रणेन्द्र के उपन्यास और आदिवासी जीवन का यथार्थ
आदिवासी जीवन को अपनी लेखनी का विषय बनाने वाले लेखकों में ‘रणेन्द्र’ का नाम विशेष रूप से उभरकर सामने आता है। वे आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड से विशेष रूप से सम्बद्ध रहे हैं और वहाँ के आदिवासी समुदायों की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं और अंतःसंबंधों से रूबरू होते रहे हैं। इसके अतिरिक्त वैश्वीकरण एवं विकास के प्रभावों के दृष्टा और अन्वेषक भी रहे हैं। इस क्रम में चिंतन-मनन की प्रक्रिया और अपने उद्भावित अनुभव जगत से उन्होंने आदिवासी जीवन को लेकर एक साहित्यिक अभियान चलाया। सर्वप्रथम सन् 2009 ई. में वे ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास को लेकर साहित्य जगत में प्रवेश करते हैं और आदिवासी समुदाय ‘असुर’ के जीवन का संतप्त एवं संक्षिप्त आख्यान प्रस्तुत करते हैं। तत्पश्चात् सन् 2014 ई. में वे पुनः आदिवासी समुदाय ‘मुंडा’ के जीवन संघर्ष को इक्यावन अध्यायों में विस्तृत ‘गायब होता देश’ शीर्षक उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। चूंकि ‘रणेन्द्र’ राज्य प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं और इस सिलसिले में उन्हें चेरो, खरवार, मुंडा, उरांव, नगेशिया, बिरहोड़, असुर, बिरिजिया आदि अनेक आदिवासी समुदायों के बीच रहने, घुलने-मिलने, सुख-दुख में भागीदार होने का अवसर मिला है। अतः यह देखना रोचक एवं महत्वपूर्ण होगा कि वे अपने उपन्यासों के माध्यम से आदिवासी जीवन का यथार्थ किस रूप में उपस्थित कर रहे हैं। किस प्रकार की सच्चाई से वे पाठकों को अवगत करना चाहते हैं और किस प्रकार की चेतना अपने रचना कर्म से प्रसारित करना चाहते हैं।
रणेन्द्र के उपन्यासों के अध्ययन से यह
तथ्य उभरकर सामने आता है कि आदिवासी समाज सहजीविता, सह-अस्तित्व और समानता की अवधारणा को जीने वाला समाज रहा
है। ‘गायब होता देश’ उपन्यास के पात्र ‘वीरेन मुंडा’ के शब्दों में – “सबकी इज़्ज़त करना,
सम्मान करना, कम में संतोष करना और ज्ञान बढ़ाना, यही ज़िंदगी का मकसद था लेमुरियन मुंडा लोगों का।” 1.
इस लक्ष्य का प्रतिफलन उनकी संस्कृति में भी
देखने को मिलता है। न तो उनमें सब कुछ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेने की लालसा
ही देखने को मिलती है और न ही अंतहीन उपभोग की प्रवृत्ति ही देखने को मिलती है।
उन्होंने उपभोक्तावादी संस्कृति के स्थान पर उपयोगितावादी संस्कृति को और
वर्चस्ववादी संस्कृति के स्थान पर समरसतावादी संस्कृति को ग्रहण किया है। ‘गायब होता देश’ उपन्यास के पात्र ‘सोमेश्वर सिंह मुंडा’ के अनुसार –
“अपने मूल में ही धन-समृद्धि और ताकत-वर्चस्व के
खिलाफ है हमारी संस्कृति। प्रकृति से उतना ही लेना जितना हमारे समुदाय को ज़रूरत है
ताकि अगली पीढ़ी को वैसी ही प्रकृति और बेहतर रूप में सौंप के जाएं।” 2. अर्थात् स्वकेंद्रित और संग्रहशील प्रवित्ति का
इस समाज में सर्वथा अभाव है, जो कि भविष्य की
पीढ़ी के लिए अत्यंत ही आवश्यक है। अन्यथा उनके लिए जीवन अत्यंत ही दुष्कर हो
जाएगा। न ही उन्हें स्वच्छ जल, वायु एवं खाद्य
सामाग्री ही प्राप्त होगी और न ही स्वस्थ पर्यावरण। जिसका आभास अभी से ही मिलने
लगा है।
किंतु विडंबना देखिए कि इस भविष्यरक्षी
आदिवासी संस्कृति को ही हेय एवं पिछड़ा माना जा रहा है। ‘रणेन्द्र’ अपने उपन्यासों
में इस हेय समझे जाने वाले दृष्टिकोण की बखिया उधेड़ देते हैं और साथ ही इस
दृष्टिकोण का तल्ख़ स्वरों में विरोध भी करते हैं। वे अपने उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का प्रारम्भ ही उस छद्म आवरण को निरावृत्त करते हुए करते
हैं जिसमें आदिवासियों को इस देश का विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय होने की घोषणा की
गई है। किंतु उन्हें आज भी बर्बर, जंगली, असभ्य, नक्सली एवं हिंसक इत्यादि ही समझा जाता है। उपन्यास का प्रारम्भ ही एक
गैर-आदिवासी शिक्षक की उस मानसिकता के साथ होता है जिसमें वह आदिम जनजाति परिवार
की बच्चियों की शिक्षा हेतु आदिवासी क्षेत्र में नियुक्ति को माँ द्वारा पिछली
रोटी खिलाने का प्रतिफल मानता है। अर्थात् अपना दुर्भाग्य समझता है और पोस्टिंग
टलवाने की पुरजोर कोशिश करता है। इसके पीछे का कारण उसका ‘असुर’ आदिवासियों के
संदर्भ में पूर्वग्रह था जिस पर वह अंततः अपना क्षोभ प्रकट करता हुआ कहता है कि –
“असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि ख़ूब
लम्बे-चौड़े, काले-कलूटे,
भयानक, दाँत-वाँत निकले हुए, माथे पर
सींग-वींग लगे हुए लोग होंगें। लेकिन लालचन को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा था। बचपन
की सारी कहानियाँ उलटी घूम रही थीं। ........यह छरहरी-सलोनी भी असुर ही है,
यह जानकर मेरी हैरानी बढ़ गयी थी। हफ़्ता भर से
इसे देख रहा हूँ, न सूप जैसे नाखून
दिखे, न ख़ून पीनेवाले दाँत।
कैसी-कैसी गलत धारणाएँ ! ख़ुद पर ही अजब-सी शर्म आ रही थी।” 3. किंतु उन लोगों का क्या जो इन गलत धारणाओं को
ही सत्य मान बैठे हैं और अपना व्यवहार भी इसी अवधारणा से नियंत्रित करते हैं।
‘गायब होता देश’ उपन्यास के ‘मिसिर मास्टर’
हों या फिर ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास की ‘मिंज मैडम’
हों, इन्हें आदिवासी छात्र पढ़ने के योग्य समझ नहीं आते। कारण वही उनका आदिवासियों
के प्रति हेय दृष्टिकोण है। आदिवासी शैक्षिक योजनाओं की असफलता का एक बड़ा कारण यह
हेय दृष्टिकोण भी है। ‘ग्लोबल गाँव के
देवता’ उपन्यास की प्रिंसिपल ‘मिंज मैडम’ तो आदिम जनजाति की बच्चियों की शिक्षा के लिए खुले ‘पीटीजी गर्ल्स रेज़िडेंशियल स्कूल’ में उनके प्रवेश के लिए कोई भी प्रयास नहीं
करती। अपितु कथावाचक शिक्षक पात्र, लालचन असुर और
रूमझुम असुर की इस संदर्भ में शिकायत पर बच्चियों को ढूंढ कर लाने और टेस्ट द्वारा
प्रवेश देने की बात कहती हैं। मेस-व्यवस्था में सुधार के प्रश्न पर भी उनका
गैर-जिम्मेदाराना और हेय दृष्टिकोण उभरकर सामने आ जाता है कि – “इन मकई के घट्टा खाने वालों को यहाँ भात-दाल
मिल जाता है, वही बहुत है। आप
अपने हिसाब से क्यों सोचते हैं ? कौन इन्हें अपने
घरों में खीर-पूड़ी भेंटाता है कि आप मेस-व्यवस्था में सुधार के लिए मरे जा रहे
हैं।” 4. कितना निकृष्ट और
क्षोभनीय दृष्टिकोण है ! ऐसा ही अशोभनीय और निकृष्ट दृष्टिकोण ‘गायब होता देश’ उपन्यास के ‘मिसिर मास्टर’
का भी है। उनके असहिष्णु व्यवहार से त्रस्त
होकर ही ‘एतवा पाहन’ अपनी पढ़ाई छोड़ देता है और अपनी आपबीती सुनाता
हुआ कहता है कि - “ ई कोल लोग आठो
क्लास पास कर जायेगा तो रिजर्वेशन से मास्टर बन जायेगा। हमरे कुर्सिया पर बैठने
लगेगा। ये ही बात रहे-रहे सुनाता। खजूर छड़ी से धुनते समय अऊर जोर-जोर से चिल्लाता,
देखो ई कोल-बकलोल को, मास्टर बनेगा, अयं ! मास्टर बनेगा रे ?.... तंग आके स्कूलिए
छोड़ दिए।” 5. कहने का तात्पर्य
यही है कि जब तक यह निकृष्ट और असहिष्णु व्यवहार न बदलेगा, आदिवासी हित की कोई भी योजना फलीभूत न होगी और न ही उनकी
समस्याओं का अंत होगा।
आदिवासी समस्याओं के संदर्भ में भी ‘रणेन्द्र’ ने प्रमुखता से विचार किया है। उनके उपन्यासों के अध्ययन से
यह स्पष्ट हो जाता है कि विस्थापन, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, बाहरी घुसपैठ,
अशिक्षा, स्त्री-शोषण, धार्मिक-भाषिक अस्मिता का संकट इत्यादि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय समस्याएँ हैं।
अध्ययन क्रम में यह ज्ञात होता है कि विस्थापन आदिवासियों की प्रमुख समस्या है और
इस विस्थापन का प्रमुख कारण है – ग्लोबल गाँव के
देवताओं की खनिजभक्षी भूख। इस खनिजभक्षी भूख को शांत करने के स्थल हैं – आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र। क्योंकि खनिज रूपी
आहार इन्हीं क्षेत्रों के नीचे दबा पड़ा है। अतः उनका विस्थापन उन क्षेत्रों से
आवश्यक है। इस कार्य को अंजाम देने के लिए सहारा लिया जाता है – देश के विकास का और आश्वासन दिया जाता है
पुनर्वास एवं मुआवजे का। किंतु न तो विकास के सुख में उनकी कोई खास सहभागिता ही
होती है और न ही पुनर्वास एवं मुआवजे का कोई खास धरातलीय रूप ही होता है। वे विकास
योजनाओं की भेंट चढ़कर विस्थापित होने को जहां संतप्त होते हैं वहीं बेनाम चेहरे
वाले इंसानों में बदलने को अभिशप्त भी होते हैं। विस्थापन की इस टीस एवं दंश को ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास के पात्र ‘रूमझुम असुर’ द्वारा
प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भलीभाँति महसूस किया जा सकता है कि – “महोदय, शायद आपको पता हो कि हम असुर अब सिर्फ आठ-नौ हजार ही बचे हैं। हम बहुत डरे हुए
हैं। हम खत्म नहीं होना चाहते। भेड़िया अभयारण्य से कीमती भेड़िये जरूर बच जाएँगे
श्रीमान्। किंतु हमारी जाति नष्ट हो जाएगी। सच कहें तो हम बिना चेहरे वाले इनसान
होकर जीना नहीं चाहते श्रीमान्। हमें बचा लीजिये श्रीमान। हमारी आख़िरी आस आप ही
हैं।” 6.
ऐसे में या तो आदिवासी विस्थापित होने को
अभिशप्त हैं या फिर आंदोलित होने को। किंतु विडम्बना यह है कि न तो उनके विस्थापन
को ही रोका जाता है और न ही उनकी जायज एवं लोकतांत्रिक आवाज को ही सुना जाता है।
उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन को जहां माँ-बहन की अभद्र टिप्पणियों के माध्यम से
उकसाकर अलोकतांत्रिक करार देकर बल प्रयोग द्वारा तोड़ दिया जाता है वहीं उनके
नेतृत्वकर्ता को नक्सली करार देकर मौत के घाट उतार दिया जाता है। ऐसा दोनों ही
उपन्यासों में वर्णित किया गया है। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास की ‘संघर्ष समिति’ के चाहे ‘बालचन असुर’,
‘रूमझुम असुर’ या फिर ‘भीखा’ इत्यादि नेतृत्वकर्ता पात्र हों या फिर ‘गायब होता देश’ उपन्यास की ‘दुलमी बाँध
विरोधी आंदोलन’ के ‘परमेश्वर सिंह पाहन’ जैसे अगुआ पात्र – सभी की हत्या कर नक्सली करार दे दिया जाता है अगले दिन के समाचार पत्रों में
उनके नक्सली होने की पुष्टि भी कर दी जाती है। ‘संघर्ष समिति’ के आंदोलन के दमन में पुलिस द्वारा मारे गए छह आदिवासियों के संदर्भ में खबर
छपती है कि – “पाथरपाट में हुए
पुलिस मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गये। मारे गये नक्सलियों में कुख्यात एरिया
कमांडर बालचन भी शामिल।” 7. यह बालचन और कोई
नहीं ‘संघर्ष समिति’ का प्रतिनिधि था जो कि अपने खेत की रक्षा में
पहले ही ‘गोनू सिंह’ के दल द्वारा गोलियों का शिकार हो चुका था और
अपनी समिति के मांग-पत्रों के साथ धरने में शांतिपूर्वक शामिल था। ऐसे में पुलिस
और मीडिया के दमनात्मक रवैये को भी भलीभाँति समझा जा सकता है जो जन सरोकारों की
अपनी प्रतिबद्धता को लगभग खो चुका है।
और इसी तरह पूंजीवादी विकास की अंधाधुंध
दौड़ में खनिज संसाधनों से परिपूर्ण देश भी गायब होते जा रहे हैं। और साथ ही उन पर
निवास करने वाले मूलवासी भी गायब होते जा रहे हैं। ऐसा ही एक गायब होने वाला टोला
था – मदुकम टोला। ‘गायब होता देश’ उपन्यास का कथावाचक पात्र इसी संदर्भ में कहता है कि –
“अब तो वह केवल नाम के लिए मदुकम टोला रह गया था
वहां एक नई-नकोरी चमचम करती कॉलोनी थी – ऐश्वर्या विहार। ऊंची चारदीवारी से घिरी, गगनचुंबी अपार्टमेंट्स से अंटी हुई।” 8. बाहरी घुसपैठ का आलम तो यह हो गया है कि
मूलवासी निज घरे परदेशी की स्थिति में आ गए हैं। साथ ही उपस्थित हो गया है
धार्मिक-भाषिक अस्मिता का संकट भी। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास में ‘रणेन्द्र’ ने इस संदर्भ को बखूबी रेखांकित किया है कि कैसे ‘शिवदास बाबा’ जैसे लोग अच्छे-भले समानता पर आधारित प्रकृति-पूजक धर्म को
भी परिस्थितियों का लाभ उठाकर विकृत कर सकते हैं। हालांकि इस विकृतिकरण का उपन्यास
की पात्रा ‘ललिता असुर’ द्वारा पुरजोर ढंग से प्रतिरोध किया जाता है।
वह अपना प्रतिरोध दर्ज करती हुई और अपनी धार्मिक चेतना को व्यक्त करती हुई अपने
समाज के लोगों से कहती है कि – “हम प्रकृति के
पूजक हैं। हमारे महादनिया महादेव वही नहीं हैं जो लंगटा बाबा के हैं। हमारे महादेव
यह पहाड़ है। यह पाट है, जो हमें पालता
है। हमारी सरना माई न केवल सखुआ गाछ में बल्कि सारी वनस्पतियों में समायी हैं। हम
सारे जीवों से अपने गोत्र को जोड़ते हैं। छोटे जीवों कीट-पतंगों को भी अपने से अलग
नहीं समझते। हमारे यहाँ ‘अन्य’ की अवधारणा ही नहीं है। जिस समाज के पास इतनी
खूबसूरत, इतनी बड़ी सोच हो उसे किसी
लंगटा बाबा या किसी और की शरण में जाने की जरूरत ही क्या है ?” 9. ऐसा ही मंतव्य ‘गायब होता देश’ उपन्यास के पात्र ‘सोमेश्वर सिंह
मुंडा’ का भी है कि – “धन और ताकत की धौंस से बचने के लिए ही हमारे
पूर्वजों ने पूजा-स्थल पर किसी संरचना, किसी स्थापत्य की सहायता नहीं ली। ....... न सोने चाँदी की ईंटों की ज़रूरत है,
न सिंहासन, न मुकुट की। आधी धोती पहने पाहन-पुजार हैं, अक्षत, डूब, हड़िया, चेंगना, धुप-धुअन पूजा की सामग्री हैं। जो हमें खरीदनी नहीं पड़ती।
आप कोई भी हों, लाट-गवर्नर ही
क्यों नहीं हों, सरना स्थल पर सब
बराबर हैं।” 10.
इन धार्मिक-सामाजिक विशेषताओं के साथ ही ‘रणेन्द्र’ हमें उन बुराइयों और कुप्रथाओं से भी रूबरू करवाते हैं जो
कि आदिवासी समाज में व्याप्त हैं। उपन्यासों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि
आदिवासी समाज में समानता का भाव अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक है। किंतु पूर्ण
समानता जैसा भाव इस समाज में भी नहीं पाया जाता है। जैसे कि धार्मिक कार्यों में
सहभागिता तो स्त्रियाँ कर सकती हैं किंतु अनुष्ठानों में वे सहभागिता नहीं कर
सकतीं। इसके अतिरिक्त ‘मुंडा’ समाज में बेटियों को जमीन देने का चलन नहीं है।
साथ ही डायन का कोप जैसा अंधविश्वास और ससुर की खटिया पर गलती से भी बैठने पर पूरे
गाँव को भोज देने जैसी कुप्रथा भी मुंडा समाज में व्याप्त हैं। इसी प्रकार ‘खेरवार’ एवं ‘असुर’ इत्यादि समुदायों में यह अंधविश्वास भी प्रचलित
है कि धान को आदमी के ख़ून में सानकर बिचड़ा डालने से फ़सल बहुत अच्छी होती है। इसके
अतिरिक्त बलि प्रथा जैसी हिंसक एवं घृणित कुप्रथा भी इन समुदायों में प्रचलित है।
इस तरह अलग-अलग प्रकार की कुप्रथाएँ एवं अंधविश्वास अलग-अलग समुदायों में व्याप्त
हैं। किसी-किसी समुदाय में बराबरी का भाव प्रबल है तो किसी में हीन है। जैसा कि
ऊपर ‘मुंडा’ समुदाय की स्त्रियों के संदर्भ में असमानता को
उल्लिखित किया गया है।
‘गायब होता देश’ उपन्यास की प्रमुख पात्रा ‘अनुजा पाहन’
इसी असमानता के संदर्भ में अपनी सखी ‘रमा’ से कहती है कि – “यह अलग बात है कि
यहाँ सदानों या मुख्यधारा की स्त्रियों से बेहतर स्थिति है, बाकी बराबरी वाली बात यहाँ भी नहीं है। ........। न वह सरना
की पूजा में शामिल हो सकती है न अखड़ा की बैठकों में। मुंडा-मानकी-पाहन जैसे पद भी
स्त्रियों को नहीं दिए जाते। मर्दों ने अपनी मिल्कियत कायम करने और समय-समय पर उसे
जतलाने के लिए कुछ नियम, कुछ निषेध बनाये
और उनके भंग होने पर सजाएँ तय कीं। हमारे मालिकों ने तय कर दिया कि औरतें हल नहीं
चला सकतीं, पाटा नहीं दे सकतीं,
छप्पर नहीं छा सकतीं, तीर-धनुष, कुल्हाड़ी नहीं
चला सकतीं, कपड़ा-खटिया नहीं बुन
सकतीं। ससन-मसान में नहीं जा सकती। इन नियमों के भंग होने पर ‘मालिकों’ ने सजाएँ भी दीं। इतने से मन नहीं भरा तो मर्द-मालिकों ने
छुआछूत के भी नियम गढ़े। अखड़ा में लड़का-लड़की हाथ पकड़ कर नहीं नाच सकते। उराँवों में
नाचते होंगे हम कोंपाट (शुद्ध) मुंडा हैं, हमारी लड़कियाँ लड़कों को नहीं छूएँगी।” 11. इस तरह गैर-बराबरी का रूप ‘मुंडा समाज’ में व्याप्त है।
किंतु यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसा गैर-बराबरी का भाव प्रत्येक आदिवासी
समुदायों में नहीं पाया जाता है। जैसा कि उपरोक्त वर्णित ही है कि ‘उरांवों’ में लड़के-लड़कियां एक-दूसरे का हांथ पकड़कर अखड़े में नाचते
हैं। इसी प्रकार शिक्षा के प्रचार से जादू-टोने, डायन का प्रकोप एवं ख़ून में सानकर बिचड़ा डालने जैसे
अंधविश्वासों में भी कमी आयी है एवं बलिप्रथा जैसी कुप्रथाओं का भी ह्रास हुआ है।
निशान्त मिश्रा
|
इस प्रकार
निष्कर्ष रूप में कहें तो ‘रणेन्द्र’
के उपन्यासों के अध्ययन से हम आदिवासी जीवन के
विविध आयामों से संपूर्णता में परिचित होते हैं। उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक जीवन की विशेषताओं से तो परिचित होते ही हैं साथ ही
उनकी विसंगतियों से भी रूबरू होते हैं। आदिवासी समाज की प्रमुख समस्याओं, उनके कारणों एवं उनके निवारण के सूत्र भी हमें
उपन्यासों के भीतर से प्राप्त होते हैं। एक ओर शोषण की चक्की में पिसते हुए
आदिवासी-किसान एवं मजदूर की पीड़ित दशा का सहानुभूतिपूर्ण कारुणिक चित्रण है तो
दूसरी ओर आदिवासी जीवन की विडंबनाओं के साथ आत्मालोचन भी है। एक ओर आदिवासी समाज
की व्याकुल एवं विवशता की मर्मांतक चीत्कारों की गूँज है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक
चेतना से युक्त सशक्त प्रतिरोध भी दर्ज है। एक ओर विस्थापन के कारण दर्द के हद से
बेहद होने का आख्यान वर्णित है तो दूसरी ओर उस व्यवस्था का भी विरोध है जो किसी
वर्ग विशेष के स्वार्थ से जुड़कर कार्य करती है। ‘गायब होता देश’ उपन्यास के पात्र ‘सोमेश्वर सिंह
मुंडा’ के शब्दों में – “अगर लुटियन दिल्ली के नीचे कोयला निकल आए,
इलाहाबाद सिविल लाइंस के नीचे बॉक्साइट,
यूरेनियम, चंडीगढ़ के नीचे, आयरन ओर लखनऊ, चेन्नई, बंगलुरू के नीचे तो क्या उजाड़ेगा लोग उसे ?
होगा वहाँ विस्थापन ? नहीं, कभी नहीं। ऐसा
कभी नहीं होगा। क्योंकि वहाँ रहने वाले एलीट सम्मानीय नागरिक हैं। भारत माता के
खास बेटे। फिर हम क्या हैं ?” 12. इस प्रश्न द्वारा
‘रणेन्द्र’ व्याकुल मानवता की संस्कृति की रक्षा का स्वर
तो उभारते ही हैं, साथ ही उस घातक
व्यवस्था पर चोट भी करते हैं जो वर्ग भेद के आधार पर कार्य करती है। इस प्रकार हम
यह कह सकते हैं कि ‘रणेन्द्र’
के उपन्यासों के अध्ययन से आदिवासी समाज के
जीवन की धड़कन को सुना जा सकता है।
संदर्भ
1.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
संस्करण
: 2014, पृष्ठ संख्या – 107.
2.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
संस्करण
: 2014, पृष्ठ संख्या – 262.
3.
रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003, प्रथम संस्करण : 2013, पृष्ठ संख्या – 11-12.
4.
रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003, प्रथम संस्करण : 2013, पृष्ठ संख्या – 20.
5.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
संस्करण
: 2014, पृष्ठ संख्या – 252.
6.
रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003, प्रथम संस्करण : 2013, पृष्ठ संख्या – 84.
7.
रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003, प्रथम संस्करण : 2013, पृष्ठ संख्या – 88.
8.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
संस्करण
: 2014, पृष्ठ संख्या – 86.
9.
रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003, प्रथम संस्करण : 2013, पृष्ठ संख्या – 72.
10.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
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: 2014, पृष्ठ संख्या – 262.
11.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
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: 2014, पृष्ठ संख्या – 266-267.
12.
रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा.
लि., गुड़गांव – 122002, हिंदी का प्रथम
संस्करण
: 2014, पृष्ठ संख्या – 263.
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
ग्लोबल गांव के देवता पुस्तक पढ़ी, असुरों की समस्याओं का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है रणेंद्र सर ने।।
जवाब देंहटाएंआपके आलेख को पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला, सारगर्भित आलेख के लिए धन्यवाद, महोदय
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