लगभग देढ़-दो
सौ साल पहले बिहार से कुछ लोगों को बतौर ठेके पर/मजदूर बनाकर मॉरिशस लाया गया था.
संभवतः आपकी यह चौथी अथवा पांचवीं पीढी होगी. क्या विस्थापन का दर्द आज भी आपको
सालता है?
रामदेव धुरंधरजी |
विस्थापन का दर्द
तो उन अतीत जीवियों का हुआ जो इस के भुक्तभोगी थे। मैं उन लोगों के विस्थापन वाले
इतिहास से बहुत दूर पड़ जाता हूँ। परंतु मैं पीढ़ियों की इस दूरी का खंडन भी कर
रहा हूँ। कहने का मेरा तात्पर्य है उन लोगों का विस्थापन मेरे अंतस में अपनी तरह
से एक कोना जमाये बैठा होता है और मैं उसे बड़े प्यार से संजोये रखता हूँ। इसी बात
पर मेरा मनोबल यह बनता है कि मैं भारतीयों के विस्थापन को मानसिक स्तर पर जीता आया
हूँ। यहीं नहीं, बल्कि मैं तो
कहूँ अपने छुटपन में मैं अपने छोटे पाँवों से इतिहास की गलियों में बहुत दूर तक
चला भी था।
कहावत है कि धरती से एक पौधे को उखाड़ कर दूसरी
जगह लगाया जाता है तो उसे पनपने में काफ़ी समय लगता है / कभी पनप भी नहीं पाता.
शायद यही स्थिति आदमी के साथ भी होती है कि उसे विस्थापन का असह्य दर्द झेलना पडता
है और अनेक कठिनाइयों / अवरोधों के बाद वह सामान्य जिंदगी जी पाता है. उन तमाम
लोगो के पास वह कौनसा साधन था कि वे अपने को जिंदा रख पाए और अपनी अस्मिता बचाए रख
सके?
जहाज़ में
तमाम उत्पीड़न झेलते ये लोग मॉरिशस पहुँचे थे। अपना जन्म देश पीछे छूट जाने का
दर्द इन के सीने में सदा के लिए रह गया था। इस देश में आने पर सब से पहले इन की
महत्त्वाकाक्षाएँ ध्वस्त हुई थीं इसलिए विस्थापन इन्हें बहुत सालता रहा होगा। बहुत
से लोग तो बंदरगाह में डाँट - फटकार और तमाम शोषण जैसी प्रवृत्तियों से टूट कर
रोने लगते थे और उन के ओठों पर एक ही चीत्कार होता था मुझे मेरे देश वापस भेज दिया
जाए। यह मान्यता अब भी मॉरिशस में पुख्त ही चलती आई है कि भारतीयों को इस ठगी से
लाया गया था वहाँ पत्थर उलाटने पर सोना पाओगे। उन लोगों की महत्त्वाकाक्षाओं में
से यह एक रही हो, लेकिन इस का
विखंडन तो तभी शुरु हो गया होगा जब वे जहाज़ में सवार होने पर अत्याचार से चिथड़े
हो रहे होंगे। ओछी मानसिकता के बंधन में यहाँ आने पर कौन याद रखता. क्या - क्या
पाने इस देश में आए थे। बल्कि जो मन का संस्कार था, इज्ज़त आबरू का अपना जो अपार पारिवारिक वैभव था सब दाव पर
ही तो लगते चले गए थे। तब तो दर्द यहाँ ज्यों - ज्यों गहराता होगा विस्थापन की आह
प्रश्न बन कर ओठों पर छा जाती होगी --अपनी मातृभूमि छोड़ने की मूर्खता भरी अक्ल
किस स्रोत से आई होगी?
भारत से
विस्थापित लोगों का 1834 के आस पास
मॉरिशस आगमन शुरु जब हुआ था तब उन में ऐसे लोग तो निश्चित ही थे जो भारतीय वांङ्मय
के अच्छे जानकार थे। उन्हीं लोगों ने तुलसी मीरा कबीर तथा अन्यान्य कवियों की
कृतियों का यहाँ प्रचार किया था। शादी के गीत, भक्ति काव्य और इस तरह से भारतीय कृतियों और संस्कृति का इस
देश में विस्तार होता चला गया था। जो साधारण लोग थे उन के अंतस में भी समाने लगा
था कि अपने भारत की इतनी सारी धरोहर होने से हम इस देश में अपने को धन्य पा रहे
हैं। कालांतर में भोलानाथ नाम के एक सिक्ख सिपाही ने सत्यार्थ प्रकाश ला कर यहाँ
के लोगों को उस से परिचित करवाया। इस देश में यथाशीघ्र आर्य समाज की लहर चल पड़ी
थी। यह सामाजिक चेतना की कृति थी। इस की आवश्यकता थी और यह सही वक्त पर लोगों को
उपलब्ध हुई थी।
मॉरिशस
गन्ने की खेती के लिए मशहूर रहा है. निश्चित ही आपके पिताश्री भी गन्ने के खेतों
में काम करते रहे होंगे. वे बीते दिनों की तकलीफ़ों के बारे में आपको सुनाते भी रहे होंगे कि किस तरह से उन्हें पराई धरती
पर यातनाएं सहनी पड़ी थी.?
मेरे
किशोर काल में मेरे पिता मुझे इस देश में आ कर बसे हुए भारतीयों की वेदनाजनित
कहानियाँ सुनाया करते थे। अपने पिता से सुना हुआ भारतीयों का दुख - दर्द मेरी
धमनियों में बहुत गहरे उतरता था। यह तो बाद की बात हुई कि मैं लेखक हुआ। परंतु कौन
जाने मेरे पिता अप्रत्यक्ष रूप से मुझे लेखन कर्म के लिए तैयार करते थे। वे मेरे
लिए अच्छी कलम खरीदते थे। पाटी, पुस्तक और पढ़ाई
के दूसरे साधनों से मानो वे मुझे माला माल करते थे। मेरे पिता अनपढ़ थे, लेकिन उन्हें ज्ञात था सरस्वती नाम की एक देवी
है जिस के हाथों में वीणा होती है और उसे विद्या की देवी कहा जाता है। मेरे पिता
ने सरस्वती का कैलेंडर दीवार पर टांग कर मुझ से कहा था विद्या प्राप्ति के लिए
नित्य उस का वंदन करूँ। वह एक साल के लिए कैलेंडर था, लेकिन उसे मूर्ति मान कर हटाया नहीं जाता था। वर्षों बाद
हमारा नया घर बनने के बाद ही किसी और रूप में मेरे जीवन में सरस्वती की स्थापना
हुई थी।
निश्चित ही उनकी उस भयावह स्थिति की कल्पना मात्र से आप भी विचलित हुए होंगे और
एक साहित्यकार होने के नाते आपने उस पीडा को अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त करने की
कोशिश की है?
मैंने
बहुत सी विधाओं में लेखन किया है और अपने देश से ले कर अंतरसीमाओं तक मेरी दृष्टि
जाती रही है। यहाँ मेरे पूर्वजों के विस्थापन का संदर्भ अपने तमाम प्रश्नों के साथ
मेरे साथ जुड़ जाने से मैं अपने उसी लेखन की यहाँ बात करूँगा जो विस्थापन से संबंध
रखता है।
मैंने ‘इतिहास का दर्द’ शीर्षक से एक नाटक [1976 ] लिखा था जो पूरे देश में साल तक विभिन्न जगहों
में मंचित होता रहा था। यह पूर्णत: भारतीयों के विस्थापन पर आधारित था। मेरे लिखे
शब्दों को पात्र मंच पर जब बोलते थे मुझे लगता था ये प्रत्यक्षत: वे ही भारतीय
विस्थापित लोग हैं जो मॉरिशस आए हैं और आपस में सुख - दुख की बातें करने के साथ इस
सोच से गुजर रहे हैं कि मॉरिशस में अपने पाँव जमाने के लिए कौन से उपायों से अपने
को आजमाना ज़रूरी होगा।
अपने लेखन के लिए मैंने भारतीयों का
विस्थापन लिया तो यह अपने आप सिद्ध हो जाता है मैंने उन के सुख - दुख, आँसू, शोषण, गरीबी, रिश्ते सब के सब लिये। मैंने लिखा भी है मैं आप
लोगों के नाम लेने के साथ आप की आत्मा भी ले रहा हूँ। मैं आप को शब्दों का अर्घ्य
समर्पित करना चाहता हूँ, अत: मेरा सहयोगी
बन जाइए। उन से इतना लेने में हुआ यह कि मैं भी वही हो गया जो वे लोग होते थे।
किसी को आश्चर्य होना नहीं चाहिए अपने देश के इतिहास पर आधारित अपना छ: खंडीय
उपन्यास ‘पथरीला सोना’ लिखने के लिए जब मैं चिंतन प्रक्रिया से गुजर
रहा था तब मैं उन नष्टप्राय भित्तियों के पास जा कर बैठता था जिन भित्तियों के
कंधों पर भारतीयों के फूस से निर्मित मकान तने होते थे। जैसा कि मैंने ऊपर में कहा
ये मकान उन के अपने न हो कर फ्रांसीसी गोरों के होते थे। उन मकानों में वे बंधुआ
होते थे। मैंने उन लोगों से बंधुआ जैसे जीवन से ही तारतम्य स्थापित किया और लिखा
तो मानो उन्हीं की छाँव में बैठ कर। बात यह भी थी कि भारतीयों के उन मकानों या
भित्तियों का मुझे चाहे एक का ही प्रत्यक्षता से दर्शन हुआ हो, अपनी संवेदना और कल्पना से मैंने उसे बहुत
विस्तार दिया है। तभी तो मुझे कहने का हौसला हो पाता है मैंने उसे भावना के स्तर
पर जिया है। पर्वत की तराइयों के पास जाने पर मुझे एक आम का पेड़ दिख जाए तो मेरी
कल्पना में उतर आता है मेरे पूर्वजों ने अपने संगी साथियों के साथ मिल कर इसे रोपा
था। मेरे देश में तमाम नदियाँ बहती हैं जिन्हें मैंने मिला कर मनुआ नदी नाम दिया
है। इसी तरह पर्वत यहाँ अनेक होने से मैंने बिंदा पर्वत नाम रख लिया और आज मुझे
सभी पर्वत बिंदा पर्वत लगते हैं। मैंने सुना है दुखों से परेशान विस्थापित
भारतीयों की त्रासदी ऐसी भी रही थी कि पर्वत के पार भागते वक्त उन के पीछे कुत्ते
दौड़ाये जाते थे। कुआँ खोदने के लिए भेजे जाने पर ऊपर से पत्थर लुढ़का कर यहाँ जान
तक ली गई हैं। बच्चे खेल रहे हों और कोई गोरा अपनी घोड़ा बग्गी में जा रहा हो तो
आफ़त आ जाती थी। यह न पूछा जाता था स्कूल क्यों नहीं जाता। कहा जाता था बड़े हो गए
हो तो खेतों में नौकरी करने क्यों नहीं आते हो। पर ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में
यह लिखित मिलने की कोई आशा न करे,क्योंकि लिखने की
कलम उन दिनों केवल फ्रांसीसी गोरों की होती थी।
भारत छॊडने से पहले लोग अपने साथ धार्मिक
ग्रंथों को भी ले गए थे. कठिन श्रम करने के बाद वे इन ग्रंथों का पाठ करते और अपने
दुखों को कम करने का प्रयास करते थे. इस तरह वे अपनी परम्परा और संस्कार को बचा
पाए. यह वह समय था जब क्रिस्चियन मिशनरी अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए प्रयासरत थे.
निश्चित ही वे इन पर दबाव जरुर बनाते रहे होंगे कि भारतीयता छोड़कर ईसाई बन जाओ.
भारतीय
मज़दूरों के मॉरिशस आगमन के उन दिनों में यहाँ विशेष रूप से धर्म,संस्कृति, आचरण, पूजा, रामायण गान, संस्कार, नीति जैसे
बहुमूल्य सिद्धांतों पर विशेष रूप से बल दिया जाता था। उन दिनों की स्थिति को
देखते हुए ऐसा होना हर कोण से आवश्यक था।
ऐसा न होता तो मॉरिशस का भारतीय मन डगमगा गया होता और तब अनर्थ की काली स्याही सब
के चेहरे पर पुत जाती। इस देश के उस क्रूर इतिहास को आज भी याद रखता जाता है।
ईसाईयत के प्रचार के लिए ईसाई वर्ग के लोग भारतीय वंशजों के घर पहुँचते थे और लंबे
समय तक द्वार पर खड़े हो कर उन के दिमाग में डालने की कोशिश करते थे आप इतनी आज्ञा
तो दें ताकि हम आप के घर में ईसाईयत का पौधा बो कर ही लौटेंगे। आप हमारे लिए इतना
करें हमारे दिये हुए मंत्रों से उस पौधे का सींचन करते रहें। फिर एक दिन ऐसा आएगा
जब ईसाईयत का वह पौधा बढ़ कर छतनार हो जाएगा तब बड़ी सुविधा के साथ आप के बच्चे उस
की छाया में पनाह पाना अपने लिए सौभाग्य मानेंगे। ईसाईयत की उस लहर ने यदि अपनी
चाह के अनुरूप हमारे घरों में प्रवेश पा ही लिया होता तो बहुत पहले मॉरिशस में
भारतीयता की छवि धूमिल हो गई होती। सौभाग्य कहें कि भारतीय संस्कार लोगों के सिर
पर चढ़ कर बोलता था तभी तो लोग बाहरी झाँसे में भ्रमित होने की अपेक्षा अपने
संस्कार में और गहरी श्रद्धा से आबद्ध होते जाते थे। निस्सन्देह धार्मिक संस्थाओं
ने इस क्षेत्र में बहुत काम किया था। प्रसंगवश यहाँ मुझे कहना पड़ रहा है आज की
तरह विच्छृंखल संस्थाएँ न हो कर उस ज़माने की संस्थाएँ अपने लोगों के प्रति
समर्पित और भाव प्रवण हुआ करती थीं। सेवा करो और बदले में फल की कामना मत करो।
ईश्वर को इस बात के लिए आज हम धन्यवाद तो दें अपनी ही फूट और ईर्ष्या जैसे अनाचार
के बावजूद हमारी सांस्कृतिक विरासत निश्चित ही व्यापक अडिग और सर्वमान्य चली आ रही
है। विशेष कर धार्मिक कृतियाँ पूजा पाठ और धार्मिक वंदन की गरिमा को उच्चतर बनाने
में अपना सहयोग ज्ञापित करने में कोई कमी नहीं छोड़तीं।
उन
दिनों वहां की सरकार जनता पर निर्ममता से अत्याचार करती रहती थी. निश्चित ही आपका
परिवार इस भीषण यंत्रणा का शिकार हुआ होगा? इस अत्याचार को परिवार ने कैसे झेला और आप पर इसका कितना
असर हुआ? आपकी पढ़ाई-लिखाई पर कितना असर पड़ा?
ज़मीन
फ्रांसीसी गोरो की होती थी जो लोगों को पट्टे पर ईख बोने के लिए दी जाती थी। मेरे
पिता के भी खेत हुए। गोरों ने जब देखा था भारतीय मन के लोग उन के बंधन से मुक्त
होने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो उन्होंने देश व्यापी अपना अभियान चला कर एक साल
के भीतर लोगों के सारे खेत छीन लिये थे। मेरे पिता खेत छीने जाने के दुख के कारण
मानो निष्प्राण हो गए थे। दोनों बैलगाड़ियाँ बिक गईं। गौशाला में दो गाएँ थीं तो
माँ ने किसी तरह दिल पर पत्थर रख कर एक गाय बेची और एक गाय को अपने बच्चों के दूध
के लिए बचा लिया। पथरीला सोना उपन्यास में मैंने लालबिहारी और इनायत नाम के दो
पात्रों के माध्यम से इस घटना का मर्मभेदी वर्णन किया है। मेरे पिता के सिर पर
कर्ज़ था। घर के सभी को मिल कर किसी तरह कर्ज़ से उबरना था। परिवार की शाखें बढ़ते
जाने से आवश्यक था मकान बड़ा हो। ऐसा नहीं कि यह सब हौआ हो जो हम को लील जाए।
हिम्मत से इन सारी कठिनाइयों पर जय की जा सकती थी और हम जय कर भी रहे थे। बस हमारी
गरीबी की चादर बहुत दूर तक फैल गई थी। योजना से काम लेना पड़ता था ताकि अपने
लक्ष्य पर पहुँच कर तसल्ली कर पाएँ कि हम ने कुछ तो किया। मुझ से बड़े मेरे दो भाई
थे। मुझ से छोटी एक बहन और एक भाई। दोनों बड़े भाई खेत के कामों में पिता का हाथ
बँटाते थे। गरीबी और अस्त व्यस्तता की उस दयनीय रौ में मेरी पढ़ाई छूट सकती थी।
पता नहीं मेरे परिवार में वातावरण कैसे इस तरह बन आया था कि केवल मैं पढ़ाई में
आगे निकलता जाऊँ और मेरे भाई बहन मानो कुछ - कुछ पढ़ाई से अपनी उम्र की सीढ़ियाँ
चढ़ते जाएँ। पर आने वाले दिनों में मेरी पढ़ाई गंभीर रूप से बाधित हुई। मेरी पढ़ाई
व्यवस्थित रूप से न हो सकी तो इस का कारण
घर का बँटवारा था। दोनों बड़े भाइयों की शादी होने पर वे अपने कुनबे की चिंता करने
लगे थे। उन के अलग होने पर हम माता - पिता और तीन बच्चे साथ जीने के लिए छूट गए। यहाँ भी वही हुआ हमें जीना था तो हम जी
लिये। यहीं मुझे मज़दूरी करने के लिए कुदाल थामनी पड़ी जो वर्षों छूटी नहीं। इस
बीच पिता बीमार हुए तो स्वस्थ हो पाना उन के लिए स्वप्न बन गया.
मेरा अपना मानना है कि किसी भी भाषा को यदि
बचपन से सीखा जाए तो वह जल्दी ही आत्मसात
हो जाती है. जब आपने हिन्दी सीखना
शुरु किया तब तक तो आपकी उम्र लगभग 20-21 वर्ष
की हो चुकी होगी. इस बढ़ी उम्र में आपको निश्चित ही दिक्कतें भी खूब आयी होंगी?
बचपन में
मुझे अपने पिता की ओर से हिन्दी का संस्कार मिला था। जिसे वास्तविक हिन्दी का
ज्ञान कहेंगे वह बाद में मेरे हिस्से आया। मैं आत्म गौरव से कहता रहा हूँ हमारे
देश में हिन्दी के उत्थान के लिए काम करने वाली हिन्दी प्रचारिणी सभा के सौजन्य से
मैं व्याकरण सम्मत हिन्दी सीख पाया था। हम तीस तक विद्यार्थी एक कक्षा में पढ़ते
थे जिन में से दो तिहाई विवाहित थे। स्वयं मेरे दो बच्चे थे। एक महिला की तो दो
बेटियों की शादी हो गई थी। मेरी निजी बात यह है मेरी गरीबी के बादल मेरे सिर पर
तने हुए थे परिणाम स्वरूप बस का भाड़ा चुका कर जाने में मुझे तंगहाली से गुजरना
पड़ता था। पढ़ाई का लक्ष्य यही था हिन्दी सीख लूँ ताकि हिन्दी अध्यापक बनने का
मेरा रास्ता सहज हो सके। वैसे, मैंने इस बीच
पुलिस बनने के लिए हाथ - पाँव मारने की कोशिश की थी। यदि पुलिस की नौकरी मुझे पहले
मिल जाती तो मैं इधर का आदमी न हो कर उधर का होता। मैंने चोरों की गिरेबान पर हाथ
खूब रखा होता और उसी अनुपात से अपना ईमान रिश्वत को प्रतिदान में दे कर सोचता कि
मैं तो उसी धारा में बह रहा हूँ जिस धारा का सभी भक्ति वंदन कर रहे हैं। मेरे बिना
हिन्दी अनाथ तो न होती, लेकिन मैं स्वयं
के साक्ष्य में कह रहा हूँ मेरे नाम से हिन्दी की इतनी कृतियाँ नहीं होतीं। मैं
हिन्दी का पर्याय न होता और हिन्दी की दुनिया मुझे जानती तक नहीं। आज हिन्दी से
अपनी पहचान का मुझे बहुत फक्र है। हिन्दी मेरे प्रति हुई भी ऐसी उस ने मुझे अनाथ
नहीं छोड़ा। हिन्दी ने मुझे रोटी दी और मैंने इसी भाषा के बूते अपने बच्चों को
पढ़ाया।
मारीशस
में आम बोलचाल की भाषा कृओल है जबकि
सरकारी भाषा अंग्रेजी है. इन दो भाषाओं के
बीच हिन्दी अपना स्थान कैसे बना पायी? क्या कोई ऎसी संस्था उस वक्त काम कर रहीं थी, जो हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कटिबद्ध थी?
भारतीयों
के आरंभिक दिनों में तो निश्चित ही बहुत अंधेर था। कालांतर में हिन्दी का गवाक्ष
खुला और वह अपनी मंजिल की तलाश के लिए व्याकुल हो उठी। जैसे तैसे हिन्दी परवान
चढ़ती गई और उस ने देश व्यापी बन कर जन जन के मन में जैसे लिखा मैं इस देश में
समर्थ भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ। हिन्दी ने नाम तो पाया,
लेकिन दुख तो मानेंगे उसे आज भी वह शिखर न मिल
पा रहा है जिस की अपेक्षा में उस ने हिन्दी के दावेदारों का दरवाज़ा खटखटाया था।
अब इतना ही कहा जा सकता है हिन्दी को कुछ तो सुलभ हो सका और इस हिन्दी में लिखने
वाले उसे अपनी रचनाओं का अर्घ्य समर्पित कर सके। फिलहाल इसी पर हमें संतोष करना
पड़ता है। दो संस्थाओं का जिक्र करना यहाँ मैं आवश्यक मान रहा हूँ। वे दोनों
संस्थाएँ हैं मॉरिशस आर्य सभा और हिन्दी प्रचारिणी सभा। आर्य सभा ने ‘धर्म को बचाओ’ और ‘हिन्दी को
विस्तार दो’ जैसी भावनाओं से
एक शती का सफ़र अब तक इस देश में पूरा कर लिया है। हिन्दी प्रचारिणी सभा ने विशेष
रूप से व्याकरण सम्मत हिन्दी पर ज़ोर दिया और इसी पर टिक कर उस ने मॉरिशस को
सिखाया कैसे शुद्ध हिन्दी को थामा जा सकता है। यहीं से हम सब को प्रेमचंद, प्रसाद, निराला महादेवी वर्मा आदि हिन्दी के मूर्द्धन्य
साहित्यकारों को जानने और पढ़ने का अवसर मिला।
लघुकथाओं से लेकर कहानी, लेख-आलेख तथा
उपन्यास तक आपका सारा लेखन हिन्दी में हुआ है. हिन्दी लेखन से आपका जुड़ाव कब और
कैसे हुआ ?
यह तो तय
है जिस ने भी इस देश में हिन्दी के लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की
है उस के लिए भारत के हिन्दी के रचनाकार
अपने आदर्श रहे हैं। ज़रूरी नहीं सब एक ही लेखक का नाम लें। अभिमन्यु अनत और मैंने
महात्मा गांधी संस्थान में पचीस साल एक साथ काम किया। हमारा एक और मित्र था जिस का
नाम पूजानन्द नेमा था। वह गजब का कवि और चिंतक था। रोज़ हम तीनों घंटों साहित्यिक
चर्चा करते थे। अभिमन्यु एक ही भारतीय लेखक से अपने को प्रभावित बताते थे वे थे
शरतचंद चटोपाध्याय। मैंने प्रेमचंद को अधिकाधिक पसंद किया। पूजानन्द नेमा के लिए
निराला आदर्श कवि थे। मॉरिशस के प्राथमिक कवियों में ब्रजेन्द्र कुमार भगत हुए
जिन्हें हमारे देश के स्थापित कवि के रूप स्वीकारा जाता है। वे मैथिलीशरण गुप्त से
प्रभावित थे। वे मैथिलीशरण गुप्त की ही तरह कविता रचने का प्रयास करते थे। इस तरह
मॉरिशस में शुरुआती कवियों और कहानीकारों के अपने - अपने आदर्श होने से वे प्राय:
उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश करते रहे, लेकिन कालांतर में सोच और अभिव्यक्ति में सब को स्वयं की ज़मीन तो तलाशनी ही
थी। अभिमन्यु अनत ने मॉरिशस की मिट्टी का बेटा बन कर वही लिखा जिस में उस की अपनी
मिट्टी की सुगंध हो। इसी तरह पूजानन्द नेमा, सूर्यदेव सिबरत,
सोमदत्त बखोरी, दीपचंद बिहारी, भानुमती नागदान और स्वयं मैं हम सभी अपनी - अपनी रचनाओं में
अपने - अपने नज़रिये से अपने देश को आँकते रहे।
अच्छी हिन्दी सीख लेने के बाद आपने भी अपनी ओर
से हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया होगा? इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें?
मैंने
प्रयास अवश्य बहुत किया है। मैं स्थानीय रेडियो में दस साल हर सप्ताह तीन
साहित्यिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता था। इस में एक रेडियो नाटक होता था। मैं एकांकी
लिख कर कलाकारों के साथ रेडियो से प्रसारित करता था। मैं समझता हूँ हिन्दी को
निखार देने में मेरा यह श्रम समुचित था।
मैं 1972 - 1980 के वर्षों में
हर शनिवार और रविवार की सुबह से दो बजे तक एक कालेज में एक कमरा ले कर वयस्कों को
हिन्दी पढ़ाता था। मेरे विद्यार्थियों में पचास की उम्र तक के लोग होते थे और मैं
पढ़ाने वाला चालीस के आस पास की उम्र में जीवन की साँसें लेता था। ये लोग हिन्दी
सरकारी स्कूलों में शिक्षक थे। मेरा विज्ञापन इस रूप में हो गया था कि मैं व्याकरण
पढ़ाने में मास्टर हुआ करता हूँ। यह सही था मैं शुद्ध हिन्दी पर बल देता था और
मेरे साथ पढ़ने वालों को लगता था मेरे साथ पढ़ें तो हिन्दी ठीक से जान लेंगे। मैं
व्याकरण के लिए काली श्यामपट को उजली खड़ी से रंग कर मिटाया करता था। लगे हाथ मेरा
ध्यान इस बात पर रहता था इन लोगों को परीक्षा में सफल करवाना है। जयशंकर की कविता
पढ़ाना चाहे मेरे लिए दुरुह होता था, लेकिन तैयारी करने पर निश्चित ही वह मेरे लिए सहज हो जाता था। एक बात मेरे लिए
बहुत ही अच्छी होती थी मैं स्वयं सीखता भी था। छंद पढ़ाएँ तो मात्रा की समझ से
संपृक्त कैसे न होंगे। मैं एक उद्देश्य से अपने उस अतीत की चर्चा कर रहा हूँ। मेरा
विशेष तात्पर्य यह है मैं अपने वयस्क विद्यार्थियों में लिखने का भाव अंकुरित करने
का प्रयास करता था। हर महीने के अंतिम सप्ताह को मैं आधा दिन लेखन को समर्पित करता
था। मेरे विद्यार्थियों में से बहुतों ने बाद में कुछ न कुछ लिखा। मैं महात्मा
गांधी संस्थान में प्रकाशन विभाग से जब से जुड़ा लेखक - कवि तैयार करने में मेरा
ध्यान बराबर लगा रहता था। किसी किसी की तो आधी कहानी को मैंने लिख कर पूरा किया और
बिना अपना जिक्र किये उन्हीं के नाम से छापा। लोग कविता ले कर मेरे घर आते थे। मैं
संशोधन करने के साथ यह कहते उन का मनोबल बढ़ाता था अच्छी कविता की तुम में पूरी
संभावना है। मैंने भारत में प्रकाशकों से बात कर के दो चार लोगों की पुस्तकें भी
छपवायी हैं। अब साहित्यकार के रूप में मेरी पहचान बनते जाने से लोग मेरे साथ
जुड़ने के लिए और भी तत्पर रहते हैं। बल्कि मैं भी उन की और दृष्टि उठाये रखता
हूँ। हम सब की कामना एक ही होती है हमारे देश में हिन्दी का अपना एक दमदार साहित्य
हो।
हिन्दी के प्रचार-[प्रसार करने के लिए आपको
यात्राएं भी करनी होती होगी, आने-जाने का खर्च
भी आपको उठाना पड़ता होगा. यह सब आप कैसे कर पाते थे? क्या विध्यार्थियो से कोई शुल्क वसूल करते थे?
मैं
रेडियो में प्रोग्राम करता था तो मुझे पैसा मिलता था। बाकी मैंने निशुल्क ही
पढ़ाया है। साल के अंत में हम विदाई का समारोह आयोजित करते थे। हम सभी पैसे लगा कर
पेय और मिठाई खरीदते थे। उस अवसर पर विद्यार्थी उपहारों से मुझे लाद देते थे। एक
महिला पढ़ने आती थी। वे लोग प्याज की खेती करते थे। अपने पति के साथ वह अकसर प्याज
ले कर मेरे घर पहुँचती थी। हिन्दी और हिन्दी लेखन का ऐसा भी संसार मैंने बनाया था।
विद्यार्थी तो हर साल बदलते रहते थे, लेकिन पुराने लोगों से मेरा नाता बना रहता था। इस तरह से दो सौ तक लोगों को
मैंने हिन्दी की गरिमा के लिए तैयार कर लिया था।
रही यह बात कि विदेश गमन के लिए मेरा खर्च
कैसे पूरा होता है। बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा हिन्दी ने अनेकों बार स्वयं
मेरा खर्च वहन किया है। 1970 में मैं पहली
बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भारत गया था। मेरी कहानियाँ धर्मयुग आजकल सारिका
आदि में प्रकाशित होती थीं। इसी के बल पर मुझे नागपुर के लिए सरकार की ओर से हवाई
टिकट मिला था। सूरीनाम जाना हुआ तो इस का खर्च भी भारत सरकार ने पूरा किया।
साहित्य आकादेमी, नेहरू संग्रहालय
तथा इस तरह से और भी अनेक जगहों से मुझे टिकट मिलते रहे हैं। पर साथ ही मैंने अपना
भी खर्च किया है।
उन दिनों आपकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित होने लगी थी. हिन्दी सीखने वालों के मन में हिन्दी के प्रति ललक जगाने के
लिए आप पत्रिकाऒं का जिक्र भी जरुर करते
रहे होंगे?
बेशक,
मैं बहुत जिक्र करता था। ईश्वर की कृपा से रुचि
जगाने का कौशल मुझे आता था। मेरा प्रभाव अपने विद्यार्थियों पर इसलिए तो निश्चित
ही पड़ता था क्योंकि मैं साहित्य जगत में जाना जाता था। धर्मयुग, सारिका, आजकल जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ छपने पर
मैं अपने विद्यार्थियों को प्रति दिखा कर कहता था मेरी कहानी छपी। मैं प्रकाशित
कहानी किसी विद्यार्थी से पढ़वा कर मंच को खुला छोड़ता था कि जिसे उस कहानी पर कुछ
बोलना हो खुल कर बोले।
मैं उन दिनों की
अपनी एक खास उपलब्धि यह भी मानता हूँ कि मैंने लिखने की चाह पैदा करने में ही अपने
कार्य की इतिश्री नहीं मानी थी। मैंने विद्यार्थियों से कहा था चलें एक पत्रिका का
प्रकाशन शुरु करते हैं। लिखने वाले तुम लोग तो होगें ही। देश के रचनाकारों से भी
रचना मांग कर पत्रिका में चार चांद लगाएँगे। पत्रिका प्रकाशित करने के लिए पैसा
लगता और मेरे विद्यार्थी पैसा लगाने के लिए तैयार थे। मैंने पत्रिका का नाम रखा था
-- निर्माण। पर दुर्भाग्य इस का एक ही अंक निकल पाया था। एक तो अगले साल
विद्यार्थी बदल गए। रही मेरी बात, अब वक्त कम पड़ते
जाने से मैं पढाने से विमुख हो जाना चाहता था।
कहानीकार होने के साथ ही आपका नाट्य लेखन भी
निरन्तर जारी था. निश्चित ही आपके नाटक के किरदार आपके विद्यार्थी ही रहे होंगे.
क्या आपने भी कभी इसमे अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया होगा?
सच कहूँ
तो अब वह ज़माना एक सपना लगता है। मैं अपने विद्यार्थियों के साथ मिल कर नाटक तैयार
करता था। नाटक मेरे लिखे होते थे और कलाकार मेरे विद्यार्थी होते थे। रेडियो और
टी. वी. पर हमारे नाटक उन दिनों खूब आते थे। राष्ट्रीय स्तर पर मंत्रालय की ओर से
नाटक प्रतियोगिता का आयोजन होता था जिस में हमारे नाटक अकसर फाइनिल के लिए चुने
जाते थे। नाट्य लेखक के रूप में मुझे पुरस्कार मिलते थे और मेरे कलाकार भी
पुरस्कृत होते थे। मेरी चर्चा तो भारतीय पत्रिका धर्मयुग तक में हुई थी। नाटक की
मुख्य धारा में होने से ही ‘मुझे अंधा’
युग नाटक से जुड़ने का अवसर मिला था। जैसा कि
मैं कहता हूँ श्रद्धेय धर्मवीर भारती का नाटक अंधा युग होने से और उन की धर्मयुग
पत्रिका में मेरी कहानियाँ छपने से मेरे द्वार खुलते गए थे। प्रथम विश्व सम्मेलन
नागपुर में हमारी ओर से यह नाटक मंचित हुआ था। निर्देशक भारतीय रंगकर्मी मोहन
महर्षि थे और मैं सह निर्देशक था। पर मैंने किसी नाटक में कलाकार की हैसियत से कभी
भाग नहीं लिया। यह मेरी रुचि का हिस्सा बनता नहीं था।
हिन्दी से संबंधित आप के जीवन में कोई
विस्मयकारी घटना घटी होगी?
आप ने
इस प्रश्न से मेरी रगों को बहुत गहरे छुआ। मैं 1970 में जब सरकारी अध्यापक बनने के लिए इन्टरव्यू देने गया था
तो यहाँ मेरे साथ एक बहुत ही विस्मयकारी घटना घटी थी। पूरे मॉरिशस से सरकारी
स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने के लिए पूरे साल में तीस तक लोगों को लिया जाता था। इस
में बड़े - बड़े प्रमाण पत्र वाले होते थे। मेरे पास केवल उतने ही प्रमाण पत्र थे
जिन के बल पर मैंने आवेदन की खानापूर्ति की थी। मुझे जब भीतर बुलाया गया था तो
प्रोफेसर रामप्रकाश ने मेरा नाम पूछा था। वे भारतीय थे। यहाँ के शिक्षा मंत्रालय
के बुलाने पर वे प्रशिक्षण देने आए थे। उन के पूछने पर मैंने नाम तो कहा था और लगे
हाथ मेरी नज़र ‘अनुराग’ पत्रिका पर चली गई थी जो चार - पाँच दिन पहले
प्रकाशित हुई थी। उस में मेरी लिखी पहली कहानी ‘प्रतिज्ञा’ प्रकाशित हुई थी।
इन्टरव्यू के लिए प्रश्नकर्ता तीन सज्जन थे। एक मंत्रालय का प्रतिनिधि था, एक अंग्रेज़ी - फ़ेंच में पूछता और प्रोफ़ेसर
रामप्रकाश हिन्दी में। मैंने हिम्मत की थी और सीधे प्रोफेसर रामप्रकाश से कहा था
इस पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी है। वे खुश हो गए थे। उन्होंने खोल कर कहानी
देखने पर मुझे बधाई दी थी। आश्चर्य, इतने में ही मेरा इन्टरव्यू पूरा हो गया था और दो दिन बाद मेरी भर्ती के लिए
टेलिग्राम मेरे घर पहुँच गया था।
मॉरिशस में हिन्दी की क्या स्थिति है- ?
आज
मॉरिशस में हिन्दी का तो बहुत ही व्यापकता से बोलबाला हो चला है। सर्वत्र हिन्दी
की पढ़ाई का शोर मचा हुआ है। परंतु हिन्दी में लेखन की बात होने से हमें दिल पर
हाथ रख कर सोचना पड़ जाता है एक यही कोना क्यों सूना - सूना प्रतीत होता है। इस पर
मैं अधिक बोलने से अपने को बचा लेना यथेष्ट मान रहा हूँ क्योंकि एक यही मैदान होता
है जहाँ अनदेखी तलवार की झनझनाहट बहुत होती है। परंतु हाँ, मैं आज की युवा पीढ़ी पर बहुत भरोसा करता हूँ। आज नौकरी से
रिटायर हो जाने के बाद मुझे बाहरी हवा का कुछ खास ज्ञान नहीं रहता। पर साहित्यिक
गोष्ठियों में इन लोगो से मुलाकात हो जाया करती है। मुझे लगता है कक्षागत पढ़ाई
में ही ये लोग आ कर ठहर जाते हैं। लिखने वाले दो तीन ही दिखते हैं और इस के आगे
अंधेरे का आभास होता रहता है। किसी से उस का प्रिय लेखक पूछ लें तो शायद उस के पास
जवाब न हो। तो इस तरह से छोटी - छोटी बातें हैं जो चट्टान जैसे भारीपन से हमारे
सिर पर लदे होते हैं। ऐसा नहीं कि इस का निराकरण हो नहीं सकता। निराकरण कोई त्याग
तपस्या नहीं मांगता। वह लगन और निष्ठा मांगता है। अब तो मॉरिशस में पढ़ाई पूरी
करने में पूरी सुविधा होती है। सरकार ने अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी के पठन पाठन के
लिए निशुल्कता का प्रावधान कर रखा है। आओ और हिन्दी ले जाओ। ऐसे में मुझे नहीं
लगता हिन्दी में लेखन का कोई अमावस चलना चाहिए।
उम्र के सत्तरवें पड़ाव में आने से पहले तक आपका
एक कहानी संग्रह –विष मंथन,
दो लघुकथा संग्रह- चेहरे मेरे-तुम्हारे,
यात्रा साथ-साथ ( प्रत्येक में लगभग ३००
लघुकथाएं हैं.), छः उपन्यास-छॊटी
मछली बड़ी मछली, चेहरों का आदमी,
पूछॊ इस माटी से,बनते बिगड़ते रिश्ते, सहमें हुए सच और अभी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास पथरीला
सोना ( छः खण्डॊ में, जिसमे हर एक खण्ड
४००-५०० पेज के हैं.) और सौ से अधिक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
हो चुकी है. इस सीमा पर पहुंचकर और आगे क्या करने का मानस बना है आपका?
अब केवल
लिखना मेरा काम होता है और अपने इस काम से मुझे बहुत प्रेम है। इनदिनों मैं एक
उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। इस के बाद मेरा विचार केवल कहानियाँ लिखने का है। मेरी
प्रतिनिधि कहानियों का एक संग्रह इसी महीने प्रकाशित हुआ है।
आपकी निरन्तरता, सक्रियता और श्रम-साध्य लेखनी के चलते आपको अनेकानेक
संस्थाओं ने सम्मानित किया है. आप अपने सम्मानों का एक ब्योरा देते तो बहुत ठीक
होता।
2003 में सूरीनाम में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन
में मुझे विश्व हिन्दी सम्मान से विभूषित किया गया था। लेखन में बराबर निष्ठा
बनाये रखने से तब से सम्मानित होता आया हूँ। 2017 में मेरे दो सम्मान विशेष रुप में चर्चा में आए। उत्तर
प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ से मुझे विश्व हिन्दी प्रसार सम्मान मिला और इस के साथ
मुझे एक लाख रूपए प्राप्त हुए थे। कुछ महीनों बाद मुझे देवरिया बुला कर विश्व
नागरी रत्न सम्मान प्रदान किया गया। सम्मानों की इस कड़ी में अब मेरे साथ एक और
महत्पूर्ण अध्याय जुड़ गया है। मुझे श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान, जिस में ग्यारह लाख रूपए जुड़े हुए थे, प्राप्त होना मुझे इस सोच में ले जाता है
हिन्दी के रास्ते चलते मैंने अपनी जेब की पूँजी गँवायी हो तो वह मुझे वापस मिल गई
है। मुझे हिन्दी का भोला बालक मान कर किसी ने ठगी से मेरा पैसा मारा हो वह मुझे
वापस वसूल हो गया है। पर इस राशि का मतलब मेरे लिए इतना ही नहीं है। मेरा देश याद
रखेगा हिन्दी के लेखक रामदेव धुरंधर का महत्व विश्व हिन्दी में आँका गया था। इतनी
बड़ी राशि के अक्स में मेरी परछाईं की कल्पना करने वाले लोग ज़रूर कहेंगे मैंने
अपने को तपाया था और नष्ट न हो कर कुंदन बने बाहर निकला था।
गोवर्धन यादव
सम्पर्क 09424356400,goverdhanyadav44@gmail.com
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