शोध आलेख:जाति वर्ग एवं जेंडर के बरक्स लोक में गल्प और यथार्थ का द्वंद्व/ राहुल

                         जाति वर्ग एवं जेंडर के बरक्स लोक में गल्प और यथार्थ का द्वंद्व
पुरुषों के खिलाफ खड़ा होना ईश्वर के खिलाफ खड़े होने से अधिक जटिल है.” - एनी निनेला

समय, समाज और संस्कृति को जानने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि लोक साहित्य व लोक संस्कृति से भली-भांति परिचित हुआ जाय। लोक का सार्वजनिक ज्ञान एवं अनुभव की यह परंपरा अलिखित होकर भी सर्वाधिक व्यापक एवं सशक्त है। लोक साहित्य में समूचा ज्ञान व्यवहार, सांस्कृतिक तत्व, कौशल और धार्मिक विश्वास व मान्यताएं सभी मौखिक परंपरा में ही हैं। इस मौखिक परंपरा के मूल्यों को जाने, समझे बिना लोक के यथार्थ को नहीं समझा जा सकता है। इस संदर्भ में कपिल तिवारी कहते हैं- लोक में सारा ज्ञान, व्यवहार, भाषा साहित्य, कौशल, सांस्कृतिक-रचना के विविध रूप, आध्यात्मिक विश्वास व शक्तियों के प्रतीक सभी वाचिक हैं। इस परंपरा का आधार जीवन की वास्तविक शिक्षा है- जीवन जो सिखाता है, उसकी पाठशाला में जीवन के ज्ञान, रचना और विमर्श के पीछे सैकड़ों पीढ़ियों का ज्ञान संरक्षित है। वह प्रत्येक पीढ़ी तक आता है उसके उत्तराधिकारी की तरह, और प्रत्येक पीढ़ी जीवन के अनुमान और अनुभूति को एक नवाचार के साथ उसमें जोड़ती है, विरासत को अधिक समृद्ध, जीवंत और प्रासंगिक बनाती चलती है। यही लोक की जीवन परम्परा है, जिसमें जीवन का ज्ञान और मनुष्य के रचना सामर्थ्य से जीवन का संस्कृतिकरण होता है।”  शिष्ट साहित्य के विपरीत लोक साहित्य की मौखिक परंपरा के सर्जक प्रायः गुमनाम रहते हैं। लोक में समूह द्वारा संचित ज्ञान और अनुभव का संचरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता है, और लोक साहित्य की मौखिक परंपरा में परिवर्तनशीलता और स्थायित्व के बीच जो द्वंद्वात्मक रिश्ता कायम होता है वह सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक परिवर्तनों को भी प्रेरित करता है।

इस संदर्भ में लोक का महिमा मंडन सामाजिक सांस्कृतिक सद्भावना के साथ किया गया है, जबकि सामाजिक-आर्थिक धरातल पर यह संभव नहीं है। इतिहास की भौतिक अवधारणा के अनुसार- वास्तविक जीवन में उत्पादन और पुनरुत्पादन ही अततः इतिहास के निर्णायक तत्व हैं जो समाज के भौतिक आधार में हुए परिवर्तनों को आर्थिक इतिहासज्ञ पदार्थ विज्ञान की भांति सही-सही जांच सकता है, (स्पष्ट ही इसका मतलब यह नहीं है कि इन परिवर्तनों का वैज्ञानिक रूप से निर्धारण होता है) किन्तु इसके ऊपरी सामाजिक तथा आध्यात्मिक ढांचे में हो रहे परिवर्तनों की ऐसी कोई वैज्ञानिक नापतौल नहीं की जा सकती। परिवर्तन होते हैं, लोगों को उनका बोध होता है, नये और पुराने के बीच द्वंद्व का वे अपने दिमागों में निबटाराकरते हैं।  परिवर्तन का यह बोध जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन के तरीके सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक जीवन की समूची प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं। लोगों की चेतना उनके समूचे अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती है, बल्कि इसके विपरीत सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना को निर्धारित करता है। और यही चेतना सत्ता की नियंता है। और ये सारे तत्व लोक साहित्य को निर्धारित करते हैं। कबीलाई समाज के बाद जब निजी संपत्ति का प्रभाव बढ़ने लगा और वर्गहीन समाज वर्ग में तब्दील होता गया तो इसके एवज में जिस लोक का जन्म हुआ वह वर्गहीन नहीं था। भारत के संदर्भ में इसमें जाति भी शामिल रही।

लोक संस्कृति का प्रकार्यवादी दृष्टिकोण गल्प नहीं है और न ही पारंपरिक समाजों में आंतरिक रूप से सद्भावना रही हो, जैसा कि हमेशा से माना गया है। उन समाजों में जिन्हें हम वर्ग समाज नहीं कह सकते, वहाँ भी समुदाय, जेंडर, आय, संताप व नातेदारी के रूप में विभाजित थी। इन समूहों में पदानुक्रमणिक (Hayrarki) संबंध था, जिसमें अधीन व प्रभावशाली दोनों थे। वर्तमान समय में भी इस प्रकार के समुदाय मौखिक परंपरा के रूप में अभी भी अस्तित्व में हैं। इस विश्लेषण से हम यह मान सकते हैं कि लोक प्रभावशाली लोगों के लिए, अधीन लोगों के अर्थ से अलग हो सकता है या होता है। इस तरह लोक साहित्य प्रतिवाद़/विवाद का एक उपकरण है जो सत्ताधारियों के खिलाफ उन पर प्रश्न करने व सवाल उठाने, उपहास बनाने में अहम भूमिका निभाता है। इस तरह लोक का संघर्ष हर उस जगह होता है जहाँ प्रभुत्व का संबंध होता है। प्रभुत्व का महत्त्व नस्ल, जाति, जेंडर व वर्ग के राजनीतिक व आर्थिक हालातों पर निर्भर करता है, जिसे संस्कृति और धर्म से जोड़कर तर्कसंगत बनाया जाता है। संबंधों के इस पड़ताल को स्त्री-पुरुष के यौनिक संबंध में भी देखा जा सकता है।

इस संबंध में लम्बार्ड स्त्रैनी (lambardi Satriani) ने लिखा है- सेक्स के मध्य संबंध सबसे स्पष्ट उदहारण है जहाँ महिलाएं स्पष्ट रूप से निम्न प्राणी (हीन) की भूमिका मान लेती हैं। स्त्रियों में यह हीनता भाव पितृसत्तात्मक विचारधारा के प्रभावी होने की वजह से है। स्त्रियों के संदर्भ में वर्गीय संरचना का दूसरा पक्ष पुरुषों को संस्कृति का रक्षक मानने से है जहाँ स्त्रियां स्वयं सर्वहारा वर्ग का निर्माण कर ऐतिहासिक रूप से शोषित वर्ग में आ जाती हैं। लेकिन इस प्रभुत्व संबंध के बावजूद लोक में विरोध स्पष्ट प्रतिविम्बित होता है। यह अलग बात है कि प्रतिरोध का यह प्रतिविम्बन बहुत ही मुश्किल रूप से दीखता है, यानी लोक में यह दुर्लभ रूप से दिखता है। लाम्बार्ड़ आगे कहते हैं कि ऐसा बहुत कम होता है कि हम जब भी देखते हैं शोषकों के मूल्य को लोक में पाते हैं।

लोक के इस संरचना में स्त्री-पुरुष संबंधों पर ऐली निनोला (Aili Nenola) कहती हैं- अधिकांशतःपुरुष, महिलाओं को लोक मूल्यों का प्रतिविम्बन मानते हैं, जोकि पितृसत्तात्मक विचारधारा का एक सामान्य दृष्टिकोण है। इस संदर्भ में वह प्रश्न करती हैं कि लोक में महिलाओं की संस्कृति प्रत्यक्ष रूप से क्यों नहीं दिखती? वे प्रभुत्व व अधीनता के किन संबंधों में जीती हैं। इस पर कोई सवाल नहीं करता। कोई यह मान सकता है कि विरोध भी लोक के प्रयोग की संभाव्यता रोजमर्रा के जीवन में दिखाने वाली प्रभुत्वशाली एवं अधीनता के मध्य दिखने वाली दूरी के अनुपातिक होती है और यह अनुपात लोक जीवन में भी बरकरार है। लेकिन सवाल यह है कि लोक साहित्य में यह मूल्य बोध ही गायब है। प्रभुत्व एवं वर्चस्व की राजीनीति के प्रति लोक में कोई जागरूकता नहीं है, बल्कि इसके प्रति जागरूकता को देंखे तो यह पाएंगे कि अधीनों (सर्वहारा) का जो भी है लोक है उसमें भी पुरुषों का ही वर्चस्व है। स्त्रियां इसके प्रभुत्व को नहीं पहचान पाती हैं, क्योंकि वे इसे परंपरा और  संस्कृति से जोड़कर देखती हैं और ईश्वर का दिया हुआ मानती हैं। अगर कोई स्त्री वर्गीय, जातीय एवं पितृसत्ता के इस सत्ता-संरचना को समझ जाती है तो भी उसके लिए पुरुषों के खिलाफ खड़ा होना ईश्वर के खिलाफ खड़े होने से अधिक जटिल होता है।

लोक साहित्य सहज, सरल, सुबोध, सचेतन यथार्थ, ग्राह्य एवं  एक जीवन राग है, जिससे जीवन के विविध रूपों को जाना समझा जा सकता है। इसी संदर्भ में लोक साहित्य में स्त्रियों की अभिव्यक्ति को देखा गया है। लोक के इस ज्ञान में जाति, वर्ग एवं जेंडर की संरचना भी अहम भूमिका निभाती है। उच्च जातियों में लोक का जो स्वरुप है वही स्वरूप निम्न जाति में नहीं है। इसी तरह उच्च जाति की स्त्री की लोक अभिव्यक्ति भी भिन्न है। जाति विभाजन के इस क्रम में निम्न जाति के पुरुषों व स्त्रियों में भी अंतर है, लेकिन यह अंतर संरचना के स्तर पर नहीं है, बल्कि स्त्री-पुरुष के समाजीकरण व पितृसत्ता के संबंधों का अंतर है। लिखित ज्ञान परंपरा न होने के बावजूद लोक में स्त्री, पुरुष के अभिव्यक्ति में पदानुक्रम (Hierarchy) है। यह पदानुक्रम पितृसत्ता से निर्मित हुआ है। इसलिए पितृसत्तात्मक लोक स्त्रियों की अभिव्यक्ति को कमतर आकता है। यह इसलिए भी है कि पुरुष अपने आप को संस्कृति का वाहक समझता है। पुरुषों को सांस्कृति का रक्षक मानने से स्त्रियां स्वयं सर्वहारा वर्ग का निर्माण कर ऐतिहासिक रूप से शोषित वर्ग में आ जाती हैं। इस प्रभुत्व संबंध के बावजूद लोक में विरोध स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित होता है, लेकिन यह दुर्लभ रूप में ही दिखता है। लोक साहित्य प्रतिवाद/विवाद का एक उपकरण है जो सत्ताधारियों के खिलाफ उन पर प्रश्न करने व सवाल उठाने, उपहास बनाने में अहम भूमिका निभाता है।  लेकिन ऐसा बहुत ही कम होता है जब हमें लोक साहित्य में वर्ग संघर्षदेखने को मिलता हो। लॉम्बार्डी (Lombardi) के अनुसार – “ऐसा बहुत कम होता है कि हम जब भी देखते हैं शोषकों के मूल्य को लोक में पाते हैं।  संघर्ष का लोक तो हर जगह है, लेकिन इस लोक-संघर्ष में शोषितों व स्त्रियों का मूल्य बहुत कम है। लोक अपने पूरे क्रिया-कलाप में प्रभुत्व का संबंध स्थापित करता है। और प्रभुत्व का यह वर्चस्व नस्ल, जाति, जेंडर व वर्ग  के राजनीतिक व आर्थिक हालातों पर निर्भर करता है, जिसे संस्कृति और धर्म से जोड़कर तर्कसंगत बनाया जाता है।

लोक में स्त्री अभिव्यक्ति के लिए अनेक बाधाएं (Barriar) हैं जो हमें सामान्यत: नहीं दिखाई देती, बल्कि प्रच्छन्न रूप से इसकी अवस्थिति रहती है। एली नेनोला (Aili Nenola) के हवाले से कहें तो- अधिकांशत: महिलाओं को लोक का प्रतिविम्बन माना जाता हैं, जो पुरुषों का एक सामान्य दृष्टिकोण है। वह कहती हैं कि लोक में महिलाओं की संस्कृति प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखती है। वे प्रभुत्व व अधीनता के किन संबंधों में जीती हैं। कोई यह मान सकता है कि विरोध भी लोक के प्रयोग की संभाव्यता रोजमर्रा के जीवन में दिखाने वाली प्रभुत्वशाली एवं अधीन के मध्य दिखने वाली दूरी के अनुपातिक होती है। इसके साथ ही यह सवाल उभरता है कि; लोक का यह ज्ञान किसका विमर्श और विवेचना करता है। क्या यह किसी एक ख़ास समुदाय, जाति, वर्ग या वर्चस्व को ही तो नहीं स्थापित करता। लोक-ज्ञान का शास्त्र-विधान बनाते हुए किन परंपराओं, मूल्यों, विश्व दृष्टियों को शामिल किया जाता है और किसे ख़ारिज, यह भी देखना लाज़मी है। समाज में जैसा भी अच्छा-बुरा, सुंदर-असुंदर रहा है उसके प्रति साधारण जनमानस की भावनाएं ही लोक साहित्य में दिखती हैं। लेकिन यह भी लोक का एक ही पक्ष है। स्त्री जीवन-मूल्य पर लोक मौन ही दीखता है। इसके साथ ही पितृसत्ता का जोर, जातीय संरचना व वर्गीय भाव भी लोक में खूब दिखते हैं। लोक मंगल की कामना इसका प्रस्थान विंदु है, लेकिन इस लोक मंगल की कमाना से स्त्रियां दूर हैं। स्त्रियां दूसरों के लिए लोक मंगल की कामना करती हैं, लेकिन स्त्री के लिए लोक मंगल की कामना करता लोक का कोई हिस्सा नहीं दीखता है। यही पितृसत्ता जिमि स्वतंत्र होई बिगरहि नारी का आर्डिनेंस जारी करता है, और यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताःवाला कथित समाज  बेटियों के जन्म को अच्छा नहीं मानता है। बेटियों को पराया धनमानकर कन्यादानका विधान तैयार करता है। धार्मिक नियमों एवं पारंपरिक विधि-निषेधों में स्त्री को उपेक्षिता एवं अस्तित्वहीन बनाता है। चूँकि भारतीय समाज अपने प्रारम्भिक चरण से ही पितृसत्तात्मक रहा है, इसलिए  समाज का यह ढांचा स्त्री को पुरुष से कमतर मानता है। पितृसत्तात्मक समाज की अनेक मान्यताएं  स्त्रियों में भी रूढ़ हो गयी है। स्त्रियां इसे अपनी नियत मान ली हैं; और इसे जीवन-रूप के स्तर पर स्वीकार भी कर ली हैं, इसलिए गीतों में दुःख व करुणा का समावेश तो दीखता है लेकिन इसका प्रतिकार, प्रतिरोध कम ही दिखता है, या लगभग नहीं ही दिखता है।

बेटी जन्म को हमारे समाज में बहुत अच्छा नहीं माना गया है। बेटी पैदा होने पर मातमी माहौल छा जाता है, जिनके घर में बेटी का जन्म होता है, उन्हें लगता है जैसे जीवन में अँधेरा छा गया हो, कुछ भी शेष नहीं रह गया हो, जीवन दूभर हो गया हो। मां स्वयं को कोसती है कि यदि वो पहले ही जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन (उपाय) करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी पैदा होने की खबर पाकर पति भी मुंह लटकाए हुआ फिरता है। ये बातें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में स्पष्ट दिखती है।

जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवां
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवां

इन लोकगीतों के बहाने लोक समाज की स्त्री-मन के विविध भावोच्छ्वास अपनी संपूर्ण तरलता और उद्दाम वेदना के साथ प्रकट हुए हैं। बेटी के जन्म पर परिवार की उपेक्षित प्रतिक्रिया पर स्त्री का गुस्सा, गुबार जो कि पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्रियों पर लादा है लोकगीत में स्पष्ट दिखता है, जहां वह कहती है कि यदि उसे पता होता कि उसके गर्भ में  लड़की है तो वह उसे जन्म ही न देती -

जाहु हम जनिती धियवा कोखी रे जनमिहे,
पिहितों में मरिच झराई रे,
मरिच के झाके झुके धियवा मरि रे जाइति,
छुटि जाइते गरुवा संताप रे।

यह कैसा समाज है जिसमें एक मां अपनी संतान को कोख में ही मार देना चाहती है? चूँकि यह समाज स्त्री द्वेषी समाज है, पितृसत्ता के विचार व सिद्धांत इस कदर हावी है कि एक स्त्री बेटी को जन्म ही नहीं देना चाहती। यहां मां का अपने नवजात शिशु के लिए मृत्यु की कामना इसलिए करती है कि वह कन्या है, जो समाज के विकृत रूप को सामने लाता है। यह गीत स्त्री-मन के गहरे विक्षोभ और वितृष्णा को अभिव्यक्त करता है।

वर्तमान समाज में भी स्त्री का सम्मान उसके पुत्र पैदा करने से होता है। पुत्र को जन्म देने वाली स्त्री का महत्व बढ़ जाता है, जबकि पुत्री को जन्म देने वाली स्त्री को परिवार में उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। पुत्री जन्म के बाद उसका आदर सम्मान कम हो जाता है उसके साथ तमाम तरह के दुर्व्यवहार किए जाते हैं। इसी संदर्भ में संतानहीनता या बाँझ होना स्त्री के लिए सबसे बड़ा अपमान, उपेक्षा व तिरस्कार की पराकाष्ठ है, जबकि संतानोत्पत्ति (Reproduction) की प्रक्रिया में स्त्री पुरुष दोनों बराबर हैं। बाँझपन एक बीमारी है जो स्त्री-पुरुष दोनों में हो सकता है, लेकिन आरोप केवल व केवल स्त्री पर ही लगता है।

"सासु मोरी कहेली बंझनियां ननद ब्रजवासिनि हो
रामा जिनके मैं बारी रे बिआही अहो घर से निकसलनि हो
घरवा से निकसी बंझनियाँ जंगल बिच ठाढ़ भइली हो

पितृसत्तात्मक समाज में निःसंतान स्त्री-पुरुष दोनों की भर्त्सना की गई है, लेकिन निःसंतान स्त्री ही सर्वाधिक उपेक्षा की पात्र रही है। इस लोकगीत में स्त्री-करुणा की पराकाष्ठा है। जहाँ अप्रसवा (बाँझ) स्त्री को उसका पति उसे घर से निकाल देता है। यहाँ एक स्त्री की उपेक्षा की मार्मिक व्यंजना अभिव्यक्त हुई है। इसमें ऐसी स्त्री की पीड़ा का वर्णन है जिसे अपनी ससुराल से संतानहीनता (बांझ) के अपराध में घर से निकाल दिया गया है। जंगल में बाघिन और नागिन भी उसे शरण नहीं देती हैं धरती उसे 'ऊसर' होने के भय से शरण नहीं देती। यह गीत संतानहीन स्त्री की पीड़ा सामाजिक तिरस्कार और अन्याय  को दिखाती है कि एक संतानहीन स्त्री को किस तरह का दुःख उठाना पड़ता है और इस दुःख में उसका कोई साथ भी नहीं देता है। 

पुत्र कमाना छठ व्रत पर गाये जाने वाले गीतों में भी दीखता है। इन गीतों में पुत्र की कामना की गई है। छठ व्रत में निःसंतान स्त्री और जिन स्त्रियों को बेटियां होती हैं, लेकिन बेटे नहीं है, वे स्त्रियां इस व्रत को विशेष रूप से रखती हैं। वे आदिती देव (सूर्यदेव) से पुत्र की ही कमाना करती हैं।

थोरा नाहिं लेबो ए अदित बहुत न मान्गिले
पांच पुतरवा ए आदित हमरा के दीहि
एक दूसरे गीत में कहती है कि सासु मुझे डांटती हैं, ननद गाली देती है और मेरा पति मुझे डंडे से मरता है।
ए सासु मोहे हुदुकाए ए दीनानाथ; ननदिया परे गारी
ए संगे लागल पुरुखवा ए दीनानाथ, हमारा के डंडा से मारी

इस तरह से हम पाते हैं कि सोहर व छठ के गीतों में स्त्रियों के भोगे हुए यथार्थ और परिस्थितियों को उद्घाटित किया गया है। कौशल्या व पार्वती के माध्यम से स्त्रियां इसको सामान्य जन तक ले आती हैं। सामान्य स्त्रियां इसके प्रतिकार में नहीं खड़ी होती हैं। वे अपने मन को सांत्वना देती हैं कि जब रानी कौशल्या के साथ ऐसा हुआ तो हम तो सामान्य स्त्री हैं। पार्वती जब छठी का व्रत कर सूर्य देव से पांच पुत्रों की विनती करती हैं तो हमारी क्या विषाद। यह चेतना ही स्त्री प्रतिकार में बाधक है, जो  यह मनाने के लिए विवश करता है कि यही स्त्रियों की नियति है। पुत्र-जन्म न देने वाली स्त्री को व्यर्थ समझा जाता है; स्त्री जीवन को इस तरह से अभिशापित किया जाता है कि सारे सामाजिक, धार्मिक आदर्श पुत्र-जन्म न देने से टूट जाएंगे। सारे सामाजिक निकष फेल हो जाएंगे जिसे पितृसत्ता ने स्त्री के लिए बनाया है। पुत्र के अभाव में पुरुष पितृऋण से उऋण हीं हो पाता और इसकी जिम्मेदारी स्त्री को ही है। स्त्री को अपने पति को इस ऋण से मुक्त कराने और उसे मोक्ष प्राप्त करने में अहम् भूमिका निभानी पड़ती है। और अपनी इस भूमिका को पूर्ण करने के लिए उसे पुत्र को जन्म देने की अनिवार्यता है। और यदि स्त्री ऐसा करने में असफल रही तो उसके पारिवारिक-सामाजिक मान-सम्मान में कमी आ जाती है। स्त्रियां इस तरह के सामाजिक अपमान के दंश से बचने के लिए हर उपाय, हर प्रयास करती हैं। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, टोटके सभी प्रकार के प्रयास पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है। पुत्र को समाज में सबसे बड़ा रत्न के रूप में प्रचारित किया गया है, ऐसा रत्न जो मोक्ष दिलवाने में सहायक है।  पितृसत्ता स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक मानता है, इसलिए स्त्री की स्वतंत्र छवि को सहन नहीं कर पाता उसके प्रति दुराग्रह की भावना काम करती है।

स्त्रियों के सपने, इच्छाएँ, आकांक्षाएं और कल्पना लोकगीतों में दर्ज हैं; कहीं-कहीं सीधे तो कहीं-कहीं प्रतीकों में। भाषा के आधार पर देखें तो यह लक्षणा और व्यंजना में अधिक अभिव्यक्त हुआ है। राधा कृष्ण को प्रतिक बनाकर प्रेम-प्रसंग और विवाहेत्तर संबंधों से संबंधित गीतों को देखा जा सकता है। हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिबद्ध कवियों के बारे में भी यही बात कही गयी है। रीतिकाल के कवि राधा कृष्ण को आलंबन बनाकर लौकिक प्रेम की बात कह कह रहे थे। रीतिबद्ध कवियों के यहाँ भी प्रेम वर्णित है। यह प्रेम अधिकतर राधा-कृष्ण या गोपी-गोपिकाओं आदि के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। रीतिबद्ध कवियों ने अपने प्रेम निरूपण के लिए राधा-कृष्ण को आलंबन बनाया है। उपासना में श्रृंगारिकता का समावेश हो गया और कवियों ने राधा व कृष्ण को सुमिरन का बहाना बना दिया। भिखारीदास के शब्दों में-

आगे के सुकवि रीझिं हैं तो कविताई
न तु राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानौ है

लोक गीतों में राधा-कृष्ण को आलंबन बनाकर अनेक गीत हैं जिसमें प्रेम का मनुहार, चुहल और छेड़छाड़ मौजूद है। जातीय संरचना में देखें तो हम पाते हैं कि उच्च जाति में राधा-कृष्ण को आलंबन बनाकर अधिकांश प्रेम गीतों को रचा गया है, जिसे स्त्रियां बहुत ही सहज होकर गाती हैं। वैसे यह आधार सभी जातियों में है, लेकिन उच्च जातियों में अधिक है। राधा-कृष्ण के बहाने अपने प्रेम और काम-भावों के निरूपण की प्रवृत्ति समान रूप से पाई जाती है। राधा-कृष्ण के आलंबन में स्त्रियां ऐसी बात कहती हैं जिन्हें वे सार्वजनिक रूप से आसानी से नहीं कह पातीं, जो पितृसत्तात्मक सामाजिक नैतिकता बोध के कारण संभव नहीं होता। समाज में प्रेम पर अत्यधिक बंदिश होने कारण ही स्त्रियों ने इस तरह की गीतों के माध्यम से प्रेम को अभिव्यक्त किया होगा। इसी नैतिकता बोध से संबंधित एक कजरी दृष्टव्य है।

आहो रामा कृस्न बने मनिहारी बेचन लागे सारी ए हरी
अपने महलिया से निकलें राधे ललिता हो रामा
आहो रामा मोहन संगवाँ करेलीं चिकरिया ए हरी
आहो मोहन साँझी बेर अइहऽ मोर नगरिया ए हरी

यह कजरी उच्च व कुछ पिछड़ी जातियों में ही अधिक गाया जाता है। इस तरह के लोकगीतों से जातीय संरचना, प्रेम व्यवहार, यौनिक अभिव्यक्ति व जीवन-आदर्श व पितृसत्ता के संरचना को भी आसानी से  समझा जा सकता है। इस कजरी में राधा-कृष्ण को आलंबन बनाया गया है। कृष्ण अपनी प्रेमिका से मिलने मनिहार बनकर जाते हैं। कृष्ण मनिहार (चूड़ी बेचने वाला) बनकर साड़ी बेचने लगे हैं। अपने घर से राधा और ललिता निकलकर आती हैं और कृष्ण से (चिकोटी लेते हुए)  शाम के समय अपने घर आने के लिए आमंत्रित करती हैं।

घाम के घमाइल जोगियवा एक आइल
जोगिया लाल हमरी ओसरवाँ जूड़ऽ छाँह
त घमवा गँवाइ रे लेहु ना
जोगिया लाल भगबे त भागू
हमार लोगवा नीयर अइलैं ना

यह लोक गीत भी प्रणय (प्रेम) निवेदन का है। इसमें राधा कृष्ण को आलंबन नहीं बनाया गया है। यह गीत श्रमिक स्त्रियां (दलित स्त्रियां) गाती हैं। धूप से व्याकुल एक जोगी आया है। स्त्रियां उसे देखकर कहती हैं कि मेरे ओसारे में छाँह है, इसमें आकर सुस्ता (आराम)। इस गीत को व्यंजना में ही समझा जा सकता है। इस पूरे गीत का विषय यह है कि सही मौका देखकर औरत अपने प्रेमी को घर में बुलाती है और कामसुख पा लेने के बाद उसे सुरक्षित घर से बाहर निकाल देती है। इस तरह के गीत सामाजिक पदानुक्रम(Hierarchy)  को तो व्यक्त करते ही हैं, लेकिन इसका जातीय विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि उच्च जातियों में नैतिकता एवं मर्यादा की कठोरता अधिक है, जबकि जातीय संरचना में निम्न जातियों के यहाँ इतना कठोर बंधन नहीं है। निम्न जातीय स्त्रियां इस तरह के गीतों को अभिव्यक्त कर रहीं हैं तो जरूर ही उनके यहाँ यौनिक संबंध व प्रेम के लिए लचीलता है। यह लचीलता उच्च जाति की स्त्रियों के हिस्से में नहीं है। उच्च जाति की स्त्रियां नैतिकता और मर्यादा के कठोर बंधनों में जकड़ी होती हैं, लेकिन उन्हें अपनी जातिय संरचना (भारत में लगभग उच्च जाति वर्ग भी बनाती है) कारण अधिकांश सुख भी नसीब होते हैं, जबकि निम्न जातियों की स्त्रियां भौतिक सुख-संसाधनों से तो वंचित होती हैं। अपनी इसी जातिगत-आर्थिक सम्पन्नता के कारण उच्च स्त्रियों की तुलना निम्न जाति की स्त्रियां नैतिकता और मर्यादा के बंधनों से कमोबेश मुक्त रहती हैं।  यह जरूर है कि समाज में जीने और सोचने के तमाम तरीके साथ-साथ पाए जाते हैं। लेकिन सामाजिक पदानुक्रम (Hierarchy)में निम्न जातियों में प्रेम एवं यौन प्रसंगों को इतना अधिक ढककर या उलटकर कहने की जरूरत नहीं होती। वहाँ इसे सीधे-सीधे कहने की गुंजाइश बनी रहती है। इसका एक उदहारण दृष्टव्य है जिसमें एक स्त्री की उन्मुक्त अभिव्यक्ति है-

नदी नरवा में यार लगावैं कँटिया
सोने की थारी में जेवना परोसलीं
जेवना न जेवैं बिछावैं खटिया

विवाह संस्था से इतर प्रेम-संबंध और यौन संबंध केवल परिवार के बाहर ही नहीं पाए जाते, बल्कि परिवार में भी इस तरह के संबंधों की मौजूदगी रहती है, जिन्हें लोक गीतों अभिव्यक्त किया गया है। देवर-भाभी, जीजा-साली, ननदोई-सरहज से संबंधित रिश्तों में एक प्रकार का छेड़छाड़ दीखता है जो कभी-कभी यौनिक संबंधों तक दृष्टिगोचर होता है।

फूले हजारी क सेज लगवलों
आ हो रामा सोवें देवर भउजाई
देखत नींक लागे ए हरी ...

लोक में कई ऐसे गीत हैं जिसमें सामाजिक मूल्य व मर्यादाओं का अतिक्रमण करती दिखाती है। परसेदी पति के संदर्भ में वियोगिनी स्त्री की कल्पनाओं व स्वप्नलोक (यूटोपिया) को देखा जा सकता है। यह लोक गीतों में परिलक्षित होता है, जरूरी नहीं कि यथार्थ भी बिलकुल वैसा ही हो। स्त्री का कल्पनालोक वह समाज रचता है जो यथार्थ में नहीं है। अपने स्वप्न लोक के लिए वह सामाजिक मर्यादाओंका अतिक्रमण करती है और इसके लिए सार्वजनिक परिक्षेत्र (Public Domain) में कदम रखती है। इन गीतों में महज स्वप्न और इच्छाओं की ही अभिव्यक्ति नहीं करती है, वरन इच्छाओं और सपनों को मूर्त रूप देने के लिए परिवार और समाज जैसे संस्थाओं के मूल्यों-मान्यताओं से  सामना करना पड़ता है। स्वप्न और यथार्थ की टकराहट जीवन-आख्यान के जरिए गीतों में पहुँचती है, क्योंकि यह यथार्थ रूम में फलीभूत नहीं हो पाता।

लोकगीतों की पूरी रचना प्रक्रिया व गायन से स्त्रियां यह जानती हैं कि उनके प्रति होने वाला उत्पीड़न पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों की वजह से और वे इसको सहने के लिए विवश हैं। उनका पति भी न चाहते हुए सामाजिक मर्यादाओं यानी पितृसत्तात्मक सिद्धांत व विचार उसे इस तरह के कठोर व्यवहार करने के लिए मजबूर करते हैं। यह समाज की जड़ता ही है जहाँ स्त्रियों के लिए अलग नैतिक मापदंड हैं और पुरुषों के लिए अलग। पुरुषों के लिए जो सहज एवं सुलभ है, वही स्त्री के लिए मुश्किल, कठिन, दुर्लभ व अपराध है।

पुरुषों द्वारा गाये जाने वाले लोक गीतों में किसी स्त्री को पाने के लिए पुरुषों को लड़ते-मारते व रणनीति बनाते दिखाया जाता है। यहाँ पुरुष मजबूत व ताकतवर दीखता है। सामाजिक व नैतिक रूप से उन्हें कोई मलाल नहीं होता, क्योंकि पुरुषों की एजेन्सी बहुत ही ताकतवर होती है। ऐसे आख्यानों में स्त्री की एजेन्सी बहुत ही कमजोर होती है या नहीं होती हैं। कई गीतों में खासकर विदेसिया (परदेसी पति को संबोधित गीत) स्त्री का विरह व दुःख अधिक है जो शिकायत के रूप में रचा गया है। यदि पति को अपनी पत्नी की परवाह नहीं है तो वह स्त्री ही कुल-मर्यादा की परवाह क्यों करे, उसे क्यों ढोए। अनेक गीतों में ब्याहता स्त्री के लिए तय किए गए पारिवारिक सामाजिक मानकों को अतिक्रमित भी करती है। पुत्र जन्म के संदर्भ में में भी इसको देखा जा सकता है। घर में सताई जाने वाली बहू जब बेटे को जन्म देती है, तो परिवार में उसकी अहमियत इतनी बढ़ जाती है कि वह जेठ और ससुर की नाफरमानी भी कर सकती है, पति उसकीअनुनय विनय (चिरौरी) करता है और ननद तो उसके सामने याचक की मुद्रा अख्तियार कर लेती है। लोक के जिन गीतों को निर्गुण कहा जाता है उन गीतों में गूढ़ता व वैयक्तिकता के सूत्र हैं जिनमें लोक जीवन के मूल्य समाहित होते हैं।

स्त्रियों के द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों में प्रेम-प्रसंग को सीधे-सीधे न कहकर उलटकर, ढककर चित्रित किया गया हैं। सामाजिक पदानुक्रम (Social Hierarchy) में निम्न जातियों की स्त्रियों के प्रेम गीतों में यह पर्देदारी थोड़ी कम हो जाती है यानी एक तरह का खुला पन आ जाता है। इनके गीतों में प्रेम और यौन संबंधों की बिंदासपन व स्पष्ट अभिव्यक्ति दिखती है। इन गीतों में प्रेम और यौन-संबंधों के संदर्भ में पितृसत्ता द्वारा तय किए गए दायरों को ये स्त्री बार-बार और अनेक स्तरों पर अतिक्रमित करती है। पारिवारिक रिश्तों में देवर, ननदोई इत्यादि के साथ प्रेम व यौन संबंध को गीतों में अभिव्यक्ति मिली है। गीतों में ससुर व जेठ के नियत पर भी सवाल खड़े किए हैं। पारिवारिक मर्यादा और नैतिकता की अगुवाई करने वाले ससुर व जेठ पर भी जबाबी लांछन देखने को मिलता है।

सामंतवाद और पितृसत्ता को समझे बिना लोकगीतों में स्त्री की प्रतिरोधात्मक छवि को नहीं समझा जा सकता। कृषि आधारित सामन्ती समाजों में बड़े भू स्वामी अभिजात बन जाते हैं और समाज के शेष हिस्से से अपने को अलग कर लेते हैं जो वंशानुगत चलता रहता है।  इस तरह शोषितों के श्रम पर परजीवी यह समाज कुलीन बन जाता है और अन्य की तुलना में पुरुष श्रेष्टता और वर्चस्व को जन्म देती है जिसका सीधा संबंध पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था है। इन सभी को सत्य एवं स्थापित करने के लिए मिथकों का सहारा लिया जाता है। मिथक यह बताने के लिए कि प्राचीन समाज में भी महिलाओं द्वारा शोषण नहीं होता था। पार्वती, राधा, सीता आादि मिथकिय पात्रों के माध्यम से इसे स्थापीत किया जाता रहा है। पितृसत्ता का उदय विवाह नामक संस्था के साथ यौनिक संबंधों में शुद्धता बोध के एवज में हुआ। हांलाकि मातृवंशीय समाज में स्त्री का अधिकार प्राकृतिक नियम पर आधारित था। इस अधिकार में न केवल नातेदारी व संपत्ति का हस्तांतरण था, बल्कि परिवारों की प्रमुख भी स्त्री थी। नीजी संपत्ति के उदय के फलस्वरूप पितृत्व पर बल दिया गया जो मातृवंश के विरोध में था।

लोकगीतों में उन समस्याओं व विचारों पर अधिक जोर दिया गया है जिस वजह से स्त्री-पुरुष को जीवन के इन जटिलताओं से गुजरना पड़ता है। इसी प्रकार स्त्री केवल पत्नी या बहू ही नहीं, सास और ननद (पुरुष-पक्ष) भी होती है। अमानवीय सामाजिक नियम व परंपरा पहली नजर में एक स्त्री को दूसरी स्त्री के बरक्स दुश्मन की तरह दिखाती है। यानी स्त्री ही स्त्री का शोषण करती है, लेकिन पितृसत्ता के विश्लेषण के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री के दुखों व सामाजिक बंधनों के लिए पितृसत्तात्मक विचारधारा जिम्मेदार है। और यह लोक में अपने पूरे वजूद के साथ हमेशा मौजूद रहा है।

राहुल
शोधार्थी (स्त्री अध्ययन विभाग)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा
सम्पर्क 
apnaemailpata@gmail.com
इस संदर्भ में मार्था वेग्ले (Martha Weigle) देवी की प्रतिमा को संदर्भित कर उसे उदहारण स्वरूप प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हैं। वे कहती हैं कि जो देवियां हमारे सामने हैं वह विभिन्न समय में पुरुषों द्वारा परिभाषित की गई हैं। इस तरह के प्रतीक कई बार अधिक खतरनाक होते हैं, वनिस्पत प्राथमिक निर्माता व सांस्कृतिक नायिकाओं के। इस संदर्भ में हम देखें तो स्त्री शक्ति व मातृवंशीय मिथ को लोक संस्कृति के रूप में वर्गीकृति किया जा सकता है, जो अभी तक पितृसत्ता को उचित ठहरती आयी है। पुरुष केन्द्रित संस्कृति जो कि पितृसत्ता पर आधारित है में एक स्त्रेण प्रति संस्कृति की छवि उभरती है। पुरुषों के व्यवाहर व स्त्रियों की एकजुटता पर जोर देकर यह प्रति-संस्कृति उनके अस्तित्व को व्यक्त करती है। इसलिए लोक का महिमामंडन (glorify) करने के बजाय लोक समाजों की अंतः चेतना में निहित वर्गीय, जातीय एवं जेंडरगत अध्ययन जरूरी हो जाता है।


संदर्भ
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अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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