‘स्वाध्याय आलोचना की
कुंजी है’
हिंदी की शीर्षस्थ
आलोचक डॉ. निर्मला जैन से विशाल कुमार सिंह की बातचीत
निर्मला जी |
आलोचना और ठेठ
आलोचना के संबंध में आपकी क्या राय है?
निर्मला जैन-
आलोचना जो आलोचना के लिए की जाए मेरी नजर में वही ठेठ आलोचना है, जिसका अपने अतिरिक्त कोई और उद्देश्य न हो।
ऊपरी तौर पर चर्चा परिचर्चा के लिए व्यवहृत आलोचना, मेरी दृष्टि में ठेठ आलोचना नहीं है। उदाहरण के लिए पुस्तक
समीक्षा को ले लीजिए, आप देखेंगे
पुस्तकें लोग सैकड़ों की संख्या में लिखते हैं और समीक्षा के लिए भेज देते हैं।
पुस्तक की समीक्षा भी हो जाती है पर चलताऊ भाषा में। इसे ठेठ आलोचना की संज्ञा
नहीं दी जा सकती। आपने अगर ‘हिंदी आलोचना की
बीसवीं सदी’ किताब पढ़ी हैं तो
आपको याद होगा मैंने शुक्ल जी के सन्दर्भ में इस शब्द का जिक्र किया है। आप देखिये,
उन्होंने कैसे भक्तिकाल के तीन बड़े कवियों
(तुलसी, सूर, जायसी) को चुना। उसमें भी उनका आग्रह बहुत साफ़ और स्पष्ट है। एक
वरीयता क्रम उनकी दृष्टि में गोचर होता है साथ ही साथ बहुत सारी चीजें उनकी आलोचना
से सिद्धांत के रूप में निकल कर सामने आती हैं। जैसे उन्होंने मुक्तक की तुलना में
प्रबंध को बेहतर समझा, तत्पश्चात
उन्होंने लोकमंगल की सिद्धावस्था और साधनावस्था की बात कही। उसमें भी साधनावस्था
की जो कर्म का सौन्दर्य है उसे उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण अवस्था माना है। इस तरह
से ठेठ आलोचना मैं इसको कहती हूँ, आलोचना के लिए
आलोचना और जो व्यावहारिक आलोचना करते है उसमें से भी सिद्धांत निकले।
किसी लेखक और
आलोचक के बीच व्यक्तिगत संबंध होना आलोचना में कहाँ तक सहायक हो सकता है?
निर्मला जैन-
आलोचना में उसी स्थिति में सहायक हो सकता है जब आलोचक अपने आप को व्यक्तिगत
आग्रहों से मुक्त कर सके, तटस्थ हो सके।
अगर लेखकीय मित्रता आड़े आती है तो फिर आलोचना ईमानदार नहीं हो सकता। जिसे हम
बोलचाल के शब्द में कहते हैं न लिहाजा! अगर लेखक का लिहाज, उसके बारे में बातें कैसे कहूँ, कैसे लिखूँ मन में आ गया
तो फिर आलोचना नहीं होगी। पर कभी-कभी यह लेखक की सृजन प्रक्रिया को समझने
में मददगार होता है। आप पूछेंगे कैसे? आपको बता दूँ कृष्णा सोबती की चर्चित कहानी ‘ऐ लड़की’ और मन्नु भंडारी
की ‘त्रिशंकु’ कहानी सत्य घटना पर आधारित कहानी है। ‘त्रिशंकु’ में चित्रित जो समस्या है वह उनकी अपनी बेटी की समस्या है।
इसलिए व्यक्तिगत संबंध कभी-कभी कारगर सिद्ध होता है। पर इसकी सीमाएँ भी है।
क्योंकि किसी भी रचना की घटना ज्यों-का-त्यों नहीं होती जैसा कि दिखाया जाता है,
उसमें थोड़ी बहुत बदलाव की जरूरत पड़ती हैं।
मैंने ‘कथा समय में तीन हमसफर’
में भी इस ओर इशारा किया है।
आपने एक जगह लिखा
है “आलोचना मुश्किल डगर है और
उस पर अगर स्त्री हो तो रास्ता अधिक कठिन हो जाता है।” इससे आपका तात्पर्य क्या है? क्या स्त्री होने के नाते आपको अलग से किसी चुनौतियों का
सामना करना पड़ा है?
निर्मला जैन- यह
सिर्फ मुझ पर लागू नहीं होता, यह मैंने बिलकुल
सामान्य बात कही है। कितनी मुश्किल और कठिनाइयों से मैंने अपनी यह जगह बनायी है वह
मैं ही जानती हूँ। वरना लोग यह मानकर चलते हैं कि स्त्रियों में बुद्धि नहीं होती
या कमतर होती है। अगर वो कुछ कार्य कर रही है या लिख रही है तो उसका नोटिस ही नहीं
किया जाएगा। मुझे थोड़ा इस बात पर कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कैसे मैंने इसके लिए
अतिरिक्त प्रयास नहीं किया कि मैं स्त्री हूँ इसलिए कुछ और प्रयास करूँ। लेकिन
कुलमिलाकर शायद मेरे सामने चुनौतियाँ ज्यादा रहीं। स्त्रियों की जो स्थिति है समाज
में उनको बौद्धिक स्तर पर कोई इतनी ऊँचाई से नहीं देखता जितना पुरूषों को देखते
हैं। ये मानकर चलते हैं, यदि दो व्यक्ति
(स्त्री-पुरूष) समानांतर आलोचना कर रहे हैं, उसमें पुरूष की जो आलोचना है वही आलोचना के अंतर्गत है।
क्योंकि स्त्री का सम्बन्ध घर, घरेलू जीवन उस
तरह के काम-काज से है,लोग ये मानते हैं
कि उसकी प्रायरिटी (वरीयता) जो है वह घर परिवार को देती है। स्त्री के लिए आलोचना
दूसरी श्रेणी का अतिरिक्त काम है।
हिंदी काव्यशास्त्र और आलोचना को आपने समतल
धरातल पर लाने का गंभीर कार्य किया है। आपने आलोचना को शास्त्र और शास्त्र को
आलोचना की व्यावहारिकता देने का प्रयास किया है। इसके संबंध में आप कुछ बताना
चाहेंगी?
निर्मला जैन:-
देखिये ऐसा है, शास्त्र आपको एक
दृष्टि देता है, कुछ पैमाने देता
है। जिसकी दृष्टि से आप किसी रचना का विश्लेषण करते हैं। फर्ज कीजिए कि एक रचना
में बहुत सारे अलंकारों का प्रयोग हुआ है या ख़ास किस्म की भाषा का प्रयोग किया गया
है, उसकी व्याख्या करने के
लिए शास्त्र आपको आधार देता है। इसी के आधार पर आप शैली का विश्लेषण करते हैं,
अलंकारों का वर्गीकरण करते हैं। काव्यशास्त्र
से ही पता चलता है कि उसमें कौन-सा मानदण्ड निहित है, समझाने के लिए सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं। आलोचना में
बस इतना ही सम्बन्ध है।
क्या यह माना जाए
कि ‘कथा समय में तीन हमसफर’
इन तीनों लेखिकाओं (कृष्णा सोबती, मन्नु भंडारी, उषा प्रियंवदा) के माध्यम से आपने कथालोचन विषय की दृष्टि
को व्यक्त करना ही आपका कथालोचन के क्षेत्र में आने का मुख्य कारण रहा?
निर्मला जैन:-
नहीं बिल्कुल नहीं ऐसा कुछ नहीं है, कथालोचन में मेरा प्रवेश पहली बार निराला के ऊपर लेख लिखने के साथ हुआ।
तत्पश्चात मैंने प्रेमचंद की कहानियों पर लिखा। दरअसल ये पुस्तक इसलिए लिखी गयी
क्योंकि ये तीनों महिलाएँ मेरी मित्र हैं, कमोवेश कुछ घनिष्टता के स्तर पर फर्क है। जैसे मन्नु भंडारी वह मिरिंडा में
पढ़ाती थी तो उनके साथ मित्रवत सम्बन्ध हुआ,उषा प्रियंवदा शुरू में सहयोगी रही, मैं और उषा इकट्ठे लेडीज श्रीराम कॉलेज में काम किए। किंतु कृष्णा सोबती न उस
तरह मेरी सहयोगी थीं और न मेरी हमउम्र। उम्र में वह मुझसे काफी बड़ी थीं। फिर भी
उनके साथ आकस्मात मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया और वह मैत्री सम्बन्ध अब तक कायम
है। वे शहर के बिल्कुल दूसरे कोने में रहती हैं जमुना पार और मैं यहाँ रहती हूँ और
थोड़ा अब सुनने में भी उनको दिक्कत होने लगी है। फिर भी निरंतर हम एक दूसरे के
संपर्क में हैं। फोन से लगातार बात होती रहती है। ये जो तीनों महिलाएँ मेरी परिचय
के वृत्त में हैं, मुझे हमेशा लगता
है कि तीनों ही बड़ी गम्भीरता से साहित्यिक सृजन में लगी हुई हैं। मूलतः यह तीनों
रचनाकार थीं, आलोचक उनमें कोई
नहीं है। वैसे रचनाकार के साथ आलोचक का प्रिय सम्बन्ध जरा कम ही होता है। क्योंकि
हर रचनाकार यह उम्मीद करता है कि आलोचक उसकी तारीफ़ करे। मेरा इन लोगों के साथ
सम्बन्ध कुछ ऐसा रहा है कि हमारे बीच कभी रचनाओं को लेकर कोई नोक-झोक नहीं
हुई। पर कभी-कभी यह डर लगता है, कि उनकी कोई
महत्वपूर्ण बात मुझसे छूट तो नहीं गयी, या फिर रचनाकार की हैसियत से वह जो कहना चाहती हैं वह मेरी नजर से ओझल तो नहीं
गया है। फिर भी इन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की। कभी नहीं कहा कि आपने हमें
ठीक-ठीक नहीं समझा। ये मेरा अधिकार है कि रचना मुझसे क्या कहती है और मैं किस रूप
में ग्रहण करूँ। आपसदारी सी बनी हुई है हम लोगों में। प्रत्येक ने एक दूसरे की
स्वायत क्षेत्र को इज्जत दी। मैंने उनकी लेखकीय रूप की इज्जत की और उन्होंने मेरी
आलोचकीय रूप की इज्जत की। बहरहाल, लिखने का दूसरा
और महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि जिस दौर में ये तीनों लेखिकाएँ लिख रही थीं और
जिस तटस्थता के साथ लिख रही थी उस हिसाब से इन तीनों लेखिकाओं के साथ न्याय नहीं
किया गया है। पुरूष लेखकों के टक्कर की लेखनी होने के वाबजूद भी ये उपेक्षित रहीं।
आप देखिये, जिस समय मन्नु और
राजेन्द्र यादव एक साथ लिख रहे थे तब राजेन्द्र यादव का नाम मन्नु के मुकाबले बहुत
बड़ा था, इसका एक कारण यह भी रहा
कि एक पूर्ण पत्रिका का सम्पादन उनके हाथों में रहा। लेकिन जहाँ तक लेखन की बात है,
जितने समर्पित भाव से मन्नु ने लिखा है,
उतने समर्पित भाव से राजेन्द्र ने नहीं लिखा।
लेकिन दोनों के अध्ययन में बहुत बड़ा फर्क है। राजेन्द्र बहुत पढ़े-लिखे आदमी थे।
शायद ही ऐसी कोई चीज हो जो पढ़ने योग्य हो और उन्होंने छोड़ी हो। उस तरह से मन्नु की
तैयारी बिल्कुल नहीं थी। अपने लिखने और पढ़ाने के लिए जितना चाहिए उतना ही अध्ययन
करती थीं। अतिरिक्त स्वाध्याय जिसे कहते हैं वह मन्नु के पास कम रही। ठीक उसी तरह
से उषा जी का सवाल है। कृष्णा जी के संबंध में मैं नहीं कह सकती कि उनका स्वाध्याय
किस हद तक है, पर उनके पास बहुत पूंजी है। कुल मिलाकर माना जाता है कि
महिला रचनाकार अपने लिखने के अलावा पढ़ती लिखती बहुत कम है और इसीलिए उनका लेखन
कमतर होता है। मैं ऐसा नहीं मानती।
तीनों लेखिकाओं
के चयन में क्या व्यक्तिगत संबंध का कारण रहा है?
निर्मला जैन:-
नहीं। तीनों लेखिकाओं के चयन के पीछे उनका परिपक्व लेखनी का महत्व रहा है। आप अगर
खुद इनकी रचनाओं को पढ़ेंगे तो आप देखेंगे इन्होंने कितने बेवाक और निस्वार्थ भाव
से लिखा है। इन तीनों महिलाओं ने न किसी प्रचार माध्यम का सहारा लिया और न ही किसी
आंदोलन में हिस्सेदारी की। मैं उनके इस साहस को दाद देती हूँ। वैसे भी हम तीनों
में काफी मित्रता है, और मित्रता से
ज्यादा समझदारी। इसलिए जब मैं उनकी आलोचना करती हूँ तो ये पक्षपात का भाव भी नहीं
रहता कि किसी के बारे में कम लिखूँ या ज्यादा। जो भी लिखती हूँ मुक्त भाव से लिखती
हूँ। कोई नहीं कहता कि मेरे साथ कोई दुराग्रह हुआ है और दूसरे के साथ कोई
फेवॉराईटीजिम हुआ है। तीनों बहुत मैच्योर, प्रौढ़, व्यक्तिगत सम्बन्धों को
महत्व देने वाली लेखिकाएँ हैं। मैंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक संबंधों को कभी नहीं
मिलाया। अर्थात् मित्रता एक जगह और लेखक-आलोचक का सम्बन्ध एक जगह। इन्होंने आलोचना
के लिए मुझे पूरी छूट दी। पर आगे वाली
पीढ़ी के ऊपर मुझे इतना यकीन नहीं है। ये लोग बहुत टची हैं। कहीं भी कुछ निकलता है
तो स्वयं को टटोलती हैं। बराबर ध्यान देती रहती हैं कि, मैं कहाँ हूँ, कहीं तारीफ़ हुई की नहीं आदि। गम्भीरता और प्रौढ़ता की तुलना में इन तीनों
लेखिकाओं का जबाब नहीं है।
इन तीनों
लेखिकाओं की रचनाओं का विश्लेषण करते हुए प्रचलित स्त्रीवादी दृष्टिकोण से कहाँ तक
सहायता या रूकावट उत्पन्न होती है?
निर्मला जैन :-
यह सवाल मेरे समक्ष बहुत बार आया है और मैं आप को बता दूँ कि मैं इस तथाकथित
स्त्रीवादी आंदोंलन से बिल्कुल प्रभावित नहीं हूँ। क्योंकि जहाँ मूल समस्याएँ हैं
वहाँ ये आंदोलन तो होते ही नहीं। कुछ सीमित समस्याओं को लेकर लिखने को मैं स्त्री
विमर्श नहीं मानती। विमर्शों के नाम पर ये बस अपनी पहचान बनाने की कोशिश है। जिनको
कलम चलाने की तमीज नहीं है वे आज स्त्री विमर्शों के सरोकार बन बैठे हैं और जो
संपन्न परिवार से आती हैं उनकी अलग समस्याएँ हैं। हर घर की अपनी-अपनी समस्याएँ
हैं। असलियत से कोशों दूर रहकर और रचनाओं में अन्याय अत्याचार के विरूद्ध लिख देने
से स्त्री विमर्श नहीं होता। असली विमर्श वहाँ होता है जब कोई नीचे तबके के लोगों
की समस्याओं को समझते हैं। छोटी-छोटी लड़कियों के साथ हो रहे हिंसक व्यवहार बहुत
गहरी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं को ऐसे नहीं आंका जा सकता, ये सब जानते हैं। जहाँ तक आपका सवाल है, प्रचलित ‘स्त्रीवादी दृष्टिकोण’ जिसको कहते हैं, वह सिर्फ उसी साहित्य का का ठीक-ठीक मूल्यांकन कर सकता है जो स्त्रीवादी
दृष्टिकोण से रचा गया हो। ये लोग तो स्त्री हैं ही। एक सीमा तक स्त्री का
दृष्टिकोण उसमें आयेगा। अनायास आयेगा। लेकिन जिसे स्त्रीवाद कहते हैं यह जो वाद है
इससे बड़े खतरे पैदा होते हैं। दुराग्रह पूर्व जो नहीं है, उसे निकालने की कोशिश करते हैं। जैसे मान लीजिए प्रगतिवाद,
और आपने प्रगतिवादी दृष्टिकोण लागू की अगर वह
वाद प्रतिफलित नहीं हो रहा है रचना में तो आप उसका अवमूल्यन करेंगे। तो जब भी किसी
वाद से बंधकर रचना को देखेंगे तो वहाँ गड़बड़ है। तो स्त्रीवादी दृष्टिकोण से न
इन्होंने लिखा और न ही उन्हें देखी जानी चाहिए। बाद के लोगों में बहुत ऐसे हैं
जिन्होंने स्त्रीवादी दृष्टिकोण से लिखा।
आजकल विमर्शों का
दौर है, कहीं न कहीं आलोचना में
भी विमर्शवादी साहित्य का काया विस्तार हो रहा है। क्या आपकी नजर में विमर्श और
आलोचना एक हैं?
निर्मला जैन:-
नहीं। जिस अर्थ में विमर्श का प्रयोग किया जाता है उस अर्थ में नहीं। वरना विमर्श
का अगर सामान्य अर्थ लो तो सोच-विचार, परीक्षण ये सब विमर्श में आता है। व्यापक अर्थ में आलोचना और विमर्श एक है। पर
जो रूढ़ हो गया है विमर्श के अर्थ में वह नहीं।
ग्लोबलाइजेशन के
जिस दौर में हम जी रहें हैं वहाँ साहित्य का विकेंद्रीकरण दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा
रहा है, जाहिर है आलोचना की हालत
भी ऐसी ही है, ऐसे में हिंदी
आलोचना की आगामी दशा और दिशा क्या हो सकती है?
निर्मला जैन:-
साहित्य रचना और आलोचना बहुत धीरज का काम है। एक तरह से साधना है। पर दुखद स्थिति
यह है, केवल साहित्य के क्षेत्र
में ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्र में भी लोग सॉटकॉट की फार्मूले को बड़ी तेजी से
अपना रहे हैं। सब को जहाँ है वहाँ से आगे जाने की बहुत जल्दी है। बड़ी त्वरा हमारे
जीवन में पैदा हो रही है। बैलगाड़ी से यात्रा करते-करते हम वायुयान तक आ पहुँचे हैं
और हमारे साथ-साथ यह त्वरा भी हमारे संपूर्ण स्वभाव पर फैलता जा रहा है। आजकल लोग
लिखना बहुत बाद में चाहते हैं पर प्रशस्ती उसकी पहले चाहते हैं। व्यक्ति में आत्म
निरीक्षण और आत्मालोचन जैसी प्रवृत्ति की
कमी होती जा रही है। किंतु एक अच्छे लेखक होने के लिए जरूरी है कि आप आत्मालोचन
करें। आप जब अपने खामियों के बारे में स्वयं सहज-सतर्क नहीं होंगे तब अच्छा कैसे
लिखेंगे। आजकल मुझे इसमें थोड़ा संदेह है कि व्यक्ति अपनी खामियों के बारे में
सतर्क है? यह चिंतनीय विषय है। ऐसा
ही चलता रहा तो आने वाला समय बहुत अधंकार मय होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। मेरी अपनी युवा पीढ़ी से यही आग्रह
है कि इस कॉम्पिटेटिव दुनिया में अगर अपनी पहचान बनाये रखनी है तो खूब पढ़िए,
लिखिये, बार-बार अपनी गलतियों से नई सीख लीजिए। हिंदी साहित्य को और
भी ऊँचाइयों तक पहुँचाइये।
बतौर आलोचक आप
वर्तमान साहित्यिक धारा में आलोचना विधा की स्थिति एवं वर्तमान आलोचनाओं के द्वारा
किये जा रहे आलोचना कर्म के प्रति क्या दृष्टिकोण रखती हैं?
निर्मला जैन जैसा कि मैंने कहा, आलोचक होने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी होता है। और हो सकता है
मैं गलत हूँ, लेकिन मुझे लगता
है जितना स्वाध्याय अपेक्षित है उतना स्वाध्याय करने की लोगों में क्षमता और धैर्य
खत्म होती जा रही है। इसके लिए मैं अपनी युवा पीढ़ी को बहुत दोष नहीं देती। क्योंकि
जीवन के संघर्ष भी दूसरे किस्म के होते हैं। जीवन उस तरह परिभाषित नहीं रह गया
जैसे पहले था। पहले तो संयुक्त परिवारों में सबके कर्त्तव्य बंटे हुए थे सब अपना
काम ठीक कर रहे थे। अब ऑल इन वन है, एकल परिवार में दुनिया भर की जिम्मेदारियाँ, समय की कमी, फिर भागदौड़ इतनी
कॉम्पिटिसन कितनी। इसकदर प्रतिस्पर्धा हो गया है समाज में मानों हर क्षेत्र में
आगे बढ़ने की कामना सबके मन में घर करके बैठा है। ऐसे में टिक कर स्वाध्याय करना
बहुत मुश्किल है। क्योंकि प्रचार-प्रसार के कारण इतना लिखा जा रहा है, कभी-कभी उनसे पार पाना मेरे लिए भी कठिन हो
जाता है। चुन-चुन कर पढ़ना पड़ता है। तो युवा पीढ़ी की कठिनाइयों को मैं समझ सकती
हूँ। पर आलोचना करने के लिए स्वाध्याय बहुत जरूरी है। उसके बगैर आपका काम नहीं चल
सकता। और यह जीवन पर्यंत स्वाध्याय होता है। संभव होता तो मैं आप से कहती जरा मेरे
कमरे में जाइए और देखिये। अभी भी विस्तर पर किताबें और जो भी पत्र-पत्रिकाएँ यहाँ
प्रसिद्ध है वह सब बिखरे हुए मिलेंगे। क्योंकि वह मेरा अपना क्षेत्र है। बिल्कुल
अपना कमरा है। उसमें किसी का दखल नहीं है। उसमें मैं मुक्तभाव से पढ़ती, लिखती रहती हूँ, क्योंकि खाली समय में मुझे लगता है आदमी पढ़े नहीं तो और
क्या करे। ये स्वाध्याय, किताबों में डूबे
रहने की पुरातन पंथी है। अब न धीरज है लोगों में न धैर्य। संघर्ष इतने बढ़ गये हैं
जीवन में कि सब कुछ अपने आप ही करना है। मदद के लिए कोई दूसरा नहीं है। पर मैं ये
नहीं कहूँगी कि लोगों में समझ नहीं है, बुद्धि नहीं है। व्यक्ति बहुत बुद्धिमान है, समझदार है अब उसमें चतुराई भी आ गयी है। लेकिन आलोचना
चतुराई से नहीं साधना से चलती है। गहन-अध्ययन, समय का सदुपयोग, साहित्य को आत्मसात करने पर ही आलोचना और उसका स्वरूप निखरकर सामने आता है।
विशाल कुमार सिंह
शोधार्थी, हिंदी-विभाग
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
हैदराबाद
सम्पर्क
vishalhcu@gmail.com
9441376867
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धन्यवाद विशाल,
आपने मेरी किताव पढ़ी और उसकी चर्चा शशि से भी
की। यह सुनकर खुशी मिली कि मेरी जरूरत भी है। पर अभी थोड़ा अस्वस्थ महसूस कर रही
हूँ, उम्र भी हो रही है तो
कभी-कभी शरिर जो है साथ नहीं देता और पास ही में मित्र (अजीत कुमार) के निधन से मन
भी उदास है। इसलिए अभी तुरंत कुछ लिख नहीं पाऊँगी। थोड़े समय के बाद कुछ करने के
बारे में जरूर सोच सकती हूँ।
धन्यवाद मैम,
आपने मुझे इतना समय दिया। अपनी साहित्यिक और
व्यक्तिगत जीवन को मुझे समझने का अवसर
दिया। अपने ज्ञान को मेरे साथ साझा किया।
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