त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
सूर का काव्य और
किसान-जीवन/ मैनेजर पाण्डेय
हिंदी साहित्य
में महात्मा सूरदास को तो बहुत सम्मान मिला है, लेकिन महाकवि सूरदास के महत्व की व्याख्या करने वाला
आलोचनात्मक विवेक विरल ही है। हर अच्छी कविता की तरह सूर की कविता भी श्रद्धा से
अधिक समझ की मांग करती है। रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर के
काव्य की व्याख्या को जहाँ छोड़ा था वहाँ से आज भी वह बहुत आगे नहीं बढ़ी है।
आचार्य शुक्ल की आलोचना से सूर की कविता के विशिष्ट स्वरूप की पहचान की शुरुआत
हुई। उन्होंने सूर की सहृदयता, कल्पनाशीलता,
तन्मयता, नवीन प्रसंगों की उद्भावना शक्ति, वाग्विदग्धता और काव्यभाषा की अपूर्व सृजनशीलता की व्याख्या
करते हुए सूर-साहित्य की आलोचना का मार्ग बनाया। लेकिन उनकी आलोचना में कुछ ऐसे
आग्रह भी हैं, जिनसे सूर की
परवर्ती आलोचना भी प्रभावित हुई है। उनका एक आग्रह यह है कि सूर के काव्य में
लोक-संग्रह का अभाव है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है : "सूरदास जी अपने भाव में
मग्न रहनेवाले थे, अपने चारों ओर की
परिस्थिति की आलोचना करने वाले नहीं। संसार में क्या हो रहा है, लोक की प्रवृत्ति क्या है, समाज किस ओर जा रहा है इन बातों की ओर उन्होंने
अधिक ध्यान नहीं दिया है।" (सूरदास, पृ. 191)
हजारीप्रसाद द्विवेदी के सामने शुक्ल जी की
सूर-संबंधी मान्यताएँ थीं इसलिए उन्होंने शुक्ल से भिन्न दृष्टि से सूर के काव्य
को देखा, कहीं शुक्ल जी की
मान्यताओं का विरोध किया है तो कहीं विकास भी। द्विवेदी जी ने सूर की काव्यानुभूति
की शास्त्र-निरपेक्षता और रचनादृष्टि की नवीनता की व्याख्या की है और उनके
कवि-व्यक्तित्व की स्वाधीनता, प्रेम के
विद्रोही स्वभाव, सूरसागर में
स्त्री-चरित्र की प्रधानता, पदों की
रचनापद्धति की मौलिकता आदि का मूल्यांकन किया है। इस तरह सूर के काव्य की
लोकोन्मुखता और सामाजिकता उजागर हुई है।
बाद के दिनों में सूर-साहित्य की व्याख्या के
लिए जो सत्संगी आलोचना आगे आई, उसकी दिलचस्पी
महात्मा सूरदास में अधिक थी और महाकवि सूरदास में कम। इस आलोचना में बुद्धि की जगह
श्रद्धा ने ले ली। फिर 'चौरासी वैष्णवों
की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' के आधार पर सूर के जीवन और काव्य में वल्लभ
संप्रदाय के छाप की खोज होने लगी। लक्ष्य था सूर को 'पुष्टिमार्ग का जहाज' सिद्ध करना, ताकि आलोचना
लोक-परलोक दोनों को सुधारने का साधन बन सके। सूर-साहित्य की व्याख्या में सत्संगी
आलोचना की भी वही भूमिका है जो तुलसी-साहित्य के प्रसंग में कथावाचकों की परंपरा
की।
भक्तिकाव्य और
प्रगतिशील आलोचना
रामचंद्र शुक्ल
और हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना-दृष्टियों को, और साथ ही भक्तिकाव्य की उनकी व्याख्याओं को विकसित करने का
प्रयत्न प्रगतिशील आलोचकों ने किया है। प्रगतिशील आंदोलन के आरंभ से ही भक्ति
आंदोलन और उसके काव्य के मूल्यांकन का प्रश्न प्रगतिशील आलोचकों के बीच उग्र विवाद
का विषय रहा है और आज भी है। हाल के वर्षों में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के
बीच अपनी-अपनी परंपराओं की खोज और रक्षा के लिए आलोचना का जो महाभारत हुआ है,
उसका कुरुक्षेत्र भक्तिकाव्य ही है। प्रायः
प्रगतिशील आलोचना में भक्तिकाव्य पर बहस के केंद्र में कहीं कबीरदास हैं तो कहीं
तुलसीदास। यह आश्चर्य की बात है कि इन बहसों के केंद्र में सूरदास कहीं दिखाई नहीं
देते। वे अगर कहीं हैं तो हाशिए पर।
इसका कारण बहुत रहस्यमय नहीं है। प्रगतिशील
आंदोलन के आरंभिक दौर की आलोचना में कविता की जो समझ थी और साहित्य में समाज को
खोजने की जो पद्धति थी, उसके लिए कबीर और
तुलसी के काव्य का अपनाव और उपयोग आसान था। वह आलोचना कविता में सतह पर तैरती
विचारधारा और सामाजिक यथार्थ के प्रत्यक्ष वर्णन की खोज करती थी। ये दोनों बातें
कबीर और तुलसी के काव्य में आसानी से मिल जाती थीं, इसीलिए उस ओर आलोचना का झुकाव स्वाभाविक था। सूर की कविता
की विशिष्ट बनावट के भीतर समाविष्ट समाज और सामाजिक चिंता को वह आलोचना देख नहीं
पाती थी। यही कारण है कि सूर हाशिए पर रहे।
सूरदास न कबीर की तरह समाज-सुधारक हैं और न
तुलसी की तरह उपदेशक। उनके काव्य में कबीर के समान उस समय के समाज की कड़ी आलोचना
नहीं है और न, तुलसी के समान
समाज की व्यवस्था तथा मर्यादा की रक्षा का आग्रह। वे प्रेम और सौंदर्य के अनंत
अनुभवों के अनुपम शब्द-शिल्पी हैं। सूर की कविता विचारधारात्मक बयान देने वाली
बातूनी कविता नहीं है। यहाँ तक कि उन्हें जिस वल्लभ संप्रदाय का कवि कहा जाता है,
उसके आग्रहों से भी उनकी कविता मुक्त ही है।
उनकी कविता पर वल्लभ संप्रदाय की छाप लगाने और सूरसागर को भागवत का अनुवर्ती बनाने
का काम बाद में संप्रदाय के सेवकों ने किया है। सूरसागर में लोक-चिंता
काव्यानुभूति के प्रवाह में अंतर्धारा की तरह है, सतह पर तैरती लकड़ी जैसी नहीं। उसमें समाज का प्रत्यक्ष
वर्णन कम है, परंतु मानवीय
संबंधों के चित्रण और काव्यभाषा की संरचना में उस काल की सामाजिक वास्तविकता के
चित्र और प्रतिबिंब मौजूद हैं। वहाँ भाषा के लाक्षणिक प्रयोग सामाजिक अनुभवों और
सच्चाइयों की ओर इशारा करते हैं। सूरदास सामाजिक यथार्थ का सीधे वर्णन करने के
बदले उसके अनुभव का अभिव्यक्ति के उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं।
सूर की कविता अपने समय के समाज के पीछे चलने या
उसकी आलोचना करने के स्थान पर उस सामंती समाज की व्यवस्थाओं, संस्थाओं और रूढ़ियों के दमनकारी प्रभावों का
निषेध करती हुई एक ऐसे समाज की रचना करती है जिसमें लोक और शास्त्र के बंधनों से
स्वतंत्र मानवीय भावों और मानवीय संबंधों का सहज स्वाभाविक विकास संभव हुआ है।
उनकी कल्पना के वृंदावन में वात्सल्य की चरम सहजता और प्रेम की परम स्वतंत्रता का
अनुभव सामंती सामाजिकता के आतंक से एकदम मुक्त है। भक्तिकाल के दूसरे कवियों ने भी
कल्पना लोकों की सृष्टि की है। जायसी का 'सिंहलद्वीप' और तुलसी का 'रामराज्य' कल्पना लोक ही है। सूर का वृंदावन जायसी के सिंहलद्वीप और
तुलसी के रामराज्य की तुलना में उस काल के सामंती समाज की सीमाओं से अधिक स्वतंत्र
है। उसमें स्वतंत्र मानवीय संबंधों की आकांक्षा अधिक मूर्त और ग्राह्य रूप में
व्यक्त हुई है। वह मानवीय भावों की शक्ति और मानवीय संबंधों के सौंदर्य का बोध
जगाने वाला कल्पनालोक है। इसी विशेषता के कारण सूर का काव्य अपने समय की पुकार
होते हुए भी कालातीत भी है। नाभादास ने भक्त कवियों में केवल सूरदास को 'कवियों का कवि' ठीक ही कहा है : 'सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै।'
सूरदास कवियों के कवि इसलिए भी हैं कि उन्होंने
ब्रजभाषा-काव्य की जो परंपरा निर्मित की, वह बाद के लगभग चार सौ वर्षों तक चलती रही। सूर को समाज और साहित्य से जो
ब्रजभाषा मिली थी उसे पहले से अधिक विकसित, परिष्कृत और अभिव्यंजक बनाकर उन्होंने बाद के कवियों को
सौंपा। तभी वह चार सौ वर्षों तक काव्यभाषा बनी रही। यद्यपि सूर की कविता बाद को
कवियों के लिए कठिन चुनौती साबित हुई; क्योंकि आचार्य शुक्ल के शब्दों में, "वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्र में तो इस महाकवि ने मानो
औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।" फिर भी परवर्ती काव्य-परंपरा पर सूर का
प्रभाव पड़ा है। वे तुलसी की तरह अपनी परंपरा के अंतिम कवि नहीं हैं, एक विशाल काव्य-परंपरा के प्रवर्तक कवि हैं।
उनके वात्सल्य चित्रण की अद्वितीयता आज भी अक्षुण्ण है, जिसके अनुकरण का प्रत्येक प्रयत्न दुस्साहस साबित हुआ है।
लेकिन उनके शृंगार की परंपरा जरूर आगे चली है, पर उसमें लोकगीतों का वह उत्सवधर्मी संगीत नहीं है जो सूर
के प्रेम की मुख्य विशेषता है।
सूर-साहित्य की आलोचना के इतिहास से स्पष्ट है
कि अच्छी कविता में अंतर्निहित समाज और लोक-चिंता की पहचान का काम सचमुच कठिन है।
कवि के भौतिक परिवेश और कविता के विचारधारात्मक आग्रहों के आस-पास ही मँडराने वाली
आलोचना के लिए तो वह और भी दुष्कर है। यद्यपि आचार्य शुक्ल मानते थे कि सूर की
कविता में लोक-संग्रह का अभाव है, फिर भी उनकी
आलोचना में ऐसे अनेक सूत्र और संकेत हैं, जिनके सहारे उस काव्य में कहीं प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त और कहीं परोक्ष रूप
से व्याप्त लोक-चिंता की खोज संभव है। परंतु बाद के कुछ आलोचकों ने शुक्ल जी के
संकेतों की दिशा को समझकर आगे बढ़ने के बदले उन संकेतों को ही लक्ष्य मान लिया और
उन्हें सिद्ध करने की कोशिश की।
सूर का
गोचारण-काव्य
आचार्य शुक्ल का
संकेत यह है कि सूरसागर में पशुचारण-काव्य की प्रवृत्ति मिलती है। उन्होंने लिखा
है, : 'बाललीला के आगे फिर उस
गोचारण का मनोरम दृश्य सामने आता है, जो मनुष्य जाति की अत्यंत प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों का काव्य का
प्रिय विषय रहा है। यूनान के पशुचारण-काव्य का मधुर संस्कार यूरोप की कविता पर अब
तक कुछ न कुछ चला ही आता है। कवियों को आकर्षित करने वाली गोप-जीवन की सबसे बड़ी
विशेषता है प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में विचरने के लिए सबसे अधिक अवकाश। कृषि,
वाणिज्य आदि और व्यवसाय जो आगे चलकर निकले,
वे अधिक जटिल हुए -- उनमें उतनी स्वच्छंदता न
रही।' (सूरदास, पृ. 160)
आचार्य शुक्ल के अनुसार, समाज के विकास के साथ पशुचारण-काव्य का भी विकास हुआ है।
कृषि तथा व्यापार के युगों में भी गोचारण-काव्य रचा जाता है; क्योंकि कृषि और व्यापार की व्यवस्थाओं से उपजी
जटिलताओं से निकलकर प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में विचरने की मानवीय आकांक्षा की
अभिव्यक्ति का एक माध्यम है गोचारण-काव्य। तात्पर्य यह कि गोचारण-काव्य सामंती और
पूंजीवादी समाजों के जटिल बंधनों से मानव-मन की मुक्ति में सहायक बनता है। इस तरह
कभी-कभी मानव समाज के इतिहास के सुदूर अतीत की स्मृति भी भविष्य की संभावनाओं की
तलाश में मनुष्य की मदद करती है। आधुनिक युग में भी किसी न किसी रूप में
गोचारण-काव्य की रचना का यही रहस्य है।
यूरोप में पशु-चारण-काव्य की परंपरा अत्यंत
लंबी और समृद्ध है। यूनान के थिओक्रिटस और रोम के वर्जिल से शुरू होकर अंग्रेजी के
स्पेंसर, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ आदि से होती हुई पशु-चारण-काव्य की
परंपरा बीसवीं सदी तक चली आई है। जाहिर है, समाज के इतिहास के साथ पशु-चारण-काव्य का रूप ही नहीं,
उसका प्रयोजन भी बदलता रहा है। विकास की
प्रत्येक अवस्था में उसके स्वरूप का समकालीन सामाजिक संबंधों से गहरा रिश्ता दिखाई
देता है और उसके सामाजिक, नैतिक तथा
भावात्मक प्रयोजनों पर समकालीन जीवन का गहरा प्रभाव पड़ता रहा है। वहाँ के आलोचक
पशु-चारण-काव्य के विकास और परिवर्तन के बारे में सजग दिखाई देते हैं। वे
वर्ड्सवर्थ की पशु-चारण संबंधी कविता में वर्जिल के पशु-चारण-काव्य की विशेषताएँ
नहीं खोजते। लेकिन हिंदी के आलोचक सूर के गोचारण-काव्य में आदिम गोचारण-काव्य
मानते दिखाई देते हैं। भारतीय कविता में गोचारण-काव्य की परंपरा यूरोप के समान सघन
और समृद्ध नहीं है। यहाँ वैसी निरंतरता भी नहीं है। फिर भी, यहाँ जो है वह गोचारण संबंधी ग्वाल-गीतों के रूप में मिलता
है, जबकि यूरोप का
पशु-चारण-काव्य मुख्यतः गड़ेरियों के गीतों से जुड़ा हुआ है। हिंदी में
गोचारण-काव्य की प्रवृत्ति का सार्थक प्रयोग केवल सूर के काव्य में है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जब कहते हैं कि सूरसागर
में बाललीला के बाद गोचारण का मनोरम दृश्य सामने आता है तब उनका आशय यह नहीं है कि
सूर का संपूर्ण काव्य गोचारण-काव्य है, और यह भी नहीं कि वह प्रागैतिहासिक पशु-चारण-काव्य है। फिर भी हिंदी के कुछ
आलोचकों ने सूरदास को चरागाह संस्कृति का कवि घोषित कर दिया है। और तो और, डॉ. रामविलास शर्मा भी सूर को पशुपालकों का कवि
मानते हैं। उन्होंने सन् 1984 में लिखा था,
"कबीर शहरी कारीगरों के,
सूर पशु-पालकों के, तुलसी किसानों के जीवन से जुड़े हुए हैं। दार्शनिक मतवाद की
छानबीन में विवेचक इनके भौतिक परिवेश की विशेषताएँ भूल जाते हैं। किसान-जीवन के
चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं, वे तुलसी के काव्य की विशेषताएँ हैं।" (मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य,
पृ. 344) साल-भर बाद ही उन्होंने 'लोकजागरण और हिंदी साहित्य' में लिखा, "किसान-जीवन के चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं -- मेरी यह बात केवल
सापेक्ष रूप में सही है। कबीर और सूर किसान-जीवन से परिचित हैं पर इस जीवन की
समग्रता तुलसी के काव्य में है, उस युग के अन्य
किसी कवि में नहीं।" (पृ. 74)
साल-भर के भीतर डॉ. रामविलास शर्मा के मत में
यह परिवर्तन और फिर उसका स्वीकार आश्चर्यजनक है, लेकिन स्वीकार की शैली और भी चकित करने वाली है। किसान-जीवन
से कबीर और सूर के संबंध की बात आधे मन से मानने के साथ ही इस पूर्वग्रह को पहले
से अधिक जोर देकर दोहराया गया है कि उस युग में किसान-जीवन के प्रतिनिधि कवि
तुलसीदास हैं, कोई और नहीं।
क्या सचमुच ऐसा है कि सूरदास तो किसान-जीवन से सिर्फ परिचित हैं, लेकिन तुलसी किसानों के प्रतिनिधि कवि? आखिर किसान-जीवन की वह कौन-सी समग्रता है जो
तुलसी के काव्य में है, पर सूर या उस युग
के किसी अन्य कवि में नहीं? इन प्रश्नों का
उत्तर पाने के लिए कवियों के काव्य-संसार के भीतर जाना होगा, उनके केवल भौतिक परिवेश को याद रखना पर्याप्त
नहीं होगा; क्योंकि तीनों महाकवियों
के भौतिक परिवेश की बात उलझी हुई है। कबीर कारीगर हैं, लेकिन सूर पशुपालक नहीं। तुलसी के किसान होने का कोई प्रमाण
नहीं है। ऐसी स्थिति में इन कवियों के भौतिक परिवेश की बात सापेक्ष रूप में ही सही
है।
गोचारण-प्रसंग और
किसान-जीवन
यहाँ हमारा
लक्ष्य केवल सूर के काव्य-संसार से किसान जीवन के संबंध का विवेचन है। आइए,
पहले से हम यह देखें कि सूरसागर के
गोचारण-प्रसंग का किसान जीवन से कोई संबंध है या नहीं। सोलहवीं सदी के भारतीय समाज
का कवि प्रागैतिहासिक गोचारण का कवि कैसे हो सकता है? सूर के काव्य में ऐसा समाज है जिसमें पशुपालन कृषिव्यवस्था
का अंग है और गोचारण किसान-जीवन के व्यापक अनुभवों का हिस्सा। ग्राम-समाज और
किसान-जीवन में लोक-अनुभव और लोक-कला के पुराने रूप बहुत दिनों तक जीवित रहते हैं,
इसलिए उस समाज और जीवन से जुड़ी कविता में नए
के साथ पुराने अनुभवों और कलारूपों का आना स्वाभाविक है। सूर के काव्य में गोचारण
का जो चित्रण है उसमें उस काल के गोचारण संबंधी अनुभवों के साथ अतीत के अनुभवों की
स्मृति भी है, उनके गोचारण-गीतों
में पुराने ग्वाल-गीतों की अनुगूँज मौजूद है। इसलिए सूरसागर के गोचारण-गीतों को
चरागाह संस्कृति की कविता या आदिम गोचारण-काव्य समझना गलत है। सूर का काव्य अपने
समय और समाज से जुड़ा हुआ काव्य है।
कविता में जीवन के यथार्थ और अनुभव की
अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है -- प्रत्यक्ष और सांकेतिक। एक में यथार्थ और
अनुभव का सीधा वस्तुपरक वर्णन होता है और दूसरे में अलंकारों, बिंबों, प्रतीकों तथा भाषा के अन्य इशारों के माध्यम से कवि यथार्थ
और अनुभव की ओर संकेत करता है। प्रत्यक्ष रूप में चित्रित यथार्थ और अनुभव की
पहचान सरल होती है, लेकिन जहाँ
सांकेतिकता होती है वहाँ पहचान की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। सूर के काव्य में
किसान-जीवन दोनों रूपों में है। यहाँ किसान-जीवन के यथार्थ का जितना प्रत्यक्ष
चित्रण है, उससे अधिक किसान-जीवन के
अनुभवों की सांकेतिक व्यंजना है। विनय के पदों में किसान-जीवन के यथार्थ के
प्रातिनिधिक चित्र अधिक हैं, जबकि भ्रमरगीत
में मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों और अलंकारों के माध्यम से उस जीवन
के अनुभव सांकेतिक रूप में आए हैं।
किसान-जीवन की पहचान है खेती। वही उस जीवन का
सबसे बड़ा यथार्थ भी है। खेती की पूरी प्रक्रिया का समग्र चित्र सूर के इस पद में
है :
प्रभु जू यौं कीन्हीं हम खेती
बंजर भूमि गाउं हर जोते, अरु जेती की तेती।
काम क्रोध दोउ बैल बली मिलि, रज तामस सब कीन्हौं।
अति कुबुद्धि मन हांकनहारे, माया जूआ दीन्हौं।
इन्द्रिय मूल किसान, महातृन अग्रज बीज बई।
जन्म जन्म को विषय वासना, उपजत लता नई।
कीजै कृपादृष्टि की बरषा, जन की जाति लुनाई।
सूरदास के प्रभु सौ करियै, होई न कान-कटाई।
(सूरसागर, भाग- 1, पद सं. 185)
इस रूपक में खेती
से संबंधित सभी आवश्यक बातें आ गई हैं; खेती के साधन, उसकी प्रक्रिया,
कठिनाइयाँ और किसान के श्रम को कभी सार्थक,
कभी निरर्थक बनाने वाली वर्षा भी।
सूर के काव्य में खेती से जुड़ी हर छोटी-बड़ी
बात का जितना आत्मीय ज्ञान है, वह किसान-जीवन से
तादात्म्य के बिना संभव नहीं। उसमें खेती की भूमि के गुण-धर्म की पूरी पहचान है।
कहीं बंजर भूमि की चर्चा है तो कहीं ऊजड़ जमीन की -- "ज्यौं ऊजर खेरे की
पुतरी को पूजै को मानै।" कभी-कभी किसान खाल खेत को पाटकर खेती के योग्य बनाता
है। सूर ने इस प्रक्रिया की ओर संकेत किया है – ‘सूर खाल किन पाटत।’ विभिन्न पौधों की प्रकृति और वर्षा से उनके संबंध का जैसा ज्ञान सूर को है,
वैसा किसी किसान को ही होगा। धान का पौधा पानी
की कमी से मुरझाकर मर जाता है। कृष्ण के बिना गोपियों की यही दशा है – ‘सूखति सूर धान अंकुर सी, बिनु बरसा ज्यों मुल तुई।’ कुछ पौधे नमी की कमी से मरते हैं तो कुछ नमी की अधिकता से।
उन्हें एक साथ उपजाने की कोशिश व्यर्थ है, जैसे कि प्रेम के साथ योग को रखने की कोशिश : ‘सूरदास तीनौ नहिं उपजत धनियाँ धान कुम्हाड़े।’ सूरदास जानते हैं कि खेती के लिए पौधों के
समुचित विकास के लिए निराई आवश्यक है, इसलिए लिखा है – ‘जैसे प्रथम अषाढ़
आजु तृन खेतिहर निरखि उपाटत।’ यहाँ निराई की
केवल सूचना नहीं है, निराई की पूरी
प्रक्रिया का चित्र सामने आता है। यह चित्रमयता सूर की काव्यभाषा की स्थायी
विशेषता है।
तुलसी के काव्य में भी खेती से संबंधित कुछ
बातें मिल जाती हैं। उनमें से एक यह है – ‘कृषि निरावहिं चतुर किसान।’ कुछ तुलसी-भक्त
इसको बार-बार उद्धृत करते हुए यह कहते हैं कि उस युग में किसानों के प्रतिनिधि कवि
केवल तुलसीदास हैं। शायद वे यह नहीं जानते कि तुलसी के पहले और अधिक काव्योचित ढंग
से यही बात सूरदास कह चुके हैं। लगता है कि भक्तिकाव्य में ज्ञान से भक्ति का
स्थायी विरोध भले ही न हो, लेकिन भक्तिकाव्य
की हिंदी आलोचना में भक्ति का ज्ञान से स्थायी विरोध जरूर है।
खेती के साथ-साथ किसान-जीवन का एक और
महत्वपूर्ण पक्ष है पशुपालन। यह आज भी किसान-जीवन की वास्तविकता है। सूर के समय
में तो पशुपालन का खेती से संबंध और भी घनिष्ठ रहा होगा। यही कारण है कि
किसान-जीवन से जुड़े कवि के लिए पशु-प्रकृति की पहचान जरूरी है। विशेषतः गोपाल की
लीला के गायक कवि के लिए तो गाय के रूप, रंग और स्वभाव में गहरी दिलचस्पी अनिवार्य है। सूर के विनय के पदों में गाय के
स्वभाव से संबंधित अनेक रूपक हैं। एक पद में हरही गाय के स्वभाव का विस्तृत वर्णन
है.:
माधौ जू, यह मेरी एक गाई
अब आज तैं आप आगैं दई, लै आइयै चराई।
यह अति हरहाई, हटकत हूँ बहुत अमारग जाति।
फिरति वेद-वन-ऊख उखारति, सब दिन अरू सब राति।
हित करि मिलै लेहु गोकुलपति, अपने गोधन माँह। (1/51)
गायों के रूप,
रंग और व्यवहार का वर्णन गोचारण-प्रसंग में भी
हुआ है। वहाँ गायों के रूप-रंग के अनुसार उनके नामों का भी उल्लेख है :
अपनी-अपनी गाई ग्वाल सब, आनि करौ इक ठौरी।
धौरी, धूमरि, राती, रौंधी, बोल बुलाइ चिन्हौरी।
पियरी, मौरी, गोरी, गैनी, खैरी, कजरी, जेती।
दुलही, फुलही, भौंरी, भूरी, हाँकि ठिकाई तेती। (1/1063)
गायों के नाम, रूप और स्वभाव का यह वर्णन उन लोगों को विचित्र लगेगा जो
डेयरी का दूध पीकर जवान हुए हैं, लेकिन गाँव वालों
के लिए आज भी गायों के ये नाम सहज और आत्मीय हैं।
सूर के काव्य में जिस किसान-जीवन का चित्रण है,
उसका एक विशेष सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ है।
वह संदर्भ सामंती व्यवस्था का है, जिसके भीतर
किसान-जीवन के अनुभव का स्वरूप बना है। सूर की विशेषता यह है कि उन्होंने
सामंती-व्यवस्था के संदर्भ के साथ किसान-जीवन के अनुभवों का चित्रण किया है। उसमें
सामंती-व्यवस्था के अत्याचार और किसानों की यातना को मूर्त और इंद्रियग्राह्य
बनाने के लिए रूपका का सहारा लिया गया है। एक रूपक में किसानों की निर्धनता के
कारण लगान देने में असमर्थता, सामंतों की लूट
और उनके कपटी कर्मचारियों के अनाचार का वर्णन इस रूपक में है :
अधिकारी जम लेखा मांगै, तातैं हौं आधीनौ।
घर मैं गथ नहीं भजन तिहारौ, जौन दिय मैं छूटौं।
धर्म जमानत मिल्यौ न चाहै, तातैं ठाकुर लूटौ।
अहंकार पटवारी कपटी, झूठी लिखत बही।
लागै धरम, बतावै अधरम, बाकी सबै रही।
सोई करौ जु बसतै रहियै, अपनौ धरियै नाउँ।
अपने नाम की बैरख बांधौ, सुबस बसौं इहिं गाउँ।
(सूरसागर,
1/185)
सामंती-व्यवस्था में लगान की लूट के साथ
सूदखोरी की प्रथा भी किसानों को तबाह करती रही है। भारतीय किसान-जीवन के नए-पुराने
सभी लेखकों की रचनाएँ इस बात की गवाही देती हैं। सूरदास ऋण की प्रथा की क्रूरता से
खूब परिचित हैं, इसीलिए लिखा है :
सबै कूर मोसों ऋण चाहत, कहौ कहा तिन दीजै।
बिना दियै दुख देत दयानिधि, कहौ कौन विधि कीजै।
(सूरसागर,
1/196)
इस पद में ऋण की
प्रथा से संबंधित अधिकतर पक्षों का उल्लेख है। ऋण की प्रथा का शोषण की व्यवस्था से
गहरा संबंध होता है, इसलिए उसका
विस्तार सामंतवाद से पूँजीवाद तक और पड़ोस के महाजन से विदेशी बैंकों तक दिखाई
देता है। सूर के मन पर ऋण-प्रथा की क्रूरता का इतना गहरा प्रभाव है कि वे गोपियों
की विरह-वेदना की गंभीरता व्यक्त करने के लिए उसका लाक्षणिक उपयोग करते हैं –
‘सूर मूर अक्रूर लै गयो, ब्याज निवेरत ऊधौ।’ कृष्ण मूलधन है और उनकी स्मृति ब्याज है, मूलधन तो अक्रूर ले गए पर अब ब्याज वसूल करने उद्धव आए हैं।
मूलधन लौटाने से अधिक दुखदायी होता है ब्याज देना, इसलिए उद्धव का व्यवहार गोपियों को अधिक पीड़ादायक लगता है।
सामंती व्यवस्था के सेवक पुरोहितों ने ऋण की
प्रथा को धर्म से जोड़ा और उसके बंधनों को अकाट्य बनाने के लिए उसके दुष्प्रभावों
का लोक से परलोक तक विस्तार किया, ताकि कर्ज लेने
वाला किसी भी हालत में कर्ज देने से मुकर न जाय। सूर ने इस स्थिति की ओर भी संकेत
किया है :
मुकरि जाई, कै दीन बचन सुनि जमपुर बाँधि पठावैं।
लेखौ करत लाखही निकसत, को गनि सकत अपार।
(सूरसागर,
1/196)
हिंदी में ऐसे
आलोचकों का अभाव नहीं है जो कहते हैं कि कविता की व्याख्या में समाज को लाना कविता
के साथ अत्याचार है। लेकिन जिस कविता में समाज होगा उसकी व्याख्या सामाजिक चिंता
के बिना कैसे होगी? जो व्यक्ति ऋण की
प्रथा की क्रूरता से अपरिचित होगा वह ‘सूर मूर अक्रूर ले गये, ब्याज निबेरत ऊधौ’
में निहित अर्थ की गहराई और गोपियों की यातना
की गंभीरता भी नहीं समझ सकता।
सूर के काव्य में सामंती व्यवस्था का जो चित्र
उभरता है उसमें ठाकुर लुटेरा है, कोतवाल दगाबाज और
पटवारी कपटी; जो झूठी बही लिखता
है। इस लूट और झूठ की व्यवस्था के कुछ अन्य अमलों के क्रिया-कलाप का ब्यौरा यह है
:
मोहरिल पाँच साथ करि दीने, तिनकी बड़ी विपरीति।
जिम्मैं उनके, मांगैं मोतैं, यह तौ बड़ी अनीति
पाँच-पचीस साथ अगवानी, सब मिलि काज बिगारे।
सुनी तगीरी, बिसरि गई सुधि, मो तजि भए नियारे।
बढ़ौ तुम्हार बरामद हूँ कौ लिखि कीनौं है साफ
सूरदास की यहै बीनती दस्तक कीजै माफ। (सूरसागर, 1/143)
विनय के पदों में उस समय की शासन-व्यवस्था,
ग्राम-प्रबंध और भूमि-व्यवस्था का जो वर्णन है
उसकी शब्दावली भी ध्यान देने लायक है। इसमें ज्यादातर शब्द अरबी-फारसी के हैं। वे
मुगलकाल की शासन-व्यवस्था की प्रचलित शब्दावली से आये हैं और ‘आईने-अकबरी’ में भी मिलते हैं। सूर की इस सजगता से जाहिर है कि वे अपने
समय के समाज से बेखबर कवि न थे।
सूरदास सामाजिक यथार्थ और जीवन के अनुभवों का
चित्रण प्रायः रूपकों की मदद से करते हैं। ‘जनम साहिबी करत गयौ’, ‘हरि हौं सब पतितनि-पतिनेश’, ‘साँचौ सो लिखहार कहावै’, ‘हरि हौं ऐसे अमल कमायौ’, ‘प्रभुजू यौं किन्ही हम खेती’ आदि पदों में रूपक के माध्यम से ही उस काल की सामंती सत्ता,
सामाजिक व्यवस्था, ग्राम-प्रबंध, भूमि-व्यवस्था और किसान-जीवन के अनुभवों का चित्रण हुआ है। सूर के लिए रूपक
केवल अलंकार नहीं है। वह यथार्थ और अनुभव की पुनर्रचना तथा अभिव्यक्ति की विशिष्ट
पद्धति है, जीवनानुभव को काव्यानुभव
बनाने का माध्यम है और काव्यानुभूति के संप्रेषण का सर्जनात्मक साधन है।
किसान-जीवन से संबंधित रूपकों में प्रतिनिधिकता है और मूल्य-बोध भी, वस्तुस्थिति का वर्णन है और उसके प्रति कवि की
विशेष दृष्टि भी, किसान-जीवन का
ज्ञान है और उससे सहानुभूति भी। यद्यपि इन पदों का उद्देश्य कवि की भक्ति-भावना की
अभिव्यक्ति है, लेकिन अमूर्त
भावों और विचारों को मूर्त तथा संवेद्य बनाने की प्रक्रिया में जो रूपक रचे गए हैं,
उनमें सामाजिक जीवन के अनुभव व्यक्त हुए हैं।
ये रूपक कवि के जीवनानुभव और सामाजिक सहानुभूति की ओर संकेत करते हैं। इन रूपकों
में भक्ति वह मचान है जिस पर किसान-जीवन के अनुभवों की कविता खड़ी है।
भ्रमरगीत में किसान-जीवन के अनुभवों का
वस्तुपरक वर्णन नहीं है, क्योंकि उसमें
कवि का मुख्य उद्देश्य है गोपियों की प्रेमानुभूत के विभिन्न पक्षों की
अभिव्यक्ति। लेकिन वहाँ प्रेम की अनुभूति की संस्कृति उसकी संरचना और अभिव्यक्ति
में अनेक स्तरों पर किसान-जीवन के अनुभव उपस्थित हैं। वैसे कविता में जीवन की
सच्चाइयाँ केवल वस्तु-रूप में नहीं आतीं, अभिव्यक्ति के साधनों के माध्यम में भी आती हैं। भ्रमरगीत में भी प्रायः
किसान-जीवन के अनुभव काव्य-शिल्प के विभिन्न साधनों के साथ कविता में आए हैं। यहाँ
भाषा की बनावट, कथन की शैली,
वचन-वक्रता, व्यंग्य, मुहावरों,
कहावतों, अलंकारों आदि में किसान-जीवन के अनुभव आते हैं और सूर की
काव्यानुभूति की संस्कृति के विशिष्ट स्वरूप का निर्माण करते हैं। साथ ही वे कवि
के जीवनानुभव का पता भी देते हैं क्योंकि कवि की संकल्पना, अभिव्यक्ति के साधन जुनाने के लिए वहीं जाती है जो कवि के
ज्ञान और अनुभव का क्षेत्र होता है।
संभव है, कुछ लोग इस बात पर चौंकें कि सूर की कविता में
अभिव्यक्ति-कला के माध्यम से जनजीवन के अनुभव आते हैं लेकिन यही सच है। दूसरों की
बात जाने दीजये। देखिये कि इस प्रसंग में आचार्य रामचंद्र शुक्ल क्या कहते हैं।
अभिव्यक्ति के अन्य साधनों, अर्थात् मुहावरों
और कहावतों आदि की कौन कहे, सूर तो अलंकारों
के माध्यम से भी कविता में समाज के अनुभव आते हैं। उनकी रचना-दृष्टि की इस विशेषता
को पहचानते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है – “वस्तु-विन्यास का जो संकोच सूर की कविता में दिखाई देता है,
उसकी बहुत कुछ कसर अलंकार-रूप में लाए हुए
पदार्थों के प्राचुर्य द्वारा पूरी होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि अप्रस्तुत
रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है।” (सूरदास, पृ. 153) सूर के काव्य में अलंकार कविता की केवल शोभा
नहीं बढ़ाते, वे जीवन-जगत के
अनुभव भी साथ लाते हैं; क्योंकि वे
शास्त्र और परंपरा से नहीं, समकालीन जीवन के
अनुभवों से आते हैं। भ्रमरगीत में कई बार रूपक का प्रयोग इसी प्रयोजन से हुआ है।
एक पद में गाँव के कुम्हार की कारीगरी की पूरी प्रक्रिया का चित्रण है :
ऊधौ भली भई ब्रज आए।
विधि कुलाल कीन्हें कांचे घट ते तुम आनि पकाए।
रंग दीन्हौ हौ कान्ह साँवरैं अंग अंग चित्र
बनाए।
पातैं गरे न नैन मेह तैं, अवधि अटा पर छाए।
ब्रज करि अंवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए।
फूँक उसास बिरह प्रजरनि संग, ध्यान दरस सिमराए।
(सूरसागर,
2/4400)
ऐसा चित्र केवल
सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नहीं बनाया जा सकता। आचार्य शुक्ल जिसे सूर की
वाग्विदग्धता कहते हैं, वह केवल
वचन-वक्रता, शब्द-क्रीड़ा
नहीं है, उसमें व्यंग्य और विनोद
के साथ गहरी कल्पनाशीलता भी है। वहीं कल्पनाशीलता अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों की खोज में सक्रिय दिखाई देती है।
अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों
की खोज में सूर की कल्पना ग्राम-समाज की ओर जाती है; क्योंकि वही कवि के ज्ञान और अनुभव का परिचित क्षेत्र है और
गोपियों का वास्तविक परिवेश भी। गोपियों की भाव-दशाओं को अधिक प्रभावशाली और चित्रात्मक
रूप में व्यक्त करने के लिए यदि कहीं कोई अलंकार आता है तो यह किसान-जीवन के किसी
न किसी अनुभव से जुड़ा होता है। कृष्ण के बिना गोपियों की विरह-विदग्ध दशा की
व्यंजना सूर ने इस रूप में की है :
कछुवै कहती कछू कहि आवत, प्रेम पुलक स्रम स्वेद चुई।
सूखति सूर धान अंकुर सी, बिनु बरषा ज्यौं मूल तुई।।
(सूरसागर,
2/2473)
उद्धव-गोपी-संवाद
में सूरदास गोपियों की मानसिकता और उसकी पृष्ठभूमि का ध्यान रखते हैं, इसीलिए गोपियों की कथनशैली और वचन-वक्रता में
अनेक स्वभाव और परिवेश की झलक मिलती है। वचन-चातुरी के बावजूद गोपियों की बातों
में जो भाव-प्रवणता, निष्कपटता,
सहजता और स्पष्टवादिता है, वह गाँव की श्रमशील स्त्रियों की स्वाभाविक
विशेषता है।
वास्तव में मनुष्य के सौंदर्यबोध का उसके
भावबोध से और भावबोध का जीवन-जगत के अनुभव तथा ज्ञान से गहरा संबंध होता है।
मनुष्य के सौंदर्य की कल्पना भी उसके अनुभव और ज्ञान के दायरे के भीतर ही
क्रियाशील होती है। यही कारण है कि कविता में आए अलंकार, बिम्ब और प्रतीक की कवि और कविता के देश-काल की ओर संकेत
करते हैं। उदाहरण के लिए ‘ढोला मारू रा
दूहा’ का यह दोहा देखिये और
विचार कीजिये कि इसमें अलंकार और भाषा के माध्यम से राजस्थान का जीवन और परिवेश
कैसे आया है – ‘हूँ कुमलावणी कंत
विणु जलह वहुणी वेल। विणजारा री भाइ जिउं गया धुकंती मेल।।’ (मैं जल-विहीन लता की तरह कंत के बिना कुम्हला
गई हूँ। मेरा प्रिय बंजारे की भट्टी के समान मुझे सुलगती छोड़ गया है।) इस दोहे की
दूसरी पंक्ति में जो अलंकार है वह कवि और कविता के देश-काल का द्योतक है। ‘ढोला मारू रा दूहा’ की तरह ‘पद्मावत’ और ‘सूरसागर’ में भी
अभिव्यक्ति के उपकरणों के माध्यम से स्थानीय प्रकृति, लोक संस्कृति और जनजीवन के अनुभव कविता में आए हैं।
कहीं-कहीं सूरदास ने गोपियों की विरहानुभूति की अभिव्यक्ति के साधन के रूप में
किसान-जीवन के अनुभवों का उपभोग किया है। उन्होंने किसान-जीवन की किसी वास्तविकता
या स्थिति का ऐसा वस्तुपरक चित्रण किया है कि गोपियों की मनोदशा स्वतः व्यक्त हो
जाती है। कृष्ण के व्यवहार से निराश और उद्धव के उपदेश से विक्षुब्ध गोपियों
कभी-कभी खुद को कोसने लगती है। उनकी इस मनोदशा की अभिव्यक्ति के लिए किसान-जीवन के
एक अनुभव का उपयोग इस तरह हुआ है :
ऐसो माई, एक कोद को हेतु।
X X X
जैसे करने किसान बापुरौ नौ नौ बाहें देत।
ऐते हूँ पर नीर निठुर भयौ, उमगि आय सब लेत।।
गोपियों की व्यथा अथाह है। उन्होंने समाज के
सभी बंधनों को तोड़कर कृष्ण से प्रेम किया, परंतु बदले में मिली अनंत वियोग की अपार वेदना। इस जटिल
भाव-दशा की व्यंजना के लिए सूर ने किसान-जीवन के एक जटिल अनुभव का सहारा लिया है :
लरि मरि झगरि भूमि कछु पाई, जस अपजस बितई।
अब लौं सूर कहति है उपजी सब ककरी करूई।।
सूरदास की
भावभाषा का रचाव किसान-जीवन से उनके घनिष्ठ संबंध का साक्षी है। इस भाषा की एक
बड़ी विशेषता है किसान-जीवन से जुड़े मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग, जिसमें खेती और पशुपालन के अनुभव संचित हैं।
साथ ही बातचीत की शैली में भी किसान-जीवन की वास्तविक भाषा के रूप-रंग की चमक
मिलती है। उद्धव से गोपियाँ जिस भाषा में विवाद और संवाद करती हैं, वह परंपरा से पाई हुई भाषा नहीं है। वह बोलचाल
की जीवंत और संवादधर्मी भाषा है, इसीलिए उसमें
मुहावरों और कहावतों की अधिकता है। गोपियाँ कभी निर्गुण की निस्सारता साबित करने
के लिए भोलेपन से पूछती हैं, ‘कहौ कौन पै कढ़त
कनूका, जिन हठि भूसी पछौरी’
तो कभी उद्धव के उपदेश की व्यर्थता पर चिढ़कर
कहती हैं, ‘कित पट पर गोता मारत हौ
निरे भूंड के खेत।’ बहुत वाद-विवाद के
बाद भी उद्धव जब गोपियों की बात नहीं समझते और अपनी जिद पर अड़े रहते हैं तब खीझकर
गोपियाँ कहती हैं :
धान कौ गाँव पयार तैं जानौ, ज्ञान विषय रस भोरे।
सूर सु बहुत कहे न रहै रस, गूलर कौ फर फोरे।।
सूरसागर में ऐसे
बहुत से पद हैं जो आरंभ से अंत तक मुहावरों और लोकोक्तियों की मदद से ही रचे गए
हैं। ऐसे पदों का एक उदाहरण यह है :
आए जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टाँड़े।।
हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते राँड़े।
कहो, मधुप, कैसे समायंगे एक म्यान दो
खाँड़े।।
कह षटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाँड़े।
काकी भूख गई बयारि भखि बिना दूध घृत माँड़े।।
काहे को झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े।
सूरदास तीनों नहीं उपजत धनिया धान कुम्हाड़े।।
(सूरसागर,
2/4223)
सूरसागर में
किसान-जीवन से संबंधित जो मुहावरे, कहावतें और
लोकोक्तियाँ मिलती हैं वे आज भी किसानों में प्रचलित हैं। यह कहना कठिन है कि
उनमें से कितने लोकजीवन से लिये गए हैं और कितने सूर के रचे हुए हैं। हिंदी के जो
आलोचक कहते हैं कि हिंदी कविता की भाषा उर्दू की तरह मुहावरेदार नहीं होती है वे
सूर की कविता पढ़कर अपना भ्रम दूर कर सकते हैं। यह सही है कि आज की हिंदी कविता की
भाषा में मुहावरों और कहावतों का अभाव है; क्योंकि यह प्रायः बोलचाल की भाषा से दूर है। आज के अनेक प्रगतिशील और जनवादी
कवि भी लोकजीवन से जुड़ने के नाम पर बोलियों के कुछ शब्दों से अपनी काव्य-भाषा को
छौंककर उसमें लोकजीवन का संवाद पैदा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वहाँ बोलचाल की भाषा का अंदाज और मुहावरा
नहीं मिलता। सूरदास के सामने प्रेम-कविता
की एक समृद्ध परंपरा थी और उसकी अत्यंत विकसित भाषा भी थी। उस परंपरा से मिली भाषा
में कविता लिखकर वे प्रेम के अच्छे कवि हो सकते थे, लेकिन अपने ढंग के पहले और बेजोड़ कवि नहीं। सूर ने परंपरा
से पाई भाषा में कविता लिखने के बदले किसान-जीवन की वास्तविक भाषा से अपनी कविता
की दुनिया बनाई है, इसीलिए उनकी
काव्य-भाषा में अनेक स्तरों पर ग्राम-समाज और किसान-जीवन प्रतिबिम्बित है। वे ही
यौवन को ‘हरियत खेत’ और प्रिय को ‘हारिल की लकड़ी’ कहते हैं। वास्तव में सूर की भाषिक संवेदनशीलता में उनकी सामाजिक संवेदनशीलता
प्रकट हुई है।
किसान-जीवन की समग्रता का एक महत्वपूर्ण पक्ष
है प्रकृति से उसका विशेष संबंध। किसान के लिए प्रकृति पराई और दूर की वस्तु नहीं
होती, इसीलिए उससे किसान की सहज
आत्मीयता होती है। प्रकृति के प्रति किसान के मन में शहरी लोगों जैसी ललक या
मुग्धता नहीं मिलती। प्रकृति पर किसान का पूरा जीवन निर्भर है, वह प्रकृति के कोप और कृपा को सहज भाव से
स्वीकार करता है। किसान-जीवन के राग-विराग, हर्ष-विषाद, उत्सव-अवसाद आदि
में प्रकृति सक्रिय सहभागी है। यही कारण है कि लोकसंस्कृति में प्रकृति का इतना
अधिक महत्व है। किसान-जीवन का कोई भी कलाकार प्रकृति से किसान के स्थायी या अंतरंग
संबंध की अपेक्षा नहीं कर सकता। सूर के काव्य में प्रकृति उसी रूप से आई है जैसी
वह किसान-जीवन से जुड़ी होती है।
सूर के काव्य में प्रकृति का विशेष महत्व है;
क्योंकि यह कृष्ण-लीला की रंगभूमि है। गोचारण
के साथ कृष्ण-लीला प्रकृति के स्वच्छंद परिवेश में प्रवेश करती है और चीरहरण-लीला,
रास-लीला, जल-क्रीड़ा, पनघट-लीला,
दान-लीला और बसंत-लीला के रूपों में प्रकृति की
गोद में ही विकसित होती है। कृष्ण की संपूर्ण लीला प्रकृति के स्वच्छंद परिवेश में
जमुना के किनारे और वृंदावन में चलती है। यहाँ प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं है,
वह लीला के स्वरूप और प्रेम की प्रकृति का
निर्माण करने वाली सक्रिय शक्ति है। कृष्ण और गोपियों के प्रेम में जो सहजता,
स्वच्छता तथा उत्सवधर्मिता है और लोक के बंधनों
को अस्वीकार करने का साहस है, यह सब प्रकृति के
स्वच्छंद वातावरण के कारण संभव हुआ है, अन्यथा सोलहवीं सदी के भारतीय समाज में ऐसा प्रेम कहाँ संभव था। सूर के काव्य
में प्रकृति सामंती रूढ़ियों से मानव-मन की मुक्ति का एक माध्यम है। यद्यपि
भ्रमरगीत में प्रकृति का परंपरागत रूप भी दिखाई देता है, उसका उद्दीपन के रूप में चित्रण मिलता है; लेकिन वर्षा ऋतु के वर्णन में सूर की
रचना-दृष्टि की विशिष्टता प्रकट हुई जिसका एक उदाहरण है यह पद :
बलैया लैहौं, हो वीर बादर!
तुम्हरे रूप सम हमरे प्रीतम गए निकट जलसागर।।
पा लागों द्वारका सिधारो बिरहिनि के दुखदागर।
ऐसो संग सूर के प्रभु को करुनाधाम उजागर।।
इस पद में बादल
के प्रति यह भाव नहीं है जो उद्दीपन विभाव के अंतर्गत वर्षा और बादल के वर्णनों
में मिलता है। यहाँ बादल के साथ गहरी आत्मीयता है जो ‘वीर बादर’ संबोधन में प्रकट
है। इस पद को पढ़ते हुए यदि कालिदास के ‘मेघ’, घनानंद के ‘परजन्य’, निराला के ‘पावस के वीर’
और नागार्जुन के ‘शिशु-धन कुरंग’ की याद आए तो मानना होगा कि यह परंपरागत प्रकृति-वर्णन नहीं है, बल्कि वर्षा और बादल से भारतीय मन के गहरे लगाव
की पहचान कराने वाली काव्य-परंपरा का प्रमाण है। प्रत्येक देश की कविता का अपने
देश की प्रकृति से विशेष प्रकार का संबंध होता है, जिससे उस कविता की विशिष्ट संस्कृति बनती है। सूर की कविता
में ब्रज और लोकसंस्कृति के साथ प्रकृति भी व्यक्त हुई है।
गाँव और शहर का
द्वंद्व
यह सब जानते हैं कि सूर की कविता की पृष्ठभूमि
ग्राम-समाज है, क्योंकि वही
कृष्ण की मुख्य लीलाभूमि है। लेकिन इस बात की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो कि
सूर की कविता में गाँव से शहर के द्वंद्व की अभिव्यक्ति भी है। यहाँ गाँव और शहर
के बीच द्वंद्व अनेक स्तरों पर है। सबसे पहले सगुण से निर्गुण, ज्ञान और योग के द्वंद्व में गाँव से शहर का
विरोध व्यक्त हुआ है। ऐसा लगता है कि उस समय निर्गुण, ज्ञान और योग का अधिक प्रचार शहरों में था और सगुण का
गाँवों में। भ्रमरगीत में बार-बार निर्गुण, ज्ञान और योग को नगर से जोड़ा गया है। उद्धव से निर्गुण और
योग का उपदेश सुनकर गोपियाँ कहती हैं – ‘यह प्रिय कथा नगर नारिन सौं, कहहिं जहाँ कछु
पावहिं।’ सूर के अनुसार योग,
ज्ञान और निर्गुण का केंद्र है काशी। भ्रमरगीत
में बार-बार काशी को निर्गुण, ज्ञान और योग का
गढ़ कहा गया है। उद्धव से गोपियाँ कहती हैं – ‘यह निरगुन लै तिनहिं सुनावहु, जे मुड़िया कसै कासी’ या फिर ‘जे गाहक निरगुन
को ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर कासी।’
सरल-सीधे गाँव वालों को सहज-स्वाभाविक सगुण
भक्ति प्रिय है – ‘गोकुल सबै गोपाल
उपासी।’ गोपियों को योग की बातें ‘कपट-कथा’ लगती है, गाँव की
रीति-नीति के ठीक विपरीत। वे उद्धव से पूछती हैं – ‘मधुकर! कौन गाँव की रीति? ब्रज जुवतिन को जोग कथा तुम कहत सबै विपरीत।’
शहर और गाँव के बीच नैतिक द्वंद्व भी है। सूर
के अनुसार गाँव के जीवन और व्यवहार में सहजता, ईमानदारी और सच्चाई है, जबकि शहर अनैतिकता, छल-प्रपंच और चालाकी का गढ़ है। गाँव की गोपियों की कथा शुद्ध प्रेम-कथा है और
शहरी प्रेम कपट-कथा है। ब्रजवासी जिस शहर से परिचित हैं वह मथुरा है – सत्ता और शक्ति का केंद्र, अत्याचार और शोषण का गढ़, छल और प्रपंच का प्रतीक। वह मायानगरी है,
गोकुल और गोपियों का सर्वस्व हरण करने वाली।
मथुरा गोपियों के लिए कंस, अक्रूर और उद्धव
का ही नहीं, कुब्जा का भी नगर
है। वहाँ जो जाता है वह लौटकर नहीं आता, वहीं का हो जाता है और जो आता है वह छल-प्रपंच का जाल फैलाता है। इसीलिए
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं :
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे।
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे मधुप भँवारे।।
ब्रजवासी अपने
अनुभव से जानते हैं कि मथुरा के लोग विश्वसनीय नहीं हैं। यही कारण है कि गोपियाँ
कहती हैं :
मधुबनिया लोगनि को पतियाय।
मुख औरे अंतरगत औरे, पतिया लिखि पठवत जू बनाय।।
सूर के अनुसार
गाँव के लोग सहज रूप से सहृदय हैं, गोपियाँ हजार
कठिनाइयों के बावजूद हठ कर प्रेम करती हैं; जबकि शहर के लोग प्रेम का दिखावा करते हैं, मथुरावासी चतुर और कपटी हैं :
हम अहीरि मतिहीन बापुरी, हटकत हूँ हठि करत मिताई।
वे नागर मथुरा निरमोही, अंग-अग भरे कपट चतुराई।।
शहर और गाँव के बीच द्वंद्व की जो चेतना सूर के
काव्य में है, वह उस युग के
किसी अन्य कवि के यहाँ शायद ही मिले। इस द्वंद्व में सूर की सहानुभूति गाँव के साथ
है।
राजनीतिक
अभिप्रायों की खोज
अब तक हमने देखा
है कि सूरदास की कविता अपने समय के समाज और संस्कृति के बारे में कितनी सजग है।
क्या ऐसी कविता अपने काल की राजनीति के अभिप्रायों से अनभिज्ञ रह सकती है? हमारे सामने सवाल सूर की कविता के राजनीतिक
महत्व की खोज का नहीं है, वह तो प्रत्येक
लोकधर्मी कविता का स्वाभाविक गुण है। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि सूर की कविता
में उस युग की राजनीति के अर्थ और अभिप्राय की पहचान कितनी है। यह प्रश्न कुछ
लोगों को विचित्र लग सकता है; क्योंकि हिंदी
आलोचना में भक्तिकाव्य की राजनीति अर्थात् उसके राजनीतिक अर्थ, अभिप्राय और महत्व पर विचार की कोई विकसित
परंपरा नहीं है। यद्यपि बहुत पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति आंदोलन के
राजनीतिक महत्व को पहचाना और लिखा था कि “दक्षिण में रामदास स्वामी ने लोक धर्माश्रित भक्ति का संचार महाराष्ट्र-शक्ति
का अभ्युदय किया। पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया और सिख-शक्ति का
प्रादुर्भाव हुआ।” लेकिन बाद के
दिनों में भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य की यह पहचान विकसित नहीं हुई। इसलिए कुछ लोग
भक्ति आंदोलन और उसके काव्य के प्रसंग में राजनीति की बात सुनकर चौंक उठते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि जिस कविता में राजसत्ता
का खुला विरोध या समर्थन होगा, वही राजनीतिक
होगी वे भक्तिकाव्य में राजनीति की खोज करते हुए निराश होते हैं, क्योंकि उसमें राजसत्ता का सीधा विरोध नहीं है।
इस प्रसंग में कुंभनदास का यह कथन बार-बार उद्धृत किया जाता है :
संतन सो कहाँ सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिवे परी सलाम।
लेकिन राजनीति
केवल राजसत्ता के विरोध या समर्थन तक सीमित नहीं होती, कविता की राजनीति तो और भी नहीं। समकालीन राजनीति के अर्थ
तथा अभिप्राय की पहचान और उसके विरोध तथा विकल्प की रचनात्मक चिंता भी कविता की
राजनीतिक सजगता का प्रमाण है। भक्तिकाव्य में ऐसी राजनीतिक सजगता है। सूरदास के
विनय के पदों में उस काल की सामंती व्यवस्था और साधारण जनता के साथ उसके
दुर्व्यवहार का बोध है और उद्धव-गोपी-संवाद में उस व्यवस्था की राजनीति के अर्थ
तथा अभिप्रायों की पहचान है।
साधारण जनता के लिए शासकवर्ग की राजनीति की
लीला हमेशा अबूझ पहेली होती है। गोपियाँ ठीक ही कहती हैं – ‘जानै कहाँ राजगति लीला अंत अहीर विचारौ।’ इस लीला का रहस्य और प्रयोजन तो कोई मर्मज्ञ
कवि ही खोलकर बता सकता है। सूर ने शासकवर्ग की राजनीति के रूप, रहस्य और अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है
:
राजनीति की रीति सुनौ हो, चरत बारिचर खेत।
इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि बादल खेत
चर जाए, जीवन देने वाला जीवन ले
ले, पोषक ही शोषक बन जाए।
लेकिन शासकवर्ग की राजनीति कि यही रीति-नीति है; सूर के समय के शासकवर्ग की और आज के शासकवर्ग की भी। तबसे
आज तक राजनीति का रूप जरूर बदला है, परंतु उद्देश्य वही है। राजनीति की यह रीति बताते हुए सूर ने उस काल की
जन-भावना को वाणी दी है, जो आज भी जन-मन
में सीधे उतर जाने वाली है।
सूरदास राजसत्ता और उसके व्यवहार को जनता की
दृष्टि से देखते हैं, इसलिए उन्हें
दुराचारी शासन की अंधेरगर्दी असह्य लगती है :
सूरदास ऐसी क्यों निबहै अंध धुंध सरकार।
उस युग में छोटे-छोटे सामंत बात की बात में
परस्पर लड़ा करते थे। ऐसी लड़ाइयों से सामंतों का झूठा अहंकार तुष्ट होता था,
पर जनता तबाह होती थी। सूरदास सामंती राजनीति
की इस असंगति और अनीति को पहचानते हैं – ‘द्वै नृप लरत प्रजा इंद्रीगति, सूर कौन यह नीति।’
आजकल राजनीति का सबसे अधिक प्रचलित अर्थ है झूठ,
फरेब और छल। राजनीति का यह अर्थ शासकवर्ग के
राजनीतिक कर्म और व्यवहार से पैदा हुआ है। लगता है कि राजनीति का यह नितांत नया
नहीं है। सूर ने एकदम आधुनिक अर्थ में ‘राजनीति’ का प्रयोग इस पद
में किया है :
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरु करिं नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी जुवतिन को जोग संदेस पठाए।।
भले लोग आगे के सखि री ! परहि डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए, जे हैं चलत चुराए।।
ते क्यों नीति करत आपुन, जे औरनि रीति छुड़ाए?
राजधर्म सब भए सूर, जहँ प्रजा न जायँ सताए।।
(भ्रमरगीत सार,
पृ. 33)
हिंदी कविता में ‘राजनीति’ का ऐसा सार्थक और साभिप्राय प्रयोग सूर से पहले और बाद में
भी शायद ही कहीं मिले। यह प्रयोग इतना सटीक और व्यंजक है कि मुहावरा बन गया है। आज
की राजनीति में झूठ और फरेब का बोलबाला पहले से अधिक है, इसलिए यह मुहावरा आज पहले से भी अधिक सार्थक लगता है।
राजनीति के इस अर्थ की पहचान के पीछे उस युग की राजनीति के स्वरूप की समझ है और उस
राजनीति के बारे में जनमत की जानकारी भी।
हिंदी के कुछ आलोचक कहते हैं कि कविता में
राजनीति और व्यंग्य के आने से कविता का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, दोनों एक साथ आएँ तब तो हालत और खराब हो जाती
है। लेकिन वास्तविकता यही है कि कविता में दोनों प्रायः एक साथ आते हैं। सूर के इस
पद में भी राजनीति के साथ व्यंग्य वैसे ही है, जैसे शब्द के साथ अर्थ। यहाँ सूर की वाग्विदग्धता का निखार
देखने लायक है।
सूर के काव्य में तत्कालीन शासन-व्यवस्था की
राजनीति के रूप और अभिप्राय की पहचान है और साथ में जनता के हित की राजनीति की
चिंता भी है, इसीलिए लिखा है :
राजधर्म सब भए सूर, जहँ प्रजा न जायँ सताए।
यह अनीति और
अत्याचार से मुक्त राजनीति की माँग है, सामंती युग में प्रजातंत्र की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है।
क्या ऐसे कवि को अपने आस-पास की दुनिया से
विरक्त, अपने भाव में मग्न रहने
वाला कहना उचित है?
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