गौरव भारती की कविताएँ
ख़तरनाक
होता है
सबसे
ज़्यादा ख़तरनाक होता है
उदास
शहर का 'शोर'
आशंकाओं
से भरा
अफवाहों
से सना
गूँजता
हुआ
फैलता
हुआ
तोड़ता
हुआ
फोड़ता
हुआ
डराता
हुआ
बुझाता
हुआ
जब
यह 'शोर' मेरी कनपटी को
पीटने
लगता है
मैं
नींद से ऐसे जागता हूँ
मानों
कोई
खुद
को एक बोरे में समेटकर
भाग
जाना चाहता हो............
2."कोई नहीं है"
तुमसे
मिलकर
जब
हुई
घंटों लफ़्ज़ों की अदला-बदली
मुझे
पहली दफ़ा
ऐसा
लगा
मानों
मेरे ख्वाब भी तन्हाई के शिकार हैं
उसी
तरह
जैसे
आज कोई कुआँ
चलते-फिरते
रेंगते, सुस्ताते
हजारों
किरदार
सिवाय
खोल के कुछ नहीं लगते
जो
रोज बदल जाते हैं
गुजरते
हैं जब ये सामने से चिढाते हुए
मैं
किसी वृक्ष के मोटे तने से चिपक जाता हूँ
ऐसा
लगता है
मुझे
सहारा मिल गया हो
बहुत
सारे रंग
भटकते
हुए मिलते हैं
सैकड़ों
सवाल लिए
सवाल
......
मानों
मेरे ही हो
अल्फाज़
जैसे मेरे ही हो
फिर
मैं देखता हूँ
खिड़की
के उस पार
चौराहे
पर जो अकेला दरख़्त है
वह
सूख रहा है
हर
रोज एक शाख टूट जाता है उसका
झरता
हुआ
मरता
हुआ
मेरी
तरफ ताकता है
मगर
मैं उसे हरा नहीं कर पाता
एक
घड़ी है
जो
बंद पड़ी है
न
जाने कब से
छोटी
-बड़ी सुइयां
दोनों
मिलकर
चार
बजा रहे हैं
मानों
कोई बायाँ करवट लिए सोया हो
और
उसे जगाने वाला कोई नहीं है
कोई
भी नहीं नहीं है .......
3."मुझे चाँद नहीं चाहिए"
मैं....
लिखता
हूँ रोज़
क्योंकि
डरता हूँ
कहीं
यह स्याह रात मुझे निगल न ले
कहीं
मेरी तबियत
सूखे
पीले पात सरीखा न हो जाए
कहीं
मैं अपराधबोध से मर न जाऊँ
कहीं
मेरा नेपथ्य मुर्दा शांति से भर न जाए
कहीं
मेरी आँखें बुझ न जाए
मैं
डरता हूँ
बहुत
डरता हूँ...
मैं
डरता हूँ
क्योंकि
मैं नहीं हूँ 'सूरदास' सरीखा कोई
न
ही मेरा कोई भगवान है
जिसके
सजदे में झुककर माँग लूँ दुआ कोई
मैं
डरता हूँ
क्योंकि
मुझे ढूंढने हैं
बहुत
सारे उपमान
जो
आम आदमी की जिंदगी को कर सकें बयाँ
मुझे
नहीं चाहिए
तुम्हारा
यह खूबसूरत सा चाँद
क्योंकि
मैने जाना है
जिंदगी
इतनी भी खूबसूरत नहीं है
कई
तंग गलियां है
जिसके
सटे सिकुड़े मकानों में
ज़िंदगी
कहीं ज्यादा सिकुड़ी सी मिलती है
मुझे
नहीं चाहिए
कोयल
की कूक
क्योंकि
मैंने सुना है रूदन
असहाय
रूदन
कुछ
ऐसा मानों किसी ने सीने पर
चला
दिया हो रोड रोलर
और
भक से बुझ गया हो लालटेन
मैं
लिखता हूँ.....
क्योंकि
लिखना महज अल्फ़ाज़ बुनना नहीं है
मेरा
लिखना
उस
मैं को संतुष्ट करना है
जो
भीतर के नेपथ्य से बार-बार
मुझ
पर झल्लाता है
और
मनुष्य के पक्ष में जिरह के लिए
हर
बार खड़ा कर जाता है....
4."तिलिस्म"
कुछ
ख़्वाब
टूटने
के डर से
मैंने
दखें ही नहीं
कुछ
लम्हात
छूटने
के डर से
मैंने
जिए ही नहीं
कुछ
रिश्ते
बिखरने
के डर से
मैंने
सहेजे ही नहीं
मेरे
अतीत का हर एक कोना
चीखकर
मुझपर झल्लाता है
भीतर
एक बेचैनी है
कश्मकश
है
और
बाहर
एक
रफ्फु हुआ इंसान है
जो
वर्षों से एक ही किरदार में
एक
ही रंग लिए
भटक
रहा है
जबकि
उसे पता है
जिंदगी
के और भी रंग है
जो
बहुत खूबसूरत है
बहुत
मोहक है
छूटते
लम्हें.....
जो
हर पल अतीत का हिस्सा बनते जा रहे हैं
उनका
कोसना लाजिमी है
उनका
चीखना वाज़िब है
काश!
यह चीख
मेरे
बाहर के सन्नाटे को तोड़ सके
एकरंगी
तिलिस्म को मिटा सके
ये
जो स्याह रात
पसरी
है
दूर
तलक
मुर्दा
शांति लिए
वह
भंग हो जाए
ताकि
नए उजास में
मैं बेख़ौफ़
सफ़ेद
कैनवास पर
मनचाहा
रंग भर सकूँ ........
5."पहाड़"
ढूंढते
हो तुम साहिल
चढ़कर
पहाड़ पर
मैं
कहता हूँ
जमीं
पर उतरो
समंदर
को देखो
भँवरों
से खेलों
रेतों
में धसो
सनो
पैर कीचड़ में
नदियों
में गोते लगाओ
चुरू
में भरकर चखो स्वाद पानी का
दूरियाँ
पाटो नजदीक आओ
बारिश
में भींगों
बूंदों
को ओढो
हरी
घास के बिस्तर पर
थोड़ी
देर लेटो
ढूंढते
हो साहिल
तुम्हें
भी साहिल बनना होगा
पहाड़
से उतर कर
धरा
पर चलना होगा
आओ
मुड़कर
देखो जरा पीछे
तुम्हें
यकीं होगा
साहिल
तुमसे नहीं
तुम
साहिल से जुदा हुए
चढ़
लिए पहाड़ पर
साहिल
को छोड़ गए
ढूंढते
हो तुम साहिल
चढ़कर
पहाड़ पर
नहीं
मिलेगा
नहीं
मिलेगा
साहिल
पहाड़ पर......
6.'ख़ामोशी'...
ख़ामोशी.....
कितनी
परते है
प्याज़
के छिलकों की तरह
परत
दर परत
आखिरी
परत
फिर
कुछ नहीं
वही
ख़ामोशी
कहीं
ज्यादा गहरी
बहुत
ज्यादा भयानक
मानो
कोई चीख़ता हो
बहुत
जोर से
नोंचता
हो खुद को
किसी
शिकारी कुत्ते की तरह
मगर
सब होता है
ख़ामोशी
से
रोज
नया दिन निकलता है
मगर
सब पुराना
वही
चेहरा
वही
मैं
वही
आईना
वही
सड़क
जो
बहुत रास्ते खोलती है
लेकिन
मुझे एक ही जगह पहुँचाती है
रंगी
हुयी खूबसूरत दीवारें
मुझे
बदरंग सी लगती है
जैसे
देख लिया हो
उसका
असली चेहरा
पुताई
से पहले की
पपड़ियां
सीलन अजीब सी बदबू
मैं
देखता हूँ
मकड़ी
का जाला
उसमें
फँसी एक मकड़ी
कितना
अजीब है
खुद
बुने जाल में फंसना
उसकी
छटपटाहट मुझे बेचैन करती है
मैं
उसे मुक्त कर देता हूँ
उस
जाल से
मगर
देखता हूँ जो पहचाना सा है
वही
मकड़ी
फिर
से जाल बुनने लगी है
फिर
से फँसने के लिए
शायद
आखिरी बार
या
क्या पता
बार
बार ...
7."हत्या"
एक
कलम
जो
आवाज बनकर गूंज रही थी
कानों
में
अल्फ़ाज़
बनकर छप रही थी
मानस
पटल पर
पाट
रही थी दूरियाँ
जंगलों
और सड़कों के बीच की
प्रतिनिधि
थी प्रतिरोध की
सामाजिक
न्याय की
उसकी
हत्या कर दी गयी
मँडराते
खतरों को भांप कर
सत्ता
लोभित कुत्ते
अपने
पोषित कुत्तों को
अक्सर
काटने छोड़ देते हैं
और
ये वफ़ादार कुत्ते
आदतन
भौंकते है काटते हैं
इरादतन
हमला करते हैं
ये
आदमखोर
वो
डरते थे
कहीं
दूरियाँ पट न जाए
राज
गहरे खुल न जाए
सिंहासन
उनका डोल न जाए
सड़कों
पर सवाल न घिर आए
गठजोड़
उनका खुल न जाए
जुमलों
की हक़ीक़त न हो जाए बयां
इसीलिए
हत्या करवा दी
लेकिन
आदमखोरों
तुम
एक मारोगे
हज़ार
पैदा होंगें
तुम्हारे
हर स्याह कारनामों के खिलाफ
लिखें
जायेंगे लाखों स्याह शब्द
तुम्हारा
डर
जिन्दा
रहेगा
तमाम
उम्र.....
8."मुक्ति-मार्ग"
कल
जो कुछ हुआ
शहर-दर-शहर
वह
होते रहता है
वक़्त-वक़्त
पर
क्योंकि
जब इसकी बीज बोई जाती है
खुलेआम
सार्वजनिक मंचों पर
तब
हर उस आवाज को
जो
ख़िलाफ़ हो उसके
दबा
दिया जाता है
हर
उस प्रतिरोध को
ठंडा
कर दिया जाता है
आवरण
चढ़ाकर जब होते अनावरण
तब
पैदा होती है एक संस्कृति
जिसमें
एक नशा होता है
इस
संस्कृति में
हर
चेले के कान फूँके जाते है
कुछ
मंत्र पिघलाकर डाले जाते है उसके नरम कानों में
उसके
बाद पैदा होता है
एक
ऐसा किरदार
जो
उन कान-फूँके चेलों का भगवान कहलाता है
अब
चूंकि वह भगवान ठहरा
वह
माया रचता है
उसका
हर करतब-कृत्य
समाज
कल्याण और धर्म हितार्थ होता है
वह
गलत होकर भी सही होता है
कोई
प्रश्न नहीं
कोई
प्रतिरोध नहीं
देह
का गणित वह
आत्मा-परमात्मा
के संयोगात्मक फार्मूले से
सुलझा
लेता है
इस
संयोग में गर हो जाये कोई हताहत
मुक्ति
का मायावी आवरण उसे बचा लेता है
अब
जब यह आवरण कमजोर पड़ता है
प्रतिरोध
थोड़ा जोर पकड़ता है
शहर-शहर
के भगवान उठ खड़े होते है
अपना
डेरा बचाने के लिए
कान-फूँके
भक्तों को तत्काल बुलाया जाता है
मंत्र
को तोते की तरह बुलवाया जाता है
हाथ
थोड़े गर्म किये जाते हैं
और
मोर्चे पर भेज दिया जाता है
मानों
वह मुक्ति का मार्ग हो
मुक्ति
मार्ग में बाधक
हर
कंटक पर हमला होता है
भक्त
ऐसे टूट पड़ते है
मानों
वह अपने भगवान को बचा ले जाएगा
और
तलाश लेगा इसी बहाने
खुद
के लिए
मुक्ति-मार्ग......
गौरव
भारती
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, भारतीय भाषा केंद्र.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, भारतीय भाषा केंद्र.
झेलम
छात्रावास, कमरा संख्या-108, पिन -110067,दिल्ली
सम्पर्क 9015326408
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