शोध: अदम गोंडवी के काव्य में सामाजिक अस्मिता का प्रश्न



अदम गोंडवी के काव्य में सामाजिक अस्मिता का प्रश्न



अदम गोंडवी बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। उनका लेखन कार्य गजलों के माध्यम से हम सब के सामने आता है। अदम गोंडवी अपनी तबीयत के शायर थे, वे अपने समकालीन परिवेश में जो कुछ भी घटते हुए देखते हैं उस पर करारा प्रहार करते चलते हैं। गोंडवी की गजलों का सौन्दर्य ऊंचे महलों या कोठे का नहीं है, उनका सौन्दर्य है, हांथों में छाले और पैरों में फटी बिवाई का, मेहनतकश मानव का, भुखमरी और जलालत में जिन्दगी गुजर बसर करने वाली जनता का। वे ललकार कर कहते हैं-

जिसके हाँथों छाले हैं, पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आयी है

अदम गोंडवी का काव्य यद्यपि विचार प्रधान है पर ये विचार दुःख और पीड़ा की सघन अनुभूतियों से उपजे हैं। अतः उनका काव्य कोरे विचार के दबाव में शुष्क नहीं हो गया है, उनके विचारों में भाव और भावनाएं भी मौजूद हैं। अदम शायर हैं और शायरी की उस परम्परा को इसके मुकाम तक पहुंचाते नजर आते हैं, जिसकी शुरूआत दुष्यंत कुमार ने की थी। राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने वालों की भी हिन्दी में लम्बी परम्परा रही है, इसे परंपरा पुरुषों के जिक्र द्वारा मोटे तौर पर इस तरह समेटा जा सकता है-कबीर, निराला, धूमिल, दुष्यंत और अदम गोंडवी।

अदम व्यवस्था के खिलाफत में लिखने वाले कवि हैं। आजादी के बाद जिस तरह व्यवस्था के ख़िलाफ़ साहित्य लिखा गया वह राजनीति से जनता के मोहभंग का ही परिणाम था। स्वतंत्रता के बाद पहले से चला आ रहा आक्रोश का स्वर राजनीतिक विसंगतियों के पर्दाफाश पर केन्द्रित हो गया। अदम गोंडवी उन स्वातंत्रोत्तर कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं, जिन्होंने आम जनता के पक्ष में राजनीति के कठमुल्लों की बड़ी निडर आलोचना की है। अदम गोंडवी का जन्म सन 1947 में उत्तर प्रदेश राज्य के गोंडा जिले में हुआ था। इनकी गजलों के संग्रह हैं- धरती की सतह पर’, ‘समय से मुठभेड़
                राजनीतिक चेतना- आज़ादी के बाद देश की राजनीतिक-विसंगतियों पर हिंदी  कविता अपने तरीके से क़रारा प्रहार करने की मुहिम चलाती आयी है। अदम गोंडवी भी इसी मुहिम के सशक्त हस्ताक्षर हैं। देश में आज़ादी आने के बाद किसी प्रकार का बदलाव नहीं हुआ। दलितों और हाशिए पर रहे समाजों की हालात जस की तस बनी रही। दलित-पिछड़ों के जीवन में तनिक बदलाव नजर नहीं आया था। कवि, शायर, गद्यकारों ने समय समय पर साहित्य के माध्यम से इस सवाल को जिन्दा रखा था। आज़ादी को लेकर अदम गोंडवी ने भी जनतंत्र के पैरोकारों से सवाल किया है कि-
                               सौ  में सत्तर  आदमी  फ़िलहाल  जब नाशाद है,
                               दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है’ 

इन्हीं नाशाद आदमियों के परिप्रेक्ष्य में अदम गोंडवी ने राजनीतिक-सत्ता की विसंगतियों पर जबर्दस्त प्रहार किया है।  राजनीतिक में पैसे और गुंडागर्दी के बल पर ग्राम्य स्तर पर होने वाली गंदी राजनीति का भी पर्दाफाश किया है। किसी तरह कुर्सी पकड़ो अभियान में सफल हुए एवं राजनीति में अपनी पैठ जमाने वाले लोगों पर अदम की धक्कामार टिप्पणी है-

                                ‘जितने   हरामखोर  थे  कुर्बो जवार  में
                                परधान बनकर आ गए अगली कतार में’ 

इस शेर की मार ग्राम-प्रधान से प्रधानमंत्री तक जाती है, अगली कतार में आने के बाद इन लोगों ने भारतीय आम जनता का शोषण किया है। गुंडागर्दी करने वाले लुटेरों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे अपने गिरोह के सदस्यों की संख्या को बढ़ाना चाहते हैं। देश के राजनीतिक लुटेरे इसके अपवाद नहीं हैं।

देश के नेताओं ने जनता की समस्याओं को हल करने की बजाय उसकी मुश्किलों को और बढ़ाया ही है। इन्होंने जनता का शोषण किस प्रकार से इसका हवाला अदम साहब की गजलों में दिया गया है। गाँधीवादी विचारधारा के तीनों बंदर पुनः उसी अवस्था में आ गए जिसके विरुद्ध पिछड़ों-दलितों ने लड़ाई छेड़ी थी।

                                                    ‘रामनामी  ओढ़कर  संसद  के  अंदर  आ  गए
                             देखना  सुनना  व  सच  कहना जिन्हें भाता नहीं,
                             कुर्सियों  पर  फिर  वही बापू  के  बंदर आ गए

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक विजय बहादुर सिंह से एक साक्षात्कार में अदम गोंदवी ने इस बात को स्वीकार भी किया है कि हम जिस हिंदुस्तान की बात करना चाहते हैं वो तो चाहे हमारे जितने क्रांतिकारी साथी रहें हैं उनसे मेल खाता हो या नहीं लेकिन हम गाँधीवाद को स्वीकार नहीं करते अदम ने अन्यत्र भी कहा है-

                               ‘ये  नई पीढ़ी  पे  निर्भर  है वही जजमेंट  दे
                               फलसफा गाँधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है’ 

गाँधीवाद के विरोध में नक्सलवाद को तरज़ीह देने का तात्पर्य है सशस्त्र क्रांति का पक्ष लेना, नक्सलवादी जिन्हें दूसरे प्रजातंत्र की तलाश’  है, एक ऐसे प्रजातंत्र की जिसमें आज की मल्टीनेशनल कम्पनियाँ सरकार के साथ शरीक होकर उन्हें उजाड़ रहीं हैं, उनके अस्तित्त्व को मिटा देने पर तुली हुयी हैं। जल-जंगल-जमीन और पहाड़ सब नष्ट होते जा रहे हैं। इनकी रक्षा मानव जीवन की रक्षा है। जिन लोगों ने इसकी सुरक्षा और पर्यावरण के लिए विरोधियों के खिलाफ शस्त्र उठा लिया है उसे नक्सलवादी घोषित कर दिया गया है। यह वाद किसी विदेशी विचारधारा से प्रभावित न होकर अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए समय सापेक्ष स्वतः उद्भूत हो गया है। भारत में ऐसे न जाने कितने संगठन कार्यरत हैं जो सामाजिक समता और एकता मूलक समाज के नाम पर अखबारों एवं टीवी चैनलों पर बने रहना चाहते हैं वे जमीनी हकीकत से कोशों दूर होते हैं, इसलिए क्षेत्र विशेष के लोगों के द्वारा अपनी अस्मिता एवं वजूद की रक्षा के हेतु इस तरह का कदम उठाया जाता है। हिंदी के कवियों में धूमिल, नागार्जुन, गोरख पाण्डेय, रमाशंकर यादव विद्रोहीआदि ने विद्रोह की दुन्दुभी बजायी है। धूमिल भी अपनी कविताओं में नक्सलवादियों के अनुमोदन की मुद्रा में हैं- यहाँ जनता एक गाड़ी है/ एक ही संविधान के नीचे/ भूख से रियाती हुई फैली हथेली का नाम/ दया है/ और भूख में/ तनी हुई मुट्ठी का नाम/ नक्सलबाड़ी है।”  

नक्सलवादी इस देश के लिए दूसरे संविधान की माँग कर रहे हैं, और इसके लिए सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्र क्रांति के पक्ष में हैं। अंबेडकर जी का संविधान यद्यपि मानवतावादी दृष्टिकोण को सामने रखकर ही निर्मित हुआ है फिर भी उसमें शायद कुछ कमियाँ रह गईं हैं, क्योंकि संविधान का बहुत बड़ा हिस्सा अंग्रेजों द्वारा बनाए गये नियमों का पुंज है जिन्होंने न सिर्फ़ भारत अपितु दुनिया के अन्य देशों को भी बहुत दिनों तक ग़ुलाम बनाए रखा था। आज़ादी के बाद अभय कुमार दुबे लिखते हैं-प्रशासन का भारतीयकरण तो हुआ लेकिन उसे बहुत मामूली परिवर्तनों के साथ स्वीकार कर लिया गया’’  इस प्रशासन के तहत यदि भूख के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को सरकार आतंकवादी क़रार देकर कुचलने लगे तो कवियों द्वारा क्यों न नक्सलवादी आंदोलन को जायज़ ठहराया जाय? इससे पता चलता है कि नेताओं के लिए जो क़ानून बनाए गए हैं वे अपर्याप्त हैं। इसीलिए संविधान द्वारा बनाए गये कुछ मानवतावादी क़ानूनों का पालन भी नेताओं द्वारा नहीं किया जाता है। लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों की योग्यताओं में शिक्षा की अनिवार्यता नहीं दिखती इसके कारण कल के गुंडे, बदमाश, चोर, डाकू और अन्य चरित्रहीन लोग इनमें धड़ाके से प्रवेश पाते आ रहे हैं। इस स्थिति पर अदम की बड़ी सटीक टिप्पणी है-

                                  किसको पता था जब रोशनी जवाँ होगी
                                  कल के बदनाम अँधेरों पे मेहरबाँ होगी

कल के बदनाम अँधेरों पे मेहरबान होनेसे मतलब है उनको राजनीति करने की मान्यता प्रदान करना जो कल तक सभ्यता के हाशिए पर भी नज़र नहीं आते थे, अदम ने अन्यत्र इस मज़मून की व्याख्या की है-
                                 ‘कल तलाक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
                                 आजकल  बाज़ार  में  उनके  कलेंडर  आ गए

 अदम गोंडवी की आर्थिक-चेतना उनकी राजनीतिक-चेतना से ही जुड़ी हुई है, राजनीतिक-व्यवस्था को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए ही उन्होंने देश में आर्थिक बँटवारे, आर्थिक असमानता, पूँजीवाद का बढ़ता प्रभाव एवं भुखमरी की कगार पर उपस्थित करोड़ों भारतीय जनता  की समस्या को उठाया है, उन्होंने एक उम्मीद कायम रखी है नंगे-मजलूमों से कि वे एक दिन इन महलों-अटारियों में निवास करने वाले सामाजिक लुटेरों से देश को निश्चित ही बचायेंगे। 

                                                                ‘सत्ता के जनाज़े को ले जाएँगे मरघट तक
                                    जो लोग भुखमरी के आगोश में आए हैं

 घोटाला कर करके पूँजीपति बन गये धनाढ्यों पर उनकी शायरी प्रहार करती रही है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर   लाखों  में   सेठों  की   तिजोरी  की  कमाई  है

इस तरह जनता के ख़ून-पसीने की कमाई पर अधिकार करके सत्ता और देश के पूँजीपति, सेठ, अमीर भोग-विलास कर रहे हैं और जनता भुखमरी के साये में है! ऐसे पूँजीपतियों, जिनमें सत्ता-वर्ग भी शामिल है, को संबोधित करते हुए अदम कहते हैं कि मजदूरों, श्रमिकों एवं किसानों की मेहनत से ऐ पूँजीपतियों तुम्हारे इन महलों में रौनक बिराजती है। यह श्रमिक वर्ग ही भारत के भाग्य का विधाता है।  

वो  जिसके  हाथ  में छाले  हैं  पैरों में  बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आयी है

अदम गाँव के परिवेश को चित्रित करने वाले कवि हैं। उन्होंने बदलते राजनीतिक मिजाज को अपनी गजलों में चिन्हित किया है। दिनोंदिन चारित्रिक पतन की ओर बढ़ती हुयी राजनीति का उन्हें बखूबी इल्म है। इसलिए वे लिखते हैं- 

उनका दावा मुफ़लिसी का मोर्चा सर हो गया
पर हक़ीक़त ये है मौसम और बदतर हो गया

अदम ने अपनी शायरी में पात्रों को प्रतीकों के रूप में ग्रहण किया है। उनके अनुसार अभी सन छत्तीस का वही दौर है जब होरी किसान, मजदूर होकर प्राण त्याग देता है। व्यवस्था में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है। तब महाजनी सभ्यता थी आज धन्नासेठी सभ्यता है। जमीनों की होती निरंतर लूट से किसान बेघर, बेपर और बे देह होता जा रहा है। 

बंद कल को क्या किया मुखिया के खेतों में बेगार
अगले  दिन  ही  एक  होरी और  बेघर  हो  गया

इसीलिये उन्होंने पूँजीपतियों को केंद्र में रखकर किसानों की बिगड़ती हुई दशा पर ने टिप्पणी की है-

बंगले   बनेंगे   पालतू   कुत्ते   के  वास्ते
हम  आप   तरसते  ही   रहेंगे  मकान को
जब  तक  रहेंगे  सेठों  के  चेले  जमात में
तब तक खुशी नसीब न होगी किसान को

अदम गोंडवी अपने समय और समाज में घटित होने वाली घटना की तुलना भी करते हैं। दूसरों की मेहनत पर पलने वाले नेतृत्त्व वर्ग की शामें कितनी रंगीन होती हैं, और किसान-मजदूर की कुटिया कितनी ग़मगीन होती है। इधर किसानों को भूख का सामना करना पड़ता है और उधर सत्तानसीनों और पूँजीपतियों की शामें रंगीन होती हैं-

है  इधर  फ़ाक़ाकशी  से  रात  का  कटना मुहाल,
रक्स  करती है उधर  स्काच  की बोतल में शाम
**
काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

ऐसी स्थिति में अदम की आवाज़ और क्रांतिकारी हो जाती है कि गेहूँ के बदले अब किसान बम उगाएँगे-

बम उगाएँगे  अदमदेहकान गंदुम के एवज़

सामाजिक चेतना- मार्क्सवाद की मान्यता है कि आर्थिक-आधार बदलने से समाज का ढाँचा बदल जाता है। होगा वह मार्क्स का सिद्धांत अपनी जगह यहाँ भारतीय समाज की मानसिक बुनावट धर्माधारित होती है। यहाँ धर्म प्रधान हो जाता है जिससे सामाजिक असमानता बनी रहती है। इस देश में धर्म ही समाज का निर्माण करता आया है, समाज ने कभी धर्म का निर्माण नहीं किया है। इसलिए मार्क्सवाद यहाँ बुरी तरह फेल हो जाता है। भारतीय समाज शास्त्रानुमोदित हुआ करता है, व्यक्ति की अस्मिता उसके होने से नहीं शास्त्र के द्वारा प्रामाणित होने से है। इस धरा पर ब्राह्मणवादी संस्कृति सदा से फलती फूलती रही है। उसने जातीय-वर्णीय बंधन इस कदर बाँध दिया है कि आज तक भारत का बहुसंख्यक वर्ग उस जकड़न में छटपटा रहा है। कहीं वर्ण के नाम पर तो कहीं विद्या के नाम पर समाज के अग्रगण्य लोगों का वेद विहित क़त्ल किया गया है। चन्दन पूत से जलाकर या उसके समक्ष मंत्रोच्चार करके शास्त्र सम्मत बना दिया गया है। अदम ने भारतीय दलितों और हाशिए पर डाल दिए समाज के बारे में लिखा है-

वेद में जिनका हवाला हाशियए पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
इसी ग़ज़ल का दूसरा शेर शूद्रों पर है-
लोकरंजन  हो   जहां  शंबूक  वध  की  आड़  में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

        अदम गोंडवी उपेक्षित जनता के ही कवि हैं और उन्होंने यह चित्रित किया है कि दलितों को तो प्राचीन-काल से ही दबाकर रखा गया है, उपेक्षा की नज़र से देखा गया है, उन्हें नीच समझा गया है यह अवधारणा मानवता के विकास को अवरुद्ध करने वाली है, अतः अदम ने लिखा है-

मानवता  का  दर्द   लिखेंगे  माटी  की बू  बास  लिखेंगे
        हम अपने इस कालखंड का  एक नया इतिहास लिखेंगे
सदियों  से  जो  रहे  उपेक्षित  श्रीमंतों  के हरम  सजाकर
उन  दलितों  की  करुण  कहानी  मुद्रा से रैदास  लिखेंगे

अदम ने  दलितों की इस तिलमिलाहट को आवाज देते हुए लिखा है-

अंत्यज कोरी पासी हैं हम
क्यूँ कर भारतवासी हैं हम
अपने को क्यूँ वेद में खोजें
क्या दर्पण विश्वासी हैं हम
छाया  भी  छूना  गर्हित है
ऐसे   सत्यानासी  हैं  हम
धर्म  के   ठेकेदार   बताएँ
किस ग्रह के अधिवासी हैं हम?’

अदम की पहली रचना चमारों की गलीजो अपने ही गाँव में घटी एक सच्ची घटना पर आधारित थी अमृत-प्रभातके रविवारीय परिशिष्ट में छपी थी, सन् 1973 में घटी इस घटना के प्रतिकार में अदम ने लिखा था-

आइए, महसूस  करिए  जिंदगी  के ताप को
मैं  चमारों  की  गली तक ले चलूँगा आपको
जिस  गली  में भुखमरी की यातना से ऊबकर
मर गयी फुलिया बिचारी कल कुएं में डूबकर

दलितों के ऊपर सवर्णों द्वारा अमानवीय अत्याचार को देखकर नागार्जुन ने भविष्यवाणी की थी कि-

दिल ने कहा दलित माँओं के सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र  होंगे  वे  अंतिम  विप्लव  में  सहभागी  होंगे

       अदम ने स्त्रियों की दशा पर भी लिखा। एक दलित-स्त्री की विपत्ति की पूरी कहानी तो चमारों की गलीकविता के माध्यम से बयान की ही गयी है; इसके अलावा भी उन्होंने कुछ जगहों पर स्त्रियों की दीन हीन दशा बनाने के जिम्मेदार देश व समाज के व्यवस्थापकों पर व्यंग किया है-      
ये रोटी कितनी मँहगी है ये वो औरत बताएगी
कि जिसने ज़िस्म गिरवी रखके ये कीमत चुकाई है

छायावादी कवि स्त्री को पूज्यभाव से देखता था। उसे देवी/माँ/सहचरी आदि का स्वरूप प्रदान करता था। कवि निराला ने वह तोड़ती पत्थरमें श्रम करती स्त्री का चित्रण किया था तो अदम गोंडवी ने उनसे दो कदम आगे बढ़ते हुए सामाजिक रीतियों एवं परम्पराओं के बीच पिसती हुए विधवा की जिन्दगी को पुनः प्रकाश में लाने का प्रयास अपनी गजलों के माध्यम से किया है। अमूमन ऐसी औरतों के पेट के साथ उनके अबोध बच्चों के पेट भी शामिल होते हैं, और तब यह बात स्पष्ट होती है कि स्त्री-विमर्शमें ज़िस्म-विमर्श की शुरुआत कहाँ से होनी चाहिए, अदम गोंडवी ने ऐसे ही नहीं कवियों से कह दिया कि-

जो ग़ज़ल माशूक़  के जल्वों से वाक़िफ़ हो चुकी,
अब उसे बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

स्त्री हमारे समाज में कई रूपों में सामने आती है। वह कभी सड़क पर झाड़ू लगाती हुयी तो कभी खेतों में कृषकों के संग, कभी संसद भवन में वाद विवाद करती हुए तो कभी शिक्षा में बच्चों को संस्कार देती हुयी, कभी खेल के मैदान पर जौहर दिखाती हुयी तो कभी सरहद पर संगीनों के साए में दुश्मन को ललकारती हुयी। किन्तु इससे भी इतर एक उसकी जिन्दगी है जो किसी के सम्मुख प्रकट नहीं होती। अमीरों-उमरों के हरमों में यौनाकांक्षा की शिकार, कभी कोठे पर ठेल दी जाती हुयी वेश्यावृत्ति के लिए। भूमंडलीकरण के दौर में स्त्रियों की इस स्थिति के बारे में अदम ने तल्ख़ टिप्पणी की है-

औरत  तुम्हारे  पाँव  की  जूती  की  तरह है
जब  बोरियत  महसूस हो घर से निकाल दो

औरतों को नित नई भोग-विलास-सामग्री के रूप में देखने वाली विलासी नज़रों पर अदम का व्यंगात्मक प्रहार है-

मोहतरम  यूँ पाँव  लटकाए  हुए हैं  कब्र  में
चाहिए लड़की कोई सोलह कोई उन्नीस की

सांस्कृतिक चेतना- आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास द्वारा ऊँची-ऊँची उपलब्धियाँ तो हासिल होती जा रही हैं, पर इसके फलस्वरूप ही 'व्यक्तित्व' जैसी चीज का क्षरण होता जा रहा है। व्यक्ति के व्यक्तित्त्व का निरंतर ह्रास उसे अकेलेपन में जीने को विवश कर रहा है। विज्ञान ने चाँद- सूरज को छू लिया। भौतिक सामाग्री से सारा संसार आंदोलित हो उठा। व्यक्ति आसमानों में चलना सीख गया पर धरती पर चलना भूलता जा रहा है। विकास की इस चकाचौंध में व्यक्ति संवेदनशून्य हो गया है। उसकी जिन्दगी कृत्रिम हो गयी है। आज वह विकास की अंधी दौड़ में खुद के अस्तित्त्व को भुला बैठा है। अदम गोंडवी ने इस ओर इशारा किया है कि 

चाँद है ज़ेरे-क़दमसूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया

भूमंडलीकरण ने हर वस्तु को बाज़ारू-नजरिए से देखना सिखलाया है, इसने 'सेक्स' को भी व्यापार का माध्यम बना डाला है, टी वी, इन्टरनेट, अखबार सभी 'सेक्सिया-व्यापार' से भरे पड़े हैं -

टी वी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो
फिर बताओ  कैसे अपनी सोच  का विस्तार हो’ 

फिल्म, सौन्दर्य-प्रतियोगिता, मॉडलीकरण आदि के ज़रिये औरतों का उपभोग किया जा रहा है, वे अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषों के मनोरंजन की सामग्रियों में तब्दील की जा रही हैं, उन्हें पूंजीपतियों के द्वारा बाज़ार की सामाग्री बनाया जा रहा है-

टी वी से अखबार तक है जिस्म के मोहक कटाव
ये हमारी सोच है ये सोच की गहराई है
जिस्म की भूख कहें या हवस का ज्वार कहें
सतही जज़्बे को मुनासिब नहीं है प्यार कहें

"मनुष्य के जीवन में प्रेम का वैशिष्ट्य यह है कि वह एक सांस्कृतिक अनुभव भी होता है, महज़ प्राकृतिक अनुभव नहीं"  आदिम व्यवस्था में मनुष्य पशुओं की भाँति जीवन व्यतीत करता था, तब उसके लिए 'रिश्ता' जैसी चीज के कोई मायने नहीं थे, सांस्कृतीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए मनुष्य ने अन्य चीजों के साथ-साथ प्रेम करना भी सीखा, रजनीश ओशो पर प्रहार करते हुए अदम लिखते हैं-

दोस्तों! अब और क्या तौहीन होगी रीश की
ब्रेसरी के हुक पे अटकी चेतना रजनीश की
जिस्म की घाटी में अब इलहात ढूँढ़ा जा रहा
ये घिनौनी लत है कोरे-गाँव के जगदीश की

जिस भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की दुहाई दी जाती है उसके प्रबल समर्थक बाबा रामदेव पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-

अर्द्धनारीश्वर हुए हैं जब से बाबा रामदेव,
सोचता हूं योग है या योग का व्यापार है

योग दर्शन का प्रवर्तन महर्षि पतंजलि ने किया था, उनके इस दर्शन की विकृतावस्था को देखकर अदम ने व्यंग्यात्मक रूप में तल्ख़ टिप्पणी की है-

खुद पतंजलि आ गए हैं-क्रांति लेकर योग में
आत्म दर्शन कीजिए अब पाशविक संभोग में

तन ढँकने के लिए वस्त्रों की खोज और उसका विकास संस्कृतीकरण का नतीजा है, पर आज आधुनिकता के तमाम बुरे लक्षणों में नंगापन भी इसका एक लक्षण माना जा रहा है। इस प्रवृत्ति वाले बड़े शौक से इसे आधुनिकता की श्रेणी में रखते आ रहे हैं। यह प्रवृत्ति अभी महानगरों और कुछ हद तक नगरों तक ही सीमित है, क्योंकि आधुनिकता की अंधी-चकाचौंध अभी वहीं तक अपनी पैठ ज़्यादा अच्छी तरीके से बना पायी है। ऐसे नगर-निवासियों पर टिप्पणी करते हुए अदम कहते हैं-

यूँ खुद की लाश अपने कांधे पे उठाये हैं
ऐ शहर के बाशिन्दों! हम गांव से आये हैं
उरियानियत में पीछे हम आपसे नहीं हैं
तुम शौक से नंगे हो हम ग़म के सताये हैं

शौक से नंगा होना बेशर्मी की हद को पार करना है, और बेशर्मी की हद को पार करने का अर्थ है -अभौतिक-सांस्कृतिक-उपलब्धियों में कुछ की उपेक्षा करना; क्योंकि नंगे होने की शर्म ने ही वस्त्र के ईजादीकरण पर बल दिया । अदम ने नंगे जिस्म वालों की आत्मा भी नंगी ही बताई है- 

                                 ‘जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिए
आप  भी इस  भीड़  में घुसकर  तमाशा  देखिए

हिन्दी गजल के राजकुमार दुष्यंत कुमार ने लिखा है कि- कहाँ तो जिस्म पहरावों में छिप जाते थे / पहरावों में जिस्म नंगे नजर आने लगे यह तो हद हैयह देश पाश्चात्य देशों की अधकचरी संस्कृति को अपने सिर पर उठाये इतरा रहा है। आजकल गंदी-सुर्खियों में बने रहने के लिए जो देश-विदेश की तथाकथित-सुंदरियाँ न्यूड पोजदिया करती हैं, इन पर अदम का सीधा वार करता यह शेर द्रष्टव्य है-

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह  उरियाँ  क्या  हुई  मौसम  घिनौना  हो  गया

 और देश-विदेश की गंदी-राजनीति का साथ देते हुए टी० वी०, अखबार आदि जो इनके पोजोंको सार्वजनिक बनाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं, उस पर तो अदम ने प्रहार किया ही है।

अदम गोंडवी का चिन्तन सतही नहीं हैं, इसमें देश में व्याप्त अराजकता और अनैतिकता के खिलाफ एक बगावती तेवर है, संस्कृति के नाम पर घिनौना नाच करने वाले बाबाओं पर, संसद भवन में बैठकर नदियों का पानी, पहाड़ों की हरियाली खा पी जाने वाले नेताओं एवं आसमान में उड़कर विदेशी रंग में रंग आज के काले अंग्रेजों और धन्नासेठों पर चोट की गयी है। हमारा समाज लगातार बाजारीकरण का शिकार होता जा रहा है। अदम की चिंता इस ओर भी है, इस बाजारीकरण ने मानव की संवेदना को सोख लिया है, आज वह महज एक चलता फिरता हाड़-मांस का पुतला हो गया है।

आज अदम गोंडवी की प्रासंगिकता इस मायने में ज्यादा बढ़ जाती है कि व्यक्ति को निरंतर पंगु बनाया जा रहा है, दुनिया की ढेर सारी सुख सुविधा की चकाचौंध में वह व्यवस्था से विद्रोह नहीं कर पा रहा है। यह नपुंसकता हमारे परिवेश, समाज और देश के लिए बहुत खतरनाक है। अदम ने अपनी शायरी के माध्यम से जन जागृति का कार्य किया है।


अनिल कुमार
पीएच.डी.
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
हैदराबाद
सम्पर्क 8341399496
anilkumarjeee@gmailcom
समग्र रूप में अदम गोंडवी का मूल्यांकन किया जाय तो यह तथ्य सामने आता है कि वे उस सभ्यता एवं संस्कृति को हेय दृष्टि से देखते हैं जिसमें व्यक्ति व्यक्ति के ऊपर शासन करता है। वे सदियों से चली आ रही उस घृणित प्रथा का विरोध करते हैं, जिसमें जाति या वर्ण के नाम पर अछूत का तमगा दे दिया जाता रहा है। वे ऐसे ज्ञान का और ऐसे ज्ञानी का विरोध भी करते हैं जिसे सुनने मात्र से जिह्वा काट ली जाती थी। वे समाज में असमानता पर खुलकर लिखते हैं। उन्होंने कचरा संस्कृति को अपनाने वाले समाज का भी विरोध किया। अदम गोंडवी अपनी तबीयत के शायर थे, उन्होंने जितनी बेबाकी से समाज के ठेकेदारों को ललकारा है शायद ही कोई ऐसा किया हो। जाति-धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति करने वाले भी उनकी चोट से बच नहीं पाए हैं। अदम साहब ने गांधीवाद का भी विरोध किया है तो भारतीय प्रशासन और उसमें पायी जाने वाली व्यवस्था का भी विरोध किया है। नक्सलवाद के नाम पर सरकारी तमगे पाने के शौकीनों की ओर उनकी दृष्टि तनी ही रही थी। आज के समय में साहित्य ने जिस धारा की ओर रुख किया है अदम गोंडवी उसमें बिलकुल फिट बैठते हैं।


सन्दर्भ-
  1. धरती की सतह पर : अदम गोंडवी, अनुज प्रकाशन, प्रतापगढ़, द्वितीय संस्करण 2010, पृष्ठ 44
  2. वही,पृष्ठ 67
  3. धरती की सतह पर : अदम गोंडवी, अनुज प्रकाशन, प्रतापगढ़, द्वितीय संस्करण 2010, पृष्ठ 31
  4. साक्षात्कार, “विजय बहादुर सिंह की अदम गोंडवी से बातचीत”, कल के लिए, 75-77, दिसंबर 2011 से जून 2012, पृष्ठ 37  
  5. धरती की सतह पर : अदम गोंडवी, अनुज प्रकाशन, प्रतापगढ़, द्वितीय संस्करण 2010, पृष्ठ 44
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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