किसान जीवन की विडंबना और ‘विषकन्या’
भारत प्रारंभ से ही कृषि और ग्रामीण लघु उद्योग आधारित अर्थ व्यवस्था पर निर्भर रहा है। कृषि-कार्य देश के लिएआर्थिक मजबूती का सबसे बड़ा तथा महत्वपूर्ण आधार रहा है। हालाँकि हमारे देश में बहुत बड़ी जनसंख्या के पास कभी भी कृषि आधारित भूमि नहीं रही, फिर भी वह कृषि कार्य से जुड़े हुए थे/हैं। भारत जब स्वाधीन हुआ तब कृषि देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती का रीढ़ हुआ करती थी। आज के विकास की भाषा में कहा जाय तो देश की आर्थिक व्यवस्था के विकास—सकल घरेलू उत्पाद—में कृषि का योगदान पचास प्रतिशत से ज्यादा था। कृषि सिर्फ़ देश की आर्थिक रीढ़ ही नहीं थी बल्कि रोजगार की दृष्टि से भी यह देश की आधी से ज्यादा आबादी को रोजी – रोटी मुहैय्या कराने का बड़ा माध्यम थी। आज इसका देश के आर्थिक विकास में योग तो इस काबिल नहीं रहा कि उसपर गर्व किया जाय ! हाँ, यह आज भी लगभग आधी आबादी का बोझ अपने झुके हुए कन्धों पर उठाने को मजबूर है। आज़ादी के बाद आर्थिक विकास की जो पंचवर्षीय नीतियाँ बनीं, वह ग्रामीण विकास के लिए बहुत कारगर साबित नहीं हुईं। कहना न होगा कि जिस मिश्रित अर्थ व्यवस्था की खिचड़ी साठ और सत्तर के दशक में पकाई गई थी, वह वस्तुतः कृषि और ग्राम विरोधी साबित हुई। अंग्रेजी सरकार तो देश से विदा हो गयी लेकिन अंग्रेजी और सामंती जमींदारी व्यवस्था थोड़ा – बहुत हेर – फेर के साथ जस की तस बरक़रार रही। एक समय के बाद अवसर पाते ही पूंजीवादी व्यवस्था ने अपना पाँव पसारना शुरू कर दिया, जो आज अपने चरम पर पहुँचती दिख रही है। आर्थिक उदारवाद और नवउदारवाद ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था—कृषि के अलावा दूसरे मंझोले लघु उद्योग—को चौपट कर दिया।
विश्व व्यापार संगठन की किसान, गरीब–मजदूर विरोधी नीतियों ने असर दिखाना
प्रारंभ कर दिया है, जिस
वजह से आये दिन देश में किसान खुदखुशी कर रहा है। किसानों-मजदूरों की आत्महत्या
व्यवस्थाजन्य हत्या का प्रयास है। चूंकि
साहित्यकार अपने साहित्य का उपादान तत्व समाज से ग्रहण करता है इसलिए उसका साहित्य
समाज सापेक्ष होता है। महान
साहित्यकार समाज द्रष्टा के साथ – साथ
वह भविष्य द्रष्टा (दार्शनिक)भी होता है, इसलिए वह व्यवस्थाजन्य विकृतियों को तत्काल पहचान लेता है। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिंदी में ग्रामीण जीवन और किसान समस्या को चित्रित करने वाले बड़े रचनाकार
हैं। इन्होने अपने साहित्य में राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के
शोषण के शिकार किसानों की स्थिति को भांप लिया था। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ में यह दिखाया है कि एक सीमान्त किसान
कैसे व्यवस्था की मकड़जाल में फँस कर किसान से मजदूर बनकर मरने को अभिशप्त है।मलयालम
के महान् रचनाकार एस. के.पोटटकाट केरल के इसाई किसानों को अपने उपन्यास ‘विषकन्या’का विषयवस्तु बनाया है। यह उपन्यास मूलतः मलयालम में लिखा गया
है। इसका प्रकाशन सन् १९४८ ई. में हुआ था। इसका हिंदी में पहला अनुवाद सन् १९९०
में हुआ तथा अंतर्भारतीय पुस्तकमाला के तहत नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया। एस. के. पोटकाट ने अपने उपन्यास में यह
दिखाने की कोशिश कि है कि जो भी भूमि आज खेती-किसानी करने के योग्य है, जिसके मालिक बड़े – बड़े जमींदार हैं, दरसल वह कभी जंगल और पहाड़ थे, जिसको आदिवासी तथा पिछड़ी जातियों से
आने वाले किसान –मजदूरों
ने काटकर तैयार किया है। भूमि को तैयार करने में कितनों ने अपनी
जान गंवाई। कितने परिवार के परिवार, गाँव के गाँव समाप्त हो गये। श्रमशील जातियों को कुछ नहीं मिला
सिवाय जिल्लत की ज़िंदगी, रोग और मृत्यु के। उपन्यास
का मूल कथ्य यहीं है। यह
उपन्यास वस्तुतः केरल के ईसाई किसानों के दुखों, समस्याओं की अंतर्गाथा है, जिनके लिए खेती–किसानी अस्तित्व से जुड़ी हुयी है लेकिन
वहीं भूमि जब किसान के लिए प्राणघातक बन जाए तो ‘विषकन्या’ ही तो कहलाएगी।
‘विषकन्या’ आज़ादी से पूर्व, तब तक केरल का भाषाई आधारपर स्वतंत्र
राज्य का गठन नहीं हुआ था, केरल
तीन खण्डों में विभाजित था; तिरुवितांकूर, कोचीन और मलबार। स्वतंत्रता से पूर्व तिरुवितांकूर और कोचीन रजवाड़े थे और मलबार
ब्रिटिश शासित प्रदेश था। भौगोलिक
दृष्टि से तिरुवितांकूर (ट्रावनकोर) केरल राज्य में एकदम दक्षिण में था, मलबार एकदम उत्तर दिशा में तथा दोनों
के बीच में, दोनों को विभाजित करता मध्य में कोचीन
(कोच्ची )। उपन्यास के केंद्र में तिरुवितांकूर के
गरीब ईसाई किसान हैं, जो
वर्तमान राजसत्ता और धार्मिक सत्ता द्वारा शोषण और अत्याचार के शिकार हैं। वह मलबार के जमींदार दलालों द्वारा
फैलाई अफ़वाहों के भी शिकार हैं। वर्की
और वर्गीज दो ऐसे ही दलाल हैं जिन्होंने तिरुवितांकूर के भोले – भाले किसानों में यह झूठा विश्वास पैदा
किया कि मलबार की धरती सोने की खान जैसे है, जहाँ सिर्फ आपको अपनी मेहनत करके पैसे
बटोरने हैं। जमीन भी बिल्कुल सस्ती। वहां गरीब किसान का किसी प्रकार का
शोषण-अत्याचार नहीं है। तभी
तो तिरुवितांकूर गाँव के ग़रीब किसान हर रोज मलबार की तरफ पलायन कर रहे हैं, अपना सबकुछ बेचकर। उनको इस बात का सुकून है कि “मलबार में न तो किसी प्रकार का धार्मिक
बंधन है और न जातीय संघर्ष। यहाँ
पर मनुष्य स्वतंत्र जीवन जीता है और हर प्रकार से खुश रहता है यहाँ न तो राजनीतिक
षड़यंत्र है और न उनके चाटुकार। यहाँ
पर शंखमुद्रा के सामने सिर झुकाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सभी लोग यह सोचते थे कि मलबार में रहकर
वे स्वतंत्र रूप से जी सकेंगे, धन
अर्जन कर सकेंगे और अपने अधिकारों का अधिक से अधिक उपभोग कर सकेंगे।” उनके मलबार पलायन का एक बड़ा कारण
तिरुवितांकूर में निःवर्तमान राजसत्ता और धर्मसत्ता (जहाँ पुरानी सामंत व्यवस्था
थी) का गरीब ईसाई किसानों का शोषण-दमन था। इन ग़रीब किसानों को मलबार इसलिए भी लुभाता था कि चूंकि वहां अंग्रेजी
शासन है, जो ईसाई भी हैं, तो वहां कम से कम उनके साथ धार्मिक
शोषण और जातिगत भेदभाव का तो सामना नहीं करना पड़ेगा?
लेकिन
यह सिर्फ़ ख्यालभर ही था ! क्योंकि वहां (मलबार में ) में भी इन ग़रीब किसान मजदूरों
का शोषण हो रहा था। और वहां शोषण करने वाले सिर्फ़ मलबार के ही हिन्दू जमींदार नहीं थे, बल्कि तिरुवितांकूर से जो कुछेक जोण
जैसे धनाढ्य लोग बहुत पहले पलायन कर गये थे अब वह वहां जमींदार बन गये थे। वर्की जिस जोण के लिए काम कर रहा था वह—“ जोण तिरुवितांकूर में भी एक धनाढ्य
व्यक्ति था। वहां की कुछ जमीन एक रुपए में बेचकर वह
मलबार चला आया था।
उसने उन रुपयों से मलबार में पांच सौ
एकड़ जमीन खरीदी थी। उसने
यह अंदाज लगाया कि एक करोड़ रुपये ख़र्च करने पर भी सारा जंगल कटवाकर भी खेती करने
के लिए साफ़ नहीं कराया जा सकता। इसलिए
उसने एक तरकीब सोची कि क्यों न तिरुवितांकूर से गरीब परिवारों को वहां जमीन का
लालच देकर बुलाया जाय।”
ऐसे जमींदारों का कार्य सफल बनाते हैं वर्की, कोच्चुवारीत जैसे जमींदारों के
दलाल-एजेंट। ऐसे दलालों का जीवन “जमीन के लेनदेन के एजेंट के रूप में गुजारा करता है। बीच बीच में वह ट्रावनकोर को चला जाता
है। वह वहां जाकर मलबार की भूमि के उपजाऊपन
और खुशहाली के बारे में भाषणों तथा अन्य एजेंटों के माध्यम से प्रचार करता और
बेचारे गरीब लोगों को मलबार जाने के लिए उकसा आता। फिर मलबार जाकर उन लोगों को जमीन
खरीदने और क़र्ज़ दिलाने के चक्कर में फंसा आता। इसके बाद फिर नए आसामियों की खोज में
ट्रावनकोर चला जाता। अतः
उसका यह काम निरंतर चलता रहता।”
तिरुवितांकूर में राजसत्ता, धर्मसत्ता का आलम यह था कि गरीबी, बेरोजगारी, बदहाल किसान से उसका कोई वास्ता न था। तभी तो वरीतकुंज जैसा मेहनती नौजवान
सिर्फ पेट भर भोजन मिलने की उम्मीद में छाती तोड़ कार्य करने को तैयार है। इतना ही नहीं अपने साथ मलबार ले जाने
के लिए वह वर्गीज का आजीवन एहसानमंद भी रहेगा—“भाई ! सुनों, वरीतकुंज की इस छाती पर आप बड़े से बड़ा
पत्थर भी तोड़ सकते हैं। मुझे
केवल शाम –सुबह भोजन दे देना और मुझसे कोई भी काम
करा लेना। भाई, ऐसी परिस्थितियों में यहाँ पर न तो जी
सकूंगा और न मर ही सकूंगा।” पेट के लिए मजदूर बंधुआ मजदूरी, गुलामी को भी तैयार है, मानव तस्कर या एक जमींदार के दलाल के
लिए इससे बेहतर अनुकूल परिस्थिति और क्या हो सकती है !
यह उपन्यास मूलतः उन छोटे – छोटे किसानों-मजदूरों के विस्थापन, संघर्ष की दारुण गाथा है जो अपना गाँव–घर छोड़कर, शोषण–अत्याचार से मुक्ति के लिए, दूसरी जगह इस उम्मीद में जाते हैं कि शायद जिंदगी वहां थोड़ी बेहतर हो
जाएगी। लेकिन उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते के
समान हो जाती है; वह
न तो घर के रहे न घाट के ! मत्तायी, मात्तन
उसकी पत्नी मरियम, बेटी
मेरिकुट्टी, वर्की, चेरियान कुषि माडत्तिल औसेप, चाक्को आदि ऐसे ही किसान-किसान मजदूर
हैं जिन्होंने ट्रावन्कोर छोड़कर मलबार का रास्ता सिर्फ इसलिए पकड़ा कि जीवन बेहतर
हो जायेगा।
ट्रावनकोर और कोच्ची से मलबार पहुंचे
किसान-मजदूरों ने दलालों के मार्फत वहां के भू-स्वामियों से अपनी हैसियत भर
जंगली-पहाड़ी जमीन खरीदी, जिसमें
झाड़-झंखाड़ बड़ी मात्रा में उगे थे। वह
अपने खेत में ही झोपड़ी बनाकर रहने लगे तथा रात-दिन अपने खेतों में कार्य करने लगे। अपने कठिन परिश्रम से उन्होंने जंगली
झाड़ियों को काटकर, छोटे-छोटे
पत्थरों के टुकड़ों को तोड़कर कृषि योग्य खेत तैयार किया। इसमें उन्होंने मरचिन्नी, मूंग आदि की फ़सल बोई। फसल बोने के बाद इस उम्मीद में लोग दिन
काटने लगे कि अगर फसल अच्छी हो गयी तो बाज़ार में बेचकर जीवन से जुड़ी आवश्यक अन्य
वस्तुओं का क्रय किया जायेगा। और खेती
किसानी से जुड़े अन्य आवश्यक वस्तु भी खरीदी जाएगी जिससे अगली फसल और अच्छी हो सके।चूंकि
खेत सारे पहाड़-जंगल में थे तो पूरे जंगल – पहाड़ काटना संभव न था। जंगल में जीवन यापन करने वालों के लिए
सबसे बड़ा संकट बरसात लेकर आती है। समुद्र
किनारे बसे केरल तथा जंगल और पहाड़ पर बरसात वैसे भी ज्यादा होती है। एक तरफ जहाँ बरसात जनित बिमारियों ने
गरीब किसान-मजदूरों को लीलना शुरू कर दिया वही दूसरी तरफ जंगली जानवरों ने खेत पर
आक्रमण कर दिया। इस भयावहता की उन्होंने कल्पना भी नहीं
की थी। एक –एक कर परिवार के सदस्य मलेरिया बुखार तथा
अन्य बरसाती संक्रामक बिमारियों के शिकार हो दम तोड़ने लगे। लोगों के पास इतना धन न था कि जंगल – पहाड़ से निकल शहर जाकर इन बिमारियों का
उपचार करा सकें। खेत में फसल तैयार होने से पहले ही
बर्बाद होने लगी थी, जंगली
जानवर खेत के खेत साफ करने लगे। किसानों
के लिए यह अकल्पित-अप्रत्याशित संकट था। वह भीतर ही भीतर टूटने लगे। ऐसे में उनके पास वहां के साहूकारों और जमींदारों से कर्ज लेकर जीवन
गुजर–बसर करने के अलावा कोई अन्य रास्ता न
बचा था। और इस तरह वह साहूकारों और जमींदारों
के मकड़जाल में धीरे–धीरे
फँसते गए। कुछ ने छोटी–मोटी चोरियां भी शुरू कर दीं।
एक तरफ किसानों की स्थिति जहाँ बहुत ख़राब थी
वही दूसरी तरफ लोगों के साथ पहुंचे गिरजाघर और उसके पुजारियों (फादरों) की जीवन
शैली में कोई परिवर्तन न आया था।
कंचनलता यादव
भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नयी दिल्ली में शोधछात्रा हैं।
Klyjnu26@gmail.com
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‘विषकन्या’ उपन्यास किसान-मजदूरों की समस्या पर
केन्द्रित है। उपन्यास में यह दिखाया गया है कि
किसान-मजदूर के ऊपर होने वाले अत्याचार, शोषण में कहीं कोई कमी नहीं है; और यह शोषित वर्ग कोई और नहीं बल्कि
उनके अपने ही हैं।
यह उपन्यास आकार में गोदान से छोटा भले
हो लेकिन इसकी तुलना प्रेमचंद के गोदान से की जा सकती है। गोदान और विषकन्या का तुलनात्मक अध्ययन
करने पर अखिल भारतीय किसान-मजदूरों की समस्या को चिन्हित किया जा सकता है !
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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