उदय प्रकाश की कहानियों में उपभोक्तावादी संस्कृति
हिंदी कथा
साहित्य में उदय प्रकाश एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से
समाज की पूरी तस्वीर खींच ली है। आधुनिकता, भूमंडलीकरण, विकास की तमाम
अवधारणाओं ने हमारे समाज एवं देश में उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया है।
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नाम पर पूंजीवाद ने जिस तरह से ओछी पाश्चात्य संस्कृति
और उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज में फैलाया है, उससे न सिर्फ व्यक्ति प्रभावित हुआ है बल्कि व्यक्ति के साथ
भारतीय परिवार, समाज, हमारी सभ्यता एवं संस्कृति भी पूरी तरह
प्रभावित हुई है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति
को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया है। उदय प्रकाश की अधिकांश कहानियां उपभोक्तावादी
संस्कृति के साइड इफेक्ट से प्रभावित हैं। ‘तिरिछ', ‘और अंत में
प्रार्थना', ‘पॉल गोमरा का
स्कूटर', ‘पीली छतरी वाली लड़की',
‘दत्तात्रेय के दुख', ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़' आदि ऐसी अनेक कहानियां हैं जिनमें उदय प्रकाश ने
उपभोक्तावादी संस्कृति और इस उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणाम पर विस्तार से
प्रकाश डाला है। और इस तरह से उपभोक्तावादी संस्कृति और उसके दुष्परिणामों पर
लिखने वाले बहुत कम लेखकों में उदय प्रकाश एक हैं।
प्रसिद्ध लेखक
ज्योतिष जोशी इस संदर्भ में लिखते हैं -- "भूमंडलीकरण से उपजी उपभोक्तावादी
संस्कृति और बाजारवाद के साथ उत्तर आधुनिकता को लेकर बहस करने वाले वे हिंदी के
कुछ ही बौद्धिकों में शामिल हैं।''1
उदय प्रकाश ने
अपनी कहानियों में पूंजीवाद, उदारवाद, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति का जिस तरह से चित्रण किया है वैसा
चित्रण अन्य कथाकारों की रचनाओं में देखने को बहुत कम मिलता है। पूंजीवाद के
देवताओं ने विलास के नाम पर ओछी पाश्चात्य संस्कृति को हमारे देश में फैलाया है और
इसी ओछी पाश्चात्य संस्कृति ने हमें उपभोक्तावादी गुलाम बना दिया है। इस उत्तर
आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे अंदर की चेतना को पूरी तरह से हाइजैक कर लिया
है। जिसके कारण आज हमारी मौलिक संस्कृति और परंपरा इतिहास के पन्नों में सिमटती जा
रही है। पूरा का पूरा देश पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगता जा रहा है।
उदय प्रकाश की
कहानियों में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव और इस संस्कृति का युवाओं पर पड़ रहे
प्रभाव को बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने
पूरे देश को अपने कब्जे में ले लिया है, कोई इससे अछूता नहीं है। विशेषकर मध्यवर्ग इस बाजार की चपेट में आ चुका था।
उदय प्रकाश ने इसी बाजार की महिमा का वर्णन ‘पॉल गोमरा का स्कूटर' कहानी में किया है -- "बाजार अब सभी चीजों का विकल्प
बन चुका था। शहर, गांव, कस्बे बड़ी तेजी से बाजार में बदल रहे थे,
हर घर दुकान में तब्दील हो रहा था। बाप अपने
बेटे को इसलिए घर से निकालकर भगा रहा था कि वह बाजार में कहीं फिट नहीं बैठ रहा
था। पत्नियां अपने पतियों को छोड़-छोड़कर भाग रही थीं क्योंकि बाजार में उनके पतियों
की कोई खास मांग नहीं थी। औरत बिकाऊ और मर्द कमाऊ का महान चकाचक युग आ गया था।''2
औरत बिकाऊ और
मर्द कमाऊ के युग में इंसानियत, मानवता और प्रेम
का कोई महत्व नहीं रह गया था। ऐसी उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास हो रहा था
जिसमें पैसा ही सबकुछ था। इसी पैसे के लिए सारा ताम-झाम लगाया जा रहा था और इसी
पैसे के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार होने लगे थे।
हमारे देश का
मध्यवर्ग इस बाजार से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। वह आधुनिकता की ओर बढ़ने वाला ऐसा
वर्ग है जिसके बारे में पूंजीवादी ताकतें अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। यही कारण है कि
उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे अधिक प्रभाव इसी वर्ग पर पड़ता है और यह वर्ग किस
तरह से बदलता जाता है, इसे उदय प्रकाश
अच्छी तरह समझते हैं। यही कारण है कि वे कहते हैं -- "अभी आठ महीने पहले
किशनगंज के जनता फ्लैट में रहने वाले सर गंगाराम हॉस्पिटल के सफाई कर्मचारी राम
औतार आर्य की सत्रह साल की बेटी सुनीला रातों-रात मालामाल हो गई थी क्योंकि किसी
टी.वी. के विज्ञापन में वह आठ फुट बाई चार फुट साइज के विशाल ब्लेड के मॉडल पर
नंगी सो गई थी। सुनीला को अपने चेहरे पर उस ब्रांड के ब्लेड से होने वाली शेविंग
से उपजने वाले, चिड़ियों के पर के
स्पर्श जैसे सुख और आनंदातिरेक को दस सेकेंड के भीतर-भीतर व्यक्त करना था। यह काम
अपने चेहरे को क्लोज शॉट में उसने इतनी निमग्न कुशलता और स्वप्नातीत भावप्रवणता के
साथ किया था कि देश के एक सबसे बड़े चित्रकार ने एक अंग्रेजी अख़बार में वक्तव्य
दिया था कि वे एक हफ्ते में उस विज्ञापन को डेढ़ सौ बार देख चुके हैं और अब आने
वाले दो वर्षों तक वे लगातार सुनीला के न्यूड्स ही बनाएंगे।''3 वहीं वे आगे कहते हैं -- "बिहार के छपरा
जिले के प्राइमरी स्कूल की टीचरी का काम छोड़कर अपने उचक्के प्रेमी के साथ दिल्ली
भाग आने वाली आशा मिश्रा नाम की लड़की कंटेसा क्लासिक में चल रही थी। उसने किसी
विज्ञापन में एक बलिष्ठ काले रंग के अरबी घाड़े की खुरदरी पीठ पर बैठकर अपने
पारदर्शक जांघिए के भीतर से ‘द ब्लैक हार्स'
नामक बियर की बोतल निकालकर छातियों में उड़ेल ली
थी और घोड़े की पीठ पर बैठी-बैठी वह खुद बियर की झाग में बदल गई थी। काले घोड़े की
खुरदरी पीठ पर सिर्फ आशा मिश्रा का फेन बचा था, जो धीरे-धीरे उस बियर की ब्रांड में बदल रहा था।''4
यह उपभोक्तावादी
संस्कृति के जादू का परिणाम है जिसके कारण इस विज्ञापन की
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर चर्चा हुई थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए
तो विज्ञापन ही लोगों की सोच को संचालित कर रहा था और इसी के कारण पूरे देश में
बदलाव हो रहे थे। विज्ञापन ने उपभोक्तावादी संस्कृति का एक ऐसा वातावरण तैयार किया
है जिससे कोई अछूता नहीं है। डॉ. निरंजन देव शर्मा उदय प्रकाश की कहानियों के बारे
में कहते हैं -- "उदय प्रकाश की कहानियां अपने समय के इतिहास के आईने में देखती
हैं। आज़ादी के बाद जहां हम खड़े हैं वहां स्वतंत्रता जैसे शब्द कितने प्रासंगिक
हैं। देश की आजादी का कितना हिस्सा स्वतंत्रता को भोग रहा है। ‘पॉल गोमरा का स्कूटर' कहानी भी कुछ असुविधाजनक सवाल हमारे सामने रखती है। मानव
सभ्यता की कोमल भावनाओं, इंसानियत और
मूल्यों को बचाए रखने की तीव्र उत्कंठा उदय प्रकाश की कहानियेां में नजर आती है।
लेकिन उपभोक्तावाद के चरम पर पहुंच चुके उन्मादी समय में क्या यह मूल्य बचे रह
पाएंगे। यह सवाल भी बार-बार उठाती है।''5
भूमंडलीकरण,
वैश्वीकरण तथा नव-उदारवाद ने पूरी दुनिया को
बदल दिया था। विकसित देश तो देश, तीसरी दुनिया के
देशों में उपभोक्तावादी संस्कृति की हवा तेजी से बह रही थी। ऐसे में हिंदुस्तान
भला कैसे अपवाद रहता। देश में घटने वाली सारी घटनाओं का प्रभाव दिल्ली के
गाजियाबाद के कवि पॉल गोमरा के ऊपर पड़ रहा था। इसलिए वह ‘रामगोपाल' से ‘पॉल गोमरा' बना और इसी उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण या यूं कहें कि
राज्य परिवहन की बस की भीड़-भाड़ से बचने के लिए, समय की बर्बादी से बचने के लिए स्कूटर लेने का निर्णय लिया।
प्रो. जयमोहन इस संदर्भ में कहते हैं -- "पॉल गोमरा का स्कूटर भूमंडलीकरण
उपभोक्ता संस्कार का आम आदमी पर संघात, उसके टूटे अपनत्व और विचित्र मनोविकारों का कथात्मक आख्यान है। दिल्ली के एक
छोटे निकम्मे कवि रामगोपाल ने उत्तर आधुनिक बाजारवादी संस्कृति के लालच में पड़कर
उपभोक्तावादी संस्कृति की बाजीगरी में फँसकर अपने आप को बदलने का प्रयत्न किया।
अपने नाम का बिखंडन करके, खंडों को
आगे-पीछे पलटकर उत्तर आधुनिक नाम स्वीकार किया ‘पॉल गोमरा'।''6
उपभोक्तावादी
संस्कृति और मध्यवर्ग का खास रिश्ता रहा है। जितने भी विकासशील संस्कृति हैं,
आधुनिकता के मशीन हैं वे सभी के सभी मध्यवर्ग
को कब्जे में करने के लिए ही बने हैं। बल्कि यूं कहा जाए कि मध्यवर्ग पूंजीवाद के
लॉलीपॉप को देखकर ज्यादा उत्सुक हो जाता है, उसके मुँह में पानी आ जाता है, भले ही यह लॉलीपॉप स्वास्थ्य के लिए बुरा हो। उदय प्रकाश ने
‘दत्तात्रेय के दुख'
कहानी में इसी उपभोक्तावादी लॉलीपॉप का जिक्र
करते हुए कहा है -- "दिवाली की रात थी। बच्चों ने कुत्ते की पूंछ में पटाखे
की लड़ी बांध दी और बत्ती को तिली दिखा दी थी। पटाखे धड़ा-धड़ फूट रहे थे और कुत्ता
बदहवास, होशोहवास खोकर चीखता,
भौंकता, रोता, गिरता-पड़ता भाग
रहा था। कुत्ता जब विनायक दत्तात्रेय के पास से गुजरा तो उन्होंने कुत्ते के सामने
हड्डी के टुकड़े फेंक दिए। एक तरफ लालच में कुत्ता हड्डी चबा रहा था, दूसरी तरफ पूंछ में बंधे पटाखे के लगातार फूटने
की वजह से चीख-पुकार भी मचा रहा था। एक तरफ कुत्ते के मुंह से लार बह रही थी,
दूसरी तरफ उसके गले से चीख निकल रही थी। एक
अद्भुत ट्रैजिक-कॉमिक दृश्य था। विनायक दत्तात्रेय हँसे। लोगों ने पूछा -- आप
क्यों हँस रहे हैं? तो उन्होंने जवाब
दिया -- देखो इस कुत्ते को। यह बिल्कुल तीसरी दुनिया का उपभोक्तावादी मनुष्य लग
रहा है। उत्तर-आधुनिक उपभोक्तावाद का दुर्दांत दृष्टांत।''7
उपभोक्तावादी संस्कृति
का जितना प्रभाव मध्यवर्ग के ऊपर पड़ा है, उतना शायद किसी अन्य वर्ग के ऊपर नहीं पड़ा। उत्तर-आधुनिकतावाद ने मध्यवर्ग को
एक ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से वह न तो आगे जा सकता है और न ही पीछे
की ओर लौट सकता है। उसकी स्थिति उस कुत्ते के जैसी है जिसके मुँह में एक तरफ लालच
की हड्डी है तो दूसरी तरफ उसकी पूंछ में ट्रेजेडी रूपी जलते हुए पटाखे बंधे हैं
जिनसे वे बच भी नहीं सकते। आज पूंजीवाद ने अपने स्वार्थ हेतु मध्य-वर्ग के सामने
एक ऐसा लॉलीपॉप रख दिया है जिसकी लालच में वे उसी तरह फँसे जा रहे हैं जैसे कि छोटे
बच्चे लॉलीपॉप को देखकर उसे हासिल करने अथवा खाने की जिद करते हैं। परंतु विडंबना
यह है कि मध्यवर्ग के सामने जो लॉलीपॉप रखा जा रहा है वह और कुछ नहीं बस एक छलावा
है, एक चक्रव्यूह है जिसमें
वे लगातार फँसते जाते हैं, लाख कोशिश करने
के बाद भी निकल नहीं पाते। विनायक दत्तात्रेय इस तीसरी दुनिया के मध्यवर्ग की
स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं।
उत्तर आधुनिक और
पूंजीवादी संस्कृति मनुष्य के दिमाग पर हमला करती है खास कर मध्यवर्गीय लोगों के
दिमाग पर। उनकी सोचने-समझने की शक्ति क्षीण कर देती है और ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा
कर देती है कि वह पूरी तरह से अकेला हो जाता है। उनका साथ कोई नहीं देता। ऐसी दुख
की घड़ी में वह अगर दिल्ली वासी हो तो फिर क्या कहना? इतिहास गवाह है कि दिल्ली कभी किसी की तन्हाई की साथी नहीं
रही। दिल्ली तो ऐसी बेवफा है जो दु:ख की घड़ी में घिरे इंसान को लात मारने में देर
नहीं करती। दिल्ली दिलवालों की है, यह अवधारणा पूरी
तरह से गलत है बल्कि दिल्ली तो पैसे वालों की है धन-संपत्ति और सत्ता के ठेकेदारों
की है। इसलिए जो व्यक्ति दुर्दिनों की चपेट में आता है दिल्ली उसे बाहर का रास्ता
दिखा देती है। ऐसी स्थिति में उसका अकेलापन ही उसका साथी बन जाता है -- "जो
भी दुर्दिनों में घिरता है, दिल्ली उसे त्याग
देती है। विनायक दत्तात्रेय भी दुर्दिनों में थे। दिल्ली ने उन्हें त्याग दिया था।
न उनके पास कोई आता था, न कोई उनका हाल
पूछता था। टेलीफोन कभी बजता नहीं था। वे अकेले रह गए थे। अकेलापन और दुर्दिन के
दिन बिताने का तरीका विनायक दत्तात्रेय ने खोज निकाला था। वे अपने कमरे के एक कोने
में जाकर खड़े हो जाते थे और पुकारकर पूछते -- "विनायक कैसे हो? फिर दूसरे कोने पर खड़े होकर मुस्कराते हुए कहते
-- मैं ठीक हूँ विनायक। अपनी सुनाओ। कभी-कभार आ जाया करो यार।''8
उत्तर
आधुनिकतावाद, पूंजीवाद,
उदारीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य
से मनुष्य को दूर कर दिया है। लोग
रोजमर्रा की जिंदगी में इस कदर व्यस्त हो गए हैं कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से
मिलने के लिए वक्त ही नहीं है। किसी के पास वक्त तभी होता है जब उनको किसी से कोई
काम हो -- "दिल्ली में ऐसे लोगों की संख्या इधर बहुत बढ़ गई थी, जो सिर्फ उसी से मिलते थे, जिनसे कोई काम होता था।''9
इन्हीं उत्तर
आधुनिकता, उपभोक्तावादी संस्कृति और
पूंजीवाद ने हमारे देश की मानवीय संवेदना को नष्ट किया। इन्हीं की वजह से हमारे
देश में दिन-प्रतिदिन सामाजिक-राजनीतिक अवमूल्यन, क्षेत्रियतावाद, जातिवाद, सांप्रदायिक
राष्ट्रवाद, बेरोजगारी आदि की
समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। उदय प्रकाश ने इन तमाम समस्याओं पर नजर डाली और उन
समस्याओं को अपनी कहानियों के माध्यम से आम जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया। ‘पीली छतरी वाली लड़की' एक ऐसी ही लंबी कहानी है जिसमें उन्होंने राहुल और अंजली की
प्रेम कहानी के माध्यम से तमाम समस्याओं को उभारने का प्रयास किया है।
उदय प्रकाश ने इस
कहानी के माध्यम से उपभोक्तावादी संस्कृति को पूरी शिद्दत से प्रस्तुत किया है। 21वीं सदी की दहलीज पर खड़ा भारत एक नए रूप में
दुनिया के सामने है। इस समय में देश की सभ्यता एवं संस्कृति लकवाग्रस्त हो चुकी है,
मानवीय मूल्य पूरी तरह से गायब हो चुके हैं।
अगर कुछ बचा है देश में तो वह है स्वार्थ, हिंसा, बेईमानी, लूट-खसोट आदि। और ये सारी चीजें लोगों की नस-नस
में रक्त बनकर बह रही है। दुनिया की तमाम ताकतें इन्हीं बुराइयों को प्रश्रय देने
में लगी हैं। पूंजीवादी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए पूरा का पूरा देश जी-जान से
लगा हुआ है -- "यही वह आदमी है -- खाऊ, तुंदियल, कामुक, लुच्चा, जालसाज और रईस जिसकी सेवा की खातिर इस व्यवस्था और सरकार का
निर्माण किया गया है, इसी आदमी के सुख
और भोग के लिए इतना बड़ा बाजार और इतनी सारी पुलिस और फौज है।''10
यह पूंजीवादी ओर
उपभोक्तावादी संस्कृति की ही देन है जिसमें किसी एक आदमी की खुशी और सेवा के लिए
पूरी आवाम तत्पर रहती है। उत्तर आधुनिक समाज की सबसे बड़ी विशेषता है पूंजीवाद और
इस पूंजीवादी व्यवस्था में मानव और उसके समाज का कोई महत्व नहीं रह जाता है। गरीब
किसान और मजदूर सिर्फ शोषण के लिए रह जाते हैं और मध्यवर्ग इस व्यवस्था को मजबूती
प्रदान करने वाला अंग बन जाता है -- "यही वह आदमी है जिसके लिए संसार भर की
औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं। तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर
उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलिसिस के जरिए रोयें उखाड़े जा रहे हैं
जैसे पिछले समय में गड़ेरिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे। राहुल को साफ दिखाई
देता है कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर
लड़कियां इन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी पार्लर्स में मेमनों
की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टांगे
छितरा कर बैठ जातीं। इन लड़कियों को टी.वी. ‘बोल्ड एवं ब्यूटीफूल' कहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद ‘रिच एवं फेमस' था।''11
‘पीली छतरी वाली
लड़की' कहानी में उदय प्रकाश ने
विश्वविद्यालय, छात्रावास और
शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से पूरे देश के सामाजिक-राजनीतिक अवमूल्यन और
भ्रष्टाचार की चरम स्थिति पर करारा प्रहार करते हुए पूंजीवादी शक्तियों को नंगा
करके रख दिया है जो नव उदारवाद का जामा पहनकर हमारे सामने उपस्थित है। कहानी की
शुरुआत में ही कहानीकार उदय प्रकाश ने इस पूंजीवादी तोते का वर्णन करते हुए कहा है
-- "वह आदमी बहुत ताकतवर था, उसको सारे संसार
की महान शैतानी प्रतिभाओं ने बहुत परिश्रम, हिकमत, पूंजी और तकनीक
के साथ गढ़ा था। उसको बनाने में नई टेकनालॉजी की अहम भूमिका थी, वह आदमी कितना शक्तिशाली था, इसका अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है
कि उसने पिछली कई शताब्दियों के इतिहास में रचे-बनाए गए दर्शनों, सिद्धांतों और विचारों को एक झटके में कचड़ा
बनाकर अपने आलीशान बंग्ले के पिछवाड़े के कूड़ेदान में डाल दिया था। ये वे सिद्धांत
थे जो आदमी की हवस को एक हद के बाद नियंत्रित करने, उस पर अंकुश लगाने या उसे मर्यादित करने का काम करते थे।''12
सन् 1990 के बाद से भारत में नव-उपनिवेशवाद का आगमन
हुआ। इस नव उपनिवेशवाद के आगमन से ही पूरी दुनिया के नक्शे में भारत की तस्वीर
पूरी तरह बदल गई और यह साफ तौर पर पूरी दुनिया को पता चल गया कि ‘इंडिया इज द बिगेस्ट मार्केट इन द वर्ल्ड।'
इसी मार्केट के ऊपर दुनिया के दलालों की निगाह
जम गई। आज की तारीख में भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है। इस बाजार में
सामाजिक-मानवीय मूल्यों की कोई कीमत नहीं है। आज का मानव अपने स्वार्थ को साधने के
लिए मनुष्य का सिर्फ इस्तेमाल करता है और प्रेम तथा दोस्ती को सीढ़ी बनाकर अपने
स्वार्थ की मंजिल पर पहुँचना चाहता है और उस मंजिल पर पहुँचने के बाद उसके मन से
मानवता और सामाजिकता पूरी तरह से गायब हो जाती है। आज के दौर में हर चीज सिमट गई
है, जिंदगी के मायने बदल गए
हैं और अब समाज की पूरी तस्वीर बदल गई है जिसे उदय प्रकाश ने बहुत ही सुंदर तरीके
से प्रस्तुत किया है -"इससे ज्यादा मत खाओ, इससे ज्यादा मत कमाओ, इससे ज्यादा हिंसा मत करो, इससे ज्यादा संभोग मत करो, इससे ज्यादा मत सोओ, इससे ज्यादा मत नाचो ...वे सारे सिद्धांत जो धर्मग्रंथों
में भी थे, समाज शास्त्र या विज्ञान
अथवा राजनीतिक पुस्तकों में भी उन्हें कुड़ेदान में डाल दिया था। इस आदमी ने बीसवीं
सदी के अंतिम दशकों में पूंजी, सत्ता और तकनीक
की समूची ताकत को अपनी मुट्ठियों में भरकर कहा था, स्वतंत्रता! चीखते हुए आज़ादी! अपनी सारी एषणाओं को जाग जाने
दो। अपनी सारी इंद्रियों को इस पृथ्वी पर खुल्ला चरने और विचरने दो। इस धरती पर जो
कुछ भी है, तुम्हारे द्वारा भोगे
जाने के लिए है, न कोई राष्ट्र है,
न कोई देश, समूचा भूमंडल तुम्हारा है, न कुछ नैतिक है, न कुछ अनैतिक, न कुछ पाप है,
न कुछ पुण्य, खाओ, पीयो और मौज करो।''13
उत्तर आधुनिक
परिवेश में समाज और देश की स्थिति पूरी तरह से बदल गई है। समाज और देश की स्थिति
दिनों-दिन बद से बदत्तर हो गई है। उदय प्रकाश समाज के हालात पर पैनी नजर रखे हुए
थे -- "उस ताकतवर भोगी लोंदे ने एक नया सिद्धांत दिया था जिसे भारत के
वित्तमंत्री ने मान लिया था और खुद उसकी नस में जाकर घुस गया था। वह सिद्धांत यह
था कि उस आदमी को खाने से मत रोको। खाते-खाते जैसे-जैसे उसका पेट भरने लगेगा,
वह जूठन अपनी प्लेट के बाहर गिराने लगेगा। उसे
करोड़ों भूखे लोग खा सकते हैं। कांटीनेंटल, पौष्टिक जूठन। उस आदमी को संभोग करने से मत रोको। वियाग्रा खा-खाकर वह संभोग
करते-करते लड़कियों को अपने बेड के नीचे गिराने लगेगा। तब करोड़ों वंचित देशी छड़े उन
लड़कियों को प्यार कर सकते हैं, उनसे अपना
घर-परिवार बसा सकते हैं। यही वह सिद्धांत था, जिसे उस आदमी ने दुनिया भर के सूचना संजाल के द्वारा चारों
ओर फैला दिया था और देखते-देखते मानव सभ्यता बदल गई थी। सारे टी.वी. चैनलों,
सारे कंप्यूटरों में यह सिद्धांत बज रहा था,
प्रसारित हो रहा था।''14
उस आदमी, और उस आदमी जैसे और भी तमाम लोग जो उनके
सिद्धांतों पर चलने वाले लोग थे, उनकी समाज में
तूती बोलती थी। आज की तारीख में बाजार का जाल जिस तरह से फैला है, उससे कोई भी अछूता नहीं है। दुनिया जिस तरह से
बदल रही थी, भूमंडलीकरण और
उदारीकरण के कारण जिस तरह से विश्व बाजार का कॉन्सेप्ट आया था और पूंजीवाद ने जिस
तरह से पूरी दुनिया को अपना सामान बेचने का मार्केट बना डाला था, ऐसी परिस्थिति में अगर युवावर्ग या फिर कोई
महत्वाकांक्षी व्यक्ति जल्द अमीर बन कर ऐश की जिंदगी व्यतीत करना चाहता हो तो कतई
बुरा नहीं। लेकिन यह आम आदमी के लिए बिल्कुल भी नहीं। इस प्रतिस्पर्धा के दौड़ में
वही लोग कामयाब हैं जो जिंदगी शॉर्टकट तरीके से जीना चाहते हैं, अच्छे, ईमानदार और मेहनती लोगों के लिए तो रोजी-रोटी हासिल करना भी एक चुनौती हो जाती
है -- "तो क्या ये जो भूमंडलीकरण हो रहा है, यह उन्हीं के लिए है जो विश्व बाजार के हिस्से हैं,
सटोरिये, व्यापारी, तस्कर, अपराधी या सरकारी मंत्री-अफसर अगर आज डॉ. कोटणीस
जैसे लोग चीन जाना चाहें या राहुल सांकृत्यायन जैसे लोग रूस और मध्य एशिया,
तो क्या यह संभव होगा?
‘नाट एट आल!'
कार्तिकेय ने जवाब दिया -- दिस इज द एंड ऑफ द
सिविल सोसायटी। अब कहीं कोई नागरिक समाज नहीं बचा, सिर्फ सरकारें हैं, कंपनियां हैं, संस्थाएं हैं,
माफिया और गिरोह हैं और अगर अब भी तुम किसी
लेखक, कवि या विद्वान को हवाई
जहाज में सवार होकर विदेश जाते देखते हो, तो जान लो, वह किसी कंपनी,
किसी व्यापारी, किसी संस्था या गिरोह का सदस्य या दलाल है।''15
इस परिवेश में
प्रेम और उत्सवों के मायने बदलकर उसे भी धन की तुला पर तुलने को रख दिया है। न्यू
ईयर पर कार्ड्स न भेंट किया तो कैसा मित्र और वैलेंटाइन डे पर महंगे गिफ्ट न दिया
तो कैसा प्रेमी? इस परिवेश ने
वास्तव में हमारे पारंपरिक मूल्यों की परिभाषा बदल दी है -- इसने वास्तव में उनकी
बखिया उधेड़कर रख दी है। यह उपभोक्तावादी संस्कृति है जिसमें मूल्यों के मायने
बदल जाते हैं। लोग अपना स्टेटस बनाए रखने के लिए सही और गलत में भेद तक नहीं करते।
यही कारण है कि उदय प्रकाश ने बाजार का विरोध किया है क्योंकि बाजार ने समाज को
पूरी तरह से तोड़ दिया है। किन्नु दा के माध्यम से उदय प्रकाश ने बाजार का भयंकर रूप
प्रस्तुत किया है -- "मैं बाजार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन मार्केट कोई ‘कलेक्टिव ड्रीम' नहीं है, यह कोई यूटोपिया
नहीं है, इसमें कोई स्वप्न नहीं
देखा जा सकता। इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जो उदात्त, विराट और नैतिक
हो, मुनाफा, नगदी, लाभ-घाटा ... इसके सारे इनग्रिडिएंट्स घटिया, क्षुद्र और छोटे हैं। यह लालच, ठगी, होड़, स्वार्थ और लूट-खसोट के मनोविज्ञान से परिचालित
होता है।''17
डॉ. अजीत कुमार दास
असिस्टेंट प्रोफेसर चित्तरंजन कॉलेज कोलकाता
सम्पर्क
9331002293
ajitkumarji83@gmail.com
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उदय प्रकाश ने ‘वारेन हेस्टिाग्स का सांड़' कहानी के माध्यम से मध्यवर्गीय समाज की स्थिति
का बड़ा ही यथार्थ वर्णन किया है। आधुनिकता के नाम पर हमने सामाजिक एवं मानवीय
मूल्यों को तहस-नहस कर दिया है। उदय प्रकाश रचित ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़' एक ऐसी ही कहानी है जिसमें उन्होंने लूट-खसोट और बेईमानी की
ऐसी दास्तान कही है जो नव-औपनिवेशिक मूल्य संकट के रूप में हमारे समाज और देश के
सामने है। उदय प्रकाश इस कहानी में प्लासी की लड़ाई (सन् 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराने वाले
ईस्ट इंडिया कंपनी के लार्ड क्लाइव की टिप्पणी के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि
लार्ड क्लाइव की तब की टिप्पणी मौजूदा दौर में उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि उस
समय -- "मैं सिर्फ यही कहूंगा कि अराजकता का ऐसा दृश्य, ऐसा भ्रम, ऐसी घूसखोरी और बेईमानी, ऐसा भ्रष्टाचार और ऐसा लूट-खसोट जैसी हमारे राज में दिखाई
दे रही है, वैसे किसी और देश में न
सुनी गई, न देखी गई। अचानक
धनाढ्यों की बेइंतहा दौलतपरस्ती ने विलासिता और भोग के भीषण रूप को चारों तरफ पैदा
कर दिया है। इस बुराई से हर डिपार्टमेंट का हर सदस्य प्रभावित है। हर छोटा मुलाजिम
ज्यादा से ज्यादा धन हड़पकर बड़े मुलाजिम या अधिकारी के बराबर हो जाना चाहता है।
क्योंकि वह यह जानता है कि संपत्ति और ताकत ही उसे बड़ा बना रही है ...कोई ताज्जुब
नहीं कि दौलत की इस हवस को पूरा करने वाले साधन इन लोगों के वे अधिकार हैं जो इन्हें
उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से प्रशासन चलाने के लिए दिए गए हैं। विडंबना है कि ये ‘साधन' सिर्फ रिश्वतखोरी जैसे भ्रष्ट आचरण के लिए ही नहीं लूट-खसोट, ठगी-जालसाजी के लिए भी इस्तेमाल हो रहे हैं।
इसकी मिसालें ऊपर के पदों पर बैठे लोगों ने कायम की हैं तो भला नीचे के लोग उसका
अनुसरण करने में नाकामयाब क्यों रहें? यह रोग सर्वव्यापी है। यह नागरिक, प्रशासन, पुलिस और फौज ही
नहीं लेखकों, कलमनवीसों और
व्यापारियों तक को अपनी चपेट में ले चुका है। और यही है वह बिंदु जहां ढाई सौ साल
पहले की कहानी आज की कहानी बनती है। इतिहास फिर से निरंतरता हासिल करता है और इस
सदी के एक महान कथाकार की पंक्यिां अमर हो जाती हैं कि सारे संसार में अनादिकाल से
आज तक बस एक ही कहानी रची गई है और वही बार-बार दोहराई जाती है। उसका रूप, उसका कलेवर बदल सकता है, पर मूल कथा वही है।''18
इस प्रकार उदय
प्रकाश ने अपनी कहानियों के माध्यम से एक तरफ जहां उपभोक्तावादी संस्कृति के
कुप्रभाव पर प्रकाश डाला वहीं इस संस्कृति का मध्यवर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव को बड़ी
ही संजीदगी से प्रस्तुत किया। आज़ाद भारत के इतिहास में उदय प्रकाश की कहानियां
पूरे सिस्टम के ऊपर सवाल उठाती हैं कि आजादी के इतने साल बाद भी मध्यवर्ग जो मेहनत
और ईमानदारी से जीवन व्यतीत करने की कोशिश करता है, उनके सामने पूंजीवादी शक्तियों ने लॉलीपॉप रख दिया और इसी
लॉलीपॉप को हासिल करने के लिए मध्यवर्गीय समाज उपभोक्तावादी संस्कृति का गुलाम
बनता जा रहा है।
संदर्भ सूची-
1. जोशी, ज्योतिष, ‘सृजनात्मकता
के आयाम’, उदय
प्रकाश पर एकाग्र, संस्करण
: 2017, नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या – XI
2. प्रकाश, उदय, ‘पॉल
गोमरा का स्कूटर’, संस्करण : 2010, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 37
3. प्रकाश, उदय, ‘पॉल
गोमरा का स्कूटर’, संस्करण : 2010, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 37-38
4. प्रकाश, उदय, ‘पॉल
गोमरा का स्कूटर’, संस्करण : 2010, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 38
5. शर्मा, डॉ. निरंजनदेव, ‘हमारा समय और उदय प्रकाश’, संपादक
- जोशी, ज्योतिष, सृजनात्मकता के आयाम, उदय प्रकाश पर एकाग्र, संस्करण : 2017, नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली, कुल
पृष्ठ संख्या -- 114-120, पृष्ठ संख्या -- 114
6. प्रो. जयमोहन, ‘उदय कहानियां : सर्जना की जांच, संरचना की पड़ताल’, अजय, डॉ. वीरेंद्र शीतल वाणी, अगस्त-अक्टूबर - 2012, कुल
पृष्ठ संख्या -- 44-51, पृष्ठ संख्या -45
7. प्रकाश, उदय, ‘उत्तर
आधुनिक उपभोक्तावाद’, कहानी संग्रह, दत्तात्रेय के दुख, संस्करण: 2006, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 42
8. प्रकाश, उदय, ‘विनायक
का अकेलापन’, दत्तात्रेय के दुख, संस्करण : 2006, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 43
9. प्रकाश, उदय, ‘मिलना-जुलना’, दत्तात्रेय
के दुख, संस्करण : 2006, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 44
10.
प्रकाश, उदय, ‘पीली छतरी वाली लड़की’, संस्करण
: 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 11
11. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 11
12. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 11-12
13. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 12
14. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 12
15. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 21
16. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या -- 22
17. प्रकाश, उदय, ‘पीली
छतरी वाली लड़की’, संस्करण : 2014, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 41
18. प्रकाश, उदय, ‘वारेन
हेस्टिंग्स का सांड़’, संस्करण : 2013, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 105
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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