कियों के साथ ग्यारह लड़कें
मिलकर शिकारी खेल, भद्दी गालियों के साथ, गंदा मजाग कर रहे हैं...? हम सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं – निर्लजता की हदों को पार कर।
किसानों
की आत्महत्या अब आत्महत्याएं नहीं है, यह
सारी हत्याएं हैं। इसका कोई न कोई अपराधी है, किसी
न किसी को इसकी सजा का पात्र मानना जरूरी है। दलाल, दुकानदार, ट्रांसपोटर, खरीरददार, उद्योगी, नौकरीपेशा, प्रशासक, अधिकारी, अफसर, बैंकर, साहूकार, राजनेता, बिजनेसमन, सरकारें... बहुत लंबी फेअरिश्त हैं, इन्हें किसानों का हत्यारा ठहराया जा
सकता है। क्या देश के किसी कोर्ट में, न्यायालय
में और न्यायमूर्ति में यह शक्ति है कि इन अपराधियों को हत्याओं का अपराधी मान सजा
दें...? न्यायालय और न्यायमूर्ति भी सरकारी
मुलाजिम है, किसानों का पक्षधर नहीं है। अर्थात्
चारों तरफ मिलीभगत और अंधाकानून है, किसानों
को सूली पर चढ़ाने के लिए। अतः किसान का मन खेती से भर चुका है कि भाई खेती करना
हमारा अपराध है, तो इस जन्म में हमें मुआफ कर दें, गलती हो गई, अगले जन्म में खेती से हम वास्ता नहीं
रखेंगे और हमारी अगली पीढ़ी भी खेती से तलाक लेना चाहती है। तलाक... तलाक... तलाक....! यह अत्यंत निराशा और हार की स्थिति में किसानों
से लिया गया निर्णय है। इन दर्दनाक स्थितियों में किसान खेती करे तो क्यों करे? उस किसान का एक बच्चा होने के नाते
मेरे और मेरे पिता के मन में पुरखों से उठे यह सवाल है। हमारी भी खेती से दयनीय
हालात थे, पिता ने इसी धंधे को आगे बढ़ाने के लिए
हम पर कभी जोर दिया नहीं और हमारा मन भी दयनीयता से विद्रोह कर उठा कि खेती हमारा
आर्थिक स्रोत नहीं रहेगा। दुनिया के पेट का दुनिया सोचेगी...! हमारे पेट-पानी का
उसने कभी सोचा नहीं तो उनके पेट-पानी का हमें सोचने की जरूरत नहीं। अगले जन्म का
भरौसा और उसके लिए पुण्य कमाना बेमानी है, स्वार्थी
दुनिया का छल और पाखंड़ है। अतः इस जन्म में हमसे खेती नहीं होगी और अगली पीढ़ी भी
खेती नहीं करेगी का विद्रोहात्मक परचम किसानों की पीढ़ी गाढ़ चुकी है, इस सवाल के साथ कि खेती से किसान मन
क्यों लगाए?
संजीव
ने ‘फांस’ उपन्यास के माध्यम से बिल्कुल इस प्रकार के कई सवाल हमारे सामने रखे
हैं। संजीव ने पी. साईनाथ द्वारा बनाई डाकुमेंट्री ‘नीरोज गेस्ट’
का जिक्र किया है, जिसमें किसानों की आत्महत्या केंद्र
में है। पी. साईनाथ और संजीव ने भी यह सवाल उठाया है कि किसी फॅशन शो में मॉड़लों
के फोटो खिंचने के लिए हजारों कॅमरे दौड़ते हैं, परंतु
किसान आत्महत्याओं (हत्याओं) पर मीड़िया और कॅमरे चुप है। पी. साईनाथ जी आप खुशनसीब
है कि आपकी डाकुमेंट्री हमारी न्याय-व्यवस्था के नजरों में नहीं आई नहीं तो वह भी ‘इंड़ियाज डॉटर’ जैसे बॅन हो सकती थी! शायद
न्याय-व्यवस्था ‘नीरोज गेस्ट’ के अर्थ को विधि कोशों में ढूंढ़ने में
नाकाम रही! हां अगर आप ‘इंड़ियाज फार्मर’, ‘बल्डी आयज’ या ‘मूर्दा देश’
जैसा शीर्षक दे देते तो बॅन होने के
चांसेस ज्यादा थें।
खबरें
छपती हैं, रिपोर्टे बनती हैं तो उसे कोई पढ़ता नहीं, गंभीरता से सोचना तो दूर की बात है।
पी. साईनाथ की डाकुमेंट्री को आलेख लिखने से पहले देखा अत्यंत भयानक वास्तव है।
इसी डाकुमेंट्री के भीतर एक दृश्य है, पी.
साईनाथ को संसद में सुना जा रहा है। संसद में बैठे उस समय की सत्ताधारी
कांग्रेस-मिलीभगत पार्टियां और विरोधी पार्टियां बड़े शांति के साथ सुन रही है। देश
की संपूर्ण संसद सफेदपोश कपड़ों में मानो किसी की मौत पर शोक मनाने के लिए आई
हो...! क्या इस रिपोर्ट को सुनने के बाद कुछ ठोस कदम उठाए गए? एक ही शब्द में उत्तर है ...नहीं। हां
अगर कुछ हलचल मची होगी तो यह कि राहुल गांधी किसानों की मौत के पश्चात किसान
आत्महत्या कर चुके अमरावती जिले के दस गांवों की पदयात्रा कर चुके। किसानों के
खेतों में फुल ए. सी. की हवा के साथ व्हीआयपी गाड़ियां, मीड़िया धूल उड़ाती रही। क्या यह मीड़िया
के ऍटेंशन के लिए किसान आत्महत्याओं के पश्चातवाला पींड़दान था?
विस्वास
पाटिल द्वारा लिखित उपन्यास ‘पांगीरा’ और सदानंद देशमुख द्वारा लिखित उपन्यास
‘बारोमासा’ किसानों की दयनीयता को वर्णित करता है।
‘पांगीरा’ पर 2011 को मराठी भाषा में और ‘बारोमासा’ पर 2016 को हिंदी भाषा में फिल्म बनी है। संजीव ने जैसे ‘नीरोज गेस्ट’ का जिक्र किया है, वैसे ही ‘बारोमासा’ का भी। इसके अलावा मराठी भाषा में बनी ‘गाभ्रीचा पाऊस’ (2008) किसानों की आत्महत्या पर प्रकाश
डालनेवाली और वास्तविक चित्रण करनेवाली फिल्म है। व्यंकटेश माड़गुळकर द्वारा लिखित ‘बनगरवाड़ी’ उपन्यास और इसी नाम से 1995 में बनी निर्देशक अमोल पालेकर की
मराठी फिल्म भी सूखे और अकाल से पीड़ित किसानों के वास्तव पर प्रकाश डालती है। इन
उपन्यासों के बेसिक अंतर पर एक टिप्पणी करना अत्यंत जरूरी है। ‘पांगीरा’ की पृष्ठभूमि कोल्हापुर है और ‘बनगरवाड़ी’ की पृष्ठभूमि सांगली जिले का आटपाड़ी
तहसील है। यह दोनों जिले पश्चिम महाराष्ट्र के हैं, इन उपन्यास में और साथ ही साथ फिल्म में किसानों की जिंदगी के साथ
जबरदस्त लड़ाई है। किसी भी किसान की आत्महत्या नहीं परंतु ‘बारोमासा’ और ‘फांस’ की पृष्ठभूमि विदर्भ, ‘नीरोज गेस्ट’ पूर्णतः वास्तववादी मराठवाड़ा और विदर्भ
तथा ‘गाभ्रीचा पाऊस’ फिल्म की पृष्ठभूमि खांदेश-विदर्भ है।
जिसमें खेती के साथ लड़ाई है, परंतु
लड़ाई के बाद घोर निराशा, उपेक्षा से आत्महत्या है। पश्चिम
महाराष्ट्र, विदर्भ, खांदेश और मराठवाड़ा पर लिखा यह साहित्य और बनी फिल्मों में समय और
वर्षों का अंतर है। सूखे और अकाल से हुई हानि में भी अंतर है। परंतु महाराष्ट्र और
देश के नागरिक होने के नाते इन हालातों को हम देख चुके हैं, उस प्रदेश और इस प्रदेश को भी।
मानसिकता बदलनी पड़ेगी; सरकार, पॉलिसी मेकरों को और किसानों को भी। राहत पॅकेज की मांग किसान भी ना
करें और सरकार भी उसे देकर हाथ झटक ना दें। जरूरी है निश्चित, दूरगामी ठोस सिंचाई व्यवस्था को अंजाम
तक लेकर जाने की। कोई ठोस इंतजाम अगर नहीं होंगे तो मौतों का सिलसिला ना रूकेगा और
किसानों के सवाल ‘खेती से किसान मन क्यों लगाए?’ का उत्तर भी नहीं मिलेगा। किसान नेताओं
का निर्माण, उनकी नीतियां किसाननुकूल, विज्ञानवादी और आधुनिक होना भी जरूरी
है। खेती को रूढ़ि और परंपरागत ढर्रे से बाहर निकालकर सिंचाई के साथ प्रगति के
रास्तों पर लेकर जाना मौतों, हत्याओं
और आत्महत्याओं को रोक सकता है।
समीक्षित पुस्तक
- फांस (उपन्यास) – संजीव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,पेपर बैक प्रथम संस्करण - 2015, द्वितीय संस्करण - 2016, पृष्ठ - 257, मूल्य – 200 रु.
डॉ.विजय शिंदे
देवगिरी
महाविद्यालय, औरंगाबाद-431005 (महाराष्ट्र),मो-08275354589
i want this book plz contact me on 9982988245
जवाब देंहटाएंHam app ke bichar ko pranam karte hai
जवाब देंहटाएंPiz contact me 8545068041
जवाब देंहटाएंAjit Kumar
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें