आलेख: भीमा कोरेगांव संग्राम बनाम दलित चेतना/डा. मुकेश कुमार

  



 भीमा कोरेगांव संग्राम बनाम दलित चेतना




 ‘कोरेगांव’, ‘भीमानदी के तट पर पुणे से लगभग 23 किलोमीटर दूर बसा एक छोटा गांव है। इस गाव का अपना एक इतिहास है। इस गांव का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि यहां इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना घटित हुई थी। यह उस समय की बात है जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था। यह अंग्रेजों का एक ऐसा काल-खण्ड था, जिसमें 1 जनवरी सन् 1818 को इसी गांव में महाराष्ट्र राज्य के महारों’ (जो अछूत माने जाते है) एवं पेशवाओं के मध्य भयानक युद्ध हुआ, जिसमें केवल 500 महारों ने पेशवाओं की 28000 सेनिकों की फौज को युद्ध में बुरी तरह परास्त कर दिया था। यह दुनिया में अब तक का सबसे अलग तरह का युद्ध था जिसने समस्त संसार को आश्चर्य चकित कर दिया था। महारों की सेना में केवल 500 सैनिकों ने पेशवा के 28000 सैनिकों को युद्ध में हराकर एक ऐसी मिसाल कायम की थी, जो उस समय के इतिहास में देखने को नहीं मिलती। भीमा कोरेगांव के इस युद्ध ने पेशवाशाही को भारत से सदा के लिए समाप्त कर दिया था। महारपेशवाओं की नीतियों से प्रताड़ित थे| उनके अत्याचारों से पीड़ित थे। पेशवामहारों के साथ पशुवत व्यवहार तो करते ही थे साथ ही  उनको गुलाम भी समझते थे। चातुर्वर्णीय व्यवस्था को मानने वाले पेशवा महारों को चार वर्णो में सबसे नीचे वर्ण का समझकर उनका अनेक प्रकार से शोषण करते थे। पेशवाओं ने महारों पर मार्शल लाॅलगाकर उनके जीवन को बद्तर ही नहीं बदहाल कर दिया था, मार्शल लॉ के द्वारा महारों पर अनेक क्रूर अत्याचार किए गए। उनको पढ़ने-लिखने से वंचित रखा गया, वेद, पुराण,रामायण,महाभारत,गीता आदि धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अधिकार उन्हें  नहीं दिया गया। महारों को गांव मे रहने का अधिकार भी पेशवाओं ने उनसे छीन रखा था। जिस तालाब से पेशवाओं के पशु पानी पीते थे उस तालाब से पानी पीने का अधिकार भी महारों को नहीं था। पेशवा जब चाहते तब महारों की स्त्री को उठाकर ले जाते एवं विभिन्न विधियों से उसकों पवित्र करके उसका जबरदस्ती उपभोग करते थे। उपभोग के बाद स्त्री पहले की तरह फिर अछूत एवं अपवित्र हो जाती थी। जो महार पेशवा का प्रतिकार (विरोध) करता था उसे कठोर दण्ड़ दिया जाता था। उसे पशुओं की तरह पीटा जाता था। उसके घर में आग लगाकर उसको जिन्दा जला दिया जाता था। गांव में घुसना भी महारों के लिए प्रतिबंधित था। पेशवाओं के विचार थे कि महार जिस रास्ते से गुजरते थे वो  रास्ता अपवित्र हो जाता था एवं महारों के मुंह से पृथ्वी पर थूकनीचे गिर जाने से पृथ्वी अपवित्र हो जाती थी। महार यदि रास्ते में किसी पेशवा ब्राह्मण को दिखाई दे जाता तो उसके दिखने मातृ से पेशवाओं के बनते कार्य भी बिगड़ जाते एवं पेशवा अपवित्र हो जाते थे। पेशवा के ‘‘मार्शल लॉ ’’ के कारण महारों को कमर पर झाडू बांधकर एवं गले में मटकी (हांडी) लटकाकर गांव के बाहर रहना पड़ता था। जिससे कि महार जिस रास्ते पर चल रहा होता था वह रास्ता कमर पर बंधी झाडू से साफ होता जाए। उस रास्ते पर महारों को चलने की मनाही थी, जिस रास्ते पर पेशवा ब्राह्मण व उच्च जाति के लोग चलते थे उस रास्ते से गुजरना भी महारों के लिए अभिशाप था। जितने कठोर नियम पेशवाओं ने महारों के लिए बनाएं थे, उससे भी कठोर सजा का प्रावधान महारो के लिए था। यदि कोई पेशवा बाह्मण या उच्च जाति के व्यक्ति महारों को जान से मार भी देते थे तो उसके लिए कोई दण्ड का विधान नहीं था। 

पेशवाओं के समय महारों को घोर अभाव में जीवन यापन करना पड़ता था। पेशवाओं द्वारा महारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना महारों के संशाधन छीन लेना, उनके साथ पशुवत व्यवहार करना, उनकी स्त्रियों का जबरदस्ती उपभोग करना, उनको अछूत व अपवित्र बना देना, उनको गुलामी का जीवन जीने को मजबूर करना आदि अनेक घटनाओं ने महारों की स्थिति को दयनीय बना दिया था। महारों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक प्रतिष्ठा खत्म हो गई थी। जिसके जिम्मेदार पेशवा तथा उनका लाया हुआ मार्सल लॉ था। महारों के पास खोने के लिए कुछ शेष नहीं बचा था। वो अपना मान-सम्मान पहले ही खो चुके थे। महारों के सामने एक ही रास्ता था। वो अपने सम्मान व प्रतिष्ठा को किसी तरह बनाए रखना चाहते थे एवं अपने इतिहास को पुनर्जीवित करना चाहते थे, जिसको पेशवाओं ने बहुत हद तक मिटा दिया था। पेशवा के कानून से महार बुरी तरह टूट गए थे, उनका सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक जज्बा एवं योगदान इतिहास के पन्नो में धूमिल हो चला था वो अपने योगदान और हिम्मत को दुनियां को दिखाना चाहते थे। जिस कानून का हवाला पेशवा महारों को देते थे, उस कानून का पेशवाओं के लिए कोई मायने नहीं था। पेशवा, महारों के छूने से, उनके दिखने मात्र से तो अपवित्र हो जाते थे, परन्तु महारों की स्त्री को छूने से उनके स्तनों को चाटने से उनके मुहं में जीभ डालने से पेशवा अपवित्र नहीं होते थे, उनका उपभोग करने से पेशवाई शान और वीरता में कोई कमी नहीं आती थी। पेशवा का कानून अछूत महारों के लिए एवं उनकी स्त्री के लिए भिन्न था। महार उनकी आंखों में खटकते थे और उनकी स्त्री पेशवाओं के लिए अय्याशी करने का जरिया थी। पेशवायोद्धा थे, ऐसे योद्धा, जिसने कमजोर व्यक्तियों की रक्षा ना कर उनको प्रताड़ित करने के लिए तलवार उठाई थी। कमजोर वर्ग की स्त्री का भोग कर वे अपनी शौर्य गाथा का, अपने साहस का, अपने युद्ध कौशल का, और वीर पेशवा होने का गुणगान करते थे। 

महारों के लिए चातुर्वर्णीय व्यवस्था को स्थापित कर उनको उपदेश देते थे कि-ऊपर के तीनों वर्णो (बाह्मण, क्षत्रीय व वैश्य) की सेवा करना ही तुम्हारा धर्म है। तुम्हें सम्पत्ति रखने का, शिक्षा ग्रहण करने का, धार्मिक पुस्तकों के मंत्रों के उच्चारण का, वेद आदि के मंत्रों के सुनने का अधिकार नहीं है, यदि तुम ये सब धार्मिक अनुष्ठान करोगे एवं सामाजिक सम्मान प्राप्त करने की कोशिश करोगे तो इसके लिए तुम्हें कठोर दण्ड दिया जायेगा। पेशवाजो भी कार्य करते थे, जिस प्रकार से करते थे उनसे कोई भी प्रश्न करने वाला नहीं होता था क्योंकि पेशवाओं की शक्ति को सभी लोग, आस-पास के कमजोर राजे रजवाड़े भी भली प्रकार जानते थे एवं उनसे डरते थे, शायद इसलिए पेशवाओं से ये पूछने का किसी का साहस नहीं रहा होगा कि- चातुर्वर्णीय व्यवस्था को मानने वाले पेशवा खुद ब्राह्मण होकर क्षत्रीय का कार्य क्यों कर रहें हो? आप तो ब्रह्म के ज्ञानी पंडित हो। आप तो राजा को भी उपदेश देने वालेे उपदेशक हो फिर ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी की आप जैसे ज्ञानी ने क्षत्रीयों को गददी से उतार फेंका और स्वयं ने क्षत्रीय तलवार पकड़ ली। आप ने चातुर्वर्णीय व्यवस्था को क्यों नहीं माना? पेशवा यदि महारो की स्त्री का भोग करने के लिए उसको पवित्र कर सकते थे तो वे अछूत महारों को भी पवित्र कर समाज को जोड़कर सामाजिक सदभाव का नेक कार्य कर सकते थे और राष्ट्र को मजबूत बनाने में योगदान कर सकते थे।

            उस समय पेशवाओं पर किसी का भी नियन्त्रण नहीं था, वे निरंकुश थे। ‘‘यह बात तो हर कोई जानता है कि मराठा पेशवा काफी दौलतमंद और अय्याश हुआ करते थे और उनकी अय्याशी के एक नहीं अनेक उदाहरण है। पेशवाई में पेशवा ब्राह्मणलोगों ने नंगा नाच शुरू किया, जिनमें उन्होंने सारी हदे पार कर दी। इसका एक उदाहरण है पैठणी सरदार। पेशवाई राज्य में जागीर पाने, सरदार बनाने के कई तरीके थे। जिनमें से एक था पैठणी सरदार। जो पैठणी सरदार बनाना चाहता था उसे अपनी कन्या पेशवा के महल मे पहुँचाकर उसे पेशवा व ब्राह्मण सरदारों को सोंपना होता था। बाप अपनी कन्या को पेशवा के दरबार में छोड़ देता था। पेशवाओं की दासियों द्वारा उसे नहलाया जाता था और उसके शरीर पर सुगंधित द्रव्य लगाकर उसे तैयार किया जाता था। उसे अनेक ढंग से पवित्र और आकर्षक बनाकर पेशवाओं व अन्य गणमान्य व्यक्तियों की सेवा में प्रस्तुत किया जाता था। भोजन मण्डप मे जाते ही ब्राह्मण लोग कन्या के वस्त्र उतारकर कन्या को नग्न करते थे। नग्न कन्या पेशवा और ब्राह्मण मंत्री को मदिरा पान करवाती थी। मदिरा सेवन के बाद खाना परोसती थी और खाना खाने के बाद पेशवा और अन्य ब्राह्मण मंत्री कन्या के शरीर का भोग करते थे। भोग करते-करते जब तक पेशवाऔर ब्राह्मणों का जी ना भरे तब तक उस कन्या को निर्वस्त्र ही रहना पड़ता था। जब सभी की ईच्छा पूरी हो जाए तब कन्या को पैठणी साड़ी और आभूषण देकर तथा उसके बाप को जागीर देकर सरदारी बहाल की जाती थी। इसे ही पैठणी सरदार करते थे।’’१ पेशवाओं द्वारा किए गए अन्याय से पीड़ित अछूत महरों के हृदय में अनेक घटनाएं ज्वाला बनकर विद्रोह का बीज बो रही थी। महारों का गुलामी भरा जीवन जीना असहनीय हो गया था। महार इस जुगत में थे कि वे कैसे पेशवा से अपने ऊपर हुए अत्याचार का बदला ले। वे पेशवाओं की गुलामी प्रताड़ना, शोषण व अत्याचार से मुक्ति चाहते थे साथ ही अपने तथा अपने पूर्वजों के खोए हुए सम्मान को प्राप्त करना चाहते थे वे अपने गौरवशाली इतिहास को किसी भी मूल्य पर बनाए रखना चाहते थे।

            पेशवाओं के प्रति अछूत महारों के मन में भड़क रही क्रोध की आग दिन-प्रतिदिन दहक रही थी। महार निडर व साहसी थे। पेशवा के प्रति उनके क्रोध को देखकर ही अंग्रेजों ने अछूत महारों को ब्रिटिश भारत की सेना में भर्ती कर लिया। अछूत महार पेशवा की पेशवाई को उखाड़ फेंकना चाहते थे, और वे जिस अवसर की तलाश में थे, वो उनकों अंग्रेजों के रूप मे मिल गया था।

            अंग्रेजों ने महारों को फौजी प्रशिक्षण देकर उनके साहस को और दृढ़ बना दिया था। अंग्रेज चाहते थे कि महारों की सहायता से पेशवाओं को हराकर किसी तरह हम अपनी सत्ता स्थापित कर लें और महार चाहते थे कि पेशवाओं द्वारा वर्षो से किए गए अपमान का बदला लेकर पेशवाओं के घमण्ड को चकनाचूर कर दिया जाए।

            दोनों और से युद्ध की तैयारियां शुरू हुई 1 जनवरी 1818 को ठिठुरन वाली ठंड में पेशवाओं की तरफ से 28 हजार सैनिक थे, जिनमें 20 हजार घुड़सवार एवं 8 हजार पैदल सैनिक थे, जिसका नेतृत्व बाजीराव द्वितीय कर रहे थे। दूसरी ओर ‘‘बाम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्री’’ के 5 हजार अछूत महार सैनिक थे, जिसका नेतृत्व अंग्रेज कैप्टन स्टोटनव महार रतनाक’, जाननाक’, और भकनाकने किया था। पेशवाओं का सामना होने से पहले कैप्टन स्टोटन’ 43 किलोमीटर पैदल चलकर सेना के साथ युद्ध स्थल में पहुंचे थे। एक और पेशवाअपनी पेशवाई बचाने की फिराक में थे। दूसरी और पेशवाओं के पशुवत अत्याचारों से बदला चुकाने की फिराक में महार गुस्से से तमतमाएं हुए थे। महार और पैशवाओं दोनों की सेनाए आमने-सामने थी। महार बहुत बहादुरी से लड़े, उन्होंने पेशवाओं की सेना के छक्के छुड़ा दिए। पेशवाओं की 28 हजार सेना पर महार बुरी तरह टूट पड़े। ‘‘वर्षो से महारों के हृदय में धधक रही अपमान की आग का ही परिणाम था कि महारयुद्ध के मैदान में डटे रहे। महारों का युद्ध कौशल और साहस युद्ध में इस तरह दिखाई पड़ता था मानों महार पेशवा से कई हजार वर्षो का हिसाब किताब इसी युद्ध में करना चाहते हो।’’

            महारों का साहस व शौर्य युद्ध में किसी भी स्तर पर कम नहीं था। वर्षो से जो अन्याय अत्याचार व शोषण अछूत महारसहन कर रहे थे, वह भीमा कोरेगंाव के युद्ध में क्रोध बनकर पेशवाओं को सबक सिखा रहा था। युद्ध के मैदान में घुटने टेकने के अलावा पेशवाओं के सामने अन्य रास्ता नहीं था। अनेक वर्षो से जिस अभिमान को लिए पेशवा जीवित थे। अपने को श्रेष्ठ व बहादुर समझते थे, उस अभिमान, बहादुरी और श्रेष्ठता के परखच्चे भारत में सबसे निम्न वर्ण में आने वाले अछूत, असभ्य, अपवित्र और कमजोर कहे जाने वाले महारों ने भीमा कोरे गांव में उड़ा दिए थे। युद्ध में हुई दुर्गति का अन्दजा स्वयं पेशवाओं एवं उनकी सेना को भी नहीं था।

            आखिरकार इस घमासान संग्राम में चातुर्वर्णीय व्यवस्था की रचना करने वाले ‘‘ब्रह्म के मुख से पैदा हुए पेशवा की शर्मनाक पराजय हुई देखते ही देखते पेशवाओं की सेना धुएं की तरह उड़ गई। 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने 28 हजार सैनिकों के साथ 12 घंटे तक लड़ाई लड़ी’’३  महारसैनिकों के सामने पेशवाकी सेना बोनी साबित हुई।

            
डॉ. मुकेश कुमार
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युद्ध के मैदान में अछूत महारों का जज्बा और सामथ्र्य पूरी दुनिया ने देखा था। युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने भीमा कोरेगांव में 75 फीट ऊंचा विजय स्तम्भ का निर्माण कराया, जिस पर वीर सैनिकों की शौर्य गाथा दर्ज है। इस युद्ध में जो महार सैनिक मारे गए थे, अंग्रेजों द्वारा उनके नाम विजय स्तम्भ पर दर्ज करावाएं गए। ‘‘यह कौरेगांव स्तम्भ (विजय स्तम्भ) महार रेजिमेंटके साहस का प्रतीक है। इस मीनार पर गोपनाक’, ‘शमनाक’, ‘भागनाक’, ‘अबनाक’, ‘बालनाक’, ‘राजनाक’, ‘बापनाक’, ‘रेनाक’, ‘सजनाक’, ‘गणनाक’, ‘देवनाक’, ‘गोपालनाक’, ‘हरनाक’, ‘जेठनाक’, ‘मोठेनाक’,  ‘घोडंनाक’, ‘लखनाक’, ‘रामनाक’, ‘येसनाक’, ‘धरमनाक’, ‘अनाक’, ‘दीनाकआदि सैनिकों के नाम लिखे हुए है। इन वीर सैनिकों के नाम के आगे सूबेदार, जमादार, हवलदार और तोपखानादार आदि लिखे हुए है। जगनाक’, ‘हरिनाक’, ‘भीखनाक’ ‘रतननाकऔर धननाकयुद्ध में घायल हुए सैनिकों के नाम है।४  महार अनेक वर्षो से भेदभाव से पीड़ित थे। इस युद्ध में उनकी दृढ़ संकल्प शक्ति एवं साहस का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार जाति के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के लड़ाई के पहले की रात 31 दिसम्बर 1817 को 43 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे थे। लेखक राजकुमार भीमा कोरेगांव के विषय में लिखते है- ‘‘1 जनवरी 1818 को कोरेगांव के युद्ध में महार सैनिकों ने ब्राह्मणवादी पेशवाओं को धूल चटा दी थी। इस ऐतिहासिक दिन को याद करते हुए डा. बाबा साहेब अम्बेडकर प्रतिवर्ष 1 जनवरी को कोरेगांव जाकर उन वीर दलित सिपाहियों को नमन करते थे। डा. आम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस (अंग्रेजी) के खण्ड 12 में द अनटचेबल एंड द पेक्स ब्रिटेनिकामें इस तथ्य का वर्णन किया गया है। ब्रिटिशों की भारत की जीत में वर्ष 1818 का बड़ा महत्व है। अंग्रेजों ने भारत के अन्य भू-भाग पर अधिकार प्राप्त करने के लिए अंतिम युद्ध 1818 में लड़ा। यह कोरेगांव की वह लड़ाई थी, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त कर भारत में ब्रिटिश राज स्थापित किया।’’५  अंग्रेजों की दूरदर्शीता एवं कूटनीतिज्ञ का इस युद्ध में भी महत्वपूर्ण स्थान रहा। भारत में आपसी फूट सामाजिक असमानता और धनलोलुपता का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने तृतीय एवं चतुर्थ मैसूर युद्ध में पेशवाओं की सहायता से टीपू सुल्तान को हराकर अपनी सत्ता कायम की एवं भीमा कोरेगाव युद्ध में अछूत महारों की सहायता से पेशवाई साम्राज्य को सदा के लिए भारत के नक्से से मिटाकर भारत में अपनी राजशाही को सुनिश्चित किया।

संदर्भ: 
      १. मराठयाचे दासी- पुत्र म देशमुख - क्रष्णकान्त,
          २. दलित दस्तक - संपादक अशोक दास , २०१५ पश्चिम पूरी दिल्ली,
          ३. चमार रेजिमेंट - सतनाम सिंह, सम्यक प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. ३०,
          ४. कोरेगावं की महान क्रांति- इंजीनीयर चंद्रसेन बोद्ध, प्रकाशक, अंकित गौतम प्र.सं. ४३,
          ५. चमार रेजिमेंट- सतनाम सिंह, सम्यक प्रकाशन, दिल्ली,प्र. सं. २९-३०   

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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