विमर्शों की कसौटी पर ‘टोपी शुक्ला’
(बाल, भाषा और अल्पसंख्यक विमर्श के विशेष संदर्भ में)
प्रकृति ने
सृष्टि में सृजन के दौरान अनेक तरह के प्राणी बनाएं हैं। ताकत व चेतना के अनुसार
कई अलग-अलग समूह बनाकर अपनी नस्ल के आधार पर वेअनवरत रूप सेजीवन यापन कर रहे हैं।
सृष्टि के नियमों की अगर बात करें तो मनुष्य भी ऐसाही प्राणी है, पर उसकी स्थिति अन्य प्राणियों से कुछ भिन्न है
क्योंकि उसके पासविकसित मस्तिष्क और संवेदनाओंको समझने वाला ह्रदय भी है।सदियों से
मानव अपनीबुद्धि एवं संवेदना के संतुलन द्वारा समाज के नियमों का सृजन एवं ध्वंस
करता आया है। कृषि की शुरुआत ने परिवारों का निर्माण किया। परिवार नामक संस्था में
मौजूद सदस्यों का एक दूसरे पर निर्भर होने के कारण कार्यों,कर्तव्यों व अधिकारों का निर्धारण हुआ। कालांतर में परिवार
का जो सदस्य बाह्य जगत से संपर्क में रहा, वह मुखिया की भूमिका में स्थापित हो गया।विश्व के ज्यादातर भागों में पुरुष इस
पद पर सदियों से बना हुआ है। इसके अलावा जिस पुरुष या उसके वर्ग ने जितनी ज्यादा
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ताकत हासिल की, वह समाज के नियम तय करने वाला बना। व्यक्तिगत स्वार्थ,
संवेदनहीनता एवं सूचना की कमी के कारण समाज
केकईवर्ग धीरे-धीरे मूलभूत अधिकारों से वंचित हो गए। समय-समय पर बुद्ध,ईसा, मोहम्मद, कबीर जैसे
मानवतावादी विचारकों ने हाशिए के वर्ग की लड़ाई लड़ने का प्रयास किया, मगर इनके जाने के पश्चात् इनके अनुयाई धार्मिक
आडम्बरों के माध्यम से मानवतावादी सोच को कई बार रौंदने में सफल रहे।
फ्रांस की
क्रांति ने वैश्विक स्तर पर अपना व्यापक प्रभाव डाला। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (बाद में न्याय भी जोड़ा
गया) की मांग करतीयह क्रांति बाद में मानवाधिकारों की मांग की प्रतीक बन गई।
शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार का सहारा पाती यह आवाज बीसवीं सदी
में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराती है। विकास से पीछे छूटे हाशिए के वर्गों की
समस्याओं को विश्लेषित कर उन पर चिंतन प्रारंभ हुआ। यह चिंतन कालांतर में विमर्श
के रूप में जाना गया।वर्तमान समाज में स्त्री विमर्श, बाल विमर्श, किन्नर विमर्श,
दलित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, समलैंगिक विमर्श एवं भाषाई विमर्श आदि प्रमुख रूप से उपस्थिति बनाए हुए हैं।
हिंदी साहित्य
में विमर्श की गूंज अस्सी के दशक के बाद से सुनाई देती है। इसके पीछे उस समय देश
में हो रही उथल- पुथल मुख्य रूप से
जिम्मेदार मानी जाती हैं।दलित पैंथर पार्टी, मंडल आयोग, मानवाधिकार आयोग,
महिला आयोग, बाबरी विध्वंस, वैश्विक बाजारवादआदि ऐसी परिस्थितियां विमर्श को औरअधिकधार देने में सहायक
सिद्ध हुई। हिंदी साहित्य में उत्तर आधुनिकतावादी विचारधारा के प्रवेश के साथइन
चिंतनों की प्रासंगिकता पर मुहर लग गई।
सन् 1970 में प्रकाशित राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ भारतीय समाज की विसंगतियों को बेधड़क बेपर्दा करता है।इसके
आक्रमण पहलूको लेखक ने उपन्यास की भूमिका में स्पष्ट कर दिया गया है, लेखक लिखता है,“आधा गांव में बेशुमार गालियां थी। मौलाना टोफी शुक्ला में
एक भी गाली नहीं है। परंतु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है। और मैं यह गाली
डंके की चोट पर बक रहाहूँ। यह उपन्यास अश्लील है जीवन की तरह।”(1)यह उपन्यास अपने आप में कई विमर्शों को समाहित
किए हुए है। प्रस्तुत शोध पत्र में बाल विमर्श, भाषा विमर्श एवं अल्पसंख्यक विमर्श को स्पष्ट करने का
प्रयास किया गया है ।
मनोवैज्ञानिकों
का मानना है कि व्यक्ति जो कुछ भी बनता है उसका अधिकांश हिस्सा बचपन में तय हो
जाता है। इसके अलावा मनोविज्ञान की व्यवहारवादी शाखा का मानना है कि बालक को अपने
विकास के लिए एक अच्छा परिवेश उपलब्ध करवाना अति आवश्यक है। इन दोनों तथ्यों को
ध्यान में रखते हुए हम मान सकते हैं कि जनतांत्रिक माहौल बालकके भविष्य पर
निर्णायक प्रभाव डालता है। पर अक्सर हमारे परिवारों में इसका उल्टा होता है।
परिवार में बालकों को सुरक्षा तो मिलती है, मगर सुरक्षा इतनी शख्त होती है कि वह एक कैद सी लगती है।
कदम कदम पर बडों के तथाकथित अनुभव के पैरों तले बालकों का स्वाभाविक विकास रौंदा
जाता है। भारतीय समाज के परिवारों के वातावरण पर मशहूर उर्दू साहित्यकार जुबेर
रिजवी रमेश उपाध्याय से वार्ता के दौरान घर और बाहर के बच्चों के प्रति हमारे
व्यवहार पर विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं,“असल में हिंदुस्तानी बालकों की समस्या यह है कि घर ही हमारे
यहां एक ऐसी जगह है जहां अपनी संस्कृति, सभ्यता, लोक, व्यवहार, मानवीय मूल्यों आदि की परंपराओं को सुरक्षित रखते हैं और
उनकी परवरिश करते हैं। वहीं मानवीय संबंध बनते और फलते फूलते हैं। वहीं हमारी
सामाजिक और मजहबी परंपराएं महफूज रहती हैं और आगे बढ़ती है। बाहर की दुनिया में या
तो यह चीजे होती नहीं, या जिन रूपों में होती हैं उन पर हमारा कोई बस
नहीं चलता।गीता और कुरान को जिस तरह हम अपने घर के एकांत में पढ़ते सुनते हैं,
बाहर उनको इस तरह पढ़ना और सुनना मुमकिन नहीं
है। बाहर किसी बच्चे को तमीज या तहजीब सिखाने आप नहीं जा सकते लेकिन घर में आप
सुबह सुबह अपने बच्चों को जगा कर कह सकते हैं कि वह यह कोई वक्त है सोने का,
उठ जाओ तुम्हें पूजा करनी है या तुम्हें नमाज
पढ़नी है। फिर परिवारों के कई तरह के रिश्ते होते हैं, उनकी जिम्मेदारियां होती है। मसलन यूरोप अमरीका के बच्चे
ज्यों ही बालिग हो जाते हैं, उन्हें कह देते
हैं कि अब आप अपनी जिंदगी जीने के लिए आज़ाद है, मां बाप के रूप में हमारी जिम्मेदारी पूरी हुई। लेकिन यहां
तो बालिग हो जाने के बाद भी बच्चे आपके साथ रहते हैं।”(2)रिजवी साहब का यह विश्लेषण उस कहावत को चरितार्थ करता है जो
बताती है कि बड़े वृक्ष के नीचे छोटे पौधे सही तरीके से विकसित नहीं हो सकते
हैं।कुछ ऐसी ही स्थिति प्रस्तुत उपन्यास के प्रमुख पात्र बलभद्र नारायण शुक्ला
उर्फ ‘टोपी शुक्ला’ की है।टोपी को अपने परिवार में रंग और स्वभाव
के आधार पर भेदभाव झेलना पड़ता है,टोपी की दादी
सुभद्रा देवी द्वारा टोपी के साथ जो दुर्व्यवहार किया जाता है लेखक ने उसे कुछ इस
तरह साझा किया है, “उधर ‘टोपी शुक्ला’ की बदसूरत ने मुन्नी बाबू का बाजार और चढ़ा दिया। जो चीज
आती वह पहले मुन्नी बाबू को मिलती। कपड़े मुन्नी बाबू के बनते और टोपी को उनकी
उतरन पहननी पड़ती। सुभद्रा देवी तो उसे अपने पास भटकने भी नहीं देती थी। वह शायद
डरती थी कि अगर उन्हें टोपी को छू लिया तो उनके चंपाई रंग पर दाग पड़ जाएगा।
मुन्नी बाबू अलबता जब देखो तब दादी की गोद में अंड़से हुए हैं। कभी उन्हेंगुलिस्ता
की कहानियां सुना रही है कभी तिलस्मे होशरुबा की सेर करा रही हैं। कभी रामायण सुना
रही है और कभी महाभारत के वीरों की कथाएं याद करवा रही है।
अपने बलभद्र का
भी जी चाहता कि कोई उसे भी इसी तरह प्यार से कहानियाँ सुनाए। परंतु उसके चारों ओर
तो गहरा सन्नाटा था। जब भी वह किसी चीज के लिए जिद करता, डांट दिया जाता कि कैसा निर्लज्ज बच्चा हैकि बड़े भाई का
दाज करता है”।(3)इस उपेक्षा का टोपी पर इतना गंभीर प्रभाव पड़ा
कि उसका संपूर्ण जीवन कुंठा, क्रोध व सन्नाटे
में बीता।राही आगे लिखते हैं,“नतीजा यह हुआ कि
टोपी को शेख शादी अमीर हमजा की कथा रामायण, महाभारत और बड़ों से नफरत हो गई। वह इन सबको मुन्नी बाबू की
पार्टी का समझने लगा।और एक दिन तो उसने गजब ही कर दिया। दादी से बोला,“दादीजी, आप उस काले कलूटे कृष्न को पूजती है ना, तोएक नएक दिन आप की पूजा जरूर काली हो जाएगी।”(4)
टोपी का विद्रोही
होना इस बात का सूचक माना जा सकता है कि अनुचित वातावरण के कारण बालक अपने मन में
नकारात्मकता भर लेता है। ऐसे वातावरण में पला टोपी संपूर्ण उपन्यास में विद्रोह
करता हुआ देखा जा सकता है।मानव व्यवहार की
तरह भाषा को भी अपने परिवेश की उपज माना जाता है।व्यक्ति उस भाषा में अपनी
अभिव्यक्ति सहज रूप से कर सकता है जो अपने
आसपास के माहौल द्वारा उसने सीखी है।अपनी भाषा के प्रति लगाव को आलोच्य उपन्यास के
दूसरे प्रमुख पात्र इफ्फन की दादी के उदाहरण द्वारा स्पष्ट करने करते हुए उपन्यासकार
लिखता है, “9 या 10 बरस की थी जब ब्याह कर लखनऊ आई, परंतु जब तक जिंदा रही पूर्वी बोली बोलती रही।
लखनऊ की उर्दू ससुराल की थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाये रही क्योंकि इस
भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझता।”(5)भाषा के प्रति यह लगाव स्वाभाविक है, पर कई अवसरवादी लोग अपने स्वार्थ को ध्यान में
रखकर कुछ ऐसा करते हैं कि समाज में भाषाई नफरत बढ़ती रहे और वह अपने हित साधते
रहे।
भाषा को धर्म और
लिपि की नजर से देखना संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है।इस संदर्भ में राही एक जगह
लिखते हैं, “मैं तो ग़ालिब की
तरह हिंदी का शायर और प्रेमचंद की तरह हिंदी का कथाकार हूं। उर्दू केवल एक लिपि
है। और लिपि साहित्य का आधार नहीं होती। लिपि केवल वस्त्र है। भाषा भी मनुष्य की
ही तरह कपड़े पहन कर पैदा नहीं होती है। चोचलों में मां बच्चों को फ्राक पहना दे
तो बच्चे जात से अंग्रेज नहीं हो जाते है। पर यदि आप यह नहीं मानते और लिपि ही को
सब कुछ मानते हैं तो मलिक मोहम्मद जायसी को उर्दू का शायर मानिए, क्योंकि पद्मावत फारसी लिपि में लिखी गई।
कुतुबन, ताज और उस्मान से भी हाथ
धो लीजिए कि यह लोग भी देवनागरी में नहीं लिखते थे । आत्महत्या के कई आसान तरीके
भी हैं, तो हम गले में किसी लिपि
का पत्थर बांधकर डूबने क्यों जाएं?”(6) राही के इन विचारों से लगता है कि वह उन दोमुंहे विद्वानों को आईना दिखा रहे
हैं जो भाषा को धर्म और लिपि से जोड़कर देखते हैं। यह विवाद भारतीय परिवेश में
हिंदी और उर्दू को लेकर ज्यादा है। भारतीय समाज में नफरत के बीज भाषाई मतभेद पैदा
कर के शुरू करने का प्रयास किया गया। भाषाई विवाद से पैदा हुआ सांप्रदायिकता का
ज़हर हमारे घरों में भी व्यापक रूप से खेला गया।उपन्यास में इसका उदाहरण उस समय
सामने आता है जब टोपी इफ्फन के घर से लौटकर खाने की टेबल पर खाना मांगते वक्त अपनी
माँ को माँन पुकारकर‘अम्मी’ पुकारता हैं, उस समय खाने की टेबल पर जो हालात पैदा होते हैं, उसे लेखक कुछ इस तरह साझा करता है,
“अम्मी!
मेज पर जितने हाथ
थे रूक गए। जितनी आंखें थी, वह टोपी के चेहरे
पर जम गई। यह मलेच्छ शब्द इस घर में कैसे आया? अम्मी! परंपराओं
की दीवार डोलने लगी। अम्मी!
धर्म संकट में
पड़ गया।
‘यह लफ्ज़ तुमने
कहा सिखा?’ सुभद्रा देवी ने सवाल
किया।(7)
यहां ध्यान देने
योग्य बात यह है कि टोपी ‘माँ’ के समानार्थी शब्द‘ अम्मी ’का प्रयोग कर
विधर्मी कैसे हो जाता है? जबकि उनकी दादी
सुभद्रा देवी भी तो ‘लफ्ज़’ शब्द का प्रयोग कर रही है। ऐसी विसंगतियों एवं
पुर्वाग्रहों का यह परिणाम हुआ कि भारतीय समाज अपने भाषाई कट्टर पन से सामाजिक
कट्टरपंन की ओर बढ़ा। भाषा किसी खास धर्म की जागीर नहीं होती है, पर फिर भी उर्दू को मुसलमानों व हिंदी को
हिंदुओं की भाषा समझा जाने लगा। इन पुर्वाग्रहों ने देश को विभाजन केच रम बिंदु तक
पहुंचाया। राष्ट्रकी भाषा केविषय पर कथा सम्राट प्रेमचंद कई दृष्टिकोणों से सोच
रहे थे। मुंबई के राष्ट्रभाषा सम्मेलन में स्वागताध्यक्ष की हैसियत से 27 अक्टूबर, 1934 को वे कहते हैं, “हमें इबारत की चुस्ती पर नहीं, अपनी भाषा को
सलीस बनाने पर खासतौर से ध्यान रखना होगा। इस वक्त ऐसी भाषा कानों और आंखों को
खटकेगी जरूर, कहीं गंगा-मदार
का जोड़ा नजर आएगा, कहीं एक उर्दू
शब्द हिंदी के बीच में इस तरह डटा हुआ मालूम होगा जैसे कौओं के बीच में हंस आ गया
हो। कहीं उर्दू के बीच में हिंदी शब्द हलवे में नमक के डले की तरह मजा बिगाड़
देंगे। पंडित जी खिलखिलायेंगे और मौलवी साहब भी नाक सिकोड़ेंगे और चारों तरफ से
हंगामा मचेगा कि हमारी भाषा का गला रेताजा रहा है, कुंद छुरी से उसे ज़िबह किया जा रहा है। उर्दू को मिटाने के
लिए यह साजिश की गई है, हिंदी को डुबाने
के लिए यह माया रची गई है! लेकिन हमें इन बातों को कलेजा मजबूत करके सहना पड़ेगा।”(8)
किसी भी देश के लिए एक सर्व स्वीकार्य भाषा के
संदर्भ में खुले मनकी आवश्यकता महसूस की जाती हैं,प्रेमचंद केयह वाक्य इसके प्रमाण के रूप में माने जा सकते
हैं। पर आज़ादी मिलने के बाद इस विचार को हमारे अधिकांश राजनीतिज्ञों ने अस्वीकार
करआज़ादी से पूर्व के पूर्वाग्रहों को महत्वदिया।परिणाम-स्वरूप देश भर में भाषा को
लेकर अराजक स्थिति पैदा हो गई।एक भाषा को दूसरी भाषा का दुश्मन समझा जाने लगा।इस
भाषा संघर्ष में हिंदी की जुड़वा बहन उर्दू को कुछ ज्यादा उपेक्षा का शिकार होना
पड़ा। राही इस बढ़ती हुई खाई को पाटने का लगातार प्रयास कर रहे थे। उनका मानना था
कि हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का संयुक्त अध्ययन बहुत आवश्यक है, क्योंकि इसमें हमारी साझा विरासत, इतिहास और साहित्य मौजूद है। इन्हें अलग-अलग
पढ़ाना देश की तहजीब की आधी जानकारी देना होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में
अपनी सीमित अध्यापन अवधि के दरमियान राही ने इस हेतु विश्वविद्यालय में संयुक्त
रूप से उर्दू विषयके साथ में हिंदी अध्यापन की प्रक्रिया भी प्रारंभ करवाई। मगर
कुछ दकियानूसी अधिकारियों द्वारा उन्हें सहयोग नहीं मिल पाया, बल्कि उन्होंने रोड़े डाले और राही के प्रयासको
असफलकर दिया।प्रेमचंद और राही के विचारों की असफलता का परिणाम यह हुआ कि जहां टोपी,
इफ्फन औ रसकीना जैसे वैचारिक रूप से परिपक्व
व्यक्ति अंतर्द्वंद्व में फंस गए,वहीं आने वाली नई
पीढ़ी अपने साझा संस्कृति के इतिहास से महरूम हो गई।
भाषाई
कट्टरपननेआमनागरिकों को अपनी गिरफ्त में लेने के साथ-साथ समाज केबुद्धिजीवी वर्ग
को भी अपने लपेटे में ले लिया। प्रस्तुत उपन्यासमेंहिंदी के बढ़ते महत्त्व एवं
उर्दू के साथ होतेउपेक्षा पूर्ण व्यवहारके कारण उर्दू के छात्रों में जहाँ लगातार
कमी देखने को मिल रही थी, वहीं हिंदी की
कक्षा में छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इस बदलाव के कारण स्कूल में पढ़ाने
वाले उर्दू के मौलवी साहब को जानबूझकर हिंदी विरोधी हो जाना पड़ा, राही लिखते हैं,“वह उन पंडित जी से जलने लगे जिन्होंने उनका खजाना हत्या
लिया था। इसीलिए वह हिंदी की बुराई करने लगे।
‘लाहौल बिला
कूव्वत। क्या लग्ज़ जबान है। दो लफ्ज़ बोलो तो जबान बेचारी हाफने लगती है।’
जब पंडित जी तक
यह बात पहुंची तो उन्हें बुरा लगा। वह अच्छी उर्दू फ़ारसी जानते थे। मगर मौलवी
साहब की जिद में उन्होंने उर्दू बोलना छोड़ दिया। हिंदी बोलने में उन्हें कठिनाई
होती। परंतु वह हिंदी ही बोलने लगे। उर्दू फ़ारसी के जो शब्द उनकी जबान पर चढ़े
हुए थे, उन्हें कोशिश करके उन्होंने भुला दिया।”(9)यह उदाहरण जहाँ एक ओर अनचाहे रूप से एक भाषा के
प्रति नफरत के कारणों को दृष्टिगतकरता है, वहीं इस ओर भी इशारा करता है कि भाषा का गहन संबंध रोजगार से भी हैं। राहीभाषा
और रोजगार के द्वंद्व में फँसेइफ्फन की मानसिक उधेड़बुनको साझा करते हुए आगे लिखते
हैं,“मैं ही हिंदी हूं। मैंही
उर्दू हूं। तो क्या मैं अपने आप से भी डरने लगा हूं? मेरा एक रूपएक लिपि नहीं जानता है। इसीलिए वह दूसरी लिपि से
डरता है। भाषा की लड़ाई दरअसल नफे-नुकसान की लड़ाई है। सवाल भाषा का नहीं है। सवाल
है नौकरी का!
नौकरी!
यह शब्द भी
कहाँ-कहाँ मिल जाता है। जो एक लिपि जानता वह महफूज है। जो एक लिपि नहीं जानता वह
डरा हुआ है। मेरे दोनों रूप भाषा जानते हैं, परंतुरोशनाईकी लकीर ने हमें बाट रखा है।”(10)
स्वतंत्रता
संग्राम कोबिखेरने के लिए ब्रिटिश सरकार नेभारतीय समाज को धर्म के आधार पर बांटकर
उसकी शक्ति को समय-समय पर क्षीण करने का प्रयास किया। आंदोलन के दौरान कुछ ऐसी
ताकते उभर रही थी जो अंग्रेजों की पिछलग्गु होने के साथ-साथ सांप्रदायिकता का जहर
भी फैला रही थी जिसका प्रतिफल हमें देश-विभाजन के रूप में मिला।कुछ बुद्धिजीवियों
कामानना था कि बँटवारे के बाद शायद सांप्रदायिकता का जहर भारतीय समाज में नहीं
रहेगा। पर वे गलत साबित हुए। इस जहर नेअभी तकआज़ादभारत कोआज़ादनहीं किया।
पाकिस्तान रूपी
एक बड़ाविकल्प होने के बावजूद मुसलमानों का एक बडा वर्ग अपना घर, खेत-खलियान,संगी-साथियों और वतनआदिकोछोड़कर जाना नामंजूर किया। दोनों
धर्मों के लोगों ने सब कुछ भुला कर वापस साझा संस्कृति को बनाने का कार्य प्रारंभ
किया, मगर ये लोग भी असफल रहे।
क्योंकि शंका और भय नामक रोग ने दिल की खाई कोऔरभी गहरी शुरू करना कर दिया।
प्रस्तुत उपन्यासमें इस रोग का जिक्र कई बार आता है।टोपी, इफ्फन व सकीना के संवादों में यह पीड़ा प्रमुख रूपसे उभरीहै।
इन दो शब्दों को डाकू की संज्ञा देते हुए इफ्फन कहता है,“पाकिस्तान एक बेनाम डर का नाम है। और हर मुसलमान डरा हुआ
है। यह डर क्या है बल भद्र? और यह डर क्यों
है? तुम मुझ पर शक क्यों करते
हो? और मैं तुमसे खौफ क्यों
खाता हूं? .....
....... इतने बड़े मुल्क
को इन दो लफ्जों ने डाकू की तरह पकड़ रखा है। और यह दोनों डाकू रेनशम मांग रहे
हैं।”(11)आज़ादभारत में अल्पसंख्यक
समाज को भेदभाव का सामना करना पड़ा है, यह एक तथ्य है। रोजगार के साधन, खानपान, पहनावे, सार्वजनिक स्थल आदि जगह पर उनके साथ भेदभाव
पूर्णव्यवहारहुआ है।विशेषकर मुस्लिमवर्ग के प्रति विभाजन के पश्चात्पैदा हुआ शक
भारतीय समाजमेंकिस स्तर तक पहुंच गया है, इसे स्पष्ट करने के लिए मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहासुमित सरकार की मॉडर्न
इंडिया एवं शेखर बंदोपाध्याय कीफ्रॉम पलासी टू पार्टीशननामक पुस्तकों का हवाला
देते हुए लिखते हैं,“भारतीय मुसलमानों
का असुरक्षा का भावसन 1950 में एक अमेरिकी
वैज्ञानिक द्वारा किए गए सर्वेक्षण में साफ तौर पर व्यक्त हुआ। उसने जिन जिन
मुसलमानों से बात की वह उत्तर और पश्चिम भारत के शहरों के बाशिंदे थे और शक और भय
के वातावरण में जी रहे थे।एक ने कहा कि ‘हमें पाकिस्तानी जासूस के तौर पर देखा जा रहा है।’दूसरे ने कहा कि ‘हिंदू इलाके में रहना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि वह हमारी बहू बेटियों का
अपहरण और बलात्कार कर सकते हैं।’ एक तीसरे ने कहा
कि ‘हिंदू समुदाय के लोग
मुसलमानों को जब कोई सामान बेचते हैं तो वेभारी कालाबाजारी कीमत वसूलते हैं।”(12)ऐसेशंका, भय और दुर्व्यवहारका यह दुष्परिणाम हुआ कि देश की दूसरी
बड़ी आबादी कहे जाने वाली मुस्लिम जनता धीरे धीरे सामाजिक, आर्थिकव प्रशासनिक क्षेत्रों में पिछड़ती गई।इस समाज की
दुर्दशा केकारणों की पड़ताल करने के लिए बनीसच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस बात की
तस्दीककरती है।सच्चर कमेटी यह भी स्पष्ट करती है किआज भी देश मेंमुस्लिम समाज से
कुछ ‘स्वघोषित राष्ट्रभक्त’समय-समय परराष्ट्रभक्ति काप्रमाण पत्र मांगते
हैं जिससे लोगों के मन में डर के साथ-साथ क्रोध भी बढ़ता जाता है। अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा दुर्व्यवहारदेश की
एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है।
भारतीय समाज अपनी
विविधता के लिए प्रसिद्ध है। कई समाज कई जगहकहीं वे अल्पसंख्यक हैं तो कहीं बहू
संख्यक। जहाँ पर जो वर्ग मजबूत स्थिति में होता है, वह दूसरे कमजोर वर्ग को दबाने का प्रयास करता है। इसका
अच्छा उदाहरण हमें टोपी के साथ हुई घटनाओंमें मिलता है।टोपीने अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय से पी-एच. डी.की डिग्री हासिल की है। जब वह बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय में नौकरी के लिए जाता है तो उसे मना कर दिया जाता है,इसके पीछे यह धारणा मानी गई है कि जो मुस्लिम
यूनिवर्सिटी से पढ़ने वाला युवकसामाजिक मूल्यों के प्रति वफादार नहीं होगा।
वहींअलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उसे हिंदू होने के कारण नौकरी नहीं मिलती है।
यहां गौर करने की बात यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयमें जहाँ उसे धार्मिक
रूपसे अल्पसंख्यक वर्ग की पीड़ा झेलनी पड़ रही है, वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वैचारिकरूप से
अल्पसंख्यक होने की पीड़ा।ऐसे माहौल में खुले विचारवालों के लिए परिस्थितियाँ और
भी ज्यादा घातक बन जाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो व्यक्ति जहां बहुसंख्यक
होता है, वहां अल्पसंख्यकों पर
दबाव बनाता है। इसके खतरों से एक भारतीय राजनीतिक पार्टी को सचेत करते हुए तस्लीम
नसरीन लिखती हैं,“भारत कोई
विच्छिन्नजंबू द्वीप नहीं है। भारत में यदि विषकाफोड़ा जन्म लेता है तो उसका दर्द
सिर्फ भारत कोही नहीं भोगना पड़ेगा,
बल्किवह दर्द समुचीदुनिया में कम से कम पड़ोसी
देशो में तो सबसे पहले फैल जाएगा।”(13)तस्लीमा के यह वाक्य उस संकीर्णता की ओर इशारा है जहां हर वर्ग कहीं न कहीं
अल्पसंख्यक बन ही जाता है।इस कथनमें उस विचारधारा
को आगाह करने के संकेतभी समझ सकते हैं जोक्रिया की प्रतिक्रिया कहकर मानव
रक्त से खेलीजाने वाली होली को जायज ठहराते हैं।
मोहम्मद हुसैन डायर
शोधार्थी, हिंदी विभाग
मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय उदयपुर
सम्पर्क dayerkgn@gmail.com
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संदर्भ ग्रंथ सूची
1. राही मासूम रज़ा,टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,तीसरी आवृत्ति, 2014, पृ. 5
2. जुबेर रिजवी, जनता की खुशहाली से ही घरों में जनतंत्र होगा,परिवार में जनतंत्र(सं.रमेश उपाध्यायएवं संज्ञा
उपाध्याय),शब्द संधान प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2004
3. राही मासूम रज़ा,टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,तीसरी आवृत्ति, 2014, पृ. 17-18
4. वही, पृ. 18
5. वही, पृ. 25
6. राही मासूम रज़ा,लगता है बेकार गए हम,कुंवरपाल सिंह (संपा.),वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2013,
पृ.1
7. राही मासूम रज़ा,टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,तीसरी आवृत्ति, 2014, पृ. 27
8. प्रेमचंद,कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार,प्रेमचंद प्रतिनिधि संकलन(सं.खगेंद्र ठाकुर),नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली,
2002, तीसरी आवृत्ति,
2013पृ.115
9. राही मासूम रज़ा,टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,तीसरी आवृत्ति, 2014, पृ. 39-40
10. वही, 111
11. वही, 111
12. रामचंद्र गुहा,भारत गांधी के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, नई दिल्ली,2011,
पृ.453
13. तसलीमा नसरीन, लज्जा(बांग्लासेअनुवाद: मुनमुन सरकार), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2011,पृ.7
14. रामधारी सिंह दिनकर,संस्कृति के चार अध्याय,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,दूसरा पेपर बैग
संस्करण, 2017,पृ.10
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